सत्संग भजन माला

 

'प्रार्थना-मंजरी' और 'शिवानन्दाश्रम-भजनावली' का संयुक्त तथा परिवर्धित रूप

 

श्री स्वामी शिवानन्द सरस्वती

 

 

प्रकाशक

 

द डिवाइन लाइफ सोसायटी

पत्रालय : शिवानन्दनगर-२४९ १९२

जिला : टिहरी गढ़वाल, उत्तराखण्ड (हिमालय), भारत

www.sivanandaonline.org, www.dlshq.org

 

प्रथम संस्करण: १९८३

षष्ठ संस्करण: २०१८

(९,००० प्रतियाँ)

 

 

 

 

© द डिवाइन लाइफ ट्रस्ट सोसायटी

 

 

 

 

 

ISBN 81-7052-141-6

HS 136

 

 

 

 

 

PRICE: 160/-

 

 

 

 

 

 

 

'द डिवाइन लाइफ सोसायटी, शिवानन्दनगर' के लिए स्वामी पद्यनाभानन्द द्वारा

प्रकाशित तथा उन्हीं के द्वारा 'योग-वेदान्त फारेस्ट एकाडेमी प्रेस,

पो. शिवानन्दनगर-२४९ १९२, जिला टिहरी गढ़वाल, उत्तराखण्ड' में मुद्रित ।

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प्रकाशकीय वक्तव्य

 

यह पुस्तक 'सत्संग भजन माला' यहाँ की पूर्व-प्रकाशित पुस्तकों 'प्रार्थना-मंजरी' तथा 'शिवानन्दाश्रम-भजनावली' का संयुक्त तथा परिवर्धित रूप है। इसमें स्तोत्र, भजन आदि को नये क्रम से रखा गया है। जो गीत, भजन अथवा स्तोत्र जिस दिन गाये जाते हैं, उन्हें उस दिन के शीर्षक के अन्तर्गत संगृहीत किया गया है। इस भाँति सम्पूर्ण पुस्तक सप्ताह के सात दिनों के क्रम से सात उपशीर्षकों में विभाजित है। उपर्युक्त दोनों पुस्तकों 'प्रार्थना-मंजरी' तथा 'शिवानन्दाश्रम-भजनावली' की उपयोगिता तथा लोकप्रियता सर्वविदित है। आशा है कि ये पुस्तकें अपने इस नवीन परिवर्धित रूप 'सत्संग भजन माला' में हिन्दी पाठकों तथा भक्त जनता के लिए अधिक उपयोगी सिद्ध होगी।

 

-द डिवाइन लाइफ सोसायटी

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

बीसवीं शताब्दी तथा सत्संग की आवश्यकता

 

बीसवीं शताब्दी के नर और नारियाँ भौतिकवाद के विष से सराबोर हैं। उनके दिलों में आध्यात्मिकता का रज-कण भी नहीं है। सत्संग करने की बात तो दूर रही, उनको यही मालूम नहीं कि सत्संग किस चिड़िया का नाम है। उनके संस्कार उलझ गये हैं, मैले हो गये हैं, काले हो गये हैं-किया ही क्या जाये ?

 

यदि आज का नर-नारी-समाज अपने सामने मुँह खोले हुए दुःखों के निराकरण की जरा भी चाह रखता है, तो अपने दिल और दिमागों को साफ कर ले। जिस प्रकार मन को कल-पुर्जे निकाल कर पुनर्नव किया जाता है, जिस प्रकार गन्दी जगहों को पानी से साफ किया जाता है, उसी प्रकार बीसवीं शताब्दी के प्रतिनिधि मनुष्य को अपने हृदय और अपनी बुद्धि को पुनर्नव करना होगा तथा आध्यात्मिकता के जल से साफ कर लेना होगा। यदि यह हो गया, तो बीसवीं शताब्दी के दूसरे अर्धक को आध्यात्मिकता के प्रकाश से उज्ज्वल किया जा सकता है।

 

आज प्रत्येक व्यक्ति के लिए सत्संग की साधना अनिवार्य हो गयी है। यदि वह सत्संग नहीं करता, तो भौतिकवाद के अन्धकार में ही पथभ्रष्ट बना रहेगा। पहले ही जीवन को छोटा कहा गया था, जब कि मनुष्य कई सौ सालों तक शरीर धारण किये रहते थे। फिर आज की क्या पूछो, जब कि मुश्किल से जीवन की अर्ध-शताब्दी पार होती है, वह भी पार होते ही मृत्यु के तट पर पहुँचती है। इसलिए जीवन एकदम छोटा हो गया है। समय तो भागता ही जा रहा है, रुकने वाला वह है ही कब ? यदि समय को हार खिलानी है, तो हमें उससे तेज भागने की शक्ति का अर्जन करना चाहिए।

 

मनुष्य-जन्म बड़ा अनमोल है। इसको खोना ठीक उस व्यापारी के समान होगा जो मिले हुए मोती को (जो कई साल के परिश्रम के बाद उसे मिला था) अथाह सागर में गिरा देता है। एक बार इस जीवन से हाथ धो दिया तो समझ लो, सदा के लिए धो दिया। कह नहीं सकते कि फिर होगा क्या? यदि इस जीवन में कुछ अच्छे संस्कारो का अर्जन किया है, तो कभी-न-कभी मनुष्य जीवन की आशा की जा सकती है, पर यदि जन्म से ले कर कफन ओढ़ने तक कुत्ते, बिल्ली, गधे आदि के समान कर्म किये, तो न जाने फिर कब यह मनुष्य-योनि मिलेगी ।

 

अभी तो खून में जोश है, विटामिन बी की गोलियाँ, इन्स्यूलिन की सूइयाँ, कालिवर आयल, च्यवनप्राश, स्वर्णभस्म आदि खा-खा कर शक्ति को गिरने से बचाया जा रहा है, गाल अभी लाल हैं, रग-रग में खून खौल रहा है; इसलिए कुछ भी समझ में नहीं आता-भले ही लाख समझाओ । कल को जब लकड़ी के सहारे उठने लगोगे, जिस दिन बालों पर बरफ गिर जायेगी, दाँतों को कोई आ कर सोते-ही-सोते तोड़ जायेगा, जिस दिन हलवा और दूध ही पेट के अन्दर आसानी से जा सकेंगे; सम्भवतः उसी दिन कुछ विचार आयेगा-ओहो, हमने गलती की, युवावस्था को जुए में हार दिया, शराब, सिनेमा, उपन्यास और अश्लील समाज के हाथों बेच दिया। पर तब हो ही क्या सकता है! चिड़ियाँ तो खेत को चुग गयीं, अब तो व्यर्थ में कनस्तर बजाओ।

 

देवी, बीसवीं शताब्दी, जागो; तुम्हारे जन जागें। सोये हुओं में तुम जाग-जाग कर जाग्रति भरो । इतिहास में तुम्हारे अध्याय का शीर्षक न तो काले अक्षरों में लिखा जाना चाहिए और न लाल अक्षरों में ही। या तो पीला या काषाय या स्वर्णिम - मुझे यही तीनों रंग पसन्द हैं। क्यों नहीं तुम ही अपने इतिहास का आमुख अपने हाथों से गेरुए रंग में लिख जाती हो? मैं तुम्हारी सहायता करूँगा।

 

-स्वामी शिवानन्द

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

प्रार्थना की महिमा

 

"शरीर के लिए प्राण-तत्त्व जितना आवश्यक है, उतना ही आत्मा के लिए प्रार्थना भी आवश्यक है। प्रार्थना जीवात्मा का परमात्मा के साथ ऐक्य कराती है। प्रार्थना व्यक्ति के अहं को विगलित करती है।"

 

-स्वामी शिवानन्‍द

 

"विश्व के सभी धर्मों के अनुसार प्रार्थना तथा पूजन जीवन का आधार है। अधिकांश साधकों के लिए नित्य दैवी उपासना हेतु यह साधन है। प्रार्थना से मनोभाव की वृद्धि होती है तथा दिव्यता की दिशा में गति होती है। इस भाँति प्रार्थना साधक को पवित्र कर उन्नत बनाती है।"

 

-स्वामी चिदानन्द

 

“स्तोत्रों तथा प्रार्थना की महत्ता समझने की अपेक्षा अनुभव की वस्तु है। प्रार्थना सतत होनी चाहिए। यह तो प्रत्येक साधक की जीवन-साथी होनी चाहिए। प्रार्थना केवल कतिपय शब्दों का उच्चारण मात्र नहीं है। यह तो साधक का ईश्वर के साथ सीधा सम्बन्ध है।"

 

-स्वामी कृष्णानन्‍द

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

अनुक्रमणिका

 

प्रकाशकीय वक्तव्य... 3

बीसवीं शताब्दी तथा सत्संग की आवश्यकता.. 4

प्रार्थना की महिमा.. 6

सोमवार

. 'मंगलं दिशतु मे विनायको' और 'जय गणेश' 13

. मुदा करात्तमोदकम् (शंकराचार्यकृत) 17

. गाइये गणपति जगवन्दन. 20

. श्री गणेश जी की आरती.. 20

. शिव-स्तुति.. 21

. लिंगाष्टकम्. 22

. द्वादश ज्योतिर्लिंगस्तोत्रम्. 24

. साम्ब गौरिवर. 25

. साम्बसदाशिव भोलानाथ. 26

१०. महामृत्युंजय-मन्त्र... 27

११. जटाटवी-गलज्जल-प्रवाहपावितस्थले. 28

१२. अतिभीषणकटुभाषण.. 33

१३. बिल्वाष्टकम्. 36

१४. श्री शिवमानसपूजा.. 37

१५. शिवपंचाक्षरस्तोत्रम्. 38

१६. शिवषडक्षरस्तोत्रम्. 39

१७. दारिद्र्य-दहन-शिवस्तोत्रम्. 40

१८. रुद्राष्टकम् (श्री तुलसीदासकृतं) 41

१९. नमो भूतनाथ. 43

२०. हर गाओ शिव गाओ... 44

२१. शंकर महादेव देव. 44

२२. श्री शिव-अष्टोत्तरशत-नामावली.. 45

२३. शिव-आरती.. 48

मंगलवार

. नाद-बिन्दु-कलादि नमो नमः.. 50

. शरणागतमातुरमाधिजितम्. 51

. कार्तिकेयस्तोत्रम्. 54

. पदारविन्द-भक्त-लोक-पालनैक-लोलुपम्. 55

बुधवार

. भजो रे मैया राम गोविन्द हरी. 58

. यमुना-तीर-विहारी. 59

. भज रे गोपालम्. 60

. गायति वनमाली.. 63

. ब्रूहि मुकुन्देति.. 64

. क्रीडति वनमाली.. 66

. भज रे यदुनाथम्. 68

. स्मर वारं वारं. 70

. गोपाल-गोकुल-वल्लभीप्रिय. 71

१०. दर्शन दो घनश्याम नाथ. 73

११. अधरं मधुरं. 75

१२. जयति तेऽधिकम्. 77

१३. कालिय-मर्दनं-अथ बारिणि... 84

१४. अच्युतं केशवं. 88

१५. जय विठ्ठल विठ्ठल. 91

१६. हरि तुम हरो जन की भीर. 91

१७. महायोग-पीठे. 93

१८. प्रलयपयोधिजले. 96

१९. राधारमण कहो.. 100

२०. राम-कृष्ण-हरि.. 100

२१. कृष्ण गोविन्द गोविन्द... 101

२२. नटवर लाल गिरिधर गोपाल. 102

२३. कृष्ण प्रेम मयी राधा.. 103

गुरुवार

. विदिताखिल-शाख-सुधा-जलपे. 104

. देव-देव-शिवानन्द... 107

. जय गुरुदेव दयानिधे. 108

. आनन्द कुटीर के दिव्य देवता.. 109

. श्री दत्तात्रेयस्तोत्रम्. 110

. श्री दत्तात्रेयस्तोत्रम्. 110

. गुरुस्तोत्रम्. 113

. गुर्वष्टकम्. 118

. शिवगुरु-पंचकम्. 120

१०. शिवानन्द योगीन्द्र स्तुतिः... 120

११. श्री शिवानन्दशरणागतिस्तुतिः... 122

१२. श्री शिवानन्दाष्टोत्तरशतनामावलिः.... 123

१३. भव-सागर तारण.. 127

शुक्रवार

. श्री सरस्वति नमोऽस्तु ते. 128

. दे मज दिव्य मती.. 130

. सुवक्षोजकमुम्भाम्. 131

. तातो माता.. 134

. अम्ब-ललिते. 137

. नमस्ते जगद्धात्रि (श्री महालक्ष्मीस्तोत्रम्) 139

. जय तुंग तरंगे. 142

. नमस्ते शरण्ये (श्री दुर्गादेवी-स्तोत्रम्) 144

. नमस्तेऽस्तु गंगे. 148

१०. जय भगवति देवि नमो वरदे. 151

११. नवरत्नमालिका.. 154

१२. श्री अन्नपूर्णास्तोत्रम्. 157

१३. आदि दिव्य ज्योति.. 159

१४. श्री देवी-अष्टोत्तरशत-नामावली.. 159

१५. देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रम्. 166

१६. देवी-आरती.. 168

१७. श्री गंगा-आरती.. 170

१८. श्रीसूक्तम्. 171

शनिवार

. शनिस्तोत्रम्. 172

. वन्दे सन्तं श्री हनुमन्तम्. 175

. जयतिमंगलागार. 176

. राम सुमिर राम सुमिर. 178

. शुद्ध ब्रह्म परात्पर राम. 180

. रामचन्द्र रघुवीर. 185

. खेलति मम हृदये. 185

. प्रेम मुदित मन से कहो.. 187

. पिब रे राम-रसम्. 188

१०. भज रे रघुवीरम्. 189

११. भज मन रामचरण सुखदाई. 192

१२. चेतः श्री रामम्. 194

१३. राम रतन धन पायो.. 195

१४. राम से कोई मिला दे. 197

१५. श्रीरामरक्षास्तोत्रम्. 198

१६. श्री हनुमान चालीसा.. 202

१७. संकटमोचन हनुमानाष्टक.. 204

१८. हनुमान् स्तुतिः... 206

१९. कलियुगकृत भगवत्स्तुतिः... 206

२०. श्री रामचन्द्र कृपालु. 208

२१. प्रातःस्मरणम्. 209

रविवार

. आदित्यहृदयम्. 212

. गायत्री-मन्त्र... 215

. श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय . 216

. श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय १२. 218

. श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय १५. 220

. गीता महिमा.. 222

. श्री विष्णुसहस्रनामस्तोत्रम्. 223

. सूर्य-स्तुतिः... 243

. विष्णु-स्तोत्रम्. 243

१०. शान्ति-मन्त्र... 244

११. पुरुषसूक्तम्. 249

१२. नारायणसूक्तम्. 250

१३. खेलति पिण्डाण्डे... 251

१४. चिन्ता नास्ति किल. 252

१५. मानस संचर रे ब्रह्मणि... 254

१६. तद्वत् जीवत्वं ब्रह्मणि... 255

१७. मज गोविन्दम्. 257

१८. नमो आदिरूप. 260

१९. आदि बीज एकले. 261

२०. नहि रे नहि शंका.. 262

२१. सर्वं ब्रह्ममयम्. 263

२२. सब हैं समाना.. 265

२३. एक सार नाम. 265

२४. अठारह सद्गुण.. 265

२५. दिव्य जीवन. 266

२६. कोई-कोई जाने रे. 267

२७. रचा प्रभु. 268

२८. मन्त्र-पुष्पाणि... 268

२९. मा शुचः.. 269

३०. प्रभु-प्रार्थना.. 270

३१. दैव-प्रार्थना.. 271

३२. विश्व-प्रार्थना.. 271

३३. जगदीश-आरती.. 272

३४. आरती.. 273

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

सोमवार

प्रार्थना और श्रीगणेशस्तोत्रम्

 

. 'मंगलं दिशतु मे विनायको' और 'जय गणेश'

 

श्लोक

नमोऽस्त्वनन्ताय सहस्रमूर्तये सहस्रपादाक्षिशिरोरुबाहवे ।

सहस्रनाम्ने पुरुषाय शाश्वते सहस्रकोटियुगधारिणे नमः ।।

 

देशकालवस्तुपरिच्छेद से रहित, अनेक शरीर वाले, असंख्य हाथ, पैर, आँख, ऊरु तथा शिर वाले, नाना नाम वाले, अनन्त कोटि युगों के धारण करने वाले शाश्वत पुरुष को नमन हो, नमन हो।

 

श्लोक

त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव ।

त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव त्वमेव सर्वं मम देवदेव ।।

 

हे देवों के भी देव महादेव जी, तू ही मेरी माता है। तू ही मेरा पिता है। तू ही मेरा बन्धु है और तू ही मेरा सखा भी है। तू ही विद्या है। तू ही द्रव्य है और अधिक क्या कहें, मेरा सब-कुछ तू ही है।

 

श्लोक

अन्यथा शरणं नास्ति त्वमेव शरणं मम ।

तस्मात् कारुण्यभावेन रक्ष रक्ष महेश्वर ।।

 

हे महेश्वर। आप ही मुझ शरणागत के रक्षक है। आपके अतिरिक्त मेरी अन्य कोई गति नहीं है। अतः करुणा करके मेरी रक्षा कीजिए, मेरी रक्षा कीजिए।

 

 

 

 

मन्त्र

ॐ नमो नारायणाय ।

ॐ नमो भगवते रामचन्द्राय ।

ॐ श्री सद्गुरुभ्यो नमः ।

ॐ नमः शिवाय ।

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।

ॐ नमो भगवते शरवणभवाय ।

ॐ श्री पराशक्त्यै नमः ।

 

श्लोक

ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै ।

तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ।। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।

 

वह (परमात्मा) हम दोनों (गुरु-शिष्य) की साथ-साथ रक्षा करे। वह हम दोनों को साथ-साथ ही मोक्ष के आनन्द का उपभोग कराये । हम दोनों की अध्ययन की हुई विद्या तेजोमयी हो। हम दोनों परस्पर कभी द्वेष न करें। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।

 

श्लोक

मंगलं दिशतु मे विनायको, मंगलं दिशतु मे सरस्वती ।

मंगलं दिशतु मे महेश्वरी, मंगलं दिशतु मे सदाशिवः ।।१।।

 

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वरः ।

गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः ।।२।।

 

सर्वमंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके ।

शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते ।।३।।

 

लोकाः समस्ताः सुखिनो भवन्तु !

 

श्री गणेश हमारा मंगल करें, श्री सरस्वती देवी हमारा मंगल करें, श्री महेश्वरी देवी हमारा मंगल करें, श्री सदाशिव हमारा मंगल करें ।।१

 

गुरु ब्रह्मा हैं, गुरु ही विष्णु हैं. गुरु भगवान्, शिव हैं, गुरु ही परब्रह्म हैं, उन गुरु को नमस्कार ।।२

 

हे पार्वती देवी, हे शिवपत्नी, सम्पूर्ण पुरुषार्थों को सिद्ध करने वाली, मंगल प्रदान करने वाली, भक्तों की रक्षा करने वाली, तीन नेत्रों वाली माँ दुर्गे ! तुम्हें नमस्कार है ।।३

 

सम्पूर्ण विश्व सुखी हो।

 

कीर्तन

 

जय गणेश जय गणेश जय गणेश पाहि माम्

श्री गणेश श्री गणेश श्री गणेश रक्ष माम् ।।१

 

शरवणभव शरवणभव शरवणभव पाहि माम् ।

कार्तिकेय कार्तिकेय कार्तिकेय रक्ष माम् ।।२

 

जय सरस्वति जय सरस्वति जय सरस्वति पाहि माम् ।

श्री सरस्वति श्री सरस्वति श्री सरस्वति रक्ष माम् ।।३

 

जय गुरु शिव गुरु हरि गुरु राम ।

जगद्गुरु परं गुरु सद्गुरु श्याम ।।४

 

ॐ आदिगुरु अद्वैतगुरु आनन्दगुरु ॐ ।

चिद्गुरु चिद्धन गुरु चिन्मय गुरु ॐ ।।५

 

हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।।६

 

नमः शिवाय नमः शिवाय नमः शिवाय ।

नमः शिवाय नमः शिवाय नमः शिवाय ।।७

 

ॐ नमो नारायणाय ॐ नमो नारायणाय ।

ॐ नमो नारायणाय ॐ नमो नारायणाय ।।८ ।।

 

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।

ॐ नमो भगवते रामचन्द्राय ।।९ ।।

 

आंजनेय आंजनेय आंजनेय पाहि माम् ।

हनुमन्त हनुमन्त हनुमन्त रक्ष माम् ।।१०

 

दत्तात्रेय दत्तात्रेय दत्तात्रेय पाहि माम् ।

दत्तगुरु दत्तगुरु दत्तगुरु रक्ष माम् ।।११

 

शिवानन्द शिवानन्द शिवानन्द पाहि माम् ।

शिवानन्द शिवानन्द शिवानन्द रक्ष माम् ।।१२

 

गंगारानी गंगारानी गंगारानी पाहि माम् ।

भागीरथी भागीरथी भागीरथी रक्ष माम् ।।१३

 

ॐ शक्ति ॐ शक्ति ॐ शक्ति पाहि माम् ।

ब्रह्मशक्ति विष्णुशक्ति शिवशक्ति रक्ष माम् ।।१४

 

ॐ आदिशक्ति महाशक्ति पराशक्ति पाहि माम् ।

इच्छाशक्ति क्रियाशक्ति ज्ञानशक्ति रक्ष माम् ।।१५

 

राजराजेश्वरि राजराजेश्वरि राजराजेश्वरी पाहि माम् ।

त्रिपुरसुन्दरि त्रिपुरसुन्दरि त्रिपुरसुन्दरि रक्ष माम् ।।१६

 

ॐ तत्सत् ॐ तत्सत् ॐ तत्सत् ॐ ।

ॐ शान्तिः ॐ शान्तिः ॐ शान्तिः ॐ ।।१७

 

श्‍लोक

गजाननं भूतगणाधिसेवितं

कपित्थजम्बूफलसार-भक्षणम् ।

उमासुतं शोकविनाशकारकं

नमामि विघ्नेश्वर-पाद-पंकजम् ।।१

 

श्लोक

ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्ति

द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्ष्यम् ।

एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतं

भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरुं तं नमामि ।।२

 

त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव ।

त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव त्वमेव सर्वं मम देवदेव ।।३

 

अन्यथा शरणं नास्ति त्वमेव शरणं मम ।

तस्मात् कारुण्य-भावेन रक्ष रक्ष महेश्वर ।।४

 

. मुदा करात्तमोदकम् (शंकराचार्यकृत)

 

श्लोक

 

ॐ ॐ ॐकाररूपं त्र्यहमिति च परं यत्स्वरूपं तुरीयम् ।

त्रैगुण्यातीतनीलं कलयति मनसः चारुसिन्दूरमूर्तिम् ।।

योगीन्द्रैः ब्रह्मरन्ध्रः सकलगुणमयं श्री हरेन्द्रेण संगम् ।

गं गं गं गं गणेशं गजमुखमभितो व्यापकं चिन्तयन्ति ।।

 

अपने मन में सोचो कि मैं वही ओंकार-रूप हूँ जो परम है, तुरीय-स्वरूप है, त्रिगुणातीत है तथा आभायुक्त और सुन्दर है। योगिश्रेष्ठ अपने ब्रह्मरन्ध में गजमुख गणेश का ध्यान किया करते हैं, जो सम्पूर्ण सद्गुणों से पूर्ण हैं, शिव और इन्द्र के सहित हैं, जिनका बीजाक्षर 'गं' है और जो सर्वत्र व्यापक हैं।

 

गीत

 

मुदा करात्तमोदकं सदा विमुक्ति-साधकं,

कलाधरावतंसकं विचित्र-लोक-रक्षकम् ।

अनायकैकनायकं विनाशितेभ-दैत्यकं,

नताशुभ-प्रणाशकं नमामि तं विनायकम् ।।१

 

नतेतरातिभीकरं नवोदितार्क-भास्वरं,

नमत्सुरारि-निर्जरं नताधिकापदुद्धरम् ।

सुरेश्वरं निधीश्वरं गजेश्वरं गणेश्वरं,

महेश्वरं तमाश्रये परात्परं निरन्तरम् ।।२

 

समस्त लोक-शंकरं निरस्त-दैत्यकुंजरं,

दरेतरोदरं वरं वरेभवक्त्र-मक्षरम् ।

कृपाकरं क्षमाकरं मुदाकरे यशस्कर,

मनस्करं नमस्कृतं नमस्करोमि भास्वरम् ।।३

 

अकिंचनार्ति-मार्जनं चिरन्तरोक्ति-भाजनं,

पुरारि-पूर्वनन्दनं सुरारि-गर्व-चर्वणम् ।

प्रपंच-नाश-भीषणं धनंजयादि-भूषणं,

कपोल-दानवारणं भजे पुराण-वारणम् ।।४

 

नितान्त कान्त-दन्तकं तमन्तकान्तकात्मजं,

अचिन्त्यरूपमन्तहीनमन्तराय-कृन्तनम् ।

हृदन्तरे निरन्तरं वसन्तमेव योगिनं,

तमेकदन्तमेकमेव चिन्तयामि सन्ततम् ।।५

 

महागणेश-पंचरत्नमादरेण योऽन्वहं,

प्रजल्पति प्रभातके हृदि स्मरन् गणेश्वरम् ।

अरोगतामदोषतां सुसाहितीं सुपुत्रतां,

समाहितायुरष्टभूतिमभ्युपैति सोऽचिरात् ।।६

 

मैं उन गणेश को प्रणाम करता हूँ जो प्रसन्नता के साथ हाथ में मोदक धारण किये हुए हैं, मोक्ष के सदा दाता हैं, जिनके मस्तक पर अर्ध-चन्द्र है, जो विचित्र ढंग से लोक-रक्षण करते हैं, जहाँ कोई नायक न हो तो जो नायक हो जाते हैं, जिन्होंने गजासुर का संहार किया है और जो शरणागत लोगों के अमंगल दूर करते हैं ।।१

 

मैं उन परात्पर गणेश की शरण में सर्वदा जाता हूँ जो शत्रुओं के लिए महा-भयानक हैं, जिनकी कान्ति प्रातःकालीन सूर्य के समान है, जिन्हें देवता और राक्षस-सभी प्रणाम करते हैं, जो प्रणाम करने वालों को सारी विपत्तियों से बचाते हैं तथा देवताओं के, सारी सम्पत्ति के तथा हाथियों के स्वामी हैं और साक्षात् परमेश्वर भी हैं ।।२

 

मैं उन विनायक को प्रणाम करता हूँ जो सारे लोकों का कल्याण करने वाले हैं, जिन्होंने महान् राक्षसों का संहार किया है, जिनका पेट बड़ा है, जो उत्तम हैं और जो गजवदन हैं, शाश्वत हैं, कृपा, क्षमा, सन्तोष, कीर्ति, मान्यता आदि को देने वाले हैं और अत्यन्त तेजस्वी हैं ।।३

 

मैं उन सनातन गणेश जी का भजन करता हूँ जो दीन जनों का दुख दूर करते हैं, जो सनातन कहे जाने के योग्य हैं, जो भगवान् शिव के ज्येष्ठ पुत्र हैं, जो राक्षसों का गर्व चूर करते हैं, जो प्रलय-काल में अति-भयंकर हैं, जो धनंजय (सर्प) को आभूषण के रूप में धारण करते हैं और जिनके कपोल से मद-जल प्रस्रवित होता रहता है।।४

 

मैं उन एकदन्त विनायक का ही सदा चिन्तन करता हूँ जो काल के काल (शिव) के पुत्र हैं (शिव जी ने यम को जीता था), जिनके दाँत अत्यन्त प्रकाशमान और तीक्ष्ण हैं, जो अवर्णनीय रूपवान् हैं, अनन्त हैं, विघ्ननाशक हैं और जो योगियों के हृदय में सर्वदा निवास करते हैं ।।५

 

जो प्रतिदिन प्रातःकाल श्री गणेश जी का स्मरण करते हुए इस महागणेश-पंचक का भक्ति और श्रद्धापूर्वक पारायण करता है, उसे शीघ्र ही आरोग्य लाभ होगा, उसका पाप क्षय होगा, उसको विद्वत्ता, सुसन्तान, दीर्घायुष्य और अष्टसिद्धियों की प्राप्ति होगी ।।६

 

नामावली

 

जय गणेश जय गणेश जय गणेश पाहि माम् ।

श्री गणेश श्री गणेश श्री गणेश रक्ष माम् ।।

 

. गाइये गणपति जगवन्दन

(तुलसीदासकृत)

 

गाइये गणपति जगवन्दन ।

शंकर-सुवन भवानी-नन्दन ।।

 

सिद्धि-सदन गजवदन विनायक ।

कृपासिन्धु सुन्दर सबदायक ।।१

 

मोदक-प्रिय मुदमंगलदाता ।

विद्यावारिधि बुद्धिविधाता ।।२

 

माँगत तुलसिदास कर जोरे ।।

बसहि राम-सिय मानस मोरे ।।३

 

. श्री गणेश जी की आरती

 

जय गणेश जय गणेश जय गणेश देवा ।

माता जाकी पारवती पिता महादेवा ।।

 

एक दन्त दयावन्त चार भुजा धारी ।

माथे सिन्दूर सोहे मूसे की सवारी ।। (जय गणेश...)

 

अन्धन को आँख देत कोढि़न को काया।

बाँझन को पुत्र देत निर्धन को माया ।। (जय गणेश...)

पान चढ़े फूल चढ़े और चढ़े मेवा ।

लडुअन को भोग लगे सन्त करे सेवा ।। (जय गणेश...)

 

श्री शिव-स्तोत्रम्

. शिव-स्तुति

 

शान्तं पद्मासनस्थं शशिधरमुकुटं पंचवक्त्रं त्रिनेत्रं,

शूलं वज्रं च खड्गं परशुमभयदं दक्षिणांगे वहन्तम् ।

नागं पाशं च घण्टां डमरुकसहितं चांकुशं वामभागे,

नानालंकारदीप्तं स्फटिकमणिनिभं पार्वतीशं नमामि ।।१

 

वन्दे शम्भुमुमापतिं सुरगुरुं वन्दे जगत्कारणं,

वन्दे पन्नगभूषणं मृगधरं वन्दे पशूनां पतिम् ।

वन्दे सूर्यशशांकवह्निनयनं वन्दे मुकुन्दप्रियं,

वन्दे भक्तजनाश्रयं च वरदं वन्दे शिवं शंकरम् ।।२

 

मैं पार्वतीश का पूजन करता हूँ, जो शान्त हैं, जो पद्मासन में बैठे हैं; जिनका मुकुट चन्द्रमा से सुसज्जित है; जिनके पाँच मुख और तीन नेत्र हैं; जो शूल, वज्र और खड्ग को धारण किये हुए हैं; जिनके दाहिने भाग में अभयदान देने वाला परशु तथा शिर और कन्धे पर सर्प हैं, जिनके वाम भाग में घण्टा, डमरू और त्रिशूल स्थित हैं, जो नाना प्रकार के अलंकारों से प्रदीप्त और स्फटिक-मणि के समान प्रकाशित हैं ।।१

 

शम्भु, उमापति, देवों के गुरु तथा जगत् के कारणभूत शंकर की मैं वन्दना करता हूँ। नाग जिनका आभूषण है, जो मृगचर्म धारण करते हैं, पशुपति हैं, उन शंकर की मैं वन्दना करता हूँ। सूर्य, चन्द्र तथा अग्नि जिनके तीन नेत्र हैं; जो विष्णु के प्रिय हैं, उन शंकर की मैं बन्दना करता हूँ। जो भक्तों के आश्रय हैं, वरदान देने वाले हैं, कल्याणकारी हैं, उन शंकर की में वन्दना करता हूँ।।२

 

. लिंगाष्टकम्

 

श्लोक

 

तस्मै नमः परमकारण कारणाय

दीप्तोज्वलज्वलित पिंगललोचनाय ।

नागेन्द्रहार कृत कुण्डल भूषणाय

ब्रह्मेन्द्रविष्णुवरदाय नमः शिवाय ।।

 

गीत

 

ब्रह्ममुरारि-सुरार्चित लिंगं,

निर्मल-भाषित-शोभित-लिंगम् ।

जन्मज-दुःख-विनाशक-लिंगं,

तत्प्रणमामि सदाशिवलिंगम् ।। १

 

देवमुनि-प्रवरार्चित लिंगं,

कामदहं करुणाकर-लिंगम् ।

रावण-दर्प-विनाशन-लिंगं,

तत्प्रणमामि सदाशिवलिंगम् ।। २

 

सर्व-सुगन्धि-विलेपित-लिंगं,

बुद्धि-विवर्द्धन-कारण-लिंगम् ।

 सिद्ध-सुरासुर-वन्दित-लिंगं,

तत्प्रणमामि सदाशिवलिंगम् ।। ३

 

कनक-महामणि-भूषित-लिंगं,

फणिपति-वेष्टित-शोभित-लिंगम् ।

दक्षसुयज्ञ-विनाशन-लिंगं,

तत्प्रणमामि सदाशिवलिंगम् ।। ४

 

कुंकुम-चन्दन-लेपित-लिंग,

पंकज-हार-सुशोभित-लिंगम् ।

संचित-पाप-विनाशन-लिंग,

तत्प्रणमामि सदाशिवलिंगम् ।। ५

 

देवगणार्चित-सेवित-लिंगं,

भावैर्भक्तिभिरेवच लिंगम् ।

दिनकर-कोटि-प्रभाकर-लिंग,

तत्प्रणमामि सदाशिवलिंगम् ।। ६

 

अष्टदलोपरि-वेष्टित-लिंगं,

सर्वसमुद्भव-कारण-लिंगम् ।

अष्टदरिद्र-विनाशित-लिंग,

तत्प्रणमामि सदाशिवलिंगम् ।। ७

 

सुरगुरु-सुरवर-पूजित-लिंगं,

सुरवन-पुष्प-सदार्चित-लिंगम् ।

परात्परं परमात्मक लिंग,

तत्प्रणमामि सदाशिवलिंगम् ।। ८

 

लिंगाष्टकमिदं पुण्यं यः पठेच्छिव सन्निधौ ।

शिवलोकमवाप्नोति शिवेन सहमोदते ।। ९

 

लिंग जो भगवान् शिव का प्रतीक है, ब्रह्मा, विष्णु तथा देवों के द्वारा पूजित है। वह निर्मल, प्रकाशमान तथा शोभित है। वह जन्म के दुखों को नष्ट करने वाला है। मैं उस सदाशिव लिंग को नमस्कार करता हूँ।।१

 

वह लिंग देवता तथा मुनियों द्वारा पूजित है। वह काम का विनाशक है तथा करुणा-सागर है। उसने रावण के दर्प को विनष्ट किया। मैं उस सदाशिव लिग को नमस्कार करता हूँ।।२

 

वह लिंग सब प्रकार की सुगन्धियों से लेपित है, वह बुद्धि की वृद्धि का कारण है। वह सिद्धों, देवताओं तथा असुरों द्वारा वन्दित है। मैं उस सदाशिव लिंग को नमस्कार करता हूँ।।३

 

वह लिंग स्वर्ण तथा महामणि से विभूषित है। वह शेषनाग से वेष्टित हो कर शोभायमान हो रहा है। उसने दक्ष के यज्ञ को विध्वंस किया है। मैं उस सदाशिव लिंग को नमस्कार करता हूँ ।।४

 

वह लिंग कुंकुम तथा चन्दन से लेपित है। वह पंकज-हार से सुशोभित है। वह सारे संचित पापों का विनाशक है। मैं उस सदाशिव लिंग को नमस्कार करता हूँ।।५

 

उस लिंग की सेवा देवता तथा भूत गण करते हैं। वह भावपूर्ण भक्ति के द्वारा प्रसन्न होता है। उसमें करोड़ों सूर्य के समान प्रकाश है। मैं उस सदाशिव लिंग को नमस्कार करता हूँ।।६

 

वह अष्टदल कमल पर आसीन है। वह सबकी उत्पत्ति एवं वृद्धि का कारण है। वह आठ प्रकार की दरिद्रता को नष्ट करता है। मैं उस सदाशिव लिंग को नमस्कार करताहूँ।।७

 

वह लिंग देवताओं के गुरु बृहस्पति तथा श्रेष्ठ देवताओं द्वारा पूजित है। वह देवताओं के वनों से लाये हुए पुष्पों द्वारा पूजित है। वह परात्पर तथा परमात्मा है। मैं उस सदाशिव लिंग को नमस्कार करता हूँ।।८

 

. द्वादश ज्योतिर्लिंगस्तोत्रम्

 

सौराष्ट्र सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम् ।

उज्जयिन्यां महाकालं ओंकारममलेश्वरम् ।।१

 

परल्यां वैद्यनाथं च डाकिन्यां भीमशंकरम् ।

सेतुबन्धे तु रामेशं नागेशं दारुकावने ।।२

 

वाराणस्यां तु विश्वेशं त्र्यम्बकं गौतमीतटे ।

हिमालये तु केदारं घुश्मेशं च शिवालये ।।३

 

एतानि ज्योतिर्लिंगानि सायं प्रातः पठेन्नरः ।

सप्त जन्म कृतं पापं स्मरणेन विनश्यति ।।४

. साम्ब गौरिवर

(सन्त केशवदास कृत)

 

साम्ब गौरिवर शंकर शिव शंकर।

अम्बिका मनोहर शंकर शिव शंकर ।।१

 

त्रिनेत्रधारि शंकर शिव शंकर ।

त्रिशूलधारि शंकर शिव शंकर ।।२

 

रजताद्रिवास शंकर शिव शंकर ।

भक्तहृदयवास शंकर शिव शंकर ।।३

 

जटामुकुटधर शंकर शिव शंकर ।

गंगाधर हर शंकर शिव शंकर ।।४

 

नन्दिवाहन शंकर शिव शंकर ।

पार्वतीरमण शंकर शिव शंकर ।।५

 

दक्षिणामूर्ति शंकर शिव शंकर ।

सद्गुरुमूर्ति शंकर शिव शंकर ।।६

 

काशिविश्वनाथ शंकर शिव शंकर ।

दासकेशवनुत शंकर शिव शंकर ।।७

 

 

 

 

 

 

 

. साम्बसदाशिव भोलानाथ

(सन्त केशवदास कृत)

 

साम्बसदाशिव भोलानाथ ।

शम्भो शंकर गौरीनाथ ।।१

 

नन्दिवाहन सुन्दरांग हर,

कन्दर्पारि भोलानाथ ।

चन्द्रचूडधर शंकर सुखकर,

इन्द्रादिविनुत गौरीनाथ ।।२

 

शूलडमरुधर कालकालहर,

फालनेत्र शिव भोलानाथ ।

बालेन्दु फाल व्यालांगरुण्ड,

मालाधर हर गौरीनाथ ।।३

 

जटामुकुटधर घट घट व्यापक,

नटराजा शिव भोलानाथ ।

कुटिल कूल खल दैत्य संहारि,

नटवर शुभकर गौरीनाथ ।।४

 

शिव शिव भव भव नीलकण्ठ शिव,

केशवप्रिय शिव भोलानाथ ।

शिवभव भवशिव भवभयमोचन,

दास केशवनुत गौरीनाथ ।।५

१०. महामृत्युंजय-मन्त्र

 

ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् ।

उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात् ।।

 

 

अन्वयार्थ

 

ॐ (प्रणव मन्त्र; हे परमात्मा) त्र्यम्बकं (तीन लोचन वाले भगवान् शंकर को; सूर्य, चन्द्र और कामदेव को जला कर भस्म करने वाली अग्नि के समान त्रिलोचनधारी महादेव को; महाकालेश्वर को) सुगन्धिं (सुवासित, मधुर गन्ध वाला, संस्कृति वाला ऐसे त्र्यम्बक को) पुष्टिवर्धनं (पोषण अर्थात् दैवी अनुग्रह अर्थात् कृपावृष्टि करने वाले त्र्यम्बक को) यजामहे (हम भजते हैं; हम प्रार्थना करते हैं कि) उर्वारुकं (ककड़ी; लता का फल; परिपक्व फल की) इव (तरह; भाँति) मृत्योः (मृत्यु के; देह के; देहरूपी लता के) बन्धनात् (बन्धन से) मुक्षीय (मुक्त करो; मोक्ष करो) मा (मुझे नहीं) अमृतात् (अमरत्व के लिए; अमृत आत्मा से)।

 

शब्दार्थ

 

ॐ मैं त्रिनेत्रधारी भगवान् शिव की उपासना करता हूँ जो सुगन्धिमय हैं तथा जो सारे प्राणियों को पुष्टि प्रदान करते हैं। वे मुझे अमृतत्व प्रदान करने के लिए मृत्यु से उसी प्रकार मुक्त करें जिस प्रकार ककड़ी का फल अपनी लता के बन्धन से छुटकारा प्राप्त करता है।

 

(कोई-कोई भाष्यकार 'मा अमृतात्' का अर्थ ऐसा भी लगाते हैं कि हे महेश ! तू हमें मृत्यु के अर्थात् देह के बन्धन से मुक्त कर, किन्तु आत्मा के सनातन सम्बन्ध से नहीं।)

 

(१) यह महामृत्युंजय मन्त्र एक संजीवनी मन्त्र है। आज के दिनों में जब कि जीवन बहुत ही जटिल हो चुका है, जब दुर्घटनाएँ हर दिन हुआ करती हैं, इस मन्त्र के द्वारा सर्पदश, बिजली, मोटर-दुर्घटना तथा अन्य सारे प्रकार की दुर्घटनाओं से जीवन की रक्षा होती है। इसके अतिरिक्त यह मन्त्र रोगों का भी निवारण करता है। भाव, श्रद्धा तथा भक्ति के साथ इस मन्त्र के जप द्वारा उन रोगों का भी निवारण हो जाता है जिनको कि डाक्टरों ने असाध्य बतला दिया है। यह सभी व्याधियों का निवारक है। इस मन्त्र से मृत्यु पर विजय प्राप्त होती है।

 

(२) यह मोक्ष का भी मन्त्र है। यह भगवान् शिव का मन्त्र है। यह दीर्घायु, शान्ति, धन, सम्पत्ति, तुष्टि, पुष्टि तथा मोक्ष प्रदान करता है।

 

 

११. जटाटवी-गलज्जल-प्रवाहपावितस्थले

(शिवताण्डवस्तोत्रम्) (रावणकृतं)

 

श्लोक

 

शान्तं पद्मासनस्थं शश-धर-मुकुटं पंच-वक्त्रं त्रिनेत्रं

शूलं वज्र च खड्गं परशुमभयदं दक्षिणांगे वहन्तम् ।

नागं पाशं च घण्टां डमरुक-सहितं चांकुशं वामभागे

नानालंकारदीप्तं स्फटिकमणिनिभं पार्वतीशं नमामि ।।

 

शान्त, पद्मासनस्थित (पद्यासन पर बैठे हुए), चन्द्रमुकुट वाले, त्रिलोचन, दाहिने भाग में त्रिशूल, वज्र, तलवार और अभय देने वाले परशु को धारण करने वाले और वाम भाग में नाग, पाश, घण्टा और डमरू के साथ अंकुश धारण करने वाले, तरह-तरह के अलंकारों से शोभायमान, स्फटिकमणि की तरह कान्ति वाले, ऐसे पार्वतीपति शिवजी को मैं प्रणाम करता हूँ।

 

स्तोत्र

 

जटाटवी-गलज्जलप्रवाहपावितस्थले

गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजंग-तुंग-मालिकाम् ।

डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं

चकार चण्ड-ताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम् ।।१

 

जटा-कटाहसम्भ्रम-भ्रमन्निलिम्पनिर्झरी-

विलोल-वीचि-वल्लरी विराजमान-मूर्द्धनि ।

धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्ट-पावके

किशोर-चन्द्र-शेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम ।।२

 

धरा-धरेन्द्र-नन्दिनी-विलास-बन्धु-बन्धुर-

स्फुरद्दिगन्त-सन्तति-प्रमोद-मान-मानसे ।

कृपा-कटाक्ष-धोरणी-निरुद्ध-दुर्धरापदि

क्वचिद्दिगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि ।।३

 

जटा भुजंग-पिंगल-स्फुरत्फणा-मणि-प्रभा-

कदम्ब-कुंकुम-द्रव-प्रलिप्त-दिग्वधू-मुखे ।

मदान्ध-सिन्धुर-स्फुरत्त्वगुत्तरीयमेदुरे

मनो विनोदमद्भुतं विभर्तु भूत-भर्तरि ।।४

 

सहस्र-लोचन-प्रभृत्यशेष-लेख-शेखर-

प्रसून-धूलि-धोरणी-विधूसरांघ्रि-पीठ-भूः ।

भुजंग-राज-मालया निबद्ध-जाट-जूटकः

श्रियै चिराय जायतां चकोर-बन्धु-शेखरः ।।५

 

ललाट-चत्वरज्वलद्धनंजयस्फुलिंगभा-

निपीत-पंच-सायकं नमन्निलिम्प- नायकम्।

सुधा-मयूख-लेखया विराजमान-शेखरं

महा-कपालि-सम्पदे शिरोजटालमस्तु नः ।।६

 

कराल-फाल-पट्टिका-धगद्धगद्धगज्यल-

द्धनंजयाहुतीकृत-प्रचण्ड-पंचसायके ।

धराधरेन्द्र-नन्दिनी-कुचाग्र-चित्र-पत्रक-

प्रकल्पनैक-शिल्पिनि त्रिलोचने रतिर्मम ।।७

 

नवीन-मेघ-मण्डली-निरुद्ध-दुर्धर-स्फुर-

त्कुहू-निशीथिनी-तमः-प्रबन्ध-बन्ध-कन्धरः ।

निलिम्प-निर्झरी-धर स्तनोतु कृत्ति-सिन्धुरः

 कला-निधान-बन्धुरः श्रियं जगधुरन्धरः ।।८

 

प्रफुल्ल-नील-पंकज-प्रपंच-कालिमा-प्रभा-

वलम्बि-कण्ठ-कन्दली-रुचि-प्रबन्ध-कन्धरम् ।

स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं

गजच्छिदान्धकच्छिदं तमन्तकच्छिदं भजे ।।९

 

अखर्व-सर्व-मंगला-कला-कदम्ब-मंजरी

रस-प्रवाह-माधुरी-विजृम्भणा-मधुव्रतम् ।

स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं

गजान्तकान्धकान्तकं तमन्तकान्तकं भजे ।।१०

 

जयत्वदन-विभ्रम-भ्रमद्-भुजंगम-श्वस-

द्विनिर्गम-क्रम-स्फुरत्कराल-फाल-हव्यवाड् ।

धिमिद्धिमिद्धिमिद्-ध्वनन्मृदंग-तुंग-मंगल-

ध्वनि-क्रम-प्रवर्तित-प्रचण्ड-ताण्डवः शिवः ।।११

 

दृषद्विचित्र-तल्पयोर्भुजंग मौक्तिकस्रजो-

र्गरिष्ठ-रत्न-लोष्टयोसुहृद्विपक्षपक्षयोः ।

तृणारविन्द-चक्षुषोः प्रजा-महीमहेन्द्रयोः

सम-प्रवृत्तिकः कदा सदाशिवं भजाम्यहम् ।।१२

 

कदा निलिम्प-निर्झरी-निकुंज-कोटरे वसन्

विमुक्त-दुर्मतिः सदा शिरःस्थ-मंजलिं वहन् ।

विलोल-लोल-लोचनो ललाम-फाल-लग्नकः

शिवेति मन्त्रमुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम् ।।१३

 

इमं हि नित्यमेव-मुक्तमुत्तमोत्तमं स्तवं

पठन् स्मरन् ब्रुवन्नरो विशुद्धिमेति सन्ततम् ।

हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथा गतिं

विमोचनं हि देहिनां सुशंकरस्य चिन्तनम् ।।१४

 

पूजावसान-समये दशवक्त्र-गीतं

यः शम्भु-पूजन-परं पठति प्रदोषे ।

तस्य स्थिरां रथ-गजेन्द्र-तुरंग-युक्तां

लक्ष्मीं सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भुः ।।१५

 

जिसने जटारूपी अटवी (वन) से निकली हुई गंगा जी के गिरते हुए प्रवाहों से पवित्र किये गये गले में सर्पों की लटकती हुई विशाल माला को धारण कर डमरू के डमडम शब्दों से मण्डित प्रचण्ड ताण्डव (नृत्य) किया; वह शिव हमारे कल्याण का विस्तार करे! ।।१

 

जिसका मस्तक जटारूपी कड़ाह में वेग से घूमती हुई गंगा की चंचल तरंग- लताओं से सुशोभित हो रहा है, ललाट की अग्नि धक् धक् जल रही है, शिर पर बालचन्द्रमा विराजमान है, उस (भगवान् शिव) में मेरा निरन्तर अनुराग हो !।।२

 

गिरिराज किशोरी पार्वती के विलासकालोपयोगी शिरोभूषण से समस्त दिशाओं को प्रकाशित होते देख जिसका मन आनन्दित हो रहा है, जिसकी निरन्तर कृपादृष्टि से कठिन आपत्ति का भी निवारण हो जाता है, ऐसे किसी दिगम्बर-तत्त्व में मेरा मन विनोद करे ! ।।३

 

जिसके जटा-जूटवर्ती सर्पों के फणों की मणियों का फैलता हुआ पिंगल प्रभापुंज दिशारूपिणी अंगनाओं के मुख पर कुंकुमराग का अनुलेपन कर रहा है, मतवाले हाथी के हिलते हुए चमड़े का उत्तरीय वस्त्र (चादर) धारण करने से स्निग्ध वर्ण हुए उस भूतनाथ में मेरा चित्त अद्भुत विनोद करे ! ।।४

 

जिसकी चरणपादुकाएँ इन्द्र आदि समस्त देवताओं के (प्रणाम करते समय) मस्तकवर्ती कुसुमों की धूलि से धूसरित हो रही हैं, नागराज (शेष) के हार से बंधी हुई जटा वाला वह भगवान् चन्द्रशेखर मेरे लिए चिरस्थायिनी सम्पत्ति का साधक हो ।।५

 

जिसने ललाटबेदी पर प्रज्वलित हुई अभि की चिनगारियों के तेज से कामदेव को नष्ट कर डाला था, जिसे इन्द्र नमस्कार किया करते हैं, चन्द्रमा की कला से सुशोभित मुकुट वाला वह (श्री महादेव का) उन्नत विशाल ललाट वाला जटा-जटित मस्तक हमारी सम्पत्ति का साधक हो ।।६

 

जिसने अपने विकराल फालपट्ट पर धक् धक् जलती हुई अग्रि में प्रचण्ड कामदेव को हवन कर दिया था, गिरिराज किशोरी के स्तनों पर पत्र-भंग रचना करने वाले एकमात्र कारीगर, उस भगवान् त्रिलोचन में मेरी धारणा लगी रहे ।।७

 

जिसके कण्ठ में नवीन मेघमाला से घिरी हुई अमावस्या की अर्धरात्रि के समय फैलते हुए दुरूह अन्धकार के समय श्यामता अंकित है, जो गजचर्म लपेटे हुए है, वह' संसार-भार को धारण करने वाला, चन्द्रमा (के सम्पर्क) से मनोहर कान्तिवाला भगवान् गगाधर मेरी सम्पत्ति का विस्तार करे ।।८

 

जिसका कण्ठदेश खिले हुए नीलकमल समूह का, श्यामप्रभा का अनुकरण करने वाली हिरणी की-सी छवि वाले चिह्न से सुशोभित है तथा जो कामदेव, त्रिपुर, भव (संसार), दक्षयज्ञ, हाथी, अन्धकासुर और यमराज का भी उच्छेदन करने वाला है, उसे मैं भजता हूँ ।।९

 

जो अभिमान-रहित पार्वती की कलारूप कादम्बरी के मकरन्दस्रोत की बढ़ती हुई माधुरी का पान करने वाला मधुप है तथा कामदेव, त्रिपुर, भव, दक्षयज्ञ, हाथी, अन्धकासुर और यमराज का भी उच्छेदन करने वाला है, उसे मैं भजता हूँ ।।१०

 

जिसके मस्तक पर बड़े वेग के साथ घूमते हुए भुजंग के फुफकारने से ललाट की भयंकर अग्नि क्रमशः धधकती हुई फैल रही है, धिमि-धिमि बजते हुए मृदंग के गम्भीर मंगलघोष के क्रमानुसार जिसका प्रचण्ड ताण्डव हो रहा है, उस भगवान् शंकर की जय हो! ।।११

 

पत्थर और सुन्दर बिछौनों में, साँप और मुक्ता की माला में, बहुमूल्य रत्न तथा मिट्टी के ढेले में, मित्र और शत्रु पक्ष में, तृण और कमललोचना तरुणी में, प्रजा और पृथ्वी के महाराज में समान भाव रखता हुआ मैं कब सदाशिव को भजूँगा ? ।।१२

 

सुन्दर ललाट वाले चन्द्रशेखर में दत्तचित्त हो अपने कुविचारों को त्याग कर गंगा जी के तटवर्ती निकुंज के भीतर रहता हुआ शिर पर हाथ जोड़, डबडबाई हुई विह्वल आँखों से शिव-मन्त्र का उच्चारण करता हुआ मैं कब सुखी होऊँगा ? ।।१३

 

जो मनुष्य इस प्रकार से उक्त इस उत्तमोत्तम स्तोत्र का नित्य पाठ, स्मरण और वर्णन करता रहता है, वह सदा शुद्ध रहता है और शीघ्र ही सुरगुरु श्री शंकर जी की अच्छी भक्ति प्राप्त कर लेता है, वह विरुद्ध गति को प्राप्त नहीं होता है; क्योंकि श्री शिव जी का अच्छी प्रकार का चिन्तन प्राणिवर्ग के मोह का नाश करने वाला है ।।१४

 

सायंकाल में पूजा समाप्त होने पर रावण के गाये हुए इस शम्भु-पूजन-सम्बन्धी स्तोत्र का जो पाठ करता है, भगवान् शंकर उस मनुष्य को रथ, हाथी, घोड़ों से युक्त सदा स्थिर रहने वाली सम्पत्ति देते हैं ।।१५

 

नामावली

साम्ब सदाशिव, साम्ब सदाशिव,

साम्ब सदाशिव, साम्ब शिवोम् ।

१२. अतिभीषणकटुभाषण

 

श्लोक

 

कृपा-समुद्रं सुमुखं त्रिनेत्रं जटा-धरं पर्वतनन्दिनीशम् ।

सदाशिवं रुद्रमनन्त-रूपं चिदम्बरेशं हृदि भावयामि ।।

 

मैं अपने हृदय में उस चिदम्बरेश का स्मरण करता हूँ जो दयासागर है, सुन्दर मुख वाला है, त्रिनयन है, जटाधारी है, जिसके पार्श्व में पार्वती है, जो सदाशिव है, रुद्र है तथा अनेक रूप है।

 

गीत

 

अति-भीषण-कटु-भाषण-यम-किंकर-पटली-

कृत-ताडन-परिपीडन-मरणागम-समये ।

उमया सह मम चेतसि यम-शासन निवसन्

हर शंकर शिव शंकर हर मे हर दुरितम् ।।१

 

असदिन्द्रिय-विषयोदय-सुख-सत्कृत-सुकृतेः

पर-दूषण-परिमोक्षण-कृत-पातक-विकृतेः ।

 

शमनान्तक भव-कानन-निरतेर्भव शरणं

हर शंकर शिव शंकर हर मे हर दुरितम् ।।२

 

विषयाभिध-बलिशायुध-पिशितायित-सुखतो

मकरायित-गति-संस्मृति-कृत-साहस-विपदम् ।

परिलालय परिपालय परितापित-मनिशं

हर शंकर शिव शंकर हर मे हर दुरितम् ।।३

 

दयिता मम दुहिता मम जननी मन जनको

मम कल्पित-मति-सन्तति-मरु-भूमिषु निरतम् ।

गिरिजा-सख जनितासुख-वसतिं कुरु सुखिनं

हर शंकर शिव शंकर हर मे हर दुरितम् ।।४

जनि-नाशन मृति-मोचन शिव-पूजन-निरते

अभितोदृशमिदमीदृशमहमावह इति हा ।

गज कच्छप जनिताश्रम विमलीकुरु सुमतिं

हर शंकर शिव शंकर हर मे हर दुरितम् ।।५

 

त्वयि तिष्ठति सकल-स्थिति-करणात्मनि हृदये

वसुमार्गण-कृपणेक्षण मनसा शिव-विमुखम् ।

अकृताह्निकमसु-पोषकमवताद् गिरि-सुतया

हर शंकर शिव शंकर हर मे हर दुरितम् ।।६

 

पितरावतिसुखदाविति शिशुना कृत-हृदयौ

शिवया हत-भयके हदि जनितं तव सुकृतम् ।

इति मे शिव हृदयं भव भवतात्तव दयया

हर शंकर शिव शंकर हर मे हर दुरितम् ।।७

 

शरणागत-मरणाश्रित-करुणामृत-जलधे

शरणं तव चरणौ शिव मम संसृति-वसतेः ।

परचिन्मय जगदामय-भिषजे नतिरववात्

हर शंकर शिव शंकर हर मे हर दुरितम् ।।८

 

विविधाधिभिरतिभीतिभिरकृताधिक-सुकृतं

शतकोटिषु नरकादिषु हत-पातक-विवशम्।

मृड मामव सुकृतीभव शिवया सह कृपया

हर शंकर शिव शंकर हर मे हर दुरितम् ।।९

 

कलि-नाशन गरलाशन कमलासन-विनुत

कमला-पति-नयनार्चित-करुणाकृति-चरण ।

करुणाकर मुनि-सेवित भव सागर हरण

हर शंकर शिव शंकर हर मे हर दुरितम् ।।१०

 

मरण-समय में जब यमदूत आ कर अत्यन्त भीषण और कठोर बचन से मुझे पीड़ा देंगे और पीटेंगे तब, हे यम का शासन करने वाले ! तू माता पार्वती सहित मेरे चित्त में विराजमान रह। हे हर, हे शंकर, हे शिव, मेरे पाप दूर कर ।।१

 

मैंने अपने जीवन में दुष्ट इन्द्रिय-विषय-भोग को ही पुण्य समझा, दूसरों की निन्दा की, इस प्रकार के कई पाप किये हैं। संसार-रूपी कानन में ही रमता रहा हूँ। यम का नाश करने वाले हे शंकर, मुझे अपनी शरण दे। हे हर, हे शंकर, हे शिव, मेरे पाप दूर कर ॥२

 

जिस प्रकार मछुआरे के काँटे में लगे मांस के टुकड़े को खाने की इच्छा से मछली खुद काँटे में फँस जाती है, उसी प्रकार इन्द्रियों के अनुराग से मैं जन्म-मरण के चक्र में फँस गया हूँ। हे परम दयालु शंकर, सदा सन्तप्त रहने वाले मुझको सहारा दे। हे हर, हे शंकर, हे शिव, मेरे पाप दूर कर ।।३

 

मैंने अपनी बुद्धि की कल्पना से मान लिया कि यह मेरी पत्नी है, बेटी है, मेरी माँ है, मेरा पिता है। उसी मरुभूमि में फँस गया हूँ। हे पार्वतीरमण, मुझे सच्चा सुख प्रदान कर। हे हर, हे शंकर, हे शिव, मेरे पाप दूर कर ।।४

 

जन्म-मरण का नाश करने वाले, गजासुर और कछुए को आराम देने वाले शिव! चारों ओर भटकने वाले, संसार के युद्ध में पड़े हुए मुझे सम्मति दे, शिवपूजन में लगने की बुद्धि दे। हे हर, हे शंकर, हे शिव, मेरे पाप दूर कर ।।५

 

हे पार्वतीश, हे करुणा-सागर, सबके हृदय में तेरे रहते हुए भी मैं धन कमाने और कृपण दृष्टि से जीने में तुझसे विमुख हो गया हूँ। कभी नित्य-कर्म नहीं किया। तू मेरी रक्षा कर। हे हर, हे शंकर, हे शिव, मेरे पाप दूर कर।।६

 

बच्चों को यह विश्वास रहता है कि माता-पिता उनका भला करते हैं और सब प्रकार का सुख देते हैं। अतः हे शिव! मैं भी तेरी कृपा से यह आशा रखूँ कि तू और माँ गौरी-दोनों सदा मेरे चित्त में निवास करेंगे और जन्म-मृत्यु के भय से मुझे मुक्त कर सारे आनन्द प्रदान करेंगे। हे हर, हे शंकर, हे शिव, मेरे पाप दूर कर ।।७

 

हे शरणागतरक्षक, आश्रितों के लिए करुणामृत के सागर, संसार में फँसे हुए मेरे लिए तेरे चरण ही शरण हैं। तुझे प्रणाम । तू चिन्मय है, जगत्-रूपी रोग का औषध है। हे हर, हे शंकर, हे शिव, मेरे पाप दूर कर ।।८

 

कई प्रकार की चिन्ताओं तथा भयों के कारण मैं अधिक पुण्य-कर्म नहीं कर सका । भयंकर पातकों के कारण करोड़ों नरक भोगता रहा हूँ। हे शिव, पार्वती सहित तू मेरी रक्षा कर, मुझे पुण्यवान् बना। हे हर, हे शंकर, हे शिव, मेरे पाप दूर कर ।।९

 

हे कलि का नाश करने वाले, विष निगलने वाले, ब्रह्मा से नमस्कृत, विष्णु के नेत्रों द्वारा पूजित, तेरे चरण करुणामय हैं। तू करुणा-सागर है, मुनियों से सेवित है, भवसागर को दूर करने वाला है। हे हर, हे शंकर, हे शिव, मेरे पाप दूर कर ।।१०

 

नामावली

हर हर शंकर शिव शिव शंकर ।

हर हर हर हर मे दुरितम् ।।

१३. बिल्वाष्टकम्

 

त्रिदलं त्रिगुणाकारं त्रिनेत्रं च त्रियायुधम् ।

त्रिजन्मपाप-संहारमेकबिल्वं शिवार्पणम् ।।१

 

त्रिशाखैर्बिल्वपत्रैश्च ह्यच्छिद्रैः कोमलैः शुभैः ।

शिवपूजां करिष्यामि ह्येकबिल्वं शिवार्पणम् ।।२

 

अखण्डबिल्वपत्रेण पूजिते नन्दिकेश्वरे ।

शुद्ध्यन्ति सर्वपापेभ्यो ह्येकबिल्वं शिवार्पणम् ।।३

 

शालिग्रामशिलामेकां विप्राणां जातु अर्पयेत् ।

सोमयज्ञ-महापुण्यमेकबिल्वं शिवार्पणम् ।।४

 

दन्तिकोटिसहस्राणि वाजपेयशतानि च ।

कोटिकन्या-महादानमेकबिल्वं शिवार्पणम् ।।५

लक्ष्म्याः स्तनत उत्पन्नं महादेवस्य च प्रियम् ।

बिल्ववृक्षं प्रयच्छामि होकबिल्वं शिवार्पणम् ।।६

 

दर्शनं बिल्ववृक्षस्य स्पर्शनं पापनाशनम् ।

अघोरपापसंहारमेकबिल्वं शिवार्पणम् ।।७

 

