शिवानन्दस्तोत्रपुष्पांजलिः

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

शिवानन्द

स्तोत्रपुष्पांजलिः

 

 

 

 

 

लेखक

श्री स्वामी ज्ञानानन्द सरस्वती

 

MEDITATE SERVE LOVE THE DIVINE LIFE SOCIETY

 

 

 

 

अनुवादिका

स्वामी गुरुवत्सलानन्द माता जी

 

 

 

 

 

 

 

 

प्रकाशक

 

डिवाइन लाइफ सोसायटी

पत्रालय : शिवानन्दनगर - २४९१९२

जिला : टिहरी-गढ़वाल, उत्तराखण्ड (हिमालय), भारत

www.sivanandaonlineorg, www.dlshq.org

 

 

 

 

 

प्रथम हिन्दी संस्करण : २०२४

 

( ,००० प्रतियाँ )

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

© डिवाइन लाइफ ट्रस्ट सोसायटी

 

HO 18

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

PRICE: 55/-

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

' डिवाइन लाइफ सोसायटी, शिवानन्दनगर' के लिए

स्वामी पद्मनाभानन्द द्वारा प्रकाशित तथा उन्हीं के द्वारा

'योग-वेदान्त फारेस्ट एकाडेमी प्रेस, पो. शिवानन्दनगर,

जि. टिहरी-गढ़वाल, उत्तराखण्ड, पिन २४९१९२' में मुद्रित

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م

 

 

 

समर्पणम्

 

 

 

 

 

स्वकीयहृदयगतसर्वविधभावपरिपूर्णं शतसंख्यकैः सुगन्धि-

 

पद्यकुसुमैः समलङ्कृतं शिवानन्दस्तोत्रपुष्पांजलि -

 

नामकं क्षुद्रपुस्तकमिदं भक्तिपूर्णमनसा

 

ब्रह्मनिष्ठस्य सकलजनकल्याणकारिणः

 

परमाराध्यजगद्गुरोः

 

श्रीशिवानन्दयोगिराजस्य

 

पादकमले स्वाह्लादानु -

 

भवाय तथाऽत्मशुद्धये

 

सादरं समर्पयामि

 

 

इति भवतां

विनयानतः

श्री ज्ञानानन्द स्वामी

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

Rectangle: Rounded Corners: परम श्रद्धेय गुरुदेव श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज
के संन्यास दीक्षा शताब्दी महोत्सव के पावन
अवसर पर प्रकाशित

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 


प्रकाशकीय

 

परम श्रद्धेय गुरुदेव श्री स्वामी शिवानन्दजी महाराज के संन्यास-दीक्षा शताब्दी महोत्सव के पावन अवसर पर, हम अत्यन्त हर्षपूर्वक 'शिवानन्द स्तोत्रपुष्पांजलि' नामक यह पुस्तिका प्रकाशित कर रहे हैं। इस पुस्तिका में संकलित सौ श्लोक वस्तुतः श्रद्धेय गुरुदेव के पावन चरणकमलों में पुष्पांजलि-स्वरूप ही हैं। इसका प्रत्येक श्लोक एक सुरभित पुष्प है जो श्री गुरुदेव के प्रिय शिष्य श्री स्वामी ज्ञानानन्दजी द्वारा उनके चरणारविन्द में अत्यन्त श्रद्धा एवं भक्तिपूर्वक अर्पित किया गया है। यह पुस्तिका गुरु-आराधना का साकार रूप है। अतः यह समस्त साधकों, और विशेषतया सद्गुरुदेव श्री स्वामी शिवानन्दजी महाराज के शिष्यों एवं भक्तों के लिए अत्यन्त मूल्यवान है।

 

प्रेरणाप्रद एवं भक्तिभावपूर्ण श्लोकों से युक्त, यह पुस्तिका दैनिक स्वाध्याय के लिए तथा पूजा-ध्यान के समय वाचन के लिए सर्वाधिक उपयुक्त है। हमें पूर्ण विश्वास है कि यह आपके लिए तथा आपके समान अन्य असंख्य साधकों-भक्तों के लिए अत्यधिक प्रेरणादायी एवं लाभप्रद होगी।

 

डिवाइन लाइफ सोसायटी

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

प्रस्तावना

 

एक सच्चे एवं धर्मनिष्ठ हिन्दू का जीवन पूजा-आराधना के भाव से परिव्याप्त होता है। इस उच्च भाव में प्रेम एवं कृतज्ञता की भावना समाहित होती है। कृतज्ञता एक ऐसी उदात्त एवं श्रेष्ठ भावना है जो मनुष्य के हृदय में सहज ही स्फुरित जाग्रत होती है। कृतज्ञता की यह भावना गहन श्रद्धा, प्रेम, समर्पण, दृढ़ निष्ठा एवं सतत स्तुति के रूप में अभिव्यक्त होती है। सच्ची भक्ति एवं असीम कृतज्ञता से युक्त हृदय, अपने इन उच्च भावों की अभिव्यक्ति के लिए अत्यन्त उत्कण्ठित होता है; उसकी प्रबल उत्कण्ठा का वर्णन कौन कर सकता है? केवल वही मनुष्य उस उत्कण्ठा को जान सकता है, उसका वर्णन कर सकता है जिसने अपने हृदय की गहराइयों में इसे स्वयं अनुभव किया है। इस जगत् में, मनुष्य को यदि किसी अन्य मनुष्य से कुछ प्राप्त होता है, तो वह उसके प्रति कृतज्ञता अनुभव करता है। जब मनुष्य संसार की भौतिक वस्तुओं-उपहारों, तथा आवश्यकता के समय सहायता प्राप्त होने पर कृतज्ञता के भाव से भर जाता है यद्यपि जगत् की ये वस्तुएँ-उपहार तथा सहायता आदि सीमित एवं अस्थायी होते हैं; तो एक साधक-भक्त अपने सद्गुरु से प्राप्त आध्यात्मिक सहायता, दिव्य ज्ञान एवं कृपा रूपी उपहारों के प्रति कितना अधिक कृतज्ञ अनुभव करेगा? सद्गुरु उसे शाश्वत आध्यात्मिक आनन्द का उपहार प्रदान करते हैं। वे अमृतत्व एवं अनन्त आनन्दमय अवस्था की प्राप्ति हेतु उसका मार्गदर्शन करते हैं। इस प्रकार शिष्य, शाश्वत कृतज्ञता एवं असीम प्रेम के मधुर सूत्र द्वारा अपने सद्गुरु से जुड़ जाता है।

 

सद्गुरु की कृपा से ही बद्ध जीवात्मा मुक्ति प्राप्त करती है। भारत में गुरु-शिष्य के मध्य अद्भुत एवं अद्वितीय सम्बन्ध का यही रहस्य है। यह आध्यात्मिक सम्बन्ध अत्यन्त अनूठा होता है तथा शिष्य द्वारा गुरु में परिपूर्ण दिव्यता का दर्शन ही इस सम्बन्ध का सारतत्त्व है।

 

अपने गुरु को भगवान् मानना, आध्यात्मिक जीवन का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। गुरु एवं भगवान् में किञ्चित् भी भेद नहीं करना, सच्चे शिष्यत्व हेतु एवं आध्यात्मिक विकास हेतु अनिवार्य आवश्यकता है। श्वेताश्वतर उपनिषद् घोषित करता है-

 

यस्य देवे परा भक्ति यथा देवे तथा गुरौ।

तस्यैते कथिता ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः ।।

 

जिस मनुष्य की भगवान् के प्रति परम भक्ति है, तथा इस प्रकार की उच्च कोटि की भक्ति अपने गुरु के प्रति भी है; ऐसे महापुरुष के समक्ष, समस्त शास्त्रों के दिव्य गूढ़ सत्यों का वास्तविक अर्थ स्वयमेव उद्घाटित हो जाता है (अध्याय -श्लोक २३)

 

इसी प्रकार, यह भी कहा जाता है कि गुरु का स्वरूप ध्यान का विषय है, उनके चरणकमल पूजनीय-आराधनीय हैं, उनके वचन शास्त्रों-सद्ग्रन्थों के वचनों के समान पावन हैं तथा उनकी कृपा ही मोक्ष का हेतु है। इसलिए गुरु-पूजा भी योग-साधना का एक अंग है। भगवद्-आराधना एवं भगवद्-स्तुति के समान ही गुरु-आराधना एवं गुरु-स्तुति की जाती है, क्योंकि शिष्य के लिए गुरु स्वयं भगवान् ही हैं। यह एक ऐसा आध्यात्मिक-अभ्यास है जो शिष्य के गुरु के साथ सम्बन्ध को सशक्त करता है, गुरु-कृपा की वृष्टि का हेतु बनता है तथा शिष्य में आध्यात्मिक चेतना को जाग्रत करता है।

 

यह सुन्दर शतश्लोकी पुस्तिका 'शिवानन्दस्तोत्रपुष्पांजलिः' एक शिष्य के अपने गुरु के प्रति आराधना एवं कृतज्ञता के भाव की ही अभिव्यक्ति है। ये सौ श्लोक परम विद्वान् लेखक श्री स्वामी ज्ञानानन्द सरस्वतीजी महाराज द्वारा, सद्गुरुदेव श्री स्वामी शिवानन्दजी महाराज के पावन चरणकमलों में आराधना एवं स्तुति-स्वरूप अर्पित किए गए हैं। एक परम्परानिष्ठ एवं धर्मनिष्ठ परिवार में जन्म लेने के कारण, श्री स्वामी ज्ञानानन्दजी हमारी संस्कृति की महान् परम्परागत विद्याओं में पूर्णतः दीक्षित हैं; वे केवल अत्यन्त धार्मिक प्रवृत्ति के हैं, अपितु भारतीय संस्कृति के महान् आदर्शों के प्रति गहन श्रद्धा से भी युक्त हैं। संस्कृत भाषा के प्रति उनका प्रेम तथा इस देवभाषा में उनकी प्रवीणता, दोनों ही उच्च कोटि के हैं। इसके साथ ही साथ, उनके हृदय में जीवन के आध्यात्मिक लक्ष्य की प्राप्ति की भी गहन उत्कण्ठा है, और यही उन्हें सद्गुरुदेव के पावन चरणों में तथा पतितपावनी माँ गंगा के तट पर स्थित उनके पवित्र धाम में ले आयी है। जिस क्षण उन्हें श्री गुरुदेव का दर्शन एवं सान्निध्य प्राप्त हुआ, उसी क्षण से उन्होंने स्वयं को श्री गुरुदेव के चरणों में पूर्ण समर्पित कर दिया है। वे गुरुदेव के ज्ञान-यज्ञ रूपी उच्च आध्यात्मिक मिशन हेतु अत्यन्त उत्साह एवं समर्पण भाव से निरन्तर कार्यशील हैं।

 

श्री स्वामी ज्ञानानन्द सरस्वतीजी में हमें सच्चे शिष्यत्व के एक उज्ज्वल उदाहरण के दर्शन होते हैं। वे ऐसे सत्-शिष्य हैं जो अपने गुरु के मिशन की सेवा में अहर्निश संलग्न हैं। अपने गुरु के महान् आध्यात्मिक कार्य की प्रगति हेतु अपनी सेवाएँ अर्पित करने के अतिरिक्त, वे अन्य कुछ नहीं जानते हैं। वे विश्राम भी नहीं करना चाहते हैं। वे कहते हैं, "सद्गुरुदेव श्री स्वामी शिवानन्दजी महाराज का सान्निध्य पाकर मेरा जीवन धन्य हो गया है। आनन्द-कुटीर ही मेरा स्वर्ग है। अत्यन्त कृपापूर्वक अपनी शरण में लेकर, श्री गुरुदेव ने मुझे सर्वोच्च आशीर्वाद प्रदान किया है। उन्होंने मेरे जीवन को आध्यात्मिक प्रकाश से आलोकित किया है। उनके पावन चरणकमलों में ही, मेरा परम धाम है; मेरा मोक्ष एवं कैवल्य-साम्राज्य है। उनकी सेवा ही मेरा ध्यान है। मेरे गुरुदेव की जय हो, जो मेरे लिए भगवान् शिव के साक्षात् स्वरूप हैं।"

 