मूलतो ब्रह्मरूपाय मध्यतो विष्णुरूपिणे ।

अग्रतः शिवरूपाय होकबिल्वं शिवार्पणम् ।।८

 

बिल्वाष्टकमिदं पुण्यं यः पठेच्छिवसन्निधौ ।

सर्वपापविनिर्मुक्तः शिवलोकमवाप्नुयात् ।।९ ।।

 इति बिल्वाष्टकं सम्पूर्णम् ।।

 

१४. श्री शिवमानसपूजा

 

ॐ श्रीगणेशाय नमः

 

रत्नैः कल्पितमासनं हिमजलैः स्नानं च दिव्याम्बरं

नानारत्नविभूषितं मृगमदामोदांकितं चन्दनम् ।

जातीचम्पकबिल्वपत्ररचितं पुष्पं च धूपं तथा

दीपं देव दयानिधे पशुपते हत्कल्पितं गृह्यताम् ।।१

 

सौवर्ण मणिखण्डरलरचिते पात्रे घृतं पायसं

भक्ष्यं पंचविधं पयोदधियुतं रम्भाफलं पानकम् ।

शाकानामयुतं जलं रुचिकरं कर्पूरखण्डोज्वलं

ताम्बूलं मनसा मया विरचितं भक्त्या प्रभो स्वीकुरु ।।२

 

छत्रं चामरयोर्युगं व्यजनकं चादर्शकं निर्मलं

वीणाभेरिमृदंगकाहलकला गीतं च नृत्यं तथा ।

साष्टांगं प्रणतिः स्तुतिर्बहुविधा ह्येतत्समस्तं मया

संकल्पेन समर्पितं तव विभो पूजां गृहाण प्रभो ।।३

 

आत्मा त्वं गिरिजा मतिः सहचराः प्राणाः शरीरं गृहं

पूजा ते विषयोपभोगरचना निद्रा समाधिस्थितिः ।

संचारः पदयोः प्रदक्षिणविधिः स्तोत्राणि सर्वा गिरो

यद्यत्कर्म करोमि तत्तदखिलं शम्भो तवाराधनम् ।।४

 

इत्येवं हरपूजनं प्रतिदिनं यो वा त्रिसन्ध्यं पठेत्

सेवाश्लोकचतुष्टयं प्रतिदिनं पूजा हरेर्मानसि ।

सोऽयं सौख्यमवाप्नुयाद् द्युतिधरं साक्षाहोर्दर्शनं

व्यासस्तेन महावसानसमये कैलासलोकं गतः ।।५

 

करचरणकृतं वाक्कायजं कर्मजं वा

श्रवणनयनजं वा मानसं वापराधम् ।

विहितमविहितं वा सर्वमेतत्क्षमस्व

जय जय करुणाब्धे श्रीमहादेव शम्भो ।।५ ।।

 इति श्रीशिवमानसपूजा समाप्तम् ।।

१५. शिवपंचाक्षरस्तोत्रम्

नागेन्द्रहाराय त्रिलोचनाय

भस्मांगरागाय महेश्वराय ।

नित्याय शुद्धाय दिगम्बराय

तस्मै 'न'-काराय नमः शिवाय ।।१

 

मन्दाकिनी-सलिल-चन्दन-चर्चिताय

नन्दीश्वर-प्रमथनाथ-महेश्वराय ।

मन्दारपुष्प-बहुपुष्प-सुपूजिताय

तस्मै 'म' -काराय नमः शिवाय ।।२

 

शिवाय गौरीवदनारविन्द-

सूर्याय दक्षाऽध्वर-नाशकाय ।

श्री नीलकण्ठाय वृषध्वजाय

तस्मै 'शि' -काराय नमः शिवाय ।।३

 

वसिष्ठ-कुम्भोद्भव-गौतमार्य-

मुनीन्द्र-देवाऽर्चित-शेखराय ।

चन्द्रार्क-वैश्वानर-लोचनाय

तस्मै 'व'-काराय नमः शिवाय ।।४

 

यक्षस्वरूपाय जटाधराय

पिनाकहस्ताय सनातनाय ।

दिव्याय देवाय दिगम्बराय

तस्मै 'य'-काराय नमः शिवाय ।।५

 

पंचाक्षरमिदं पुण्यं यः पठेच्छिवसन्निधौ ।

शिवलोकमवाप्नोति शिवेन सह मोदते ।।६ ।।

इति श्रीमच्छंकराचार्यविरचितं शिवपंचाक्षरस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।।

१६. शिवषडक्षरस्तोत्रम्

 

ॐकारं बिन्दुसंयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः ।

कामदं मोक्षदं चैव 'ॐ' -काराय नमो नमः ।।१

 

नमन्ति ऋषयो देवा नमन्त्यप्सरसां गणाः ।

नरा नमन्ति देवेशं 'न' -काराय नमो नमः ॥२

 

महादेवं महात्मानं महाष्यानं परायणम् ।

महापापहरं देवं 'म'-काराय नमो नमः ।।३

 

शिवं शान्तं जगन्नाथं लोकानुग्रहकारकम् ।

शिवमेकपदं नित्यं 'शि' -काराय नमो नमः ।।४

 

वाहनं वृषभो यस्य वासुकिः कण्ठभूषणम् ।

वामे शक्तिधरं देवं 'व' -काराय नमो नमः ।।५

 

यत्र यत्र स्थितो देवः सर्वव्यापी महेश्वरः ।

यो गुरुः सर्वदेवानां 'य' -काराय नमो नमः ।।६

 

षडक्षरमिदं स्तोत्रं यः पठेच्छिवसन्निधौ ।

 शिवलोकमवाप्नोति शिवेन सह मोदते ।।७

१७. दारिद्र्य-दहन-शिवस्तोत्रम्

 

विश्वेश्वराय नरकार्णवतारणाय

कर्णामृताय शशिशेखरधारणाय ।

कर्पूरकान्तिधवलाय जटाधराय

दारिद्रय-दुःखहरणाय नमः शिवाय ।।१

 

गौरीप्रियाय रजनीशकलाधराय

कालान्तकाय भुजगाधिपकंकणाय ।

गंगाधराय गजराज-विमर्दनाय

दारिद्रय-दुःखहरणाय नमः शिवाय ।।२

 

भक्तिप्रियाय भव-रोग-भयापहाय

उग्राय दुर्गमभव-सागरतारणाय ।

ज्योतिर्मयाय गुणनामसुनृत्यकाय

दारिद्रय-दु:खहरणाय नमः शिवाय ।।३

 

चर्माम्बराय शवभस्मविलेपनाय

फालेक्षणाय मणिकुण्डलमण्डिताय ।

मंजीरपादयुगलाय जटाधराय

दारिद्रय-दुःखहरणाय नमः शिवाय ।।४

 

पंचाननाय फणिराजविभूषणाय

हेमांशुकाय भुवनत्रयमण्डिताय ।

आनन्दभूमिवरदाय तमोमयाय

दारिद्रय-दुःखहरणाय नमः शिवाय ।।५

 

भानुप्रियाय भवसागरतारणाय

कालान्तकायकमलासनपूजिताय ।

 नेत्रत्रयाय शुभलक्षणलक्षिताय

दारिद्रय-दुःखहरणाय नमः शिवाय ।।६

 

रामप्रियाय रघुनाथवरप्रदाय

नागप्रियाय नरकार्णवतारणाय ।

पुण्येषु पुण्यभरिताय सुरार्चिताय

दारिद्रय-दुःखहरणाय नमः शिवाय ।।७

 

मुक्तेश्वराय फलदाय गणेश्वराय

गीतप्रियाय वृषभेश्वरवाहनाय ।

मातंगचर्मवसनाय महेश्वराय

दारिद्रय-दुःखहरणाय नमः शिवाय ।।८

 

वसिष्ठेन कृतं स्तोत्रं सर्वरोगनिवारणम् ।

सर्वसम्पत्करं शीघ्रं पुत्र-पौत्रादि-वर्धनम् ।

त्रिसन्ध्यं यः पठेन्नित्यं स हि स्वर्गमवाप्नुयात् ।।९

 

।।इति श्रीवसिष्ठविरचितं दारिद्रय-दहन-शिवस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।।

१८. रुद्राष्टकम् (श्री तुलसीदासकृतं)

 

श्लोक

 

स्थानं न यानं न च बिन्दु नादं रूपं न रेखा न च धातुवर्गम् ।

दृश्यं न दृष्टं श्रवणं न श्राव्यं तस्मै नमो ब्रह्म निरंजनाय ।।

 

 

 

 

गीत

 

नमामीशमीशान निर्वाणरूपं

विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपम् ।

अजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं

चिदाकारमाकाशवासं भजेऽहम् ।।१

 

निराकारमोंकारमूलं तुरीयं

गिराज्ञानगोतीतमीशं गिरीशम् ।

करालं महाकालकालं कृपालुं

गुणागारसंसारपारं नतोऽहम् ।।२

 

तुषाराद्रिसंकाशगौरं गभीरं

मनोभूतकोटिप्रभास्वच्छरीरम् ।

स्फुरन्मौलिकल्लोलिनी-चारुगंगा

लसत्फालबालेन्दु-कण्ठे-भुजंगम् ।।३

 

चलत्कुण्डलं शुभ्रनेत्रं विशालं

प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालुम् ।

मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं

प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि ।।४

 

प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं

अखण्डं भजे भानुकोटिप्रकाशम् ।

त्रयीशूलनिर्मूलनं शूलपाणि

भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यम् ।।५

 

कलातीतकल्याणकल्पान्तकारी

सदा सज्जनानन्ददाता पुरारिः ।

चिदानन्दसन्दोहमोहोपहारी

प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारिः ।।६

 

न यावद्-उमानाथपादारविन्दं

भजन्तीह लोके परे वा नराणाम् ।

न तावत्सुखं शान्तिसन्तापनाशं

प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवास ।।७

 

न जानामि योगं जपं नैव पूजां

नतोऽहं सदा सर्वदा देव तुभ्यम् ।

जराजन्मदुःखौघतातप्यमानं

प्रभो पाहि शापान्नमामीशशम्भो ।।८

 

रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेणहरतुष्टये ।

ये पठन्ति नराभक्त्या तेषांशम्भुः प्रसीदति ।।९

 

नामावली

 

साम्बसदाशिव साम्बसदाशिव ।

साम्बसदाशिव साम्बशिवोऽम् ।।

१९. नमो भूतनाथ

 

नमो भूतनाथ, नमो पार्वतीश,

नर रुण्ड माला धारी, विष सर्प ते शरीरा।

डमरु त्रिशूल वाला, नमो पार्वतीशा ।। नमो ...

 

व्याघ्रासने विराजे, ललाट चन्द्र साजे,

अवधूत वेष वाला, नमो पार्वतीशा ।। नमो…

 

शोभे जटाते गंगा, पीये निराला भंगा,

अल मस्त बैल वाला, नमो पार्वतीशा ।। नमो...

 

नाचे पिशाच संगे, जो भिल्लिनी सरंगे,

बस भोले भावि काल, नमो पार्वतीशा ।। नमो...

करि शंख नाद रुंड़झे, मुखे राम नाम गूँजे,

क्षणि जालि लेमदाला, नमो पार्वतीशा ।। नमो...

२०. हर गाओ शिव गाओ

 

हर गाओ शिव गाओ, हर हर शिवशंकर गाओ ।।

 

जय उमानाथ जय मदनान्तक, जय शिव त्रिपुरारी गाओ ।।

डम डम डम डम डमरू बाजे, नन्दिवाहन गाओ।

जय उमा महेश्वर गाओ ।। हर गाओ...

 

जय गंगाधर जय विश्वेश्वर, जय जय भवानीवर गाओ ।

पापविमोचन भवा निरंजन, शिव मनमोहन गाओ ।

जय उमा महेश्वर गाओ ।। हर गाओ...

 

जय नागदमन जय नागभूषण, जय शिव गणभूषण गाओ ।

कल्मषमोचन भवभयहरणा, शिव पंचानन गाओ ।

जय उमा महेश्वर गाओ ।। हर गाओ ...

२१. शंकर महादेव देव

 

शंकर महादेव देव, सेवत सब जाके ।

 

जटा मुकुट सीस गंगा, बहत तेरे अति प्रचण्ड,

गौरी अरधंग संग, भंग रंग साजे ।। शंकर...

 

ध्यावत सुरनर मुनीश, गावत गिरिजा गिरीश ।

पावत नहीं पार शेष, नेति नेति पुकारे ।। शंकर...

 

बरणत तुलसीदास, गिरिजापति चरण आस ।

एसे वर वेष नाथ, भक्त हेतु ताके ।। शंकर...

 

२२. श्री शिव-अष्टोत्तरशत-नामावली

 

१. ॐ शिवाय नमः                २. ॐ महेश्वराय नमः

 

३. ॐ शम्भवे नमः                ४. ॐ पिनाकिने नमः

 

५. ॐ शशिशेखराय नमः            ६. ॐ वामदेवाय नमः

 

७. ॐ विरूपाक्षाय नमः             ८. ॐ कपर्दिने नमः

 

९. ॐ नीललोहिताय नमः           १०. ॐ शंकराय नमः

 

११. ॐ शूलपाणये नमः             १२. ॐ खट्वांगिने नमः

 

१३. ॐ विष्णुवल्लभाय नमः         १४. ॐ शिपिविष्टाय नमः

 

१५. ॐ अम्बिकानाथाय नमः         १६. ॐ श्रीकण्ठाय नमः

 

१७. ॐ भक्तवत्सलाय नमः          १८. ॐ भवाय नमः

 

१९. ॐ शर्वाय नमः                २०. ॐ त्रिलोकेशाय नमः

 

२१. ॐ शितिकण्ठाय नमः           २२. ॐ शिवाप्रियाय नमः

 

२३. ॐ उग्राय नमः                २४. ॐ कपालिने नमः

 

२५. ॐ कामारये नमः              २६. ॐ अन्धकासुरसूदनाय नमः

 

२७. ॐ गंगाधराय नमः             २८. ॐ ललाटाक्षाय नमः           

 

२९. ॐ कालकालाय नमः            ३०. ॐ कृपानिधये नमः           

 

३१. ॐ भीमाय नमः               ३२. ॐ परशुहस्ताय नमः           

 

३३. ॐ मृगपाणये नमः             ३४. ॐ जटाधराय नमः            

 

३५. ॐ कैलासवासिने नमः          ३६. ॐ कवचिने नमः             

 

३७. ॐ कठोराय नमः              ३८. ॐ त्रिपुरान्तकाय नमः         

 

३९. ॐ वृषांकाय नमः              ४०. ॐ वृषभारूढाय नमः           

 

४१. ॐ भस्मोद्धूलितविग्रहाय नमः    ४२. ॐ सामप्रियाय नमः           

 

४३. ॐ स्वरमयाय नमः            ४४. ॐ त्रयीमूर्तये नमः            

 

४५. ॐ अनीश्वराय नमः            ४६. ॐ सर्वज्ञाय नमः             

 

४७. ॐ परमात्मने नमः             ४८. ॐ सोमसूर्याग्निलोचनाय नमः    

 

४९. ॐ हविषे नमः                ५०. ॐ यज्ञमयाय नमः            

 

५१. ॐ सोमाय नमः               ५२. ॐ पंचवक्त्राय नमः

 

५३. ॐ सदाशिवाय नमः            ५४. ॐ विश्वेश्वराय नमः

 

५५. ॐ वीरभद्राय नमः             ५६. ॐ गणनाथाय नमः

 

५७. ॐ प्रजापतये नमः             ५८. ॐ हिरण्यरेतसे नमः

 

५९. ॐ दुर्धर्षाय नमः               ६०. ॐ गिरीशाय नमः

 

६१. ॐ गिरिशाय नमः             ६२. ॐ अनघाय नमः

 

६३. ॐ भुजंगभूषणाय नमः          ६४. ॐ भर्गाय नमः

 

६५. ॐ गिरिधन्वने नमः            ६६. ॐ गिरिप्रियाय नमः

 

६७. ॐ कृत्तिवाससे नमः      ६८. ॐ पुरारातये नमः

 

६९. ॐ भगवते नमः               ७०. ॐ प्रमथाधिपाय नमः

 

७१. ॐ मृत्युंजयाय नमः            ७२. ॐ सूक्ष्मतनवे नमः

 

७३. ॐ जगद्व्यापिने नमः           ७४. ॐ जगद्‌गुरवे नमः

 

७५. ॐ व्योमकेशाय नमः           ७६. ॐ महासेनजनकाय नमः

 

७७. ॐ चारुविक्रमाय नमः           ७८. ॐ रुद्राय नमः

 

७९. ॐ भूतपतये नमः              ८०. ॐ स्थाणवे नमः

 

८१. ॐ अहिर्बुध्याय नमः            ८२. ॐ दिगम्बराय नमः

 

८३. ॐ अष्टपूर्तये नमः             ८४. ॐ अनेकात्मने नमः

 

८५. ॐ सात्त्विकाय नमः      ८६. ॐ शुद्धविग्रहाय नमः

 

८७. ॐ शाश्वताय नमः             ८८. ॐ खण्डपरशवे नमः

 

८९. ॐ अजाय नमः               ९०. ॐ पाशविमोचनाय नमः

 

९१. ॐ मृडाय नमः                ९२. ॐ पशुपतये नमः

 

९३. ॐ देवाय नमः                ९४. ॐ महादेवाय नमः

 

९५. ॐ अव्ययाय नमः             ९६. ॐ हरये नमः

 

९७. ॐ पूषदन्तभिदे नमः           ९८. ॐ अव्यग्राय नमः

 

९९. ॐ दक्षाध्वरहराय नमः          १००. ॐ हराय नमः

 

१०१. ॐ भगनेत्रभिदे नमः           १०२. ॐ अव्यक्ताय नमः

 

१०३. ॐ सहस्राक्षाय नमः            १०४. ॐ सहस्रपदे नमः

 

१०५. ॐ अपवर्गप्रदाय नमः          १०६. ॐ अनन्ताय नमः

 

१०७. ॐ तारकाय नमः             १०८. ॐ परमेश्वराय नमः

 

।। इति श्री शिव-अष्टोत्तरशत-नामावली ।।

२३. शिव-आरती

 

जय शिव ओंकारा, हर जय शिव ओंकारा ।

ब्रह्मा विष्णु सदाशिव अर्धांगी धारा ।। जय शिव...

 

एकानन चतुरानन, पंचानन राजै, शिव पंचानन राजै ।

हंसासन गरुड़ासन, हंसासन गरुड़ासन, वृषभासन साजै ।। जय शिव...

 

दो भुज चार चतुर्भुज, दशभुज ते सोहै, शिव दशभुज ते सोहै ।

तीनों रूप निरखता, तीनों रूप निरखता, त्रिभुवन जन मोहै ।। जय शिव...

 

अक्षमाला वनमाला, रुण्डमालाधारी, शिव रुण्डमालाधारी ।

चन्दनमृगमद चन्दा, चन्दनमृगमद चन्दा, भाले शुभकारी ।। जय शिव...

 

श्वेताम्बर पीताम्बर, बाघम्बर अंगे, शिव बाघम्बर अंगे ।

सनकादिक प्रभुतादिक, सनकादिक प्रभुतादिक, भूतादिक संगे ।। जय शिव...

 

कर मध्ये करमण्डल चक्र त्रिशूल धर्ता, शिव चक्र त्रिशूल धर्ता ।

जगकर्ता जगभर्ता, जगकर्ता जगभर्ता, जग का संहर्ता ।। जय शिव...

 

ब्रह्मा विष्णु सदाशिव जानत अविवेका, शिव जानत अविवेका ।

प्रणव अक्षरनु मध्ये, प्रणव अक्षरनु मध्ये, ये तीनों एका ।। जय शिव…

 

त्रिगुण स्वामी जी की आरती जो कोई नर गावै, शिव जो कोई नर गावै ।

कहत शिवानन्द स्वामी, कहत शिवानन्द स्वामी, मनवांछित फल पावै ।। जय शिव…

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

मंगलवार

श्री सुब्रह्मण्य-स्तोत्रम्

. नाद-बिन्दु-कलादि नमो नमः

(तिरुप्पुगल)

 

श्लोक

 

षडाननं कुंकुम-रक्त-वर्ण महामतिं दिव्य-मयूर-वाहनम् ।

रुद्रस्य सूनुं सुर-सैन्य-नाथं गुहं सदाऽहं शरणं प्रपद्ये ।।

 

मैं सदा भगवान् षण्मुख कार्तिकेय की शरण जाता हूँ जो कुंकुमरक्तवर्ण वाले हैं, जिनमें असीम ज्ञान है, जिनका वाहन दिव्य मयूर है और जो भगवान् शिव के पुत्र तथा देवताओं की सेना के नायक हैं।

 

गीत

 

नाद-बिन्दु-कलादि नमो नमः ।

वेदमन्त्र-स्वरूपा नमो नमः ।

ज्ञान-पण्डित-स्वामी नमो नमः ।।१।। (बहु कोटि)

 

नाम शम्भु-कुमारा नमो नमः ।

भोग अन्तरि-पाला नमो नमः ।

नाग-बन्धु-मयूरा नमो नमः ।।२।। (पर शूरा)

 

छेद-दण्ड-विनोदा नमो नमः ।

गीत-किंकिणि-पादा नमो नमः ।

धीर-सम्भ्रम-वीरा नमो नमः ।।३।। (गिरिराजा)

 

दीपमंगल ज्योति नमो नमः ।

तूय-अम्बल-लीला नमो नमः ।

देव-कुंजरि-भागा नमो नमः ।।४।। (अरुल्ताराई)

उसको नमस्कार है जो शब्द, देश तथा काल से परे है। उसको नमस्कार है जो वेद-मन्त्र-स्वरूप है। उसको नमस्कार है जो ज्ञानियों का सम्राट् है ।।१

 

उसको नमस्कार है जो शिव का पुत्र है। उसको नमस्कार है जो सारे आन्तरिक भोगों का रक्षक है। उसको नमस्कार है जो मयूर पर आसीन हो कर भक्तों के वासना-रूपी सपों का नियन्त्रण करता है ।।२

 

उसको नमस्कार है जिसके हाथ में त्रिशूल है। उसको नमस्कार है जिसके पैर में मधुर झंकार करने वाली किंकिणी है। उसको नमस्कार है जो महान् वीर है ।।३

 

उसको नमस्कार है जो दीप, नैवेद्य आदि में वर्तमान है। उसको नमस्कार है जो भक्तों के पवित्र हृदय-स्थल में नृत्य करता है। उसको नमस्कार है जिसके पास में देवयानी है। वह सुब्रह्मण्य हम पर कृपा तथा आनन्द की वृष्टि करे!!४

 

नामावली

 

वेल् मुरुगा वेल् मुरुगा वेल् मुरुगा पाहि माम् ।

वेलायुधा वेलायुधा वेलायुधा रक्ष माम् ।।

. शरणागतमातुरमाधिजितम्

 

श्लोक

 

शक्ति-हस्तं विरूपाक्षं शिखि-वाहं षडाननम् ।

दारुणं रिपु-रोगघ्नं भावये कुक्कुट-ध्वजम् ।।

 

मैं भगवान् षण्मुख का ध्यान करता हूँ जो अपने हाथों में शक्ति-अस्त्र को धारण किये हुए हैं, जिसके सूर्य, चन्द्र और अग्नि- ये तीन नेत्र हैं, जो मोर की सवारी करता है, दुष्टों के लिए भयानक है, अपने भक्त के शत्रुओं और रोगों का विनाशक है तथा जिसकी ध्वजा पर कुक्कुट का चिह्न अंकित है।

 

 

स्तोत्रम्

 

शरणागत मातुरमाधिजितं

करुणाकर कामद कामहतम् ।

शर-कानन-सम्भव चारु-रुचे

परिपालय तारक-मारक माम् ।।१

 

हर-सार-समुद्भव हैमवती-

कर-पल्लव-लालित-कम्र-तनो ।

मुरवैरि-विरिंचि-मुदम्बुनिधे

परिपालय तारक-मारक माम् ।।२

 

गिरिजा-सुत सायक-भिन्न-गिरे

सुरसिन्धु-तनूज सुवर्ण-रुचे।

सुरसैन्य-पते शिखि-वाहन हे

परिपालय तारक-मारक माम् ।।३

 

जय विप्र-जन-प्रिय वीर नमो

जय भक्त-जन-प्रिय भद्र नमः ।

जय देव विशाख-कुमार नमः

परिपालय तारक-मारक माम् ।।४

 

पुरतो भव मे परितो भव मे

पथि मे भगवन् भव रक्ष गतम् ।

वितराजिषु मे विजयं भगवन्

परिपालय तारक-मारक माम् ।।५

 

शरदिन्दु-समान-षडाननया

सरसीरुह-चारु-विलोचनया ।

निरुपाधिकया निजबालतया

परिपालय तारक-मारक माम् ।।६

 

इति कुक्कुट-केतु-मनुस्मरतां

पठतामपि षण्मुख-षट्कमिमम् ।

नमतामपि नन्दनमिन्दुभृतो

न भयं क्वचिदस्ति शरीरभृताम् ।।७

मैं चिन्ताओं और कामनाओं से आक्रान्त हूँ। मैं तेरे चरणकमल की शरण लेता हूँ। तू दया का सागर, भक्तों की मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाला, शरों के वन में जन्म ग्रहण करने वाला तथा मनोहर है। हे तारकासुर का वध करने वाले कार्तिकेय, तू मेरा परिपालन कर ।।१

 

तू शिवजी का पुत्र है, माता पार्वती जी के कोमल हाथों से पोसा गया है। तू सुन्दर अंग वाला है। तू ब्रह्मा और विष्णु के आनन्द का सागर है। है तारकासुर का वध करने वाले कार्तिकेय, तू मेरा परिपालन कर ।।२

 

हे पार्वती-पुत्र, तूने अपने बाणों से (क्रौंच) पर्वत को विदीर्ण कर डाला। तू गंगा जी का पुत्र है, स्वर्ण के समान कान्ति वाला है, देवताओं की सेना का अधिपति है और मोर की सवारी करता है। हे तारकासुर का वध करने वाले कार्तिकेय, तू मेरा परिपालन कर ।।३

 

तेरी जय हो! तुझे वेदज्ञ ब्राह्मण तथा भक्त प्रिय हैं। तू विशाख और कुमार नाम से प्रसिद्ध है। हे भद्र, हे देव, तुझको नमस्कार है। हे तारकासुर का वध करने वाले कार्तिकेय, तू मेरा परिपालन कर ।।४

 

हे भगवान्! मेरे सम्मुख तथा चतुर्दिक् तू उपस्थित रह। मेरे मार्ग में तू सहायक बन और मेरी यात्रा सफल बना। हे तारकासुर का वध करने वाले कार्तिकेय, तू मेरा परिपालन कर ।।५

 

तेरे छह मुख शरच्चन्द्र के समान और नेत्र कमल के समान सुन्दर हैं। तू सभी प्रकार की परिच्छिन्नताओं से मुक्त चिरकुमार है। हे तारकासुर का वध करने वाले कार्तिकेय, तू मेरा परिपालन कर ।।६

 

जो कुक्कुट-ध्वजाधारी भगवान् षण्मुख को स्मरण करते हैं, जो इन छह श्लोकों का पाठ करते हैं और शिव-पुत्र कार्तिकेय जी को नमस्कार करते हैं, उन्हें कहीं भी कोई भय नहीं प्राप्त होता ।।७

 

नामावली

सुब्रह्मण्य सुब्रह्मण्य सुब्रह्मण्य पाहि माम् ।

कार्तिकेय कार्तिकेय कार्तिकेय रक्ष माम् ।।

. कार्तिकेयस्तोत्रम्

 

ॐ श्री गणेशाय नमः

स्कन्द उवाच

 

योगीश्वरो महासेनः कार्तिकेयोऽग्निनन्दनः ।

स्कन्दः कुमारः सेनानिः स्वामी शंकरसम्भवः ।।१

 

गांगेयस्ताम्रचूडश्च ब्रह्मचारी शिखिध्वजः ।

तारकारिरुमापुत्रः क्रौंचारिश्च षडाननः ।।२

 

शब्दब्रह्मसमुद्रश्च सिद्धः सारस्वतो गुहः ।

सनत्कुमारो भगवान् भोगमोक्षफलप्रदः ।।३

 

शरजन्मा गणाधीशः पूर्वजो मुक्तिमार्गकृत् ।

सर्वागमप्रणेता च वांछितार्थप्रदर्शनः ।॥४

 

अष्टाविंशतिनामानि मदीयानीति यः पठेत् ।

प्रत्यूषे श्रद्धया युक्तो मूको वाचस्पतिर्भवेत् ।।५

 

महामन्त्रमयानीति मम नामानुकीर्तनम् ।

महाप्रज्ञामवाप्नोति नात्र कार्या विचारणा ।।६

 

।। इति श्रीरुद्रयामले प्रज्ञाविवर्धनाख्यं श्रीमत्कार्तिकेयस्तोत्रम् ।।

 

 

 

नामावली

 

स्कन्धं वन्दे नमोऽस्तु ते, जय षण्मुखनाथ नमोऽस्तु ते ।

मुरुगा गुहने नमोऽस्तु ते, जय वल्ली-वल्लभ नमोऽस्तु ते ।

कार्तिकेय नमोऽस्तु ते, जय कतिरकाम वासा नमोऽस्तु ते ।

दण्डायुधपाणि नमोऽस्तु ते, जय तिरुपुरनकुन्द्र नमोऽस्तु ते ।

दैवयानै-समेता नमोऽस्तु ते, जय अनाथ-रक्षक नमोऽस्तु ते ।

दीनबन्धु नमोऽस्तु ते, जय दीन-नाथ नमोऽस्तु ते ।

देव देव नमोऽस्तु ते, जय देवनाथ नमोऽस्तु ते ।

भक्तवत्सल नमोऽस्तु ते, जय पतितपावन नमोऽस्तु ते ।।

गुह मुरुगा षण्मुखा, उडिपि सुब्रह्मण्य ।

तिरुचेन्दूर वेला, कतिरकामनाथा ।

देवयानी-समेता, पलनिमलै आन्डवा ।

ॐ शरवणभव, गुह मुरुगेशा ।।

षण्मुखा बाल, षण्मुखा बाल, षण्मुखा बाल, षण्मुखा ।

सुब्रह्मण्य शिव, सुब्रह्मण्य शिव, सुब्रह्मण्य शिव, सुब्रह्मण्य ।

भक्तवत्सल, भक्तवत्सल, भक्तवत्सल, भक्तवत्सल ।

पतितपावन, पतितपावन, पतितपावन, पतितपावन ।।

बोल षण्मुख, बोल षण्मुख, षण्मुख षम्मुख बोल ।

शिव शिव, शिव शिव, सुब्रह्मण्य, शरवणभव बोल ।।

 

श्री हरिहर-पुत्र-स्तोत्रम्

. पदारविन्द-भक्त-लोक-पालनैक-लोलुपम्

 

श्लोक

 

श्रितानन्द-चिन्तामणि श्रीनिवासं

सदा सच्चिदानन्द-पूर्ण-प्रकाशम् ।

उदारं सुदारं सुराधारमीशं

परं-ज्योतिरूपं भजे भूतनाथम् ।।

 

जो सर्व भूतों का नाथ है, आश्रितजनों को आनन्द प्रदान करने के लिए चिन्तामणि रूप है, जो श्री का आवास-स्थान है, सर्वदा सत्, चित् और आनन्द के पूर्ण प्रकाश से युक्त है, जो उदार है, जिसकी पत्नी मंगलकारिणी है, जो देवताओं का आधार और स्वामी है तथा परम ज्योतिस्वरूप है, मैं उसकी आराधना करता हूँ।

 

गीत

 

पदारविन्द-भक्त-लोक-पालनैक-लोलुपं

सदारपार्श्वमात्मजादि मोदकं सुराधिपम्।

उदारमादि-भूतनाथमद्द्युतात्म-वैभवं

सदा रवीन्दु-कुण्डलं नमामि भाग्य-सम्भवम् ।।१

 

कृपा-कटाक्ष-वीक्षणं विभूति-वेत्र-भूषणं

सुपावनं सनातनादि-सत्य-धर्म-पोषणम् ।

अपार-शक्ति-युक्तमात्म-लक्षणं सुलक्षणं

प्रभा-मनोहरं हरीश-भाग्य-सम्भवं भजे ।।२

 

मृगासनं वरासनं शरासनं महौजसं

जगद्धितं समस्त-भक्त-चित्तरंग-संस्थितम् ।

नगाधिराज-राजयोग-पीठ-मध्यवर्तिनं

मृगांक-शेखरं हरीश-भाग्य-सम्भवं भजे ।।३

 

समस्त-लोक-चिन्तित-प्रदं सदा सुख-प्रदं

समुत्थिता-पदन्धकार-कृन्तनं प्रभाकरम् ।

अमर्त्य-नृत्य-गीत-वाद्य-लालसं मदालसं

नमस्करोमि भूतनाथमादिधर्म-पालकम् ।।४

 

चराचरान्तरस्थित प्रभा-मनोहर प्रभो

सुरासुरार्चितांघ्रि-पद्म-युग्म भूतनायक ।

विराजमान-वक्त्र भक्त-मित्र वेत्र-शोभित

हरीश-भाग्य-जात साधु-पारिजात पाहि माम् ।।५

जो अपने चरण-कमल की शरण लेने वाले भक्तजनों का पालन करने में ही लीन है, जिसके पार्श्व में उसकी पत्नी है, जो अपने पुत्रों के संग का आनन्द उठाने वाला है, जो देवताओं का स्वामी है, उदार है, भूतमात्र का आदि स्वामी है, जिसका आध्यात्मिक वैभव अ‌द्भुत है, जिसके कर्ण-कुण्डल के रूप में सूर्य और चन्द्र हैं, विश्व के समस्त भाग्यों से सम्भूत उस देव को नमस्कार करता हूँ।।१

 

जिसके अवलोकन में कृपा भरी हुई है, जो भस्म तथा बेंत से विभूषित है, जो पवित्र है, जो सनातन सत्य, धर्म आदि का पोषण करता है, जिसकी शक्ति अपार है, जो आत्म-ज्ञान में संस्थित है, जिसका शरीर अच्छे लक्षणों से युक्त है, कान्ति के कारण जो मनोहर है और जो विष्णु तथा शिव के भाग्य से उत्पन्न हुआ है, उस देव की मैं आराधना करता हूँ ।।२

 

जो श्रेष्ठ आसन में बाघ पर बैठा है, जिसके हाथ में बाण हैं, जिसका तेज महान् है, जो सारे जग का हित करने वाला है, सब भक्तों के चित्त में जो विराजमान है, जो पर्वत-श्रेष्ठ पर योगपीठ के मध्य में बसता है, जिसके मस्तक पर अर्ध-चन्द्र है और जो विष्णु तथा शिव के भाग्य से उत्पन्न हुआ है, उस देव की मैं आराधना करता हूँ।।३

 

जो सारे संसार की इच्छा पूरी करता है, जो सर्वदा सुख देने वाला है, आये हुए विपत्ति-रूपी अन्धकार को नाश करने वाला है, प्रकाशमान है, देवताओं के नृत्य, गीत, वाद्य आदि के प्रति विशेष रुचि रखता है, जिसके हाव-भाव मनोहर हैं, जो आदि धर्म की रक्षा करता है, उस भूतनाथ को मैं प्रणाम करता हूँ।।४

 

हे प्रभु, तुम चर और अचर सृष्टि के अन्तस्थल में रहने वाले हो, कान्ति से शोभायमान हो । हे भूतनाथ, देवता तथा असुर तुम्हारे चरण-युगल धोते हैं। तुम सुन्दर वदन हो, भक्तों के मित्र हो तथा बेंत से सुशोभित हो, हरि और शिव के भाग्य से उत्पन्न हुए हो, साधुजनों के लिए पारिजात वृक्ष-तुल्य हे देव! मेरी रक्षा करो ।।५

 

नामावली

 

पूर्ण-पुष्कला-समेत-भूतनाथ पाहि माम् ।

 

हे भूतनाथ (सम्पूर्ण जीवों के स्वामी), अपनी अर्धांगिनी पूर्ण पुष्कला के साथ मेरी रक्षा करो।

 

 

बुधवार

श्रीकृष्ण-स्तोत्रम्

. भजो रे मैया राम गोविन्द हरी

(श्री कबीरदासकृत)

 

श्लोक

 

हरिहरति पापानि दुष्टचित्तैरपि स्मृतः ।

अनिच्छन्नपि संस्पृष्टो दहत्येव हि पावकः ।।

 

अर्थ

 

दुष्ट हृदयों के स्मरण करने से भी भगवान् उनके पापों को दूर कर देते हैं। जैसे अनिच्छापूर्वक भी स्पर्श हो जाये तो अग्नि जलाती ही है।

 

गीत

 

भजो रे भैया राम गोविन्द हरी ।

जप तप साधन नहिं कछु लागत,

खरचत नहिं गठरी ।। भजो रे भैया...

 

सन्तत सम्पत सुख के कारण,

जासों भूल परी ।। भजो रे भैया...

 

कहत 'कबीरा' राम न जा मुख,

ता मुख धूल भरी ।। भजो रे भैया...

 

हे भाई! राम, गोविन्द और हरि का भजन करो। इसमें जप, तपस्या आदि कोई भी धन नहीं लगता और गाँठ से कुछ खर्च भी नहीं होता।

वह नाम, जिसे तुम भूल गये हो, शाश्वत सुख और सम्पत्ति का कारण है।

 

कबीरदास कहते हैं कि जिस मुख में राम का नाम नहीं है, वह मुख मिट्टी से भरने योग्य है।

 

नामावली

 

राम गोविन्द हरि राम गोविन्द ।

. यमुना-तीर-विहारी

 

श्लोक

 

गोपाल-रत्नं भुवनैक-रत्नं गोपांगना-यौवन-भाग्य-रत्नम् ।

श्रीकृष्ण-रत्नं सुर-सेव्य रत्नं भजामहे यादव-वंश-रत्नम् ।।

 

भगवान् कृष्ण गोपालों के रत्न हैं। वे समस्त लोकों के सर्वोपरि रत्न हैं। वे युवती गोपियों के भाग्य के रत्न हैं। वे सभी देवताओं से पूजित रत्न श्रीकृष्ण-रत्न हैं। उस यादव-वंश-रत्न की हम पूजा करते हैं।

 

गीत

 

यमुना-तीर-विहारी, वृन्दावन-संचारी ।

गोवर्धन-गिरि-धारी, गोपाल-कृष्ण मुरारी ।।

 

दशरथ-नन्दन राम राम, दशमुख मर्दन राम राम ।

पशुपति-रंजन राम राम, पाप-विमोचन राम राम ।।

 

जय श्री राधे जय नन्द-नन्दन ।

जय जय गोपी-जन-मन-रंजन ।।

 

गौओं को चराने वाले गोपाल कृष्ण मुरारी हैं जो यमुना के किनारे विहार करने वाले हैं, श्री वृन्दावन में भ्रमण करने वाले हैं और गोवर्धन गिरि को धारण करने वाले हैं।

 

दशरथ के पुत्र राम हैं, दशमुख अर्थात् रावण को मारने वाले राम हैं, शंकर भगवान् को प्रसन्न करने वाले राम हैं, पापों को दूर करने वाले राम हैं।

 

श्री राधा जी की जय हो, गोपीजनों के मन को लुभाने वाले नन्द के पुत्र श्रीकृष्ण की जय हो!

. भज रे गोपालम्

(श्री सदाशिवब्रह्मेन्द्रकृतम्)

 

श्लोक

 

बद्धेनांजलिना नतेन शिरसा गात्रैः सरोमोद्गमैः

कण्ठेन स्वर-गद्गदेन नयनेनोद्गीर्ण बाष्पाम्बुना ।

नित्यं त्वच्चरणारविन्द-युगल-ध्यानामृतास्वादिनां

अस्माकं सरसीरुहाक्ष सततं सम्पद्यतां जीवितम् ।।

 

हे परालोचन, हम श्रद्धापूर्वक हाथ जोड़ कर, सिर को नत कर, रोमांचित हो कर, प्रेम से रुद्ध-कण्ठ हो कर, आँखों से आनन्दाश्रु बहाते हुए आपके पाद-पद्मों में नित्य-प्रति ध्यान की सुधा का आस्वादन करते हैं। हे भगवन्! हमारा जीवन निरन्तर सुसम्पन्न हो !

 

गीत

भज रे गोपालं मानस, भज रे गोपालम् ।।

भज गोपालं भजित-कुचेलं,

त्रिजगन्मूलं दिति-सुत-कालम् ।।१।। भज रे...

 

आगम-सारं योग-विचारं,

भोगशरीरं भुवनाधारम् ।।२।। भज रे...

 

कदन-कुठारं कलुष-विदूरं,

मदन-कुमारं मधुसंहारम् ।।३।। भज रे...

 

नत-मन्दारं नन्द-किशोरं,

हत-चाणूरं हंस-विहारम् ।।४।। भज रे...

हे मेरे मन! गोपाल का भजन कर। गोपाल का भजन कर।

 

हे मेरे मन! गोपाल का भजन करो जो तीनों लोकों का मूल है, जो असुरों के लिए मृत्यु-स्वरूप है तथा कुचेल द्वारा पूजित है ।।१

 

उसका भजन करो, जो वेदों का सार है, जिसे योग के द्वारा पाया जाता है, जिसका शरीर आनन्द है तथा जो भुवनों का आधार है।।२

 

उसका भजन करो, जो पापों को नष्ट करने के लिए कुठार के समान है, अज्ञान का निवारण करता है, जिसके पुत्र कामदेव थे तथा जिसने मधु नामक राक्षस का संहार किया भा ।।३

 

उस नन्द के पुत्र का भजन करो, जो अपने भक्तों के लिए स्वर्ग-वृक्ष के समान है, जिसने चाणूर का संहार किया तथा जो परमहंसों के संग में आनन्दित होता है ।।४

 

नामावली

 

एहि मुदं देहि मे श्री कृष्ण कृष्ण,

पाहि माम् गोपाल-बाल कृष्ण कृष्ण ।।१

 

नन्दगोप-नन्दन श्री कृष्ण कृष्ण,

वृन्दावन-चन्द्र श्री कृष्ण कृष्ण ।।२

 

राधा-मन-मोहन श्री कृष्ण कृष्ण,

माधव दयानिधे श्री कृष्ण कृष्ण ।।३

 

भक्त-परिपालक श्री कृष्ण कृष्ण,

भक्ति-मुक्ति-दायक श्री कृष्ण कृष्ण ।।४

 

गोपीजन-वल्लभ श्री कृष्ण कृष्ण,

गोप-कुल-पालक श्री कृष्ण कृष्ण ।।५

 

सर्वलोक नायक श्री कृष्ण कृष्ण,

सर्वजगन्मोहन श्री कृष्ण कृष्ण ।।६

 

सच्चिदानन्द (कृष्ण) सच्चिदानन्द ।।७

सच्चिदानन्द (गुरु) सच्चिदानन्द ।।८

 

हे कृष्ण! मुझे यह आनन्द दीजिए। हे गोप-कुमार । मेरी रक्षा कीजिए ।।१

 

नन्द तथा गोपों को आनन्द देने वाले, वृन्दावन के चन्द्रमा, हे कृष्ण !!२

 

राधा के मन को मोहने वाले, हे माधव (लक्ष्मीनाथ), हे दयासागर, हे कृष्ण !!३

 

भक्तों की रक्षा करने वाले, भक्ति और मोक्ष प्रदान करने वाले, हे कृष्ण !!४

 

हे कृष्ण। तुम गोपियों के परम प्रिय, ग्वालों के परिपालक हो ।।५

 

हे कृष्ण। तुम अखिल विश्व के अधिनायक, सम्पूर्ण संसार के मन को प्रलुब्ध करने वाले हो ।।६

 

कृष्ण सत्, वित् (ज्ञान) और आनन्द (सुख)-मय हैं।।७

 

गुरु सत्, चित् (ज्ञान) और आनन्द (सुख)-मय हैं ।1८

. गायति वनमाली

(श्री सदाशिवब्रह्मेन्द्रकृतम्)

 

श्लोक

 

कस्तूरी-तिलकं ललाट-फलके वक्षःस्थले कौस्तुभं,

नासाग्रे नव-मौक्तिकं करतले वेणुं करे कंकणम् ।

सर्वांगे हरिचन्दनं च कलयन् कण्ठे च मुक्तामणिं,

गोपस्त्री-परिवेष्टितो विजयते गोपाल-चूडामणिः ।।

 

गोपालों के चूड़ामणि भगवान् कृष्ण की जय हो! वे गोपांगनाओं से परिवेष्ठित हो कर शोभित हो रहे हैं, उनके विशाल ललाट में कस्तूरी का तिलक है, उनके वक्षःस्थल पर कौस्तुभमणि है, नासिका के अग्रभाग में नवमुक्ता सुशोभित हो रही है, करतल में बाँसुरी तथा हाथों में कंगन हैं। उनके सब अंग चन्दन से लेपित हैं तथा उनकी ग्रीवा में मुक्तावली सुशोभित हो रही है।

 

गीत

 

गायति वनमाली मधुरं, गायति वनमाली ।

 

पुष्प-सुगन्धि-सुमलय-समीरे

मुनिजन-सेवित यमुना-तीरे ।।१।। गायति...

 

कूजित-शुक-पिक-मुख खग-कुंजे

कुटिलालक-बहु-नीरद-पुंजे ।।२।। गायति...

 

तुलसी-दाम-विभूषण-हारी

जलज-भव-स्तुत-सद्गुण-शौरी ।।३।। गायति…

 

परमहंस-हृदयोत्सवकारी

परिपूरित-मुरली-रव-धारी ।।४।। गायति...

 

वनमाला धारण किये हुए भगवान् कृष्ण गा रहे हैं, वे मधुर गान गा रहे हैं। यमुना के तट पर जहाँ ऋषि गण मौन हो कर ध्यान करते हैं और जहाँ मलय पर्वत से शीतल, मन्द, सुगन्ध समीर बहता है (वहाँ श्री कृष्ण गा रहे हैं) ।।१

 

(यमुना के तट पर) वृक्ष और लता के कुंजों में जहाँ कोयल, तोता और अन्य गायक पक्षी गाना गा रहे हैं तथा बादलों का समूह घुँघराले बाल की तरह आकाश में दोलायमान हो रहा है (वहाँ श्री कृष्ण गा रहे हैं) ।।२

 

श्री कृष्ण (शौरि) श्रेष्ठ गुणों से सम्पन्न हैं, तुलसी की माला से सुशोभित हैं और पद्मयोनि ब्रह्मा द्वारा पूजित हैं (वे गा रहे हैं) ।।३

 

श्री कृष्ण, जो परमहंसों के हृदय में अपार आनन्द भर देते हैं तथा जिनकी बाँसुरी से संगीत प्रवाह-रूप में संचारित होता है, गा रहे हैं ।।४

 

नामावली

 

गोविन्द जय जय गोपाल जय जय,

राधारमण हरि गोविन्द जय जय ।।

. ब्रूहि मुकुन्देति

(श्री सदाशिवब्रह्मेन्द्रकृतम्)

 

श्लोक

 

वंशी-विभूषित-करात् नव-नीरदाभात्,

पीताम्बराद् अरुण-बिम्ब-फलाधरोष्ठात् ।

पूर्णेन्दु-सुन्दर-मुखाद् अरविन्द-नेत्रात्,

कृष्णात्परं किमपि तत्त्वमहं न जाने ।।

 

भगवान् कृष्ण से परे मैं किसी परम तत्त्व को नहीं जानता, जिनके हाथों में वंशी शोभायमान हो रही है, जो बादल के समान श्यामलांग हैं, पीताम्बर से भूषित हैं, जिनके होंठ बिम्ब-फल के समान लाल हैं, जिनका मुख पूर्ण चन्द्रमा के समान सुन्दर है तथा जिनकी आँखें कमल-दल के समान हैं।

 

गीत

 

ब्रूहि मुकुन्देति रसने ब्रूहि मुकुन्देति ।

 

केशव माधव गोविन्देति

कृष्णानन्द सदानन्देति ।।१।। ब्रूहि...

राधा-रमण हरे रामेति

राजीवाक्ष घन-श्यामेति ।।२।। ब्रूहि.

 

गरुड-गमन नन्दक-हस्तेति

खण्डित दश-कन्धर मस्तेति ।।३।। ब्रूहि...

 

अक्रूर-प्रिय चक्र-धरेति

हंस-निरंजन कंस-हरेति ।।४।। ब्रूहि...

 

हे जिह्ना! मुकुन्द बोल, मुकुन्द बोल ।

 

केशव, माधव, गोविन्द बोल । कृष्ण आनन्द, सदानन्द बोल! ।।१

 

राधारमण, हरि, राम बोल। पद्मलोचन, घनश्याम बोल ! ।।२

 

गरुड़ पर चलने वाले, नन्दक नामक खड्ग हाथ में धारण करने वाले, दश शिर रावण को मारने वाले-ऐसा बोल ।।३

 

अक्रूर-प्रिय, चक्रधर, निरंजन-हस, कस-विनाशन-ऐसा बोल ! ।।४

 

नामावली

 

भजो राधे गोविन्द, गोपाल तेरा प्यारा नाम है।

गोपाल तेरा प्यारा नाम है, नन्दलाल तेरा प्यारा नाम है ।।

. क्रीडति वनमाली

(श्री सदाशिवब्रह्मेन्द्रकृतम्)

 

श्लोक

 

सर्वरूपधरं शान्तं सर्वनामधरं शिवम् ।

सच्चिदानन्दमद्वैतं आत्मानं तं उपास्महे ।।

 

सर्वनाम और रूपमय, शान्त, शिव तथा सच्चिदानन्दरूप अद्वय आत्मा की मैं उपासना करता हूँ।

गीत

 

क्रीडति वनमाली गोष्ठे क्रीडति वनमाली ।

 

प्रह्लाद-पराशर-परिपाली

पवनात्मज-जाम्बवदनुकूली ।।१।। क्रीडति...

 

पया-कुच-परिरम्भण-शाली

पटुतर-शासित-मालि-सुमाली ।।२।। क्रीडति...

 

परमहंस-वर-कुसुम-सुमाली

प्रणव-पयोरुह-गर्भ-कपाली ।।३।। क्रीडति...

 

वनमाला पहने हुए कृष्ण प्रांगण में क्रीड़ा कर रहे हैं।

 

श्री कृष्ण जो प्रह्लाद तथा पराशर के रक्षक हैं, जो हनुमान् तथा जाम्बवान् के प्रति कृपा करने वाले हैं, वे ही क्रीड़ा कर रहे हैं।।१

 

जो श्री लक्ष्मी से आलिंगित हैं तथा जिन्होंने बड़ी कुशलता से माली तथा सुमाली नामक राक्षसों को दण्ड दिया था, वे ही क्रीड़ा कर रहे हैं ।।२

 

जिनकी माला में परमहंसजन ही पुष्प हैं तथा जो प्रणव-पद्म के अन्दर छिपे हैं, वही कृष्ण क्रीड़ा कर रहे हैं।।३

 

नामावली

 

१.     कमला-वल्लभ गोविन्द, माम् ।

पाहि कल्याण-कृष्ण गोविन्द ।

 

२.     कमनीयानन गोविन्द, माम् (पाहि...)

 

३.     भक्त-वत्सल गोविन्द, माम् (पाहि...)

 

४. भागवत-प्रिय गोविन्द, माम् (पाहि...)

 

५. वेणु-विलोल गोविन्द, माम् (पाहि...)

 

६. विजय-गोपाल गोविन्द, माम् (पाहि…)

 

७. नन्द-नन्दन गोविन्द, माम् (पाहि...)

 

८. नवनीत-चोर गोविन्द, माम् (पाहि...)

 

९. अनाथ-रक्षक गोविन्द, माम् (पाहि...)

 

१०. सर्वेश्वरश्री गोविन्द, माम् (पाहि...)

 

१. हे श्री लक्ष्मी देवी के स्वामी गोविन्द, हे मंगलमय कृष्ण, हे गोविन्द मेरी रक्षा करो।

 

२. हे सौम्यबदन गोविन्द, मेरी (रक्षा करो...)

 

३. हे भक्तों पर स्नेह रखने वाले गोविन्द, मेरी (रक्षा करो...)

 

४. हे सन्तजनों से प्रेम करने वाले गोविन्द, मेरी (रक्षा करो...)

 

५. हे वंशीवादन-प्रिय गोविन्द, मेरी (रक्षा करो...)

 

६. हे विजय प्राप्त करने वाले गोपाल-गोविन्द, मेरी (रक्षा करो...)

 

७. हे नन्द गोप के पुत्र गोविन्द, मेरी (रक्षा करो...)

 

८. हे (भक्तों के हृदय-रूपी) मक्खन की चोरी करने वाले गोविन्द, मेरी (रक्षा करो...)

 

९. हे असहायों की रक्षा करने वाले गोविन्द, मेरी (रक्षा करो...)

 

१०. हे सभी प्राणियों के स्वामी गोविन्द, मेरी (रक्षा करो...)

. भज रे यदुनाथम्

(श्री सदाशिवब्रह्मेन्द्रकृतम्)

 

श्लोक

 

वन्दे नव-घन-श्यामं पीत-कौशेय-वाससम् ।

सानन्दं सुन्दरं शुद्धं श्रीकृष्णं प्रकृतेः परम् ।।

 

श्रीकृष्ण को नमस्कार, जो मेघ की तरह श्याम-वर्ण है, पीले रेशमी वस्त्र को धारण किये है, आनन्दयुक्त है, सुन्दर है, शुद्ध है और प्रकृति से परे है।

 

गीत

 

भज रे यदुनाथं, मानस भज रे यदुनाथम् ।

 

गोप-वधू-परिरम्भण-लोलं

गोप-किशोरकमद्द्भुत-लीलम् ।।१ (भज रे...)

 

कपटांगी-कृत-मानुष-वेषं

कपट-नाट्य-कृत-कृत्स्न सुवेषम् ।।२ (भज रे...)

 

परमहंस-हत्तत्त्व-स्वरूपं

प्रणव-पयोधर-प्रणव-स्वरूपम् ।।३ (भज रे...)

 

हे मन, यादवों के भगवान् श्रीकृष्ण की पूजा कर। उस यदुनाथ को भज।

 

जो अद्भुत क्रीड़ाओं में रत गोपबालक है और गोपियों के आलिंगन में मस्त है, उस कृष्ण का भजन कर ।।१

 

जिसने कपट-रूप से मानव-रूप धारण किया है और जो सम्पूर्ण नाम-रूपों में प्रच्छन्न रूप से नाटक के समान काम करता है, उस कृष्ण का भजन कर ।।२

 

जो परमहंस योगियों के हृदय में निवास करने वाला परम तत्त्व है, ओंकार-रूपी बादलों के बीच स्वयं ओंकार-स्वरूप है, उस कृष्ण का भजन कर ।।३

 

नामावली

 

कमला-वल्लभ राधेश्याम ।

कमनीयानन राधेश्याम ।।

कनकाम्बर-धर राधेश्याम ।

कौस्तुभ-भूषण राधेश्याम ।।

अखण्ड-स्वरूप राधेश्याम ।

अमित-पराक्रम राधेश्याम ।।

अपरिच्छिन्न राधेश्याम ।

अमर-जन-प्रिय राधेश्याम ।।

 

श्री लक्ष्मी देवी के स्वामी राधेश्याम । सुन्दर मुख वाले राधेश्याम । पीताम्बरधारी राधेश्याम । कौस्तुभ-मणि से विभूषित राधेश्याम । स्वजातीय, विजातीय तथा स्वगत भेद-शून्य स्वरूप वाले राधेश्याम । अपरिमित पराक्रम वाले राधेश्याम। देश, काल और कारण से परे राधेश्याम । देवताओं के प्रिय राधेश्याम ।

. स्मर वारं वारं

(श्री सदाशिवब्रहोन्द्रकृतम्)

 

श्लोक

 

चिदानन्दाकारं श्रुति-सरस-सारं समरसं

निराधाराधारं भव-जलधि-पारं पर-गुणम् ।

रमा-ग्रीवा-हारं वज्ञ-वन-विहारं हर-नुतं

सदा तं गोविन्दं परम-सुख-कन्दं भजत रे ।।

 

आप सर्वदा परमानन्द के मूल उन भगवान् गोविन्द का भजन कीजिए जो चिदानन्द स्वरूप हैं, जो समस्त वेदों के सरस सार हैं, जो सबके लिए समान हैं, जो निराश्रयों के आश्रय हैं, जो जन्म-मृत्यु-रूपी संसार-सागर के तट हैं, जो सभी गुणों के परे हैं, जो लक्ष्मी जी के कण्ठ-हार हैं, जो व्रज के वनों में विहार करने वाले हैं और भगवान् शिव जिनका भजन करते हैं।

 

गीत

 

स्मर वारं वारं चेतः स्मर नन्द-कुमारम् ।

 

घोष-कुटीर-पयो-घृत-चोरं

गोकुल-वृन्दावन-संचारम् ।।१ (स्मर...)

 

वेणु-रवामृत-पान-किशोरं

विश्व-स्थिति-लय-हेतु-विहारम् ।।२ (स्मर...)

 

परमहंस-हत्पंजर-कीर

पटुतर-धेनुक-बक-संहारम् ।।३ (स्मर...)

 

रे मन, नन्द जी के उस कुमार को बार-बार याद कर।

 

जो ग्वालों की झोपड़ियों से दूध-घी चुराता है, जो गोकुल और वृन्दावन में विहार करता है।॥१-

 

जो मुरली के स्वर-रूपी अमृत का पान करता है और संसार की सृष्टि, स्थिति और विलय ही जिसका खेल है ।।२

 

जो परमहंसों के हृदयरूपी पिंजरे का तोता है और जिसने घेनुक, बकासुर आदि चालाक असुरों का संहार किया है ।।३

 

 

नामावली

 

भक्तवत्सल गोविन्द । भागवतप्रिय गोविन्द ।।

पतित-पावन गोविन्द । परम दयालो गोविन्द ।।

नन्द-मुकुन्द गोविन्द । नवनीत चोर गोविन्द ।।

वेणु-विलोल गोविन्द । विजय-गोपाल गोविन्द ।।

करुणा-सागर गोविन्द । कमनीयानन गोविन्द ।।

. गोपाल-गोकुल-वल्लभीप्रिय

 (श्री तुलसीदासकृतम्)

 

श्लोक

 

वसुदेव-सुतं देवं कंस-चाणूर-मर्दनम् ।

देवकी-परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद् गुरुम् ।।

 

मैं जगद्गुरु भगवान् श्रीकृष्ण की वन्दना करता हूँ जो वसुदेव जी का पुत्र है, जो स्वयं भगवान् है, जिसने कंस और चाणूर राक्षसों का बध किया तथा जो माता देवकी को परम आनन्द देने वाला है।

 

गीत

 

गोपाल-गोकुल-वल्लभीप्रिय, गोप गोसुत-वल्लभम् ।

चरणारविन्द महं भजे, भजनीय सुर-मुनि-दुर्लभम् ।।१

 

घन-श्याम काम अनेक छवि, लोकाभिराम मनोहरम् ।

किंजल्क-वसन किशोर मूरति, भूरि गुण करुणाकरम् ।।२

 

शिर-केकि-पिच्छ विलोल-कुण्डल, अरुण वनरुह लोचनम् ।

गुंजावतंस विचित्र सब अंग, भक्त-भव-भय-मोचनम् ॥३

 

कच-कुटिल सुन्दर-तिलकभू, राका-मयंक-समाननम् ।

अपहरण-तुलसीदास-त्रास, विहार वृन्दाकाननम् ।।४

 

हे गोपाल, गोकुलांगनाओं के प्रियतम, गोपकुमारों तथा गोवत्सों के स्वामी, सुर-मुनियों को भी दुष्प्राप्य परम आराधनीय भगवान् कृष्ण, मैं तेरे चरण-कमल की उपासना करता हूँ।।१

 

श्यामधन के समान श्याम वर्ण वाले हे भगवान् कृष्ण, तू अगणित कामदेव की शोभा को धारण करता है। तू संसार का रंजन करता है। तू मनोहर रूप वाला, पीताम्बरधारी, किशोर वदन, गुणों का आगार तथा करुणामय है। (मैं तेरे चरण-कमल की उपासना करता हूँ) ।।२

 

सिर में मोर-मुकुट, कानों में चपल कुण्डल, नेत्र कमल-पुष्प के समान लाल, गले में पुष्पों की माला-इस प्रकार तेरा सम्पूर्ण विचित्र अंग भयावह संसार से भक्तों का मुक्तिकर्ता है ।।३

 

तेरी अलकें घुँघराली, ललाट में सुन्दर तिलक धारण किया हुआ, भौहें मनोहर और मुख पूर्णचन्द्र के समान कमनीय है। तू तुलसीदास के भय को दूर करने वाला है तथा वृन्दावन में विहार करता है। (मैं तेरे चरण-कमल की उपासना करता हूँ) ।।४

 

नामावली

 

गोविन्द जय जय गोपाल जय जय ।

राधारमण हरि गोविन्द जय जय ।।

१०. दर्शन दो घनश्याम नाथ

(श्री नरसीमेहताकृत)

 

ॐ इति ज्ञान-वस्त्रेण, राग-निर्णेजनी-कृतः ।

कर्म-निद्रां प्रपन्नोस्मि, त्राहि मां मधु-सूदन ।।

 

अर्थ

हे मधुसूदन ! ॐ-रूप ज्ञान-वस्त्र से राग-रूप मल को दूर कर। मैं कर्मनिद्रा में पड़ा हूँ, मेरी रक्षा कर।

 

गीत

 

दर्शन दो घनश्याम नाथ मोरी अँखियाँ प्यासी रे ।

मन-मन्दिर की ज्योति जगा दो, घट घट वासी रे ।। दर्शन दो...।।१

मन्दिर-मन्दिर मूरत तेरी, फिर भी न देखी सूरत तेरी ।

युग बीते न आयी मिलन की, पूरनमासी रे ।। दर्शन दो...।।२

 

द्वार दया का जब तू खोले, पंचम स्वर में गूँगा बोले ।

अन्धा देखे लंगड़ा चल कर, पहुँचे काशी रे ।। दर्शन दो...।।३

 

पानी पी कर प्यास बुझाऊँ, नैनन को कैसे समझाऊँ ।

आँखमिचौली छोड़ो अब तो, मन के वासी रे ।। दर्शन दो...।।४

 

निर्बल के बल धन निर्धन के, तुम रखवारे भक्त-जनन के ।

तेरे भजन में सब कुछ पाऊँ, मिटे उदासी रे ।। दर्शन दो...।।५

 

नाम जपे पर तुझे न जाने, उनको भी तू अपना माने ।

तेरी दया का अन्त नहीं है, हे दुःखनाशी रे ।। दर्शन दो...।।६

 

आज फैसला तेरे द्वार पर, मेरी जीत है तेरी हार पर ।

हार जीत है तेरी, मैं तो चरण उपासी रे ।। दर्शन दो...।।७

 

द्वार खड़ा कब से मतवाला, माँगे तुमसे हार तुम्हारा ।

'नरसी' की ये बिनती सुन लो, भक्त विलासी रे ।। दर्शन दो...।।८

 

लाज न लुट जाये प्रभु तेरी, नाथ करो न दया में देरी।

तीनों लोक छोड़ कर आओ, गगन-निवासी रे ।। दर्शन दो...।।९

 

हे घनश्याम, हे नाथ, मुझे दर्शन दो।

 

मेरे नेत्र तुम्हारे दर्शनों के लिए प्यासे हो रहे हैं। हे सबके अन्तर्वासी, मेरे मन-मन्दिर की ज्योति जला दो ।।१

 

तुम्हारी मूर्ति सभी मन्दिरों में विद्यमान है, फिर भी तुम्हारे दर्शन नहीं होते । (तुम्हारी प्रतीक्षा में) युग बीत चले, परन्तु तुम्हारे मिलन की पूर्णिमा की रात्रि अभी तक नहीं आयी ।।२

 

जब तू दया का द्वार खोलता है तो गूँगा पंचम स्वर में बोलने लगता है, अन्धा देखने लगता है और लंगड़ा पाँव-पाँव चल कर काशी पहुँच जाता है ।।३

 

मैं (साधारण) तृष्णा को तो जल पी कर शान्त कर देता हूँ; परन्तु इन नेत्रों को (जो तुम्हारे दर्शन के लिए प्यासे हैं) भला में कैसे समझाऊँ? हे हृदयवासी, आँखमिचौली का यह खेल अब छोड़ दो।।४

 

तुम निर्बलों के बल, निर्धनों के धन और भक्तजनों के रक्षक हो। तुम्हारे भजन से मैं सब-कुछ प्राप्त कर लूँ और सब चिन्ता दूर हो जाये ।।५

 

हे दुःख निवारक! जो तुम्हारा भजन तो करते हैं, परन्तु तुम्हें जानते तक नहीं, उन्हें भी तू अपना लेता है। तुम्हारी दया असीम है ।।६

 

आज तुम्हारे दरवाजे पर ही हमारी हार-जीत का फैसला होने को है। मेरी जीत तुम्हारी हार पर निर्भर करती है, परन्तु हार और जीत-ये दोनों ही तो तुम्हारे (हाथ) हैं। मैं तो तुम्हारे चरणों का उपासक हूँ।।७

 

मैं पागल कब से तुम्हारे द्वार पर खड़ा हुआ तुम्हारे हार की भिक्षा तुम से ही माँग रहा हूँ। हे भक्तों को आनन्द देने वाले, नरसी की प्रार्थना अब तो सुन लो ।।८

 

हे नाथ, अब दया करने में विलम्ब न करो। नहीं तो कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारी लाज ही लुट जाय। हे वैकुण्ठवासी, तीनों लोकों को छोड़ कर शीघ्र पधारो ।।९

 

नामावली

 

दर्शन दो घनश्याम नाथ ।

राधेश्याम जय राधेश्याम ।

 

११. अधरं मधुरं

(श्री वल्लभाचार्यकृतम्)

 

श्लोक

 

शान्ताकारं भुजग-शयनं पद्य-नाभं सुरेशं,

विश्वाधारं गगन-सदृशं, मेघ-वर्ण शुभांगम् ।

लक्ष्मी कान्तं, कमल-नयनं, योगिभिर्ध्यान-गम्यं,

वन्दे विष्णुं भव-भय-हरं, सर्व-लोकैकनाथम् ।।

 

मैं उस विष्णु को प्रणाम करता हूँ जिसकी आकृति शान्त है, जो आदि शेष पर लेटा है, जो पद्मनाभ है, देवताओं का स्वामी है, विश्व का आधार है, आकाश सदृश व्यापक है, मेघ जैसी कान्ति वाला है, जिसके अंग मंगलकारी हैं, जो लक्ष्मी का पति है, जिसके नयन कमल के सदृश हैं, जिसे योगिजन ध्यान द्वारा जान पाते हैं, जो संसार-भय को दूर करने वाला और समस्त लोकों का एकमात्र स्वामी है।

 

स्तोत्र

 

अधरं मधुरं वदनं मधुरं, नयनं मधुरं हसितं मधुरं ।

हृदयं मधुरं गमनं मधुरं, मधुराधिपते-रखिलं मधुरम् ।।१

 

वचनं मधुरं चरितं मधुरं, वसनं मधुरं वलितं मधुरं ।

चलितं मधुरं भ्रमितं मधुरं, मधुराधिपते-रखिलं मधुरम् ।।२

 

वेणु-र्मधुरो रेणु-र्मधुरो, पाणि-र्मधुरः पादो मधुरः ।

नृत्यं मधुरं सख्यं मधुरं, मधुराधिपते-रखिलं मधुरम् ।।३

 

गीतं मधुरं पीतं मधुरं, भुक्तं मधुरं सुप्तं मधुरं ।

रूपं मधुरं तिलकं मधुरं, मधुराधिपते-रखिलं मधुरम् ।।४

 

करणं मधुरं तरणं मधुरं, हरणं मधुरं रमणं मधुरं ।

वमितं मधुरं शमितं मधुरं, मधुराधिपतये-रखिलं मधुरम् ।।५

 

गुंजा मधुरा माला मधुरा, यमुना मधुरा वीची मधुरा ।

सलिलं मधुरं कमलं मधुरं, मधुराधिपते-रखिलं मधुरम् ।।६

 

गोपी मधुरा लीला मधुरा, युक्तं मधुरं मुक्तं मधुरं ।

दृष्टं मधुरं शिष्टं मधुरं, मधुराधिपते-रखिलं मधुरम् ।।७

 

गोपा मधुरा गावो मधुरा, यष्टिर्मधुरा सृष्टिर्मधुरा ।

दलितं मधुरं फलितं मधुरं, मधुराधिपते-रखिलं मधुरम् ।।८ ।।

 

उनके अधर मधुर हैं, मुख मधुर है, नेत्र मधुर हैं। हास्य मधुर है और गति भी मधुर है; श्री मधुराधिपति का सब-कुछ मधुर है ।।१

 

उनके वचन मधुर है, चरित्र मधुर है, वस्त्र मधुर हैं, अंगभंगी मधुर है, चाल मधुर है और भ्रमण भी अति मधुर है; श्री मधुराधिपति का सभी कुछ मधुर है ।।२

 

उनकी वेणु मधुर है, चरण-रज मधुर है, कर-कमल मधुर हैं, चरण मधुर हैं, नृत्य मधुर है और सख्य भी मधुर है; श्री मधुराधिपति का सभी कुछ मधुर है ।।३

 

उनका गान मधुर है, पान मधुर है, खान मधुर है, शयन मधुर है, रूप मधुर है और तिलक भी अति मधुर है; श्री मधुराधिपति का सभी कुछ मधुर है ।।४

 

उनका कार्य मधुर है, तैरना मधुर है, हरण मधुर है, रमण मधुर है, उद्‌गार मधुर है और शान्ति भी मधुर है। श्री मधुराधिपति का सभी कुछ मधुर है ।।५

 

उनकी गुंजा मधुर है, माला मधुर है, यमुना मधुर है, उसकी तरंगें मधुर हैं, उसका जल मधुर है और कमल भी अति मधुर है; श्री मधुराधिपति का सभी कुछ मधुर है।।६

 

गोपियाँ मधुर हैं, उनकी लीला मधुर है, उनका संयोग मधुर है, वियोग मधुर है, निरीक्षण मधुर है और शिष्टाचार भी मधुर है; श्री मधुराधिपति का सभी कुछ मधुर है।।७

 

गोप मधुर हैं, गायें मधुर हैं, लकुटी मधुर है, रचना मधुर है, दलन मधुर है और उसका फल भी अति मधुर है, श्री मधुराधिपति का सभी कुछ मधुर है ।।८

 

नामावली

 

विपिन-विहारी राधेश्याम, कुंज-विहारी राधेश्याम ।

बाँके-विहारी राधेश्याम, देवकी-नन्दन राधेश्याम ।।

गोपिका-वल्लभ राधेश्याम, राधा-वल्लभ राधेश्याम ।

कृष्ण-मुरारी राधेश्याम, करुणा-सागर राधेश्याम ।।

भक्ति-दायक राधेश्याम, शक्ति-दायक राधेश्याम ।

भुक्ति-दायक राधेश्याम, मुक्ति-दायक राधेश्याम ।।

सच्चिदानन्द राधेश्याम, सद्‌गुरु-रूप राधेश्याम ।

सर्व-रूप श्री राधेश्याम, सर्व-नाम श्री राधेश्याम ।

राधेश्याम राधेश्याम, राधेश्याम श्री राधेश्याम ।।

१२. जयति तेऽधिकम्

(भागवत से)

 

श्लोक

 

वन्दे नन्दव्रज-स्त्रीणां पाद-रेणुमभीक्ष्णशः ।

यासां हरि-कथोद्गीतं पुनाति भुवन-त्रयम् ।।

 

गोपियों के, नन्द के, व्रज की स्त्रियों के चरण-रज को सदा नमस्कार, भगवान् की लीलाओं का वर्णन करने वाला जिनका गीत तीनों लोकों को पवित्र करता है।

 

जयति तेऽधिकं जन्मना व्रजः

श्रयत इन्दिरा शश्व-दत्र हि।

दयित दृश्यतां दिक्षु तावका-

स्त्वयि धृतासव-स्त्वां विचिन्वते ।।१

 

शर-दुदाशये साधु-जातसत्-

सरसिजोदर-श्री-मुषा दृशा ।

सुरत-नाथ तेऽशुल्क-दासिका

वरद निघ्नतो नेह किं वधः ।।२

 

विष-जलाप्ययाद्-व्याल-राक्षसाद्-

वर्ष-मारुताद्-वैद्युतानलात् ।

वृष-मयात्मजाद्-विश्वतोभया

दृषभ ते वयं रक्षिता मुहुः ।।३

 

न खलु गोपिका-नन्दनो-भवा-

नखिल-देहिना-मन्तरात्म-दृक् ।

विखनसार्थितो विश्व-गुप्तये

सख उदेयिवान् सात्वतां कुले ।।४

 

विरचिताभयं वृष्णि-धुर्य ते

चरण-मीयुषां संसृते-र्भयात् ।

कर-सरोरुहं कान्त कामदं

शिरसि धेहि नः श्रीकर-ग्रहम् ।।५

 

व्रज-जनार्तिहन् वीर-योषितां

निज-जन-स्मय-ध्वंसन-स्मित ।

भज सखे भवत्-किंकरी स्म नो

जलरुहाननं चारु दर्शय ।।६

 

प्रणत-देहिनां पाप-कर्शनं

तृणचरानुगं श्री-निकेतनम् ।

फणि-फणार्पितं ते पदांबुजं

कृणु कुचेषु नः कृन्धि ह-च्छयम् ।।७

 

मधुरया गिरा वल्तु-वाक्यया

बुध-मनोज्ञया पुष्करेक्षण ।

विधिकरी-रिमा वीर मुहाती-

रधर-सीधुना-ऽऽप्याययस्व नः ।।८

 

तव कथामृतं तप्त-जीवनं

कविभि-रीडितं कल्मषापहम् ।

श्रवण-मंगलं श्रीम-दाततं

भुवि गृणन्ति ते भूरिदा जनाः ।।९

 

प्रहसितं प्रिय प्रेम-वीक्षणं

विहरणं च ते ध्यान-मंगलम्।

रहसि संविदो या हृदि-स्पृशः

कुहक नो मनः क्षोभयन्ति हि ।।१०

 

चलसि-यद्-व्रजा-च्चारयन् पशून्

नलिन-सुन्दरं नाथ ते पदम् ।

शिल-तृणांकुरैः सीदतीति नः

कलिलतां मनः कान्त गच्छति ।।११

 

दिन-परिक्षये नीलकुन्तलै-

र्वनरुहाननं विभ्र-दावृतम् ।

घन-रजस्वलं दर्शयन् मुहु-

र्मनसि नः स्मरं वीर यच्छसि ।।१२

 

प्रणत-कामदं पद्मजार्चितं

धरणि-मण्डनं ध्येय-मापदि ।

चरण-पंकजं सन्तमं च ते

रमण नः स्तने-ष्वर्पयाधिहन् ।।१३

 

सुरत-वर्धनं शोक-नाशनं

स्वरित-वेणुना सुष्ठ-चुम्बितम् ।

इतर-राग-विस्मारणं नृणां

वितर वीर न-स्तेऽधरामृतम् ।।१४

 

अटति यद्-भवा-नह्नि काननं

त्रुटि-र्युगायते त्या-मपश्यताम् ।

कुटिल-कुन्तलं श्रीमुखं च ते

जड़ उदीक्षतां पक्ष्मकृद-दृशाम् ।।१५

 

पति-सुतान्वय-भ्रातृ-बान्धवा-

नतिविलंघ्य तेऽन्त्यच्युतागताः ।

गति-विद-स्तवोद्गीत-मोहिताः

कितव योषितः क-स्त्यजे-न्निशि ।।१६

 

रहसि संविदं ह-च्छयोदयं

प्रहसिताननं प्रेम-वीक्षणम् ।

बृह-दुरः श्रियो वीक्ष्य धाम ते

मुहु-रतिस्पृहा मुह्यते मनः ।।१७

 

 

वज्र-जनौकसां व्यक्ति-रंग ते

वृजिन-हन्त्र्यलं विश्व-मंगलम् ।

त्यज मनाक् च न-स्त्वत्स्पृहात्मनां

स्वजन-हृद्रुजां य-न्निषूदनम् ।।१८

 

यत्ते सुजात-चरणाम्बुरुहं स्तनेषु

भीताः शनैः प्रियदधीमहि कर्कशेषु ।

तेनावटी-मटसि तद्-व्यथते न किंस्वित्

कूर्पादिभि-भ्रमति धी-र्भवदायुषां नः ।।१९

 

इति गोप्यः प्रगायन्त्यः प्रलपन्त्यश्च चित्रधा,

रुरुधुः सुस्वरं राजन् कृष्ण-दर्शन-लालसाः ।

तासा माविरभूत् शौरिः स्मयमान-मुखाम्बुजः,

पीताम्बर-धरः स्रग्वी साक्षा-न्मन्मथ-मन्मथः ।।२०

 

 

अर्थ

 

गोपियाँ बिरहावेश में गाने लगीं : प्यारे! तुम्हारे जन्म के कारण वैकुण्ठ आदि लोकों से भी ब्रज की महिमा बढ़ गयी है। तभी तो सौन्दर्य और मृदुलता की देवी लक्ष्मी जो अपना निवास स्थान बैकुण्ठ छोड़ कर यहाँ नित्य निरन्तर निवास करने लगी हैं, इसकी सेवा करने लगी हैं। परन्तु प्रियतम! देखो, तुम्हारी गोपियाँ, जिन्होंने तुम्हारे चरणों में ही अपने प्राण समर्पण कर रखे हैं, वन में भटक कर तुम्हें खोज रही हैं ।।१

 

हमारे प्रेमपूर्ण हृदय के स्वामी! हम तुम्हारी बिना मोल की दासी हैं। तुम शरत्कालीन जलाशय में सुन्दर सरजिस कर्णिका के सौन्दर्य को चुराने वाले नेत्रों से हमको घायल कर चुके हो। हमारे मनोरथ पूर्ण करने वाले प्राणेश्वर! क्या नेत्रों से मारना वध नहीं है? अस्त्रों से हत्या करना ही वध है?।।२

 

पुरुष-शिरोमणे ! यमुना जी के विषैले जल से होने वाली मृत्यु, साँप का रूप धारण कर खाने वाले अघासुर, इन्द्र की वर्षा, आँधी, बिजली, दावानल, वृषभासुर और व्योमासुर आदि से एवं भिन्न-भिन्न अवसरों पर सब प्रकार के भयों से तुमने हमारी रक्षा की है ।।३

 

तुम केवल यशोदानन्दन ही नहीं हो, समस्त शरीरधारियों के हृदय में रहने वाले साक्षी हो, अन्तर्यामी हो । सखे ! ब्रह्मा जी की प्रार्थना से विश्व की रक्षा करने के लिए तुम यदुवंश में उत्पन्न हुए हो ।।४

 

अपने प्रेमियों की अभिलाषा पूर्ण करने वालों में अग्रगण्य यदुवंश शिरोमणे ! जो लोग जन्म-मृत्यु-रूप संसार के चक्र से डर कर तुम्हारे चरणों की शरण ग्रहण करते हैं, उन्हें तुम्हारे कर-कमल अपनी छत्र-छाया में ले कर निर्भय कर देते हैं। हमारे प्रियतम ! सबकी लालसा-अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाला वही कर-कमल, जिससे तुमने लक्ष्मी जी का हाथ पकड़ा है, हमारे शिर पर रख दो ।।५

 

व्रजवासियों के दुःख दूर करने वाले वीरशिरोमणि श्यामसुन्दर ! तुम्हारी मन्द मुस्कान की एक उज्वल रेखा ही तुम्हारे प्रेमीजनों के सारे मानमद को चूर-चूर कर देने के लिए पर्याप्त है। हमारे प्यारे सखा ! हमसे रूठो मत, प्रेम करो। हम तो तुम्हारी दासी हैं, तुम्हारे चरणों पर निछावर हैं। हम अबलाओं को अपना परम सुन्दर साँवला मुख-कमल दिखाओ ।। ६

 

तुम्हारे चरण-कमल शरणागत प्राणियों के सारे पापों को नष्ट कर देते हैं। वे समस्त सौन्दर्य-माधुर्य की खान हैं और स्वयं लक्ष्मी जी उनकी सेवा करती हैं। तुम उन्हीं चरणों से हमारे बछड़ों के पीछे-पीछे चलते हो और हमारे लिए तुमने उन्हें साँप के फणों पर भी रखने में संकोच न किया। हमारा हृदय तुम्हारी विरह-व्यथा की आग में जल रहा है, तुम्हारे मिलन की आकांक्षा हमको सता रही है। तुम अपने वही चरण हमारे वक्ष स्थल पर रख कर हमारे हृदय की ज्वाला को शान्त कर दो।।७

 

कमलनयन! तुम्हारी वाणी कितनी मधुर है। उसका एक-एक शब्द, एक-एक अक्षर मधुरातीत मधुर है। बड़े-बड़े विद्वान् उसमें रम जाते हैं, उस पर अपना सर्वस्व निछावर कर देते हैं। तुम्हारी उस वाणी का रसास्वादन करके तुम्हारी आज्ञाकारिणी दासी गोपियाँ मोहित हो रही हैं। दानवीर। अब तुम अपना दिव्य अमृत से भी मधुर अधर-रस पिला कर हमें जीवन दान दो ।।८

 

प्रभो! तुम्हारी जीवन-लीला-कथा भी अमृतस्वरूप है। विरह से सताये हुए लोगों के लिए तो यह जीवनसर्वस्व ही है। बड़े-बड़े ज्ञानी महात्माओं, भक्त कवियों ने उसका गान किया है। वह सारे पाप-ताप'को तो मिटाती ही है, साथ ही श्रवण मात्र से परम मगल, परम कल्याण का दान भी करती है। वह परम सुन्दर, परम मधुर और परम विस्तृत भी है। जो तुम्हारी उस लीला-कथा का गान करते हैं, वास्तव में भूलोक में वे ही सबसे बड़े दाता हैं ।।९

 

प्यारे! एक दिन वह था, जब तुम्हारी प्रेम-भरी हँसी और चितवन तथा तुम्हारी तरह-तरह की क्रीड़ाओं का ध्यान करके हम आनन्द में मग्न हो जाया करती थीं। उनका ध्यान भी परम मंगलदायक है, और उसके बाद तुम मिले। तुमने एकान्त में हृदयस्पर्शी ठिठोलियाँ कीं, प्रेम की बातें कहीं। हमारे कपटी मित्र! अब वे सब बातें याद आ कर हमारे मन को क्षुब्ध किये देती हैं।।१०

 

हमारे प्यारे स्वामी! तुम्हारे चरण कमल से भी अधिक सुकोमल और सुन्दर हैं। जब तुम गौओं को चराने के लिए व्रज से निकलते हो, यह सोच कर कि तुम्हारे वे युगल चरण कंकड़, तिनके और कुश-काँटे के गड़ जाने से कष्ट पाते होंगे, हमारा मन बेचैन हो जाता था। हमें बड़ा दुःख होता है।।११

 

दिन ढलने पर जब तुम वन से घर लौटते हो तो हम देखती हैं कि तुम्हारे मुख-कमल पर नीली-नीली अलकें लटक रही हैं और गौओं के खुर से उड़-उड़ कर घनी धूल पड़ी हुई है। हे प्रियतम। हम तो तुम्हारा वह सौन्दर्य देखती हैं और तुम हमारे हृदय में मिलन की आकांक्षा-प्रेम उत्पन्न करते हो ।।१२

प्रियतम! एकमात्र तुम्हीं हमारे दुःखों को मिटाने वाले हो, तुम्हारे चरण-कमल शरणागत भक्तों की समस्त अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाले हैं। स्वयं लक्ष्मी जी उनकी सेवा करती हैं और पृथ्वी के तो वे भूषण ही हैं। आपत्ति के समय एकमात्र उन्हीं का चिन्तन करना उचित है, जिससे सारी विपत्तियाँ कट जाती हैं। कुंजविहारी। तुम अपने परम कल्याण-स्वरूप चरण-कमल हमारे वक्ष स्थल पर रख कर हमारे हृदय की व्यथा को शान्त कर दो ।।१३

 

वीर शिरोमणे! तुम्हारा अधरामृत मिलने के सुख की आकांक्षा को बढ़ाने वाला है। वह विरहजन्य समस्त शोक-सन्ताप को नष्ट कर देता है। गाने वाली वह बाँसुरी उसको भली-भाँति चूमती रहती है। जिन्होंने एक बार उसको पी लिया, उन लोगों को फिर दूसरों तथा दूसरों की आसक्तियाँ का ध्यान भी नहीं होता। हमारे वीर! अपना वही अधरामृत हमको वितरण करो, हमको पिलाओ ।।१४

 

प्यारे। दिन के समय जब तुम वन में विहार करने के लिए चले जाते हो, तब तुम्हें देखे बिना हमारे लिए एक-एक क्षण युग के समान हो जाता है और जब तुम सन्ध्या के समय लौटते हो तथा घुँघराली अलकों से युक्त तुम्हारा परम सुन्दर मुखारविन्द हम देखती हैं, उस समय पलकों का गिरना हमारे लिए भार हो जाता है और ऐसा जान पड़ता है कि इन नेत्रों की पलकों को बनाने वाला विधाता मूर्ख ही है ।।१५

 

प्यारे श्यामसुन्दर! हम अपने पति, पुत्र, भाई, बन्धु और कुल (परिवार) का त्याग कर, उनकी इच्छा और आज्ञाओं का उल्लंघन करके तुम्हारे पास आयी हैं। हम तुम्हारी एक-एक चाल जानती हैं और संकेत समझती हैं और तुम्हारे मधुर गान की गति समझ कर उसी से मोहित हो कर यहाँ आयी हैं। कपटी ! इस प्रकार रात्रि के समय आयी हुई युवतियों को तुम्हारे सिवा और कौन त्याग सकता है?।।१६

 

प्यारे ! एकान्त में तुम मिलन की आकांक्षा, प्रेमभाव को जगाने वाली बातें किया करते थे। ठिठोली करके हमको छेड़ते थे। तुम प्रेमभरी चितवन से हमारी ओर देख कर मुस्करा दिया करते थे और हम लक्ष्मी-निकेतन तुम्हारा विशाल वक्षःस्थल देखती थीं। तब से अब तक हमारी लालसा निरन्तर बढ़ती जा रही है। हमारा मन अधिकाधिक मुग्ध होता जा रहा है ।।१७

 

प्यारे ! तुम्हारी यह अभिव्यक्ति व्रज-वनवासियों के सम्पूर्ण शोक-ताप को मिटाने वाली और विश्व का पूर्ण मंगल करने के लिए है। हमारा हृदय तुम्हारे प्रति लालसा से भरा हुआ है। कुछ थोड़ी-सी ऐसी औषधि दो जो तुम्हारे स्वजनों के हृदय रोग को सर्वथा निर्मूल कर दे ।।१८

 

तुम्हारे चरण कमल से भी सुकुमार हैं। उन्हें हम अपने स्तनों पर भी डरते-डरते बहुत धीरे से रखती हैं कि कहीं उनको चोट न लग जाये। उन्हीं चरणों से तुम रात्रि के समय घोर जंगल में छिपे-छिपे घटक रहे हो। क्या कंकड़-पत्थर आदि की चोट लगने से उनमें पीड़ा नहीं होती ? हमें तो उसकी सम्भावना मात्र से चक्कर आ रहा है। हम अचेत होती जा रही है। श्रीकृष्ण। श्यामसुन्दर। प्राणनाथ। हमारा जीवन तुम्हारे लिए है। हम तुम्हारे लिए ही जी रही हैं, हम तुम्हारी हैं ।।१९

 

इस भाँति गोपियाँ उच्च स्वर से श्रीकृष्ण का गुणगान करने लगीं। वे श्रीकृष्ण के दर्शन के लिए क्रन्दन करने लगी और उनका वह रुदन ही गान के रूप में फूट निकला। ठीक उसी समय भगवान् श्रीकृष्ण पीताम्बर तथा बनमाला धारण किये हुए उनके बीच प्रकट हो गये ।।२०

१३. कालिय-मर्दनं-अथ बारिणि

(श्री मेप्पत्तूर नारायण भट्टपाद रचित 'श्रीमन्नारायणीयम्' से)

 

श्लोक

 

वसुदेव-सुतं देवं कंस-चाणूर-मर्दनम्।

देवकी-परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद् गुरुम् ।।

 

मैं जगद्‌गुरु भगवान् श्रीकृष्ण की वन्दना करता हूँ, जो बसुदेव जी का पुत्र है, जो स्वयं भगवान् है, जिसने कंस और चाणूर राक्षसों का वध किया तथा जो माता देवकी को परम आनन्द देने वाला है।

 

गीत

अथ वारिणि घोरतरं फणिनं

प्रतिवारयितुं कृतधी-र्भगवन् ।

द्वत-मारिथ तीरग-नीप-तरुं

विष-मारुत-शोषित-पर्ण-चयम्। ।।१

 

अधिरुह्य पदाम्बुरुहेण च तं

नव-पल्लव-तुल्य-मनोज्ञ-रुचा ।

हृद-वारिणि दूरतरं न्यपतः

परिघूर्णित-घोर-तरंग-गणे ।।२

भुवन-त्रय-भार-भृतो भवतो

गुरु-भार-विकम्पि-विजृम्भि-जला ।

परिमज्जयति स्म धनुः शतकं

तटिनी झटिति स्फुट-घोषवती ।।३

 

अथ दिक्षु विदिक्षु परिक्षुभित-

भ्रमितोदर-वारि-निनाद-भरैः ।

उदका-दुदगा-दुरगाधिपतिः

त्वदुपान्त-मशान्त-रुषान्ध -मन: ।।४

 

फण-श्रृंग-सहस्र-विनिःसृमर-

ज्वल-दग्नि-कणोग्र विषाम्बु-धरम् ।

पुरतः फणिनं समलोकयथा

बहु-श्रृंगिण-मंजन-शैल-मिव ।।५

 

ज्वल-दक्षि-परिक्षर-दुग्र-विष-

श्वसनोष्म-भरः स महा-भुजगः ।

परिदश्य भवन्त-मनन्त-बलं

समवेष्टय-दस्फुट-चेष्ट-महो ।।६

 

अविलोक्य भवन्त-मथाकुलिते

तट गामिनि बालक-धेनु-गणे ।

व्रज-गेह-तलेऽप्यनिमित्त-शतं

समुदीक्ष्य गता यमुनां पशुपाः ।।७

 

अखिलेषु विभो भवदीय-दशां

अवलोक्य जिहासुषु जीवभरम् ।

फणि-बन्धन-माशु विमुच्य जवाद्-

उदगम्यत हास-जुषा भवता ।।८

 

अधिरुह्य ततः फणि-राज फणान्

ननृते भवता मृदु-पाद-रुचा।

कल शिंजित नूपुर-मंजु-मिलत्

कर-कंकण-संकुल-संक्वणितम् ।।९

 

जहषुः पशुपा-स्तुतुषु-र्मुनयो

ववृषुः कुसुमानि सुरेन्द्र-गणाः ।

त्वयि नृत्यति मारुत-गेह-पते

परिपाहि स मां त्व-मदान्त-गदात् ।।१०

 

हे भगवन्! तू यमुना के जल में निवास करने वाले उस महा सर्प का विनाश करने का निश्चय कर नदी के तट पर रहने वाले कदम्ब-वृक्ष पर चढ़ गया, जिसके सारे पत्ते विष-वायु से सूख गये थे ।।१

 

उस कदम्ब-वृक्ष पर तू चढ़ गया और नव-पल्लवों के समान कान्तियुक्त अपने चरण-कमल से नदी का जल दूर तक हिलाने लगा जिससे नदी में जोर से लहरें उठने लगीं ।॥२

 

चूंकि तू तीनों लोकों का भार वहन करता है, तेरे उस महान् भार से नदी का जल सौ-सौ धनुष की उँचाई तक उठने लगा और तटवर्ती प्रदेश में महान् कोलाहल मचने लगा ।।३

 

अब इस प्रकार चारों दिशाओं में उमड़ते, चक्कर लगाते पानी के कोलाहल के बीच सर्पराज पानी से बाहर निकल कर, बड़े क्रोध से अन्धा हो कर तेरे पास आया ।।४

 

उसके हजारों फन पर्वत की चोटियों की तरह दीख रहे थे, उनमें जलते अंगारे के समान विष उमड़ रहा था जो बादलों के समान दीखता था। तू कई चोटियों वाले अंजन पर्वत के समान दीख रहा था ।।५

 

उस महा सर्प की आँखें जल रही थीं। वह बड़ी गरम उसासों के साथ तीव्र विष उगल रहा था। अनन्त शक्ति से सम्पन्न तुमको कुछ भी विचलित न होते देख कर वह तुम्हें लपेटने लगा ।।६

 

यमुना के तट पर सारे गोप बालक और पशु तुझे न देख पाने के कारण तथा घर में भी कई प्रकार के असगुन होते देख कर सब ग्वाल यमुना के पास चले आये ।।७

 

उन लोगों ने जब तेरी अवस्था देखी, तब इतने दुःखी हुए कि सबने अपने प्राण त्याग करने का निश्चय कर लिया। यह देख कर तू सर्प के बन्धन को छुड़ा कर शीघ्र ही हँसन्मुख हो बाहर आ गया ।।८

 

और तब सर्पराज के फनों पर तू चढ़ गया और अपने मृदुल पाद-कमलों से, नुपूर के सुमधुर निनाद तथा हाथों के कंकण की मनोहर ध्वनि के साथ वहाँ नाचने लगा ।।९

 

हे गुरुवागूर, तुझे यों नृत्य करते देख कर गोपालक हर्षित हुए, मुनिजन सन्तुष्ट हुए, देवगण आकाश से पुष्प वर्षा करने लगे। तू मेरी रक्षा कर जो दुर्निवार रोग से पीड़ित

 

नामावली

 

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।

 

श्री विष्णु-स्तोत्रम्

१४. अच्युतं केशवं

(श्री शंकराचार्यकृतम्)

 

श्लोक

 

आदौ देवकि-देवि-गर्भ-जननं गोपी-गृहे वर्धनं

माया-पूतन-जीवितापहरणं गोवर्धनोद्धारणम् ।

कंस-च्छेदन-कौरवादि-हननं कुन्ती-सुतापालनं

एकद् भागवतं पुराण-कथितं श्रीकृष्ण-लीलामृतम् ।

 

प्रारम्भ में देवकी देवी के गर्भ में जन्म ग्रहण करना, गोपी (यशोदा) के घस ालन-पालन होना, मायाविनी पूतना का प्राण-हरण, गोवर्धन-पर्वत को धारण करना स तथा दूसरे असुरों का वध, कौरव तथा उनके साथियों का विनाश, कुन्ती के पुत्रों क 1-संक्षेप में भागवतमहापुराण में श्रीकृष्ण की यही अमृतरूपी लीला-कथा है।

 

गीत

 

अच्युतं केशवं राम-नारायणं

कृष्ण-दामोदरं वासुदेवं हरिम् ।

श्रीधरं माधवं गोपिका-वल्लभं,

जानकी-नायकं रामचन्द्रं भजे ।।१

 

अच्युतं केशवं सत्यभामा-धवं,

माधवं श्रीधरं राधिकाराधितम् ।

इन्दिरा-मन्दिरं चेतसा सुन्दरं

देवकी नन्दनं नन्दजं सन्दधे ।।२

 

विष्णवे जिष्णवे शंखिने चक्रिणे

रुक्मिणी-रागिणे जानकी-जानये ।

वल्लभी-वल्लभायार्चितायात्मने,

कंस-विध्वंसिने वंशिने ते नमः ।।३

 

कृष्ण गोविन्द हे राम नारायण,

श्रीपते वासुदेवाजित श्रीनिधे ।

अच्युतानन्द हे माधवाधोक्षज,

द्वारका-नायक द्रौपदी-रक्षक ।।४

 

राक्षस क्षोभितः सीतया शोभितो,

दण्डकारण्य-भू पुण्यता-कारणः

लक्ष्मणेनान्वितो वानरैः सेवितोऽ

गस्त्य-सम्पूजितो राघवः पातु माम् ।।५

 

धेनुकारिष्टकानिष्ट-कृद्-द्वेषितः,

केशिहा कंस-हृद्-वंशिका-वादकः ।

पूतना-कोपकः सूरजा खेलनो,

बाल-गोपालकः पातु मां सर्वदा ।।६

 

विद्युदुद्योतवत्-प्रस्फुर-द्वाससं,

प्रावृ-दम्भोदवत्-प्रोल्लस-द्विग्रहम् ।

वन्यया मालया शोभितोरः-स्थलं,

लोहितांघ्रि-द्वयं वारिजाक्षं भजे ।।७

 

कुंचितैः कुन्तलै-जिमानाननं,

रत्न-मौलिं लस-त्कुण्डलं गण्डयोः ।

हार-केयूरकं कंकण-प्रोज्वलं, मागणी

किंकिणी-मंजुलं श्यामलं तं भजे ॥८

 

अच्युतस्याष्टकं यः पठे-दिष्टदं,

प्रेमतः प्रत्यहं पूरुषः सस्पृहम्।में मिली

वृत्ततः सुन्दरं कर्तृ-विश्वम्भर-

स्तस्य वश्यो हरि-र्जायते सत्वरम् ।।९

 

अर्थ

 

अच्युत, केशव, राम, नारायण, कृष्ण, दामोदर, वासुदेव, हरि, श्रीधर, माधव, गोपिकावल्लभ तथा जानकीनाथ रामचन्द्र को मैं भजता हूँ।।१

 

अच्युत, केशव, सत्यभामापति, लक्ष्मीपति, श्रीधर, राधिका जी द्वारा आराधित, लक्ष्मीनिवास, परम सुन्दर, देवकीनन्दन, नन्दकुमार का चित्त से मैं ध्यान करता हूँ।।२

 

जो विभु है, विजय है, शंख-चक्र-धारी है, रुक्मिणी जी का परम प्रेमी है, जानकी जी जिसकी धर्मपत्नी हैं तथा जो व्रजांगनाओं का प्राणाधार है, उस परम पूज्य, आत्मस्वरूप, कसविनाशक, मुरलीमनोहर को नमस्कार करता हूँ।।३

 

हे कृष्ण! हे गोविन्द! हे राम' हे नारायण ! हे रमानाथ। हे वासुदेव! हे अजय! हे शोभाधाम' हे अच्युत! हे अनन्त' हे माधव ! हे अधोक्षज (इन्द्रियातीत) । हे द्वारकानाथ! हे द्रौपदीरक्षक! मुझ पर कृपा करो ।।४

 

जो राक्षसों पर अति कुपित है, श्री सीता जी से शोभित है, दण्डकारण्य की भूमि की पवित्रता का कारण है, श्री लक्ष्मी जी द्वारा अनुगत है, वानरों से सेवित है और श्री अगस्त्य जी से पूजित है, वह रघुकुल में उत्पन्न श्री रामचन्द्र मेरी रक्षा करें ।।५

 

धेनुक और अरिष्टासुर आदि का नाश करने वाला, शत्रुओं का ध्वंस करने वाला, केशी और कस का वध करने वाला, वंशी बजाने वाला, पूतना पर कोप करने वाला, यमुना-तट विहारी, बाल-गोपाल श्रीकृष्ण सदा मेरी रक्षा करें ।।६

 

विद्युत् प्रकाश के सदृश जिसका पीताम्बर विभासित हो रहा है, वर्षाकालीन मेघ के समान जिसका शरीर अति शोभायमान है, जिसका वक्ष स्थल वनमाला से विभूषित है और चरणयुगल अरुण वर्ण के हैं, उस कमल-नयन श्री हरि को मैं भजता हूँ।।७

 

जिसका मुख घुँघराली अलकों से सुशोभित है, मस्तक पर मणिमय मुकुट शोभा दे रहा है तथा कपोलों पर कुण्डल सुशोभित हैं, उज्ज्वल हार, भुजबन्द, कंकण और सुन्दर किंकिणी से सुशोभित मनोहर मूर्ति श्री श्यामसुन्दर को भजता हूँ।।८

 

जो पुरुष इस अति सुन्दर छन्दों वाले और अभीष्ट फलदायक अच्युताष्टक का प्रेष और श्रद्धा से नित्य पाठ करता है, विश्वम्भर, विश्वकर्ता श्री हरि शीघ्र ही उसके वशीभूत हो जाते हैं ।।९

१५. जय विठ्ठल विठ्ठल

 

श्लोक

 

दृष्ट्वेदं मानुषं रूपं तव सौम्यं जनार्दन ।

इदानी-मस्मि संवृत्तः सचेताः प्रकृतिं गतः ।।

 

हे जनार्दन, अब तेरा यह मानवीय सौम्य रूप देख कर मैंने समाधान प्राप्त किया है और मैं स्वस्थचित्त हुआ हूँ।

 

 

 

 

गीत

 

जय विठ्ठल विठ्ठल विठ्ठल, जय विठ्ठल पाण्डुरंग

जय विठ्ठल विठ्ठल विठ्ठल, ओ विट्ठल विठ्ठल विठ्ठल

जय विठ्ठल विठ्ठल विठ्ठल, जय विठ्ठल पाण्डुरंग

जय विट्ठल पाण्डुरंग

 

नामावली

 

जय जय विठ्ठल पाण्डुरंग विट्ठल ।

१६. हरि तुम हरो जन की भीर

(श्री मीराबाईकृत)

 

श्लोक

 

भजे व्रजैक-मण्डनं समस्त-पाप-खण्डनं

स्वभक्त-चित्त रंजनं सदैव नन्द-नन्दनम् ।

सुपञ्छि गुच्छ-मस्तकं सुनाद-वेणु-हस्तकं

अनंग-रंग-सागरं नमामि कृष्ण-नागरम् ।।

 

अर्थ

 

मैं सदा उस नन्दकुमार नटवर कृष्ण भगवान् की वन्दना करता है तथा उसी को भजता हूं, जो व्रज का भूषण है, जो सम्पूर्ण पापों का नाश करता है, जो अपने भक्तों के हृदय को आनन्दित करता है, जिसके शिर पर मोर-पिच्छ का गुच्छा, हाथ में मधुर वशी है तथा जो सौन्दर्यों का सागर है।

 

गीत

 

हरि तुम हरो जन की भीर ।

द्रौपदी की लाज राखी तुम बढ़ायो चीर ।।१।। हरि...

 

भक्त कारन रूप नरहरि धस्यो आप शरीर।

हिरण्यकशिपु मार लीन्हों धस्यो नाहीं धीर ।।२।। हरि...

 

बूड़ते गजराज राख्यो कियो बाहर नीर ।

दासी मीरा लाल गिरिधर चरन कमल पर सीर ।।३ ।। हरि...

 

हे हरि, तू अपने भक्तों की पीड़ा का निवारण कर।  तूने द्रौपदी की साड़ी को बढ़ा कर उसकी लज्जा की रक्षा की ।।१

 

तूने अपने भक्त प्रह्लाद को बचाने के लिए नृसिंह-रूप धारण किया तथा हिरण्यकशिपु का संहार किया। प्रह्लाद को बचाने के लिए तू इतना उतावला हो रहा था ।।२

 

तूने डूबते हुए गजेन्द्र को बचाया और उसे जल से बाहर निकाला । हे गिरिधर! तेरी दासी 'मीरा' तेरे चरण-कमल पर अपना मस्तक रखती है ।।३

 

नामावली

 

हरि तुम हरो जन की भीर।

हरि हरि हरि बोल, हरि हरि हरि ॐ ।

१७. महायोग-पीठे

(श्री शंकराचार्यकृतम्)

 

श्लोक

 

सम-चरण-सरोजं सान्द्र-नीलाम्बुदाभं

जघन-निहित-पाणिं मण्डनं मण्डनानाम् ।

तरुण-तुलसि-माला-कन्धरं कंजनेत्रं

सदय-धवल-हासं विट्ठलं चिन्तयामि ।।

 

मैं उस भगवान् विठ्ठल का ध्यान करता हूँ जिसके कमलसदृश दोनों चरण सामंजस्यपूर्ण हैं, जिसकी कान्ति नवमेघ के समान नील है, जिसने अपने दोनों हाथ कटि-प्रदेश में रखे हैं, संसार के सब आभूषणों का जो आभूषण है, जिसने गले में नवीन तुलसी-माला पहनी है, जिसके नेत्र कमल-सदृश हैं तथा जिसके मुख पर दयापूर्ण और उज्ज्वल स्मित है।

 

गीत

 

महा-योग-पीठे तटे भीम-रथ्यां,

वरं पुण्डरीकाय दातुं मुनीन्द्रैः ।

समागत्य तिष्ठन्त-मानन्द-कन्दं,

परब्रह्म-लिंगं भजे पाण्डुरंगम् ।।१

 

तडि-द्वाससं नील-मेघावभासं,

रमा-मन्दिरं सुन्दरं चित्प्रकाशम् ।

 

वरं त्विष्ट-कायं सम न्‍यस्‍त-पादं

परब्रह्म-लिंगं भजे पाण्डुरंगम् ।।२

 

प्रमाणं भवाब्धे-रिदं मामकानां

नितम्बः कराभ्यां धृतो येन तस्मात् ।

विधातुर्वसत्यै धृतो नाभि-कोशं,

परब्रह्म-लिंगं भजे पाण्डुरंगम् ।।३

 

स्फुरत्कौस्तुभालंकृतं कण्ठदेशे,

श्रिया जुष्टकेयूरकं श्री-निवासम् ।

शिवं शान्त-मीड्यं वरं लोक-पालं,

परब्रह्म-लिगं भजे पाण्डुरंगम् ।।४

 

शरच्चन्द्र-बिम्बाननं चारु-हासं,

लसत्-कुण्डलाक्रान्त-गण्ड-स्थलांगम् ।

जपा-राग-बिम्बाधरं कंज-नेत्रं,

परब्रह्म-लिंगं भजे पाण्डुरंगम् ।।५

 

किरीटोज्ज्वलत्-सर्व-दिक्प्रान्त-भागं,

सुरै-रर्चितं दिव्य-रत्नै-रनधैः ।

त्रिभंगाकृतिं बर्ह-माल्यावतंसं,

परब्रह्म-लिंगं भजे पाण्डुरंगम् ।।६

 

विभुं वेणुनादं चरन्तं दुरन्तं,

स्वयं लीलया गोप-वेषं दधानम् ।

गवां वृन्दकानन्ददं चारुहासं,

परब्रह्म-लिंगं भजे पाण्डुरंगम् ।।७

 

अजं रुक्मिणी-प्राण-संजीवनं तं,

परं धाम कैवल्य-मेकं तुरीयम् ।

प्रसन्नं प्रपन्नार्तिहं देवदेवं,

परब्रह्म-लिंगं भजे पाण्डुरंगम् ।।८

 

स्तवं पाण्डुरंगस्य वै पुण्यदं ये,

पठेन्त्येकचित्तेन भक्त्या च नित्यम् ।

भवाम्भोनिधिं तेऽपि तीर्ध्वान्तकाले,

हरेरालयं शाश्वतं प्राप्नुवन्ति ।।९

 

परब्रह्म के प्रतीक पाण्डुरंग का मैं भजन करता हूँ जो भगीरथी नदी के तट पर, पुण्डरीक को वर प्रदान करने के लिए मुनिजनों के संग आ कर महायोग-मुद्रा में खड़ा है तथा आनन्द देने वाला है।॥१-

 

परब्रह्म के प्रतीक उस पाण्डुरंग का मैं भजन करता हूँ जो नीलमेघध-सदृश श्याम है, जिसके वस्त्र विद्युत् के समान कान्तिमान् है, जो श्री लक्ष्मी का मन्दिर है, सुन्दर है, ज्ञान के प्रकाश से भरा है और जो अपने जुड़े हुए दोनों पैरों को ईंट पर रख कर खड़ा है ।।२

 

जिसने मेरे समान लोगों को यह बताने के लिए कि मेरे भक्तों के लिए भवसागर की गहराई इतनी ही है, अपने दोनों हाथ कटि-प्रदेश में रख रखे हैं तथा ब्रह्मा के निवास-स्थान कमल को अपने नाभि-प्रदेश में धारण कर रखा है, उस परब्रह्म के प्रतीक पाण्डुरंग का मैं भजन करता हूँ।।३

 

परब्रह्म के प्रतीक पाण्डुरंग का मैं भजन करता हूँ जो प्रकाशयुक्त कौस्तुभमणि को गले में पहनता है, जिसके भुजबन्ध सुन्दरता से चमक रहे हैं, जो साक्षात् लक्ष्मी का भी आवास है, जो मंगलकारी है, शान्त है, स्तुत्य है, श्रेष्ठ है तथा लोकरक्षक है ।।४

 

परब्रह्म के प्रतीक पाण्डुरंग का मैं भजन करता हूँ जिसका मुख शरत्कालीन चन्द्र-मण्डल के समान है, जिसकी मुस्कान मीठी है, गण्ड-प्रदेश में कुण्डल आ कर लटक रहे हैं, जपापुष्प के समान लाल-लाल ओठ हैं, कमल-सदृश नेत्र हैं ।।५

 

परब्रह्म के प्रतीक पाण्डुरंग का मैं भजन करता हूँ जिसके मुकुट के प्रकाश से सारी दिशाएँ प्रकाशित हैं, जो देवताओं से दिव्य और अनमोल रत्नों द्वारा पूजित है, त्रिभंगी आकार में खड़ा है और मोर के पंखों से समलंकृत है।। ६

 

परब्रह्म के प्रतीक पाण्डुरंग का मैं भजन करता हूँ जो सर्वव्यापी है, मुरली बजाता है और जो अन्तरहित है, स्वयं लीला से ग्वालवेष धारण करने वाला है, गो-समूह को आनन्द देने वाला और सुन्दर मुस्कान वाला है।।७।।

 

जो अजन्मा है, रुक्मिणी के लिए संजीवन है, जो स्वयं परम धाम है, कैवल्य है और तुरीय अवस्था है, जो सदा प्रसन्न रहता है, शरणागतों की पीड़ा मिटाता है, देवों का देव है, उस परब्रह्म के प्रतीक पाण्डुरंग का मैं भजन करता हूँ।।८

 

जो लोग पाण्डुरंग के इस पुण्यप्रद स्तोत्र का नित्य भक्तिपूर्वक एकाग्र मन से पाठ करते हैं, वे अन्त काल में संसार-सागर को पार कर के श्री हरि का शाश्वत धाम प्राप्त करते हैं।।९

 

नामावली

 

परब्रह्म रूपं भजे पाण्डुरंगम् ।

 

 

 

 

१८. प्रलयपयोधिजले

(दशावतार-स्तोत्रम्)

(श्रीजयदेवकृतम्)

 

श्लोक

 

वेदा-नुद्धरते जगन्ति वहते भूगोल-मुद्बिभ्रते,

दैत्यं दारयते बलिं छलयते क्षत्र-क्षयं कुर्वते ।

पौलस्त्यं जयते हलं कलयते कारुण्य-मातन्वते,

म्लेच्छान् मूर्च्छयते दशाकृति-कृते कृष्णाय तुभ्यं नमः ।।

 

उस कृष्ण को नमस्कार है जिसने (मत्स्य का रूप धारण कर) वेदों का उद्धार किया, (वाराह-रूप धारण कर) प्रलयपयोनिधि से पृथ्वी का उद्धार किया, (कूर्म-रूप से) जगत् को धारण किया, (नृसिंह-रूप से) हिरण्यकशिपु दैत्य का संहार किया, (वामन-अवतार से) बलि को छला, (परशुराम का रूप धारण कर) क्षत्रियों का संहार किया, (रामावतार में) रावण को मारा, (बलराम-अवतार में) हलधर बना, (बौद्धावतार में) करुणा का प्रसार किया, (कल्कि अवतार में) म्लेच्छों को मूर्च्छित किया। उस एक प्रभु ने ही इन दशावतारों से अनेक लीलाएँ कीं।

 

गीत

 

प्रलय-पयोधि-जले धृतवा-नसि वेदम् ।

विहित-वहित्र-चरित्र-मखेदम् ।।

केशव धृत-मीन-शरीर जय जगदीश हरे ।

गोपालकृष्ण जय जगदीश हरे ।।१

 

क्षिति-रतिविपुलतरे तव तिष्ठति पृष्ठे ।

धरणी-धरण-किण-चक्र-गरिष्ठे ।।

केशव धृत-कच्छप-रूप जय जगदीश हरे ।

गोपालकृष्ण जय जगदीश हरे ।।२

 

वसति दशन-शिखरे धरणी तव लग्ना ।

शशिनि कलंक-कलेव निमग्ना ।।

केशव धृत-सूकर-रूप जय जगदीश हरे।

गोपालकृष्ण जय जगदीश हरे ।।३

 

तव कर-कमल-वरे नख-मद्भुत -

शृंगम् । दलित-हिरण्यकशिपु-तनु-भृंगम् ।।

केशव धृत-नरहरि-रूप जय जगदीश हरे ।

गोपालकृष्ण जय जगदीश हरे ।।४

 

छलयसि विक्रमणे बलि-मद्द्भुत-वामन ।

पद-नख-नीरजनित-जनपावन ।।

केशव धृत-वामन-रूप जय जगदीश हरे ।

गोपालकृष्ण जय जगदीश हरे ।।५

 

क्षत्रिय-रुधिरमये जग-दपगत-पापम् ।

स्नपयसि पयसि शमित-भव-तापम् ।।

केशव धृत-भृगुपति-रूप जय जगदीश हरे ।

गोपालकृष्ण जय जगदीश हरे ।।६

 

वितरसि दिक्षु रणे दिक्पति-कमनीयम् ।

दशमुख-मौलि-बलिं रमणीयम् ।।

केशव धृत-रघुपति-रूप जय जगदीश रहे ।

गोपालकृष्ण जय जगदीश हरे ।।७

 

वहसि वपुषि विशदे वसनं जलदाभम् ।

हल-हति-भीति-मिलित-यमुनाभम् ।।

केशव धृत-हल-धर-रूप जय जगदीश हरे ।

गोपालकृष्ण जय जगदीश हरे ।।८

 

निन्दसि यज्ञ-विधे-रहह श्रुतिजातम् ।

सदय-हृदय-दर्शित-पशु-घातम् ।।

केशव धृत-बुद्ध-शरीर जय जगदीश हरे।

गोपालकृष्ण जय जगदीश हरे ।।९

 

म्लेच्छ-निवह-निधने कलयसि करवालम् ।

धूमकेतु-मिव किमपि करालम् ।।

केशव धृत-कल्कि-शरीर जय जगदीश हरे ।

गोपालकृष्ण जय जगदीश हरे ।।१०

 

श्री जयदेव-कवे-रिद-मुदित-मुदारम् ।

शृणु सुखदं शुभदं भवसारम् ।।

केशव धृत-दशविध-रूप जय जगदीश हरे ।

गोपालकृष्ण जय जगदीश हरे ।।११

 

हे केशव। प्रलय-काल में बढ़ते हुए समुद्र-जल में बिना क्लेश नौका चलाने की लीला करते हुए तू वेदों की रक्षा करता है , ऐसे मत्स्यरूपधारी जगत्पति, हरि, तेरी जय हो !!१

 

हे केशव। तूने अपनी कठोर और दृढ़ पीठ पर पृथ्वी को धारण कर रखा है, ऐसे कच्छपरूपधारी जगत्पति, हरि, तेरी जय हो ।।२

 

हे केशव। चन्द्रमा में निमग्न हुई कलंक-रेखा के समान यह पृथ्वी तेरे दाँत की नोक पर अटकी हुई सुशोभित हो रही है, ऐसे शूकररूपधारी जगत्पति, हरि, तेरी जय हो !!३

 

हे केशव ! हिरण्यकशिपु के शरीर को चीर डालने वाले विचित्र नुकीले नख तेरे करकमल में हैं, ऐसे नृसिंहरूपधारी जगत्पति, हरि, तेरी जय हो!!४

 

हे केशव ! तू पैर बढ़ा कर राजा बलि को छलता है तथा अपने चरण-नखों के जल से लोगों को पवित्र करता है, ऐसे हे अ‌द्भुत वामनरूपधारी जगत्पति, हरि, तेरी जय हो!!५

 

हे केशव ! तू जगत् के पाप और तापों का नाश करते हुए उसे क्षत्रियों के रुधिर-रूप जल से स्नान कराता है, ऐसे हे परशुरामरूपधारी जगत्पति, हरि, तेरी जय हो !!६

 

हे केशव! तू युद्ध में रावण के शिरों की बलि दे कर सब दिशाओं के लोकपालों को प्रसन्न करता है, ऐसे रामावतारधारी जगत्पति, हरि, तेरी जय हो!! ७

 

हे केशव ! तू अपने गौर वर्ण वाले शरीर पर मेघ-सदृश नीलाम्बर धारण किये रहता है, मानो तेरे हलास्त्र के भय से यमुना ने तुम्हारे वस्त्र का रूप ले रखा है, ऐसे बलरामरूपधारी जगत्पति, हरि, तेरी जय हो !!८

 

हे केशव ! सदय हृदय से पशुहत्या की कठोरता दिखाते हुए यज्ञ-विधान-सम्बन्धी श्रुतियों की निन्दा करने वाले बुद्धरूपधारी जगत्पति, हरि, तेरी जय हो !!९

 

हे केशव। जो म्लेच्छ-समूह का नाश करने के लिए धूमकेतु के समान अत्यन्त भयंकर तलवार चलाता है, ऐसे कल्किरूपधारी जगत्पति, हरि, तेरी जय हो ।1१० (हे भक्तो) जयदेव कवि की कही हुई इस मनोहर, आनन्ददायक, कल्याणमय तत्त्वरूपी स्तुति को सुनो । हे दशावतारधारी। जगत्पति, हरि, केशव, तेरी जय हो !!११

 

नामावली

 

केशव माधव गोविन्द जय ।

राधेकृष्ण मुकुन्द जय जय ।।

१९. राधारमण कहो

 

जिस हाल में, जिस देश में, जिस वेष में रहो ।

राधारमण, राधारमण, राधारमण कहो ।।१

 

जिस काम में, जिस धाम में, जिस गाँव में रहो।

राधारमण, राधारमण, राधारमण कहो ।।२

 

जिस संग में, जिस रंग में, जिस ढंग में रहो।

राधारमण, राधारमण, राधारमण कहो ।।३

 

जिस योग में, जिस भोग में, जिस रोग में रहो ।

राधारमण, राधारमण, राधारमण कहो ।।४

 

२०. राम-कृष्ण-हरि

(सन्त केशवदास कृत)

 

राम-कृष्ण-हरि, मुकुन्द-मुरारी ।

पाण्डुरंग, पाण्डुरंग, पाण्डुरंग हरी ।।१ (राम...)

 

मकर-कुण्डल-धारी, भक्त-बन्धु-शौरी ।

मुक्तिदाता, शक्तिदाता, विट्ठल नरहरी ।।२ (राम...)

 

दीन बन्धु, कृपासिन्धु, श्रीहरी श्रीहरी ।

पावनांग, हे कृपांग, वासुदेव हरी ।।३ (राम…)

 

तुलसीहार कन्धर, भक्त-हृदय मन्दिर ।

मन्दराद्विधर मुकुन्द, इन्दिरेश श्रीहरी ।।४ (राम...)

 

जगत्रय जीवन, केशव नारायण ।

माधव जनार्दन, आनन्दघन हरी ।।५ (राम...)

 

राजस सुकुमार, मोहनाकार ।

करुणासागर, अच्युत श्रीहरी ।।६ (राम...)

 

पुण्डलीक वरदा, पण्डरिनाथ शुभदा ।

अण्डजवाहन कृष्ण, पाण्डुरंग हरी ।।७ (राम...)

 

ज्ञानदेव संस्तुता, नामदेव कीर्तिता ।

तुकाराम पूजिता, दास केशव सन्नुता ।।८ (राम...)

२१. कृष्ण गोविन्द गोविन्द

 

कृष्ण गोविन्द गोविन्द गाते चलो,

मन को विषयों के विष से हटाते चलो ।।

 

देखना इन्द्रियों के न घोड़े भगें,

रात दिन इनपे संयम के कोड़े लगें ।

अपने रथ को सुमार्ग बढ़ाते चलो ।। कृष्ण...

 

नाम जपते चलो काम करते चलो,

नाम धन का खजाना बढ़ाते चलो ।। कृष्ण...

 

सुख में सोना नहीं दुःख में रोना नहीं,

प्रेम भक्ति के आँसू बहाते चलो ।। कृष्ण...

 

लोग कहते हैं भगवान् आते नहीं,

ध्रुव की तरह से बुलाते नहीं,

भक्त प्रह्लाद के जैसा रटना करो ।। कृष्ण...

 

लोग कहते हैं भगवान् खाते नहीं,

शाक विदुर घर के जैसे खिलाते नहीं,

भक्त शबरी के जैसे खिलाया करो ।। कृष्ण…

 

लोग कहते हैं संकट में आते नहीं,

सती द्रौपदी की तरह से बुलाते नहीं,

टेर गज की तरह से सुनाते चलो ।। कृष्ण...

 

चाहे काशी चलो, चाहे मथुरा चलो,

चाहे प्रयागा चलो, चाहे अयोध्या चलो,

प्रेम भक्ति के मार्ग बढ़ाते चलो ।। कृष्ण...

 

याद आवेगा प्रभु को कभी न कभी,

दास पावेगा प्रभु को कभी न कभी,

ऐसा विश्वास मन में जमाते चलो ।। कृष्ण...

 

२२. नटवर लाल गिरिधर गोपाल

 

नटवर लाल गिरिधर गोपाल,

जय जय नन्दा यशोदा के बाल ।

सार सार सबके सार,

राधा रसिक वर रास बिहार ।।

स्फटिक स्फटिक मय गोपि मण्डल धाम,

गोपि गोपि मध्य मकरकत श्याम ।।

नटवर लाल...

 

धन्य धन्य व्रज गोपि धन्य हो,

धन्य वृन्दावन कुंज धन्य हो।

व्रज मृग खग सब धन्य धन्य हो,

व्रज रज यमुना पुलिन धन्य हो ।।

नटवर लाल...