श्री गुरुदेव के प्रति उनकी यह परम श्रद्धा एवं भक्ति, अनेकानेक बार विभिन्न सुन्दर श्लोकों में व्यक्त हुई है। इस पुस्तिका के श्लोक भी स्वामी ज्ञानानन्दजी की अद्वितीय गुरु-भक्ति एवं प्रेम की सहज अभिव्यक्ति ही हैं; ये श्लोक ऐसे सुन्दर पुष्प हैं जिन्हें वे अत्यन्त प्रेमपूर्वक श्री गुरुदेव के चरणकमलों में अर्पित करते हैं। इस पुस्तिका में संकलित श्लोक समस्त साधक-भक्त वृन्द के लिए अमूल्य निधि हैं। ये दैनिक साधना हेतु भी अत्यन्त उपयोगी हैं, क्योंकि इनमें गुरु-भक्ति एवं सच्चे शिष्यत्व का सारतत्त्व समाहित है। ये श्लोक एक ऐसे सच्चे शिष्य एवं साधक के दिव्य भावों से परिपूरित हैं, जो अपने गुरु की कृपा प्राप्त करने हेतु तीव्र आकांक्षा करता है, जिससे कि वह भव-बन्धन से मुक्त हो सके। इन श्लोकों का नियमित वाचन-स्वाध्याय, आध्यात्मिक पथ के पथिकों के लिए निःसन्देह अत्यन्त लाभप्रद होगा। ये श्लोक गहन भक्ति-भाव से ओतप्रोत हैं। ये हमें रोमांचित एवं प्रेरित करते हैं, हमें उन्नत करते हैं। ये हमारे भीतर प्रार्थना एवं आराधना का भाव जाग्रत करते हैं। इस पुस्तिका को समस्त साधकों के पूजा-स्थान एवं ध्यान-स्थान के समीप अवश्य स्थान दिया जाना चाहिए। इन श्लोकों के माध्यम से, श्री स्वामी ज्ञानानन्दजी ने साधक-जगत् को अपनी महती सेवा प्रदान की है। वे हार्दिक अभिनन्दन के पात्र हैं। " योग-वेदान्त फॉरेस्ट यूनिवर्सिटी वीकली" में क्रमिक रूप में प्रकाशित इन श्लोकों ने समस्त साधक-पाठक वृन्द का हृदय पहले ही जीत लिया है। मेरी शुभकामना है कि इस लघु पुस्तिका 'शिवानन्दस्तोत्रपुष्पांजलि' का प्रेमपूर्वक अभिग्रहण तथा व्यापक प्रसार हो; और वस्तुतः यह इस योग्य भी है।

 

मेरी परमपिता परमात्मा से प्रार्थना है कि वे इस पुस्तिका के सुयोग्य लेखक पर अपने दिव्य अनुग्रह एवं आशीर्वाद की विपुल वृष्टि करें।

 

शिवानन्दनगर ..१९५६                                                                                                               स्वामी चिदानन्द

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

प्राक्कथन

 

संस्कृत को देवभाषा कहा जाता है। यह अभिव्यक्ति के विविध माध्यमों में सर्वाधिक शुद्ध-पवित्र माध्यम है। इसके शब्दों का, उनके मूल धातुरूप में, वास्तविक अर्थ निहित होता है। संस्कृत एक गौरवमयी भाषा है। यह अत्यन्त मधुर एवं गरिमामयी भाषा है। भारत की अन्य भाषाओं ने संस्कृत के शब्द-भण्डार से ही मुख्यतः अपने शब्द लिए हैं। संस्कृत एक सुनम्य अर्थात् लचीली भाषा भी है।

 

संस्कृत भाषा के साथ पावनता का भाव जुड़ा हुआ है। संस्कृत का अध्ययन व्यक्ति के हृदय में एक उच्च कोटि के भाव को, भक्ति-भाव को जाग्रत करता है। प्रारम्भ में संस्कृत भाषा का प्रयोग केवल धार्मिक साहित्य के लिए ही किया जाता था। परन्तु, बाद में इसे अन्य शैक्षिक विषयों हेतु भी प्रयोग किया जाने लगा। एक समय ऐसा भी था जब संस्कृत भारतीयों के सामान्य वार्तालाप की भाषा थी। भारत के पूर्वकालीन राजा संस्कृत कवियों को प्रोत्साहित-सम्मानित करते थे और उस समय संस्कृत भाषा अत्यन्त उत्कर्ष पर थी। दुर्भाग्यवशात्, आज लोग संस्कृत को एक मृत भाषा मानने लगे हैं। नहीं, यह सत्य नहीं है। संस्कृत भाषा मृत नहीं हो सकती है। भारतीयों के हृदयों में संस्कृत अभी भी स्पन्दित होती है। एक भारतीय का संस्कृत भाषा के प्रति प्रेम कभी समाप्त नहीं हो सकता है।

 

इतना ही नहीं, पश्चिम के भी अनेक महान् विद्वान्, संस्कृत भाषा की महिमा एवं महानता के प्रति आकर्षित हुए हैं। संस्कृत भाषा में शोध कार्य हेतु, पाश्चात्य देशों के विभिन्न विश्वविद्यालयों में विशेष विभाग स्थापित किए गए हैं। आज संस्कृत भाषा में नवीन शोध की, इसके व्यावहारिक जीवन में प्रयोग की तथा इसे भारत की सामान्य भाषा बनाने की महती आवश्यकता है।

 

संस्कृत भाषा के प्रकाण्ड विद्वान्, श्री स्वामी ज्ञानानन्दजी महाराज, मनोहारी श्लोकों रूपी पुष्पों से बने इस पुष्पगुच्छ 'शिवानन्दस्तोत्रपुष्पांजलि' को सुधी पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं; इन श्लोकों में संस्कृत भाषा के सौन्दर्य एवं एक भक्त के हृदय के दिव्य भावों का समन्वय परिलक्षित होता है। उन्होंने अपनी इस रचना को अत्यधिक आनन्दप्रद बनाने तथा भारत की युवा पीढ़ी को संस्कृत भाषा की मनोहारिता-श्रेष्ठता से रोमांचित करने का विशेष प्रयास किया है। श्री स्वामीजी ने संस्कृत भाषा का एक मृत भाषा के रूप में नहीं, अपितु एक पूर्णतः जीवन्त भाषा के रूप में प्रयोग किया है, जो विद्वज्जनों द्वारा श्लाघनीय है। वे इसका अत्यन्त यथार्थ एवं व्यावहारिक रूप में प्रयोग करते हैं। उनके ये श्लोक, संस्कृत भाषा के शब्दों, शैली एवं विविध छन्दों पर उनके स्वामित्व की सहज अभिव्यक्ति हैं।

 

श्री स्वामी ज्ञानानन्दजी, सरल सरस शैली एवं सुन्दर शब्दावली-युक्त काव्य रचना के कारण, समस्त संस्कृत-प्रेमियों के लिए अत्यन्त सम्मान्य विद्वान् हैं। इन श्लोकों से यह स्पष्ट होता है कि वे संस्कृत काव्य-रचना के लिए आवश्यक समस्त योग्यताओं से सुसम्पन्न हैं। संस्कृत भाषा के विद्यार्थीवृन्द, स्वामीजी की प्रेरक-आकर्षक एवं सुन्दर रचनाओं के लिए सदैव उनके प्रति कृतज्ञ रहेंगे। मैं स्वामीजी के सभी सप्रयासों में परिपूर्ण सफलता की मंगलकामना करता हूँ।

 

शिवानन्दनगर २५..१९५६                                                                                           स्वामी कृष्णानन्द

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

Rectangle: Folded Corner: शिवानन्दस्तोत्रपुष्पांजलिः
 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 


शिवानन्दस्तोत्रपुष्पांजलिः

 

जयतु जगदुपास्यो जीविकारुण्यराशि-

र्नयविनयविवेकैः द्योतमानान्तरंगः

नियमयमपवित्रो दिव्यतेजोविलासः

प्रयतभविकशीलः श्रीशिवानन्दद्योगी ।।१।।

 

महान् योगी गुरुदेव श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज की सदैव जय हो जो विश्ववन्दनीय हैं, समस्त प्राणियों के प्रति करुणावान् हैं; जिनका हृदय विनय, विवेक एवं कोमलता से युक्त है, जिनका मन यम-नियम से अत्यन्त पवित्र है, जो दिव्य प्रकाश से विभासित हैं तथा सदैव विश्व-कल्याण हेतु प्रयत्नशील हैं।

 

नमस्ते गुरुदेवाय नमस्ते पुण्यमूर्तये

नमस्ते श्रीशिवानन्दमुनीन्द्राय महात्मने ।।२।।

 

सदाचारिता के मूर्तिमन्त रूप एवं समस्त महान् ऋषियों में अग्रगण्य गुरुदेव श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज को मेरा बारम्बार प्रणाम है।

 

करुणावरुणागारं तरुणारुणतेजसम्

शरणागतमन्दारं शिवानन्दं गुरुं भजे ।।३।।

 

मैं गुरुदेव श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज की सदैव आराधना करता हूँ जो करुणासिन्धु हैं, उदीयमान सूर्य सदृश देदीप्यमान हैं तथा जो अपने शरणागत जनों के लिए कल्पवृक्ष-सम हैं।

 

अत्यन्तनिर्मलात्मानं प्रत्यग्रप्रतिभान्वितम्।

श्रुत्यन्तबोधवाराशिं शिवानन्दं गुरुं भजे ।।४।।

 

मैं गुरुदेव श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज की वन्दना करता हूँ जिनका मन अत्यन्त पवित्र है, जिनकी बुद्धि अतीव कुशाग्र है तथा जो वेदान्त-ज्ञान के सागर हैं।

 

सर्वलोकसमाराध्यं शर्वनिर्लीनमानसम्

शर्वरीशाननं वन्दे शिवानन्दं महामुनिम् ।।५।।

 

जो समस्त विश्व द्वारा वन्दित हैं, जिनका मन सदैव भगवान् शिव में लीन है तथा जिनका मुख पूर्णचन्द्र सम विभासित है, उन महान् सन्त श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज की मैं आराधना करता हूँ।

 

वीतान्तसंसारगदार्दितानां

वेदान्तबोधौषधदानदीक्षम्

वन्दारुमन्दारममन्दकीर्ति

वन्दे शिवानन्दमहामुनीन्द्रम् ।।६।।

 

मैं महामुनीन्द्र श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज को साष्टांग प्रणिपात करता हूँ जो भवरोग से पीड़ित मनुष्यों को वेदान्त-ज्ञान रूपी औषधि प्रदान करने में सतत संलग्न हैं, जो अपने प्रणत-जनों के लिए दिव्य कल्पवृक्ष हैं तथा जिनका उज्ज्वल यश समस्त विश्व में व्याप्त है।

 

मन्दाकिनीतीरकुटीरवासं

मन्देतरानन्दकरं जनानाम्

वन्द्याकृतिं वर्ण्यगुणाम्बुराशिं

वन्दे शिवानन्दमहामुनीन्द्रम्।।७।

 

मैं महान् सन्त श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज की वन्दना करता हूँ जो गंगा नदी के तट पर स्थित एक कुटीर में निवास करते हैं, जो समस्त मनुष्यों को अत्यधिक आनन्द प्रदान करते हैं, जो श्लाघनीय गुणों के सागर हैं तथा जिनके दिव्य रूप की भक्तवृन्द अर्चना करते हैं।

 

चिदानन्दरूपं सदा चिन्तयन्तं

मुदाधारमोंकारमेवोच्चरन्तम्

भवाम्भोधिमन्नान् जनानुद्धरन्तं

शिवानन्दयोगीन्द्रमेवाश्रयेऽहम् ।।८।।

 

मैं महामुनीन्द्र श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज का शरणापन्न हूँ जो सदैव परमात्म-तत्त्व का ध्यान करते हैं, निरन्तर प्रणव का उच्चारण करते हैं, आनन्द के स्रोत हैं तथा जो भवसागर में निमन जनों के उद्धारकर्ता हैं।

 

अहो भाग्यमुत्कृष्टवेदान्ततत्त्वा-

न्यहोरात्रमस्मान् समुद्बोधयन्तम्

नवामन्दचैतन्यमुद्दीपयन्तं

शिवानन्दयोगीन्द्रमेवाश्रयेऽहम् ।।९।।

 