 

शरद पूर्णिमा निर्मल यमुना,

अद्भुत रास महोत्सव अनुपम ।

सार सार सबके सार,

राधा रसिक प्रिय रास बिहार ।।

नटवर लाल…

२३. कृष्ण प्रेम मयी राधा

 

कृष्ण प्रेम मथी राधा, राधा प्रेम मयो हरिः ।

जीवने निधने नित्यं, राधा कृष्णी गतिर्मम ।। (राधा कृष्णी)

 

कृष्ण प्राण मयी राधा, राधा प्राण मयो हरिः ।

जीवने निधने नित्यं, राधा कृष्णौ गतिर्मम ।। (राधा कृष्णी)

 

कृष्णस्य द्रविणं राधा, राधायाः द्रविणं हरिः ।

जीवने निधने नित्यं, राधा कृष्णौ गतिर्मम ।। (राधा कृष्णी)

 

कृष्ण द्रवा मयी राधा, राधा द्रवा मयो हरिः ।

जीवने निधने नित्यं, राधा कृष्णौ गतिर्मम ।। (राधा कृष्णौ)

 

कृष्ण देह स्थिता राधा, राधा देह स्थितो हरिः ।

जीवने निधने नित्यं, राधा कृष्णौ गतिर्मम ।। राधा कृष्णौ)

 

कृष्ण चित्त स्थिता राधा, राधा चित्त स्थितो हरिः ।

जीवने निधने नित्यं, राधा कृष्णौ गतिर्मम ।। (राधा कृष्णौ)

 

नीलाम्बर धरा राधा, पीताम्बर धरो हरिः ।

जीवने निधने नित्यं, राधा कृष्णौ गतिर्मम ।। (राधा कृष्णौ)

 

बृन्दावनेश्वरी राधा, कृष्णौ बृन्दावनेश्वरः ।

जीवने निधने नित्यं, राधा कृष्णौ गतिर्मम ।। (राधा कृष्णौ)

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

गुरुवार

श्री गुरु-स्तोत्रम्

. विदिताखिल-शाख-सुधा-जलपे

(श्री हस्तामलककृतम्)

 

श्लोक

 

पद्मासीनं प्रशान्तं यमनिरतमनंगारि-तुल्य-प्रभावं

फाले भस्मांकिताभं स्मित-रुचिर-मुखाम्भोजमिन्दीवराक्षम् ।

कम्बुग्रीव कराभ्यामविहत-विलसत्पुस्तकं ज्ञानमुद्र

वन्दयं गीर्वाणमुख्यै-र्नत-जन-वरदं भावये शंकरार्यम् ।।

 

मैं उन भगवान् शंकराचार्य जी का ध्यान करता हूँ जो पद्यासन लगाये बैठे हैं, शान्त बदन हैं, यम में लीन हैं, जिनका प्रभाव कामारि भगवान् शिव के समान है, मस्तक पर भस्म धारण किये हुए हैं, जिनका मुख-कमल मन्द हास से मनोहर है, जिनकी आँखें इन्दीवर पुष्प के समान हैं, जिनकी गर्दन शंख के समान है, जिनके हाथों में निरन्तर पुस्तक सुशोभित रहती है, जो ज्ञानमुद्रा में हैं, देवताओं के प्रमुख भी जिनकी वन्दना करते हैं और जो प्रणतजनों को वरदान देते हैं।

 

गीत

 

विदिताखिल-शास्त्र-सुधाजलधे

महितोपनिषत्कथितार्थ-निधे ।

हृदये कलये विमलं चरणं

भव शंकरदेशिक मे शरणम्।।१

 

करुणा-वरुणालय पालय मां ।

भव-सागर-दुःख-विदून-हृदम्

रचिताखिल-दर्शन-तत्त्वविदं

भव शंकरदेशिक में शरणम् ।।२

भवता जनता सुखिता भविता

निज-बोध-विचारण-चारु-मते ।

कलयेऽश्वर-जीव-विवेक-विदं

भव शंकरदेशिक मे शरणम् ।।३

 

भव एव भवानिति में नितरां

समजायत चेतसि कौतुकिता ।

मम वारय मोह-महा-जलधिं

भव शंकरदेशिक में शरणम् ।।४

 

सुकृतेऽधिकृते बहुधा भवतो

भविता पद-दर्शन-लालसता ।

अतिदीन-मिमं परिपालय मां

भव शकंरदेशिक मे शरणम् ।।५

 

जगती-मवितुं कलिताकृतयो

 विचरन्ति महामहस-श्चलिताः ।

अहिमांशु-रिवात्र विभासि पुरो

भव शंकरदेशिक मे शरणम् ।।६

 

गुरु-पुंगव पुंगव-केतन ते

समता-मयतां न हि कोऽपि सुधीः ।

शरणागत-वत्सल तत्त्व-निधे

भव शंकरदेशिक मे शरणम् ।।७

 

विदिता न मया विशदैककला

न च किंचन कांचन-मस्ति गुरो ।

द्रुतमेव विधेहि कृपां सहजां

भव शंकरदेशिक मे शरणम् ।।८

 

समस्त शास्त्र-रूपी अमृत-सागर के आप ज्ञाता हैं, पूजनीय उपनिषदों की अर्थ-रूपी निधि को आपने (संसार के सामने) कहा है। आपके विशुद्ध चरणों का मैं अपने हृदय में ध्यान करता हूँ। हे आचार्य शंकर, आप मुझे शरण दें ।।१

हे करुणा-सागर, संसार-सागर के दुःख से मेरा हृदय अत्यन्त पीड़ित है, आप मेरी रक्षा करें। आपने समस्त दर्शनों के तत्त्वों का सत्य उ‌द्घाटित किया है। है आचार्य शंकर, आप मुझे शरण दें ।॥२

 

आपके कारण ही सारा संसार सुखी हो सका है। आपकी बुद्धि आत्मज्ञान की चर्चा में कुशल है। आपने जीव और ईश्वर के विवेक को पहचाना है। आपका मैं ध्यान करता हूँ। हे आचार्य शंकर, आप मुझे शरण दें ।।३

 

यह जान कर मुझे बड़ा आनन्द हुआ है कि आप साक्षात् भगवान् शिव ही हैं। मेरे मोह-रूपी महासागर को आप दूर करें। हे आचार्य शंकर, मुझे शरण दें ।।४

 

बहुत काल के महान् पुण्य-संचय से ही मुझमें आपके चरण-दर्शन की इच्छा उत्पन्न हुई है। मुझ अत्यन्त दीन की आप रक्षा करें। हे आचार्य शंकर, आप मुझे शरण 811 ^ 6

 

भूलोक की रक्षा करने के लिए आपके समान तेजस्वी आत्माएँ मनुष्य-रूप धारण कर इधर-उधर घूमती रहती हैं। आप मेरे सामने सूर्य की तरह प्रकाशमान हैं। हे आचार्य शंकर, आप मुझे शरण दें ।।६

 

हे मेरे गुरु महाराज! आप सारे गुरुओं में श्रेष्ठ हैं। हे तत्त्वज्ञान के सागर, ऐसा कोई विद्वान् नहीं है जो आपकी बराबरी कर सके। आप शरण में आये हुओं पर अत्यन्त कृपा रखते हैं। हे आचार्य शंकर, आप मुझे शरण दें ।।७

 

हे गुरुदेव, मुझे इस संसार में आपके अतिरिक्त कोई भी सम्पत्ति या निधि आपसे बढ़ कर नहीं दिखी जिसका संचय किया जा सके। कृपा तो आपकी सहज वस्तु है, अतः मुझ पर शीघ्र कृपा कीजिए। हे आचार्य शंकर, आप मुझे शरण दें ।।८

 

नामावली

 

भव शंकरदेशिक मे शरणम् ।

भव शंकरदेशिक मे शरणम् ।।

 

. देव-देव-शिवानन्द

(श्रीहृदयानन्दकृतम्)

 

श्लोक

 

मंगलं योगिवर्याय महनीय-गुणाब्धये ।

गंगा-तीर-निवासाय शिवानन्दाय मंगलम् ।।

 

जो योगियों में श्रेष्ठ हैं, महान् गुणों के सागर हैं तथा गंगा के तट पर निवास करते हैं, उन शिवानन्द जी का मंगल हो।

 

गीत

 

देव-देव-शिवानन्द दीनबन्धो पाहि माम् ।

चन्द्र-वदन मन्दहास प्रेम-रूप रक्ष माम् ।।

मधुर-गीत-गान-लोल ज्ञान-रूप पाहि माम् ।

समस्त-लोक-पूजनीय मोहनांग रक्ष माम् ।।१

 

दिव्य-गंगा-तीर-वास दान-शील पाहि माम् ।

पाप-हरण पुण्य-शील परम-पुरुष रक्ष माम् ।।

भक्त-लोक-हृदय-वास स्वामिनाथ पाहि माम् ।

चित्स्वरूप चिदानन्द शिवानन्द रक्ष माम् ।।२

 

हे देवों के देव, दीनों के बन्धु शिवानन्द, मेरी रक्षा करो। हे चन्द्रमा के समान मुख वाले, मधुर मुस्कान वाले, प्रेम-स्वरूप! मेरी रक्षा करो। हे मधुर गीत गाने में प्रसन्नचित्त, ज्ञान-स्वरूप! मेरी रक्षा करो। हे सभी प्राणियों के द्वारा पूजित, मोहक अंगों वाले! मेरी रक्षा करो ।।१

 

हे गंगा-तट पर निवास करने वाले, दानशील! मेरी रक्षा करो। हे पाप को दूर करने वाले, सद्‌गुणों के आगार, परम पुरुष! मेरी रक्षा करो। हे भक्तों के हृदय में निवास करने वाले प्रभु! मेरी रक्षा करो। हे चैतन्य तथा आनन्द-स्वरूप शिवानन्द ! मेरी रक्षा करो ।।२

 

 

नामावली

 

सद्गुरु जय सद्गुरु जय, सद्गुरु जय पाहि माम् ।

सद्गुरु जय सद्गुरु जय, सद्गुरु जय रक्ष माम् ।।

. जय गुरुदेव दयानिधे

 

जय गुरुदेव दयानिधे, भगतन के हितकारी।

शिवानन्द जय मोह विनाशक, भव बन्धन हारी ।।

जय गुरुदेव...

 

ब्रह्मा विष्णु सदाशिव का, गुरु मूरति धारी।

वेद पुराण करत बखाना, गुरु की महिमा भारी ।।

जय गुरुदेव...

 

जप तप तीरथ शम यम दान, गुरु बिना नहीं होवत ज्ञान ।

ज्ञान खड्ग से कर्मा काटे, गुरु नाम सब पातक हारी ।।

जय गुरुदेव...

 

तन मन धन सब अर्पण कीजै, परमागति मोक्ष पद लीजै।

सबके सहारा सद्गुरु नाम, अविनाशी अविकारी ।।

जय गुरुदेव...

नामावली

 

ॐ गुरुनाथ जय गुरुनाथा ।

जय गुरुनाथ शिव गुरुनाथा ।।

जय गुरुनाथ जगद्गुरुनाथा ।

जगद्गुरुनाथ परं गुरुनाथा ।।

परं गुरुनाथ सद्‌गुरुनाथा ।

सद्गुरुनाथ जय गुरुनाथा ।।

सच्चिदानन्द गुरु जय गुरु जय गुरु।

अजर अमर गुरु जय गुरु जय गुरु ।।

. आनन्द कुटीर के दिव्य देवता

 

आनन्द कुटीर के दिव्य देवता, शिवानन्द सदा अमर रहें।

अखिल विश्व का दीप्त सितारा, भारत ज्योति जलती रहे ।।

 

प्रेम भक्ति का दीप जले, हमें जागृति का नव राह मिले ।

मानव दुःख मिटाते रहे, शिवानन्द सदा अमर रहें ।।

जलते जग में शान्ति निराली, ज्ञान सुधा बरसाते रहे ।। आनन्द कुटीर के...

 

शिव शंकर का ले अवतार, दया प्रेम का है भण्डार ।

जग को दिव्य बनाते रहें, शिवानन्द सदा अमर रहें ।।

संसार के पथ से दूर करें, हमें सत्य मार्ग दिखलाते रहें ।। आनन्द कुटीर के...

 

मुख में हरि का गीत रहे, और शिव के चरणों में प्रीत रहे ।

अमृत गीत सुनाते रहें, शिवानन्द सदा अमर रहें ।।

इस धरती पर युग युग स्वामी, 'रामप्रेम' बरसाते रहें ।।आनन्द कुटीर के...

 

. श्री दत्तात्रेयस्तोत्रम्

 

दिगम्बरं भस्मविलेपितांगं

बोधात्मकं मुक्तिकरं प्रसन्नं ।

निर्मानसं श्यामतनुं भजेऽहं

दत्तात्रेयं ब्रह्मसमाधियुक्तम् ।।१

 

सशंखचक्रं रविमण्डले स्थितं

कुशेशयाकान्तमनन्तमच्युतम् ।

भजामि बुद्ध्या तपनीयमूर्ति

सुरोत्तमं चित्तविभूषणोज्वलम् ।।२

 

दिगम्बर, भस्म-चर्चित शरीर वाले, बोध देने वाले, मुक्ति प्रदान करने वाले, प्रसन्न, निर्मल चित्त वाले, श्याम शरीर वाले तथा ब्रह्म-समाधि में स्थित रहने वाले भगवान् दत्तात्रेय को मैं भजता हूँ।।१

 

शंख एवं चक्र के सहित, रवि-मण्डल में स्थित, कमल के समान कान्ति वाले, अनन्त, अविनाशी, तप की साक्षात् मूर्ति, देवों में श्रेष्ठ तथा विविध आभूषणों से उज्वल दत्त भगवान् को मैं भजता हूँ।।२

 

. श्री दत्तात्रेयस्तोत्रम्

(श्री नारदविरचितम्)

 

जटाधरं पाण्डुरंग शूलहस्तं कृपानिधिं ।

सर्वरोगहरं देवं दत्तात्रेय नमोऽस्तु ते ।।१

 

जगदुत्पत्तिकर्जेच स्थितिसंहारहेतवे ।

भवपाश विमुक्ताय दत्तात्रेय नमोऽस्तु ते ।।२

 

जराजन्मविनाशाय देहशुद्धिकराय च ।

दिगम्बरदयामूर्ते दत्तात्रेय नमोऽस्तु ते ।।३

 

कर्पूरकान्तिदेहाय ब्रह्ममूर्तिहराय च ।

वेदशास्त्रपरिज्ञाय दत्तात्रेय नमोऽस्तु ते ।।४

 

ह्रस्वदीर्घकृशस्थूल नामगोत्र विवर्जितः ।

पंचभूत प्रदीप्ताय दत्तात्रेय नमोऽस्तु ते ।।५

 

यज्ञभोक्त्रे च यज्ञाय यज्ञरूपधराय च।

यज्ञप्रियाय सिद्धाय दत्तात्रेय नमोऽस्तु ते ।।६

 

आदौब्रह्म मध्येविष्णुः अन्तेदेवस्सदाशिवः ।

मूर्तित्रयस्वरूपाय दत्तात्रेय नमोऽस्तु ते ।।७

 

भोगलयाय भोगाय योगयोग्याय योगिने ।

जितेन्द्रिय जितज्ञाय दत्तात्रेय नमोऽस्तु ते ।।८

 

दिगम्बराय दिव्याय दिव्यरूपधराय च ।

सदोदितपरब्रह्मन् दत्तात्रेय नमोऽस्तु ते ।।९

 

जम्बूद्वीप महाक्षेत्रे कोल्हापुरनिवासिने ।

जयमानसतांदेव दत्तात्रेय नमोऽस्तु ते ।।१०

 

भिक्षाटनंगृहे ग्रामेपात्रं हेममयंकरे ।

नानास्वाद्यमयीभिक्षां दत्तात्रेय नमोऽस्तु ते ।।११

 

ब्रह्मज्ञानमयीं मुद्रां वस्त्रमाकाशमेव च ।

प्रज्ञानधनरूपाय दत्तात्रेय नमोऽस्तु ते ।।१२

 

अवधूत सदानन्द परब्रह्मस्वरूपिणे ।

विदेहदेहरूपाय दत्तात्रेय नमोऽस्तु ते ।।१३

 

सत्यरूप सदाचार सत्यधर्मपरायण ।

सत्याश्रय परोक्षाय दत्तात्रेय नमोऽस्तु ते ।।१४

 

शूलहस्तगदापाणि वनमालासुकन्दर ।

यज्ञसूत्रधरब्रह्मन् दत्तात्रेय नमोऽस्तु ते ।।१५

 

क्षराक्षरस्वरूपाय परात्परतराय ।

दत्तमुक्तिपरस्तोत्रं दत्तात्रेय नमोऽस्तु ते ।।१६

 

शत्रुनाशकरस्तोत्रं ज्ञानविज्ञानदायकम् ।

सर्वपापप्रशमनं दत्तात्रेय नमोऽस्तु ते ।।१७

 

इदं स्तोत्रं महद्दिव्यं दत्तप्रत्यक्षकारकम् ।

दत्तात्रेयप्रसादाच्च नारदेन प्रकीर्तितम् ।।१८

नामावली

 

दत्तात्रेय दत्तात्रेय दत्तात्रेय पाहि माम् ।

दत्तगुरु दत्तगुरु दत्तगुरु रक्ष माम् ।।

दत्तगुरु जय दत्तगुरु पूर्ण गुरु अवधूत गुरु ।

दत्तगुरु जय दत्तगुरु पूर्ण गुरु अवधूत गुरु ।।

दत्तात्रेय माम् पाहि, दत्तं नाथ माम् पाहि ।

अनसूयसुत माम् पाहि, आश्रितपोषक माम् पाहि ।।

दत्तात्रेय तवचरणम्, दत्तं नाथ भवहरणम् ।

दिगम्बरेशा तवचरणम्, दीनदयालो भवहरणम् ।।

अत्रिपुत्र तवचरणम्, अनन्तरूप मम शरणम् ।

अनसूयपुत्र तवचरणम्, त्रिमूर्तिरूप मम शरणम् ।।

. गुरुस्तोत्रम्

 

ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्ति

द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्ष्यम् ।

एक नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतं

भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरुं तं नमामि ।।१

 

यस्यान्तर्नादिमध्यं न हि करचरणं नामगोत्रं न सूत्रं

नो जातिर्नैव वर्णं न भवति पुरुषो नो नपुंसं न च स्त्री ।

नाकारं नो विकारं न हि जनिमरणं नास्ति पुण्यं न पापं

नो तत्त्वं तत्त्वमेकं सहजसमरसं सद्गुरुं तं नमामि ।।२

 

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वरः ।

गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः ।।३

 

चैतन्यं शाश्वतं शान्तं व्योमातीतं निरंजनम् ।

नादबिन्दुकलातीतं तस्मै श्रीगुरवे नमः ।।४

 

 

अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानांजनशलाकया ।

चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ।।५

 

अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम् ।

तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ।।६

 

स्थावरं जंगमं व्याप्तं यत्किंचित्सचराचरम् ।

त्वंपदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ।।७

 

चिन्मयं व्यापितं सर्वं त्रैलोक्यं सचराचरम् ।

असित्वं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ।।८

 

यत्सत्येन जगत्सर्वं यत्प्रकाशेन भान्ति यत् ।

यदानन्देन नन्दन्ति तस्मै श्रीगुरवे नमः ।।९

 

न गुरोरधिकं तत्त्वं न गुरोरधिकं तपः ।

न गुरोरधिकं ज्ञानं तस्मै श्रीगुरवे नमः ।।१०

 

गुरुरेको जगत्सर्वं ब्रह्मविष्णुशिवात्मकम् ।

गुरोः परतरं नास्ति तस्मात् सम्पूजयेत् गुरुम् ।।११

 

यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ ।

तस्यैते कथिता हार्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः ।।१२

 

मन्नाथः श्रीजगन्नाथः मद्गुरुः श्रीजगद्गुरुः ।

भमात्मा सर्वभूतात्मा तस्मै श्रीगुरवे नमः ।।१३

 

ध्यानमूलं गुरोर्मूर्तिः पूजामूलं गुरोः पदम् ।

मन्त्रमूलं गुरोर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरोः कृपा ।।१४

 

नमः शिवाय गुरवे सच्चिदानन्दमूर्तये ।

निष्प्रपंचाय शान्ताय निरालम्बाय तेजसे ।।१५

अज्ञानमूलहरणं जन्मकर्मनिवारणम् ।

ज्ञानवैराग्यसिद्धयर्थं गुरोः पादोदकं पिबेत् ।।१६

 

नित्यशुद्ध निराभासं निराकारं निरंजनम् ।

नित्यबोधं चिदानन्दं गुरुं ब्रह्म नमाम्यहम् ।।१७

 

निधये सर्वविद्यानां भिषजे भवरोगिणाम् ।

गुरवे सर्वलोकानां दक्षिणामूर्तये नमः ।।१८

 

ॐ नमो ब्रह्मादिभ्यो ब्रह्मविद्यासम्प्रदाय -

कर्तृभ्यो वंशर्षिभ्यो महद्भ्यो ।

नमो गुरुभ्यः सर्वोपप्लवरहितः

प्रज्ञानघनः प्रत्यगों ब्रह्मैवाहमस्मि ।।१९

 

ॐ नारायणं पद्मभवं वसिष्ठं

शक्तिं च तत्पुत्रपराशरं च ।

व्यासं शुकं गौडपदं महान्तं

गोविन्दयोगीन्द्रमथास्य शिष्यम् ।।२०

 

श्रीशंकराचार्यमथास्य पद्मपादं च

हस्तामलकं च शिष्यम् ।

तं तोटकं वार्तिककारमन्यान्-

अस्मद्‌गुरून् सन्तत मानतोऽस्मि ।।२१

 

श्रुतिस्मृतिपुराणानामालयं करुणालयम् ।

नमामि भगवत्पादं शकरं लोकशंकरम् ।।२२

 

शंकर शंकराचार्य केशवं बादरायणम् ।

सूत्रभाष्यकृतौ वन्दे भगवन्तौ पुनः पुनः ।।२३

 

ईश्वरो गुरुरात्मेति मूर्तिभेदविभागिने ।

व्योमवद् व्याप्तदेहाय दक्षिणामूर्तये नमः ।।२४

मैं सद्गुरु भगवान् को प्रणिपात करता हूँ, जो आनन्दस्वरूप हैं; जो ब्रह्मानन्द प्रदान करते हैं; जो केवल ज्ञानमूर्ति हैं, जो द्वन्द्वातीत हैं; जो गगन के सदृश विशाल हैं; जो 'तत्त्वमसि' के उच्चारण से लभ्य हैं; जो एक, नित्य और अपरिवर्तनशील हैं; जो मन की सभी अवस्थाओं के साक्षी हैं; जो भावों से परे हैं और जो प्रकृति के तीनों गुणों से रहित हैं ।।१

 

मैं उस सद्गुरु को शीश झुकाता हूँ, जिसका आदि, मध्य और अवसान कुछ भी नहीं है, जिसके न तो हाथ हैं न पाँव, न नाम, न गोत्र, न सूत्र, न जाति और न वर्ण है, जो न तो खी है न पुरुष और न नपुंसक है; जो निराकार है, विकार-रहित है; जो जन्म, मरण, पुण्य, पाप और सृष्टि के तत्त्वों से परे है; जो एक सत्य है और जो सहज समरस है ।।२

 

मैं उस सद्गुरु को प्रणाम करता हूँ, जो स्वयं ब्रह्मा, विष्णु और महेश है और साक्षात् परब्रह्म है ।।३

 

मैं उस सद्गुरु को प्रणाम करता हूँ, जो शुद्ध, चैतन्य, शाश्वत, शान्त, व्योमातीत और निरंजन है तथा जो नाद, बिन्दु और कला से परे है ।।४

 

मैं उस गुरु को प्रणाम करता हूँ, जो अज्ञानान्धकार से अन्धी बनी हुई मेरी आँखों को ज्ञान रूपी अंजन की शलाका से खोलता है ।।५

 

मैं उस गुरु की वन्दना करता हूँ, जो चर और अचर जगत् में अखण्ड मण्डलाकार के समान व्याप्त है और जो ब्रह्म के 'तत्' पद का बोध कराता है ।।६

 

मैं उस गुरु को प्रणाम करता हूँ, जो स्थावर और जंगम तथा जो-कुछ भी चर और अचर है, उन सबमें व्यापक 'त्वं' पद का बोध कराता है।।७

 

मैं उस सद्गुरु की वन्दना करता हूँ, जो सत्-चित्-आनन्द का चिन्मय, चर और अचर में तथा तीनों लोकों में व्यापक 'तत्त्वमसि' के 'असि' पद का बोध कराता है ।।८

 

जिससे सम्पूर्ण जगत् स्थित है, जिसके प्रकाश से प्रकाशित होता है और जिसके आनन्द से आनन्द है, उस सद्गुरु को मैं नमस्कार करता हूँ।।९

 

गुरु से क्षेप्त कोई तत्व नहीं है, गुरु से अधिक तप नहीं है और गुरु से विशेष कोई ज्ञान नहीं है; ऐसे गुरुदेव को मेरा नमस्कार है ।।१०

 

गुरु एक सर्वजगत् रूप है; वह ब्रह्मा, विष्णु और शिव-रूप है। गुरु से बढ़ कर कोई नहीं है; इसलिए गुरुदेव का पूजन करना चाहिए ।।११

 

जिसकी भगवान् में अगाध भक्ति है और भगवान् के समान गुरु में भी है, ये जितनी बातें कही गयी हैं, सब उसमें प्रकाशित होती हैं ।।१२

 

मेरे नाथ ही जगत् के नाथ हैं, मेरे गुरु आत्मा है, ऐसे गुरुदेव को नमस्कार है ।।१३ जगत् के गुरु हैं, मेरी आत्मा प्राणियों की

 

गुरु की मूर्ति ध्यान, गुरु के पद पूजा, गुरु की वाणी मन्त्र और गुरु की कृपा मुक्ति का मूल है ।।१४

 

उस सद्गुरु को प्रणाम, जो शिव-स्वरूप है; जो सत्-चित्-आनन्द है; जो जाग्रति-चेतना से अतीत है और जो शान्त और स्वप्रकाशित है ।।१५

 

गुरु-चरणामृत पान करने से अज्ञान की जड़ विनष्ट हो जाती है, जन्म और मृत्यु का निवारण हो जाता है, कर्म-फल छूट जाते हैं और ज्ञान तथा वैराग्य की प्राप्ति होती है ।।१६

 

मैं उस गुरु को प्रणाम करता हूँ, जो नित्यशुद्ध, निराभास, निराकार, निरंजन और चिदानन्द है ।।१७

 

मैं दक्षिणामूर्ति को नमस्कार करता हूँ जो सम्पूर्ण विद्याओं के भण्डार, भवरूपी रोग के निवारण करने वाले वैद्य तथा सब लोकों के गुरु हैं ।।१८

 

ब्रह्मा आदि को नमस्कार; ब्रह्मविद्या-सम्प्रदाय के कर्ता को नमस्कार; ऋषियों के वंश को, महान् पुरुषों को तथा गुरुदेव को नमस्कार । समस्त प्रपंचों से परे प्रज्ञानधन और सर्वस्वरूप ब्रह्म मैं ही हूँ।।१९

 

आदि गुरु भगवान् नारायण को, इनके शिष्य ब्रह्मा जी को, इनके शिष्य वसिष्ठ को, इनके शिष्य शक्ति को, इनके पुत्र पराशर को, इनके शिष्य व्यासदेव को, इनके शिष्य शुक मुनि को, इनके शिष्य गौडपादाचार्य को, इनके शिष्य महान् गोविन्दापादाचार्य को, इनके शिष्य भगवान् शंकराचार्य को, इनके शिष्यों पद्यपादाचार्य, हस्तामलकाचार्य, तोटकाचार्य और सुरेश्वराचार्य को तथा अन्य सब अपने गुरुजनों को मैं सदा नमस्कार करता हूँ।।२०-२१

 

श्रुति, स्मृति और पुराणों के रहस्य का भण्डार, करुणा-निधि, शंकरावतार, लोगों को सुखी करने वाले भगवान् शंकराचार्य महाराज को मैं नमस्कार करता हूँ।।२२

 

*शंकर-स्वरूप शंकराचार्य तथा केशव-स्वरूप बादरायण जिन्होंने सूत्रों पर भाष्य रचा है, उन दोनों भगवत्स्वरूपों को मैं नमस्कार करता हूँ।।२३

 

मैं दक्षिणामूर्ति को प्रणाम करता हूँ, जो ईश्वर, गुरु और आत्मा में अपने को प्रकट करते हैं और जिनकी देह आकाश के समान व्याप्त है।।२४

 

. गुर्वष्टकम्

 

शरीरं सुरूपं तथा वा कलत्रं

यशश्चारु चित्रं धनं मेरुतुल्यम् ।

गुरोरंघ्रिपद्ये मनश्चेन्न लग्नं

ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ।।१

 

कलत्रं धनं पुत्रपौत्रादि सर्वं

गृहं बान्धवाः सर्वमेतद्धि जातम्।

गुरोरंघ्रिपद्ये मनश्चेन्न लग्नं

ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ।।२

 

षडंगादिवेदा मुखे शास्त्रविद्या

कवित्वादि गद्यं सुपद्यं करोति ।

गुरोरंघ्रिपद्ये मनश्चेन्न लग्नं

ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ।।३

विदेशेषु मान्यः स्वदेशेषु धन्यः

सदाचारवृत्तेषु मत्तौ न चान्यः ।

गुरोरंघ्रिपद्ये मनश्चेन्न लग्नं

ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ।।४

 

सभामण्डले भूपभूपालवृन्दैः

सदा सेवितं यस्य पादारविन्दम् ।

गुरोरंघ्रिपद्ये मनश्चेन्न लग्नं ततः किं

ततः किं ततः किं ततः किम् ।।५

 

यशो मे गतं दिक्षु दानप्रतापात्

जगद्वस्तु सर्वं करे सत्प्रसादात् ।

गुरोरंघ्रिपद्ये मनश्चेन्न लप्नं

ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ।।६

 

न भोगे न योगे न वा वाजिराज्ये

न कान्तासुखे नैव वित्तेषु चित्तम् ।

गुरोरंघ्रिपद्ये मनश्चेन्न लग्नं

ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ।।७

 

अरण्ये न वा स्वस्य गेहे न कार्ये

न देहे मनो वर्तते मेऽत्यनर्थे ।

गुरोरंघ्रिपद्ये मनश्चेन्न लग्नं

ततः किं ततः किं  ततः किं ततः किम् ।।८

 

सुन्दर शरीर हो, सुन्दर स्त्री भी हो, यशस्वी और महान् भी हो और सुमेरु पर्वत के सदृश अखिल धन-राशि भी जिसके पास हो; यदि उसका मन गुरु के चरण-कमलों में आसक्त नहीं है तो इन सब वस्तुओं से क्या लाभ ? ?१

 

गुरु के पद्-पद्म में जिसकी भक्ति नहीं है, उसके लिए पत्नी, धन, पुत्र-पौत्र और कुटुम्ब-परिवार का क्या प्रयोजन ??२

 

षट्-अंगों सहित वेद और शास्त्र-विद्या जिसको कण्ठाग्र है और कविता करने को जिसके पास कवित्व-शक्ति है; यदि उसकी गुरु-चरणों में प्रीति नहीं है तो इन सब गुणों से कोई लाभ नहीं है ।।३

 

विदेशों में जिसका आदर होता हो तथा अपने देश में भी जिसकी जयजयकार की जाती हो तथा जो अपने को इस योग्य समझता भी हो कि सदाचार-पालन में उसके अतिरिक्त कोई दूसरा नहीं, फिर भी यदि सद्गुरु के चरणों में उसे अनुराग नहीं है तो इन सब बातों से उसको कोई लाभ नहीं ।।४

 

जनता के मध्य, सभा में, सम्राटों के द्वारा जिसके चरण-कमलों की नित्य वन्दना हो; फिर भी उससे कोई लाभ नहीं है, यदि उसने अपने हृदय में गुरु-चरणों के लिए स्थान नहीं बनाया ।।५

 

दान के प्रताप से जिसका यश दिशाओं में फैला हो एवं गुरु-अनुकम्पा से संसार की सभी वस्तुएँ जिसे हस्तप्राप्य हैं, फिर भी गुरु-चरणों में यदि उसे प्रेम नहीं है तो वे सब बीजें उसके लिए निरर्थक हैं ।।६

 

जिसका मन योग, अश्व, राज्य, खी-सुख और धन के सुखों से भी विचलित नहीं होता हो, इतना होते हुए भी उसको इस महिमाशालीनता से कोई लाभ नहीं है, यदि गुरु के युगल-चरणों में भक्ति नहीं है ।।७

 

जिसका मन जंगल या विशाल भवनों में भी नहीं लगता है, जो न कर्तव्यों में और न देह में आसक्त है, फिर भी इससे कुछ लाभ नहीं है, यदि सद्गुरु के युगल-चरणों में प्रीति नहीं है ।।८

 

 

. शिवगुरु-पंचकम्

 

गंगातटस्थं चिरयोगिराजं योगे रमन्तं शुचिशान्तमूर्तिम् ।

आनन्दसंस्थं विपिने वसन्तं काषायवन्तं सततं नमामि ।।१

 

ज्ञाने विशालं क्षितिदेहभालं पूर्णाभिरामं परिपूर्णकामम् ।

दिव्यं शिवानन्दमहायतीन्द्रं कैवल्यवासं सततं नमामि ।।२

 

अज्ञानमोहाम्बुधिघोरदुःखनिमग्नजन्तोरवलम्बभूतम् ।

सत्यप्रकाशाय तनोति शुद्धिं प्रज्ञाघनं तं सततं नमामि ।।३

 

कल्याणहेतुं कृतधर्मसेतुं श्रीविश्वनाथस्य कृतप्रतिष्ठम् ।

धर्मावतारं विमलप्रकाशं विश्वस्य वासं सततं नमामि ।।४

 

वेदान्तघोषं स्वनुभूततत्त्वं संन्यासिवर्यं गुणवद्विहारम् ।

सत्यस्य सत्यं सुखसिन्धुसिन्धुं सारस्य सारं सततं नमामि ।।५

 

१०. शिवानन्द योगीन्द्र स्तुतिः

 

सदापावनं जाह्नवी तीरवासं

सदास्वस्वरूपानुसन्धानशीलम् ।

सदासुप्रसन्नं दयालुं भजेऽहं

शिवानन्द योगीन्द्रमानन्दमूर्तिम् ।।१

 

होदिलानाम स्वयं कीर्तयन्तं

हरेः पादभक्ति सदा बोधयन्तम् ।

हरेः पादपग्रस्थ श्रृंग भजेऽहं

शिवानन्द योगीन्द्रमानन्दमूर्तिम् ।।२

 

जराव्याधिदौर्बल्य सम्पीडितानां

सदाऽऽरोग्यदं यस्य कारुण्यनेत्रम् ।

भजेऽहं समस्तार्तसेवाधुरीणं

शिवानन्द योगीन्द्रमानन्दमूर्तिम् ।।३

 

सदा निर्विकल्पे स्थिरं यस्यचित्तं

सदा कुम्भितः प्राणवायुर्निकामम् ।।

सदा योगनिष्ठं निरीहं भजेऽहं

शिवानन्द योगीन्द्रमानन्दमूर्तिम् ।।४

 

महामुद्रबन्धादियोगांगदक्ष

सुषुम्नान्तरे चित्स्वरूपे निमग्नम् ।

महायोगनिद्राविलीनं भजेऽहं

शिवानन्द योगीन्द्रमानन्दमूर्तिम् ।।५

 

दयासागरं सर्वकल्याणराशिं

सदा सच्चिदानन्दरूपे निलीनम् ।

सदाचारशीलं भजेऽहं भजेऽहं

शिवानन्द योगीन्द्रमानन्दमूर्तिम् ।।६

 

भवाम्भोधिनौकानिभं यस्य नेत्रं

महामोहघोरान्धकारं हरन्तम् ।

भजेऽहं सदा तं महान्तं नितान्तं

शिवानन्द योगीन्द्रमानन्दमूर्तिम् ।।७

 

भजेऽहं जगत्कारणं सत्स्वरूपं

भजेऽहं जगद्व्यापकं चित्स्वरूपम् ।

भजेऽहं निजानन्दमानन्दरूपं

शिवानन्द योगीन्द्रमानन्दमूर्तिम् ।।८

 

पठेद्यः सदा स्तोत्रमेतत् प्रभाते

शिवानन्द योगीन्द्र नाम्नि प्रणीतम् ।

भवेत्तस्य संसार दुःखं विनष्टं तथा

मोक्ष साम्राज्य कैवल्य लाभः ।।९

 

११. श्री शिवानन्दशरणागतिस्तुतिः

(श्री स्वामी ज्ञानानन्द सरस्वती कृतम्)

 

करुणावरुणालय लोकगुरो तरुणारुणभास्वर भव्यनिधे ।

शरणागतवत्सल पालय मां शिवदेशिक ते चरणं शरणम् ।।

 

अवशावनलालस पुण्यतनो भवशोकविनाशन विश्वगुरो ।

अवलेपविहीन कुशाग्रमते शिवदेशिक ते चरणं शरणम् ।।

 

भवतोयधिमप्नसमस्तजनानवतो भवतो विविधान् सुगुणान् ।

स्तुवतोऽविरतं मम नित्यसुखं शिव देहि कृपालय पालय माम् ।।

 

अभिनन्द्यगुणाकर पुण्यवता-मभिगम्य गुरो शिव दिव्यमुने ।

अभितापविनाशन साधुनृणा-मभयप्रद ते चरणं शरणम् ।।

 

अतिपावनमानस तत्त्वविदां स्तुतिभाजन भावुकभाग्यनिधे ।

क्षितिवासिभिरादृत सर्वजनै-श्शिवदेशिक ते चरणं शरणम् ।।

 

सुकृतिप्रवरैरभिनन्द्यशुभ-प्रकृते धृतिमन् प्रथमानमुने ।

अकृतानृतभाषण तोषनिधे शिवदेशिक ते चरणं शरणम् ।।

 

अवधाननिधान विशालमते विविधार्तिविनाशनबद्धमते ।

अवधीरितलौकिकतर्ष यते शिवदेशिक ते चरणं शरणम् ।।

 

विदिताखिलनैगमसार विभो मुदिताशय सद्गुणवारिनिधे ।

उदितारुणसन्निभदीप्रतनो शिवदेशिक ते चरणं शरणम् ।।

 

कमलाधवपावननामजप-क्रमलालस सन्मत साधुमते ।

विमलाशय निस्तुलकीर्तिनिधे शिवदेशिक ते चरणं शरणम् ।।

 

पतितोद्धरणोत्सुक शैलसुतापतिपूजनतत्पर पूतमते ।

प्रतिपन्नमनोरथ वन्द्यमुने शिवदेशिक ते चरणं शरणम् ।।

 

अपराधशतैरतितूनमिमं कृपया परया परिपाहि गुरो ।

उपदिष्टशुभायन पादजुषां शिवदेशिक ते चरणं शरणम् ।।

 

जयतु जगदुपास्यो जीवकारुण्यमूर्ति -

जयतु जनगणानां क्षेमकृत्यैकदीक्षः ।

जयतु जननमृत्युच्छेदकारी गुरुमें

जयतु यतिवरेण्यः श्रीशिवानन्दयोगी ।।

शरणागतिविख्यात-स्तोत्ररत्नमिदं शुभम् ।

भक्त्या पठन् जनो नित्यं लभते सर्वसम्पदः ।।

 

१२. श्री शिवानन्दाष्टोत्तरशतनामावलिः

 

१. ॐ श्री ओंकाररूपाय नमः

२. ॐ श्री सद्गुरवे नमः

३. ॐ श्री साक्षाच्छंकररूपधृते नमः

४. ॐ श्री शिवानन्दाय नमः

५. ॐ श्री शिवाकाराय नमः

६. ॐ श्री शिवाशयनिरूपकाय नमः

७. ॐ श्री हृषीकेशनिवासिने नमः

८. ॐ श्री वैद्यशास्त्रविशारदाय नमः

९. ॐ श्री समदर्शिने नमः

१०. ॐ श्री तपस्विने नमः

११. ॐ श्री प्रेमरूपाय नमः

१२. ॐ श्री महामुनये नमः

१३. ॐ श्री दिव्यजीवनसंघप्रतिष्ठात्रे नमः

१४. ॐ श्री प्रबोधकाय नमः

१५. ॐ श्री गीतानन्दस्वरूपिणे नमः

१६. ॐ श्री भक्तिगम्याय नमः

१७. ॐ श्री भयापहाय नमः

१८. ॐ श्री सर्वविदे नमः

१९. ॐ श्री सर्वगाय नमः

२०. ॐ श्री नेत्रे नमः

२१. ॐ श्री त्रयीमार्गप्रदर्शकाय नमः

२२. ॐ श्री वैराग्यज्ञाननिरताय नमः

२३. ॐ श्री सर्वलोकहितोत्सुकाय नमः

२४. ॐ श्री भवभयप्रशमनाय नमः

२५. ॐ श्री समाधिग्रन्थकल्पकाय नमः

२६. ॐ श्री गुणिने नमः

२७. ॐ श्री महात्मने नमः

२८. ॐ श्री धर्मात्मने नमः

२९. ॐ श्री स्थितप्रज्ञाय नमः

३०. ॐ श्री शुभोदयाय नमः

३१. ॐ श्री आनन्दसागराय नमः

३२. ॐ श्री साराय नमः

३३. ॐ श्री गंगातीराश्रमस्थिताय नमः

३४. ॐ श्री विष्णुदेवानन्ददत्तब्रह्मज्ञानप्रदीपकाय नमः

३५. ॐ श्री ब्रह्मसूत्रोपनिषदांग्लभाष्यप्रकल्पकाय नमः

३६. ॐ श्री विश्वानन्दचरणयुग्मसेवाजातसुबुद्धिमते नमः

३७. ॐ श्री मन्त्रमूर्तये नमः

३८. ॐ श्री जपपराय नमः

३९. ॐ श्री तन्त्रज्ञाय नमः

४०. ॐ श्री मानवते नमः

४१. ॐ श्री बलिने नमः

४२. ॐ श्री उमारमणपादयुग्मसततार्चनलालसाय नमः

४३. ॐ श्री परस्मै ज्योतिषे नमः

४४. ॐ श्री परस्मै धाम्ने नमः

४५. ॐ श्री परमाणवे नमः

४६. ॐ श्री परात्पराय नमः

४७. ॐ श्री शान्तमूर्तये नमः

४८. ॐ श्री दयासागराय नमः

४९. ॐ श्री मुमुक्षुहृदयस्थिताय नमः

५०. ॐ श्री आनन्दामृतसन्दोग्धे नमः

५१. ॐ श्री अप्पय्यकुलदीपकाय नमः

५२. ॐ श्री साक्षिभूताय नमः

५३. ॐ श्री राजयोगिने नमः

५४. ॐ श्री सत्यानन्दस्वरूपिणे नमः

५५. ॐ श्री अज्ञानामयभेषजाय नमः

५६. ॐ श्री लोकोद्धारणपण्डिताय नमः

५७. ॐ श्री योगानन्दरसास्वादिने नमः

५८. ॐ श्री सदाचारसमुज्वलाय नमः

५९. ॐ श्री आत्मारामाय नमः

६०. ॐ श्री गुरवे नमः

६१. ॐ श्री सच्चिदानन्दविग्रहाय नमः

६२. ॐ श्री जीवन्मुक्ताय नमः

६३. ॐ श्री चिन्मयात्मने नमः

६४. ॐ श्री निस्त्रैगुण्याय नमः

६५. ॐ श्री यतीश्वराय नमः

६६. ॐ श्री अद्वैतसारप्रकटवेदवेदान्ततत्त्वगाय नमः

६७. ॐ श्री चिदानन्दजनाह्लादनृत्यगीतप्रवर्तकाय नमः

६८. ॐ श्री नवीनजनसन्त्रात्रे नमः

६९. ॐ श्री ब्रह्ममार्गप्रदर्शकाय नमः

७०. ॐ श्री प्राणायामपरायणाय नमः

७१. ॐ श्री नित्यवैराग्यसमुपाश्रिताय नमः

७२. ॐ श्री जितमायाय नमः

७३. ॐ श्री ध्यानमग्नाय नमः

७४. ॐ श्री क्षेत्रज्ञाय नमः

७५. ॐ श्री ज्ञानभास्कराय नमः

७६. ॐ श्री महादेवादिदेवाय नमः

७७. ॐ श्री कलिकल्मषनाशनाय नमः

७८. ॐ श्री तुषारशैलयोगिने नमः

७९. ॐ श्री कोटिसूर्यसमप्रभाय नमः

८०. ॐ श्री मुनिवर्याय नमः

८१. ॐ श्री सत्ययोनये नमः

८२. ॐ श्री परमपुरुषाय नमः

८३. ॐ श्री प्रतापवते नमः

८४. ॐ श्री नामसंकीर्तनोत्कर्षप्रशंसिने नमः

८५. ॐ श्री महाद्युतये नमः

८६. ॐ श्री कैलासयात्रासम्प्राप्तबहुसन्तुष्टचेतसे नमः

८७. ॐ श्री चतुस्साधनसम्पन्नाय नमः

८८. ॐ श्री धर्मस्थापनतत्पराय नमः

८९. ॐ श्री शिवमूर्तये नमः

९०. ॐ श्री शिवपराय नमः

९१. ॐ श्री शिष्टेष्टाय नमः

९२. ॐ श्री शिवेक्षणाय नमः

९३. ॐ श्री चतुरन्तमेदिनीव्याप्तसुविशालयशोदयाय नमः

९४. ॐ श्री सत्यसम्पूर्णविज्ञानसुतत्त्वैकसुलक्षणाय नमः

९५. ॐ श्री सर्वप्राणिषु संजातभ्रातृभावाय नमः

९६. ॐ श्री सुवर्चलाय नमः

९७. ॐ श्री प्रणवाय नमः

९८. ॐ श्री सर्वतत्त्वज्ञाय नमः

९९. ॐ श्री सुज्ञानाम्बुधिचन्द्रमसे नमः

१००. ॐ श्री ज्ञानगंगास्रोतस्नानपूतपापाय नमः

१०१. ॐ श्री सुखप्रदाय नमः

१०२. ॐ श्री विश्वनाथकृपापात्राय नमः

१०३. ॐ श्री शिष्यहत्तापतस्कराय नमः

१०४. ॐ श्री कल्याणगुणसम्पूर्णाय नमः

१०५. ॐ श्री सदाशिवपरायणाय नमः

१०६. ॐ श्री कल्पनारहिताय नमः

१०७. ॐ श्री वीर्याय नमः

१०८. ॐ श्री भगवद्‌गानलोलुपाय नमः

 

ॐ श्री सद्‌गुरुशिवानन्दस्वामिने नमः

 

१३. भव-सागर तारण

 

भव-सागर-तारण-कारण हे,

रवि-नन्दन-वन्धन-खण्डन हे।

शरणागत किंकर दीनमने,

गुरुदेव दयाकर दीनजने ।।१

 

हदि-कन्दर तामस भास्कर हे,

तुम विष्णु प्रजापति, शंकर हे।

परब्रह्म परात्पर वेद बने,

गुरुदेव दयाकर दीनजने ।।२

 

मन-वारण शासन-अंकुश हे,

नर-त्राण करे हरिचाक्षुष हे।

गुण-गान-परायण देवगणे,

गुरुदेव दयाकर दीनजने ।।३

 

कुल-कुण्डलिनी भव-भंजक हे,

हृदि-ग्रन्थि विदारण-कारण हे।

मम मानस चंचल रात्रि-दिने,

गुरुदेव दयाकर दीनजने ।।४

 

रिपुसूदन मंगलनायक हे,

सुख-शान्ति वराभय दायक हे ।

त्रय ताप हरे तव नाम गुणे,

गुरुदेव दयाकर दीनजने ।।५

 

अभिमान-प्रभाव-विमर्दक है,

गतिहीन-जने तुम रक्षक हे।

चित संचित वंचित भक्तिधने,

गुरुदेव दयाकर दीनजने ।।६

 

तव नाम सदा शुभदायक हे,

पतिताधम मानव-पालक हे।

महिमा तव गोचर शुद्धमने,

गुरुदेव दयाकर दीनजने ।।७

 

जय सद्गुरु ईश्वर-प्रापक हे,

भवरोग विकार विनाशक हे।

मन-वानर हे तव श्री चरणे,

गुरुदेव दयाकर दीनजने ।।८

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

शुक्रवार

श्री सरस्वती-स्तोत्रम्

. श्री सरस्वति नमोऽस्तु ते

(श्री दीक्षितकृतम्)

 

श्लोक

 

या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता,

या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना।

या ब्रह्माच्युतशंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा पूजिता,

सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा ।।

 

जो कुन्द पुष्प, चन्द्रमा तथा हिम-बिन्दु की तरह धवल हैं, जिसने शुभ्र-वस्त्र धारण किया है, जिसके हाथ मनोहर वीणा से सुशोभित हैं, जो श्वेत कमल पर विराजमान हैं तथा जो सर्वदा ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि देवों से पूजित हैं, वह समस्त जड़ता का नाश करने वाली देवी सरस्वती मेरी रक्षा करें!

 

गीत

 

श्री सरस्वति नमोऽस्तु ते । वरदे, परदेवते ।

श्रीपति-गौरीपति गुरु-गुह-विनुते विधियुवते ।।

वासना-त्रय-विवर्जित वर-मुनि-भावित-मूर्ते ।

वासवाद्यखिल-निर्जर-वर-वितरण-बहु-कीर्ते ।।

दर-हास-युत-मुखाम्बुरुहे अद्भुत-चरणाम्बुरुहे।

संसारभीत्यापहे सकल-मन्त्राक्षरगुहे ।।

 

हे देवी सरस्वती, वर प्रदान करने वाली, परम देवते, तुझे नमस्कार। विष्णु, शंकर, गुरु तथा गुह तुझे प्रणाम करने हैं। तू ब्रह्मा की प्रेयसी है। तीनों प्रकार की वासनाओं से तू मुक्त है। तेरी मूर्ति की भावना श्रेष्ठ मुनिजन किया करते हैं। इन्द्र आदि देवताओं को वांछित वर देने की तेरी कीर्ति अपार है। तेरा मुख-कमल मन्दस्यित युक्त है, के चरण-कमल अदभुत है। तू संसार-भय को दूर करने वाली है। सभी मन्त्रों का आधार तू ही है।

 

नामावली

 

वीणा-पुस्तक-धारिणी अम्बा, वाणी जय-जय पाहि माम्।

शक्तिदायिनी पाहि माम् । भुक्तिदायिनी पाहि माम् ।

भक्तिदायिनी पाहि माम् । मुक्तिदायिनी पाहि माम् ।।

 

अपने कर-कमलों में वीणा और पुस्तक धारण करने वाली हे माँ सरस्वती, तैरी जय हो! जय हो!! हे शक्ति, भोग, भक्ति और मोक्ष प्रदायिनी। सम्पूर्ण दोषों और बुरे अदृष्टों से मेरी रक्षा कीजिए ।

 

. दे मज दिव्य मती

(श्री रामदासकृतम्)

 

श्लोक

 

सर्वरूपमयी देवी सर्व देवीमयं जगत् ।

अतोऽहं विश्वरूपां त्वां नमामि परमेश्वरीम् ।।१

माणिक्यवीणा-मुपलालयन्तीं,

मदालसां मंजुल-वाग्विलासाम् ।

माहेन्द्र-नील-द्युति-कोमलांगी

मातंगकन्यां मनसा स्मरामि ।।२

 

देवी सर्वरूपमयी हैं तथा यह विश्व देवीमय है। अतः हे विश्वरूपिणी परमेश्वरी! मैं तुझे नमस्कार करता हूँ।।१

 

मैं मातंग मुनि की कन्या (सरस्वती देवी) का ध्यान करता हूँ जो मणिजटित वीणा बजा रही हैं, जिसकी भावभंगिमा रमणीय है, वाणी मधुर है तथा जिसके सुकुमार वदन की द्युति नील-मणि के समान है।।२

 

गीत

 

दे मज दिव्य मती सरस्वती,

दे मज दिव्य मती ।

 

रामकथा बहु गूढ़ निरूपण

चालवी शीघ्र गती ।।१ (दे मज...)

 

ब्रह्मादिक देव पूजिति तुजला

प्रार्थनाहि करिती ।।२ (दे मज...)

 

रामदास म्हणे काय मला उणे

तू असता जगति ।।३ (दे मज...)

 

हे सरस्वती देवी, मुझे दिव्य ज्ञान दे। भगवान् राम की परम मधुर तथा रहस्यमयी कथा का द्रुत गति से वर्णन करने के लिए मुझे दिव्य ज्ञान दे ।।१

 

ब्रह्मादिक देवगण भी इसके लिए तेरी उपासना करते तथा तुझसे प्रार्थना करते हैं ।।२ 'रामदास' कहते हैं कि जब तक तू यहाँ है, मुझे किसी वस्तु का अभाव नहीं है।।३

 

नामावली

 

वीणा-पुस्तक-धारिणी अम्बा, वाणी जय जय पाहि माम् ।

शक्तिदायिनी पाहि माम्। भुक्तिदायिनी पाहि माम्।

भक्तिदायिनी पाहि माम्। मुक्तिदायिनी पाहि माम्।

 

 

 

 

 

. सुवक्षोजकमुम्भाम्

(श्री शंकराचार्यकृतम्)

 

श्लोक

 

सुरासुरासेवित-पाद-पंकजा

करे विराजत्-कमनीय-पुस्तिका ।

विरिंचि-पत्नी कमलासन-स्थिता,

सरस्वती नृत्यतु वाचि मे सदा ।।

 

हे ब्रह्मा की प्रेयसी, पापुष्प पर आसीन, हाथ में सुन्दर पुस्तक धारण किये हुए तथा देवताओं और असुरों से पूजित कमल के समान चरणों वाली देवी सरस्वती, तू मेहरी वाणी में सदा नृत्य करे।

 

गीत

 

सुवक्षोज-कुम्भां सुधापूर्ण-कुम्भां

प्रसादावलम्बां प्रपुण्यावलम्बाम् ।

सदास्येन्दु-बिम्बां सदानोष्ठ-बिम्बां

भजे शारदाम्बां अजस्रं मदम्बाम् ।।१

 

कटाक्षे दयार्दा करे ज्ञानमुद्रां

कलाभिर्विनिद्रां कलापैः सुभद्राम् ।

पुरन्ध्रीं विनिद्रां पुरस्तुंगभद्रां

भजे शारदाम्बां अजस्रं मदम्बाम् ।।२

 

ललामांक-फालां लसद्गान-लोलां

स्वभक्तकपालां यशश्श्श्री कपोलाम् ।

करे त्वक्षमालां कनद्रत्न-लोलां

भजे शारदाम्बां अजस्रं मदम्बाम् ।।३

 

सुसीमन्तवेणीं दृशा निर्जितैणीं

रमत्-कीरवाणीं नमद्वज्रपाणिम् ।

सुधा-मन्थरास्यां मुदा चिन्त्यवेणीं

भजे शारदाम्बां अजस्रं मदम्बाम् ।।४

 

सुशान्तां सुदेहां दृगन्ते कचान्तां

लसत्-सल्लतांगीं अनन्तां अचिन्त्याम् ।

स्मृतां तापसैः सर्गपूर्वस्थितां तां

भजे शारदाम्बां अजस्र मदम्बाम् ।।५

 

कुरंगे तुरंगे मृगेन्द्रे खगेन्द्रे

मराले मदेभे महोक्षेऽधिरूढाम् ।

महत्यां नवम्यां सदा सामरूपां

भजे शारदाम्बां अजस्रं मदम्बाम् ।।६

 

ज्वलत्-कान्ति-वहीं जगन्मोहनांगी

भजन्मानसाम्भोज-सुभ्रान्त-भृंगीम् ।

निजस्तोत्रसंगीत-नृत्य-प्रभांगी

भजे शारदाम्बां अजसं मदम्बाम् ।।७

 

भवाम्भोजनेत्राज-सम्पूज्यमानां

लसन्मन्दहास-प्रभा-वक्त्र-चिह्नाम् ।

चलत्-चंचला-चारु-ताटंक-कर्णा

भजे शारदाम्बां अजसं मदम्बाम् ।।८

 

अर्थ

 

मैं अपनी माँ श्री शारदा माता की नित्य आराधना करता हूँ। उसके बक्ष अमृत-कलश की भाँति सुन्दर हैं, उसका मुख चन्द्रमा के समान कमनीय है और उसके ओष्ठ दयार्द्र तथा बिम्ब-फल की भाँति अरुण हैं ।।१

 

मैं अपनी माँ श्री शारदा माता की नित्य आराधना करता हूँ। वह तुंगभद्रा नदी के तट पर निवास करती है। उसकी दृष्टि करुणास्निग्ध है। उसके कर में ज्ञानमुद्रा है। वह कलाओं से प्रफुल्ल है। वह शिर पर भूषण धारण किये हुए शोभायमान है। वह पवित्र तथा सदा प्रसन्न रहने वाली है ।।२

मैं अपनी माँ श्री शारदा माता की नित्य आराधना करता हूँ। उसके मस्तक में तिलक है। वह संगीत के आनन्द से दीप्तिमान् है। वह अपने भक्तों की रक्षा करती है। उसके कपोल यशश्री की भाँति सुन्दर हैं। वह अपने हाथों में माला धारण करती है और आभापूर्ण रत्नों से सुभोभित है ।।३

 

मैं अपनी माँ श्री शारदा माता की नित्य आराधना करता हूँ। उसके मस्तक के मध्य में एक सुन्दर रेखा है। उसके सुन्दर नेत्र मृग के नेत्र को भी पराजित करने वाले हैं। उसकी वाणी बुलबुल के समान मधुर है। इन्द्र उसको नमस्कार करते हैं। उसका सुधापूर्ण मुख तथा वेणी आनन्दपूर्वक ध्यान करने योग्य है ।।४

 

मैं अपनी माँ शारदा माता की नित्य आराधना करता हूँ। वह सुशान्त है। उसका शरीर मनोहर है। उसके नेत्रों की कोर पर बाल की लटें झूल रही हैं। उसका अंग लता के समान कोमल और कमनीय है। वह अनन्त और अचिन्त्य है। ऋषिगण उसके सम्मुख बैठे हुए उसका ध्यान करते हैं ।।५

 

मैं अपनी माँ श्री शारदा माता की नित्य आराधना करता हूँ। वह सदा सामवेद के रूप में रहती है और नवमी महोत्सव के समय मृग, तुरंग , सिंह, गरुड़, हंस, मत्त गज तथा वृषभ पर आरूढ़ होती है।।६

 

मैं अपनी माँ श्री शारदा माता की नित्य आराधना करता हूँ। उसके शरीर की कान्ति प्रज्वलित अग्नि के समान है। उसके अंग की शोभा सम्पूर्ण विश्व को विमोहित करती है। वह अपने स्तोत्र, संगीत और नृत्य की आभा से प्रकाशित है और अपने आराधकों के कमल-रूपी मन में भृंग की भाँति विहार करती है ।।७

 

मैं अपनी माँ श्री शारदा माता की नित्य आराधना करता हूँ। ब्रह्मा, विष्णु और शिव उसकी नित्य आराधना करते हैं। उसका मुख मन्द हास की ज्योति से प्रकाशित है। उसके कुण्डल दामिनी की भाँति सुन्दर एवं चंचल हैं।।८

 

नामावली

 

वीणा-पुस्तक-धारिणी अम्बा, वाणी जय-जय पाहि माम् ।

शक्तिदायिनी पाहि माम्। भुक्तिदायिनी पाहि माम्।

भक्तिदायिनी पाहि माम्। मुक्तिदायिनी पाहि माम्।

 

श्री देवी-स्तोत्रम्

. तातो माता

(भवान्यष्टकम्)

(श्री शंकराचार्यकृतम्)

 

श्लोक

 

अम्बा शाम्भवि चन्द्रमौलिरबलाऽपर्णा उमा पार्वती

काली हैमवती शिवा त्रिनयना कात्यायनी भैरवी ।

सावित्री नवयौवना शुभकरी साम्राज्यलक्ष्मीप्रदा

चिद्रूपी परदेवता भगवती श्रीराजराजेश्वरी ।।

 

जो अम्बा (माता) है, शाम्भवी (शम्भु-पत्नी) है, चन्द्रमौलि (जिसका मस्तक चन्द्रमा से सुशोभित है) है, अबला (कृशांगी) है, अपर्णा (जिसने तप करते समय पत्तों तक का खाना छोड़ दिया था) है, उमा (जिसके माता-पिता ने और अधिक तप न करो, ऐसा आग्रह किया) है, पार्वती (पर्वत की पुत्री) है, काली (भयंकरा) है, हैमवती (हिमवान् की पुत्री) है, शिवा (शिव-पत्नी) है, त्रिनयना (तीन नेत्रों वाली) है, कात्यायनी (दुर्गा) है, भैरवी (भैरव की पत्नी) है, सावित्री (गायत्री देवी) है, नव-यौवना (नवयुवती) है, शुभकरी (कल्याणकारिणी) है, साम्राज्यलक्ष्मीप्रदा (साम्राज्य और लक्ष्मी को देने वाली) है, चिद्रूपी (ज्ञानस्वरूपिणी) है और परदेवता (परमोच्च देवी) है, उस भगवती श्री राजराजेश्वरी को मैं प्रणाम करता हूँ।

 

स्तोत्र

 

न तातो न माता न बन्धुर्न दाता

न पुत्रो न पुत्री न भृत्यो न भर्ता ।

न जाया न विद्या न वृत्ति-र्ममैव

गति-स्त्वं गति-स्त्वं त्व-मेका भवानि ।।१

 

भवाब्धा-वपारे महादुःख-भीरुः

पपात प्रकामं प्रलोभी प्रमत्तः ।

कुसंसार-पाश-प्रबद्धः सदाहं

गति-स्त्वं गति-स्त्वं त्व-मेका भवानि ।।२

 

न जानामि दानं न च ध्यान-योगं

न जानामि तन्त्रं न च स्तोत्र-मन्त्रम् ।

न जानामि पूजां न च न्यास-योगं

गति-स्त्वं गति-स्त्वं त्व-मेका भवानि ।।३

 

न जानामि पुण्यं न जानामि तीर्थ

न जानामि मुक्ति लयं वा कदाचित् ।

न जानामि भक्तिं व्रतं वापि मातः

गति-स्त्वं गति-स्त्वं त्व-मेका भवानि ।।४

 

कुकर्मी कुसंगी कुबुद्धिः कुदासः

कुलाचार-हीनः कदाचार-लीनः ।

कुदृष्टिः कुवाक्य-प्रबन्धः सदाहं

गति-स्त्वं गति-स्त्वं त्व-मेका भवानि ।।५

 

प्रजेशं रमेशं महेशं सुरेशं

दिनेशं निशीथेश्वरं वा कदाचित् ।

न जानामि चान्यत् सदाहं शरण्ये

गति-स्त्यं गति-स्त्वं त्व-मेका भवानि ।।६

 

विवादे विषादे प्रमादे प्रवासे

जले चानले पर्वते शत्रु-मध्ये ।

अरण्ये शरण्ये सदा मां प्रपाहि

गति-स्त्वं गति-स्त्वं त्व-मेका भवानि ।।७

 

अनाथो दरिद्रो जरा-रोग-युक्तो

महाक्षीण-दीनः सदा जाड्य-वक्त्रः ।

विपत्तौ प्रविष्टः प्रणष्टः सदाहं

गति-स्त्वं गति-स्त्वं त्व-मेका भवानि ।।८

 

मेरा न कोई पिता है, न माता है, न कोई सम्बन्धी है और न कोई देने वाला है। न तो पुत्र है, न पुत्री है, न नौकर है और न मालिक ही है। पत्नी भी नहीं है। मुझमें ज्ञान का अभाव है। कहाँ तक कहूँ, मेरे पास कुछ भी तो नहीं है। हे देवी! तू ही एक मेरा सहारा है ।।१

 

मैं इस अपार संसार-सागर में गिर गया हूँ और इसके महादु खों से भयभीत हूँ। मैं लोभी, प्रमादी और बड़ा कामी हूँ तथा हमेशा इसी कुसंस्कार-पाश में बँधा हुआ हूँ। हे देवी! एक तू ही मेरा सहारा है ।।२

 

न तो मैं दान करना जानता हूँ, न ध्यान-योग से मेरा परिचय है। मैं किसी तन्त्र को नहीं जानता हूँ और न किसी स्तोत्र-मन्त्र का ही मुझे ज्ञान है। मैं यह भी नहीं जानता कि पूजा कैसे की जाती है और न न्यासयोग-विद्या की ही मुझे जानकारी है। हे देवी! एक तू ही मेरा सहारा है ।।३

 

पुण्य क्या है, यह मुझे मालूम नहीं है और न किसी तीर्थ-क्षेत्र को मैं जानता हूँ। मोक्ष तथा लय-योग को भी मैंने कभी नहीं जाना । न मैं भक्ति को जानता हूँ और न व्रत आदि को पहचानता हूँ। हे देवी! एक तू ही मेरा सहारा है ।।४

 

मैं बड़ा कुकर्मी हूँ, कुसंगी हूँ, कुबुद्धि हूँ और कुसेवक हूँ। कुल के आचारों से विहीन और बुरे आचरणों में लीन हूँ। मेरी दृष्टि कुत्सित है और मैं हमेशा बुरे वाक्यों का ही उच्चारण करता हूँ। हे देवी। एक तू ही मेरा सहारा है ।।५

 

मैं तेरे सिवा ब्रह्मा, विष्णु, महेश, देवेन्द्र, सूर्य, चन्द्र अथवा किसी भी अन्य देवता को नहीं जानता हूँ। हे देवी! एक तू ही मेरा सहारा है ।।६

 

जब कभी मैं विपदा में हूँ, दुःख में हूँ, असावधान रहूँ, प्रवास में रहूँ या कहीं पानी में, अग्नि में, पर्वत या शत्रुओं के बीच में अथवा जंगल में रहूँ, है शरणदात्री। तू हर समय मेरी रक्षा कर। हे देवी! एक तू ही मेरा सहारा है ।।७

 

मैं अनाथ हूँ, गरीब हूँ, बुढ़ापा और रोगों से आक्रान्त हूँ, बहुत खिन्न हूँ, दीन हूँ, हमेशा चेहरे पर जड़ता छायी रहती है, संकट में पड़ गया हूँ और सर्वदा विनाश की ओर जा रहा हूँ। हे देवी। एक तू ही मेरा सहारा है ।।८

 

 

नामावली

 

ॐ शक्ति ॐ शक्ति ॐ शक्ति पाहि माम् ।

ॐ शक्ति ॐ शक्ति ॐ शक्ति रक्ष माम् ।।

. अम्ब-ललिते

 

श्लोक

 

सर्व-मंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके ।

शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते ।।

 

हे नारायणी, हे गौरी, सम्पूर्ण पुरुषार्थों को सिद्ध करने वाली, सभी मंगलों का धाम, सभी की रक्षा करने वाली, तीन नेत्रों वाली, माँ तुम्हें नमस्कार है।

 

गीत

 

अम्ब ललिते मां पालय परशिव-वनिते

सौभाग्यजननि (ललिते...)

अम्ब सीते परमानन्द-विलसिते

गुरु-भक्त-जनौध-वृते परतत्त्व-सुधा-रस-मिलिते

अम्ब शासिनि दुरित-विनाशिनि निगम-निवासिनि

विजय-विलासिनि (भगवति)... ।।१ (ललिते…)

 

अम्ब वाले कुंकुम-रेखांकित-फाले

परिपालित-सुर-मुनि-जाले भव-पाश-विमोचन-मूले

अम्ब हिम-गिरि-तनये कमल-सुनिलये

सुमहित-सदये (देवि) सुन्दर-हृदये....।।२ (ललिते...)

 

अम्बे रामे घन-सुन्दर-मेघ-श्यामे

निलयीकृत-हर-तनु-वामे सकलागम-विदितोद्वामे

अम्ब वाम-चारिणि काम-विहारिणि

साम-विनोदिनि (देवी) सोम-शेखरि...11३ (ललिते...)

 

अम्ब तुंगे शृंगालक-परिलस-दंगे

परिपूरित-करुणापांगे सुर-शात्रव-गर्व-विभंगे

अम्ब संग-रहित-मुनि-पुंगव-नुत-पदे

मंगल-शुभकरि (देवी) सर्व-मंगले...||४ (ललिते...)

 

अम्ब कुन्दे परिवन्दित-सनक-सनन्दे

वन्दारु-महीसुर-वृन्दे मृग-राज-स्कन्धे स्पन्दे

अम्ब इन्दिर-मन्दिरे विन्दु-समाकुल-

सुन्दर-चरणे (देवी) त्रिपुरसुन्दरि...।।५ (ललिते...)

 

हे ललिते! हे शिवपत्नी! हे अम्बे ! सौभाग्य की जननी, मेरा पालन कर।

 

हे अम्बे! हे सीते! तू परमानन्द में विलास करने वाली है; परम तत्त्व के रस का पान करने वाले महान् भक्तों से तू घिरी रहती है। हे अम्बे ! तू शासन करती है; सारे दुर्भाग्यों का विनाश करने वाली तू है। तू वेदों में निवास करती है; विजय में विलास करती है।।१

 

हे अम्बे! हे बाले! तेरे ललाट पर कुंकुम-रेखा है, तुझसे ही देवता तथा मुनिजन परिपालित हैं। तू भवपाश का उन्मूलन करती है। हे अम्बे ! तू हिमालय की पुत्री है, तेरी आँखें कमल के समान हैं, तू करुणा तथा कृपा की आगार है; हे देवी तेरा हृदय कोमल है।।२

 

हे अम्बे! हे रामे! तू शिव के वाम पार्श्व को सुशोभित करती है, जो शिव श्यामल मेघ के समान सुनील तथा सुन्दर हैं तथा जो सारे वेदों के धाम हैं। हे अम्बे! तू वामाचार (तन्त्र) में निवास करने वाली है, अपनी कामना के अनुसार चलने वाली है, सामगान में आनन्द लेती है तथा तू सोमेश्वर भगवान् शिव की पत्नी है।।३

 

हे अम्बे! तेरी भौहें ऊँची हैं, कपाल पर श्याम-भ्रमर के समान अलकें शोभायमान हैं। तू करुणासागर है तथा देवशत्रुओं की विनाशक है। हे अम्बे ! मुनिजन जो संगरहित हैं, वे तेरे चरणों को नमन करते हैं। हे देवी! तू मंगलमूर्ति है। तू शुभ करने बाली है।।४

 

अम्बे ! तेरा अंग कुन्द पुष्प के समान है; तू सनक, सनन्दन, देवताओं तथा ब्राह्मणों द्वारा परिपूजित है। तू मृगराज सिंह के कन्धे पर आसीन है। हे अम्बे! तू सौभाग्य का धाम है। हे माते! तू तीनों लोकों में सर्वसुन्दरी है। तेरे चरण सुन्दर हैं। तू मेरी रक्षा कर ।।५

 

नामावली

 

सर्व-शक्ति-दायिनी माता पाहि माम् ।

सर्व-शक्ति-दायिनी माता रक्ष माम् ।।

. नमस्ते जगद्धात्रि (श्री महालक्ष्मीस्तोत्रम्)

(श्रीदेवकृतम्)

 

श्लोक

 

या सा पद्मासना-स्था विपुल-कटि-तटी पद्म-पत्रायताक्षी

गम्भीरावर्त-नाभिः स्तन-भर-नमिता शुभ्र-वस्त्रोत्तरीया ।

लक्ष्मी-र्दिव्यै-र्गजन्द्रे-र्मणि-गण-खचितैः स्नापिता हेम-कुम्भै-

र्नित्यं सा पद्म-हस्ता मम वसतु गृहे सर्व-मांगल्य-युक्ता ।।

 

जो लक्ष्मी कमलासन पर बैठी है, जिसका कटि-प्रदेश विशाल है, जिसकी आँखें कमलदलों के समान दीर्घ हैं, जिसकी नाभि जल के भँवर के समान गहरी है, जो स्तन-भार से कुछ झुकी हुई है, जिसका परिधान (वस्त्र) उज्वल है, जिसको श्रेष्ठ हाथी हीरे-मोतियों से जड़े हुए स्वर्ण-कुम्भों से स्नान करा रहे हैं, जिसके हाथ में कमल है और जो सकल मंगलों से परिपूर्ण है, वह लक्ष्मी मेरे घर में सदा निवास करे।

 

 

 

गीत

 

नमस्ते जग-द्धात्रि सद्ब्रह्म-रूपे

नमस्ते हरोपेन्द्र धात्रादि-वन्द्ये ।

नमस्ते प्रपन्नेष्ट-दानैक-दक्षे

नमस्ते महालक्ष्मि कोलापुरेशि ।।१

 

विधिः कृत्तिवासा हरि-र्विश्व-मेतत्

सृजत्यत्ति पातीति यत्तत् प्रसिद्धम् ।

कृपालोकना-देव ते शक्ति-रूपे

नमस्ते महालक्ष्मि कोलापुरेशि ।।२

 

त्वया मायया व्याप्त-मेतत् समस्तं

धृतं लीलया देवि कुक्षौ हि विश्वम् ।

स्थितं बुद्धि-रूपेण सर्वत्र जन्तौ

नमस्ते महालक्ष्मि कोलापुरेशि ।।३

 

यया भक्त-वर्गा हि लक्ष्यन्त एते

त्वयाऽत्र प्रकामं कृपा-पूर्ण-दृष्ट्या ।

तो गीयसे देवि लक्ष्मी-रिति त्वं

नमस्ते महालक्ष्मि कोलापुरेशि ।।४

 

पुन-र्वाक्-पटुत्वादि-हीना हि मूका

नरे-स्तै-र्निकामं खलु प्रार्थ्यसे यत्।

निजेष्टाप्तये तच्च मूकाम्बिका त्वं

नमस्ते महालक्ष्मि कोलापुरेशि ।।५

 

यदद्वैतरूपात् परब्रह्मण-स्त्वं

समुत्था पुन-र्विश्व-लीलोद्यमस्था ।

तदाहु-र्जना-स्त्वां हि गौरी कुमारीं

नमस्ते महालक्ष्मि कोलापुरेशि ।।६

 

हरीशादि-देहोत्थ-तेजोमय-प्र-

स्फुर-च्चक्रराजाख्य-लिंग-स्वरूपे ।

महायोगि-कोलर्षि-द्वत्पा-गेहे

नमस्ते महालक्ष्मि कोलापुरेशि ।।७

 

नमः शंख-चक्राभयाभीष्ट-हस्ते

नमः-स्त्र्यम्बके गौरि पद्मासन-स्थे ।

नमः स्वर्ण-वर्णे प्रसन्ने शरण्ये

नमस्ते महालक्ष्मि कोलापुरेशि ।।८

 

इदं स्तोत्र-रत्नं कृतं सर्व-देवै-

हृदि त्वां समाधाय लक्ष्म्यष्टकं यः ।

पठे-न्नित्य-मेष व्रजत्याषु लक्ष्मीं

सुविद्यां च सत्यं भवत्याः प्रसादात् ।।९

 

 

हे माता, विश्वधारिणी, सद्ब्रह्मस्वरूपिणी तुझे प्रणाम। हे शिव, विष्णु, ब्रह्मा आदि देवों से पूज्य, तू शरणागतों को बांछित फल देने में समर्थ है। हे कोलापुरेशि महालक्ष्मी ! तुझे प्रणाम ।।१

 

हे शक्तिरूपिणी! ब्रह्मा विश्व का सृजन करते हैं, विष्णु पालन करते हैं और शिव संहार करते हैं-ऐसी जो प्रसिद्धि हुई है, वस्तुतः यह सब-कुछ तेरी कृपाभरी निगाहों के बल पर होता है। हे कोलापुरेशि महालक्ष्मी ! तुझे प्रणाम ।।२

 

इस समस्त विश्व को अपनी माया से तूने व्याप्त कर लिया है और तूने लीला से ही इसे अपने पेट में रख लिया है। प्रत्येक प्राणी के अन्दर बुद्धि के रूप में तू स्थित है। है कोलापुरेशि महालक्ष्मी ! तुझे प्रणाम ।।३

 

हे माते, चूँकि सभी भक्तजनों की ओर तू अत्यन्त कृपापूर्ण दृष्टि से देखा करती है, इसलिए लक्ष्मी के नाम से तू गायी जाती है। हे कोलापुरेशि महालक्ष्मी ! तुझे प्रणाम ।।४

 

जिन लोगों में बोलने की शक्ति नहीं है, ऐसे मूकजन तुझसे वर माँगते रहते हैं, जिससे कि उनकी इच्छापूर्ति हो। इसीलिए तेरा नाम मूकाम्बिका पड़ा है। हे कोलापुरेशि महालक्ष्मी! तुझे प्रणाम ।।५

 

तूने अद्वैतस्वरूप परब्रह्म से प्रकट हो कर विश्व-सृष्टि आदि की लीला में योग देना शुरू कर दिया है। इसीलिए लोग तुझे गौरी कुमारी कहते है। हे कोलापुरेशि महालक्ष्मी ! तुझे प्रणाम ।।६

 

महाविष्णु, शिन आदि देवों के शरीर की कान्ति से उत्पन्न हुए, श्री चक्र-रूप वाली और महायोगी कोल ऋषि के हृदय-रूपी पक्ष में बसने वाली, है कोलापुरेशि महालक्ष्मी। तुझे प्रणाम ।।७

हे देवी! तूने अपने चारों हाथों में एक में शंख और दूसरे में चक्र धारण किया है, तीसरे से अभय दान और चौथे से वांछित फल दे रही है। है पद्मासन में स्थित गौरी, तीन नयनों बाली, स्वर्ण-सम कान्तिपुते, प्रसन्ने, एकमात्र शरण्ये, कोलापुरेशि महालक्ष्मी । तुझे प्रणाम ।।८

 

सभी देवों ने जिन शब्दों से तेरी स्तुति की है, उसी लक्ष्मी अष्टक नामक स्तोत्र-रत्न का पाठ जो व्यक्ति अपने हृदय में तेरी स्थापना करके रोज करता है, वह तेरी कृपा से सम्पत्ति और आत्मज्ञान को शीघ्र ही प्राप्त कर लेता है, इसमें कोई सन्देह नहीं है ।।९

. जय तुंग तरंगे

(श्री गंगादेवी-स्तोत्रम्)

(श्री सदाशिवब्रह्मेन्द्रकृतम्)

 

श्लोक

 

भगवति तव तीरे नीर-मात्राशनोऽहं

विगत-विषय-तृष्णः कृष्ण-माराधयामि ।

सकल-कलुष-भंगे स्वर्ग-सोपान-संगे

तरल-तर-तरंगे देवि गंगे प्रसीद ।।

 

हे देवी! भगवती गंगे, तेरा किनारा मनुष्य के सारे दोषों और पापों को मिटा देता है। वह स्वर्ग की सीढ़ी के समान है और उसकी चपल लहरें कलकल करती रहती हैं। ऐसे किनारे पर मैं केवल जलहारी रह कर, सभी प्रकार के विषयों की तृष्णा को छोड़ कर कृष्ण की आराधना करता हूँ। तू मुझ पर प्रसन्न हो !

 

गीत

 

जय तुंग तरंगे गंगे, जय तुंग तरंगे ।

कमल-भवाण्ड-करण्ड-पवित्रे,

बहुविध-बन्ध-च्छेद-लचित्रे ।।१ (जय...)

 

दूरीकृत-जन-पाप-समूहे,

पूरित-कच्छप-गुच्छ-ग्राहे ।।२ (जय...)

 

परमहंस-गुरु-भणित-चरित्रे,

ब्रह्म-विष्णु-शंकर-नुति-पात्रे ।।३ (जय...)

 

 

उन्नत तरंगों वाली हे गंगे, तेरी जय हो। ऊँची लहरों वाली तेरी जय हो ।

 

तू सारे ब्रह्माण्ड को पावन करने वाली है और (मनुष्य के) अनेक प्रकार के बन्धनों को काटने वाली दराँती है ।।१

 

तू मनुष्यों के सकलविध पापों को दूर करने वाली है। तेरे अन्दर मगरमच्छ आदि अनेक जलचर भरे पड़े हैं।॥२

 

तेरा गुणगान परमहंस गुरुजन करते हैं और ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश के द्वारा तू स्तुत्य है। तेरी जय हो!!३

 

नामावली

 

जय तुंग तरंगे गंगे, जय तुंग तरंगे ।

 

 

. नमस्ते शरण्ये (श्री दुर्गादेवी-स्तोत्रम्)

 

श्लोक

 

सर्व-स्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्तिसमन्विते ।

भयेभ्य-स्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तु ते।।

 

हे सर्वस्वरूपमयी, सर्वेश्वरी, सम्पूर्ण शक्तियों से सम्पन्न माँ दुर्गा देवी, तुझको नमस्कार है। हे देवी, (जन्म-मृत्यु के) भय से हमारी रक्षा करो।

 

 

स्तोत्रम्

 

नमस्ते शरण्ये शिवे सानुकम्पे

नमस्ते जगद्-व्यापिके विश्वरूपे।

नमस्ते जगद्वन्द्य-पादारविन्दे

नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ।।१

 

नमस्ते जगच्चिन्त्यमान-स्वरूपे

नमस्ते महायोगिनि ज्ञान-रूपे ।

नमस्ते नमस्ते सदानन्द-रूपे

नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ।।२

 

अनाथस्य दीनस्य तृष्णातुरस्य

भयार्तस्य भीतस्य बद्धस्य जन्तोः ।

त्वमेका गतिर्देवि निस्तार-कर्त्री

नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ।।३

 

अरण्ये रणे दारुणे शत्रु-मध्येऽ-

नले सागरे प्रान्तरे राज-गेहे।

त्वमेका गतिर्देवि निस्तार-नौका

नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ।।४

 

अपारे महा-दुस्तरेऽत्यन्त-घोरे

विपत्सागरे मज्जतां देह-भाजाम्।

त्वमेका गतिर्देवि निस्तार-हेतु-

र्नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ।।५

 

नम-श्चण्डिके चण्ड-दोर्दण्ड-लीला

समुत्खण्डिताखण्डलाशेष-शत्रो।

त्वमेका गतिर्देवि निस्तार बीजे

नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ।।६

 

त्वमेवाघभावाधृतासत्यवादी

नजाताजिताक्रोधनात्-क्रोध-निष्ठा

इडा पिंगला त्वं सुषुम्ना च नाडी

नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ।।७

 

नमो देवि दुर्गे शिवे भीम-नादे

सरस्वत्यरुन्धत्यमोघ स्वरूपे ।

विभूतिः शची कालरात्रिः सती त्वं

नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ।।८

 

शरणमसि सुराणां सिद्ध-विद्याधराणां

मुनि-मनुज-पशूनां दस्युभिस्त्रासितानाम्।

नृपति-गृह-गतानां व्याधिभिः पीडितानां

त्वमसि शरणमेका देवि दुर्गे प्रसीद ।।९

 

सर्वं वा श्लोकमेकं वा यः पठेद्-भक्तिमान् सदा ।

स सर्व दुष्कृतं त्यक्त्वा प्राप्नोति परमं पदम् ।।१०

 

हे शुभकारिणी देवी, लोगों की तू ही एकमात्र शरण है। तू परम दयालु है, तीनों लोकों में व्याप्त है। अखिल विश्व ही तेरा रूप है। तेरे चरण-कमल समस्त संसार के लिए पूज्य हैं। तुझको नमस्कार है, नमस्कार है। हे जगत् का उद्धार करने वाली माँ दुर्गा, तू मेरी रक्षा कर ।।१।।

 

तेरा रूप सबकी ध्येय-वस्तु है। तू महान् योगिनी तथा ज्ञान और आनन्द-स्वरूपिणी है। तुझको नमस्कार है, नमस्कार है! हे जगत् का उद्धार करने वाली माँ दुर्गा, तू मेरी रक्षा कर ।।२

 

अनाथ, दीन, तृष्णातुर, भयार्त, शोकाकुल तथा संसार-चक्र में आबद्ध प्राणियों के उद्धार के लिए तू ही एकमात्र गति है। तुझको नमस्कार है, नमस्कार है! हे जगत् का उद्धार करने वाली माँ दुर्गा, तू मेरी रक्षा कर ।।३

 

बन में, घोर संग्राम में, शत्रुओं के मध्य में, अग्नि, सागर और विजन पथ में, राजदरबार में पड़ जाने पर उनके उद्धार के लिए तू ही एकमात्र गति है। तुझको नमस्कार है, नमस्कार है! हे जगत् का उद्धार करने वाली माँ दुर्गा, तू मेरी रक्षा कर ।।४

 

अपार महादुस्तर अत्यन्त घोर विपत्सागर में निमज्जित प्राणियों के उद्धार के लिए तू ही एकमात्र गति है। तुझको नमस्कार है, नमस्कार है! हे जगत् का उद्धार करने वाली माँ दुर्गा, तू मेरी रक्षा कर ।।५।।

 

हे चण्डिके, अपने अदम्य बल और शौर्य से तूने इन्द्र के सभी शत्रुओं का निपात डाला। तू मोक्ष का बीज है। हे देवी! एकमात्र तू ही मेरी गति है। तुझको नमस्कार है, नमस्कार है। हे जगत् का उद्धार करने वाली माँ दुर्गा, तू मेरी रक्षा कर ।।६

 

हे देबी दुर्गे! तुझमें पाप का स्पर्श नहीं है। तू सत्यवादी, अनादि तथा अजेय है। तू क्रोध से पूर्ण है। तू इडा, पिंगला तथा सुषुम्ना आदि योग-नाड़ी है। तुझे नमस्कार है, नमस्कार है! हे जगत् का उद्धार करने वाली माँ दुर्गा, तू मेरी रक्षा कर ।।७

 

हे देवी दुर्गे! तू ही शिवा, भीमनादिनी, सरस्वती, अरुन्धती, अमोघरूपिणी, विभूति, शची, कालरात्रि तथा सती है। तुझको नमस्कार है, नमस्कार है! हे जगत् का उद्धार करने वाली माँ दुर्गा, तू मेरी रक्षा कर ।।८

 

देवता, सिद्ध, विद्याधर, मुनि, मनुष्य, पशु, चोरों से पीड़ित, राज-अपराधी तथा व्याधिग्रस्त लोगों को एकमात्र शरण देने वाली तू है। हे देवी दुर्गा, तू प्रसन्न हो ।।९

 

जो इन स्तोत्रों का पूरा अथवा एक श्लोक भी नित्य भक्तिपूर्वक पाठ करता है, वह सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो कर परम पद को प्राप्त कर लेता है ।।१०

 

नामावली

 

ॐ दुर्गे ॐ दुर्गे ॐ दुर्गे पाहि माम् ।

ॐ दुर्गे ॐ दुर्गे ॐ दुर्गे रक्ष माम् ।।

 

जय जय जय जय भारत-माता ।

जय विजयीभव श्री जगन्माता ।।१

 

 

जय जय जय जय हे मम माता ।

जय विजयीभव श्री जगन्माता ।।२

सत्यरूपिणी भारत-माता ।

जय विजयीभव श्री जगन्माता ।।३

 

ज्ञानरूपिणी भारत-माता ।

जय जय जय जय हे मम माता ।।४

 

आनन्दरूपिणी भारत-माता ।

जय विजयीभव हे मम माता ।।५

 

शक्तिदायिनी भारत-माता ।

जय जय जय जय हे मम माता ।।६

 

मुक्तिदायिनी भारत-माता।

जय विजयीभव श्री जगन्माता ।।७

 

भक्तिदायिनी भारत-माता ।

जय जय जय जय हे मम माता ।।८

 

ज्ञानदायिनी भारत-माता ।

जय विजयीभव श्री जगन्माता ।।९

 

शान्तिदायिनी भारत-माता ।

जय जय जय जय हे मम माता ।।१०

 

सर्वदायिनी भारत-माता ।

जय विजयीभव श्री जगन्माता ।।११

 

सच्चिदानन्द-स्वरूपिणी माता ।

जय विजयीभव भारत माता ।।१२

 

. नमस्तेऽस्तु गंगे

(श्री गंगा-स्तोत्र)

(श्री कालिदासकृतम्)

 

श्लोक

 

गंगे त्रैलोक्य-सारे सकल-सुर वधू-धौत-विस्तीर्णतोये

पूर्ण-ब्रह्म-स्वरूपे हरि-चरण-रजो हारिणि स्वर्ग-मार्गे ।

प्रायश्चित्तं यदि स्यात्तव जलकणिका ब्रह्महत्यादि-पापे

कस्त्वां स्तोतुं समर्थस्त्रिजगदघहरे देवि गंगे प्रसीद ।।

 

हे देवी गंगे, तू तीनों लोकों का सार है। तेरे विस्तृत जल में देवांगनाएँ स्नान करती हैं। तू पूर्ण ब्रह्मस्वरूप है। स्वर्गपथ से प्रवाहित होती हुई तू विष्णु की चरण-रज को धोने वाली है। यदि तेरे जल की एक बूँद से ब्रह्महत्यादि पाप का भी प्रायश्चित्त हो सकता है, तब हे तीनों लोकों का पाप हरण करने वाली गंगे। तेरी स्तुति करने की शक्ति किसमें है? तू प्रसन्न हो !

 

गीत

 

नमस्तेऽस्तु गंगे त्वदंग-प्रसंगात् ।

भुजंगास्तुरंगाः कुरंगाः प्लवंगाः ।

अनंगारिरंगाः ससंगा: शिवांगा

भुजंगाधिपांगीकृतांगा भवन्ति ।।१

 

नमो जहुकन्ये न मन्ये त्वदन्यै-

र्निसर्गेन्दुचिह्नादिभिर्लोकभर्तुः ।

अतोऽहं नतोऽहं सतो गौरतोये

वसिष्ठादिभिर्गीयमानाभिधेये ।।२

 

त्वदामज्जनात्सज्जनो दुर्जनो वा

विमानैः समानः समानैर्हि मानैः ।

समायाति तस्मिन् पुराराति-लोके

पुरद्वार-संरुद्ध-दिक्पाल-लोके ।।३

स्वरावासदम्भोलि-दम्भोऽपि रम्भा -

परीरम्भ-सम्भावनाधीर-चेताः ।

समाकांक्षते त्व-त्तटे वृक्ष-वाटी

कुटीरे वसन्नेतुमायुर्दिनानि ।।४

 

त्रिलोकस्य भर्तुर्जटाजूट-बन्धात्

स्व-सीमन्त-भागे मनाक् प्रस्खलन्तः ।

भवान्या रुषा प्रौढ-सापत्न्य-भावात्

करेणाहतास्त्व-त्तरंगा जयन्ति ।। ५

 

जलोन्मज्ज-दैरावतोद्दाम-कुम्भ-

स्फुरत्-प्रस्खलत्-सान्द्र-सिन्दूररागे ।

क्वचित् पद्मिनी-रेणु-भंग-प्रसंगे

मनः खेलतां जहु-कन्या-तरंगे ।।६

 

भवत्तीर-वानीर-वातोत्थ-धूली-

लव-स्पर्शतस्तत्क्षणं क्षीण पापः ।

जनोऽयं जगत्-पावने त्वत्प्रसादात्

पदे पौरुहूतेऽपि धत्तेऽवहेलाम् ।।७

 

त्रिसन्ध्या-नमल्लेख-कोटीर-नाना-

विधानेक-रत्नांशु-बिम्ब प्रभाभिः ।

स्फुरत्पाद-पीठे हटेनाष्टमूर्तेः

जटा-जूट-वासे नताः स्मः पदं ते ।।८

 

इदं यः पठेदष्टकं जहु-पुत्र्याः

त्रिकालं कृतं कालिदासेन रम्यम् ।

समायास्यतीन्द्रादिभिर्गीयमानं

पदं कैशवं शैशवं नो भजेत् सः ।।९

 

 

हे गंगे, तुझे प्रणाम। तेरा स्पर्श मात्र करने से सर्प, घोड़ा, हिरन, बन्दर आदि सब भगवान् शंकर का सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य और सायुज्य प्राप्त करते हैं ।।१

 

हे जहु-पुत्री, जगत्पति शिव का तेरे अतिरिक्त अर्धचन्द्र आदि और कोई चिह्न मैं नहीं जानता । अतः हे स्वच्छ-जल वाली वसिष्ठ आदि से स्तुत्य गंगे, तुझे नमस्कार करता हूँ।।२

 

तुझमें स्नान करने वाला चाहे सज्जन हो या दुर्जन, अत्यन्त पवित्र विमानों में चढ़ कर शिवलोक में पहुँच जाता है जहाँ दिक्पालों तक का भी प्रवेश निषिद्ध है ।।३

 

इन्द्र भी, जो स्वर्ग के आधिपत्य और दम्भोलि अस्त्र की प्राप्ति के मद में चूर रहते हैं और रम्भा आदि अप्सराओं के आलिंगन का आनन्द लेते हैं, तुम्हारे तट पर वृक्षों के नीचे कुटिया बना कर अपना जीवन व्यतीत करने की आकांक्षा रखते हैं ।।४

 

त्रिलोकीनाथ शिव की जटा में आबद्ध होने के कारण तुम्हारा जल बूंद-बूंद कर शिवजी के वाम-भाग में स्थित पार्वती जी के शिर पर टपकता है, तब सौतेली डाह के कारण क्रोध में आ कर पार्वती अपने हाथों से तुम्हें आघात पहुँचाती हैं। उस आघात से तुमसे लहरें उठती हैं, उन लहरों की जय हो ।।५

 

हे जहु-कन्ये, तेरी लहरों में मेरा मन रमता रहे जो ऐरावत के स्नान करने से उसके कुम्भ-प्रदेश से निकल कर गिरे हुए सिन्दूर के कारण कहीं-कहीं लाल और कमल-पुष् के पराग घुले होने के कारण कहीं-कहीं पीत वर्ण है ।।६

 

तेरे किनारे पर जो वानीर वृक्ष है, उनकी हवा से उठी धूलि का अल्प स्पर्श होने से मेरे करने वाली गंगे, अब मैं तेरी कृपा से पद का भी तिरस्कार कर सकता हूँ।।७

 

का रे चरणों में सारे देवता दिन में तीन बार शिर नवाते हैं और उनके मुकुट में जी मणियों मेरे प्रकाश से तुम्हारा पादपीठ प्रकाशित होता है। हे शिव के जटाजूट में निवास करने वाली, तेरे चरणों को हम नमस्कार करते हैं ।।८

 

कालिदास विरचित इस गंगाष्टक का जो लोग नित्य तीन बार पाठ करते हैं, वे इन्द्रादि से स्तुत्य श्री विष्णु का रम्य स्थान प्राप्त करते हैं। वे कभी शैशव (पुनर्जन्म) प्राप्त नहीं करते ।।९

 

नामावली

 

नमस्तेऽस्तु गंगे नमस्ते नमस्ते ।

 

१०. जय भगवति देवि नमो वरदे

(श्री भवानी-स्तोत्र)

(श्री व्यासकृतम्)

 

श्लोक

 

न मन्त्रं नो यन्त्रं तदपि च न जाने स्तुतिमहो

न चाह्वानं ध्यानं तदपि च न जाने स्तुति-कथाः ।

न जाने मुद्रास्ते तदपि च न जाने विलपनं

परं जाने मातस्त्वदनुसरणं क्लेश-हरणम् ।।

 

हे माता! मैं तेरा मन्त्र, यन्त्र, स्तुति, आवाहन, ध्यान, स्तुतिकथा, मुद्रा तथा विलाप कुछ भी नहीं जानता, परन्तु तेरा अनुसरण करना जानता हूँ और तू ही सब प्रकार के क्लेशों को दूर करने वाली है।

 

स्तोत्र

 

जय भगवति देवि नमो वरदे

जय पाप-विनाशिनि बहु-फलदे।

जय शुम्भ-निशुम्भ-कपाल-धरे

प्रणमामि तु देवि नरार्ति-हरे ।।१

 

जय चन्द्र-दिवाकर-नेत्र-धरे

जय पावक-भूषित-वक्त्र-वरे ।

जय भैरव-देह-निलीन-परे

जय अन्धक-दैत्य-विशोष-करे ।।२

 

जय महिष-विमर्दिनि शूल-करे

जय लोक-समस्तक-पाप-हरे ।

जय देवि पितामह-विष्णु-नुते

जय भास्कर-शक्र-शिरोऽवनते ।।३

 

जय षण्मुख-सायुधईशनुते

जय सागर-गामिनि शम्भु-नुते ।

जय दुःख-दरिद्र-विनाश करे

जय पुत्र-कलत्र-विवृद्धि करे ।।४

 

जय देवि समस्त-शरीर-धरे

जय नाक-विदर्शिनि दुःख-हरे।

जय व्याधि-विनाशिनि मोक्ष-करे

जय वांछित-दायिनि सिद्धिवरे ।।५

 

एतद्-व्यास-कृतं स्तोत्रं यः पठेन्नियतः शुचिः ।

गृहे वा शुद्ध-भावेन प्रीता भगवती सदा ।।६

 

हे वरदायिनी देवी! हे भगवती! तेरी जय हो ! हे पापों को नष्ट करने वाली और अनन्त फल देने वाली देवी! तेरी जय हो! हे शुम्भ-निशुम्भ के मुण्डों को धारण करने वाली देवी! तेरी जय हो! हे मनुष्यों की पीड़ा हरने वाली देवी! मैं तुझे प्रणाम करता हूँ।।१

 

हे सूर्य-चन्द्रमा-रूप नेत्रों को धारण करने वाली देवी! तेरी जय हो! हे अग्नि के समान देदीप्यमान मुख से शोभित होने वाली देवी! तेरी जय हो! हे भैरव-शरीर में लीन रहने वाली और अन्धकासुर का शोषण करने वाली देवी! तेरी जय हो !!२

 

हे महिषासुर का मर्दन करने वाली, शूलधारिणी और लोक के समस्त पापों को दूर करने बाली भगवती, तेरी जय हो । ब्रह्मा, विष्णु, सूर्य और इन्द्र से नमस्कृत होने वाली देवी! तेरी जय हो। जय हो 11३

'सशास्त्र शंकर और कार्तिकेय जी के द्वारा बन्दित होने वाली देवी! तेरी जय हो। शिव के द्वारा प्रशंसित एवं सागर में मिलने वाली गंगारूपिणी देवी। तेरी जय हो। दुख और दरिद्रता का नाश करने तथा पुत्र-कलत्र की वृद्धि करने वाली देवी। तेरी जय हो। जय हो!!४

समस्त शरीर को धारण करने वाली, स्वर्ग लोक का दर्शन कराने वाली और दु: खहारिणी हे देवी। तेरी जय हो। हे व्याधिनाशिनी देवी । तेरी जय हो। हे मोक्षदायिनी, हे मनोवांछित फल देने वाली, अष्टसिद्धियों से सम्पन्न परा देवी, तेरी जय हो ।।५

 

जो घर अथवा कहीं पर भी रह कर पवित्र भाव से नियमपूर्वक इस व्यास-कृत स्तोत्र का पाठ करता है, उसके ऊपर भगवती सदा ही प्रसन्न रहती है ।।६

 

नामावली

 

जय देवि नमामि जगज्जननि ।

 

 

 

 

११. नवरत्नमालिका

(श्री शंकराचार्यकृतम्)

 

श्लोक

 

नमो नमस्ते जगदेक-मात्रे

नमो नमस्ते जगदेक-पित्रे ।

नमो नमस्तेऽखिलरूप-तन्त्रे

नमो नमस्तेऽखिलयज्ञ-रूपे ।।

 

इस अखिल विश्व की एकमात्र माता तू ही है, तुझको मेरा नमस्कार है। इस अखिल विश्व का तू ही एकमात्र पिता है, तुझको मेरा नमस्कार है। हे सम्पूर्ण तन्त्र-रूप वाली, तुझको मेरा नमस्कार है। हे सम्पूर्ण यज्ञरूपिणी, तुझको मेरा नमस्कार है।

 

स्तोत्र

 

हार-नूपुर-किरीट-कुण्डल-विभूषितावयव-शोमिनीं कारणेश-वर-मौलि-कोटि-परिकल्प्यमान-पद-पीठिकाम् ।।

काल-काल-फणि-पाश-वाण- -धनु-रंकुशां अरुण-मेखलां

फालभू-तिलक-लोचनां मनसि भावयामि परदेवताम् ।।१

 गन्धसार-घन-सार-चारु-नव-नागवल्लि-रस-वासिनीं

सान्ध्य-राग-मधुराधराभरण-सुन्दरानन-शुचि-स्मिताम् ।।

मन्थरायत-विलोचनां अमल-बाल-चन्द्र-कृत शेखरीं

इन्द्रिरा-रमण-सोदरीं मनसि भावयामि परदेवताम् ।।२

 

स्मेर-चारु-मुख-मण्डलां विमल-गण्ड-लम्बि-मणि-कुण्डलां

हार-दाम-परिशोभमान-कुचभार-भीरु-तनु-मध्यमाम् ।

वीर-गर्व-हर-नूपुरां विविध-कारणेश-वर-पीठिकां

मार-वैरि-सहचारिणीं मनसि भावयामि परदेवताम् ।।३

 

भूरि-भार-धर-कुण्डलीन्द्र-मणि-बद्ध-भूवलय-पीठिकां बारिराशि-मणि-मेखला-वलय-वह्नि-मण्डल-शरीरिणीम् ।

वारिसार-वह-कुण्डलां गगन-शेखरीं च परमात्मिकां

चारु-चन्द्र-रवि-लोचनां मनसि भावयामि परदेवताम् ।।४

 

कुण्डल-त्रिविध-कोण-मण्डल-विहार-षड्दल-समुल्लसत्

पुण्डरीक-मुख-भेदिनी तरुण-चण्डभानु-तडिदुज्वलाम्।

मण्डलेन्दु-परिवाहितामृत-तरंगिणीमरुण-रूपिणीं

मण्डलान्त-मणि-दीपिकां मनसि भावयामि परदेवताम् ।।५

 

वारणानन-मयूर-वाह-मुख-दाह-वारण-पयोधरां

चारणादि-सुर-सुन्दरी-चिकुर-शेखरीकृत-पदाम्बुजाम् । कारणाधिपति-पंचक-प्रकृति-कारण-प्रथम-मातृकां

वारणास्य-मुख-पारणां मनसि भावयामि परदेवताम् ।।६

 

पद्मकान्ति-पद-पाणि-पल्लव-पयोधरानन-सरोरुहां पद्म-राग-मणि-मेखला-वलय-नीवि-शोभित-नितम्बिनीम् ।

पासम्भव-सदाशिवात्तमय पंचरत्ल-पद-पीठिकां

पकिनी प्रणव-रूपिणीं मनसि भावयामि परदेवताम् ।।७

 

आगम-प्रणव-पीठिकाममल-वर्ण-मंगल-शरीरिणी आगमावयव-शोभिती-अखिल-वेदसार-कृत-शेखरीम्।

मूल-मन्त्र-मुख-मण्डलां मुदित-नाद-बिन्दु-नव-यौवनां

मातृकां-त्रिपुर-सुन्दरी मनसि भावयामि परदेवताम् ।।८

 

कालिका-तिमिर-कुन्तलान्त-पन-भृंग-मंगल-विराजिनी चूलिका-शिखर-मालिका-चलय-मल्लिका-सुरभि-सौरभाम् ।

वालिका-मधुर-गण्ड-मण्डल-मनोहरानन-सरोरुहां

कालिका मखिल-नायिकां मनसि भावयामि परदेवताम् ।।९

 

नित्यमेव नियमेन जल्पतां भुक्ति-मुक्ति-फलदामभीष्टदाम् ।

शंकरेण रचितां सदा जपेत् नामरत्न-नवरत्न-मालिकाम् ।।१०

 

जिसके अंग हार, नूपुर, किरीट, कुण्डल आदि अलंकारों से सुशोभित हैं, जिसकी भगवान् शिवजी सदा आराधना करते हैं, जो अपने हाथों में सर्प, पाश, धनुष, बाण और अंकुश धारण करती है, जिसकी कटि में अरुण रंग की मेखला है तथा जिसके मस्तक में तिलक की भाँति तृतीय नेत्र है, उस परात्पर देवी को मैं नमस्कार करता हूँ।।१

 

जिसके शरीर में चन्दन, कर्पूर और ताम्बूल के रस के समान मधुर सुगन्धि निकलती है, जिसका सुन्दर और मन्दस्मित मुख उषाकालीन लालिमा से रंजित मधुर ओष्ठों से सुशोभित है, जिसके सुन्दर विशाल नेत्र हैं, जो अपने मस्तक में निर्मल बालचन्द्र धारण करती है, जो भगवान् कृष्ण की बहन है, उस परात्पर देवी को मैं नमस्कार करता हूँ।।२

 

जिसका सुन्दर मुख मुस्कान से युक्त है, जिसके कपोलों पर मणिमय कुण्डल की आभा है, जिसकी पतली कमर मोती के हारों से अलंकृत कुचभार से भयभीत-सी हो रही है, जिसके नूपुरों की ध्वनि बड़े शूरवीरों के गर्व को विदूरित कर देती है, जो भगवान् शिव की प्रिया है, उस परात्पर देवी को मैं नमस्कार करता हूँ।।३

 

सम्पूर्ण विश्व का भार वहन करने वाले भगवान् आदिशेष के फणि के मणियों से रचित पृथ्वी जिसका आसन है, सागर में प्रज्वलित अग्नि (बडवाग्नि) जिसका शरीर है, मेघ जिसके कुण्डल हैं, आकाश शिर है तथा सूर्य और चन्द्र जिसके नेत्र हैं, उस परात्पर देवी को मैं नमस्कार करता हूँ।।४

 

जो शुभ ज्योति के वृत्त के सुन्दर त्रिकोण (मूलाधार) में निवास करती है, जो बद्दल कमल (स्वाधिष्ठान) का भेदन करती है, जो मध्याह्न के सूर्य तथा चपला के समान जाज्वल्यमान है (सूर्य से तात्पर्य यहाँ अनाहत चक्र और चपला से मणिपूर-चक्र है), जिसका रूप पूर्ण चन्द्र से नि सृत होने वाली अमृत-धारा के समान है (आज्ञा-चक्र), जिसका वर्ण अरुण है तथा जो क्षितिज को प्रकाशित करने वाली मणिदीप है, उस परात्पर देवी को मैं नमस्कार करता हूँ।।५

 

जिसके पयोधर का दुग्ध गणेश जी तथा षडानन की तृष्णा को तृप्त करता है, जिसके चरण-कमल को देवांगनाएँ नमस्कार करती हैं, जो आदि माया अथवा इस मिथ्या जगत् का कारण है और जो भगवान् गणेश का मुख चुम्बन करती है, उस परात्पर देवी को मैं नमस्कार करता हूँ।।६

 

जिसके कर, चरण तथा मुख पद्म-पुष्प की भाँति सुन्दर हैं, जिसके उरोज कमल की कली की भाँति सुशोभित हैं जिसकी कमर लाल मणि की मेखला तथा सुन्दर परिधान से दीप्तिमान है, जिसकी पाद-पीठिका ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, ईश्वर और सदाशिव हैं, और प्रणव जिसका रूप है, उस परात्पर देवी को मैं नमस्कार करता हूँ।।७

 

वेदों का प्रणव जिसका आसन है, वर्ण (अक्षर) जिसका मंगलमय शरीर है, जो वेदांग अर्थात् शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष और छन्दशास्त्र से सुशोभित है, सम्पूर्ण वेदों का सार जिसका शिर है, मूलमन्त्र जिसका मुखमण्डल है, नादबिन्दु जिसका यौवन है, उस परात्पर देवी को मैं नमस्कार करता हूँ ।।८

 

जिसके भृंग के समान काले घने सुन्दर बाल वेणी में गुँथे हुए पुष्पों से सुगन्धित हो रहे हैं, जिसके सुन्दर कपोल मणिजटित कुण्डल की आभा से चमक रहे हैं, जो सम्पूर्ण विश्व पर शासन करती है, उस परात्पर देवी को मैं नमस्कार करता हूँ।।९

 

हे मानव ! श्री शंकराचार्य द्वारा रचित इस नवरत्नमालिका का नित्य पाठ करो। यह सम्पूर्ण मनोकामनाओं को देने वाली है तथा अन्त में जन्म-मृत्यु से मुक्त करती है ।।१०

 

१२. श्री अन्नपूर्णास्तोत्रम्

(श्री शंकराचार्यकृतम्)

 

ॐ नित्यानन्दकरी वराभयकरी सौन्दर्यरत्नाकरी,

निर्भूताखिल घोरपावनकरी प्रत्यक्षमाहेश्वरी ।

प्रालेयाचल वंशपावनकरी काशीपुराधीश्वरी,

भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी ।। १

 

नानारत्नविचित्र भूषणकरी हेमाम्बराडम्बरी,

मुक्ताहारविडम्बमान विलसद्वक्षोज कुम्भान्तरी ।

काश्मीरागरुवासितांगरुचिरे काशीपुराधीश्वरी,

भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी ।।२

 

योगानन्दकरी रिपुक्षयकरी धर्मकनिष्ठाकरी,

चन्द्रार्कानल भासमानलहरी त्रैलोक्यरक्षाकरी ।

सर्वैश्वर्यकरी तपः फलकरी काशीपुराधीश्वरी,

भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी ।।३

 

कैलासाचलकन्दरालयकरी गौरीह्युमाशांकरी,

कौमारीनिगमार्थगोचरकरी ह्योंकार बीजाक्षरी।

मोक्षद्वारकवाट पाटनकरी काशीपुराधीश्वरी,

भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी ।।४

 

दृश्यादृश्यविभूति पावनकरी ब्रह्माण्डभाण्डोदरी

लीलानाटक सूत्रखेलनकरी विज्ञानदीपांकुरी ।

श्री विश्वेशमनः प्रमोदनकरी काशीपुराधीश्वरी,

भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी ।।५

 

आदिक्षान्त समस्तवर्णनकरी शम्भुप्रिये शांकरी,

काश्मीरे त्रिपुरेश्वरी त्रिनयनी विश्वेश्वरी श्रीधरी ।

स्वर्गद्वारकवाट पाटनकरी काशीपुराधीश्वरी,

भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी ।।६

 

उर्वीसर्वजनेश्वरी जयकरी माता कृपासागरी,

नारीनीलसमान कुन्तलधरी नित्यान्नदानेश्वरी ।

साक्षान्मोक्षकरी सदाशिवकरी काशीपुराधीश्वरी,

भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी ।।७

 

देवीसर्वविचित्र रत्नरचिता दाक्षायणी सुन्दरी,

वामस्वादुपयोधर प्रियकरी सौभाग्यमाहेश्वरी ।

भक्ताभीष्टकरी दशाशुभकरी काशीपुराधीश्वरी,

भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी ।।८

 

चन्द्रार्कानल कोटि कोटिसदृशा चन्द्रांशु विम्बाधरी,

चन्द्रार्काग्निसमान कुन्तलधरी चन्द्रार्कवर्णेश्वरी ।

मालापुस्तकपाशसांकुशधरी काशीपुराधीश्वरी,

भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी ।।९

 

क्षत्रत्राणकरी सदाशिवकरी माताकृपासागरी,

साक्षान्मोक्षकरी महाभयकरी विश्वेश्वरी श्रीधरी,

दक्षाक्रन्दकरी निरामयकरी काशीपुराधीश्वरी,

भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी ।।१०

 

अन्नपूर्ण सदापूर्ण शंकरप्राणवल्लभे ।

ज्ञानवैराग्य सिद्ध्यर्थं भिक्षां देहि च पार्वति ।।११

 

माता च पार्वतीदेवी पितादेवोमहेश्वरः ।

बान्धवाश्शिवभक्ताश्च स्वदेशो भुवनत्रयम् ।।१२

 

१३. आदि दिव्य ज्योति

 

आदि दिव्य ज्योति महा कालिका नमः ।

मधु शुम्भ महिष मर्दिनि महा शक्तये नमः ।।

 

ब्रह्म विष्णु शिव स्वरूप त्वं न अन्यथा ।

चराचरस्य पालिका नमो नमः सदा ।। आदि दिव्य ज्योति...

 

 

१४. श्री देवी-अष्टोत्तरशत-नामावली

 

१. ॐ आदिशक्तयै नमः

 

२. ॐ महादेव्यै नमः

 

३. ॐ अम्बिकायै नमः

 

४. ॐ परमेश्वर्यै नमः

 

५. ॐ ईश्वर्ये नमः

 

६. ॐ अनीश्वर्य नमः

 

७. ॐ योगिन्यै नमः

 

८. ॐ सर्वभूतेश्वर्यै नमः

 

९. ॐ जयायै नमः

 

१०. ॐ विजयायै नमः

 

११. ॐ जयन्त्यै नमः

 

१२. ॐ शाम्भव्यै नमः

 

१३. ॐ शान्त्यै नमः

 

१४. ॐ ब्राह्मयै नमः

 

१५. ॐ ब्रह्माण्डधारिण्यै नमः

 

१६. ॐ महारूपायै नमः

 

१७. ॐ महामायायै नमः

 

१८. ॐ माहेश्वर्यै नमः

 

१९. ॐ लोकरक्षिण्यै नमः

 

२०. ॐ दुर्गायै नमः

 

२१. ॐ दुर्गपारायै नमः

 

२२. ॐ भक्तचिन्तामण्यै नमः

 

२३. ॐ भूत्यै नमः

 

२४. ॐ सिद्धयै नमः

 

२५. ॐ मूत्यै नमः

 

२६. ॐ सर्वसिद्धिप्रदायै नमः

 

२७. ॐ मन्त्रमूत्यै नमः

 

२८. ॐ महाकाल्यै नमः

 

२९ ॐ सर्वमूर्तिस्वरूपिण्यै नमः

 

३०. ॐ वेदमूत्यै नमः

 

३१. ॐ वेदभूत्यै नमः

 

३२. ॐ वेदान्तायै नमः

 

३३. ॐ व्यवहारिण्यै नमः

 

३४. ॐ अनघायै नमः

 

३५. ॐ भगवत्यै नमः

 

३६. ॐ रौद्रायै नमः

 

३७. ॐ रुद्रस्वरूपिण्यै नमः

 

३८. ॐ नारायण्यै नमः

 

३९. ॐ नारसिंही नमः

 

४०. ॐ नागयज्ञोपवीतिन्यै नमः

 

४१. ॐ शंखचक्रगदाधारिण्यै नम।

 

४२. ॐ जटामुकुटशोभिन्यै नमः

 

४३. ॐ अप्रमाणायै नमः

 

४४. ॐ प्रमाणायै नमः

 

४५. ॐ आदिमध्यावसानायै नमः

 

४६. ॐ पुण्यदायै नमः

 

४७. ॐ पुण्योपचारिण्यै नमः

 

४८. ॐ पुण्यकीत्यै नमः

 

४९. ॐ स्तुतायै नमः

 

५०. ॐ विशालाक्ष्यै नमः ।

 

५१. ॐ गम्भीरायै नमः

 

५२. ॐ रूपान्वितायै नमः

 

५३. ॐ कालरात्र्यै नमः

 

५४. ॐ अनल्पसिद्धयै नमः

 

५५. ॐ कमलारी नमः

 

५६. ॐ पद्यवासिन्यै नमः

 

५७. ॐ महासरस्वत्यै नमः

 

५८. ॐ मन:सिद्धायै नमः

 

५९. ॐ मनोयोगिन्यै नमः

 

६०. ॐ मार्तगिन्यै नमः

 

६१. ॐ चण्डमुण्डचारिण्यै नमः

 

६२. ॐ दैत्यदानवनाशिन्यै नमः

 

६३. ॐ मेषज्योतिषायै नमः

 

६४. ॐ परंज्योतिषायै नमः

 

६५. ॐ आत्मज्योतिषायै नमः

 

६६. ॐ सर्वज्योतिस्वरूपिण्यै नमः ।।

 

६७. ॐ सहस्रमूत्यै नमः

 

६८. ॐ शर्वाण्यै नमः

 

६९. ॐ सूर्यमूर्तिस्यरूपिण्यै नमः

 

७०. ॐ आयुर्लक्ष्म्यै नमः

 

७१. ॐ विद्यालक्ष्म्यै नमः

 

७२. ॐ सर्वलक्ष्मीप्रदायै नमः

 

७३. ॐ विचक्षणायै नमः

 

७४. ॐ क्षीरार्णववासिन्यै नमः

 

७५. ॐ वागीश्वर्ये नमः

 

७६. ॐ वाक्सिङ्ख्यै नमः

 

७७. ॐ अज्ञानज्ञानगोचरायै नमः

 

७८. ॐ बलायै नमः

 

७९. ॐ परमकल्याण्यै नमः

 

८०. ॐ भानुमण्डलवासिन्यै नमः

 

८१. ॐ अव्यक्तायै नमः

 

८२. ॐ व्यपारी नम

 

८३. ॐ अव्यक्तस्यारी नमः

 

८४. ॐ अनन्‍ताये नमः

 

८५. ॐ चन्द्राय नमः

 

८६. ॐ चन्द्रमण्डलयाधिये नमः

 

८७. ॐ चन्द्रमण्डलमण्डिताः

 

८८. ॐ भरी नम:

 

८९. ॐ परमानन्दाय नमः

 

९०. ॐ शिवाय नम:

 

९१. ॐ अपराजिताय नमः

 

९२. ॐ ज्ञानप्रापयै नमः

 

९३. ॐ ज्ञानवत्‍यै नमः

 

९४. ॐ ज्ञानमूर्त्‍यै नमः

 

९५. ॐ कलावत्यै नमः

 

९६. ॐ श्मशानवासिन्यै नमः

 

९७. ॐ मात्रे नमः

 

९८. ॐ परमकल्पियन्यै नमः

 

९९. ॐ घोषवत्यै नमः

 

१००. ॐ दारिद्र्यहारिण्यै नमः

 

१०१. ॐ शिवतेजोमुख्यै नमः

 

१०२. ॐ विष्णुवल्लभायै नमः

 

१०३. ॐ केशविभूषितायै नमः

 

१०४. ॐ कूर्मायै नमः

 

१०५. ॐ महिषासुरघातिन्यै नमः

 

१०६. ॐ सर्वरक्षायै नमः

 

१०७. ॐ महाकाल्यै नमः

 

१०८. ॐ महालक्ष्म्यै नमः

 

।। इति श्री देवी-अष्टोत्तरशत-नामावली ।।

 

 

 

१५. देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रम्

(श्री शंकराचार्यकृतम्)

 

न मन्त्रं नो यन्‍त्रं तदपि च न जाने स्तुतिमहो

न चाह्वानं ध्यानं तदपि च न जाने स्तुति-कथाः ।

न जाने मुद्रास्ते तदपि च न जाने विलपनं

परं जाने मातस्त्वदनुसरणं क्लेश-हरणम् ।।१

 

विधेरज्ञानेन द्रविणविरहेणालसतया

विधेयाशक्यत्वात्तव चरणयोर्या च्युतिरभूत ।

तदेतत्क्षन्तव्यं जननि सकलोद्धारिणि शिवे

कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ।।२

 

पृथिव्यां पुत्रास्ते जननि बहवः सन्ति सरलाः

परं तेषां मध्ये विरलतरलोऽहं तव सुतः ।

मदीयोऽयं त्यागः समुचितमिदं नो तय शिवे

कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ।।३

 

जगन्मातर्मातस्तव चरणसेवा न रचिता

न वा दत्तं देवि द्रविणमपि भूयस्तव मया ।

तथापि त्वं स्नेहं मयि निरुपमं यत्प्रकुरुषे

कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ।।४

 

परित्यक्ता देवा विविधविधिसेवाकुलतया

मया पंचाशीतेरधिकमपनीते तु वयसि ।

इदानीं चेन्मातस्तव यदि कृपा नापि भविता

निरालम्बो लम्बोदरजननि कं यामि शरणम् ।।५

 

श्वपाको जल्पाको भवति मधुपाकोपमगिरा

निरातंको रंको विहरति चिरं कोटिकनकैः ।।

तवापर्णे कर्णे विशति मनुवर्णे फलमिदं

जनः को जानीते जननि जपनीयं जपविधौ ।।६

चिताभस्मालेपो गरलमशनं दिक्पटधरो

जटाधारी कण्ठे भुजगपतिहारी पशुपतिः ।

 

कपाली भूतेशो भजति जगदीशैकपदवीं

भवानी त्वत्पाणिग्रहणपरिपाटीफलमिदम् ।।७

 

न मोक्षस्याकांक्षा भवविभववांछापि च न मे

न विज्ञानापेक्षा शशिमुखि सुखेच्छापि न पुनः ।

अतस्त्यां संयाचे जननि जननं यातु मम वै

मृडानी रुद्राणी शिव शिव भवानीति जपतः ।।८

 

नाराधितासि विधिना विविधोपचारैः

किं रुक्षचिन्तनपरैर्न कृतं वचोभिः ।

श्यामे त्वमेव यदि किंचन मय्यनाथे

धत्से कृपामुचितमम्ब परं तवैव ।।९

 

आपत्सु मग्नः स्मरणं त्वदीयं

करोमि दुर्गे करुणार्णवेशि ।

नैतच्छठत्वं मम भावयेथाः

क्षुधातृषार्ता जननीं स्मरन्ति ।।१०

 

जगदम्ब विचित्रमत्र किं परिपूर्णा करुणास्ति चेन्मयि ।

अपराधपरम्परावृतं न हि माता समुपेक्षते सुतम् ।।११

 

मत्समः पातकी नास्ति पापघ्नी त्वत्समा न हि ।

एवं ज्ञात्वा महादेवि यथायोग्यं तथा कुरु ।।१२

 

इति श्रीमच्छंकराचार्यविरचितं देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।

 

 

१६. देवी-आरती

 

जै अम्बे गौरी!

 

मैया जय मंगलमूरती, मैया जै आनन्दकरणी,

तुमको निशिदिन ध्यावत, तुमको निशिदिन ध्यावत

हरि ब्रह्मा शिव री।।१ (ॐ जै अम्बे गौरी)

 

माँग सिन्दूर विराजत, टीको मृगमद को,

मैया टीको मृगमद को।

उज्वल से दोऊ नैना, उज्वल से दोऊ नैना,

चन्द्रवदन नीको ।।२ (ॐ जै अम्बे गौरी)

 

कनक समान कलेवर, रक्ताम्बर राजे,

मैया रक्ताम्बर राजे,

रक्तपुष्प वनमाला, रक्तपुष्प वनमाला,

कण्ठन पर साजे ।।३ (ॐ जै अम्बे गौरी)

 

केहरि वाहन राजत, शंख-खप्पर-धारी,

मैया शंख-खप्पर-धारी।

सुर नर मुनिजन सेवित, सुर नर मुनिजन सेवित,

तिनके दुःख हारी ।।४ (ॐ जै अम्बे गौरी)

 

कानन कुण्डल शोभित, नासाग्रे मोती,

मैया नासाग्रे मोती।

कोटिक चन्द्र दिवाकर, कोटिक चन्द्र दिवाकर,

राजत सम ज्योती ।।५ (ॐ जै अम्बे गौरी)

 

शुम्भ-निशुम्भ विदारे, महिषासुर घाती,

मैया महिषासुर घाती।

धूम्र-विलोचन नाशिनि, धून-विलोचन नाशिनि,

निशिदिन मदमाती ।।६ (ॐ जै अम्बे गौरी)

चौंसठ योगिनि गावत, नृत्य करत भैरूँ,

मैया नृत्य करत भैरूँ।

बाजत ताल मृदंगा, बाजत ताल मृदंगा,

अरु बाजत डमरू ।।७ (ॐ जै अम्बे गौरी)

 

भुजा चार अति शोभित, शंख-खप्पर-धारी,

मैया शंख-खप्पर-धारी।

मन वांछित फल पावत, मन वांछित फल पावत,

सेवत नर-नारि ।।८ (ॐ जै अम्बे गौरी)

 

कंचन थाल विराजत, अगर कपूर बाती,

मैया अगर कपूर बाती ।

श्री मालकेतु में राजत, श्री मालकेतु में राजत,

कोटि रतन ज्योती ।।९ (ॐ जै अम्बे गौरी)

 

यह अम्बे जी की आरती, जो कोई नित गावै,

मैया जो कोई नित गावै।

कहत शिवानन्द स्वामी, कहत शिवानन्द स्वामी,

सुख सम्पति पावै ।।१० (ॐ जै अम्बे गौरी)

 

१७. श्री गंगा-आरती

 

ॐ जय गंगे माता, मैया जय गंगे माता ।

जो नर तुमको ध्याता, जो नर तुमको ध्याता,

मनवांछित फल पाता ।। ॐ जय...

 

चन्द्र-सी ज्योति तुम्हारी, जल निर्मल आता,

मैया जल निर्मल आता,

शरण पड़े जो तेरी, शरण पड़े जो तेरी,

सो नर तर जाता ।।ॐ जय......

पुत्र सगर के तारे, सब जग को ज्ञाता,

मैया सब जग को ज्ञाता,

कृपा-दृष्टि तुम्हारी, कृपा-दृष्टि तुम्हारी,

त्रिभुवन सुखदाता ।। ॐ जय...

 

एक ही बार जो तेरी, शरणागत आता,

मैया शरणागत आता,

यम की त्रास मिटा कर, यम की त्रास मिटा कर,

परम गती पाता ।। ॐ जय...