अहो! हम सबका परम सौभाग्य है कि हम महान् योगी श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज के चरणाश्रित हैं जो सदैव हमें वेदान्त-तत्त्व का ज्ञान प्रदान करते हैं तथा हममें नवीन ऊर्जा एवं उत्साह का संचार करते हैं।

 

संसाराम्भोनिधिनिपतितान् तत्तटं प्रापयन्तं

कंसारातिं कलुषशमनं सन्ततं चिन्तयन्तम्

तं सारान्तःकरणममलं श्रीशिवानन्दमूर्ति

पुंसां श्रेष्ठं पुरुगुणनिधिं पुष्टपुण्यं भजेऽहम् ।।१०।।

 

मैं महान् सन्त श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज की वन्दना करता हूँ जिनका हृदय अतीव विशाल एवं पवित्र है, जो भवसागर में निमग्न जनों के उद्धार हेतु सतत संलग्न हैं, जो सदैव सर्वपापहर्ता भगवान् कृष्ण का ध्यान करते हैं, जो सभी मनुष्यों में श्रेष्ठ हैं, समस्त गुणों के धाम हैं तथा सदाचार के मूर्तिमन्त रूप हैं।

 

नित्यानन्दं निरुपमतमं नित्यमालोकभाजां

प्रत्यग्रार्द्र प्रकटसुखदाभाषणैर्वर्धयन्तम्

प्रत्यक्षोद्यद्दिनमणिनिभं श्रीशिवानन्दमूर्ति

श्रुत्यन्तज्ञं श्रुतिसुखपदं भावये विश्ववन्द्यम् ।।११।।

 

जो सदैव अपनी मधुर एवं कृपापूर्ण वाणी से भक्तों को आनन्द प्रदान करते हैं, जो उदीयमान सूर्य सम तेजस्वी हैं, वेदान्त-दर्शन में निष्णात हैं, सद्गुणों के भण्डार हैं, उन विश्ववन्दित महान् सन्त श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज की मैं आराधना करता हूँ।

 

नमः परमकारुण्यशालिने दिव्यमूर्तये

शिवानन्दमुनीन्द्राय लौकेकगुरवे नमः ।।१२।।

 

मैं महामुनीन्द्र विश्वगुरु श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज को बारम्बार प्रणाम करता हूँ जिनकी करुणा असीम है तथा जो दिव्यता के मूर्तिमन्त रूप हैं।

 

अस्मत्परमभाग्यैकफलायितविलोकनम्।

गुरुदेवं शिवानन्दमुनिवर्यमुपास्महे ।।१३।।

 

हम गुरुदेव श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज की वन्दना करते हैं। अपने परम सौभाग्य के फलस्वरूप ही हम उनका दर्शन प्राप्त कर रहे हैं।

 

सर्वज्ञं सततं समस्तविबुधश्रेणीसमाराधितं

भूतव्रातहितं गिरीन्द्रनिलयं संगीतलास्यप्रियम्

गंगासक्तमनस्कमुत्कटतपोनिष्ठं शिवानन्दस -

द्योगीन्द्रं मतिमन्तमीश्वरसमं वन्दे जगद्देशिकम् ।।१४।।

 

मैं महान् सन्त श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज की आराधना करता हूँ जो भगवान् शिव के समान सदैव तपस्या में लीन हैं, समस्त विद्वत्-जनों के आराध्य हैं, सर्वज्ञ हैं, हिमालय में वास करते हैं तथा माँ गंगा के प्रति अत्यधिक अनुरक्त हैं, संगीत एवं नृत्य जिन्हें प्रिय है तथा जो समस्त प्राणियों के प्रति समभाव रखते हैं।

 

उत्फुल्लाम्बुजकोमलाननगलत्कारुण्यमन्दस्मितं

कल्पानोकहकल्पमाश्रितजनप्रोद्यत्कृपाकन्दलम्

अल्पान्योत्तमसद्गुणैकनिलयं दिव्यं शिवानन्दस-

द्योगीन्द्रं भवसिन्धुमन्नशरणं वन्दे मताधि

 

जो भवसागर में निमग्न जनों के एकमात्र आश्रय हैं, सद्गुणों के भण्डार हैं, जो अपने भक्तों को कल्पवृक्ष सदृश समस्त इच्छित वस्तुएँ प्रदान करते हैं, जिनके सुपुष्पित कमल के समान मनोहारी मुख पर सदैव करुणापूर्ण मुस्कान नृत्य करती है, उन दिव्य योगीन्द्र श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज की मैं वन्दना करता हूँ।

 

यः प्रत्यग्रविशिष्टतत्त्वभरितं दिव्योपदेशामृतं

लोकेभ्यस्सततं ददाति दुरितं निश्शेषमुन्मूलयन्

नित्यानन्दपदावबोधनरतिं मत्र्येषु संवर्द्धयन्

स्तुत्यर्होत्र विभाति सन्मतशिवानन्दाय तस्मै नमः ।।१६।।

 

जो श्लाघनीय गुणों के सागर हैं, जो मनुष्यों में शाश्वत आनन्द की प्राप्ति हेतु तीव्र आकांक्षा उत्पन्न करते हैं तथा जिनके परम सत्य से परिपूरित अमृतोपदेश संसार के कष्टों का समूल नाश करने वाले हैं, उन महान् सन्त श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज को बारम्बार प्रणाम है।

 

यं सर्वे समुपासते सविनयं सर्वेशतुल्यं सदा

यस्यान्यादृशवैभवस्य चरितं गायन्ति लोका मुदा

येनाविष्कृतदिव्यजीवनसभा संस्थापिता भूतले

तं पुण्याकृतिमुत्तमं हृदि शिवानन्दं सदा भावये ।।१७।।

 

मैं सदैव श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज का ध्यान करता हूँ जो समस्त मनुष्यों द्वारा ईश्वर सम वन्दित हैं, जिन्होंने दिव्य जीवन संघ की स्थापना की है तथा जिनके अनुपम उज्ज्वल जीवनचरित का गुणगान सर्वत्र प्रसन्नतापूर्वक किया जाता है।

 

यस्यानुत्तमकोमलाननगलत्कारुण्यमन्दस्मिते

नानालोकनिवासिनो जनगणा हृष्यन्ति मग्नाशयाः

यं संसारसमुद्रमग्नशरणं संसेव्य सर्वे जना

स्सानन्दं निवसन्ति सन्मतशिवानन्दाय तस्मै नमः ।।१८।।

 

गुरुदेव श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज को साष्टांग प्रणिपात है जिनका मुख असीम करुणा एवं हृदय की पावनता को अभिव्यक्त करती मुस्कान से सुशोभित है, जिनका सान्निध्य पाकर विभिन्न देशों के निवासी हर्षित होते हैं, जो भवसागर में निमग्न जनों के एकमात्र आश्रय हैं तथा जिनकी सेवा करके भक्तवृन्द अत्यधिक आनन्द प्राप्त करते हैं।

 

यद्वक्त्राम्बुजदर्शनेन कुमतिस्तूर्ण सुशीलो भवे -

द्यद्वाक्यामृतमापिबन् जडजनः क्षिप्रं त्यजेन्मन्दताम्

यद् ध्यानोत्सुकभक्तलोकनिवहो मोक्षायने संचरे-

त्तस्मै सद्गुरवे नमोस्त्विति शिवानन्दाय दिव्यर्षये ।।१९।।

 

मैं दिव्यर्षि श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज की आराधना करता हूँ जिनके दर्शन मात्र से दुष्ट मनुष्य सज्जन बन जाता है, जिनके वचनामृत का पान करके मन्दबुद्धि भी ज्ञानवान् हो जाता है तथा जिनका ध्यान कर सच्चा साधक मोक्ष-मार्ग पर उत्तरोत्तर प्रगति करता है।

 

यस्मिन् विस्मितमानसास्सुमनसस्सन्दर्शनाकांक्षिण-

स्सामोदं समुपागता नुतिसुमस्रग्वर्षणं कुर्वते

यस्यानन्दकुटीरवासकुतुकादायान्ति नानाजना

दिव्यर्षिप्रवराय सन्मतशिवानन्दाय तस्मै नमः ।।२०।।

 

जिनके दर्शन एवं सान्निध्य पाने की आकांक्षा से सज्जनवृन्द आनन्द कुटीर आते हैं तथा विस्मित नेत्रों से निहारते हुए अपने पवित्र भावों से गुम्फित स्तुति-मालाओं की जिन पर वर्षा करते हैं, उन महान् सन्त गुरुदेव श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज को बारम्बार प्रणाम है।

 

यद्वक्त्राम्बुजनिस्सृतामितसुधासूक्तिप्रवाहोत्कर -

प्रोद्भूताधिकलिप्सया नरगणा यं सर्वदोऽऽपासते

येनाशास्यगुणेन दत्तमखिलं वेदान्ततत्त्वं मुदा

सर्वेभ्यस्सकलर्षिसत्तमशिवानन्दाय तस्मै नमः ।।२१।।

 

महामुनीन्द्र श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज को साष्टांग प्रणिपात है जिन्होंने वेदान्त के उच्चादर्शों का अखिल विश्व में प्रचार किया है तथा जिनके मुखकमल से निःसृत अमृतोपदेश के अजस्र प्रवाह से अधिकाधिक आनन्द प्राप्त करने की अभिलाषा से भक्तवृन्द जिनकी सदैव उपासना करते हैं।

 

यद्वाक्यामृतमाधुरीगुणगणानाकर्ण्य दूराज्जना-

स्सर्वाण्याशु विसृज्य सन्ततमृषीकेशं समायान्ति ते

वैकुण्ठोपमपुण्यभूतलमिदं दृष्ट्वा कृतार्थाश्चिरं

यत्पादं समुपासते शिवशिवानन्दाय तस्मै नमः ।।२२।।

 

जिनकी मधुर अमृत वाणी से आकृष्ट हो कर मनुष्य सुदूर प्रदेशों से ऋषिकेश आते हैं तथा वैकुण्ठ सम पवित्र इस स्थान के दर्शन से कृतार्थ हो कर जिनके चरणों की चिरकाल तक आराधना करते हैं, उन महर्षि श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज को मैं प्रणाम करता हूँ।

 

यस्यान्यादृशवैभवस्य चरितं सल्लोककर्णामृतं

यद्दिव्याकृतिदर्शनं सुकृतिभिर्लभ्यं शुभोदर्कदम्

यन्नामश्रवणं समस्तजनतासंसारतापापहं

साष्टांगं प्रणमामि तं शिवशिवानन्दं सदानन्ददम् ।।२३।।

 

गुरुदेव श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज को साष्टांग प्रणिपात है जो शाश्वत आनन्द प्रदाता हैं, जिनके अनुपम उज्ज्वल जीवनचरित का श्रवण सज्जनवृन्द के लिए अमृततुल्य है, जिनके दिव्य स्वरूप का दर्शन वह समृद्धि प्रदान करता है जो केवल पुण्यशील व्यक्तियों को ही प्राप्त होती है तथा जिनके नाम के श्रवण मात्र से समस्त मनुष्यों के कष्टों का नाश होता है।

 

नित्यानन्दमशेषजीविनिवहेष्वत्यन्तमुत्पादयन्

स्तुत्यानर्घविशिष्टशीलनिलयः प्रौढप्रभाभास्वरः

प्रत्यग्रप्रचुरप्रभावविभवः श्रुत्यन्तबोधाकरो

नुत्यर्हो जयताद् जगद्गुरुशिवानन्दः सदासेवितः ।।२४।।

 

जो स्तुत्य हैं, सज्जनवृन्द द्वारा सदा सेवित हैं, जो समस्त मनुष्यों को नित्यानन्द प्रदान करते हैं, समस्त सद्गुणों के धाम हैं, दिव्य आभा से सम्पन्न हैं, जो श्रेष्ठ मानवीय आदर्शों का विश्व के कोने-कोने में प्रचार करने की अद्वितीय क्षमता रखते हैं, वेदान्त ज्ञान के सागर हैं, उन जगद्गुरु श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज की जय हो !