 

आरती मात तुम्हारी, जो कोई नर गाता,

मैया जो कोई नर गाता,

दास वही सहज में, भक्त वही सहज में

मुक्ति को पाता ।। ॐ जय…

 

१८. श्रीसूक्तम्

 

हरिः ॐ ।। हिरण्यवर्णां हरिणीं सुवर्णरजतस्रजाम् । चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मी जातवेदो म आ वह ।। तां म आ वह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम् । यस्यां हिरण्यं विन्देयं गामश्वं पुरुषानहम् ।। अश्वपूर्वां रथमध्यां हस्तिनादप्रबोधिनीम्। श्रियं देवीमुपह्वये श्रीर्मा देवीर्जुषताम् ।। कां सोस्मितां हिरण्यप्राकारामाद्राँ ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीम् । पद्ये स्थितां पद्मवर्णा तामिहोपह्वये श्रियम् ।। चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं श्रियं लोके देवजुष्टामुदाराम् । तां पद्मिनीमीं शरणमहं प्रपद्येऽलक्ष्मीमें नश्यतां त्वां वृणे ।। आदित्यवर्णे तपसोऽधिजातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽथ बिल्वः । तस्य फलानि तपसा नुदन्तु मायान्तरा याश्च बाह्या अलक्ष्मीः ।। उपैतु मां देवसखः कीर्तिश्च मणिना सह। प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेऽस्मिन् कीर्तिमृद्धिं ददातु मे ।। क्षुत्पिपासामलां ज्येष्ठामलक्ष्मीं नाशयाम्यहम् । अभूतिमसमृद्धिं च सर्वां निर्णद मे गृहात् ।। गन्धद्वारां दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम्। ईश्वरीं सर्वभूतानां तामिहोपह्वये श्रियम्।। मनसः काममाकूतिं वाचः सत्यमशीमहि । पशूनां रूपमन्त्रस्य मयि श्रीः श्रयतां यशः ।। कर्दमेन प्रजाभूता मयि सम्भव कर्दम । श्रियं वासय मे कुले मातरं पद्ममालिनीम् ।। आपः सृजन्तु स्निग्धानि चिक्लीत वस मे गृहे । नि च देवीं मातरं श्रियं वासय मे कुले ।। आर्द्रा पुष्करिणीं पुष्टिं पिगंलां पद्ममालिनीम्। चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आ वह ।। आर्दा यः करिणीं यष्टिं सुवर्णां हेममालिनीम्। सूर्या हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आ वह ।। तां म आ वह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम् । यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावो दास्योऽश्वान् विन्देयं पुरुषानहम्।। यः शुचिः प्रयतो भूत्वा जुहुयादाज्यमन्वहम्। सूक्तं पंचदशर्च च श्रीकामः सततं जपेत् ।। पद्मानने पद्म ऊरू पद्माक्षी पद्मसम्भवे । तन्मे भजसि पद्माक्षि येन सौख्यं लभाम्यहम्।। अश्वदायी गोदायी धनदायी महाधने । धनं मे जुषतां देवि सर्वकामांश्च देहि मे ।। पद्मानने पद्मविपद्मपत्रे पद्यप्रिये पद्मदलायताक्षि । विश्वप्रिये विश्वमनोऽनुकूले त्वत्पादपद्यं मयि सन्निधत्स्व ।। पुत्रपौत्रधनं धान्यं हस्त्यश्वादिगवे रथम्। प्रजानां भवसी माता आयुष्मन्तं करोतु मे ।। धनर्मा र्धनं वायुर्धनं सूया धनं वसुः । धनमिन्ो बृहस्पतिर्वरुणं धनमस्तु ते ।। वैनतेय सोमं पिब सोमं पिबतु बृ हा । सोमं धनस्य सोमिनो म 'ददातु सोमिनः ।। न क्रोधो न च मात्सय न लोगो नाशुभा मतिः । भवन्ति कृतपु यानां भक्तानां श्रीसूक्तं जपेत्।। सरसिजनिलये सरोजहस्ते धवलतरांशुकगन्धमाल्यशोथे। भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे १ भुवनभूतिकरि प्रसीद म म्।। विष्णुपत्न क्षमां देव माधव माधवप्रियाम्। लक्ष्म प्रियसख देव नमाम्यच्युतवल्लभाम्।। महालक्ष्मी च विग्रहे विष्णुपत्नी च धीमहि । तन्नो लक्ष्मीः प्रचोदयात् ।। श्रीवर्चस्वमायुष्यमारो यमाविधाच्छोभमानं महीयते । धान्यं धनं पशुं बहपु लाभं शतसंवत्सरं दीर्घमायुः ।।

 

(पद्मप्रिये पद्मिनि पद्महस्ते पद्मालये पद्मदलायताक्षि। विश्वप्रिये विष्णुमनोऽनुकूले त्वत्पादपद्मं मयि सन्निधत्स्व ।।

 

श्रिये जात श्रिय आनिर्याय श्रियं वयो जनितृभ्यो दधातु । श्रियं वसाना अमृतत्वमायन् भजन्ति सद्यः सविता विदध्यून् ।। श्रिय एवैनं तच्छ्रियामादधाति । सन्ततमृचा वषट्कृत्यं सन्धत्तं सन्धीयते प्रजया पशुभिः ।। य एवं वेद ।। ॐ महादेव्यै च विद्महे विष्णुपत्न्यै च धीमहि । तन्नो लक्ष्मीः प्रचोदयात्।।)

 

हरिः ॐ ! शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

शनिवार

श्री शनैश्चरस्तोत्रम्

 

. शनिस्तोत्रम्

 

ॐ श्रीगणेशाय नमः । अस्य श्री शनैश्वरस्तोत्रम्य दशरथ ऋषिः । शनैश्वको देवता । विष्टुप् छन्दः । शनैश्चरप्रीत्यर्थे जपे विनियोगः ।।

 

दशरथ उवाच

 

क्कोणोऽन्तको रौद्रयमोऽथ बभ्रुः कृष्णः शनिः पिंगलमन्दसौरिः ।

नित्वं स्मृतो यो हरते च पीडां तस्मै नमः श्रीरविनन्दनाय ।।१

 

सुरासुराः किंपुरुषोरगेन्द्रा गन्धर्वविद्याधरपन्नगाश्च ।

पीड्यन्ति सर्वे विषमस्थितेन तस्मै नमः श्रीरविनन्दनाय ।।२

 

नरा नरेन्द्राः पशवो मृगेन्द्रा वन्याश्च ये कीटपतंगभृगाः ।

पीड्यन्ति सर्वे विषमस्थितेन तस्मै नमः श्रीरविनन्दनाय ।।३

 

देशाश्च दुर्गाणि वनानि यत्र सेनानिवेशाः पुरपत्तनानि ।

पीड्यन्ति सर्वे विषमस्थितेन तस्मै नमः श्रीरविनन्दनाय ।।४

 

तिलैर्यवैर्माषगुडान्नदानैर्लोहेन नीलाम्बरदानतो वा ।

प्रीणाति मन्त्रैर्निजवासरे च तस्मै नमः श्रीरविनन्दनाय ।।५

 

प्रयागकूले यमुनातटे च सरस्वतीपुण्यजले गुहायाम् ।

यो योगिनां ध्यानगतोऽपि सूक्ष्मस्तस्मै नमः श्रीरविनन्दनाय ।।६

 

अन्यप्रदेशात्स्वगृहं प्रविष्टस्तदीयवारे स नरः सुखी स्यात् ।

गृहागतो यो न पुनः प्रयाति तस्मै नमः श्रीरविनन्दनाय ।।७

 

सष्टा स्वयम्भूर्भुवनत्रयस्य आता हरीशो हरते पिनाकी।

एकस्त्रिधा ऋग्यजुःसाममूर्तिस्तस्यै नमः श्रीरविनन्दनाय ।।८

 

शन्यष्टकं यः प्रयतः प्रभाते नित्यं सुपुत्रैः पशुबान्धवैश्च ।

पठेत्तु सौख्यं भुवि भोगयुक्तः प्राप्नोति निर्वाणपदं तदन्ते ।।९

 

कोणस्थः पिंगलो बभुः कृष्णो रौद्रोऽन्तको यमः ।

सौरिः शनैश्चरो मन्दः पिप्पलादेन संस्तुतः ।।१०

 

एतानि दशनामानि प्रातरुत्थाय यः पठेत् ।

शनैश्चरकृता पीडा न कदाचिद् भविष्यति ।।११

 

हरिः ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।।

 

यह श्री शनैश्चर महाराज के विषय में दशरथकृत स्तोत्र है। शनैश्चर देवता है। छन्द त्रिष्टुप् है। शनैश्चर की प्रीति के लिए जप, प्रार्थना और योग का विधान कहते हैं।

 

दशरथ जी बोले :

 

मैं सूर्य -पुत्र की वन्दना करता हूँ, जिसको कोण, अन्तक, रौद्र, यम, बच्नु, कृष्ण, शनि, पिंगल, मन्द और सौरि नामों से नित्य-प्रति स्मरण किया जाता है। जो कोई इस प्रकार उनकी वन्दना करते हैं, उनके सभी कष्टों को शनैश्चर महाराज हर लेते हैं।॥१

 

मैं सूर्यतनय की प्रार्थना करता हूँ, जो विषम राशि में रहते और देवताओं, राक्षसों, वरुण, गन्धवों, विद्याधरों और सर्पों-सभी को पीड़ा देते हैं।॥२

 

मैं रविनन्दन की वन्दना करता हूँ, जो विषम राशि में स्थित रह कर नरों, राजाओं, जानवरों, सिंहों, वन-जन्तुओं, कीड़ों, मधुमक्खियों-सबको पीड़ित करते हैं।।३

 

मैं रविनन्दन की वन्दना करता हूँ, जो विषम राशि में रह कर देशों, दुगर्गों, अरण्यों, सैन्यदलों, नगरों और मण्डलों को क्लेश देते हैं।।४

 

रविनन्दन को नमस्कार, जिन्हें मन्त्र, तिल, जौ, गुड़, चना, चावल, धातु की मूर्तियाँ और नीले वस्त्र दे कर प्रसन्न किया जाता है।॥५

 

रविनन्दन को नमस्कार, जो बहुत ही सूक्ष्म हैं, यद्यपि वे योगियों को गुहाओं में, प्रयाग और यमुना के फूलों पर और सरस्वती के पवित्र जल में ध्यान द्वारा मिलते हैं ।।६

 

दिवाकरनन्दन को जमस्कार, जो दूसरे गृह में से शनिवार को अपने गृह में पहुँचने हैं, तो लोगों को प्रसत्र रखते हैं और जो एक बार गृह छोड़ देने पर फिर बहुत वर्षों तक उधर नहीं लौटते हैं।11७

 

दिनकरनन्दन को नमस्कार, जो यद्यपि एक हैं फिर भी ब्रह्मा हो कर तीनों लोकों pi सृजन करते, हरि हो कर रक्षा करते तथा शिव हो कर विनाश करते हुए तीन भिन्न रूपों में प्रकट होते हैं और जो ऋक्, यजु और साम के रूप हैं ।।८

 

जो इस शनिस्तोत्र का पाठ अपने पुत्र, सम्बन्धी, धनादि सहित प्रातःकाल दृढ़ चित्त हो कर करते हैं, वे इस लोक में सुखों को भोगते और अन्ततः निर्वाण की प्राप्ति करते हैं।।९

 

कोणस्थ, पिंगल, बभ्रु, कृष्ण, रौद्र, अन्तक, यम, सौरि, शनैश्चर और मन्द के नामों से पिप्पलाद द्वारा संस्तुत हुए हैं ।।१०

 

जो प्रातःकाल उठ कर इन दश नामों का पाठ करता है, उसको शनैश्चर की ओर से किसी प्रकार का दुःख नहीं होता ।।११

 

श्री हनुमत्स्तोत्रम्

. वन्दे सन्तं श्री हनुमन्तम्

 

श्लोक

 

यत्र यत्र रघुनाथकीर्तनं, तत्र तत्र कृतमस्तकांजलिम् ।

बाष्पवारि-परिपूर्णलोचनं, मारुतिं नमत राक्षसान्तकम् ।।

 

मैं वायुपुत्र हनुमान् को प्रणाम करता हूँ जो जहाँ कहीं भी भगवान् राम का कीर्तन किया जाता है, वहाँ भक्ति से शिर के ऊपर हाथ जोड़ कर तथा आँखों में आनन्दाश्रु भर कर उपस्थित रहते हैं और जो राक्षसों के लिए काल के समान हैं।

 

गीत

 

खन्दे सन्तं श्रीहनुमन्तं, रामदास-ममलं बलवन्तम् ।।१।। वन्दे....

 

प्रेमरुद्धगल-मश्रु वहन्तम्, पुलांकित-वपुषा विलयन्तम् ।

रामकथामृत-मधूनि पिबन्तम्, परम-प्रेम-भरेण नटन्तम् ।।२।। वन्दे.... 

 

सर्वं राममयं पश्यन्तम्, राम राम इति सदा जपन्तम्।

सद्भक्ति-पथं समुपदिशन्तम्, विठ्ठलपन्तं प्रतिमुखयन्तम् ।।३।। वन्दे....

 

मैं सन्त-हृदय श्री हनुमान् जी को नमस्कार करता हूँ जो भगवान् राम के अनन्य भक्त हैं, जो शुद्ध तथा सबल हैं ।।१

 

जिनका कण्ठ भक्ति से रुद्ध है, आँखों से आनन्दाश्रुओं की धारा प्रवाहित हो रही है तथा जिनका सम्पूर्ण शरीर रोमांच से पुलकित हो रहा है। जो भगवान् राम के कथा-रुपी अमृत का मधुपान करते तथा परम भक्ति के साथ नृत्य करते हैं।।२

 

जो सब-कुछ भगवान् राम के ही रूप में देखते हैं तथा जो सदा 'राम-नाम' जप करते हैं। जो श्रेष्ठ भक्ति-मार्ग का पथप्रदर्शन करते हैं, भगवान् के साथ परम अनुरक्त हैं तथा सुख को प्रदान करने वाले हैं ।।३

 

नामावली

 

आंजनेय आंजनेय आंजनेय पाहि माम् ।

हनुमन्त हनुमन्त हनुमन्त रक्ष माम् ।।

 

. जयतिमंगलागार

(श्री तुलसीदासकृतम्)

 

मनोजवं मारुततुल्यवेगं, जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम् ।

वातात्मजं वानरयूथ-मुख्यं, श्रीरामदूतं शिरसा नमामि ।।

 

मैं उस श्री रामदूत को अपने मस्तक से प्रणाम करता हूँ जो मन और वायु के समान गति वाला है, जिसने इन्द्रियों पर काबू पा लिया है, जो समस्त बुद्धिमानों में श्रेष्ठ है, जो वायुपुत्र है और जो वानर-सेना का प्रमुख है।

 

गीत

 

जयति मंगलागार संसार-भारापहार,

वानराकार-विग्रह-पुरारि।

राम-रोषानल-ज्वाल-माला मिष-ध्यान्त-चर-

शलभसंहारकारि ।।१

 

जयति मरुदंजना-मोद-मन्दिर

नत-ग्रीव सुग्रीव-दु:खैकबन्धो ।

यातुधानोद्धत-क्रुद्ध-कालाग्रिहर

सिद्ध-सुर-सजनानन्द-सिन्धो ।।२

 

जयति रुद्राग्रणि विश्व-वन्द्याग्रणि,

विश्व-विख्यात-भट-चक्रवर्ति।

साम-गाताग्रणि काम-जेताग्रणि

राम-हित राम-भक्तानुवर्ति ।।३

 

जयति संग्राम-जय राम-सन्देश-हर,

कौशल-कुशल-कल्याण-भाषि ।

राम-विरहार्क-सन्तप्त-भरतादि-नर-

नारी-शीतल-करण-कल्पशशि ।।४

 

जयति सिंहासनासीन सीतारमण

निरखि-निर्भर हरष-नृत्यकारी ।

राम-साम्राज्य शोभा-सहित सर्वदा,

तुलसी-मानस-रामपुर-विहारी ।।५

 

हे हनुमान, तेरी जय हो। तू मंगलों का घर है, (जन्म-मृत्यु-रूपी) संसार के भार को हलका करने वाला है। तू स्वयं वानर-वेषधारी भगवान् शिव है। तू श्रीराम के क्रोधरूपी अग्निशिखा के मिस में राक्षसरूपी पतंगों का संहार करने वाला है ।।१

 

तेरी जय हो। तू वायु देव और अंजना देवी के आनन्द का मन्दिर है। दुःख से जिसका मस्तक झुक गया था, उस सुग्रीव के दुख में तू ही एकमात्र मित्र रहा है। तू क्षुब्ध राक्षसों के कालागि सदृश क्रोष को मिटाने वाला और सिद्ध पुरुषों, देवताओं तथा सज्जनों को आनन्द देने वाला महासागर है ।।२

तेरी जय हो ! एकादश रुद्रों में तू सर्वप्रथम है। विश्वभर में जितने भी पूजनीय हैं, उन सबमें तू उत्कृष्ट है। तू विश्वविख्यात योद्धाओं का सम्राट् है। सामवेद के गायकों और कामविजेताओं में भी तू प्रथम है और भगवान् रामचन्द्र का भला करने वाला तथा श्रीराम के भक्तों का अनुयायी है ।।३

 

तेरी जय हो! तू संग्रामों का विजेता है, श्री रामचन्द्र जी का सन्देशवाहक है, अयोध्या में श्रीराम का कुशल-समाचार पहुँचाने वाला है। भरत आदि नर-नारी जन श्रीराम के वियोग-रूपी सूर्य से सन्तप्त थे, तब उनको शीतलता पहुँचाने वाला कल्पतरु तू ही था ।।४

 

तेरी जय हो! श्रीराम जब सिंहासन पर विराजमान हुए तब उन्हें देख कर आनन्द-विभोर हो नृत्य करने वाला तू ही है। जिस प्रकार अयोध्या में श्री रामचन्द्र अपनी समस्त शोभा के साथ विराजमान हैं, उसी प्रकार तुलसीदास की मानसरूपी अयोध्या में तू सर्वदा विराजमान रहे ।।५

 

नामावली

 

श्रीरामदूत जय हनुमन्त पाहि माम् ।

श्रीरामदूत जय आंजनेय रक्ष माम्।।

 

. राम सुमिर राम सुमिर

(श्री गुरुनानककृत)

 

आपदामपहर्तारं दातारं सर्वसम्पदाम् ।

लोकाभिरामं श्रीरामं भूयो भूयो नमाम्यहम् ।।

 

मैं भगवान् श्रीराम को बारम्बार नमस्कार करता हूँ जो सम्पूर्ण आपत्तियों को दूर करते हैं, अखिल सम्पत्तियों को प्रदान करते हैं और समस्त संसार को आनन्दित करते हैं।

 

गीत

 

राम सुमिर राम सुमिर, एहि तेरो काज है।

 

माया की संग त्याग, हरिजू की सरन लाग।

जगत सुख मान मिथ्या, झूठी सब साज है ।।१

 

सुपने ज्यों धन पिछान, काहे पर करत मान।

बारू की भीत तैसे, बसुधा की राज है ।।२

 

'नानक' जन कहत बात, बिनसि जैहैं तेरो गात ।

छिन-छिन करि गयो काल्ह, तैसे जात आज है ।।३

 

रे मन, श्रीराम का स्मरण कर, श्रीराम का स्मरण कर। तेरा एकमात्र यही कर्तव्य है।

 

माया का साथ छोड़ दे। भगवान् की शरण ग्रहण कर। जगत् के सुख को मिथ्या समझ । सांसारिक ऐश्वर्य झूठा है। तू राम का स्मरण कर ।।१

 

धन को स्वप्नवत् समझ । इस संसार का राज्य एक बालू की दीवार के समान (क्षणभंगुर) है। फिर तू किस पर अभिमान कर रहा है? तू राम का स्मरण कर ।।२

 

नानक जी यह बात कह रहे हैं कि एक दिन तेरा शरीर नाश को प्राप्त होगा। पल-पल करके कल का दिन व्यतीत हो चला और उसी भाँति आज भी (पल-पल कर) व्यतीत हो जायेगा। तू राम का स्मरण कर ।।३

 

नामावली

 

राम राम राम सीता राम राम ।

राम राम राम सीता राम राम ।।

 

श्री राम-स्तोत्रम्

. शुद्ध ब्रह्म परात्पर राम

 

श्लोक

 

मंगलं रामचन्द्राय, महनीय गुणाब्धये ।

चक्रवर्ति-तनूजाय, सार्वभौमाय मंगलम् ।।

मंगलं सत्यपालाय, धर्म-संस्थिति-हेतवे ।

सीता-मनोभिरामाय, रामचन्द्राय मंगलम् ।।

 

भगवान् राम का मंगल हो। जो सद्गुणों के सागर हैं, जो चक्रवर्ती राजा के पुत्र हैं, जो स्वयं सम्राट् हैं, उन राम का मंगल हो। भगवान् राम का मंगल हो! जो सत्य की रक्षा करते हैं, जो धर्म के संस्थापक हैं और जो देवी सीता के मन को आनन्द देने वाले हैं, उन रामचन्द्र का मंगल हो!

 

बालकाण्ड

 

श्री राम जय राम जय जय राम ।

श्री राम जय राम जय जय राम ।।

श्री राम जय राम जय जय राम ।

श्री राम जय राम जय जय राम ।।

श्री राम जय राम जय जय राम ।

श्री राम जय राम जय जय राम ।।

श्री राम जय राम जय जय राम ।

श्री राम जय राम जय जय राम ।।

शुद्ध ब्रह्म परात्पर          राम

कालात्मक परमेश्वर          राम

शेषतल्प-सुख-निद्रित         राम

ब्रह्माद्यमरगण-प्रार्थित       राम

चण्ड-किरण-कुल-मण्डन       राम

श्रीमद्दशरथ-नन्दन          राम

कौशल्या-सुख-वर्द्धन         राम

विश्वामित्र-प्रिय-धन          राम

घोर-ताड़का-घातक           राम

मारीचादि-निपातक          राम

कौशिक-मख-संरक्षक         राम

श्रीमदहल्योद्धारक                 राम

गौतम-मुनि सम्पूजित        राम

सुर-मुनि-वर-गण संस्तुत      राम

नाविक-धावित-मृदु-पद        राम

मिथिला-पुर-जन-मोदक       राम

विदेह-मानस रंजक           राम

त्र्यम्बक-कार्मुक-भंजक        राम

सीतार्पित-वरमालिक          राम

कृत-वैवाहिक-कौतुक          राम

भार्गव-दर्प-विनाशक          राम

श्रीमदयोध्या-पालक          राम

 

रघुपति राघव राजा राम।

पतित पावन सीता राम ।।

 

 

 

 

 

अयोध्याकाण्ड

 

रघुपति राघव राजा राम।

पतित पावन सीता राम ।।

 

अगणित-गुणगण-भूषित             राम

अवनीतनया-कामित                राम

राकाचन्द्र-समानन                 राम

पितृवाक्याश्रित-कानन               राम

प्रिय-गुह-विनिवेदित पद             राम

तत्क्षालित-निजमृदु-पद              राम

भरद्वाज-मुखानन्दक               राम

चित्रकूटाद्रि-निकेतन                राम

दशरथ-संतत चिन्तित              राम

कैकेयी-तनयार्चित                  राम

विरचित-निज-पितृकर्मक             राम

भरतार्पित-निज-पादुकोण             राम

 

रघुपति राघव राजा राम।

पतित पावन सीता राम ।।

 

अरण्यकाण्ड

 

रघुपति राघव राजा राम ।

पतित पावन सीता राम ।।

 

दण्डक-वन-जन-पावन        राम

दुष्ट-विराध-विनाशन         राम

शरभंग-सुतीक्ष्णार्चित         राम

अगस्त्यानुग्रह-वर्धित         राम

गृध्राधिप-संसेवित            राम

पंचवटी-तट-सुस्थित          राम

शूर्पणखार्ति-विधायक         राम

खरदूषण-मुख-सूदक          राम

सीताप्रिय-हरिणानुग          राम

मारीचार्ति-कृदाशुग           राम

अपहृत-सीतान्वेषक           राम

गृध्राधिप-गतिदायक          राम

शबरीदत्त-फलाशन            राम

कबन्ध-बाहुच्छेदक           राम

रघुपति राघव राजा राम।

पतित पावन सीता राम ।।

 

किष्किन्धाकाण्ड

 

रघुपति राघव राजा राम।

पतित पावन सीता राम ।।

हनुमत्-सेवित-निजपद        राम

नतसुग्रीवाभीष्टद            राम

गर्वित-वालि-संहार            राम

वानर-दूत-प्रेषक             राम

हितकर-लक्ष्मण-संयुत        राम

कपिवर-संतत-संस्मृत         राम

 

रघुपति राघव राजा राम ।

पतित पावन सीता राम ।।

 

सुन्दरकाण्ड

 

रघुपति राघव राजा राम।

पतित पावन सीता राम ।।

तद्गति-विघ्न-ध्वंसक        राम

सीता-प्राणाधारक            राम

दुष्ट-दशानन-दूषित           राम

 

शिष्ट-हनुमत्-भूषित          राम

सीतावेदित-कानन           राम

कृत-चूड़ामणि-दर्शन          राम

कपिवर-वचनाश्वासित         राम

रावण-निधन-प्रस्थित         राम

 

रघुपति राघव राजा राम ।

पतित पावन सीता राम ।।

 

युद्धकाण्ड

 

रघुपति राघव राजा राम ।

पतित पावन सीता राम ।।

वानर-सैन्य-समावृत          राम

शर-शोषित-रत्नाकर          राम

विभीषण भयदायक          राम

पर्वत-सेतु-निबन्धक          राम

कुम्भकर्ण-शिरच्छेदक         राम

राक्षस-संघ-विमर्दक           राम

अहिमहिरावण-चारक          राम

संहत-दशमुख-रावण          राम

विधिभवमुखसुरसंस्तुत        राम

खस्थित-दशरथ-वीक्षित        राम

सीतादर्शन-मोदित            राम

अभिषिक्त-विभीषण-नुत       राम

पुष्पकयानारोहण            राम

भरद्वाजाभिनिषेवन          राम

भरत प्राणप्रिय-कारक         राम

अवधपुरी कुलभूषण          राम

सकल-सत्त्वसमानन          राम

रत्नलसत्-पीठस्थित          राम

पट्टाभिषेकालंकृत           राम

पार्थिवकुल सम्मानित        राम

विभीषणार्पित रंजक          राम

कीशकुलानुग्रहकर           राम

सकलजीव-संरक्षक           राम

समस्त-लोकोद्धारक         राम

रघुपति राघव राजा राम ।

पतित पावन सीता राम ।।

 

नामावली

 

रघुपति राघव राजा राम।

पतित पावन सीता राम ।।

ईश्वर अल्ला तेरे नाम ।

सबको सन्मति दे भगवान् ।।

 

हे रघुवंश के प्रभु, सूर्यवंशी राजा रघु के वंश में जन्म-ग्रहण करने वाले, पतितों को शुद्ध करने वाले, हे सीताराम, ईश्वर और अल्ला तेरे ही नाम हैं। हे भगवान्! सबको सद्बुद्धि प्रदान कर !

. रामचन्द्र रघुवीर

 

रामचन्द्र रघुवीर रामचन्द्र रणधीर

रामचन्द्र रघुनाथ रामचन्द्र जगन्नाथ ।

रामचन्द्र रघुराम रामचन्द्र परं-धाम

रामचन्द्र मम बन्धो रामचन्द्र दयासिन्धो ।।

 

श्री रामचन्द्र रघुवंश के योद्धा हैं। श्री रामचन्द्र युद्धक्षेत्र में दृढ़ और शान्त रहने वाले हैं। श्री रामचन्द्र रघु के वंश के स्वामी हैं। श्री रामचन्द्र अखिल विश्व के प्रभु हैं। श्री रामचन्द्र रघुवंशियों को आनन्द देने वाले हैं। श्री रामचन्द्र परम-पद हैं। श्री रामचन्द्र मेरे बन्धु हैं। श्री रामचन्द्र दया के सागर हैं।

 

 

. खेलति मम हृदये

 

श्लोक

 

जयतु जयतु मन्त्रं, जन्म-साफल्य-मन्त्रं

जनन-मरण-भेद-क्लेश-विच्छेद-मन्त्रम् ।।

सकल-निगम-मन्त्रं सर्व-शास्त्रैकमन्त्रं

रघुपति-निज-मन्त्रं राम-रामेति मन्त्रम् ।।

 

उस मन्त्र की जय हो, जो मानव-जन्म को सफल बनाता है, जन्म-मृत्यु, भेद तथा क्लेश का समूल नाश करता है और जो सभी वेदों का मन्त्र है, वह एक मन्त्र जो सभी शास्त्रों में पाया जाता है, जो भगवान् राम का अपना मन्त्र- 'राम-राम' मन्त्र है।

 

गीत

 

खेलति मम हृदये रामः खेलति मम हृदये ।

मोह-महार्णव-तारणकारी

राग-द्वेष-मुखासुर-मारी ।।१ (खेलति...)

शान्ति-विदेह-सुता-सहचारी,

दहरायोध्या नगर-विहारी ।।२ (खेलति…)

परमहंस-साम्राज्योद्धारी,

सत्य-ज्ञानानन्द-शरीरी ।।३ (खेलति...)

 

वह राम मेरे हृदय में खेलता है, वह मेरे हृदय में खेलता है।

 

वह प्राणी को मोह (अज्ञान) के महासागर से पार उतारता है, वह राग-द्वेषादि असुरों का संहार करता है ।।१

 

जिसकी सहचरी शान्ति है, सीता है तथा जो अयोध्या नगर (हृदयाकाश) में विहार करता है ।।२

 

जो परमहंसों के साम्राज्य का उद्धारक है तथा जिसका शरीर सत्य, ज्ञान तथा आनन्द है (वह राम मेरे हृदय में खेलता है) ।।३

 

नामावली

 

राम राम राम राम राम-नाम तारकम् ।

राम-कृष्ण-वासुदेव भक्ति-मुक्ति-दायकम् ।।

जानकी-मनोहरं सर्व-लोक-नायकम्।

शंकरादि सेव्यमान पुण्य नाम कीर्तनम् ।।

 

. प्रेम मुदित मन से कहो

 

प्रेम मुदित मन से कहो

राम राम राम श्री राम राम राम,

राम राम राम श्री राम राम राम ।।१

 

पाप कटे दुःख मिटे, लेत राम-नाम,

भव-समुद्र-सुखद-नाव एक राम-नाम ।।२ श्री राम...

 

परम-शान्ति-सुख-निधान, दिव्य राम-नाम,

निराधार को अधार, एक राम नाम ।।३ श्री राम...

 

परम गोप्य परम इष्ट-मन्त्र राम-नाम,

सन्त-हृदय-सदा-बसत, एक राम-नाम ।।४ श्री राम...

 

महादेव सतत जपत, दिव्य राम-नाम,

काशी-मरत मुक्ति करत, कहत राम-नाम ।।५ श्री राम…

 

मात-पिता बन्धु सखा सब ही राम-नाम,

भक्त-जनन-जीवन-धन, एक राम-नाम ।।६ श्री राम...

 

अर्थ

 

प्रेम और आनन्दपूर्ण मन से बार-बार राम-नाम लेते रहो ।।१

 

राम का नाम लेने से पाप और दुख दूर हो जाते हैं। संसार-रूपी सागर को सुखपूर्वक पार करने के लिए राम का नाम ही नौका है।।२

 

भगवान् राम का दिव्य नाम परम शान्ति और आनन्द का धाम है। जिसका कोई आश्रय नहीं, उन निराश्रितों के लिए एकमात्र राम नाम ही आश्रय है।।३

 

राम-नाम बहुत ही गोपनीय इष्ट-मन्त्र है। राम-नाम सन्तों के हृदय में सदा निवास करता है ।।४

 

भगवान् शिवजी सदा राम-नाम का जप करते रहते हैं। काशी नगरी में राम-नाम का उच्चारण करते हुए शरीर त्याग करने वाले प्राणियों को वह मुक्ति प्रदान करते हैं ।।५

 

राम का नाम माता, पिता, भाई, मित्र-सब-कुछ ही है। राम-नाम भक्तों का जीवन-धन है ।।६

 

. पिब रे राम-रसम्

(श्री सदाशिवब्रह्मेन्द्रकृतम्)

 

श्लोक

 

वैदेही-सहितं सुर-दुम-तले हैमे महा-मण्डपे,

मध्येपुष्पकमासने मणिमये वीरासने संस्थितम् ।

अग्रे वाचयति प्रभंजन-सुते तत्त्वं मुनिभ्यः परं,

व्याख्यान्तं भरतादिभिः परिवृतं रामं भजे श्यामलम् ।।

 

मैं श्यामल राम की पूजा करता हूँ जो रत्न-जटित आसन पर पुष्पों से आभूषित वीरासन में स्वर्ण-मण्डप के बीच में कल्पवृक्ष के नीचे भगवती सीता के सहित बैठे हैं, जिनके समक्ष हनुमान् जी ज्ञानियों को परम तत्त्व का उपदेश दे रहे हैं और जो भरत आदि से परिवृत हैं।

गीत

 

पिब रे राम-रसम् रसने, पिब रे राम-रसम् ।

दूरीकृत-पातक-संसर्ग

पूरित-नानाविध-फल-वर्गम् ।।१ पिब रे...

 

जनन-मरण-भय-शोक-विदूरं

सकल-शास्त्र-निगमागम-सारम् ।।२ पिब रे...

 

परिपालित-सरसिज-गर्भाण्डं

परम-पवित्रीकृत-पाषण्डम् ।।३ पिव रे...

 

शुद्ध-परमहंसाश्रम-गीतं

शुक-शौनक-कौशिक-मुख-पीतम् ।।४ पिव रे...

 

राम-नाम के रस का पान करो, हे मेरी जिह्वा ! राम-नाम-सुधा का पान करो। जो पाप-कलुष को नष्ट करता है तथा जो नाना प्रकार के पुष्प-फलों से सम्पन्न है ।।१

 

जो जन्म-मृत्यु के भय तथा शोकों को दूर करता है तथा जो सारे शास्त्र, निगम तथा आगमों का सार है ।।२

 

जो ब्रह्मा द्वारा रचित सारे लोकों की रक्षा करता है तथा जो पाखण्डियों को भी धार्मिक बना डालता है ।।३

 

जो परमहंसों के आश्रम में (परमहंसों द्वारा) गाया जाता है, जो शुक, शौनक, कौशिक आदि के द्वारा पिया जाता है। हे जिह्ने ! उसी राम-नाम-रूपी सुधा का पान कर ।।४

 

 

 

नामावली

 

श्री राम जय राम जय जय राम ।

श्री राम जय राम जय जय राम ।

श्री राम जय राम जय जय राम ।

१०. भज रे रघुवीरम्

(श्री सदाशिवब्रह्मेन्द्रकृतम्)

 

श्लोक

 

श्री रामचन्द्र-चरणौ मनसा स्मरामि,

श्री रामचन्द्र-चरणौ वचसा गृणामि ।

श्री रामचन्द्र - चरणौ शिरसा नमामि,

श्री रामचन्द्र-चरणौ शरणं प्रपद्ये ।।

 

श्री रामचन्द्र के चरणों का मन से ध्यान करता हूँ, वाणी से उन चरणों का गुणगान करता हूँ। मस्तक से चरणों को प्रणाम करता हूँ और उन्हीं चरणों की शरण जाता हूँ।

 

गीत

 

भज रे रघुवीरम् मानस, भज रे रघुवीरम् ।

 

अम्बुद-डिम्भ-विडम्बन-गात्रम्

अम्बुद-वाहन-नन्दन-दात्रम् ।।१ भज रे...

 

कुशिक-सुतार्पित-कार्मुकवेदम्

वशि-हृदयाम्बुज-भास्करपादम् ।।२ भज रे...

 

कुण्डल-मण्डन-मण्डित-कर्णम्

कुण्डलि-भंजकमद्भुत-वर्णम् ।।३ भज रे...

 

दण्डित-सुन्द-सुतादिक-वीरम्

मण्डितमनुकुलमाश्रय शौरिम् ।।४ भज रे..

 

परमहंस मखिलागम-वेद्यम्

परमवेदमकुट-प्रतिपाद्यम् ।।५ भज रे...

 

कालाम्भोधर-कान्त-शरीरम्

कौशिक-शुक-शौनक-परिवारम् ।।६ भज रे...

 

कौसल्या-दशस्थ-सुकुमारम्

कलि-कल्मष-भय-गहन-कुठारम् ।।७ भज रे…

 

परमहंस हत्पद्य-विहारम्

प्रतिहत-दशमुख-बल-विस्तारम् ।।८ भज रे...

 

रघुकुल-वीर श्री राम का भजन कर। रे मन, उस रघुवीर का भजन कर।

 

उसका शरीर नवमेघ के समान श्याम है और देवेन्द्र-पुत्र बालि का उसने संहार किया है ।।१

 

कुशिक पुत्र श्री विश्वामित्र से उसने धनुर्विद्या सीखी है और उसका चरण योगी जनों के हृदयरूपी कमल के लिए सूर्यकिरणों के समान आनन्द देने वाला है।।२

 

उसके कानों में सुन्दर केयूर सुशोभित हैं, उसके गुण अद्भुत हैं, उसने आदिशेष को अपना पलंग बनाया है।।३

 

सुन्द-राक्षस के पुत्र मारीच आदि को उसने दण्ड दिया है और चक्रवर्ती मनु के कुल को सुशोभित किया है और वह भक्तों का आश्रय तथा विष्णु है ।।४

 

वह स्वयं परमहंस योगी है, अखिल वेद-शास्त्र द्वारा वह ज्ञेय है तथा बेद और उपनिषदों में उसका वर्णन किया गया है।।५

 

उसका शरीर मेघ के समान कृष्ण है और उसके परिजन विश्वामित्र, शुक, शौकनादि हैं ।।६

 

वह कौसल्या और दशरथ का प्रिय पुत्र है और कलियुग का जो महा गहन पाप-भय है, उसके लिए वह कुठार के समान है ।।७

 

वह परमहंस योगियों के हृदय-रूपी कमल में विहार करता है और दशमुख रावण के अमित पराक्रम को भी उसने कुण्ठित कर दिया है ।।८

नामावली

 

१. राम राम श्री राम राम

२. राम राम सीताभिराम

३. राम राम श्रृंगार-राम

४. राम राम कल्याण-राम

५. राम राम कोदण्ड-राम

६. राम राम पट्टाभि-राम

७. राम राम आनन्द-राम

८. राम राम श्री राम राम

 

११. भज मन रामचरण सुखदाई

(श्री तुलसीदासकृत)

 

श्लोक

 

पूर्व रामतपोवनादि गमनं हत्वा मृगं कांचनं,

वैदेही-हरणं जटायु-मरणं सुग्रीव-सम्भाषणम् ।

वाली-निग्रहणं समुद्र-तरणं लंकापुरी-दाहनं,

पश्चाद्रावण-कुम्भकर्ण-मथनं एतद्धि रामायणम् ।।

 

प्रारम्भ में राम का वनवास, फिर सुवर्ण मृग का हनन, सीता जी का अपहरण, जटायु का मरण, सुग्रीव के साथ बातचीत, बालि का सहार, समुद्र का तरण, लकानगरी का दहन, फिर रावण, कुम्भकर्णादि का नाश-यह है रामायण।

 

गीत

 

भज मन रामचरन सुखदाई। ओ मन रामचरन सुखदाई ।

 

जिहि चरनन से निकसी सुरसरि संकर जटा समाई ।

जटासंकरी नाम पस्यो है, त्रिभुवन तारण आई ।।१।। भज मन...

 

जिन चरनन की चरनपादुका, भरत रह्यो लौ लाई।

सोई चरन केवट धोइ लीने, तब हरि नाव चलाई।। भज मन...

 

सोइ चरन सन्तन जन सेवत, सदा रहत सुखदाई।

सोइ चरन गौतम ऋषि-नारी, परसि परम-पद पाई ।। भज मन...

 

दण्डक-बन प्रभु पावन कीन्ही, ऋषियन त्रास मिटाई।

सोत्र प्रभु त्रिलोक के स्वामी कनक-मृगा सँग धाई ।।४।। भज मन...

 

कपि सुग्रीव बन्धु-भय-ब्याकुल, तिन जय-छत्र फिराई।

रिपु को अनुज बिभीषन निसिचर, परसत लंका पाई ।।५ ।। भज मन...

 

सिव सनकादिक अरु ब्रह्मादिक सेष सहस मुख गाई।

तुलसिदास मारुतसुत की प्रभु निज मुख करत बड़ाई ।।६।। भज मन...

 

हे मन, श्री राम के उन सुखदायक चरणों का सेवन कर।

 

जिन चरणों से गंगा निकली और शिवजी की जटा में समायी है, जिससे उसका नाम जटाशंकरी पड़ा है। वह तीनों लोकों को तारने के लिए आयी है ।।१

 

जिन चरणों की पादुका को श्री भरत जी ले गये थे और जिसकी भक्ति की थी। जिन चरणों को निषादराज गुह ने धोया था और तब भगवान् की नाव चलायी थी ।।२

 

उन चरणों का सारे सन्त-जन ध्यान कर सदा कल्याणकारी बने रहते हैं। उन्हीं चरणों के स्पर्श से गौतम ऋषि की पत्नी अहल्या जी ने परम-पद को प्राप्त किया था ।। ३

 

प्रभु ने अपने चरणों से दण्डकारण्य को पवित्र किया और वहाँ के ऋषियों का दुःख दूर किया। वही त्रिलोक के स्वामी उन चरणों से कांचनमृग के पीछे दौड़े थे ।।४

 

उन चरणों की कृपा से सुग्रीव को, जो अपने भाई से डरा हुआ था, विजय प्राप्त हुई, वैसे ही शत्रु रावण के भाई विभीषण को भी उन चरणों के स्पर्श-मात्र से लंका का राज्य प्राप्त हुआ ।।५

उन चरणों की स्तुति शिवजी, सनकादि ऋषि, ब्रह्मा आदि देवता, सहस्रमुख वाले शेषनाग आदि करते हैं। तुलसीदास कहते हैं कि भगवान् रामचन्द्र अपने मुख से हनुमान् जी का गुणगान करते हैं।।६

 

नामावली

 

श्री राम राम जय राम । सीताभिराम जय राम ।।

कोदण्ड-राम जय राम । कल्याण-राम जय राम ।।

पट्टाभि-राम जय राम । आनन्द-राम जय राम ।।

लोकाभिराम जय राम । श्री राम राम जय राम ।।

 

१२. चेतः श्री रामम्

(श्री सदाशिवब्रह्मेन्द्रकृतम्)

 

श्लोक

 

चिदाकारो धाता परम-सुखदः पावनतनुः,

मुनीन्द्रः योगीन्द्रः यतिपति-सुरेन्द्रः हनुमता ।

सदा सेव्यः पूर्णो जनक-तनयांकः सुरगुरु,

रमा-नाथो रामो रमतु मम चित्ते तु सततम् ।।

 

वह श्रीराम ज्ञानस्वरूप है, विश्व का स्रष्टा है, परम सुख देने वाला है, उसका शरीर पवित्र है, मुनिश्रेष्ठों, योगीन्द्रों, यतिश्रेष्ठों तथा महान् देवताओं और हनुमान् जी से सदा सेवा स्वीकार कर रहा है, पूर्ण पुरुष है, अपनी गोद में सीता जी को बैठाये है, देवताओं का भी गुरु है, श्री लक्ष्मी जी का स्वामी है, वह मेरे चित्त में सदा रमता रहे!

गीत

 

चेतः श्री रामं चिन्तय, जीमूत श्यामम् ।।

 

अंगीकृत-तुम्बुरु -संगीतम्

हनुमद्-गवय-गवाक्ष-समेतम् ।।१।। चेतः

नव-रत्न-स्थापित-कोटीरम् ।

नव-तुलसी-दल-कल्पित-हारम् ।।२।। चेतः ...

 

परमहंस-हृद्गोपुर-दीपम्

चरण-दलित-मुनितरुणी-शापम् ।।३।। चेत:...

 

हे मन, मेघश्याम श्रीराम का चिन्तन कर।

 

जिसने तुम्बुरु मुनि का गायन स्वीकार किया और जो हनुमान, गवय, गवाक्ष आदि वानर श्रेष्ठों से युक्त है ।।१

 

जिसने नवरत्नों से जड़ा हुआ मुकुट धारण किया है और नयी तुलसी-दलों की माला पहनी है ।।२

 

जो परमहंस योगियों के हृदय-रूपी गोपुर पर दीपक के समान है और जिसने गौतम ऋषि की पत्नी अहल्या का शाप अपने चरणों के स्पर्श से दूर कर दिया, उस राम का चिन्तन कर ।।३

 

नामावली

 

राम राम नमोऽस्तु ते, जय रामभद्र नमोऽस्तु ते ।

रामचन्द्र नमोऽस्तु ते, जय राघवेन्द्र नमोऽस्तु ते ।।

देव-देव नमोऽस्तु ते, जय देवराज नमोऽस्तु ते ।

वासुदेव नमोऽस्तु ते, जय वीरराज नमोऽस्तु ते ।।

राम राम जय राजा-राम। राम राम जय सीता राम ।।

 

हे रामचन्द्र, रामभद्र, राघवेन्द्र, देवों के देव, देवों के राजा, हे वासुदेव, पराक्रमी राजा, तेरी जय हो! तुझे प्रणाम !

 

महाराज राम की जय हो ! सीतापति राम की जय हो!

 

 

 

१३. राम रतन धन पायो

(श्री मीराबाईकृत)

 

श्लोक

 

चिदंशं विभुं निर्मलं निर्विकल्पं,

निरीहं निराकार-मोंकार-वेद्यम् ।

गुणातीत-मव्यक्त-मेकं तुरीयं,

परं ब्रह्म यो वेद तस्मै नमस्ते ।।

 

उस व्यक्ति को प्रणाम जो उस परब्रह्म को जानता है, जो ज्ञानरूप है, सर्वव्यापी है, मल-रहित है, विकल्पशून्य है, इच्छाहीन है, निराकार है, ओंकार द्वारा जानने योग्य है, गुणों से परे है, अव्यक्त और एक है, तुरीयावस्था स्वरूप है।

 

गीत

 

राम रतन धन पायो पायो जी मैं तो ।

वस्तु अमोलक दी मेरे सद्‌गुरु किरपा कर अपनायो।।१।। राम रतन...

 

जनम जनम की पूँजी पाई जग में सभी खोवायो ।

खरच नहिं कोई चोर न लेवे दिन दिन बढ़त सवायो ।।२।। राम रतन...

 

सत् की नाव खेवटिया सद्गुरु भवसागर तर आयो ।

मीरा के प्रभु गिरिधर नागर हरख हरख जस गायो ।।३।। राम रतन...

 

मैंने राम-रूपी रत्न की सम्पत्ति पा ली है।

 

वह ऐसी वस्तु है जो अमूल्य है और उसे सद्गुरु ने मुझे दिया है। उन्होंने कृपापूर्वक मुझे अपना लिया है ।।१

 

उस राम-रूपी रत्न को पाने के लिए भले ही मुझे सारी सांसारिक वस्तुओं से हाथ धोना पड़ा, किन्तु उसे पा कर मैंने अनेक जन्मों तक की पूँजी पा ली है। उसमें से न तो कुछ खर्च होता है, न कुछ घटता है। चोर भी उसे चुरा नहीं सकता। (इसके विपरीत) वह सवाया हो कर नित्यप्रति बढ़ता ही जाता है।॥२

 

सत्यरूपी नाव का केवट सद्गुरु है। (वह मिल गया तो) संसार सागर पार करना आसान है। मीरा के स्वामी परम कुशल गिरिधर श्रीकृष्ण हैं। वह (मीरा) आनन्द-विभोर हो कर उनका यशोगान करती है ।।३ ।।

 

नामावली

 

हरि हरि हरि हरि श्री हरि बोल ।

हरि हरि श्याम हरि हरि हरि बोल ।।

१४. राम से कोई मिला दे

 

श्लोक

 

नमस्तस्मै सदैकस्मै कस्मैचिन्महसे नमः ।

यदेतद्विश्वरूपेण राजते गुरुराज ते ।।

 

हे गुरुराज! तुझे प्रणाम करता हूँ जो एकमात्र सत्-स्वरूप है, अनिर्वचनीय है, ज्ञानस्वरूप है, प्रकाशमय है और जो इस समस्त विश्व के रूप में प्रकट हो रहा है।

 

गीत

 

राम से कोई मिला दे, मुझे राम से कोई मिला दे।

बिन लाठी का निकला अन्धा, राह से कोई लगा दे ।।१।। राम से...

 

कोई कहे वह बसे अवध में, कोई कहे वह वृन्दावन में।

कोई कहे तीरथ मन्दिर में, कोई कहे मिलते ओ मन में। राम से...

 

देख सकूँ मैं अपने मन में, कोई ऐसी ज्योति जला दे ।

श्रद्धा-ज्योति जला दे, भक्ति-ज्योति जला दे, ज्ञान-ज्योति जला दे ।।२।। राम से...

उस भगवान् राम से मिलने में मेरी कोई सहायता कर दे।

 

अन्धा लाठी बिना जैसे चल पड़ता है, वैसे मैं बिना सहारे के भटक रहा हूँ। हाथ पकड़ कर कोई मुझे उस देव-दर्शन के रास्ते लगा दे।।१

 

कोई कहता है कि वह राम के रूप में अयोध्या में है तो कोई कहता है कि वह कृष्ण के रूप में वृन्दावन में है। कोई कहता है कि वह तीर्थ-क्षेत्र में है तो कोई कहता है कि वह मन्दिर में है। फिर कोई यह भी कहता है कि वह प्रत्येक को अपने-अपने मन में ही मिलता है। कोई मेरे अन्दर ऐसा प्रकाश जला दे, जिससे में अपने मन में उसे देख सकूँ, अनुभव कर सकूँ। मेरे अन्दर श्रद्धा, भक्ति और ज्ञान की ज्योति जला दे। उस राम से मुझे कोई मिला दे।॥२

 

१५. श्रीरामरक्षास्तोत्रम्

 

ॐ श्री गणेशाय नमः । अस्य श्रीरामरक्षास्तोत्र-मन्त्रस्य । बुधकौशिक ऋषिः । श्रीसीतारामचन्द्रो देवता । अनुष्टुप् छन्दः । सीता शक्तिः । श्रीमान् हनुमान् कीलकं । श्रीसीतारामचन्द्रप्रीत्यर्थे रामरक्षास्तोत्रजपे विनियोगः ।

 

अथ ध्यानम्

ध्यायेदाजानुबाहुं धृतशरधनुषं वद्धपद्मासनस्थं,

पीतं वासो वसान नवकमलदलस्पर्धिनेत्रं प्रसन्नम् ।

वामांकारूढसीतामुखकमलमिलल्लोचनं नीरदाभं,

नानालंकारदीप्तं दधतमुरुजटामण्डलं रामचन्द्रम् ।।

 

स्तोत्रम्

 

चरितं रघुनाथस्य शतकोटिप्रविस्तरम् ।

एकैकमक्षरं पुंसां महापातकनाशनम् ।।१

 

ध्यात्वा नीलोत्पलश्यामं रामं राजीवलोचनम्।

जानकीलक्ष्मणोपेतं जटामुकुटमण्डितम्।।२

सासितूणधनुर्वाणपाणि नक्तंचरान्तकम् ।

स्वलीलया जगत्त्रातुमाविर्भूतमजं विभुम् ।।३

 

रामरक्षां पठेत्प्राज्ञः पापघ्नीं सर्वकामदाम्।

शिरो मे राघवः पातु फालं दशरथात्मजः ।।४

 

कौसल्येयो दृशौ पातु विश्वामित्रप्रियः श्रुती।

घ्राण पातु मखत्राता मुखं सौमित्रिवत्सलः ।।५

 

जिह्वे विद्यानिधिः पातु कण्ठ भरतवन्दित ।

स्कन्धौ दिव्यायुधः पातु भुजो भग्नेशकार्मुकः ।।६

 

करौ सीतापति पातु हृदयं जामदग्न्यजित्।

मध्यं पातु खरध्वंसी नाभि जाम्बवदाश्रयः ।।७

 

सुग्रीवेशः कटी पातु सक्थिनी हनुमत्प्रभुः ।

ऊरू रघूत्तमः पातुः रक्षःकुलविनाशकृत् ।।८

 

जानुनी सेतुकृत्पातु जंघे दशमुखान्तकः ।

पादौ विभीषणश्रीदः पातु रामोऽखिलं वपुः ।।९

 

एतां रामबलोपेतां रक्षां यः सुकृती पठेत् ।।

स चिरायुः सुखी पुत्री विजयी विनयी भवेत् ।।१०

 

पातालभूतलव्योमचारिणश्छद्मचारिणः ।

न द्रष्टुमपि शक्तास्ते रक्षितं रामनामभिः ।।११

 

रामेति रामभद्रेति रामचन्द्रेति वा स्मरन्।

नरो ना लिप्यते पापैर्भुक्तिं मुक्तिं च विन्दति ।।१२

 

जगज्जैत्रैकमन्त्रेण रामनाम्नाऽभिरक्षितम् ।

यः कण्ठे धारयेत्तस्यकरस्थाः सर्वसिद्धयः ।।१३

 

वज्रपंजरनामेदं यो रामकवचं स्मरेत् ।

अव्याहताज्ञः सर्वत्र लभते जयमंगलम् ।।१४

 

आदिष्टवान्यथा स्वप्ने रामरक्षामिमां हरः ।

तथा लिखितवान्प्रातः प्रबुद्धो बुधकौशिकः ।।१५

 

आरामः कल्पवृक्षाणां विरामः सकलापदाम् ।

अभिरामस्त्रिलोकानां रामः श्रीमान्स नः प्रभु ।।१६

 

तरुणौ रूपसम्पन्नौ सुकुमारौ महाबलौ ।

पुण्डरीकविशालाक्षौ चीरकृष्णाजिनाम्बरौ ।।१७

 

फलमूलाशिनौ दान्तौ तापसौ ब्रह्मचारिणौ।

पुत्रौ दशरथस्यैतौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ ।।१८

 

शरण्यौ सर्वसत्त्वानां श्रेष्ठौ सर्वधनुष्मतान् ।

रक्षः कुलनिहन्तारौ त्रायेतां नो रघूत्तमौ ।।१९

 

आत्तसज्जधनुषाविपुस्पृशावक्षयाशुगनिषंगसंगिनौ ।

रक्षणाय मम रामलक्ष्मणवग्रतः पथि सदैव गच्छताम् ।।२०

 

सन्नद्धः कवची खड्गी चापबाणधरो युवा ।

गच्छन्मनोरथोऽस्माकं रामः पातु सलक्ष्मणः ।।२१

 

रामो दाशरथिः शूरो लक्ष्मणानुचरो बली ।

काकुत्स्थः पुरुषः पूर्णः कौसल्येयो रघूत्तमः ।।२२

 

वेदान्तवेद्यो यज्ञेशः पुराणपुरुषोत्तमः ।

जानकीवल्लभः श्रीमानप्रमेयपराक्रमः ।।२३

 

इत्येतानि जपेन्नित्यं मद्भक्तः श्रद्धयान्वितः ।

अश्वमेधाधिकं पुण्यं सम्प्राप्नोनि न संशयः ।।२४

रामं दुर्वादलश्यामं पद्माक्षं पीतवाससम् ।

स्तुवन्ति नामभिर्दिव्यैर्न ते संसारिणो नराः ।। २५

 

रामं लक्ष्मणपूर्वजं रघुवरं सीतापतिं सुन्दरं,

काकुत्स्थं करुणार्णवं गुणनिधिं विप्रप्रियं धार्मिकम् ।

 

राजेन्द्र सत्यसन्धं दशरथतनयं श्यामलं शान्तमूर्ति,

वन्दे लोकाभिरामं रघुकुलतिलकं राघवं रावणारिम् ।।२६

 

रामाय रामभद्राय रामचन्द्राय वेधसे ।

रघुनाथाय नाथाय सीतायाः पतये नमः ।।२७

 

श्रीराम राम रघुनन्दन राम राम श्रीराम राम भरताग्रज राम राम ।

श्रीराम राम रणकर्कश राम राम श्रीराम राम शरणं भव राम राम ।।२८

 

श्रीरामचन्द्रचरणौ मनसा स्मरामि श्रीरामचन्द्रचरणौ वचसा गृणामि ।।

श्री रामचन्द्रचरणौ शिरसा नमामि श्रीरामचन्द्रचरणौ शरणं प्रपद्ये ।।२९

 

माता रामो मत्पिता रामचन्द्रः स्वामी रामो मत्सखा रामचन्द्रः ।

सर्वस्वं मे रामचन्द्रो दयालु- र्नान्यं जाने नैव जाने न जाने ।।३०

 

दक्षिणे लक्ष्मणो यस्य वामे च जनकात्मजा ।

पुरतो मारुतिर्यस्य तं वन्दे रघुनन्दम् ।। ३१

 

लोकाभिरामं रणरंगधीरं राजीवनेत्रं रघुवंशनाथम् ।

कारुण्यरूपं करुणाकरं तं श्रीरामचन्द्रं शरणं प्रपद्ये ।।३२

 

मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम् ।

वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये ।।३३

 

कूजन्तं रामरामेति मधुरं मधुराक्षरम् ।

आरुह्य कविताशाखां वन्दे वाल्मीकिकोकिलम् ।।३४

 

आपदामपहर्तारं दातारं सर्वसम्पदाम् ।

लोकाभिरामं श्रीरामं भूयो भूयो नमाम्यहम् ।।३५

 

भर्जनं भवबीजानामर्जनं सुखसम्पदाम् ।

तर्जनं यमदूतानां रामरामेति गर्जनम् ।। ३६

 

रामो राजमणिः सदा विजयते रामं रमेशं भजे

रामेणाभिहता निशाचरचमू रामाय तस्मै नमः ।

 

रामान्नास्ति परायणं परतरं रामस्य दासोऽस्म्यहं

रामे चित्तलयः सदा भवतु मे भो राम मामुद्धर ।। ३७

 

राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे ।

सहस्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने ।।३८

 

इति श्रीबुधकौशिकमुनिविरचितं श्रीरामरक्षास्तोत्रं सम्पूर्णम् ।

 

 

 

 

१६. श्री हनुमान चालीसा

 

दोहा

 

श्रीगुरु चरन सरोज रज निज मनु मुकुरु सुधारि ।

बरनउँ रघुबर बिमल जसु जो दायकु फल चारि ।।

 

 

बुद्धिहीन तनु जानिके सुमिरौं पवन-कुमार ।

बल बुधि बिद्या देहु मोहिं हरहु कलेस बिकार ।।

 

 

 

चौपाई

 

जय हनुमान ज्ञान गुन सागर। जय कपीस तिहुँ लोक उजागर।।

राम दूत अतुलित बल धामा। अंजनि-पुत्र पवनसुत नामा ।।

 महाबीर बिक्रम बजरंगी। कुमति निवार सुमति के संगी।।

कंचन बरन बिराज सुबेसा। कानन कुंडल कुंचित केसा।।

हाथ बज्र औ ध्वजा बिराजै। काँधे मूँज जनेऊ साजै ।।

संकर सुवन केसरीनन्दन। तेज प्रताप महा जग बन्दन ।।

बिद्यावान गुनी अति चातुर । राम काज करिबे को आतुर ।।

प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया। राम लषन सीता मन बसिया ।।

सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा। बिकट रूप धरि लंक जरावा ।।

भीम रूप धरि असुर सँहारे । रामचन्द्र के काज सँवारे।।

लाय सजीवन लखन जियाये। श्रीरघुबीर हरषि उर लाये ।।

रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई। तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई।।

सहस बदन तुम्हरो जस गावैं। अस कहि श्रीपति कंठ लगावें।।

सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा । नारद सारद सहित अहीसा ।।

जम कुबेर दिगपाल जहाँ ते । कबि कोबिद कहि सके कहाँ ते।।

तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा। राम मिलाय राज पद दीन्हा ।।

तुम्हरो मन्त्र बिभीषन माना । लंकेस्वर भए सब जग जाना ।।

जुग सहस्र जोजन पर भानू। लील्यो ताहि मधुर फल जानू ।।

प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं। जलधि लाँघि गये अचरज नाहीं।।

दुर्गम काज जगत के जेते। सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते।।

राम दुआरे तुम रखवारे। होत न आज्ञा बिनु पैसारे।।

सब सुख लहै तुम्हारी सरना। तुम रच्छक काहू को डर ना।।

आपन तेज सम्हारो आपै । तीनों लोक हाँक तें काँपै ।।

भूत पिसाच निकट नहिं आवै। महावीर जब नाम सुनावै।।

नासै रोग हरै सब पीरा। जपत निरन्तर हनुमत बीरा ।।

संकट तें हनुमान छुड़ावै । मन क्रम बचन ध्यान जो लावै।

सब पर राम तपस्वी राजा। तिन के काज सकल तुम साजा।।

और मनोरथ जो कोई लावै । सोड़ अमित जीवन फल पावै।।

चारों जुग परताप तुम्हारा। है परसिद्ध जगत उजियारा ।।

साधु सन्त के तुम रखवारे। असुर निकन्दन राम दुलारे ।।

अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता। अस बर दीन जानकी माता ।।

राम रसायन तुम्हरे पासा । सदा रहो रघुपति के दासा ।।

तुम्हरे भजन राम को पावै। जनम जनम के दुख विसरावै।।

अन्त काल रघुवर पुर जाई। जहाँ जन्म हरि-भक्त कहाई।।

और देवता चित्त न धरई। हनुमत सेइ सर्व सुख करई ।।

संकट कटै मिटै सब पीरा। जो सुमिरै हनुमत बलबीरा ।।

जै जै जै हनुमान गोसाई। कृपा करहु गुरु देव की नाई।।

जो सत बार पाठ कर कोई। छूटहि बन्दि महासुख होई ।।

जो यह पढ़ें हनुमान चलीसा। होय सिद्धि साखी गौरीसा।।

तुलसीदास सदा हरि चेरा। कीजै नाथ हृदय महँ डेरा ।।

 

दोहा

 

पवनतनय संकट हरन, मंगल मूरति रूप।

राम लपन सीता सहित, हृदय बसहु सुर भूप।।

 

।। इति हनुमान चालीसा ।।

१७. संकटमोचन हनुमानाष्टक

 

मत्तगयन्द छन्द

 

बाल समय रबि भक्षि लियो तब तीनहुँ लोक भयो अँधियारो।

ताहि सों त्रास भयो जग को यह संकट काहु सों जात न टारो ।।

देवन आनि करी बिनती तब छाँड़ि दियो रबि कष्ट निवारों।

को नहिं जानत है जग में कपि संकटमोचन नाम तिहारो ।।१

 

बालि की त्रास कपीस बसै गिरि जात महाप्रभु पन्थ निहारो।

चौकि महा मुनि साप दियो तब चाहिय कौन बिचार बिचारो।।

कै द्विज रूप लिवाय महाप्रभु सो तुम दास के सोक निवारो।

को नहिं जानत है जग में कपि संकटमोचन नाम तिहारो ।।२

 

अंगद के सँग लेन गये सिय खोज कपीस यह बैन उचारो।

जीवत ना बचिही हम सो जु बिना सुधि लाए इहाँ पगु धारो ।।

हेरि थके तट सिन्धु सबै तब लाय सिया-सुधि प्रान उबारो।

को नहिं जानत है जग में कपि संकटमोचन नाम तिहारो ।।३

 

रावन त्रास दई सिय को सब राक्षसि सों कहि सोक निवारो।

ताहि समय हनुमान महाप्रभु जाय महा रजनीचर मारो।।

चाहत सीय असोक सों आगि सु दै प्रभु मुद्रिका सोक निवारो।

को नहिं जानत है जग में कपि संकटमोचन नाम तिहारो ।।४

 

बान लग्यो उर लछिमन के तब प्रान तजे सुत रावन मारो।

लै गृह बैद्य सुषेन समेत तबै गिरि द्रोन सु बीर उपारो ।।

आनि सजीवन हाथ दई तब लछिमन के तुम प्रान उबारो।

को नहिं जानत है जग में कपि संकटमोचन नाम तिहारो ।।५

 

रावन जुद्ध अजान कियो तब नाग कि फाँस सबै सिर डारो।

श्रीरघुनाथ समेत सबै दल मोह भयो यह संकट भारो।।

आनि खगेस तबै हनुमान जु बन्धन काटि सुत्रास निवारो।

को नहिं जानता है जग में कपि संकटमोचन नाम तिहारो ।।६

 

बन्धु समेत जबै अहिरावन लै रघुनाथ पताल सिधारो।

देबिहि पूजि भली बिधि सों बलि देउ सबै मिलि मन्त्र बिचारो ।।

जाय सहाय भयो तब ही अहिरावन सैन्य समेत सँहारो।

को नहिं जानत है जग में कपि संकटमोचन नाम तिहारो ।।७

 

काज किये बड़ देवन के तुम बीर महाप्रभु देखि बिचारो।

कौन सो संकट मोर गरीब को जो तुमसों नहिं जात है टारो ।।

बेगि हरो हनुमान महाप्रभु जो कछु संकट होय हमारो।

को नहिं जानत है जग में कपि संकटमोचन नाम तिहारो ।।८

दोहा

लाल देह लाली लसे, अरु धरि लाल लँगूर।

बज्र देह दानव दलन, जय जय जय कपि सूर ।।

१८. हनुमान् स्तुतिः

 

मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम् ।

वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये ।।१

अंजनानन्दनं वीरं जानकीशोकनाशनम्।

कपीशमक्षहन्तारं वन्दे लंकाभयंकरम् ।।२

 

जिनकी मन के समान गति और वायु के समान वेग है; जो परम जितेन्द्रिय और बुद्धिमानों में श्रेष्ठ हैं, उन पवननन्दन वानराग्रगण्य श्रीरामदूत की में शरण लेता हूँ।।१

 

अंजनी के पुत्र, वीर, जानकी जी का शोक विदूरित करने वाले, वानरों के अधिपति, अक्षयकुमार का संहार करने वाले और लंका में भय उत्पन्न करने वाले हनुमान् जी की मैं वन्दना करता हूँ।।२

 

१९. कलियुगकृत भगवत्स्तुतिः

 

ध्येयं सदा परिभवघ्नमभीष्टदोहं

तीर्थास्पदं शिवविरिंचिनुतं शरण्यम् ।

भृत्यार्तिहं प्रणतपालभवाब्धिपोतं

वन्दे महापुरुष ते चरणारविन्दम् ।।१

 

त्यक्त्वा सुदुस्त्यजसुरेप्सितराज्यलक्ष्मीं

धर्मिष्ठ आर्यवचसा यदगादरण्यम् ।

मायामृगं दयितवेप्सितमन्यधावद्

वन्दे महापुरुष ते चरणारविन्दम् ।।२

 

यं ब्रह्मावरुणेन्द्ररुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै-

र्वेदैः सांगपदक्रमोपनिषदैर्गायन्ति यं सामगाः ।

ध्यानावस्थिततद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो

यस्यान्तं न विदुः सुरासुरगणा देवाय तस्मै नमः ।।३

 

यं शैवाः समुपासते शिव इति ब्रह्मेति वेदान्तिनो

बौद्धा बुद्ध इति प्रमाणपटवः कर्तेति नैयायिकाः ।

अर्हन्नित्यथ जैनशासनरताः कर्मेति मीमांसकाः

सोऽयं नो विदधातु वांछितफलं त्रैलोक्यनाथो हरिः ।।४

 

आकाशात्पतितं तोयं यथा गच्छति सागरम् ।

सर्वदेवनमस्कारः केशवं प्रति गच्छति ।।५

 

असितगिरिसमं स्वात्कजलं सिन्धुपात्रं

सुरतरुवरशाखा लेखिनी पत्रमुर्वी ।

लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकाल

तदपि तव गुणानामीश पारं न याति ।।६

 

हे महारुपुष! आपके चरणारविन्द की वन्दना करता हूँ, जो कि ध्यान करने योग्य हैं, विपत्तियों के नाश करने वाले हैं, सम्पूर्ण मनोरथों को पूर्ण करने वाले हैं, तीर्थों के आधार-स्वरूप हैं, शिव और ब्रह्मा जिनकी वन्दना करते हैं, जो शरणागतवत्सल है, सेवकों के दुख निवारण करते हैं और संसाररूपी समुद्र में नौका के समान हैं ।।१

 

जिस राज्यलक्ष्मी को छोड़ना कठिन है तथा देवतागण भी जिसके लिए लालायित रहते हैं, उसे त्याग करके बड़ों की आज्ञा से वन में गये और पत्नी के इच्छानुसार मायामृग के पीछे-पीछे भागते फिरे, ऐसे आपके धर्मिष्ठ चरण-कमलों की, हे महापुरुष। मैं वन्दना करता हूँ।॥२

 

ब्रह्मा, वरुण, इन्द्र, रुद्र और मरुद्गण दिव्य स्तोत्रो द्वारा जिसकी स्तुति करते हैं,

 

सामवेद के गाने वाले अग, पद, क्रम और उपनिषदों के सहित वेदों द्वारा जिसका गायन

 

करते हैं, योगीजन ध्यान में स्थित तद्गत हुए मन से जिसका दर्शन करते हैं, देवता और असुरगण कोई भी जिसके अन्त को नहीं जानते, उस परम पुरुष देव के लिए मेरा नमस्कार है ।।३

 

शिव-भक्त जिन्हें शिव के रूप में पूजते हैं, वेदान्ती जिन्हें ब्रह्म मानते हैं, बौद्ध-धर्म के अनुयायी जिन्हें बुद्ध भगवान् मानते हैं, प्रमाणकुशल नैयायिक जिन्हें कर्ता-रूप में जानते हैं, जैन जिन्हें अर्हत कहते हैं तथा मीमांसक जिनकी क्रियाकाण्ड के रूप में उपासना करते हैं, ऐसे त्रिलोकीनाथ हमें वांछित फल प्रदान करें ।।४

 

जिस भाँति आकाश से गिरा हुआ जल समुद्र में जा मिलता है, उसी भाँति सभी देवों को किया हुआ नमस्कार भगवान् केशव को ही प्राप्त होता है ।।५

 

काले पर्वत के समान लिखने की स्याही सिन्धु के समान बड़ी दावात में हो, कल्पवृक्ष की शाखा की कलम और पृथ्वी के समान विस्तीर्ण कागज को ले कर यदि सरस्वती देवी सदैव लिखती रहें, तो भी हे ईश, वे तुम्हारे गुणों के अन्त तक नहीं पहुँच सकतीं ।।६

 

२०. श्री रामचन्द्र कृपालु

 

श्री रामचन्द्र कृपालु भजु मन हरण भवभयदारुणम् ।

नवकंज-लोचन कंज-मुख कर-कंज पद कंजारुणम् ।।

 

कन्दर्प अगणित अमित छवि नवनील-नीरद सुन्दरम् ।

पटपीत मानहु तड़ित रुचि सुचि नौमि जनकसुतावरम् ।।

 

भजु दीनबन्धु दिनेश दानव दैत्यवंशनिकन्दनम् ।

रघुनन्द आनन्दकन्द कौशलचन्द दशरथनन्दनम् ।।

 

सिर मुकुट कुण्डल तिलक चारु उदारु अंगविभूषणम् ।

आजानु भुज शर चापधर संग्रामजित-खरदूषणम् ।।

 

इति वदति तुलसीदास शंकर-शेष-मुनि-मन-रंजनम् ।

मम हृदयकंज निवास कुरु कामादिखलदलगंजनम् ।।

 

 

 

 

 

२१. प्रातःस्मरणम्

 

प्रातः स्मरामि हृदि संस्फुरदात्मतत्त्वं

सच्चित्सुखं परमहंसगतिं तुरीयम् ।

 

यत्स्वप्नजागरसुषुप्तमवैति नित्यं

तद्ब्रह्म निष्कलमहं न च भूतसंघः ।।१

 

प्रातर्भजामि मनसा वचसामगम्यं

वाचो विभान्ति निखिला यदनुग्रहेण ।

यन्नेतिनेतिवचनैर्निगमा अवोचु-

स्तं देवदेवमजमच्युतमाहुरग्रयम् ।।२

 

प्रातर्नमामि तमसः परमर्कवर्ण

पूर्ण सनातनपदं पुरुषोत्तमाख्यम् ।

यस्मिन्निदं जगदशेषमशेषमूर्ती

रज्ज्वां भुजंगम इव प्रतिभासितं वै ।।३

 

प्रातः स्मरामि भवभीतिहरं सुरेशं

गंगाधरं वृषभवाहनमम्बिकेशम् ।

खट्वांगशूलवरदाभयहस्तमीशं

संसाररोगहरमौषधमद्वितीयम् ।।४

 

प्रातः स्मरामि भवभीतिमहार्तिशान्त्यै

नारायणं गरुडवाहनमब्जनाभम् ।

ग्राहाभिभूतवरवारणमुक्तिहेतुं

चक्रायुधं तरुणवारिजपत्रनेत्रम् ।।५

 

प्रातः स्मरामि रघुनाथमुखारविन्दं

मन्दस्मितं मधुरभाषि विशालभालम् ।

कर्णावलम्बिचलकुण्डलशोभिगण्डं

कर्णान्तदीर्घनयनं नयनाभिरामम् ।।६

प्रातः स्मरामि गणनाथमनाथबन्धुं

सिन्दूरपूरपरिशोभितगण्डयुग्मम् ।

उद्दण्डविघ्नपरिखण्डनचण्डदण्ड-

माखण्डलादिसुरनायकवृन्दवन्द्यम् ।।७

 

प्रातः स्मरामि खलु तत्सवितुर्वरेण्यं

रूपं हि मण्डलमृचोऽथ तनुर्यजूंषि ।

सामानि यस्य किरणाः प्रभवादिहेतुं

ब्रह्माहरात्मकमलक्ष्यमचिन्त्यरूपम् ।।८

 

मैं प्रातःकाल हृदय में स्फुरित होते हुए आत्मतत्त्व का स्मरण करता हूँ, जो सत्, चित् और आनन्दरूप है, परमहंसों का प्राप्यस्थान है और जाग्रतादि तीनों अवस्थाओं से विलक्षण है, जो स्वप्न, सुषुप्ति और जाग्रत अवस्थाओं को नित्य जानता है, वह स्फुरणारहित ब्रह्म ही मैं हूँ, पंचभूतों का संघात (शरीर) मैं नहीं हूँ।।१

 

जो मन और वाणी से अगम्य है, जिसकी कृपा से समस्त वाणी भास रही है, जिसका शास्त्र 'नेति-नेति' कह कर निरूपण करते हैं, जिस अजन्मा देवदेवेश्वर अच्युत को अग्रय (आदि) पुरुष कहते हैं, मैं उसका प्रातःकाल भजन करता हूँ।।२

 

जिस सर्वस्वरूप परमेश्वर में यह समस्त संसार रज्जु में सर्प के समान प्रतिभासित हो रहा है, उस अन्धकार से परे, दिव्य तेजोमय, पूर्ण सनातन पुरुषोत्तम को मैं प्रातःकाल नमस्कार करता हूँ।।३

 

जो सांसारिक भय को हरने वाले और देवताओं के स्वामी हैं, जो गंगा जी को धारण करते हैं, जिनका वृषभ वाहन है, जो अम्बिका के ईश हैं तथा जिनके हाथ में खट्वांग, त्रिशूल और वरद तथा अभयमुद्रा है, उन संसार-रोग को हरने के निमित्त अद्वितीय औषधि-रूप 'ईश' (महादेव जी) का मैं प्रातःकाल स्मरण करता हूँ।।४

 

गरुड़वाहन, कमलनाभ, ग्राह से ग्रसित गजेन्द्र की मुक्ति के कारण, सुदर्शनचक्रधारी, नवविकसित कमलपत्र-से नेत्र वाले नारायण का भवभयरूपी महान् दुःख की शान्ति के लिए मैं प्रातःकाल स्मरण करता हूँ।।५

 

जो मधुर मुस्कानयुक्त, मधुर भाषी और विशाल भाल से सुशोभित हैं; कानों में लटके हुए चंचल कुण्डलों से जिनके दोनों कपोल शोभित हो रहे हैं तथा जो कर्ण पर्यन्त विस्तृत बड़े-बड़े नेत्रों से शोभायमान और नेत्रों को आनन्द देने वाले हैं, श्री रघुनाथ जी के ऐसे मुखारविन्द का मैं प्रातःकाल स्मरण करता हूँ।।६

 

जो इन्द्र आदि देवेश्वरों के समूह से वन्दनीय हैं, अनाथों के बन्धु हैं, जिनके युगल कपोल सिन्दूरराशि से अनुरंजित हैं. जो उद्दण्ड (प्रबल) विघ्नों का खण्डन करने के लिए प्रचण्ड दण्डस्वरूप हैं, उन श्री गणेश जी को मैं प्रातःकाल स्मरण करता हूँ।।७

 

मैं सूर्य भगवान् के उस श्रेष्ठ रूप को प्रात काल स्मरण करता हूँ, जिनका मण्डल ऋग्वेद है, तनु यजुर्वेद है, किरणें सामवेद हैं और जो ब्रह्मा तथा शिवस्वरूप है, जगत् की उत्पत्ति, रक्षा और नाश का कारण है तथा अलक्ष्य और अचिन्त्य स्वरूप है ।।८

 

 

 

 

रविवार

 

आदित्य-स्तोत्रम्

. आदित्यहृदयम्

 

ॐ श्री गणेशाय नमः। अस्य श्री आदित्यहृदय स्तोत्रमहामन्त्रस्य अगस्त्यो भगवान् ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, आदित्यमण्डलान्तर्वर्ती परमात्मा देवता। मम सकलविघ्ननिवारणपूर्वकसर्वाभीष्टसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः ।

 

ततो युद्धपरिश्रान्तं समरे चिन्तया स्थितम्।

रावणं चाग्रतो दृष्ट्वा युद्धाय समुपस्थितम्।।१।।

 

दैवतैश्च समागम्य द्रष्टुमभ्यागतो रणम्।

उपागम्याब्रवीद्राममगस्त्यो भगवानृषिः ।।२।।

 

राम राम महाबाहो शृणु गुह्यं सनातनम्।

येन सर्वानरीन् वत्स समरे विजयिष्यसि ।।३।।

 

आदित्यहृदयं पुण्यं सर्वशत्रुविनाशनम्।

जयावहं जपेन्नित्यमक्षयं परमं शिवम् ।।४।।

 

सर्वमंगलमांगल्यं सर्वपापप्रणाशनम्।

चिन्ताशोकप्रशमनमायुर्वर्धनमुत्तमम् ।।५।।

 

रश्मिमन्तं समुद्यन्तं देवासुरनमस्कृतम्।

पूजयस्व विवस्वन्तं भास्करं भुवनेश्वरम् ।।६।।

 

सर्वदेवात्मको ह्येष तेजस्वी रश्मिभावनः ।

एष देवासुरगणाल्लोकान् पाति गभस्तिभिः ।।७।।

 

एष ब्रह्मा च विष्णुश्च शिवः स्कन्दः प्रजापतिः ।

महेन्द्रो धनदः कालो यमः सोमो ह्यपांपतिः ।।८।।

 

पितरो वसवः साध्या ह्यश्विनी मरुतो मनुः ।

वायुर्वह्नि प्रजाप्राण ऋतुकर्ता प्रभाकरः ।।९।।

 

आदित्यः सविता सूर्यः खगः पूषा गभस्तिमान्।

सुवर्णसदृशो भानुः हिरण्यरेता दिवाकरः ।।१०।।

 

हरिदश्वः सहस्रार्चिः सप्तसप्तिर्मरीचिमान्।

तिमिरोन्मथनः शम्भुस्त्वष्टा मार्ताण्ड अंशुमान् ।।११।।

 

हिरण्यगर्भः शिशिरस्तपनो भास्करो रविः ।

अग्निगर्भोऽदितेः पुत्रः शंखः शिशिरनाशनः ।।१२।।

 

व्योमनाथस्तमोभेदी ऋग्यजुः सामपारगः ।

घनवृष्टिरपां मित्रो विन्ध्यवीथीप्लवंगमः ।।१३।।

 

आतपी मण्डली मृत्युः पिंगलः सर्वतापनः ।

कविर्विश्वो महातेजा रक्तः सर्वभवोद्भवः ।।१४।।

 

नक्षत्रग्रहताराणामधिपो विश्वभावनः ।

तेजसामपि तेजस्वी द्वादशात्मन्नमोऽस्तु ते ।।१५।।

 

नमः पूर्वाय गिरये पश्चिमायाद्रये नमः ।।

ज्योतिर्गणानां पतये दिनाधिपतये नमः ।।१६।।

 

जयाय जयभद्राय हर्यश्वाय नमो नमः ।

नमो नमः सहस्रांशो आदित्याय नमो नमः ।।१७।।

 

नमः उग्राय वीराय सारंगाय नमो नमः ।

नमः पद्यप्रबोधाय मार्ताण्डाय नमो नमः ।।१८।।

 

ब्रह्मेशानाच्युतेशाय सूर्यायादित्यवर्चसे ।

भास्वते सर्वभक्षाय रौद्राय वपुषे नमः ।। १९।।

 

तमोघ्नाय हिमघ्नाय शत्रुघ्नायामितात्मने ।

कृतघ्नघ्नाय देवाय ज्योतिषां पतये नमः ।।२०।।

 

तप्तचामीकराभाय वह्नये विश्वकर्मणे।

नमस्तमोऽभिनिघ्नाय स्वये लोकसाक्षिणे ।।२१।।

 

नाशयत्येष वै भूतं तदेव सृजति प्रभुः।

पायत्येष तपत्येष वर्षत्येष गभस्तिभिः ।।१२।।

 

एष सुप्तेषु जागर्ति भूतेषु परिनिष्ठितः ।।

एष एवाग्निहोत्रं च फलं चैवामिहोत्रिणाम् ।।३२।।

 

वेदाश्च क्रतवश्चैव क्रतूनां फलमेव च।

 यानि कृत्यानि लोकेषु सर्व एष रविः प्रभुः ।।२४।।

 

एनमापत्सु कृच्छ्रेषु कान्तारेषु भयेषु च।

कीर्तयन् पुरुषः कश्चिन्नावसीदति राघव ।।२५।।

 

पूजयस्वैनमेकाग्रो देवदेवं जगत्पतिम् ।

एतत्त्रिगुणितं जप्त्वा युद्धेषु विजयिष्यसि ।।२६।।

 

अस्मिन् क्षणे महाबाहो रावणं त्वं वधिष्यसि । ए

वमुक्त्वा तदाऽगस्त्यो जगाम च यथागतम् ।।२७।।

 

एतत्छुत्वा महातेजा नष्टशोकोऽभवत्तदा ।

धारयामास सुप्रीतो राघवः प्रयतात्मवान्।।२८ ।।

 

आदित्यं प्रेक्ष्य जप्त्वा तु परं हर्षमवाप्तवान्।

त्रिराचम्य शुचिर्भूत्वा धनुरादाय वीर्यवान् ।।२९।।

 

रावणं प्रेक्ष्य दृष्टात्मा युद्धाय समुपागमत्।

सर्वयत्नेन महता वधे तस्य धृतोऽभवत् ।।३०।।

 

अथ रविरवदन्निरीक्ष्य रामं मुदितमनाः परमं प्रहृष्यमाणः ।

निशिचरपतिसंक्षयं विदित्वा सुरगणमध्यगतो वचस्त्वरेति ।।३१।।

 

।। इति आदित्यहृदयं सम्पूर्णम् ।।

 

. गायत्री-मन्त्र

 

ॐ भूर्भुवः स्वः । तत्सवितुर्वरेण्यं ।

 भर्गो देवस्य धीमहि ।

धियो यो नः प्रचोदयात्

 

ॐ  -              परब्रह्म का अभिवाच्य शब्द

भू:  -              भूलोक

भुवः -              अन्तरिक्ष लोक

स्वः -              स्वर्गलोक

तत् -              परमात्मा अथवा ब्रह्म

सवितुः -            ईश्वर अथवा सृष्टिकर्ता

वरेण्यं -            पूजनीय

भर्ग:-              अज्ञान तथा पाप-निवारक

देवस्य -            ज्ञानस्वरूप भगवान् का

धीमहि -            हम ध्यान करते हैं

धियो-              बुद्धि, प्रज्ञा

यः -               जो

नः -               हमारा

प्रचोदयात् -          प्रकाशित करे

हम उस महिमामय ईश्वर का ध्यान करते हैं, जिसने इस संसार को उत्पन्न किया है, जो पूजनीय है, जो ज्ञान का भण्डार है, जो पापों तथा अज्ञान को दूर करने वाला है-वह हमें प्रकाश दिखाये और हमें सत्पथ पर ले जाये।

 

. श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय

सांख्ययोग-स्थितप्रज्ञलक्षणम्

 

अर्जुन उवाच

 

स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव ।

स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम् ।।५४

 

श्री भगवानुवाच

 

प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान् ।

आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ।।५५

 

दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः ।

वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ।।५६

 

यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् ।

नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।।५७

 

यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः ।।

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।।५८

 

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।

रसवर्ज रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ।।५९

 

यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः ।

इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ।।६०

 

तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः ।

वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।। ६१

 

ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते ।

संगात् संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ।।६२

 

क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः ।

स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ।।६३

 

 

रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।

आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ।।६४

 

प्रसादे सर्वदुः खानां हानिरस्योपजायते ।

प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ।।६५

 

नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना ।

न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम् ।।६६

 

इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते ।

तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ।। ६७

 

तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः ।

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।।६८

 

या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी ।

यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ।।६९

 

आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् ।

तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ।।७०

 

विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः ।

निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति ।।७१

 

एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति ।

स्थित्वाऽस्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति ।।७२

 

ॐ तत्सत् इति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे सांख्ययोगो नाम द्वितीयोऽध्यायः ।।

 

. श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय १२

भक्तियोगः

 

अर्जुन उवाच

 

एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते ।

येचाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः ।।१

 

श्रीभगवानुवाच

 

मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते ।

श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः ।।२

 

ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते ।

सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम् ।।३

 

सन्नियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः ।

ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः ।।४

 

क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम् ।

अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते ।।५

 

ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः ।

अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते ।।६

 

तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात् ।

भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम् ।।७

 

मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय ।

निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः ।।८

 

अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम् ।

अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनंजय ।।९

 

अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव ।

मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन् सिद्धिमवाप्स्यसि ।।१०

 

अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः ।

सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान् ।।११

 

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते ।

ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ।।१२

 

अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च ।

निर्ममो निरहंकारः समदुःखसुखः क्षमी ।।१३

 

सन्तुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः ।

मय्यर्पितमनोबुद्धियों मद्भक्तः स मे प्रियः ।।१४

 

यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः ।

हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः ।।१५

 

अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः ।

सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः ।।१६

यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति ।

शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः ।।१७

 

समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः ।

शीतोष्णसुखदुःखेषु समः संगविवर्जितः ।।१८

 

तुल्यनिन्दास्तुतिर्मोनी सन्तुष्टो येनकेनचित् ।

अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः ।।१९

 

ये तु धर्ष्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते ।

श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः ।।२०

 

ॐ तत्सत् इति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे भक्तियोगो नाम द्वादशोऽध्यायः ।।

 

. श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय १५

 

श्री भगवानुवाच

 

ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् ।

छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ।।१

 

अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः ।

अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके ।।२

 

न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च सम्प्रतिष्ठा ।

अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल - मसंगशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा ।।३

 

ततः पदं तत्परिमार्गितव्यं यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः ।

तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी ।।४

 

निर्मानमोहा जितसंगदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः ।

द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञै- र्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत् ।।५

 

न तद्भासयते सूर्यो न शशांको न पावकः ।

यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं ममः ।।६

 

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः ।

मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ।।७

 

शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः ।

गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात् ।।८

 

श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च ।

अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते ।।९

 

उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुंजानं वा गुणान्वितम् ।

विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः ।।१०

 

यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम् ।

यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः ।।११

 

यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयते ऽखिलम् ।

यच्चन्द्रमसि यच्चाप्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम् ।।१२

 

गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा ।

पुष्णामि चौषधीः सर्वा सोमो भूत्वा रसात्मकः ।।१३

 

अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः ।

प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम् ।।१४

 

सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो - मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च ।

वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो- वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ।।१५

द्वाविमौ पुरुषो लोके क्षरश्चाक्षर एव च ।

क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ।।१६

 

उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः ।

यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः ।।१७

 

यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः ।

अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः ।।१८

 

यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम् ।

स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत ।।१९

 

इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ ।

एतद्बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत ।।२०

 

ॐ तत्सत् इति श्रीमद्भगवद्‌गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे पुरुषोत्तमयोगो नाम पंचदशोऽध्यायः ।।

 

. गीता महिमा

(हरि गीता से)

 

गीता हृदय भगवान् का सब ज्ञान का शुभ सार है।

इस शुद्ध गीता ज्ञान से ही चल रहा संसार है ।।१

 

गीता परम विद्या सनातन सर्वशास्त्र प्रधान है।

परब्रह्म रूपी मोक्षकारी नित्य गीता गान है ।।२

 

संसार के सब ज्ञान का ज्ञानमय भण्डार है।

श्रुति उपनिषद् वेदान्त ग्रन्थों का महा शुभ सार है ।।३

 

गाते जहाँ जन गीत गीता प्रेम से धरते ध्यान हैं।

तीरथ वहीं भव के सभी शुभ शुद्ध और महान् हैं।।४

 

गाते जहाँ नित्य हरि गीता निरन्तर नेम से।

रहते वहीं सुखकन्द नटवर चन्द-नन्दन प्रेम से ।।५

 

यह मोहमाया कष्टमय तरना जिसे संसार हो ।

वह बैठ गीता नाव में सुख से सहज में पार हो ।।६

 

सुनते सुनाते नित्य जो लाते इसे व्यवहार में।

पाते परम पद ठोकरें खाते नहीं संसार में ।।७

 

धरते हुए जो ध्यान गीता ज्ञान का तन छोड़ते ।

लेने उसे माधव मुरारी आप ही उठ दौड़ते ।।८

 

. श्री विष्णुसहस्रनामस्तोत्रम्

।। हरिः ।।

 

शुक्लाम्बरधरं विष्णुं शशिवर्णं चतुर्भुजम् ।

प्रसन्नवदनं ध्यायेत्सर्वविघ्नोपशान्तये ।।

 

व्यासं वसिष्ठनप्तारं शक्तेः पौत्रमकल्मषम् ।

पराशरात्मजं वन्दे शुकतातं तपोनिधिम् ।।

 

व्यासाय व्यासरूपाय विष्णुरूपाय विष्णवे।

नमो वै ब्रह्मनिधये वासिष्ठाय नमो नमः ।।

 

अविकाराय शुद्धाय नित्याय परमात्मने ।

सदैकरूपरूपाय विष्णवे सर्वजिष्णवे ।।

 

यस्य स्मरणमात्रेण जन्मसंसारबन्धनात् ।

विमुच्यते नमस्तस्मै विष्णवे प्रभविष्णवे ।।

 

नमः समस्तभूतानामादिभूताय भूभृते ।

अनेकरूपरूपाय  विष्णवे प्रभविष्णवे ।।

ॐ नमो विष्णवे प्रभविष्णवे ।।

 

श्रीवैशम्पायन उवाच

 

श्रुत्वा धर्मानशेषेण पावनानि च सर्वशः ।

युधिष्ठिरः शान्तनवं पुनरेवाभ्यभाषत ।।१।।

 

युधिष्ठिर उवाच

 

किमेकं दैवतं लोके किं वाप्येकं परायणम् ।

स्तुवन्तः कं कमर्चन्तः प्राप्नुयुर्मानवाः शुभम् ।।२।।

 

को धर्म: सर्वधर्माणां भवतः परमो मतः ।

किं जपन्मुच्यते जन्तुर्जन्मसंसारबन्धनात् ।।३ ।।

 

श्रीभीष्म उवाच

 

जगत्प्रभुं देवदेवमनन्तं पुरुषोत्तमम् ।

स्तुवन्नामसहस्रेण पुरुषः सततोत्थितः ।।४।।

 

तमेव चार्चयन्नित्यं भक्त्या पुरुषमव्ययम् ।

ध्यायन्स्तुवन्नमस्यंश्च यजमानस्तमेव च ।।५।।

 

अनादिनिधनं विष्णुं सर्वलोकमहेश्वरम्।

लोकाध्यक्षं स्तुवन्नित्यं सर्वदुःखातिगो भवेत् ।।६।।

 

ब्रह्मण्यं सर्वधर्मज्ञं लोकानां कीर्तिवर्धनम् ।

लोकनाथं महद्भूतं सर्वभूतभवोद्भवम् ।।७ ।।

 

एष मे सर्वधर्माणां धर्मोऽधिकतमो मतः ।

यद्भक्त्या पुण्डरीकाक्षं स्तवैरर्चेन्नरः सदा ।।८ ।।

 

परमं यो महत्तेजः परमं यो महत्तपः ।

परमं यो महद्ब्रह्म परमं यः परायणम् ।।९ ।।

 

पवित्राणां पवित्रं यो मंगलानां च मंगलम् ।

दैवतं देवतानां च भूतानां योऽव्ययः पिता ।।१०।।

 

यतः सर्वाणि भूतानि भवन्त्यादियुगागमे ।

यस्मिंश्च प्रलयं यान्ति पुनरेव युगक्षये ॥११ ।।

 

तस्य लोकप्रधानस्य जगन्नाथस्य भूपते ।

विष्णोर्नामसहस्रं मे शृणु पापभयापहम् ।।१२ ।।

 

यानि नामानि गौणानि विख्यातानि महात्मनः ।

ऋषिभिः परिगीतानि तानि वक्ष्यामि भूतये ।।१३ ।।

 

ऋषिर्नाम्नां सहस्रस्य वेदव्यासो महामुनिः ।

छन्दोऽनुष्टुप्तथा देवो भगवान्देवकीसुतः ।।

अमृतांशूद्भवो बीजं शक्तिर्देवकीनन्दनः ।

त्रिसामा हृदयं तस्य शान्त्यर्थे विनियुज्यते ।।

विष्णुं जिष्णुं महाविष्णुं प्रभविष्णु महेश्वरम् ।

अनेकरूपदैत्यान्तं नमामि पुरुषोत्तमम् ।।

 

अस्य श्रीविष्णोर्दिव्यसहस्रनामस्तोत्रमहामन्त्रस्य । श्रीवेदव्यासो भगवानृषिः । अनुष्टुप् छन्दः । श्रीमहाविष्णुः परमात्मा श्रीमन्नारायणो देवता । अमृतांशूद्भवो भानुरिति बीजम् । देवकीनन्दनः स्रष्टेति शक्तिः । उद्भवः क्षोभणो देव इति परमो मन्त्रः । शंखभृन्नन्दकी चक्रीति कीलकम् । शांर्गधन्वा गदाधर इत्यस्त्रम् । रथांगपाणिरक्षोभ्य इति नेत्रम् । त्रिसामा सामग सामेति कवचम् । आनन्दं परब्रह्मेति योनिः, ऋतुस्सुदर्शनः काल इति दिग्बन्धः । श्रीविश्वरूप इति ध्यानम्। श्रीमहाविष्णुप्रीत्यर्थे सहस्रनामजपे विनियोगः ।।

 

विश्व विष्णुर्वषट्कार इत्यंगुष्ठाभ्यां नमः । अमृतांशूद्भवो भानुरिति तर्जनीभ्यां नमः । ब्रह्मण्यो ब्रह्मकृद्ब्रह्येति मध्यमाभ्यां नमः । सुवर्णविन्दुरक्षोभ्य इत्यनामिकाभ्यां नमः । निमिषोऽनिमिषः स्रग्वीति कनिष्ठिकाभ्यां नमः । रथांगपाणिरक्षोभ्य इति करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः । सुव्रतः सुमुखः सूक्ष्मेति ज्ञानाय हृदयाय नमः । सहस्रमूर्धा विश्वात्मेति ऐश्वर्याय शिरसे स्वाहा। सहस्राचिं सप्तजिह्वेति शक्त्यै शिखायै वषट् । त्रिसामा सामगः सामेति बलाय कवचाय हुम् । रथांगपाणिरक्षोभ्य इति तेजसे नेत्रत्रयाय वौषट्। शांर्गधन्वा गदाधर इति वीर्याय अस्त्राय फट् । ऋतुः सुदर्शनः काल इति भूर्भुवः सुवरोम् इति दिग्बन्धः ।।

 

।। ध्यानम् ।।

 

क्षीरोदन्वत्प्रदेशे शुचिमणिविलसत्सैकते मौक्तिकानां

मालाक्लृप्तासनस्थः स्फटिक मणिनिभैौक्तिकैर्मण्डितांगः ।

शुभैरभैरदभैरुपरिविरचितैर्मुक्तपीयूषवर्षेः

आनन्दी नः पुनीयादरिनलिनगदाशंखपाणिर्मुकुन्दः ।।

 

भूः पादौ यस्य नाभिर्वियदसुरनिलश्चन्द्रसूर्यों च नेत्रे

कर्णावाशाः शिरोद्यौर्मुखमपि दहनो यस्य वास्तेयमब्धिः ।

अन्तःस्थ यस्य विश्वं सुरनरखगगोभोगिगन्धर्वदैत्यैः

चित्रं रंरम्यते तं त्रिभुवनवपुषं विष्णुमीशं नमामि ।।

 

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।।

 

शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं

विश्वाधार गगनसदृशं मेघवर्ण शुभांगम् ।

लक्ष्मीकान्तं कमलनयन योगिहृद्ध्यानगम्यं

वन्दे विष्णु भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम् ।।

 

मेघश्यामं पीतकौशेयवासं

श्रीवत्सांक कौस्तुभोद्भासितांगम् ।

पुण्योपेतं पुण्डरीकायताक्ष

वन्दे विष्णुं सर्वलोकैकनाथम् ।।

 

नमः समस्तभूतानामादिभूताय भूभृते ।

अनेकरूपरूपाय विष्णवे प्रभविष्णवे ।।

 

सशंखचक्र सकिरीटकुण्डलं

सपीतवस्त्रं सरसीरुहेक्षणम् ।

सहारवक्षस्स्थलशोभिकौस्तुभं

नमामि विष्णुं शिरसा चतुर्भुजम् ।।

 

छायायां पारिजातस्य हेमसिंहासनोपरि ।

आसीनमम्बुदश्याममायताक्षमलंकृतम् ।।

 

चन्द्राननं चतुर्बाहु श्रीवत्सांकितवक्षसम् ।

रुक्मिणीसत्यभामाभ्यां सहितं कृष्णमाश्रये ।।

।। ॐ विश्वस्मै नमः ।।

 

।। हरिः ॐ ।।

 

ॐ विश्वं विष्णुर्वषट्कारो भूतभव्यभवत्प्रभुः ।

भूतकृद्भूतभृद्भावो भूतात्मा भूतभावनः ।।१४।।

 

पूतात्मा परमात्मा च मुक्तानां परमा गतिः ।

अव्ययः पुरुषः साक्षी क्षेत्रज्ञोऽक्षर एव च ।।१५।।

 

योगो योगविदां नेता प्रधानपुरुषेश्वरः ।

नारसिंहवपुः श्रीमान् केशवः पुरुषोत्तमः ।।१६ ।।

 

सर्वः शर्वः शिवः स्थाणुर्भूतादिनिधिरव्ययः ।

सम्भवो भावनो भर्ता प्रभवः प्रभुरीश्वरः ।।१७ ।।

 

स्वयम्भूः शम्भुरादित्यः पुष्कराक्षो महास्वनः ।

अनादिनिधनो धाता विधाता धातुरुत्तमः ।।१८ ।।

 

अप्रमेयो हृषीकेशः पद्मनाभोऽमरप्रभुः ।

विश्वकर्मा मनुस्त्वष्टा स्थविष्ठः स्थविरो ध्रुवः ।।१९ ।।

 

अग्राह्यः शाश्वतः कृष्णो लोहिताक्षः प्रतर्दनः ।

प्रभूतस्त्रिककुब्धाम पवित्रं मंगलं परम्।।२०।।

 

ईशानः प्राणदः प्राणो ज्येष्ठः श्रेष्ठः प्रजापतिः ।

हिरण्यगर्भो भूगर्भो माधवो मधुसूदनः ।।२१ ।।

 

ईश्वरो विक्रमी धन्वी मेधावी विक्रमः क्रमः।

अनुत्तमो दुराधर्षः कृतज्ञः कृतिरात्मवान् ।।२२।।

 

सुरेशः शरणं शर्म विश्वरेताः प्रजाभवः ।

अहः संवत्सरो व्यालः प्रत्ययः सर्वदर्शनः ।।२३ ।।

 

अजः सर्वेश्वरः सिद्धः सिद्धिः सर्वादिरच्युतः ।

वृषाकपिरमेयात्मा सर्वयोगविनिःसृतः ।।२४ ।।

 

वसुर्वसुमनाः सत्यः समात्माऽसम्मितः समः ।

अमोघः पुण्डरीकाक्षो वृषकर्मा वृषाकृतिः ।।२५ ।।

 

रुद्रो बहुशिरा बभ्रुर्विश्वयोनिः शुचिश्रवाः ।

अमृतः शाश्वतः स्थाणुर्वरारोहो महातपाः ।।२६ ।।

 

सर्वगः सर्वविद्भानुर्विष्वक्सेनो जनार्दनः ।

वेदो वेद‌विदव्यंगो वेदांगो वेदवित्कविः ।।२७ ।।

 

लोकाध्यक्षः सुराध्यक्षो धर्माध्यक्षः कृताकृतः ।

चतुरात्मा चतुर्ग्यूहश्चतुर्दष्ट्रश्चतुर्भुजः ।।२८ ।।

 

 

 

भ्राजिष्णुर्भोजनं भोक्ता सहिष्णुर्जगदादिजः ।

अनघो विजयो जेता विश्वयोनिः पुनर्वसुः ।।२९ ।।

 

उपेन्द्रो वामनः प्रांशुरमोघः शुचिरूर्जितः ।

अतीन्द्रः संग्रहः सर्गो धृतात्मा नियमो यमः ।।३० ।।

 

वेद्यो वैद्यः सदायोगी वीरहा माधवो मधुः ।

अतीन्द्रियो महामायो महोत्साहो महाबलः ।।३१ ।।

 

महाबुद्धिर्महावीयों महाशक्तिर्महाद्युतिः ।

अनिर्देश्यवपुः श्रीमानमेयात्मा महाद्रिधृक् ।। ३२ ।।

 

महेष्वासो महीभर्ता श्रीनिवासः सतां गतिः ।

अनिरुद्धः सुरानन्दो गोविन्दो गोविदां पतिः ।।३३ ।।

 

मरीचिर्दमनो हंसः सुपर्णो भुजगोत्तमः ।

हिरण्यनाभः सुतपाः पद्मनाभः प्रजापतिः ।।३४ ।।

 

अमृत्युः सर्वदृक् सिंहः सन्धाता सन्धिमान् स्थिरः ।

अजो दुर्मर्षणः शास्ता विश्रुतात्मा सुरारिहा ।। ३५ ।।

 

गुरुर्गुरुतमो धाम सत्यः सत्यपराक्रमः ।

निमिषोऽनिमिषः स्रग्वी वाचस्पतिरुदारधीः ।। ३६ ।।

 

अग्रणीर्गामणीः श्रीमान् न्यायो नेता समीरणः ।

सहस्रमूर्धा विश्वात्मा सहस्राक्षः सहस्रपात् ।।३७ ।।

 

आवर्तनो निवृत्तात्मा संवृतः सम्प्रमर्दनः ।

अहः संवर्तको वह्निरनिलो धरणीधरः ।।३८ ।।

 

सुप्रसादः प्रसन्नात्मा विश्वधृग्विश्वभुग्विभुः ।

सत्कर्ता सत्कृतः साधुर्जहुर्नारायणो नरः ।।३९ ।।

असंख्येयोऽप्रमेयात्मा विशिष्टः शिष्टकृच्छुचिः ।

सिद्धार्थः सिद्धसंकल्पः सिद्धिदः सिद्धिसाधनः ।।४० ।।

 

वृषाही वृषभो विष्णुर्वृषपर्वा वृषोदरः ।

वर्धनो वर्धमानश्च विविक्तः श्रुतिसागरः ।।४१ ।।

 

सुभुजो दुर्धरो वाग्मी महेन्द्रो वसुदो वसुः ।

नैकरूपो बृहद्रूपः शिपिविष्टः प्रकाशनः ।।४२ ।।

 

ओजस्तेजोद्युतिधरः प्रकाशात्मा प्रतापनः ।

ऋद्धः स्पष्टाक्षरो मन्त्रश्चन्द्रांशुर्भास्करद्युतिः ।।४३ ।।

 

अमृतांशूद्भवो भानुः शशबिन्दुः सुरेश्वरः ।

औषधं जगतः सेतुः सत्यधर्मपराक्रमः ।।४४ ।।

 

भूतभव्यभवन्नाथः पवनः पावनोऽनलः ।

कामहा कामकृत्कान्तः कामः कामप्रदः प्रभुः ।।४५ ।।

 

युगादिकृद्युगावर्तों नैकमायो महाशनः ।

अदृश्योव्यक्तरूपश्च सहस्रजिदनन्तजित् ।।४६ ।।

 

इष्टोऽविशिष्टः शिष्टेष्टः शिखण्डी नहुषो वृषः ।

क्रोधहा क्रोधकृत्कर्ता विश्वबाहुर्महीधरः ।।४७ ।।

 

अच्युतः प्रथितः प्राणः प्राणदो वासवानुजः ।

अपां निधिरधिष्ठानमप्रमत्तः प्रतिष्ठितः ।।४८ ।।

 

स्कन्दः स्कन्दधरो धुर्यो वरदो वायुवाहनः ।

वासुदेवो बृहद्भानुरादिदेवः पुरन्दरः ।।४९ ।।

 

अशोकस्तारणस्तारः शूरः शौरिर्जनेश्वरः ।

अनुकूलः शतावर्तः पद्मी पद्मनिभेक्षणः ।।५० ।।

 

पद्मनाभोऽरविन्दाक्षः पद्मगर्भः शरीरभृत् ।

महर्द्धिक्रुद्धो वृद्धात्मा महाक्षो गरुडध्वजः ।।५१ ।।

 

अतुलः शरभो भीमः समयज्ञो हविर्हरिः ।

सर्वलक्षणलक्षण्यो लक्ष्मीवान् समितिंजयः ।।५२ ।।

 

विक्षरो रोहितो मार्गों  हेतुर्दामोदरः सहः ।

महीधरो महाभागो वेगवानमिताशनः ।।५३ ।।

 

उद्भवः क्षोभणो देवः श्रीगर्भः परमेश्वरः ।

करणं कारणं कर्ता विकर्ता गहनो गुहः ।।५४ ।।

 

व्यवसायो व्यवस्थानः संस्थानः स्थानदो ध्रुवः ।

परर्द्धिः परमस्पष्टस्तुष्टः पुष्टः शुभेक्षणः ।।५५ ।।

 

रामो विरामो विरतो मार्गों नेयो नयोऽनयः ।

वीरः शक्तिमतां श्रेष्ठो धर्मो धर्मविदुत्तमः ।।५६ ।।

 

वैकुण्ठः पुरुषः प्राणः प्राणदः प्रणवः पृथुः ।

हिरण्यगर्भः शत्रुघ्नो व्याप्तो वायुरधोक्षजः ।।५७ ।।

 

ऋतुः सुदर्शनः काल: परमेष्ठी परिग्रहः ।

उग्रः संवत्सरो दक्षो विश्रामो विश्वदक्षिणः ।।५८ ।।

 

विस्तारः स्थावरस्थाणुः प्रमाणं बीजमव्ययम् ।

अर्थोऽनर्थो महाकोशो महाभोगो महाधनः ।।५९ ।।

 

अनिर्विण्णः स्थविष्ठोऽभूर्धर्मयूपो महामखः ।

नक्षत्रनेमिर्नक्षत्री क्षमः क्षामः समीहनः ।।६० ।।

 

यज्ञ इज्यो महेज्यश्च क्रतुः सत्रं सतां गतिः ।

सर्वदर्शी विमुक्तात्मा सर्वज्ञो ज्ञानमुत्तमम् ।।६१ ।।

 

सुव्रतः सुमुखः सूक्ष्मः सुघोषः सुखदः सुहत् ।

मनोहरो जितक्रोधो वीरबाहुर्विदारणः ।।६२ ।।

 

स्वापनः स्ववशो व्यापी नैकात्मा नैककर्मकृत् ।

वत्सरो वत्सलो वत्सी रत्नगर्भो धनेश्वरः ।।६३ ।।

 

धर्मगुब्धर्मकृद्धर्मी सदसत्क्षरमक्षरम् ।

अविज्ञाता सहस्रांशुर्विधाता कृतलक्षणः ।।६४ ।।

 

गभस्तिनेमिः सत्त्वस्थः सिंहो भूतमहेश्वरः ।

आदिदेवो महादेवो देवेशो देवभृद्गुरुः ।। ६५ ।।

 

उत्तरो गोपतिर्गोप्ता ज्ञानगम्यः पुरातनः ।

शरीरभूतभृद्भोक्ता कपीन्द्रो भूरिदक्षिणः ।। ६६ ।।

 

सोमपोऽमृतपः सोमः पुरुजित्पुरुसत्तमः ।

विनयो जयः सत्यसन्धो दाशार्हः सात्वतां पतिः ।।६७ ।।

 

जीवो विनयिता साक्षी मुकुन्दोऽमितविक्रमः ।

अम्भोनिधिरनन्तात्मा महोदधिशयोऽन्तकः ।।६८ ।।

 

अजो महार्हः स्वाभाव्यो जितामित्रः प्रमोदनः ।

आनन्दो नन्दनो नन्दः सत्यधर्मा त्रिविक्रमः ।।६९ ।।

 

महर्षिः कपिलाचार्यः कृतज्ञो मेदिनीपतिः ।

त्रिपदस्त्रिदशाध्यक्षो महाशृंगः कृतान्तकृत् ।।७० ।।

 

महावराहो गोविन्दः सुषेणः कनकांगदी ।

गुह्यो गभीरो गहनो गुप्तश्चक्रगदाधरः ।।७१ ।।

 

वेधाः स्वांगोऽजितः कृष्णो दृढः संकर्षणोऽच्युतः ।

वरुणो वारुणो वृक्षः पुष्कराक्षो महामनाः ।।७२ ।।

 

भगवान् भगहानन्दी वनमाली हलायुधः ।

आदित्यो ज्योतिरादित्यः सहिष्णुर्गतिसत्तमः ।।७३ ।।

 

सुधन्वा खण्डपरशुर्दारुणो द्रविणप्रदः ।

दिवःस्पृक्सर्वदृग्व्यासो वाचस्पतिरयोनिजः ।।७४ ।।

 

त्रिसामा सामगः साम निर्वाणं भेषजं भिषक् ।

संन्यासकृच्छमः शान्तो निष्ठा शान्तिः परायणम् ।।७५ ।।

 

शुभांगः शान्तिदः स्रष्टा कुमुदः कुवलेशयः ।

गोहितो गोपतिर्गोप्ता वृषभाक्षो वृषप्रियः ।।७६ ।।

 

अनिवर्ती निवृत्तात्मा संक्षेप्ता क्षेमकृच्छिवः ।

श्रीवत्सवक्षाः श्रीवासः श्रीपतिः श्रीमतां वरः ।।७७ ।।

 

श्रीदः श्रीशः श्रीनिवासः श्रीनिधिः श्रीविभावनः ।

श्रीधरः श्रीकरः श्रेयः श्रीमाँल्लोकत्रयाश्रयः ।।७८ ।।

 

स्वक्षः स्वंगः शतानन्दो नन्दिज्योतिर्गणेश्वरः ।

विजितात्मा विधेयात्मा सत्कीर्तिश्छिन्नसंशयः ।।७९ ।।

 

उदीर्ण: सर्वतश्चक्षुरनीशः शाश्वतस्थिरः ।

भूशयो भूषणो भूतिर्विशोकः शोकनाशनः ।।८० ।।

 

अर्चिष्मानर्चितः कुम्भो विशुद्धात्मा विशोधनः ।

अनिरुद्धोऽप्रतिरथः प्रद्युम्नोऽमितविक्रमः ।।८१ ।।

 

कालनेमिनिहा वीरः शौरि: शूरजनेश्वरः ।

त्रिलोकात्मा त्रिलोकेशः केशवः केशिहा हरिः ।।८२ ।।

कामदेवः कामपाल कामी कान्तः कृतागमः ।

अनिर्देश्यवपुर्विष्णुर्वीरो ऽनन्तो धनंजयः ।।८३ ।।

 

ब्रह्मण्यो ब्रह्मकृद्ब्रह्मा ब्रह्म ब्रह्मविवर्धनः ।

ब्रह्मविद्राह्मणो ब्रह्मी ब्रह्मज्ञो ब्राह्मणप्रियः ।।८४ ।।

 

महाक्रमो महाकर्मा महातेजा महोरगः ।

महाक्रतुर्महायज्वा महायज्ञो महाहविः ।।८५ ।।

 

स्तव्यः स्तवप्रियः स्तोत्रं स्तुतिः स्तोता रणप्रियः ।

पूर्ण: पूरयिता पुण्यः पुण्यकीर्तिरनामयः ।।८६ ।।

 

मनोजवस्तीर्थकरो वसुरेता वसुप्रदः ।

वसुप्रदो वासुदेवो वसुर्वसुमना हविः ।।८७ ।।

 

सद्गतिः सत्कृतिः सत्ता सद्धतिः सत्परायणः ।

शूरसेनो यदुश्रेष्ठः सन्निवासः सुयामुनः ।।८८ ।।

 

भूतावासो वासुदेवः सर्वासुनिलयो ऽनलः ।

दर्पहा दर्पदो दृप्तो दुर्धरोऽथापराजितः ।।८९ ।।

 

विश्वमूर्तिर्महामूर्तिर्दीप्तमूर्तिरमूर्तिमान् ।

अनेकमूर्तिरव्यक्तः शतमूर्तिः शताननः ।।९० ।।

 

एको नैकः सवः कः किं यत्तत्पदमनुत्तमम् ।

लोकबन्धुर्लोकनाथो माधवो भक्तवत्सलः।।९१ ।।

 

सुवर्णवर्णो हेमांगो वरांगश्चन्दनांगदी ।

वीरहा विषमः शून्यो घृताशीरचलश्चलः ।॥९२ ।।

 

अमानी मानदो मान्यो लोकस्वामी त्रिलोकधृक् ।

सुमेधा मेधजो धन्यः सत्यमेधा धराधरः ।।९३ ।।

तेजोवृषो द्युतिधरः सर्वशस्त्रभृतां वरः ।

प्रग्रहो निग्रहो व्यग्रो नैकशृंगो गदाग्रजः ।।९४ ।।

 

चतुर्मूर्तिश्चतुर्बाहुश्चतुर्यूहश्चतुर्गतिः ।

चतुरात्मा चतुर्भावश्चतुर्वेदविदेकपात् ।।९५ ।।

 

समावर्तोऽनिवृत्तात्मा दुर्जयो दुरतिक्रमः ।

दुर्लभो दुर्गमो दुर्गो दुरावासो दुरारिहा ।।९६ ।।

 

शुभांगो लोकसारंग: सुतन्तुस्तन्तुवर्धनः ।

इन्द्रकर्मा महाकर्मा कृतकर्मा कृतागमः ।।९७ ।।

 

उद्भवः सुन्दरः सुन्दो रत्ननाभः सुलोचनः ।

अर्को वाजसनः श्रृंगी जयन्तः सर्वविजयी ।।९८ ।।

 

सुवर्णबिन्दुरक्षोभ्यः सर्ववागीश्वरेश्वरः ।

महाह्रदो महागर्तों महाभूतो महानिधिः ।।९९ ।।

 

कुमुदः कुन्दरः कुन्दः पर्जन्यः पावनोऽनिलः ।

अमृताशोऽमृतवपुः सर्वज्ञः सर्वतोमुखः ॥१०० ।।

 

सुलभः सुव्रतः सिद्धः शत्रुजिच्छत्रुतापनः ।

न्यग्रोधोदुम्बरोऽश्वत्थश्चाणूरान्ध्रनिषूदनः ।।१०१ ।।

 

सहस्रार्चिः सप्तजिह्वः सप्तैधाः सप्तवाहनः ।

अमूर्तिरनघोऽचिन्त्यो भयकृद्भयनाशनः ।।१०२ ।।

 

अणुबृहत्कृशः स्थूलो गुणभृन्निर्गुणो महान् ।

अधृतः स्वधृतः स्वास्यः प्राग्वंशो वंशवर्धनः ।।१०३ ।।

 

भारभृत्कथितो योगी योगीशः सर्वकामदः ।

आश्रमः श्रमणः क्षामः सुपर्णो वायुवाहनः ।॥१०४।।

धनुर्धरो धनुर्वेदो दण्डो दमयिता दमः ।

अपराजितः सर्वसहो नियन्ताऽनियमोऽयमः ।।१०५ ।।

 

सत्त्ववान्सात्त्विकः सत्यः सत्यधर्मपरायणः ।

अभिप्रायः प्रियाहर्होऽर्हः प्रियकृत्प्रीतिवर्धनः ।।१०६ ।।

 

विहायसगतिज्योतिः सुरुचिर्हतभुग्विभुः ।

रविर्विरोचनः सूर्यः सविता रविलोचनः ।।१०७ ।।

 

अनन्तो हुतभुग्भोक्ता सुखदो नैकजोऽग्रजः ।

अनिर्विण्णः सदामर्षी लोकाधिष्ठानमद्भुतः ।।१०८ ।।

 

सनात्सनातनतमः कपिलः कपिरव्ययः ।

स्वस्तिदः स्वस्तिकृत्स्वस्ति स्वस्तिभुक्स्वस्तिदक्षिणः ।।१०९ ।।

 

अरौद्रः कुण्डली चक्री विक्रम्यूर्जितशासनः ।

शब्दातिगः शब्दसहः शिशिरः शर्वरीकरः ।।११० ।।

 

अक्रूर: पेशलो दक्षो दक्षिणः क्षमिणां वरः ।

विद्वत्तमो वीतभयः पुण्यश्रवणकीर्तनः ।।१११ ।।

 

उत्तारणो दुष्कृतिहा पुण्यो दुःस्वप्ननाशनः ।

वीरहा रक्षणः सन्तो जीवनः पर्यवस्थितः ।।११२ ।।

 

अनन्तरूपोऽनन्त श्रीर्जितमन्युर्भयापहः ।

चतुरश्रो गभीरान्मा विदिशो व्यादिशो दिशः ।।११३ ।।

 

अनादिर्भूर्भुवो लक्ष्मीः सुवीरो रुचिरांगदः ।

जननो जनजन्मादिर्भीमो भीमपराक्रमः ।।११४ ।।

 

आधारनिलयोऽधाता पुष्पहास: प्रजागरः ।

ऊर्ध्वगः सत्पथाचारः प्राणदः प्रणवः पणः ।।११५ ।।

प्रमाणं प्राणनिलय प्राणभृत्प्राणजीवनः ।

तत्त्वं तत्त्वविदेकात्मा जन्ममृत्युजरातिगः ।।११६ ।।

 

भूर्भुवः स्वस्तरुस्तार सविता प्रपितामहः ।

यज्ञो यज्ञपतिर्यज्वा यज्ञांगो यज्ञवाहनः ।।११७ ।।

 

यज्ञभृद्यज्ञकृद्यज़ी यज्ञभुग्यज्ञसाधनः ।

यज्ञान्तकृद्यज्ञगुह्यमन्नमन्नाद एव च ।।११८ ।।

 

आत्मयोनिः स्वयंजातो वैखानः सामगायनः ।

देवकीनन्दनः स्रष्टा क्षितीशः पापनाशनः ।।११९ ।।

 

शंखभृन्नन्दकी चक्री शांर्गधन्वा गदाधरः ।

रथांगपाणिरक्षोभ्यः सर्वप्रहरणायुधः ।।१२० ।।

 

।। सर्वप्रहरणायुध ॐ नम इति ।।

 

वनमाली गदी शांर्गी शंखी चक्री च नन्दकी।

श्रीमान्नारायणो विष्णुर्वासुदेवोऽभिरक्षतु ।।

 

।। श्री वासुदेवोऽभिरक्षत्वों नम इति ।।

 

इतीदं कीर्तनीयस्य केशवस्य महात्मनः ।

नाम्नां सहस्रं दिव्यानामशेषेण प्रकीर्तितम् ।।१२१ ।।

 

य इदं शृणुयान्नित्यं यश्चापि परिकीर्तयेत् ।

नाशुभं प्राप्नुयात्किंचित्सोऽमुत्रेह च मानवः ।।१२२ ।।

 

वेदान्तगो ब्राह्मणः स्यात्क्षत्रियो विजयी भवेत् ।

वैश्यो धनसमृद्धः स्याच्छूद्रः सुखमवाप्नुयात् ।।१२३ ।।

 

धर्मार्थी प्राप्नुयाद्धर्ममर्थार्थी चार्थमाप्नुयात् ।

कामानवाप्नुयात्कामी प्रजार्थी चाप्नुयात्प्रजाम् ।।१२४ ।।

 

भक्तिमान्यः सदोत्थाय शुचिस्तद्गतमानसः ।

सहस्रं वासुदेवस्य नाम्नामेतत्प्रकीर्तयेत् ।।१२५ ।।

 

यशः प्राप्नोति विपुलं यातिप्राधान्यमेव च ।

अचलां श्रियमाप्नोति श्रेयः प्राप्नोत्यनुत्तमम् ।।१२६ ।।

 

न भयं क्वचिदाप्नोति वीर्य तेजश्च विन्दति ।

भवत्यरोगो द्युतिमान्बलरूपगुणान्वितः ।।१२७ ।।

 

रोगार्तों मुच्यते रोगाद्वद्धो मुच्येत बन्धनात् ।

भयान्मुच्येत भीतस्तु मुच्येतापन्न आपदः ।।१२८ ।।

 

दुर्गाण्यतितरत्याशु पुरुषः पुरुषोत्तमम् ।

स्तुवन्नामसहस्रेण नित्यं भक्तिसमन्वितः ।।१२९ ।।

 

वासुदेवाश्रयो वासुदेवपरायणः ।

सर्वपापविशुद्धात्मा याति ब्रह्म सनातनम् ।।१३० ।।

 

न वासुदेवभक्तानामशुभं विद्यते क्वचित् ।

जन्ममृत्युजराव्याधिभयं नैवोपजायते ।।१३१।।

 

इमं स्तवमधीयानः श्रद्धाभक्तिसमन्वितः ।

युज्येतात्मसुखक्षान्तिश्रीधृतिस्मृतिकीर्तिभिः ।।१३२ ।।

 

न क्रोधो न च मात्सर्यं न लोभो नाशुभा मतिः ।

भवन्ति कृतपुण्यानां भक्तानां पुरुषोत्तमे ।।१३३ ।।

 

द्यौः सचन्द्रार्कनक्षत्रा खं दिशो भूर्महोदधिः ।

वासुदेवस्य वीर्येण विधृतानि महात्मनः ।।१३४।।

 

ससुरासुरगन्धर्व सयक्षोरगराक्षसम् ।

जगद्वशे वर्ततेदं कृष्णस्य सचराचरम् ।।१३५ ।।

 

इन्द्रियाणि मनो बुद्धिः सत्त्वं तेजो बलं धृतिः ।

वासुदेवात्मकान्याहुः क्षेत्र क्षेत्रज्ञ एव च ।।१३६ ।।

 

सर्वागमानामाचारः प्रथमं परिकल्पते ।

आचारप्रभवो धर्मो धर्मस्य प्रभुरच्युतः ।।१३७ ।।

 

ऋषयः पितरो देवा महाभूतानि धातवः ।

जंगमाजंगमं चेदं जगन्नारायणोद्भवम् ।।१३८ ।।

 

योगो ज्ञानं तथा सांख्यं विद्याः शिल्पादि कर्म च ।

वेदाः शास्त्राणि विज्ञानमेतत्सर्वं जनार्दनात् ।।१३९ ।।

 

एको विष्णुर्महद्भुतं पृथग्भूतान्यनेकशः ।

त्रील्लोकान्व्याप्य भूतात्मा भुङ्क्ते विश्वभुगव्ययः ।।१४० ।।

 

इमं स्तवं भगवतो विष्णोर्व्यासेन कीर्तितम् ।

पठेद्य इच्छेत्पुरुषः श्रेयः प्राप्तुं सुखानि च ।।१४१ ।।

 

विश्वेश्वरमजं देवं जगतः प्रभवाप्ययम् ।

भजन्ति ये पुष्कराक्षं न ते यान्ति पराभवम् ।।१४२ ।।

 

।। न ते यान्ति पराभव ॐ नम इति ।।

 

अर्जुन उवाच

 

पद्मपत्रविशालाक्ष पद्मनाभ सुरोत्तम ।

भक्तानामनुरक्तानां त्राता भव जनार्दन ।।१ ।।

 

श्रीभगवानुवाच

यो मां नामसहस्रेण स्तोतुमिच्छति पाण्डव ।

सोऽहमेकेन श्लोकेन स्तुत एव न संशयः ।।२।।

 

।। स्तुत एव न संशय ॐ नम इति ।।

 

व्यास उवाच

 

वासनाद्वासुदेवस्य वासितं भुवनत्रयम् ।

सर्वभूतनिवासोऽसि वासुदेव नमोऽस्तु ते ।।३

 

।। श्री वासुदेव नमोऽस्तु त ॐ नम इति ।।

 

पार्वत्युवाच

केनोपायेन लघुना विष्णोर्नामसहस्रकम् ।

पठ्यते पण्डितैर्नित्यं श्रोतुमिच्छाम्यहं प्रभो ।।४।।

 

ईश्वर उवाच

श्रीराम राम रामेति रमे रामे मनोरमे ।

सहस्रनामतत्तुल्यं रामनाम वरानने ।।५ ।।

।। श्रीरामनाम वरानन ॐ नम इति ।।

 

ब्रह्मोवाच

नमोऽस्त्वनन्ताय सहस्रमूर्तये

सहस्रपादाक्षिशिरोरुबाहवे ।

सहस्रनाम्ने पुरुषाय शाश्वते

सहस्रकोटियुगधारिणे नमः ।।६ ।।

 

।। सहस्रकोटियुगधारिणे नम ॐ नम इति ।।

 

संजय उवाच

यन्त्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः ।

तन्त्र श्रीर्विजयो भूतिध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ।।७ ।।

 

श्रीभगवानुवाच

 

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते ।

तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ||८ ।।

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।

धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ।।९।।

 

आर्ता विषण्णाः शिथिलाश्च भीताः

घोरेषु च व्याधिषु वर्तमानाः ।

संकीर्त्य नारायणशब्दमात्रं

विमुक्तदुःखाः सुखिनो भवन्तु ।।१० ।।

 

आपदामपहर्तारं दातारं सर्वसम्पदाम् ।

लोकाभिरामं श्रीरामं भूयो भूयो नमाम्यहम् ।।१ ।।

 

आर्तानामार्तिहन्तारं भीतानां भीतिनाशनम् ।

द्विषतां कालदण्डं तं रामचन्द्र नमाम्यहम् ।।२ ।।

 

अग्रतः पृष्ठतश्चैव पार्श्वतश्च महाबलौ ।

आकर्णपूर्णधन्वानौ रक्षेतां रामलक्ष्मणौ ।।३।।

 

सन्नद्धः कवची खड्गी चापबाणधरो युवा।

गच्छन् ममाग्रतो नित्यं रामः पातु सलक्ष्मणः ।।४।।

 

नमः कोदण्डहस्ताय सन्धीकृतशराय च।

खण्डिताखिलदैत्याय रामायापन्निवारिणे ।।५ ।।

 

रामाय रामभद्राय रामचन्द्राय वेधसे ।

रघुनाथाय नाथाय सीतायाः पतये नमः ।।६ ।।

 

अच्युतानन्तगोविन्दनामोच्चारणभेषजात् ।

नश्यन्ति सकला रोगाः सत्यं सत्यं वदाम्यहम् ।।७ ।।

 

अच्युतानन्त गोविन्द विष्णो नारायणामृत ।

रोगान्मे नाशयाशेषानाशु धन्वन्तरे हरे ।।८ ।।

 

यज्ञेशाच्युत गोविन्द माधवानन्त केशव ।

कृष्ण विष्णो हृषीकेश वासुदेव नमोऽस्तु ते ।।९।।

 

श्रीकृष्ण विष्णो नृहरे मुरारे

प्रद्युम्न संकर्षण वासुदेव ।

अजानिरुद्धामल विश्वरूप

त्वं पाहि नः सर्वभयादजस्रम् ।।१० ।।

 

आलोड्य सर्वशास्त्राणि विचार्य च पुनः पुनः ।

इदमेकं सुनिष्पन्नं ध्येयो नारायणो हरिः ।।११ ।।

 

यदक्षरपदभ्रष्टं मात्राहीनं तु यद्भवेत् ।

तत्सर्वं क्षम्यतां देव नारायण नमोऽस्तु ते ।।१२।।

 

कायेन वाचा मनसेन्द्रियैर्वा

बुद्धयाऽऽत्मना वा प्रकृतेः स्वभावात् ।

करोमि यद्यत् सकलं परस्मै

नारायणायेति समर्पयामि ।।१३ ।। ।।

ॐ तत् सत् ।।

 

 

 

 

 

. सूर्य-स्तुतिः

 

श्लोक

 

सूर्य सुन्दरलोकनाथममृतं वेदान्तसारं शिवं

ज्ञानं ब्रह्ममयं सुरेशममलं लोकैकचित्तं स्वयम्।

इन्द्रादित्यनराधिपं सुरगुरुं त्रैलोक्यचूडामणिं

ब्रह्माविष्णुशिवस्वरूपहृदयं वन्दे सदा भास्करम् ।।१।।

 

आदिदेव नमस्तुभ्यं प्रसीद मम भास्कर।

दिवाकर नमस्तुभ्यं प्रभाकर नमोऽस्तु ते ।।२।।

 

मैं सदा सूर्य भगवान् की वन्दना करता हूँ, जो सुन्दर लोकनाथ हैं; जो वेदान्त के सार और मंगलकारी तथा स्वतन्त्र ज्ञान-स्वरूप एवं ब्रह्ममय अपि च देवताओं के अधिपति हैं; जो नित्य शुद्ध हैं; जो जगत् के सत्य चैतन्य है; जो इन्द्र, नर और सुरों के अधिपति और गुरु हैं; जो तीनों लोकों के चूड़ामणि हैं; जो ब्रह्मा, विष्णु और शिव के हृदय-स्वरूप और जीवन-दान देने वाले हैं।।१

 

हे आदि देव भास्कर! आपको प्रणाम है, आप मुझ पर प्रसन्न हों। हे दिवाकर! आपको नमस्कार है; हे प्रभाकर! आपको प्रणाम है ।।२