 

प्रत्यक्षेश्वरसन्निभं प्रतिदिनं प्रत्यग्रतत्त्वोत्सुकं

प्रत्यूहप्रकरान्धकारदलनप्रद्योतनप्रक्रमम्

प्रत्यासन्नशुभप्रकर्षपिशुनालोकप्रदं देहिनां

प्रत्युत्पन्नमतिं जगद्गुरुशिवानन्दं सदा भावये ।।२५।।

 

मैं सदैव जगद्गुरु श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज का ध्यान करता हूँ जो ईश्वर की प्रतिमूर्ति हैं, परम सत्य के गहन चिन्तन में नित्य लीन हैं, जो कुशाग्र बुद्धि से सम्पन्न हैं, सूर्य के समान साधकों के अज्ञानान्धकार का नाश करते हैं तथा जिनका दर्शन भक्तों के लिए सुख-समृद्धि का सूचक है।

 

निस्तन्द्रं निरवद्यकर्मनिरतं निस्स्वार्थसेवापरं

निस्तकै निगमान्तसारपठनान्निष्पन्नबोधोदयम्

निस्तुल्यं निखिलाभिवन्द्यमनघं निर्लिप्तमाशागणैः

प्रस्तुत्यं सुगुणाकरं शिवशिवानन्दं सदा भावये ।। २६ ।।

 

जो कर्मठतापूर्वक निःस्वार्थ सेवा में सतत संलग्न हैं, वेदान्त के गहन अध्ययन से निष्पन्न बोध से सम्पन्न हैं, जिनके समान कोई अन्य नहीं है, जो समस्त विश्व द्वारा वन्दित हैं, परम पवित्र हैं, आशा-तृष्णा से सर्वथा मुक्त हैं तथा जो श्लाघनीय गुणों के सागर हैं, उन महान् सन्त श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज की मैं सदैव आराधना करता हूँ।

 

कल्याणालयमद्भुतामितगुणाम्भोधिं विशालाशयं

तुल्यापेतसमज्ञमुत्कटतपोनिष्ठं प्रसन्नाननम्

शल्यावेशवशंवदान् जनचयानाश्वासयन्तं सदा-

सल्लापामृतसेचनैश्शिवशिवानन्दं सदा भावये ।। २७ ।।

 

मैं सदैव सद्गुरु श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज का ध्यान करता हूँ जो कल्याण के धाम हैं, अनन्त सद्गुणों के सागर हैं, जिनका हृदय अतीव विशाल है, जिनकी ख्याति अतुलनीय है, जो उत्कट तपोनिष्ठ हैं, जिनका मुख मुस्कान से सुशोभित है तथा जो भवपाश में फँसे मनुष्यों को अपने अमृतोपदेश से सान्त्वना प्रदान करते हैं।

 

कल्याणानां निधानं कलिमलशमनं सच्चिदानन्दलीनं

तुल्यापेतप्रभावप्रकरविलसनाद् द्योतिताशावकाशम्

शल्यावेशादशेषान् सदयमविरतं पालयन्तं स्वसूक्त्या -

वल्या पीयूषवर्षेरिव भजत शिवानन्दयोगीन्द्रमेनम् ।।२८।।

 

जो समस्त सद्गुणों के मूर्तिमन्त रूप हैं, कलियुग के दोषों का नाश करने में सक्षम हैं, सदैव सच्चिदानन्द में लीन हैं, जो अपने अनुपम प्रभाव से अखिल विश्व को प्रकाशित कर रहे हैं तथा जो करुणापूर्वक अपने उपदेशामृत की वर्षा करके भवसागर में निमग्न जनों की सतत रक्षा करते हैं, ऐसे योगीन्द्र श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज की आप सभी आराधना करें।

 

वेदान्तारामभूमावविरलविलसत्तत्त्वसूनप्रकाण्डा-

न्यास्वाद्यास्वाद्य हृद्यं प्रणवमयमहागीतमेवालपन्तम्

आकृष्टानेकलोकं मुनिविकिरपिक श्रेष्ठवद्राजमानं

वन्दे वन्दारुवृन्दार्चितचरणयुगं श्रीशिवानन्दमेनम्।।२९।।

 

मैं गुरुदेव श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज की वन्दना करता हूँ जिनके पावन चरणों की भक्तवृन्द सदैव अर्चना करते हैं तथा जो मुनि-रूपी पक्षियों में श्रेष्ठ कोकिल पक्षी सदृश वेदान्त-उद्यान के तत्त्व-पुष्पों की मधु का अनेकों बार आस्वादन कर प्रणव के मधुर नाद से समस्त विश्व को अपनी ओर आकर्षित कर रहे हैं।

 

कारुण्यालोकसंभावितजननिवहं नित्यमालोकभाजां

कालुष्यावेशनाशोत्सुकमखिलजनाशास्यदिव्यप्रभावम्

कामक्रोधादिहीनं निजमनसि जगत्साक्षिणं वीक्षमाणं

काष्ठान्तोदीर्णकीर्तिं हृदि भजत शिवानन्दमानन्दमूर्तिम् ।। ३० ।।

 

योगीन्द्र श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज की सभी आराधना करें जो आनन्द के मूर्तिमन्त रूप हैं, अपनी करुणापूर्ण दृष्टि से भक्तवृन्द में नवीन ऊर्जा एवं उत्साह का संचार करते हैं, उनके पापों का नाश करने हेतु जो सदैव उत्सुक हैं, समस्त मनुष्यों द्वारा वन्दित हैं, काम-क्रोधादि से सर्वथा मुक्त हैं, जो अपने हृद्देश में परम पुरुष का दर्शन करते हैं तथा जिनका उज्ज्वल यश अखिल विश्व में व्याप्त है।

 

नानालोकाभिवन्द्यं निरवधिनिगमाधीतिलब्धावबोधम्

मानातीतानुभावं महितगुणगणोदारकेदारभूतम्

दीनापीनानुकम्पातरलितमनसं दिव्यतेजोविलासम्

ध्यानालीनान्तरंगं हृदि भजत शिवानन्दयोगीन्द्रमेनम् ।। ३१ ।।

 

जो विश्व के विभिन्न भागों से आए भक्तवृन्द द्वारा वन्दित हैं, अनेक शास्त्रों के विशद अध्ययनोपरान्त प्राप्त ज्ञान से सम्पन्न हैं, जिनकी कीर्ति अनन्त है, जो समस्त सद्गुणों के भण्डार हैं, जिनका हृदय दीन-दुःखियों के कष्ट देख कर द्रवित हो जाता है, जो दिव्य तेज से विभासित हैं, गहन ध्यान में लीन हैं, ऐसे योगीन्द्र श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज की सभी वन्दना करें।

 

सौमुख्यं सन्ततं सज्जननिवहसमाशास्यसत्कर्मनिष्ठा

वैमुख्यं पापकृत्येष्वखिलपतिपदाम्भोजभक्तिप्रकर्ष :

इत्येवं दिव्यभव्यप्रकटगुणगणाम्भोधिरानन्दमूर्तिः

स्तुत्यर्हानर्घशीलो जयति गुरुवरः श्रीशिवानन्दयोगी ।।३२।।

 

महान् तपस्वी गुरुदेव श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज की जय हो जो सदैव स्नेहशील हैं, सतत ऐसे सत्कार्यों में संलग्न हैं जिनकी सज्जनवृन्द प्रंशसा करते हैं, जो दुष्कृत्यों से सर्वथा विमुख हैं, जिनका प्रभु-चरणों में दृढ़ अनुराग है, जो भव्य सद्गुणों के सागर हैं एवं दिव्य आनन्द के मूर्तिमन्त रूप हैं।

 

लोकक्षेमाय नित्यं निजमनसि जगन्नायकं प्रार्थयन्तम्

शोकक्षामाय नृणां समुचितसुपथान् सन्ततं दर्शयन्तम्

स्तोकव्याहारपानाशनभजनगुणान् बाढमुद्बोधयन्तम्

योगासीनं महान्तं हृदि भजत शिवानन्दयोगीन्द्रमेनम्।।३३।।

 

जो सदैव लोक-कल्याण के लिए भगवान् से प्रार्थना करते हैं, सांसारिक मनुष्यों के दुःखों का शमन करने हेतु उन्हें अपने सदुपदेशों द्वारा उचित मार्गदर्शन प्रदान करते हैं, साथ ही उन्हें आचार-व्यवहार, संयमित आहार, मितभाषण सम्बन्धी निर्देश देते हैं तथा जो नित्य योगारूढ़ हैं, उन महान् सन्त श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज की सभी आराधना करें।

 

वेदान्तोत्कृष्टतत्त्वान्यखिलजनगणान् नित्यमुक्त्वा नितान्तम्

मोदावेशप्रकाशप्रकरमविरतं गाढमुत्पादयन्तम्

सादापेतं सुकर्माण्यनवरतमरं कर्तुकामं निकामम्

लोकाचार्यं मुनीन्द्रं हृदि भजत शिवानन्दमानन्दकन्दम् ।।३४।।

 

जगद्गुरु श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज की वन्दना करें जो आनन्द के स्रोत हैं, जन-जन में वेदान्त के परमानन्दप्रदायक उच्च आध्यात्मिक सत्यों के प्रचार में सतत संलग्न हैं, जो सदैव अथक रूप से सत्कार्य करने को समुत्सुक हैं।

 

कारुण्यालोकजालैस्सकलजनचयान् नित्यमाह्लादयन्तम्

कालुष्याशेषविध्वंसनविहितमतिं विश्वलोकाभिवन्द्यम्

कामाद्युग्रारिहिंसानिपुणमनुपमामेयदिव्यप्रभावम्

सीमातीतानुकम्पं हृदि भजत शिवानन्दमानन्दमूर्तिम् ।। ३५ ।।

 

जो आनन्द के मूर्तिमन्त रूप हैं, अपनी कृपापूर्ण दृष्टि से समस्त मनुष्यों को अत्यधिक आह्लादित करते हैं, जो समस्त विश्व से पापों को विध्वंस करने हेतु दृढ़संकल्पित हैं, काम-क्रोधादि शत्रुओं के नाश में निपुण हैं, जिनका अनुपम दिव्य प्रभाव है तथा जिनकी करुणा असीम है, उन विश्ववन्दित महान् सन्त श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज की सभी आराधना करें।

 

लोकक्षेमोत्सुकमविरतं मानवानां कृपार्दा -

लोकस्तोमैरमितकुतुकं वर्धयन्तं नितान्तम्

शोकच्छेदे भवगदजुषामुद्यतं दिव्यभव्या-

लोकव्रातस्फुरितवपुषं श्रीशिवानन्दमीडे ।। ३६ ।।

 

मैं श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज की वन्दना करता हूँ जो समस्त विश्व के कल्याण हेतु सदैव समुत्सुक हैं, अपने करुणाशील हृदय एवं कृपापूर्ण दृष्टि से समस्त मनुष्यों को असीम आनन्द प्रदान करते हैं, भवरोगजनित दुःखों के नाश हेतु समुद्यत हैं तथा जो दिव्य आभा से सम्पन्न हैं।

 

वेदप्राज्ञं विमलमनसं विश्वलोकाभिवन्द्यं

भेदप्रज्ञारहितमनिशं ब्रह्मलीनान्तरङ्गम्

वीतक्लेशं विविधजनताशर्मसन्धानकृत्य -

व्रातस्थेमश्रमकरमलं श्रीशिवानन्दमीडे ।। ३७।।

 

मैं गुरुदेव श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज की वन्दना करता हूँ जो समस्त वेदों में निष्णात हैं, जिनका मन अत्यन्त पवित्र है, जो समस्त विश्व द्वारा वन्दित हैं, सदैव समदृष्टा हैं, जो परम तत्त्व में प्रतिष्ठित हैं तथा जो अपने शरीर की आवश्यकताओं एवं कष्टों के विषय में चिन्तन नहीं करते हुए दीन-दुःखियों को प्रसन्नता प्रदान करने में सतत संलग्न हैं।

 

मन्दस्मेराननसमुदितात् सूक्तिपीयूषधारा-

वृन्दस्यन्दादखिलमनुजान् भक्तिमार्गं नयन्तम्

कन्दर्पारिं कलुषशमनं चिन्तयन्तं प्रवृद्धा -

 नन्दस्वान्तं विशदयशसं श्रीशिवानन्दमीडे ।। ३८।।

 

जो अपने मुस्कराते मुख से अमृतोपदेश के अजस्र प्रवाह द्वारा समस्त मनुष्यों को भक्ति का मार्ग दिखलाते हैं, जो कल्मषहारी भगवान् शिव का निरन्तर चिन्तन करते हैं, जो सदैव आनन्द से परिपूर्ण हैं एवं अत्यन्त यशस्वी हैं, ऐसे सद्गुरुदेव श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज को मैं साष्टांग नमन करता हूँ।

 

ओमित्येकाक्षरसविरलामोदपूर्वं जपन्तं

भूमीन्द्राद्यैरपि शुभगणायान्वहं सेव्यमानम्

जैमिन्युक्तिप्रवचनरतं सात्त्विकोदारकर्म -

स्थेमीभूतं भुवनविदितं श्रीशिवानन्दमीडे ।। ३९।।

 

विश्वविख्यात महान् सन्त श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज को मेरा साष्टांग नमन है जो अत्यन्त आनन्दपूर्वक निरन्तर प्रणव का जप करते रहते हैं, राजा-महाराजा भी सांसारिक समृद्धि की लालसा से जिनकी नित्य सेवा करते हैं, जो जैमिनि ऋषि के दिव्य ज्ञानोपदेश के प्रचार में सतत संलग्न हैं तथा जो सत्कार्यों में सदैव रुचि लेते हैं।

 

निरर्गलविनिर्गलन्निगमसूक्तिसारामृतै -

र्निरस्तनिखिलामयं निशितशेमुषीवैभवम्

निरन्तरविनिस्सृतामितकृपाकुलालोकनं

विरक्तजनसत्तमं शिवमुनीन्द्रमेवाश्रये ।।४० ।।

 

जिन्होंने अपने उपदेशामृत के अजस्त्र प्रवाह से मनुष्यों की समस्त आधि-व्याधियों का नाश कर दिया है, जो अत्यन्त कुशाग्र बुद्धि से सम्पन्न हैं, जो भक्तों पर अपनी करुणापूर्ण दृष्टि से निरन्तर कृपा की वर्षा कर रहे हैं तथा जो वैराग्यवान् महापुरुषों में सर्वश्रेष्ठ हैं, उन योगीन्द्र श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज का मैं आश्रय ग्रहण करता हूँ।

 

समस्तजनपूजितं शमदमादिभिश्शोभितं

सुमर्त्यगणवत्सलं सुमधुरोत्किपीयूषदम्

अमर्त्यतटिनीतटे शुभकुटीरवासप्रियं

नमज्जननिषेवितं शिवमहर्षिमेवाश्रये ।।४१।।

 

मैं महामुनीन्द्र श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज का शरणापन्न हूँ जो समस्त विश्व द्वारा वन्दित हैं, शमदमादि की आभा से सम्पन्न हैं, गुणी जनों के श्रद्धास्पद हैं, जो अपने अमृतोपदेश से मनुष्यों को कृतार्थ करते हैं, जिन्हें माँ गंगा के तट पर स्थित अपने शान्त-प्रशान्त कुटीर में निवास करना अत्यन्त प्रिय है तथा भक्तवृन्द जिनकी नित्य प्रेमपूर्वक सेवा करते हैं।

 

विशालतरवीक्षणं विशदकीर्तिपात्रं त्रयी-

विशारदमुदारसच्चरितमद्भुतालोकनम्

विशांपतिसमर्चितं विषयबन्धहीनं सदा

विशाखपितृसेवकं शिवमुनीन्द्रमेवाश्रये ।।४२।।

 

जिनका दृष्टिकोण अत्यन्त विशाल एवं उदार है, सुयश अतुलनीय है, जो वेदान्त-दर्शन में निष्णात हैं, जिनका उज्ज्वल जीवनचरित है, राजा-महाराजा भी जिनकी अर्चना-आराधना करते हैं, जो प्रथम दर्शन में ही भक्तवृन्द का मन मोह लेते हैं, जो विषयासक्ति से सर्वथा मुक्त हैं तथा सदैव भगवान् शिव का ध्यान करते हैं, ऐसे योगीन्द्र श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज का मैं शरणापन्न हूँ।

 

सरोजसदृशाननं सरलकोमलालापिनं

विरोचनसुरोचिषं विरतलौकिकाशाचयम्

परोपकृतितत्परं परिणतात्मविद्याबलं

प्ररोहदमितादरं शिवमुनीन्द्रमेवाश्रये ।। ४३ ।।

 

मैं महामुनीन्द्र श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज की भक्तिभावपूर्वक शरण ग्रहण करता हूँ जिनका मुख प्रफुल्लित कमल के समान मनोहारी है, जिनकी वाणी मधुर है, जो सूर्य के समान दीप्तिमन्त हैं, समस्त सांसारिक बन्धनों से पूर्णतया मुक्त हैं, जो परोपकार हेतु सदैव समुत्सुक हैं तथा अध्यात्म-विद्या के बल से सुसम्पन्न हैं।

 

समस्तजनसञ्चयं सततमात्मबोधोदयात्

समञ्जसगुणाकरं भुवि विधातुकामः स्वयम्

श्रमप्रकरमुत्कटं प्रकटमेव कुर्वन् भृशं

यमप्रसरभास्वरः शिवगुरुश्चिरं राजताम् ।।४४।।

 

जो संसार के सभी मनुष्यों को आत्मज्ञान प्राप्ति के माध्यम से समस्त सदुणों से सम्पन्न बनाने के इच्छुक हैं, जो इस निःस्वार्थ सेवा में सतत संलग्न हैं तथा जो आत्मसंयम की प्रभा से विभासित हैं, ऐसे महान् सन्त श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज चिरन्तन देदीप्यमान रहें।

 

निरन्तरविनिर्गतामृतसमानसूक्तैस्सदा

निरस्तनिखिलामयं निगमराशिपारङ्गतम्

निरङ्कुशमतिं नृणां कुशलमार्गसन्दर्शकं

निरर्घगुणसागरं शिवयतीन्द्रमेवाश्रये ।। ४५ ।।

 

मैं महामुनीन्द्र श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज का शरणापन्न हूँ जो अपने अमृतोपदेश के अजस्र प्रवाह द्वारा मनुष्यों के समस्त दुःखों का नाश करने में सक्षम हैं, जो समस्त शास्त्रों में निष्णात हैं, उन्मुक्त प्रज्ञाप्रवाह से सम्पन्न हैं, साधकों के कुशल मार्गदर्शक हैं तथा जो समस्त सद्गुणों के सागर हैं।

शिवानन्दस्तोत्रपुष्पांजलिः

 

अमर्त्यतटिनीतटे समुपविष्टमाराधना-

क्रमप्रवचनोत्सुकं प्रणतशिष्यसंसेवितम्

अमन्दधिषणाबलं सकलसंशयोन्मूलने

समर्थमखिलेडितं शिवयतीन्द्रमेवाश्रये ।। ४६ ।।

 

 

जो गंगा नदी के तट पर विराजमान हो मनुष्यों को भगवप्रेम एवं भगवद्भक्ति हेतु प्रेरित करते हैं, जो सदैव विनम्र शिष्यवृन्द द्वारा सेवित हैं, जिनकी बुद्धि अतीव प्रखर है, जो समस्त संशयों के निवारण में समर्थ हैं तथा अखिल विश्व द्वारा वन्दित हैं, उन योगीन्द्र श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज के पावन चरणकमलों का मैं आश्रय लेता हूँ।

 

अवाच्यकदनास्पदाद् भवगदाज्जनान् रक्षितुं

नवायननिरीक्षणे कृतमतिं जगद्देशिकम्

दिवानिशमविश्रमं सकललोकसेवाकरं

शिवाख्यगुरुसत्तमं भविकशीलमेवाश्रये ।।४७ ।।

 

मैं जगद्गुरु श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज के पावन चरणकमलों का आश्रय लेता हूँ जिनका स्वभाव अति मृदुल है, जो भवसागर में निमग्न जनों के उद्धार हेतु नवीन मार्गों की खोज में अपना सम्पूर्ण समय व्यतीत करते हैं तथा जो अश्रान्त रूप से कर्मठतापूर्वक विश्वसेवा में सतत संलग्न हैं।

 

सर्वदा सकललोकसेवनपरायणं परमपावनं

सर्वदाननिरतं कृपाकुलविलोकनं विमलभावनम्

शर्वचिन्तननितान्तलीनहृदयं समस्तदुरितापहं

शर्वरीशसदृशाननं शिवमहर्षिसत्तममुपास्महे ।।४८।।

 

मैं महान् सन्त श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज की आराधना करता हूँ जो मानवता की सेवा हेतु सदैव तत्पर हैं, जो परम पावन एवं अत्यन्त दयालु हैं, जिनकी दृष्टि कृपापूर्ण है, जो भक्तों के समस्त कष्टों के नाशकर्ता हैं, जिनका मन सदैव भगवान् शिव के ध्यान में लीन है तथा जिनका मुख पूर्णचन्द्र सम अतीव मनोहारी है।

 

ध्यानशीलममलाशयं महिततेजसं सुकृतविग्रहं

मानवाखिलगुणावहाभिनवमार्गमार्गणविचक्षणम्

आननाम्बुजविनिर्गलन्मधुरभाषणं भुवनभूषणं

दीनलोकपरिपालनोत्सुकमुपास्महे शिवमहामुनिम् ।।४९।।

 

मैं महान् सन्त श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज की आराधना करता हूँ जो सतत ध्यानशील हैं, जिनका हृदय अत्यन्त पावन है, जो उज्ज्वल प्रभा से देदीप्यमान हैं, सदुणों के मूर्तिमन्त विग्रह हैं, जो मनुष्य जाति के कल्याणार्थ नवीन मार्गों एवं साधनों की खोज में निरन्तर संलग्न हैं, जिनके कमल सदृश मनोहारी मुख से मधुर वचनामृत की निरन्तर वर्षा होती रहती है, जो अखिल विश्व के प्रकाशस्तम्भ हैं तथा जो दीन-दुःखियों के कष्ट निवारण हेतु सदैव उत्सुक एवं तत्पर हैं।

 

सारसान्द्रमधुरोक्तिवर्षशिशिरीकृताखिलजनोत्करं

सारसाक्षकमनीयरूपपरिलीनमानसमनेनसम्

भारतावनिविशिष्टनन्दनमुदारशीलममितौजसं

स्मेरमण्डितमुखाम्बुजं भजत सद्गुरुं शिवमुनीश्वरम् ।। ५० ।।

 

जो अपने मधुर एवं सारगर्भित वचनों से समस्त मनुष्यों के सन्तप्त हृदयों को शीतलता प्रदान करने में समर्थ हैं, जो सदैव भगवान् हरि के ध्यान में लीन हैं, परम पवित्र हैं, भारतभूमि के प्रिय सुपुत्र हैं, उदारहृदयी एवं अतुलनीय तेज से सम्पन्न हैं तथा जिनका मुखकमल मधुर स्मित से सुशोभित है, उन सदुरुदेव श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज की सभी वन्दना करें।

 

वर्णनीयचरितं भवामयविनाशनैकनिरतं कृपा-

पूर्णचेतसमतान्तकोमलकुशेशयोपममुखश्रियम्

तीर्णनैकविषयार्णवं विगतकिल्बिषं गुरुवरं गुणो-

दीर्णमानसमशेषमानुषनिषेवितं शिवमुनिं भजे ।।५१।।

 

मैं महामुनीन्द्र श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज को साष्टांग प्रणिपात करता हूँ जिनका पावन जीवन-चरित मननीय एवं अनुकरणीय है, जो संसार के कष्टों का समूल नाश करने में गहनता से संलग्न हैं, जो अत्यन्त दयालु हैं, जिनका मुख प्रफुल्लित कमल के समान उज्ज्वल एवं मनोहारी है, जो सांसारिक विषय-भोगों की तृष्णा से सर्वथा मुक्त हैं, जो परम पवित्र एवं उदारमना हैं तथा जो अखिल विश्व द्वारा वन्दित हैं।

 

सन्ततं सकलभूतजालहितकाङ्गिणं सरसभाषिणं

शान्तमानसमतान्तकोमलमुखाब्जनिस्सृतमृदुस्मितम्

अन्तकान्तकपदाम्बुजं शिवदमन्तरंगसरसीरुहे

चिन्तयन्तममितादरं मनसि भावये शिवगुरूत्तमम् ।। ५२ ।।

 

जो समस्त विश्व के कल्याण हेतु सदैव समुत्सुक हैं, जिनका चित्त प्रशान्त तथा वाणी मधुर है, जिनका मनोहारी मुख मधुर स्मित से सुशोभित है, जो सदैव भगवान् शिव के पावन चरणकमलों का ध्यान करते हैं, उन गुरुदेव श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज की मैं अत्यन्त भक्तिभावपूर्वक आराधना करता हूँ।

 

सारसाक्षकमनीयविग्रहविचिन्तनैकनिरतान् सदा

सारसान्द्रमधुरामृतोक्तिभिरलं चिकीर्षुमखिलान् जनान्

नारदादिपरिगीतभक्तिपथदर्शनोत्सुकमनारतं

शारदामृतकराननं भजत भव्यदं शिवगुरूत्तमम् ।।५३।।

 

जो महर्षि नारद द्वारा प्रतिपादित भक्ति-मार्ग के प्रचार हेतु सदैव उत्सुक एवं तत्पर हैं, अपने सारगर्भित एवं मधुर वचनामृत द्वारा मनुष्यों में भगवान् विष्णु के सुन्दर स्वरूप के सतत ध्यान की उत्कण्ठा जाग्रत करने में निरन्तर संलग्न हैं तथा जिनका मुख शरद ऋतु के चन्द्रमा के समान अतीव मनोहारी है, उन सर्वमंगलप्रदाता सद्गुरुदेव श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज की सभी वन्दना करें।

 

दिव्यतत्त्वभरितानशेषनिगमान् विवर्तनगणैर्नृणां

भव्यदायकसनातनायनविलोकनाय परिबोधयन्

दिव्यजीवनसभां समस्तजनताहिताय विनिवेशयन्

सुव्यवस्थितशुभोदयो जयतु सद्गुरुः शिवयतीश्वरः ।।५४।।

 

महामुनीन्द्र श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज की जय हो जो सेवा एवं परोपकारिता की भावना में गहनता से प्रतिष्ठित हैं, जिन्होंने अखिल विश्व के कल्याणार्थ 'दिव्य जीवन संघ' की स्थापना की है तथा दिव्य सत्य से परिपूरित अपने आध्यात्मिक साहित्य के माध्यम से जन-जन को वैदिक सनातन धर्म से परिचित कराते हुए सबके कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया है।

 

नित्यनिर्मलसुशीलमाश्रितजनोत्करावनपरायणं

कृत्यभिष्टुतमुदीर्णभक्तिभरिताशयं दुरितनाशनम्

स्तुत्यसद्गुणमुदारमानसमनेनसं सुकृतविग्रहं

प्रत्ययाकरमनारतं भजत सद्गुरुं शिवयतीश्वरम्।।५५।।

 

सद्गुरुदेव श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज की सदैव वन्दना करें जो परम पावन एवं अत्यन्त शीलवान हैं, अपने आश्रितों के कल्याण हेतु सदैव उत्सुक हैं, सज्जनवृन्द द्वारा वन्दित हैं, समस्त दुःखों के नाशकर्ता हैं, जिनका हृदय अतीव विशाल एवं भगवद्भक्ति से परिपूर्ण है, जो श्लाघनीय गुणों के स्वामी हैं, पापशून्य हैं, सदाचार के मूर्तिमन्त रूप हैं तथा जो सदा भगवद्-चेतना में संस्थित हैं।

 

शश्वनन्नश्वरमेव विश्वमखिलं विश्वेश्वरे शाश्वते

विश्वासोऽत्र विधीयतां नरगणैरानन्दसम्प्राप्तये

आश्वासोक्तिमिमां वितीर्य सहसा संसाररोगच्छिदे

विश्वाचार्यमहर्षिसत्तमशिवानन्दाय तुभ्यं नमः ।।५६।।

 

"यह सम्पूर्ण जगत् नाशवान है, एकमात्र परमात्मा ही शाश्वत हैं। अतः मनुष्य को शाश्वत आनन्द की प्राप्ति हेतु परमात्मा की शरण में जाना चाहिए।" इन सान्त्वनाप्रदायक ज्ञानपूर्ण वचनों द्वारा भवरोग का नाश करने वाले विश्वगुरु महामुनीन्द्र श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज को मैं साष्टांग प्रणिपात करता हूँ।

शिवानन्दस्तोत्रपुष्पांजलिः

 

दैवाधीनमिदं जगत् जनिफलावाप्त्यै जगत्साक्षिणः

सेवाधीरवलम्ब्यतामविरतं सर्वैर्जगद्वासिभिः

एवं सूक्तिसुधाभिवर्षणरतायादर्शदिव्यर्षये

कैवल्योत्तममार्गदर्शक शिवानन्दाय तुभ्यं नमः ।।५७।।

 

"यह विश्व सर्वशक्तिमान् प्रभु के अधीन है। इस मनुष्य जीवन को सफल एवं सार्थक बनाने हेतु सभी को उन जगदीश्वर की सेवा-आराधना में निरन्तर लगे रहना चाहिए।" इस प्रकार के उपदेशामृत की वर्षा करने में जो सतत संलग्न हैं, जिनका आदर्श जीवन समस्त मनुष्यों के लिए अनुकरणीय है तथा जो मोक्षमार्ग के महान् पथप्रदर्शक हैं, उन दिव्यर्षि श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज को मैं श्रद्धापूर्वक नमन करता हूँ।

 

संवेशाशनभाषणेषु मिततां भूतानुकम्पां तथा

संवेगस्य निरर्थकत्वमखिलानुद्बोधयन्तं विभुम्

देवे कामरिपौ निवेशितमतिं दिव्यं शिवानन्दस -

द्योगीन्द्रं समुपास्महे मुनिजनोत्तंसं जगद्देशिकम् ।। ५८।।

 

हम जगद्गुरु महान् सन्त श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज की आराधना करते हैं जिनका मन सदैव भगवान् शिव के ध्यान में लीन है तथा जो सबको आहार, निद्रा एवं वार्तालाप में संयमित होने, समस्त प्राणियों के प्रति करुणाशील होने और उद्वेगों-संवेगों की निरर्थकता समझने की शिक्षा प्रदान करते हैं।

 

आशापाशविशेषबन्धविवशा नक्रन्दिवं संभ्रमा-

दाशान्तावगतावकाशमखिलं धावन्ति नानाजनाः

क्लेशावेशवशानिमान् शुभपदं नेतुं प्रवृत्तं जनै-

राशास्याद्भुतवैभवं हृदि शिवानन्दं सदा भावये।।५९।।

 

मैं गुरुदेव श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज का ध्यान करता हूँ जो आशा-तृष्णाओं के पाश में बद्ध, दुःख-कष्ट से सन्तप्त, शान्ति एवं आनन्द की खोज में विवशतापूर्वक चहुँओर भटकते हुए मनुष्यों को कल्याण का मार्ग दिखाने में निरन्तर संलग्न हैं, तथा जिनका वैभव अद्भुत है।

 

सदा सकलसज्जनैस्समभिवन्द्यपादाम्बुजं

सदाशययशोयुतं समविलोकनात्तादरम्

वदान्यवरमुत्तमं वशिजनावतंसं सतां

मुदास्पदमुपास्महे शिवमुनिं जगद्देशिकम् ।।६० ।।

 

जिनके पावन चरणकमलों की सज्जनवृन्द सदैव अर्चना करते हैं, जिनके हृदय की विशालता सुविख्यात है, जिनकी दृष्टि सम एवं स्वभाव अत्यन्त उदार है, जो आनन्दधाम है तथा जितेन्द्रिय महापुरुषों में सर्वश्रेष्ठ हैं, उन विश्वगुरु श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज की मैं आराधना करता हूँ।

 

कलानिधिकलापसम्मिलितचेतसं चित्कला-

विलासविशदौजसं विदितवेदसारोत्करम्

कलाकलितकौतुकं कलुषलेशहीनाशयं

तुलारहितसद्गुणं शिवमुनीन्द्रमेवाश्रये ।।६१ ।।

 

मैं मुनीन्द्र श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज के चरणकमलों का आश्रय लेता हूँ जिनका चित्त भगवान् शिव में लीन है, जो परम चैतन्य की दीप्ति से देदीप्यमान हो रहे हैं, जो वैदिक शास्त्रों के ज्ञाता हैं, विविध कलाओं एवं विज्ञान के विषय में जानने को सदैव समुत्सुक हैं तथा जिनका मन अत्यन्त पावन और अतुलनीय सगुणों से परिपूर्ण है।

 

नितान्तविमलाशयं निखिललोकसंसेवितं

कृतान्तरिपुचिन्तने कृतमतिं कृपापांपतिम्

अतान्तधिषणाबलं परगुणेक्षणाकांक्षिणं

मतान्तरविशारदं शिवमुनीन्द्रमेवाश्रये ।।६२।।

 

जिनका चरित्र अत्यन्त विमल है, जो समस्त विश्व द्वारा वन्दित हैं, सदैव भगवान् शिव के ध्यान में लीन हैं, करुणा के सागर हैं, जिनकी बुद्धि अतीव कुशाग्र है, जो परोपकार हेतु सदैव तत्पर हैं तथा जिन्हें अन्य धर्मों का विशद ज्ञान है, उन महान् सन्त श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज का मैं शरणापन्न हूँ।

 

भवार्णवभवार्णसां भ्रमगणेषु मन्नान् जनान्

जवान्निजकृपाप्लवं समवतार्य सन्तारकम्

स्तवार्हगुणसागरं मधुरसूक्तिपीयूषदं

शिवाख्यमुनिसत्तमं सुकृतमूर्तिमेवाश्रये ।। ६३ ।।

 

जो सदुणों के मूर्तिमन्त विग्रह हैं, भवसागर में निमग्न जनों का अपनी करुणा रूपी नौका द्वारा उद्धार करते हैं तथा जो मधुरवचनामृतप्रदाता हैं, उन महामुनीन्द्र श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज के चरणकमलों का मैं आश्रय लेता हूँ।

 

अहो भाग्यं भाग्यं मधुरमधुरोदारचरितम्

महोराशिं भव्यप्रथितसुगुणव्रातभरितम्

अहोरात्रं लोके भवगदविनाशैकनिरतम्

शिवानन्दं दिव्यं निकटभुवि पश्याम्यविरतम् ।। ६४।।

 

अहो ! मेरा परम सौभाग्य है कि मैं महान् सन्त श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज का इतनी निकटता से सतत दर्शन कर रहा हूँ जिनका चरित अत्यन्त पावन एवं मधुर है, जो दिव्य प्रकाशपुंज हैं, श्लाघनीय गुणों के भण्डार हैं तथा जो अहर्निश सांसारिक मनुष्यों के भवरोग के विनाश में संलग्न हैं।

 

सदा सद्भिः सेव्यं सकलगुणसन्दोहसदनम्

चिदानन्दे लीनाशयमविरतं स्मेरवदनम्

मुदा कुतु लोकं सकलमनिशं वीतकदनम्

श्रमं कुर्वन्तं तं प्रणमत शिवानन्दयमिनम्।।६५।।

 

मुनीन्द्र श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज के चरणकमलों में श्रद्धापूर्वक प्रणाम करें जो सज्जनवृन्द द्वारा वन्दित हैं, समस्त सद्गुणों के साकार विग्रह हैं, परम चैतन्य के आनन्द में अविरत प्रतिष्ठित हैं, जिनका मुख मुस्कान से सुशोभित है तथा जो संसार के कष्टों के निवारणार्थ सदैव उत्साहपूर्वक कार्यरत हैं।

 

त्रयीतत्त्वं साधारणजनसुबोधाय सकलम्

शतातीतग्रन्थैः सरलपदसंधातरचितैः

स्फुटीकुर्वन् धर्मायनसततसञ्चारनिरतः

शिवानन्दः सोऽयं जयतु चिरमुर्त्यां मुनिवरः ।। ६६ ।।

 

जो सदैव धर्म के पथ पर संचरणशील हैं तथा जिन्होंने वेदों के गूढ़ तत्त्वों को सामान्यजन के लिए बोधगम्य बनाने हेतु अत्यधिक सरल एवं सुन्दर शैली में सौ से अधिक ग्रन्थों की रचना की है, ऐसे मुनिश्रेष्ठ श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज अनेकानेक वर्षों तक इस धरा पर विराजमान रहें।

 

भवाम्भोधौ मग्नं मनुजगणमुद्धर्तुमखिलम्

दिवारात्रं कर्मप्रकरमिह कुर्वाणमतुलम्

निवाताब्जस्थेमे हृदि गिरिशमालोक्य मुदितम्

शिवानन्दं दिव्यं प्रणमत जगद्वासिजनताः ।। ६७।।

 

भवसागर में निमग्न जनों के उद्धार हेतु जो अहर्निश कार्यरत हैं तथा वायुरहित स्थान में रखे कमल-पुष्प-सम स्थिर अपने हृदय में भगवान् शिव के दर्शन से जो नित्य प्रफुल्लित हैं, उन महान् सन्त श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज के चरणकमलों में विश्व के समस्त मनुष्य श्रद्धापूर्वक प्रणाम करें।

 

सकलगुणनिधानं सज्जनैस्सेव्यमानं

सरसमधुरशीलं सर्वभूतानुकूलम्

सवितृसदृशभासं जाह्नवीतीरवासं

भविकसुकृतरूपं श्रीशिवानन्दमीडे ।। ६८ ।।

 

मैं श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज की वन्दना करता हूँ जो समस्त सगुणों के भण्डार हैं, सज्जनवृन्द जिनकी प्रेमपूर्वक सेवा करते हैं, जिनका स्वभाव अत्यन्त मधुर एवं सुन्दर है, जो सभी प्राणियों के प्रति समभाव रखते हैं, सूर्य के समान देदीप्यमान हैं, गंगा नदी के तट पर स्थित एक कुटीर में निवास करते हैं तथा जो शुभता एवं सदाचारिता के मूर्तिमन्त रूप हैं।

 

श्रुतिगतबहुतत्त्वान्यन्वहं

वीतशङ्क श्रुतिमधुरवचोभिर्निर्भरं भाषमाणम्-

नुतिपदमखिलानां श्रीशिवानन्दयोगी-

श्वरमतुलमनीषावैभवं भावयेऽहम् ।।६९।।

 

मैं महान् सन्त श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज का ध्यान करता हूँ जो सर्वस्तुत्य हैं, जिनकी बुद्धि अतुलनीय है तथा जो शास्त्रों के गूढ़ार्थ का अपने मधुर वचनों में नित्य विवेचन करते हैं।

 

निखिलनिगमसारं नित्यमुद्द्बोधयन्तं

निशितमतिविशेषं निर्विकारं निरीहम्

निरवधिजनवन्द्यं निर्मलं लोकसेवा-

निरतममितबोधं श्रीशिवानन्दमीडे ।। ७० ।।

 

जो असाधारण मेधासम्पन्न हैं, जिज्ञासुओं को वेदों के सारतत्त्व का ज्ञान प्रदान करते हैं, जिनका मन समस्त इच्छाओं एवं वृत्तियों से रहित है, जो असीम बोधयुक्त हैं, पवित्रमना हैं, अनेकानेक मनुष्यों द्वारा वन्दित हैं तथा जो मानवता की सेवा में सतत संलग्न हैं, उन दिव्यर्षि श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज की मैं आराधना करता हूँ।

 

सकलजनगुणार्थं सूक्तिपीयूषधारा-

निकरशतमतन्द्रं वर्षमाणं निकामम्

अनुपममहिमाढ्यं श्रीशिवानन्दयोगि-

प्रवरमतनुभक्त्या सन्ततं भावयेऽहम्।।७१।।

 

जो मनुष्यों के कल्याणार्थ अश्रान्त रूप से अपने मधुर वचनामृत की अजस्र वर्षा कर रहे हैं तथा जिनकी महिमा अनुपमेय है, उन योगीन्द्र श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज का मैं सदैव अत्यन्त भक्तिपूर्वक ध्यान करता हूँ।

 

जननमरणसिन्धौ संपतन्तं नितान्तं

कदनमनुभवन्तं लोकमुद्धर्तुकामम्

सकलजनशिवार्थं दिव्यगीतार्थसारं

सततमुपदिशन्तं श्रीशिवानन्दमीडे ।। ७२ ।।

 

मैं दिव्यर्षि श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज की आराधना करता हूँ जो भवसागर में निमग्न दुःखित मनुष्यों के उद्धार हेतु निरन्तर क्रियाशील हैं तथा जो विश्व-कल्याण के लिए श्रीमद्भगवद्गीता की दिव्य शिक्षाओं के प्रचार में सतत संलग्न हैं।

 

निरवधिनिगमान्ताधीतिलब्धावबोधं

निरवरतमुदीर्णध्यानलीनान्तरंगम्

निरघमखिललोकक्षेममार्गेकचिन्ता -

निरतममितकीर्तिं श्रीशिवानन्दमीडे ।। ७३।।

मैं योगीन्द्र श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज को साष्टांग प्रणिपात करता हूँ जिन्होंने असंख्य शास्त्रों का गहन अध्ययन कर असीम ज्ञान प्राप्त किया है, जो ध्यान में नित्य लीन हैं, परम पवित्र हैं, लोककल्याण हेतु नवीन साधनों की खोज में सदैव समुत्सुक हैं तथा जिनकी अमित कीर्ति है।

 

परिणतशशिबिम्बप्रोल्लसद्वक्त्रपद्मो-

परि लसदनुकम्पापूर्णमन्दस्मितार्द्रम्

परिसरगतशिष्यैस्सेव्यमानं मुनीनां

परिवृढमतिदिव्यं श्रीशिवानन्दमीडे ।।७४।।

 

जिनके पूर्णेन्दु सम दीप्तिमन्त मुख से करुणा की शीतल किरणें निरन्तर निःसृत हो रही हैं तथा शिष्यवृन्द द्वारा जिनकी नित्य सेवा एवं आराधना की जाती है, उन मुनिश्रेष्ठ श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज की मैं वन्दना करता हूँ।

 

निखिलजननिषेव्यं निस्तुलानर्घशीलं

निशितमतिविलासं निर्यदालोलभासम्

निकटगतजनानां नित्यमानन्दपद्या-

निकरमुपदिशन्तं श्रीशिवानन्दमीडे ।।७५ ।।

 

जो सम्पूर्ण विश्व द्वारा वन्दित हैं, जिनका चरित्र अत्यन्त पावन एवं बुद्धि अतीव तीक्ष्ण है, जिनका मुख दिव्य प्रकाश से द्युतिमान है तथा जो सन्मार्ग पर चलने को उत्सुक मनुष्यों को निरन्तर मार्गदर्शन प्रदान करते हैं, उन गुरुदेव श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज की मैं वन्दना करता हूँ।

 

सुरुचिरसुगुणानां सुन्दरावासकेन्द्रं

निरुपमशुभशीलं निश्चलानन्दसान्द्रम्

गुरुवरमखिलानां श्रीशिवानन्दयोगी-

श्वरमविकलपुण्यं भावये दिव्यरूपम्।।७६।।

 

मैं योगीन्द्र श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज के दिव्य रूप का ध्यान करता हूँ जो सौन्दर्य एवं सदुणों के मूर्तिमन्त विग्रह हैं, पुण्यशिखर हैं, जिनकी महानता अनुपमेय है, जो विशुद्ध आनन्द से परिपूर्ण हैं तथा अखिललोकगुरु हैं।

 

मधुरमधुरवाणीं सन्ततं व्याहरन्तं

विधुवदनमुदारं विश्ववन्द्यं नितान्तम्-

भवगदहरणोत्कं श्रीशिवानन्दयोगि

प्रवरममितकीर्तिं भावये भावुकांगम् ।।७७।।

 

मैं योगीन्द्र श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज का ध्यान करता हूँ जो सदैव अतीव मधुरतापूर्वक वार्तालाप करते हैं, अत्यन्त उदार हैं, जिनका मुख पूर्णचन्द्र सम देदीप्यमान है, जो सम्पूर्ण विश्व द्वारा वन्दित हैं, भवताप से सन्तप्त मनुष्यों की रक्षा हेतु सदा उत्सुक हैं तथा जिनकी कीर्ति अमित है।

 

परिणतपरिबोधं पावनानर्घशीलम्

परिसरगतशिष्यान् तत्त्वमध्यापयन्तम्

परिलसदनुभावं सर्वदा सर्वभूतो

परि पतदनुकम्पं श्रीशिवानन्दमीडे ।। ७८ ।।

 

जो सर्वोच्च सत्य के ज्ञाता हैं, जिनका चरित अत्यन्त पावन है, जो अपने शिष्यों को सदा प्रसन्नतापूर्वक परम तत्त्व का ज्ञान प्रदान करते हैं, दिव्य प्रभासम्पन्न हैं तथा जो समस्त प्राणियों पर सदैव अपनी अनुकम्पा की वृष्टि करते हैं, उन श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज की मैं वन्दना करता हूँ।

 

विविधनिगमबोधात् प्राप्तचेतोविकासं

सविधगतजनानां चित्तमाह्लादयन्तम्

अविरतमखिलानां क्षेमकृत्यैकदीक्षं

सुविदितयतिवर्यं श्रीशिवानन्दमीडे ।।७९।।

 

मैं महामुनीन्द्र श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज की आराधना करता हूँ जिनका पावन नाम सुविदित है, जो अपने समीप आने वाले समस्त जनों में प्रसन्नता का संचार करते हैं, अविरत लोककल्याणकारी कार्यों में संलग्न हैं तथा जिन्होंने विभिन्न शास्त्रों के गहन अध्ययनोपरान्त अत्यन्त विशाल एवं उदार दृष्टिकोण प्राप्त किया है।

 

भववारिधिघोरमहोर्मिपरा-

भवपीडितसंहननोऽहमरम्

शिवदेशिक ते पदपद्मगतोऽ-

भवमीश कृपालय पालय माम् ।।८०।।

 

हे प्रभो! हे गुरुदेव शिवानन्द ! आप करुणा के मूर्तिमन्त अवतार हैं, मैंने आपके चरणकमलों का आश्रय ग्रहण किया है, भवसागर की घोर उर्मियों से अतीव पीड़ित एवं अत्यधिक विश्रान्त मुझ शरणागत की रक्षा कीजिए।

 

करुणावरुणालय लोकगुरो

तरुणारुणभास्वरगात्र विभो

शिवदेशिक ते मधुरोक्तिसुधा

शिवदा सततं जनतामवतात्।।८१ ।।

 

हे महान् उपदेशक गुरुदेव शिवानन्द ! आप विश्वगुरु हैं, प्रेम एवं करुणा के सिन्धु हैं तथा उदीयमान सूर्य सदृश दीप्तिमन्त हैं। आपके मधुरवचनामृत समस्त प्राणियों के लिए अमित मंगलप्रदायक हों।

 

अनिशं मनुजान् सुजनान् कुरुते

मुनिपुङ्गव ते सुवचः सुमते

भविकामलसद्गुणवारिनिधे

शिवदेशिक ते चरणं शरणम् ।।८२।।

 

हे महान् गुरु शिवानन्द ! आप यतिश्रेष्ठ हैं, आपके ज्ञानपूर्ण वचन सामान्य सांसारिक मनुष्यों को पावन कर उन्हें धार्मिक बनाते हैं। आप सांसारिकता के कलुष से मुक्त, समस्त सदुणों के सागर हैं। मैं आपके चरणकमलों का आश्रय ग्रहण करता हूँ।

 

भुवनेष्वखिलेषु जनान् सुमती -

नवलोकयितुं नितरां श्रमवान्

नवकोमललेखनदानपरः

शिवयोगिवरः सुचिरं जयतात्।।८३।।

 

जो अखिल विश्व के मनुष्यों के कल्याणार्थ निरन्तर कार्यशील हैं तथा अपने असंख्य भक्तों को मधुर एवं प्रेरणाप्रद पत्र लिखने में अतीव कुशल हैं, उन महामुनीन्द्र श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज की सदा जय हो।

 

शिवानन्ददिव्यर्षिगोत्रेन्द्रजाता

परब्रह्मपाथोधिमार्गाभियान्ती

शिवानन्दस्तोत्रपुष्पांजलिः

सुधासूक्तिगङ्गा सदा निर्गलन्ती

जगत् सर्वमेतत् पवित्रीकरोतु ।।८४।।

 

दिव्यर्षि शिवानन्द रूपी हिमालय से निःसृत तथा परब्रह्म के ज्ञान रूपी सागर की ओर प्रवाहित वचनामृत-गंगा समस्त विश्व को पवित्र बनाये।

 

भवाम्भोधिमन्नान् जनानुद्धरन्तं

नवामन्दचैतन्यमुद्दीपयन्तम्

दिवारात्रमुत्कृष्टकर्मोत्सुकं तं

शिवानन्दयोगीन्द्रमेवाश्रयेऽहम् ।।८५ ।।

 

जो भवसागर में निमग्न जनों का उद्धार करते हैं, साधकवृन्द में सूक्ष्म प्रज्ञा की ज्योति प्रज्वलित करते हैं तथा जो अहर्निश निःस्वार्थ सेवा में संलग्न हैं, उन महायोगीन्द्र श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज के चरणकमलों का मैं आश्रय ग्रहण करता हूँ।

 

समस्ताभिवन्द्यं सुमर्त्याभिनन्द्यं

समालोकशीलं समारूढयोगम्

समासादितानेकदिव्यप्रभावं

शिवानन्दयोगीन्द्रमेवाश्रयेऽहम् ।।८६ ।।

 

मैं महान् सन्त श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज का शरणापन्न हूँ जो समस्त मनुष्यों द्वारा पूजित एवं वन्दित हैं, समदृष्टिसम्पन्न हैं, योगारूढ़ हैं तथा जिन्होंने अनेकानेक दिव्य महिमामयी उपलब्धियाँ अर्जित की हैं।

 

विशालावबोधं विशिष्टानुभावं

प्रशान्तारिषट्कं प्रशस्तापदानम्

कृशानूपमोदीर्णतेजोभिदीप्तं

शिवानन्दयोगीन्द्रमेवाश्रयेऽहम् ।।८७ ।।

 

मैं महायोगीन्द्र श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज के चरणकमलों का आश्रय ग्रहण करता हूँ जो अत्यन्त महान् हैं, जिनका ज्ञान-भण्डार अति विशाल है, जिन्होंने कामक्रोधादि षड्रिपुओं का नाश कर दिया है, अनेक श्लाघनीय उपलब्धियाँ अर्जित की हैं तथा जो प्रचण्ड अग्नि सदृश देदीप्यमान हैं।

 

गंगानदीतटनिवासिनमाप्तकामं

तुंगानुभावमनवद्यगुणाभिरामम्

संगावरुद्धमनसं विनतोऽस्मि चेतो-

रंगावलोकितशिवं शिवदेशिकं तम् ।।८८ ।।

 

जो आप्तकाम हैं, माँ गंगा के पावन तट पर निवास करते हैं, जिनका चरित्र निष्कलुष है तथा ख्याति विपुल है, जो निरासक्त हैं तथा भगवान् शिव के ध्यान में सतत लीन हैं, उन महान् गुरु श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज को मैं श्रद्धापूर्वक नमन करता हूँ।

 

वन्दारुवृन्दपरिसेवितपादपद्म

मन्दारदारुसममाश्रितजीवभाजाम्

वृन्दारकेन्द्रसहजं हृदि वीक्षमाणं

वन्दामहे शिवगुरुं सुकृतैकमूर्तिम् ।।८९ ।।

 

जिनके पावन चरणकमलों की भक्तवृन्द द्वारा आराधना की जाती है, जो शरणापन्न जनों के लिए कल्पवृक्ष सदृश हैं, समस्त शुभ कर्मों के मूर्तिमन्त अवतार हैं तथा जो अपने हृदय में निरन्तर भगवान् श्री कृष्ण का दर्शन करते हैं, उन महान् गुरु श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज की मैं वन्दना करता हूँ।

 

वाराशिराशिरशनाशनिपाणिमुख्यै -

राराधितं शिवमुनीन्द्रमनर्घशीलम्

साराभिराममधुरोक्तिसुधाम्बुपूरा -

साराभिरञ्जितजनं शरणं प्रपद्ये ।।१०।।

 

मैं महान् सन्त श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज की शरण लेता हूँ जो महान् सम्राटों द्वारा पूजित एवं वन्दित हैं, जिनका चरित पावन है तथा जो अपने मधुरवचनामृत द्वारा समस्त मनुष्यों को अत्यधिक आनन्द प्रदान करते हैं।

 

पीनावबोधनिलयं निखिलाभिवन्द्यं

दीनावनैकनिरतं विमलान्तरंगम्

नानागुणोदवसितं मदनारिचिन्ता -

लीनाशयं शिवमुनीश्वरमाश्रयेऽहम् ।।९१ ।।

 

मैं महामुनीन्द्र श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज की शरण ग्रहण करता हूँ जो समस्त ज्ञान के भण्डार हैं, अखिल विश्व द्वारा वन्दित हैं, दीनजनों के परित्राण में अविरत संलग्न हैं, जिनका अन्तःकरण निर्मल है, जो समस्त सदुणों के धाम हैं तथा जिनका चित्त भगवान् शिव के चिन्तन में नित्य-संस्थित हैं।

 

जनगणगुणकर्माण्यन्वहं कर्तुकामं

मनसिजरिपुरूपध्यानलीनान्तरंगम्

अनवरतमुदीर्णज्योतिषा राजमानं

विनतजनपरीतं श्रीशिवानन्दमीडे ।।९२।।

 

जो समस्त प्राणियों के कल्याणार्थ अहर्निश कर्मशील हैं, जिनका हृदय भगवान् शिव के ध्यान में सतत लीन है, जो आध्यात्मिक जगत् के प्रकाशमान तारागण में सर्वाधिक देदीप्यमान तारक हैं तथा सदैव विनयशील भक्तवृन्द द्वारा घिरे रहते हैं, उन श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज की मैं वन्दना करता हूँ।

 

अभिनवशुभमार्गान् मार्गयन् मानवाना-

मभिरुचिमवगच्छन् भव्ययोगाय तेषाम्

अभिनुतगुणराशिः सर्वलोकाभिवन्द्यो

जयतु सुचिरमेवं श्रीशिवानन्दयोगी ।। ९३ ।।

 

जो समस्त साधकों के कल्याणार्थ उनकी भिन्न-भिन्न अभिरुचियों के अनुरूप नवीन मार्गों की खोज हेतु प्रति क्षण अनुसन्धानशील हैं तथा अपने श्लाघनीय सगुणों के कारण जो सर्ववन्दनीय हैं, उन महायोगीन्द्र श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज की सदा जय हो।

 

अनुदिनमनुवेलं सूक्तिपीयूषवर्षे -

र्मनुजनिकरतापं सर्वमुन्मूलयन्तम्

अनुपममहिमाढ्यं दिव्यदीप्त्या विराज-

त्तनुमखिलनिषेव्यं श्रीशिवानन्दमीडे ।।९४।।

 

मैं श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज की वन्दना करता हूँ जो प्रतिदिन प्रति क्षण अपने मधुरवचनामृत द्वारा सांसारिक मनुष्यों के दुःखों एवं कष्टों का नाश करते हैं, जिनकी महिमा अनुपमेय है, जो दिव्य दीप्ति से विभासित हैं तथा अखिल विश्व जिनकी वन्दना-आराधना करता है।

 

अमलमतिमशेषान् मानुषान् भक्तियोग-

क्रममतिसरलोक्त्या नित्यमुद्बोधयन्तम्

शमधनमनपेतप्रश्रयं धर्मरक्षा

श्रमकरमकलंकं श्रीशिवानन्दमीडे ।।९५।।

 

मैं श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज की वन्दना करता हूँ जो निर्मल-मति साधकों को अपने सरल उपदेशों द्वारा भक्तियोग में दीक्षित करते हैं, जो शम एवं विनय की सम्पदा से सम्पन्न हैं तथा निःस्वार्थ रूप से धर्मरक्षा के कार्य में सतत संलग्न हैं।

 

सकलजनशुभार्थं दिव्यगीतार्थसारं

सरलललितरीत्या नित्यमाभाषमाणम्

सविधगतजनानां पापमुन्मूलयन्तम्

सवितृतुलितदीप्तिं श्रीशिवानन्दमीडे ।। ९६ ।।

 

जो लोककल्याणार्थ अपनी सरस-सरल वाणी में दिव्य ग्रन्थ श्रीमद्भगवद्गीता के सार पर नित्य उद्बोधन देते हैं, शरणापन्न जनों के पापों का समूल नाश करते हैं तथा जो सूर्य सदृश दीप्तिमन्त हैं, उन श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज की मैं आराधना करता हूँ।

 

अविकलसुखमूलं ध्यानशीलं प्रकामं

भुवि नियतमशेषैरेतदेवार्जनीयम्

सुविशदमधुरोक्त्या तद्गुणान् बोधयन्तम्

भविकगुणगणाढ्यं श्रीशिवानन्दमीडे ।। ९७ ।।

 

जो शाश्वत आनन्द के स्रोत हैं, नित्य ध्यानशील हैं, सतत प्रयत्नशील हैं कि प्रत्येक मनुष्य प्रशान्त मन रूपी सम्पदा का अर्जन करे, जो अपनी मधुर वाणी में सदैव ध्यान के लाभों का वर्णन करते हैं तथा जो मोक्षमार्गप्रदाता सन्तवृन्द में सर्वश्रेष्ठ हैं, उन श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज को मैं साष्टांग प्रणाम करता हूँ।

 

विहतविविधतापं वीतनानावलेपं

विदितनिगमसारं प्राप्तवेदान्तपारम्

विनतजनपरीतं विश्रुतामेयकीर्ति

विगतसकलदोषं श्रीशिवानन्दमीडे ।।९८ ।।

 

मैं श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज की वन्दना करता हूँ जो समस्त प्रकार के तापों से मुक्त हैं, जिन्होंने अहंता एवं ममता का समूल नाश कर दिया है, जो सम्पूर्ण शास्त्रों के ज्ञान से सम्पन्न हैं, परम वेदज्ञ हैं, भक्तिभावपूर्ण शिष्यों से सदैव घिरे रहते हैं तथा जो अपने पावन चरित्र के लिए सुविख्यात हैं।

 

निरवधिनिजशिष्यान् मोक्षमार्गं नयन्तं

निरयपतितलोकानुद्धरन्तं नितान्तम्

निरवरतमशेषक्षेमकृत्यैकदीक्षं

निरघमतुलशीलं श्रीशिवानन्दमीडे ।।९९।।

 

मैं श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज की आराधना करता हूँ जो अपने अनेकानेक शिष्यों को मोक्ष का मार्ग दिखाते हैं, भवसागर में निमग्न मनुष्यों के उद्धार हेतु सतत प्रयत्नशील हैं, जो विश्व-कल्याण के कार्य में अविरत संलग्न हैं, परम पावन हैं तथा अतुलनीय शील से सम्पन्न हैं।

 

मन्दाकिन्यास्सुरुचिरतटे सुन्दरे मन्दिरे सद्-

वृन्दाकीर्णे सदसि विलसद्दिव्यपीठे निषण्णम्

मन्दस्मेराननसरसिजान्निर्गलद्दिव्यसूक्ति-

स्यन्दस्तोमैश्शिशिरितजनं श्रीशिवानन्दमीडे ।।१००।।

 

जो मनोहारी मन्दाकिनी (गङ्गा) के तट पर स्थित सुन्दर कुटीर में सज्जनवृन्द से घिरे अपने दिव्य आसन पर शोभायमान हैं तथा अपने नित्य-प्रफुल्लित मुखारविन्द से निःसृत मधुर वचनामृत द्वारा समस्त मनुष्यों के हृदयों को शीतलता प्रदान करते हैं, उन श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज की मैं वन्दना करता हूँ।