 

. विष्णु-स्तोत्रम्

 

श्लोक

 

शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं

विश्वाधारं गननसदृशं मेघवर्ण शुभांगम्।

लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यं

वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम् ।।१

 

मेघश्यामं पीतकौशेयवासं

श्रीवत्सांकं कौस्तुभोद्भासितांगम् ।

पुण्योपेतं पुण्डरीकायताक्ष

विष्णुं वन्दे सर्वलोकैकनाथम् ।।२

 

मैं विष्णु की वन्दना करता हूँ, जो शान्ताकार हैं, जो शेषनाग पर शयन करते हैं, जिनकी नाभि से ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई; जो देवताओं के अधिष्ठाता और विश्व के कर्ता तथा आकाश के समान सर्वव्यापक हैं, जिनका रंग बादलों के सुन्दर रंग से मिलता है; जिनका शरीर मनोमुग्धकारी है; जो लक्ष्मीपति हैं; जिनके नेत्र कमल के समान है; जो योगियों को ध्यान द्वारा मिलते हैं; जो जन्म-मरण के चक्र को छुड़ाने वाले और सभी लोकों के स्वामी हैं ।।१

 

मैं विष्णु की वन्दना करता हूँ, मेघ के समान जिनका श्याम वर्ण है; जो पीताम्बर धारण करने वाले हैं; जिनके श्रीवत्स का चिह्न है; जो कौस्तुभ-मणि से शोभायमान हैं, कमल के समान नेत्र वाले हैं, पुण्यात्मा हैं तथा सब लोकों के एकमात्र स्वामी हैं ।॥२

१०. शान्ति-मन्त्र

 

ॐ शं नो मित्रः शं वरुणः । शं नो भवत्वर्यमा । शं न इन्द्रो बृहस्पतिः । शं नो विष्णुरुरुक्रमः । नमो ब्रह्मणे । नमस्ते वायो । त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि । त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि । ऋतं वदिष्यामि । सत्यं वदिष्यामि । तन्मामवतु । तद्वक्तारमवतु । अवतु माम् । अवतु वक्तारम् ।। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।।१।।

(कृष्णयजुर्वेद : तैत्तिरीयोपनिषद्)

 

मित्र, वरुण और अर्यमा हमारे लिए कल्याणप्रद हों। इन्द्र, बृहस्पति तथा विशाल डगों वाले विष्णु हमारे लिए कल्याणकारी हों। ब्रह्म के लिए नमस्कार है। है वायुदेव ! तुम्हें नमस्कार है। तुम्हीं प्रत्यक्ष ब्रह्म हो। मैं तुमको ही प्रत्यक्ष ब्रह्म के नाम से पुकारूँगा । मैं तुम्हें ऋत नाम से और सत्य नाम से पुकारूँगा। वह ब्रह्म मेरी और मेरे आचार्य की रक्षा करे। वह मेरी और वक्ता (आचार्य) की रक्षा करे। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।

 

ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु । सह वीर्य करवावहै। तेजस्वि नावधीतमस्तु । मा विद्विषावहै ।। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।।२।।

(कृष्णयजुर्वेद : कठोपनिषद्)

 

वह (परमात्मन्) हम दोनों (गुरु-शिष्य) की साथ-साथ रक्षा करे। वह हम दोनों को साथ-साथ ही मोक्ष का आनन्द उपभोग कराये। हम दोनों श्रुति का तात्पर्य जानने के लिए एक-साथ ही पुरुषार्थ करें। हम दोनों की अध्ययन की हुई विद्या तेजोमयी हो। हम दोनों परस्पर कभी द्वेष न करें। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।

 

ॐ यश्छन्दसामृषभो विश्वरूपः । छन्दोभ्योऽध्यमृतात्सम्बभूव । स मेन्द्रो मेधया स्पृणोतु । अमृतस्य देवधारणो भूयासम् । शरीरं मे विचर्षणम्। जिह्वा मे मधुमत्तमा । कर्णाभ्यां भूरि विश्रुवम् । ब्रह्मणः कोशोऽसि मेधयाऽपिहितः । श्रुतं मे गोपाय ।। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।।३।।

(स्वरूपबोध उपनिषद् तथा तैत्तिरीयोपनिषद् वल्ली १, अनुवाक ४)

 

जो वेदों में सर्वश्रेष्ठ है, सर्वरूप है तथा अमृतस्वरूप वेदों से प्रधान रूप में प्रकट हुआ है, वह इन्द्र (परमेश्वर) मुझे धारणायुक्त बुद्धि से सम्पन्न करे। मैं अमृत को धारण करने वाला बन जाऊँ। मेरा शरीर (ब्रह्म का मनन और निदिध्यासन करने के लिए) सर्वथा रोगरहित तथा विशेष फुरतीला रहे। मेरी जिह्वा सदा-सर्वदा के लिए अतिशय मधुमती हो जाय। हे देव! मैं अपने दोनों कानों द्वारा अधिक सुनता रहूँ। हे प्रणव, तू लौकिक बुद्धि से ढकी हुई परमात्मा की निधि है। तू मेरे सुने हुए उपदेश की रक्षा कर अर्थात् ऐसी कृपा कर कि वे मुझे कभी विस्मरण न हों। ॐ शान्तिः शान्ति शान्ति ।

 

ॐ अहं वृक्षस्य रेरिव । कीर्तिः पृष्ठं गिरेरिव । ऊर्ध्वपवित्रो वाजिनीव स्वमृतमस्मि । द्रविणं सवर्चसम्। सुमेधा अमृतोऽक्षितः । इति त्रिशंकोर्वेदानुवचनम् ।। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।।४।।

(ब्रह्मानुभव उपनिषद् तथा तैत्तिरीयोपनिषद् वल्ली १, अनुवाक १०)

 

मैं ससार-वृक्ष का उच्छेद करने वाला हूँ। मेरी कीर्ति पर्वत के शिखर के समान उन्नत एवं विशाल है। सूर्य में जैसे उत्तम अमृत है, वैसे ही मैं भी अतिशय पवित्र विशुद्ध अमृतस्वरूप हूँ। मैं परम धन का भण्डार, प्रज्योतित ज्ञानी, अमर और अविनश्वर हूँ। यह त्रिशंकु ऋषि का ज्ञान-प्राप्ति के बाद व्यक्त किया हुआ वैदिक प्रवचन है। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।

 

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते । पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ।। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।।५।।

(शुक्ल यजुर्वेद ईशावास्योपनिषद्)

 

वह (परब्रह्म) पूर्ण है और यह (कार्यब्रह्म) भी पूर्ण है, क्योंकि पूर्ण से पूर्ण की ही उत्पत्ति होती है। उस पूर्ण में से पूर्ण निकाल लेने पर भी वह पूर्ण ही बचा रहता है। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।

 

ॐ आप्यायन्तु ममांगानि वाक् प्राणश्चक्षुः श्रोत्रमथो बलमिन्द्रियाणि च सर्वाणि। सर्व ब्रह्मौपनिषदं माहं ब्रह्म निराकुर्या मा मा ब्रह्म निराकरोदनिराकरणमस्त्वनिराकरणं मे अस्तु । तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु धर्मास्ते मयि सन्तु ते मयि सन्तु ।। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।।६।।

(सामवेद केनोपनिषद्)

 

मेरे अंग, वाक्, प्राण, चक्षु, श्रोत्र, बल और सम्पूर्ण इन्द्रियाँ पुष्ट हों। यह सब उपनिषद् प्रतिपादित ब्रह्म है। मैं ब्रह्म को कभी अस्वीकार न करूँ। ब्रह्म मेरा कभी परित्याग न करे। इस प्रकार हमारा परस्पर का नित्य सम्बन्ध अटूट बना रहे। आत्मा में निरन्तर निरत मुझमें उपनिषदों में प्रतिपादित धर्म नित्य बने रहें, मुझमें नित्य-निरन्तर बने रहें। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।

 

ॐ वाङ् मे मनसि प्रतिष्ठिता । मनो मे वाचि प्रतिष्ठितम्। आविरावीर्म एधि । वेदस्य म आणीस्थः । श्रुतं मे मा प्रहासीरनेनाधीतेनाहोरात्रान्संदधाम्यूतं वदिष्यामि । सत्यं वदिष्यामि । तन्मामवतु । तद्वक्तारमवतु । अवतु माम् । अवतु वक्तारम् । अवतु वक्तारम् ।। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।।७।।

(ऋग्वेद : ऐतरेयोपनिषद्)

 

मेरी वाक्-इन्द्रिय मन में स्थित हो जाय। मेरा मन वाक्-इन्द्रिय में स्थित हो जाय। ब्रह्म मेरे लिए प्रकट हो जाय। हे मन और वाणी! तुम दोनों मेरे लिए ज्ञान की प्राप्ति कराने बाले बनो। सुना हुआ ज्ञान मुझे त्याग न करे-उसे मैं कभी न भूलूँ। मैं रात-दिन निरन्तर ब्रह्म-विद्या का पठन और चिन्तन ही करता रहूँ। मैं अपनी वाणी से सदा ऋत (श्रेष्ठ वचन) ही उच्चारण करूँगा, सर्वथा सत्य ही बोलूँगा। वह (ब्रह्म) मेरी रक्षा करे। वह (ब्रह्म) मेरे आचार्य की रक्षा करे। वह (ब्रह्म) मेरी और मेरे आचार्य की रक्षा करे। मेरे आचार्य की रक्षा करे। आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक त्रिविध तापों की शान्ति हो ।

 

ॐ भद्रं नोअपिवातय मनः ।। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।।८ ।।

(ब्रह्मरहस्योपनिषद्)

 

हे परब्रह्म ! नमस्कार । मेरा मन और ये (शरीर, इन्द्रिय, प्राणादि) सौम्य, सुष्ठ और स्वस्थ बने रहें। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः।

 

ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः । स्थिरैरंगैस्तुष्टुवांसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः । स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः । स्वस्ति नस्ताक्ष्यों अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ।। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।।९।।

(अथर्ववेद: प्रश्नोपनिषद्)

 

हे पूजनीय देवगण ! हम कानों से कल्याणमय वचन ही सुनें। नेत्रों से भी हम सदा शुभ का ही दर्शन करें। हम तुम्हारा स्तवन करते रहें और सुदृढ़ एवं सुपुष्ट अंग एवं शरीर से तुम्हारे (देवताओं के) लिए हितकर आयु का भोग करें। सब ओर फैले सुयश वाले इन्द्र, सर्वज्ञ पूषा, अरिष्टनिवारक तार्थ्य (गरुड़) और बुद्धि के स्वामी बृहस्पति सदा हमारे लिए कल्याण का पोषण करें। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।

 

ॐ यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्वं । यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै । तं ह देवमात्मबुद्धिप्रकाशं मुमुक्षुर्वं शरणमहं प्रपद्ये ।। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।।१०।।

(योगसार उपनिषद्)

 

जो परमेश्वर आदि में ब्रह्मा की सृष्टि करते हैं, जिन्होंने उसको वेद प्रदान किये और जो आत्मा तथा बुद्धि के प्रकाशक हैं, मैं मुमुक्षु उन परम देव की शरण ग्रहण करता हूँ। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।

 

हरिः ॐ अनिमीले पुरोहितं । यज्ञस्य देवमृत्विजम् । होतारं रत्नधातमम् ।।

(ऋग्वेदसंहिता)

 

मैं (देवताओं में) पुरोहित (रूप से वर्तमान), पूजा-कर्म के देने वाले, ऋत्विक् (ऋतु में देवताओं को पूजने वाले), होता (देवताओं को बुलाने वाले), रमणीय धनों के सबसे अधिक देने वाले अग्नि की स्तुति करता हूँ।

 

हरिः ॐ इपे त्वोर्जेत्वा । वायव स्तो पायवस्थः देवो वस्सविता प्रार्पयतु । श्रेष्ठतमाय कर्मणे आप्यायध्वम्। अघ्न्या देवभागम्। ऊर्जस्वती पयस्वती ।।

(कृष्णयजुर्वेदसंहिता)

 

सविता (जगत् की उत्पत्ति करने वाला परमात्मा) हमारी प्राणादि इन्द्रियों को अत्युत्तम करने योग्य कर्म में भली प्रकार नियोजित करे। हम लोग अन्नादि श्रेष्ठ पदार्थ तथा पौरुष की प्राप्ति के लिए सेवा करने योग्य आपका आश्रय ग्रहण करते हैं। देवताओं के भाग की वृद्धि और पोषण नित्य होता रहे।

 

हरिः ॐ इषे त्वोर्जे त्वा । वायव स्थ देवो वः सविता प्रार्पयतु । श्रेष्ठतमाय कर्मणे आप्यायध्वम् । अघ्न्या इन्द्राय भागं । प्रजावतीरनमीवा अयक्ष्मा । मा वस्तेन ईशत माघशंसः । ध्रुवा अस्मिन् गोपतो स्यात। बहूवीर्यजमानस्य पशून्याहि ।।

(शुक्लयजुर्वेदसंहिता)

 

सविता (परमात्मा) हमारे इन्द्रिय, मन तथा प्राणादि को श्रेष्ठ कर्तव्य कर्म में सम्यक् प्रकार से संयुक्त करे। हम लोग अन्न इत्यादि उत्तम पदार्थ तथा पराक्रम की प्राप्ति के लिए उसका आश्रय लेते हैं। हे मित्र लोग। तुम भी ऐसा हो कर उन्नति को प्राप्त हो तथा हम भी हों। हे भगवन्! परमैश्वर्य की प्राप्ति के लिए हम बहुत सन्तान वाले हों और व्याधि तथा यक्ष्मादि रोग से रहित गौ आदि पशु हमें सदैव प्राप्त हों। हम लोगों में पापी तथा चोर-डाकू न उत्पन्न हों। इस पशु के स्वामी यजमान के पास बहुत से उक्त पदार्थ निश्चल सुख के हेतु हों तथा आप इसके गौ, घोड़े आदि पशु तथा इसकी लक्ष्मी और प्रजा (सन्तान) की रक्षा करें।

 

हरिः ॐ अग्न आयाहि वीतये। गृणानो हव्यदायते। नि होता सत्सि बर्हिषि ।।

(सामवेदसंहिता )

 

हे अग्रिदेव! हवि को भक्षण करने के निमित्त हमारे द्वारा स्तुति किये हुए आप आइए और देवताओं को हवि पहुँचाने के निमित्त होता (उनको बुलाने बाले) बन कर बिछे हुए कुशासन पर विराजिए।

 

हरिः ॐ शं नो देवीरभिष्टय, आपो भवन्तु पीतये । शं योरभिस्रवन्तु नः । हरिः ॐ।।

(अथर्ववेदसंहिता)

 

हे (विद्या) देवी! मेरे पी जाने के लिए तू जल बन जा तथा रोग-पापनाशक, भयनिवर्तक हो कर हमारे ऊपर तेज, वीर्य और सुख की वर्षा कर।

 

११. पुरुषसूक्तम्

 

ॐ सहस्रशीर्षा पुरुषः । सहस्राक्षः सहस्रपात्। स भूमिं विश्वतो वृत्वा । अत्यतिष्ठद्दशांगुलम् । पुरुष एवेदं सर्वम् । यद्भूतं यच्च भव्यम् । उतामृतत्वस्येशानः । यदन्नेनातिरोहति । एतावानस्य महिमा। अतो ज्यायांश्च पूरुषः । पादोऽस्य विश्वा भूतानि । त्रिपादस्यामृतं दिवि । त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषः । पादो ऽस्येहाभवात्पुनः । ततो विष्वङ्ख्यक्रामत् । साशनानशने अभि । तस्माद्विराडजायत । विराजो अधि पूरुषः । स जातो अत्यरिच्यत। पश्चाद्भूमिमथो पुरः । यत्पुरुषेण हविषा । देवा यज्ञमतन्वत । वसन्तो अस्यासीदाज्यम् । ग्रीष्म इध्मः शरद्धविः । सप्तास्यासन् परिधयः । त्रिः सप्त समिधः कृताः । देवा यद्यज्ञं तन्वानाः । अबध्नन्पुरुषं पशुम् । तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन् । पुरुषं जातमग्रतः तेन देवा अयजन्त । साध्या ऋषयश्च ये । तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः । संभृतं पृषदाज्यम् । पशू स्तांश्चक्रे वायव्यान् । आरण्यान् ग्राम्याश्च ये। तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः । ऋचः सामानि जज्ञिरे । छन्दांसि जज्ञिरे तस्मात् । यजुस्तस्मादजायत । तस्मादश्वा अजायन्त । ये के चोभयादतः । गावो ह जज्ञिरे तस्मात् । तस्माज्जाता अजावयः । यत्पुरुषं व्यदधुः । कतिधा व्यकल्पयन् । मुखं किमस्य कौ बाहू। कावूरू पादावुच्येते । ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीत् । वाहू राजन्यः कृतः । ऊरू तदस्य यद्वैश्यः । पद्भ्यां शूद्रो अजायत । चन्द्रमा मनसो जातः । चक्षोः सूर्यो अजायत। मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च । प्राणाद्वायुरजायत । नाभ्या आसीदन्तरिक्षं। शीष्णों द्यौः समवर्तत । पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्। तथा लोकानकल्पयन् । वेदाहमेतं पुरुषं महान्तम् । आदित्यवर्णं तमसस्तु पारे । सर्वाणि रूपाणि विचिन्त्य धीरः । नामानि कृत्वाऽभिवदन् यदास्ते। धाता पुरस्ताद्यमुदाजहार । शक्रः प्रविद्वान् प्रदिशश्चतस्रः । तमेवं विद्वानमृतं इह भवति । नान्यः पन्था अयनाय विद्यते । यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः। तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् । ते ह नाकं महिमानः सचन्ते । यन्त्र पूर्व साध्याः सन्ति देवाः ।।

 

अद्भ्यः सम्भूतः पृथिव्यै रसाच्च । विश्वकर्मणः समवर्तताधि । तस्य त्वष्टा विदधद्रूपमेति । तत्पुरुषस्य विश्वमाजानमग्रे । वेदाहमेतं पुरुषं महान्तम्। आदित्यवर्ण तमसः परस्तात् । तमेवं विद्वानमृत इह भवति । नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय । प्रजापतिश्चरति गर्भे अन्तः । अजायमानो बहुधा विजायते ।।

 

तस्य धीराः परिजानन्ति योनिम् । मरीचीनां पद्मिच्छन्ति वेधसः । योग देवेभ्य आतपति । यो देवानां पुरोहितः। पूर्वो यो देवेभ्यो जातः । नमो रुचाय ब्राह्मये । रुचं ब्राह्म जनयन्तः । देवा अग्रे तदब्रुवन्। यस्त्वैवं ब्राह्मणो विद्यात् । तस्य देवा असन् वशे। ह्रीश्च ते लक्ष्मीश्च पत्न्यौ । अहोरात्रे पावें । नक्षत्राणि रूपम्। अश्विनी व्यात्तम् । इष्टं मनिषाण । अमुं मनिषाण । सर्वं मनिषाण ।।

 

१२. नारायणसूक्तम्

 

सहस्रशीर्ष देवं विश्वाक्षं विश्वशम्भुवम् ।

विश्वं नारायणं देवमक्षरं परमं पदम् ।।

 

विश्वतः परमान्नित्यं विश्वं नारायणं हरिम् ।

विश्वमेवेदं पुरुषस्तद्विश्वमुपजीवति ।।

 

पतिं विश्वस्यात्मेश्वरं शाश्वतं शिवमच्युतम् ।

नारायणं महाज्ञेयं विश्वात्मानं परायणम् ।।

 

नारायणपरो ज्योतिरात्मा नारायणः परः ।

नारायणपरं ब्रह्म तत्त्वं नारायणः परः ।

नारायणपरो ध्याता ध्यानं नारायणः परः ।।

 

यच्च किंचिजगत्सर्वं दृश्यते श्रूयतेऽपि वा।

अन्तर्बहिश्च तत्सर्वं व्याप्य नारायणः स्थितः ।।

 

अनन्तमव्ययं कविं समुद्रेऽन्तं विश्वशम्भुवम् ।

पद्मकोशप्रतीकाशं हृदयं चाप्यधोमुखम् ।।

 

अधो निष्ट्या वितस्त्यान्ते नाभ्यामुपरि तिष्ठति ।

ज्वालमालाकुलं भाति विश्वस्यायतनं महत् ।।

सन्ततं शिलाभिस्तु लम्बत्याकोशसन्निभम् ।

तस्यान्ते सुषिरं सूक्ष्मं तस्मिन्सर्वं प्रतिष्ठितम् ।।

 

तस्य मध्ये महानग्निर्विश्वार्चिर्विश्वतोमुखः ।

सोऽग्रभुग्विभजन्तिष्ठन्नाहारमजरः कविः ।।

 

तिर्यगूर्ध्वमधश्शायी रश्मयस्तस्य सन्तता ।

सन्तापयति स्वं देहमापादतलमस्तगः ।

तस्य मध्ये वह्निशिखा अणीयोर्ध्वा व्यवस्थितः ।।

 

नीलतोयदमध्यस्था विद्युल्लेखेव भास्वरा।

नीवारशूकवत्तन्वी पीता भास्वत्यणूपमा ।।

 

तस्याः शिखाया मध्ये परमात्मा व्यवस्थितः ।

स ब्रह्मा स शिवः स हरिः सेन्द्रः सोऽक्षरः परमः स्वराट् ।।

 

ऋतं सत्यं परं ब्रह्म पुरुषं कृष्णपिंगलम्।

ऊध्वरेतं विरूपाक्षं विश्वरूपाय वै नमो नमः ।।

 

नारायणाय विद्महे वासुदेवाय धीमहिः।

तन्नो विष्णुः प्रचोदयात् ।।

 

विष्णोर्नुकं वीर्याणि प्रवोचं यः पार्थिवानि विममे रजांसि यो अस्कभायदुत्तरं सधस्थं विचक्रमाणस्त्रेधोरुगायो विष्णो रराटमसि विष्णोः पृष्ठमसि विष्णोः श्ञप्त्रे स्थो विष्णोस्स्यूरसि विष्णोध्रुवमसि वैष्णवमसि विष्णवे त्वा ।। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।।

 

१३. खेलति पिण्डाण्डे

(श्री सदाशिवब्रह्मेन्द्रकृतम्)

 

गीत

 

खेलति पिण्डाण्डे भगवान् खेलति पिण्डाण्डे ।

 

हंसः सोऽहंः हंसः सोऽहं हंसः सोऽहं सोऽह-मिति ।।१ (खेलति...)

 

परमात्माहं परिपूर्णोऽहं ब्रह्मैवाहं ब्रह्मेति ।।२ (खेलति...)

 

त्वक्-चक्षु-श्रुति-जिह्वा-प्राणे पंचविध-प्राणोपस्थाने ।।३ (खेलति...)

 

शब्द-स्पर्श-रसादिक-मात्रे सात्त्विक-राजस-तामस-मित्रे ।।४ (खेलति...)

बुद्धि-मन-श्चित्ताहंकारे भू-जल-तेजो-गगन-समीरे ।।५ (खेलति...)

 

परमहंस-रूपेण विहर्ता ब्रह्मा-विष्णु-रुद्रादिक-कर्ता ।।६ (खेलति…)

 

भगवान् पिण्डाण्ड में (इस व्यष्टि जगत् में) खेलता है, वह इस जीव-शरीर में खेलता है।

 

यह कहते हुए मैं वही (परमात्मा) हूँ। वही (परमात्मा) मैं हूँ, वही मैं हूँ, मैं वही हूँ, वहीं मैं हूँ। मैं वही हूँ, वह खेलता है।।१

 

यह कहते हुए खेलता है, 'मैं परमात्मा हूँ, मैं परिपूर्ण हूँ, मैं ब्रह्म ही हूँ, ब्रह्म ही हूँ।।२

 

वह पाँच प्रकार के प्राणों के धाम में, चर्म, चक्षु, श्रोत्र, जिह्वा तथा नासिका आदि इन्द्रियों के स्थान में खेलता है ।।३

 

वह शब्द, स्पर्श, रस आदि तन्मात्राओं में तथा सात्त्विक, राजस तथा तामस गुणों में खेलता है ।।४

 

वह बुद्धि, मन, चित्त, अहंकार में, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश तत्त्वों में खेलता है ।।५

 

वह परमहंसों के रूप में विहार करता है। उसने ही ब्रह्मा, विष्णु तथा रुद्र आदि का सृजन किया था ।।६

 

१४. चिन्ता नास्ति किल

(श्री सदाशिवब्रह्मेन्द्रकृतम्)

 

श्लोक

आकाशव-ल्लेप-विदूरगोऽह-

मादित्यवद्-भास्य-विलक्षणोऽहम् ।

अहार्यव-न्नित्य-विनिश्चलोऽहं

अम्भोधिवत्-पार-विवर्जितोहम् ।।

मैं आकाश के समान प्रत्येक वस्तु से अलिप्त हूँ। आदित्य के समान स्वयंप्रकाश हूँ, मुझे किसी दूसरे प्रकाश की अपेक्षा नहीं है, पर्वत के समान सदा निश्चल अटल हूँ और सागर के समान असीम हूँ, मेरा कोई कूल-किनारा नहीं है।

 

गीत

 

चिन्ता नास्ति किल तेषां,

चिन्ता नास्ति किल ।

 

शम-दम-करुणा-सम्पूर्णानाम् ।

साधु-समागम-संकीर्णानाम् ।।१ (चिन्ता नास्ति...)

 

काल-त्रय-जित-कन्दर्पानाम् ।

खण्डित-सर्वेन्द्रिय-दर्पाणाम् ।।२ (चिन्ता नास्ति...)

 

परमहंस-गुरु-पद-चित्तानाम् ।

ब्रह्मानन्दामृत-मत्तानाम् ।।३ (चिन्ता नास्ति...)

 

उनको कोई चिन्ता नहीं, बिलकुल चिन्ता नहीं है।

 

जो शम, दम और करुणा आदि गुणों से परिपूर्ण हैं और जो साधु-सन्तों के समाज से घिरे हुए होते हैं ।।१

 

जिन्होंने भूत, भविष्य और वर्तमान- तीनों कालों में काम पर विजय पा ली है तथा सभी इन्द्रियों के गर्व को चूर कर दिया है।।२

 

जिनका चित्त हमेशा परमहंस गुरुचरणों में लगा रहता है और जो ब्रह्मानन्दरूपी अमृत से मस्त रहते हैं ।।३

 

उनके लिए चिन्ता नहीं है, बिलकुल चिन्ता नहीं है।

 

 

नामावली

 

सत्यं ज्ञान-मनन्तं ब्रह्म ।

नित्यानन्द-स्वरूपं ब्रह्म ।।

ब्रह्म सत्य, ज्ञान तथा अनन्त है।

ब्रह्म का स्वरूप नित्यानन्द है।

 

१५. मानस संचर रे ब्रह्मणि

(श्री सदाशिवब्रह्मेन्द्रकृतम्)

 

श्लोक

 

एष स्वयं-ज्योति-रनन्त-शक्ति-

रात्माऽप्रमेयः सकलानुभूतिः ।

य-मेव-विज्ञाय विमुक्त-बन्धो

जय-त्ययं ब्रह्मवि-दुत्तमोत्तमः ।।

 

यह स्वयंप्रकाश सर्वोत्तम आत्मा अनन्त शक्तिशाली है। वह किसी भी प्रमाण से नापा नहीं जा सकता है; परन्तु सबकी अनुभूति का विषय है। उसको जान लेने से ब्रह्मज्ञानियों में श्रेष्ठ पुरुष जन्म-मरण के सारे बन्धनों से मुक्त हो जाता है।

 

गीत

 

मानस संचर से ब्रह्मणि, मानस संचर रे ।

 

श्री रमणी-कुच-दुर्ग-विहारे

सेवक-जन-मन्दिर-मन्दारे ।।१ (मानस...)

 

मद-शिखि-पिञ्छालंकृत-चिकुरे

महनीय-कपोल-विजित-मुकुरे ।।२ (मानस...)

 

परमहंस-मुख-चन्द्र-चकोरे

परिपूरित-मुरली-रवधारे ।।३ (मानस...)

 

हे मन! उस ब्रह्म में विचरण कर, विचरण कर।

 

जो श्री लक्ष्मी जी का प्रिय है, भक्तजनों की इच्छाओं को पूरा करने में कल्प-वृक्ष के समान है ।।१

 

जिसके कुन्तल मत्त मयूर के पखों से सुशोभित हैं और जिसके मनोहर कपोलों के आगे दर्पण भी हार जाता है ।।२

 

जो परमहंस के मुख-रूपी चन्द्र में चकोर पक्षी के समान आनन्द मानता है तथा जिसके हाथ में अनन्त स्वर लहरियों से भरी हुई मुरली है ।।३

 

नामावली

 

भक्तवत्सल गोविन्द । भागवत-प्रिय गोविन्द ।।

पतित-पावन गोविन्द । परम दयालो गोविन्द ।।

नन्द-मुकुन्द गोविन्द । नवनीत-चोर गोविन्द ।।

वेणु-विलोल गोविन्द। विजय-गोपाल गोविन्द ।।

 

१६. तद्वत् जीवत्वं ब्रह्मणि

(श्री सदाशिवब्रह्मेन्द्रकृतम्)

 

श्लोक

 

अन्त-ज्योंति-र्बहि-ज्योतिः प्रत्य-ग्ज्योतिः परात्परः ।

ज्योति-ज्योंतिः स्वयं-ज्योति-रात्म-ज्योतिः शिवोऽस्म्यहम् ।।

 

मैं वह शिव हूँ जो कि आन्तरिक ज्योति, बाह्य-ज्योति, आद्य-ज्योति तथा परात्पर-ज्योति है, जो कि ज्योतियों की ज्योति, स्वयं ज्योति तथा आत्म-ज्योति है।

गीत

 

तद्वत् जीवत्वं ब्रह्मणि, तद्वत् जीवत्वं ।

 

यद्वत् तोये चन्द्र-द्वित्वम् ।

यद्व-न्मुकुरे प्रतिबिम्बत्वम् ।।१ (तद्वत्...)

 

स्थाणौ यद्व-न्नर-रूपत्वम् ।

भानु-करे यद्वत् तोयत्वम् ।।२ (तद्वत्...)

 

शुक्तौ यद्वत् रजतमयत्वम् ।

रज्जौ यद्वत् फणि-देहत्वम् ।।३ (तद्वत्...)

 

परमहंस-गुरुणा अद्वय-विद्या

भणिता धिक्कृत-माया-विद्या ।।४ (तद्वत्…)

 

ब्रह्म में जीवत्व वैसे ही है, जैसे कि जल में चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब देख कर दो चन्द्रमा होने का भ्रम होना, अथवा दर्पण में अपनी परछाईं ।।१

 

अथवा अन्धकार में वृक्ष के दूँठ को देख कर उसके मनुष्य होने का भ्रम, अथवा मृग-मरीचिका में जल का भ्रम ।।२

 

अथवा सीपी में चाँदी का भ्रम, अथवा क्षीण प्रकाश में रज्जु में सर्प का भ्रम ।। ३

 

परमहंस गुरु के द्वारा बतलायी हुई अद्वैत विद्या माया को दूर कर देती है ।।४

 

नामावली

 

अन्त-ज्योति-र्बहि-ज्योतिः प्रत्य-ग्ज्योतिः परात्परः ।

ज्योति-ज्योतिः स्वयं-ज्योति-रात्म-ज्योतिः शिवोऽस्म्यहम् ।।

 

१७. मज गोविन्दम्

(श्री शंकराचार्यकृतम्)

 

श्लोक

 

नमः परस्मै पुरुषाय भूयसे सदुद्भव-स्थान-निरोध-लीलया ।

गृहीत-शक्ति-त्रितयाय देहिना-मन्तर्भवायानुपलक्ष्य-वर्त्मने ।।

 

मैं उस परम पुरुष को नमस्कार करता हूँ जिसने जगत् की सृष्टि की स्थिति, पालन तथा विनाश की लीला के लिए त्रिमूर्ति का रूप धारण कर रखा है तथा जो सभी भूतों में अन्तर्यामी के रूप से आसीन है और जिसकी चाल सबके लिए अज्ञेय है।

 

गीत

 

भज गोविन्दं भज गोविन्दं, गोविन्दं भज मूढ- मते ।

सम्प्राप्ते सन्निहिते काले नहि नहि रक्षति डुकृञ्-करणे ।।१ (भज...)

 

का ते कान्ता कस्ते पुत्रः संसारोऽयमतीव विचित्रः ।

कस्य त्वं वा कुत आयातः तत्त्वं चिन्तय यदिदं भ्रातः ।।२ (भज...)

 

सत्संगत्वे निःसंगत्वे निःसंगत्वे निर्मोहत्वम् ।

निर्मोहत्वे निश्चल-चित्तं निश्चल-चित्ते जीवन्मुक्तिः ।।३ (भज...)

 

मा कुरु धन-जन-यौवन-गर्व हरति निमेषात्, कालः सर्वम्।

माया-मय-मिदं-मखिलं हित्वा ब्रह्म-पदं त्वं प्रविश विदित्वा ।।४ (भज...)

 

दिन-मपि रजनी सायं-प्रातः शिशिर वसन्तौ पुन-रायातः ।

कालः क्रीडति गच्छ-त्यायु-स्त-दपि न मुंच-त्याशा-वायुः ।।५ (भज...)

 

काते कान्ता धन-गत-चिन्ता वातुल किं तव नास्ति नियन्ता ।

क्षण-मपि सज्जन-संगति-रेका-भवति भवार्णव-तरणे नौका ।।६ (भज...)

 

योग-रतो वा भोग रतो वा संग-रतो वा संग-विहीनः ।

यस्य ब्रह्मणि रमते चित्तं नन्दति नन्दति नन्द-त्येव ।।७ (भज...)

 

पुन-रपि जननं पुन-रपि मरणं पुन-रपि जननी-जठरे शयनम् ।

इह संसारे बहु-दुस्तारे कृपयाऽपारे पाहि मुरारे ।।८ (भज...)

 

रथ्या-कर्पट-विरचित-कन्थः पुण्यापुण्य-विवर्जित-पन्थः ।

योगी योग-नियोजित-चित्तो रमते बालोन्मत्तव-देव ।।९ (भज...)

 

त्वयि मयि सर्वत्रैको विष्णु-र्व्यर्थ कुप्यसि मय्यसहिष्णुः ।

सर्वस्मि-न्नपि पश्यात्मानं सर्वत्रोत्सृज भेदाज्ञानम् ।।१० (भज...)

 

गेयं गीता-नाम-सहस्रं ध्येयं श्रीपति-रूप-मजस्रम् ।

नेयं सज्जन-संगे चित्तं देवं दीन-जनाय च वित्तम् ।।११ (भज...)

 

गुरु-चरणाम्बुज-निर्भर-भक्तः संसारा-दचिराद्-भव मुक्तः ।

सेन्द्रिय-मानस-नियमा-देवं द्रक्ष्यसि निज-हृदयस्थं देवम् ।।१२ (भज...)

 

 

हे मूढ़ नर, गोविन्द का भजन करो, गोविन्द की शरण जाओ, गोविन्द का कीर्तन करो। मृत्युकाल के निकट आने पर यह व्याकरण-सूत्र (डुकृञ्करणे) तुम्हारी सहायता नहीं करेगा ।।१

 

तुम्हारी स्त्री कौन है, तुम्हारा पुत्र कौन है? यह संसार बड़ा ही विचित्र है, तुम किसके हो, तुम कहाँ से आये हो? हे भाई! इस तत्त्व का विचार तो करो ।।२

 

सत्संग के द्वारा अनासक्ति की प्राप्ति होती है, अनासक्ति से मोह का निवारण होता है, मोह के नष्ट हो जाने पर चित्त शान्त हो जाता है तथा चित्त की शान्ति से जीवन्मुक्ति की प्राप्ति हो जाती है ।।३

 

धन, जन तथा यौवन का अभिमान न करो। काल क्षण मात्र में ही इन सबको नष्ट कर डालता है। इन सारे मायामय विषयों का परित्याग कर ज्ञान के द्वारा ब्रह्मपद को प्राप्त करो ।।४

 

बारम्बार दिन, रात्रि, सायं, प्रात, शिशिर तथा वसन्त का पुनरागमन होता रहता है; काल क्रीड़ा कर रहा है, वायु बीतती जा रही है, फिर भी आशा की श्रृंखला टूटती नहीं ।।५

 

हे पागल नर! कौन तुम्हारी स्त्री है? तुम धन के लिए यह चिन्ता क्यों करते हो? क्या कोई भी व्यक्ति तुम्हारा नियन्ता अथवा पथ-प्रदर्शक नहीं है? एक क्षण के लिए भी सज्जनों की संगति संसार सागर से पार ले जाने के लिए नौका के समान है।।६

 

चाहे मनुष्य योग में रत हो अथवा भोग में, किसी के संग में हो अथवा संग-रहित, परन्तु जिसका मन ब्रह्म में ही आनन्द लेता है, एकमेव वही वास्तव में बारम्बार आनन्द लेता है ।।७

 

पुनः जन्म, पुनः मृत्यु तथा पुनः माता के गर्भ में पड़ना। यह संसार बहुत ही दुस्तर है। ईश्वर ही अपनी करुणा से मुझे पार उतारे ।।८

 

सड़क पर पड़े हुए फटे-पुराने चिथड़े पहन कर पाप-पुण्य से विवर्जित मार्ग का अनुगमन कर योगी गम्भीर ध्यान में मग्न होता है, शिशु के समान अथवा उन्मत्त मनुष्य के समान आनन्द लूटता है ।।९

 

तुममें, मुझमें तथा सर्वत्र वह एक ही विष्णु वर्तमान है; फिर भी सहिष्णुता से रहित हो कर तुम व्यर्थ ही क्रोध कर रहे हो। सबमें एक ही आत्मा के दर्शन करो। भेद-भ्रान्ति का सर्वत्र परित्याग करो ।।१०

 

भगवद्गीता तथा विष्णुसहस्रनाम का गायन करो। लक्ष्मीपति नारायण पर सतत ध्यान लगाओ। अपने मन को सज्जनों की संगति में लगाओ। अपने सारे धन को गरीबों तथा पीड़ितों को दे डालो ।।११

 

गुरु के चरण कमल में अविचल भक्ति के द्वारा तुम अल्प समय में ही संसार से विमुक्त हो जाओगे। इन्द्रियों तथा मन के निग्रह द्वारा तुम अपने हृदय में ही ज्योति के दर्शन करोगे ।।१२

 

नामावली

 

गोविन्द जय जय गोपाल जय जय ।

राधा-रमण हरि-गोविन्द जय जय ।।

१८. नमो आदिरूप

(श्री तुकारामकृतम्)

 

श्लोक

 

त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव ।

त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव, त्वमेव सर्वं मम देव-देव ।।

 

हे देवाधिदेव! तू ही मेरी माँ, तू ही मेरा पिता, मेरा बन्धु, मित्र, विद्या, धन और सर्वस्व है।

 

गीत

 

नमो आदिरूप ओंकार-स्वरूप

विश्वाचिय बाप श्री पाण्डुरंगा ।।१

 

तुजिया सत्तेने तुझे गुण गाऊँ

तेणें सुखी राहूँ सर्व काल ।।२ (नमो...)

 

तूंचि वक्ता ज्ञानासि अंजन

सर्व होणें जाणें तुझया हाती ।।३ (नमो...)

 

तुका म्हणे जेथें नाहिं मी-तू-पण ।

स्तवाव तें कोण कोण लागी ।।४ (नमो...)

 

आदिस्वरूप और ओंकार-रूपी हे पाण्डुरंग, हे जगत्पिता, मुझे प्रणाम ।।१

 

हे भगवान्, तेरी कृपा से तेरे गुण गाऊँ और फिर सदा सुखी रहूँ।।२

 

तू ही वक्ता है और ज्ञान-प्राप्ति का अंजन है। जो-कुछ होता है, सब तेरे हाथ में है।।३

 

तुकाराम कहता है कि जब 'मैं-पन' और 'तू-पन' ही समाप्त हो गया तो कौन किसकी स्तुति करे ।।४

नामावली

 

नमो आदिरूप ओंकार-स्वरूप।

जय पाण्डुरंगा जय पाण्डुरंगा ।।

 

१९. आदि बीज एकले

(श्री तुकारामकृतम्)

 

श्लोक

 

यस्मा-दिदं जग-दुदेति चतुर्मुखाद्य

यस्मिन्नवस्थित-मशेष-मशेष-मूले ।

यत्रोपयाति विलयं च समस्त-मन्ते

दृ-ग्गोचरो भवतु मेऽद्य स दीन-बन्धुः ।।

 

आदि-काल में जिससे चतुर्मुख ब्रह्मा आदि सारी सृष्टि उदित होती है, जिस एक मूल में समस्त संसार अवस्थित रहता है और अन्त में जिसमें सब-कुछ विलीन हो जाता है, वह दीनबन्धु आज मेरे दृष्टिगोचर हो!

 

गीत

 

आदि बीज एकले

बीज अंकुरले रोप बाढले ।

एक बीजापोटी तरु कोटि कोटि

जन्म घेती सुमनें फलें

कोटि जन्म घेती सुमनें फलें ।।१ (आदि...)

 

व्यापुनि जगता तूं हि अनन्ता

बहुविधरूपा घेसि घेसि

परी अन्ती ब्रह्म एकले

घेसि परी अन्ती ब्रह्म एकले ।।२ (आदि...)

प्रथमतः वहाँ केवल एक बीज था। बीज फूटा, अंकुरित हुआ और पौधा बना। एक बीज के अन्दर करोड़ों पेड़, फूल और फल पैदा होते हैं।।१

 

हे अनन्त, तू ही सारे जग में व्याप्त हो कर अनेकानेक रूप धारण करता है; परन्तु अन्त में एकमात्र ब्रह्म ही रहता है ।।२

 

नामावली

 

जय हरि विट्ठल पाण्डुरंगा विठ्ठल ।

जय हरि विट्ठल पाण्डुरंगा विठ्ठल ।

जय हरि विठ्ठल पाण्डुरंगा विठ्ठल ।

 

२०. नहि रे नहि शंका

(श्री सदाशिवब्रह्मेन्द्रकृतम्)

 

श्लोक

 

रवे-र्यथा कर्मणि साक्षि-भावो वह्ने-र्यथा दाह-नियामकत्वम्।

रज्जो-र्यथारोपित-वस्तु-संगः तथैव कूटस्थ-चिदात्मनो मे ।।

 

जिस प्रकार सूर्य प्रत्येक कार्य का साक्षी है, जिस प्रकार अग्नि में दाहक शक्ति या रस्सी में सर्प का भ्रम आरोपित होता है, उसी प्रकार मेरा भी सम्बन्ध इन वस्तुओं से है। वास्तव में तो मैं कूटस्थ और चिदात्मा हूँ।

 

गीत

 

नहि रे नहि शंका काचित्

नहि रे नहि शंका ।

अज-मक्षर-मद्वैत-मनन्तं

ध्यायन्ति ब्रह्म परं शान्तम् ।।१ (नहि रे...)

 

ये त्यजन्ति बहुतर-परितापं

ये भजन्ति सच्चित्-सुख-रूपम् ।।२ (नहि रे...)

 

परमहंसगुरु-भणितं गीतं

ये पठन्ति निगमार्थ-समेतम् ।।३ (नहि रे...)

 

कोई शका नहीं है। कुछ भी शका नहीं है।

 

जो अजन्मा, अविनाशी, अद्वितीय, अनन्त, परम शान्त ब्रह्म का ध्यान करते हैं, उनको कोई शंका नहीं है।।१

 

जो अनेकों प्रकार के सांसारिक सन्तापों का त्याग कर सत्-चित्-आनन्द-रूप ब्रह्म का भजन करते हैं, उनको कोई शका नहीं है ।।२

 

परमहंस गुरुओं द्वारा गाये गये गीतों को, जिनमें कि सारे वेदों का अर्थ समाया हुआ है, जो गाते हैं, उनको कोई शंका नहीं है।।३

 

नामावली

 

ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ विचार।

ॐ ॐ ॐ ॐ भज ॐकार ।।

 

२१. सर्वं ब्रह्ममयम्

(श्री सदाशिवब्रह्मेन्द्रकृतम्)

 

गीत

 

सर्व ब्रह्म-मयं रे रे, सर्वं ब्रह्म-मयम् ।।

किं वचनीयं कि-मवचनीयं

कि रचनीयं कि-मरचनीयम् ।।१ (सर्व...)

 

किं पठनीयं कि-मपठनीयं ।

किं भजनीयं कि-मभजनीयम् ।।२ (सर्व...)

 

किं बोधव्यं कि-मबोधव्यं

किं भोक्तव्यं कि-मभोक्तव्यम् ।।३ (सर्व...)

 

सर्वत्र सदा हंस-ध्यानं

कर्तव्य भो मुक्ति-निधानम् ।।४ (सर्व...)

 

सब ब्रह्म ही है, देखो सब ब्रह्म ही है।

 

कहने के लिए क्या है, न कहने के लिए क्या है? करने के लिए क्या है, न करने के लिए क्या है?।।१

 

सीखने के लिए क्या है, न सीखने के लिए क्या है? पूजा करने के लिए क्या है, न पूजा करने के लिए क्या है? ।।२

 

जानने के लिए क्या है, न जानने के लिए क्या है? भोग करने के लिए क्या है, न भोग करने के लिए क्या है? ।।३

 

व्यक्ति को सदा सर्वदा हंस का ही ध्यान करना चाहिए। यही मुक्ति प्रदान करता है ।।४

 

नामावली

 

नारायण, नारायण, नारायण, लक्ष्मी ।

 

२२. सब हैं समाना

 

सब हैं समान सबमें एक प्राण,

त्याग के अभिमान हरिनाम गाओ ।

हरिनाम गाओ दया अपनाओ,

अपने हृदय में हरि को बसाओ ।।

 

हरिनाम प्यारा सबका सहारा,

हरिनाम जप के सुख शान्ति पाओ ।

कहे निवृत्ति हरिनाम भक्ति,

हरिनाम शक्ति सबको देवे मुक्ति ।।

 

२३. एक सार नाम

 

एक सार नाम हरि भज हरि ।

हरि हरे तेरी चिन्ता सारी ।। (एक सार...)

 

एक नाम सिद्ध रे राम कृष्ण गोविन्द ।

जप के आनन्द पायो मन ।। (एक सार...)

 

पन्थ और सारे छोड़ दूसरे रे ।

कृष्ण नाम गा रे प्यारे प्यारे ।। (एक सार...)

 

जप ज्ञानदेव हरि नाम माला ।

हरष निराला पाया पाया ।। (एक सार...)

 

२४. अठारह सद्गुण

 

श्री राम जय राम जय जय राम ॐ ।

श्री राम जय राम जय जय राम ॐ ।।

 

सत्यता, दयालुता, शुद्धता,

प्रसन्नता, निर्मलता, नियमितता,

अशत्रुता, मित्रता, आर्जवता,

समानता, एकाग्रता, अरोषता,

युक्तता, नम्रता, दृढ़ता,

एकता, शालीनता, उदारात्मता,

अभ्यास करो नित्य इन अठारह गुणों का,

पाना चाहो शीघ्र ही जो अमरता।

अद्वितीय ब्रह्म ही एक सत्यता,

और सब संसार है मिथ्या नाता ।

पाओगे अमर धाम अनन्तता का,

देखोगे अगर विभिन्नता में एकता ।

मिले न यह ज्ञान यूनिवर्सिटी में,

कृपा हो गुरु की मिले शाश्वतता ।।

 

श्री राम जय राम जय जय राम ॐ ।

श्री राम जय राम जय जय राम ॐ।।

 

२५. दिव्य जीवन

 

हरे राम हरे राम, राम राम हरे हरे ।

हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।।

 

सेवा प्रेम दान पवित्रता ध्यान साक्षात्कार।

भले बनो भला करो दयालु बनो ।।

सेवा भक्ति ध्यान द्वारा साक्षात्कार पाओ ।

भले बनो भला करो दयालु बनो ।।

अभ्यास करो अहिंसा और सत्य पवित्रता ।

यही है आधारशिला योग वेदान्त का ।।

स्वयं को पूछो 'कौन हूँ मैं' मोक्ष प्राप्त करो।

प्रश्न करो निज आत्मा से 'कौन हूँ मैं' ।।

शरीर नहीं यह मन नहीं मैं शाश्वत आत्मा हूँ।

बुद्धि नहीं इन्द्रिय नहीं मैं शाश्वत आत्मा हूँ।।

इसको जानो मुक्ति पाओ कर्तव्य है यही ।

इसको जानो अविलम्ब अभी और यहीं ।।

दिव्य जीवन यापन करो कहते गुरुदेव ।

दिव्यता में वास करो कहें शिवानन्द ।।

 

हरे राम हरे राम, राम राम हरे हरे ।

हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।।

 

२६. कोई-कोई जाने रे

 

मेरा सत-चित-आनन्द रूप, कोई-कोई जाने रे,

द्वैत वचन का मैं हूँ स्रष्टा, मन-वाणी का मैं हूँ द्रष्टा ।

मैं हूँ साक्षिस्वरूप, कोई-कोई जाने रे... ।।१

 

पंचकोश से मैं हूँ न्यारा, तीन अवस्थाओं से भी न्यारा ।

अनुभव सिद्ध अनूप, कोई-कोई जाने रे... ।।२

 

सूर्य चन्द्र में तेज है मेरा, अग्नि में भी ओज है मेरा।

मैं अद्वैतस्वरूप, कोई-कोई जाने रे...।।३

 

जन्म-मरण मेरे धर्म नहीं हैं, पाप-पुण्य मेरे कर्म नहीं हैं।

अज निर्लेपी रूप, कोई-कोई जाने रे... ।।४

 

तीन लोक का मैं हूँ स्वामी, घट-घट व्यापी अन्तर्यामी ।

ज्यों माला में सूत, कोई-कोई जाने रे... ।।५

 

सत्संगी निज रूप पहिचानो, जीव ब्रह्म का भेद न मानो ।

तू है ब्रह्मस्वरूप, कोई-कोई जाने रे... ।।६

 

ॐ आनन्द ॐ आनन्द ॐ आनन्द

 

२७. रचा प्रभु

 

रचा प्रभु तूने यह ब्रह्माण्ड सारा ।

प्राणों से प्यारा, तूहि सबसे न्यारा ।। रचा प्रभु...

 

तूहि मात तूहि तात, तूहि बन्धु तूहि भ्रात ।

सकल जगत में एक तेरा पसारा ।। रचा प्रभु...

 

महिमा तेरे है अपारा, किसने नहीं पाया पार ।

बड़े बड़े गये हारे डून्ढ़ फिरत सारा ।। रचा प्रभु...

 

२८. मन्त्र-पुष्पाणि

 

ॐ योऽपां पुष्पं वेद । पुष्पवान् प्रज्ञावान् पशुमान् भवति । चन्द्रमा वा अपां पुष्पम् । पुष्पवान् प्रजावान् पशुमान् भवति । य एवं वेद। योऽपामायतनं वेद । आयतनवान् भवति ।।

 

अग्निर्वा अपामायतनम् । आयतनवान् भवति । योऽग्नेरायतनं वेद। आयतनवान् भवति । आपो वा अग्नेरायतनम् । आयतनवान् भवति । य एवं वेद । योऽपामायतनं वेद । आयतनवान् भवति ।।

 

वायुर्वा अपामायनतम् । आयतनवान् भवति । यो वायोरायतनं वेद। आयतनवान् भवति । आपो वै वायोरायतनम् । आयतनवान् भवति । य एवं वेद। योऽपामायतनं वेद। आयतनवान् भवति ।।

 

असौ वै तपन्नपामायतनम् । आयतनवान् भवति । योऽमुष्य तपत आयतनं वेद । आयतनवान् भवति । आपो वा अमुष्य तपत आयतनम् । आयतनवान् भवति । य एवं वेद । योऽपामायतनं वेद । आयतनवान् भवति ।।

 

चन्द्रमा वा अपामायतनम् । आयतनवान् भवति । यश्चन्द्रमस आयतनं वेद । आयतनवान् भवति । आपो वै चन्द्रमस आयतनम् । आयतनवान् भवति । य एवं वेद । योऽपामायतनं वेद । आयतनवान् भवति ।।

 

नक्षत्राणि वा अपामायतनम् । आयतनवान् भवति। यो नक्षत्राणामायतनं वेद । आयतनवान् भवति । आपो वै नक्षत्राणामायतनम् । आयतनवान् भवति । य एवं वेद । योऽपामायतनं वेद । आयतनवान् भवति ।।

 

पर्जन्यो वा अपामायतनम् । आयतनवान् भवति । यः पर्जन्यस्यायतनं वेद। आयतनवान् भवति । आपो वै पर्जन्यस्यायतनम् । आयतनवान् भवति । य एवं वेद। योऽपामायतनं वेद। आयतनवान् भवति ।।

 

संवत्सरो वा अपामायतनम् । आयतनवान् भवति । यः संवत्सरस्वायतनं वेद । आयतनवान् भवति । आपो वै संवत्सरस्यायतनम् । आयतनवान् भवति । य एवं वेद । योऽप्सु नावं प्रतिष्ठितां वेद । प्रत्येव तिष्ठति ।।

 

२९. मा शुचः

 

हरेर्नामैव नामैव नामैव मम जीवनम् ।

कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा ।।

 

कलौ कल्मष-चित्तानां पापद्रव्योपजीविनाम् ।

विधिक्रिया-विहीनानां गतिर्गोविन्दकीर्तनम् ।।

 

नाहं वसामि वैकुण्ठे योगिनां हृदयेऽपि वा ।

मद्भक्ता यत्र गायन्ती तत्र तिष्ठामि नारद ।।

 

आर्ता विषण्णाः शिथिलाश्च भीता

घोरेषु च व्याधिषु वर्तमानाः ।

संकीर्त्य नारायणशब्दमात्रं

विमुक्तदुःखाः सुखिनो भवन्ति ।।

 

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।

अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ।।

 

अन्यथा शरणं नास्ति त्वमेव शरणं मम ।

तस्मात् कारुण्य भावेन रक्ष रक्ष महेश्वर ।।

 

३०. प्रभु-प्रार्थना

 

हे प्रभो आनन्ददाता ज्ञान हमको दीजिए।

शीघ्र सारे दुर्गुणों को दूर हमसे कीजिए ।।

लीजिए हमको शरण में हम सदाचारी बनें।

ब्रह्मचारी, धर्मरक्षक, वीर व्रतधारी बनें ।। हे प्रभो...

 

प्रेम से हम गुरुजनों की नित्य ही सेवा करें।

सत्य बोलें, झूठ त्यागें, मेल आपस में करें ।।

निन्दा किसी की हम किसी से भूल कर भी ना करें।

दिव्य जीवन हो हमारा तेरे यश गाया करें ।। हे प्रभो...

 

त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव ।

त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव त्वमेव सर्व मम देवदेव ।।

कायेन वाया मनसेन्द्रियैर्वा बुद्ध्यात्मना वा प्रकृतेः स्वभावात् ।

करोमि यद्यत् सकलं परस्मै नारायणायेति समर्पयामि ।।

नारायणायेति समर्पयामि, नारायणायेति समर्पयामि ।।

 

३१. दैव-प्रार्थना

 

जय हे प्रेमार्णव, करुणाकर, जय सर्वज्ञ, समर्थ, विभो ।

सम्पूजित, सर्वान्तर्वासी, नमो सच्चिदानन्द प्रभो ।।

ज्ञानशक्ति से पूरित उर हो, हो सन्तुलित हमारा मन ।

श्रद्धा, शील, भक्ति, प्रज्ञा से, तोड़ सकें कर्कश बन्धन ।।

अपनी दिव्य प्रेरणा से प्रभु, हर दो यह निजता, जड़ता ।

तृष्णा, घृणा, प्रतिस्पर्धा से, करो विमुख, दो सात्त्विकता ।।

वह दृग दो! प्रति कण-कण में, तेरा ही अधिष्ठान देखें ।

सेवा करते हम जन-जन में, तुमको मूर्तिमान् देखें ।।

अधरों पर तव प्रांजल गाथा, पूर्णकाम, शुचितम, पावन ।

रहें सदा हम तुम में सुस्थित, ऐसे वर दो हे भगवान् ।।

 

३२. विश्व-प्रार्थना

 

हे स्नेह और करुणा के आराध्य देव!

तुम्हें नमस्कार है, नमस्कार है।

तुम सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान् और सर्वज्ञ हो ।

तुम सच्चिदानन्दधन हो ।

तुम सबके अन्तर्वासी हो ।

 

हमें उदारता, समदर्शिता और मन का समत्व प्रदान करो ।

श्रद्धा, भक्ति और प्रज्ञा से कृतार्थ करो ।

हमें आध्यात्मिक अन्तःशक्ति का वर दो,

जिससे हम वासनाओं का दमन कर मनोजय को प्राप्त हों।

हम अहंकार, काम, लोभ, घृणा, क्रोध और द्वेष से रहित हों।

हमारा हृदय दिव्य गुणों से परिपूरित करो।

 

हम सब नाम-रूपों में तुम्हारा दर्शन करें।

तुम्हारी अर्चना के ही रूप में इन नाम-रूपों की सेवा करें।

सदा तुम्हारा ही स्मरण करें।

सदा तुम्हारी ही महिमा का गान करें।

तुम्हारा ही कलिकल्मषहारी नाम हमारे अधर-पुट पर हो ।

सदा हम तुममें ही निवास करें।

 

३३. जगदीश-आरती

 

ॐ जय जगदीश हरे, स्वामी जय जगदीश हरे ।

भक्त जनन के संकट, क्षण में दूर करे ।। ॐ जय...

 

जो ध्यावे फल पावे, दुख विनसे मन का,

स्वामी दुख विनसे मन का ।

सुख सम्पति घर आवे, कष्ट मिटे तन का ।। ॐ जय…

 

मातु पिता तुम मेरे, शरण गहूँ किसकी,

स्वामी शरण गहूँ किसकी ।

तुम बिन और न दूजा, आस करूँ किसकी ।। ॐ जय…

 

तुम पूरण परमात्मा, तुम अन्तर्यामी,

स्वामी तुम अन्तर्यामी ।

पार-ब्रह्म परमेश्वर, तुम सबके स्वामी ।। ॐ जय…

 

तुम करुणा के सागर, तुम पालन-कर्ता,

स्वामी तुम पालन-कर्ता ।

मैं मूरख खल कामी, कृपा करो भर्ता ।।ॐ जय…

 

तुम हो एक अगोचर, सबके प्राणपती,

स्वामी सबके प्राणपती ।

किस विधि मिलूँ दयामय, तुम से मैं कुमती ।।ॐ जय…

 

दीनबन्धु दुखहर्ता, तुम रक्षक मेरे,

स्वामी तुम रक्षक मेरे ।

अपने हाथ उठाओ, द्वार पड़ा तेरे ।। ॐ जय…

 

विषय विकार मिटाओ, पाप हरो देवा,

स्वामी पाप हरो देवा।

श्रद्धा भक्ति बढ़ाओ, सन्तन की सेवा ।।ॐ जय…

 

 

३४. आरती

(शिवानन्दाश्रम)

 

जय-जय आरती विघ्नविनायक,

विघ्नविनायक श्रीगणेश ।।१

 

जय-जय आरती सुब्रह्मण्य,

सुब्रह्मण्य कार्तिकेय ।।२

 

जय-जय आरती वेणु गोपाल,

वेणु गोपाल, वेणु लोल,

पापविदूर नवनीत-चोर ।।३

 

जय-जय आरती वेंकट रमण,

वेंकट रमण संकट हरण,

सीता राम राधे श्याम ।।४

 

जय-जय आरती गौरि मनोहर,

गौरि मनोहर, भवानि शंकर,

साम्ब सदाशिव उमा महेश्वर ।।५

 

जय-जय आरती राजराजेश्वरि,

राजराजेश्वरि त्रिपुरसुन्दरि, महालक्ष्मी, महासरस्वति,

महाकाली, महाशक्ति ।।६

 

जय-जय आरती आंजनेय,

आंजनेय हनुमन्त ।।७

 

जय-जय आरती शनैश्चराय,

शलैश्चराय, भास्कराय ।।८।।

 

जय-जय आरती दत्तात्रेय,

दत्तात्रेय त्रिमूर्त्यवतार ।।८

 

जय-जय आरती सद्गुरुनाथ,

सद्‌गुरुनाथ शिवानन्द ।।९

 

जय जय आरती वेणु गोपाल ।।

 

ॐ राजाधिराजाय प्रसह्यसाहिने, नमो वयं वैश्रवणाय कुर्महे, समेकामान् कामकामाय मह्यं । कामेश्वरो वैश्रवणोददातु कुबेराय वैश्रवणाय, महाराजाय नमः ।

 

ॐ न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं

नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः ।

तमेव भान्तमनुभाति सर्व

तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ।।

गंगे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति ।

नर्मदे सिन्धु कावेरि नमस्तुभ्यं नमो नमः ।।

ॐ स्वस्ति प्रजाभ्यः परिपालयन्तां

न्यायेन मार्गेण महीं महीशाः ।

गोब्राह्मणेभ्यः शुभमस्तु नित्यं

लोकाः समस्ताः सुखिनो भवन्तु ।।

काले वर्षतु पर्जन्यः पृथिवी सस्यशालिनी ।

देशोऽयं क्षोभरहितो ब्राह्मणाः सन्तु निर्भयाः ।।

अशुभानि निराचष्टे तनोति शुभसन्ततिम् ।

स्मृतिमात्रेण यत्पुंसां ब्रह्म तन्मंगलं परम् ।।

अतिकल्याणरूपत्वान्नित्यकल्याणसंश्रयात् ।

स्मर्तृणां वरदत्वाच्च ब्रह्म तन्मंगलं विदुः ।।

ओंकारश्चाथशब्दश्च द्वावेतौ ब्रह्मणः पुरा ।

कण्ठं भित्वा विनिर्यातौ तस्मान्मांगलिकावुभौ ।।

ॐ अथ ॐ अथ ॐ अथ ॐ ।

 

मगलं अस्मद्गुरूणाम् । मगलं मे अस्तु ।

सर्वेषां मंगलं भवतु ।।

ॐ सर्वेषां स्वस्ति भवतु । सर्वेषां शान्तिर्भवतु ।

सर्वेषां पूर्ण भवतु । सर्वेषां मंगलं भवतु ।।

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः ।

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुः खभाग्भवेत् ।।

लोका-स्समस्ता-स्सुखिनो भवन्तु ।

असतो मा सद्गमय ।

तमसो मा ज्योतिर्गमय ।

मृत्योर्मा अमृतं गमय ।।

 

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते ।

 पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ।।

 ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।

 

त्वमेव माता च पिता त्वमेव,

त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव ।

त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव,

त्वमेव सर्वं मम देव-देव ।।

 

कायेन वाचा मनसेन्द्रियैर्वा

बुद्ध्यात्मना वा प्रकृतेः स्वभावात् ।

करोमि यद्यत् सकलं परस्मै

नारायणायेति समर्पयामि ।।

 

बोलो श्री सद्‌गुरुमहाराज की जय !

सर्वं ब्रह्मार्पणमस्तु !

ॐ तत्सत्!

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !