सर्वस्नेही हृदय
'THE ALL-EMBRACING HEART'
का हिन्दी अनुवाद
कवयित्री
श्री स्वामी वेदान्तानन्द सरस्वती
भावानुवादिका
सुश्री नीलमणि
SWAMI CHIDANANDA BIRTH CENTENARY
1916-2016
SERVE LOVE MEDITATE REALIZE
THE DIVINE ELIFES SOCIETY
प्रकाशक
द डिवाइन लाइफ सोसायटी
पत्रालय : शिवानन्दनगर - २४९१९२
जिला : टिहरी गढ़वाल, उत्तराखण्ड (हिमालय), भारत
www.sivanandaonline.org www.dlshq.org
प्रथम संस्करण : २०१६
(१,००० प्रतियाँ)
© द डिवाइन लाइफ ट्रस्ट सोसायटी
'द डिवाइन लाइफ सोसायटी, शिवानन्दनगर' के लिए
स्वामी पद्मनाभानन्द द्वारा प्रकाशित तथा उन्हीं के द्वारा
'मेहुल प्रिंट सर्विस, नई दिल्ली' में मुद्रित ।
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प्रस्तुत पुस्तक 'सर्वस्नेही हृदय' श्री स्वामी वेदान्तानन्द सरस्वती माता जी द्वारा परम पूज्य श्री स्वामी चिदानन्द जी महाराज पर अंग्रेजी भाषा में लिखी गयी कविताओं के सुन्दर संग्रह 'The All-embracing Heart' का हिन्दी अनुवाद है।
श्रद्धेया वेदान्तानन्द माता जी सद्गुरुदेव श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज की एक समर्पित शिष्या थीं। उनके हृदय में श्री गुरुदेव तथा परम पूज्य श्री स्वामी चिदानन्द जी महाराज के प्रति असीम स्नेह एवं श्रद्धा थी। इस पुस्तक की भावपूर्ण रचनाओं में परम पावन श्री स्वामी चिदानन्द जी महाराज के प्रति उनके गहन प्रेम तथा भक्ति की अभिव्यक्ति हुई है एवं साथ ही श्री स्वामी जी महाराज के पावन एवं दिव्य व्यक्तित्व का परिचय भी प्राप्त होता है।
परम आराध्य श्री स्वामी जी महाराज की जन्मशताब्दी के शुभ अवसर हम यह पुस्तक 'सर्वस्नेही हृदय' उनके श्रीचरणों में श्रद्धापूर्वक अर्पित करते हैं।
-द डिवाइन लाइफ सोसायटी
अनुक्रमणिका
श्री स्वामी चिदानन्द जी के लिए एक पेपरवेट
रत्नों में है प्रथम स्थान हीरे का।
जिस प्रकार उच्च तारापुंज जिन्हें मनुष्य
कहते ऑरियन और कालपुरुष
इनमें 'नीला मृग' तारक है सर्वाधिक आभायुक्त,
उसी प्रकार हीरों में है कोहिनूर
सर्वाधिक प्रसिद्ध और प्रशंसित।
इसकी परम शुद्धता और भव्य दीप्ति
बनाती है इसे श्रेष्ठता का उज्ज्वल प्रतीक।
आज हम अतीव हर्षोल्लास से मना रहे
उन सन्त का साठवाँ जन्मदिवस जिनके लिए
सद्गुरु श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज ने कहा-
"ये मेरे मिशन के कोहिनूर हैं।"
चिदानन्द जी वास्तव में एक रत्न हैं ऐसे जिनसे
होती विकीर्ण ज्ञान एवं पवित्र प्रेम की रश्मियाँ सदा।
उनके मन के निरभ्र सब पक्षों से
दिव्य सद्गुण ही होते उद्भासित सदा।
हमारे हृदय के गुह्यतम कक्ष
जहाँ है प्रभु की मनोहर मूर्ति स्थापित
उस हृद-मन्दिर के कोने-कोने को
अक्षय आलोक से वे करते नित आलोकित।
“स्वामी चिदानन्द जी के चरणचिह्नों पर चलें"
कहा है यह हमारे गुरुदेव ने
प्रकाशित किया है पुस्तकों में
और अंकित भी किया है हमारे हृदयों में।
आइये, हम करें उनका अनुकरण
जिन्होंने किया गुरुदेव श्री स्वामी शिवानन्द जी का
अपने वचनों एवं कर्मों से सदैव अनुसरण
और बने अधिकारी इस पावन प्रशंसा के।
चिदानन्द जी भी हैं अत्यन्त दयालु
वे जानते हैं कि सर्प, पशु-पक्षी
और मानव, समस्त प्राणीवृन्द की
एक ही है आवश्यकता सहानुभूति ।
सहानुभूति है वह स्रोत
जिससे प्रवाहित हो सच्चा वैश्विक प्रेम
यह एक ऐसा मरहम जो शीघ्र ही भर दे
संसार से प्राप्त गहरे घावों को;
जो मनुष्यों को बनाए
सक्षम दुःख, आघात, अपमान सहने को
और साथ ही करे प्रेरित उन्हें
दुःखितों व पीड़ितों के प्रति
सहृदयता एवं नित्य-परिवर्द्धित
प्रेम की अभिव्यक्ति को।
यदि किन्हीं संवेदनशील हृदयों को
कटुता अथवा शंका आ घेरती
तो वे देखें चिदानन्द जी को
जिनमें शान्त तपस् के मध्य भी
भावप्रवण हार्दिक प्रेम उद्भासित होता सदा,
जिनके विचारमग्न नेत्र दर्शाते हैं दिव्य प्रेम।
जिनके होंठ हैं सुन्दर
सदैव प्रेरक वचनों के उच्चार से;
जिनकी गम्भीर परन्तु मृदुल मुस्कान
जिनका मौन और वाणी
जिनके कर्म और विश्रान्ति
सदैव हमें कराते हैं स्मरण
कि महान् कष्टों एवं पीड़ा के मध्य भी
सद्गुणों के शिखर को छूना है सम्भव ।
हम भी प्राप्त कर सकते हैं
निश्छल प्रेम की ऊँचाईयाँ,
और ज्ञान की पराकाष्ठा
यदि हम करें अनुसरण
गुरुदेव श्री स्वामी शिवानन्द जी के पावन चरित्र का
तथा स्वामी चिदानन्द जी के पवित्र आचरण का
जिनके लिए कहा है सद्गुरुदेव ने
और किया है प्रकाशित
अंकित भी किया है हमारे हृदयों में कि
“हम उनके चरणचिह्नों पर चलें।"
मित्रो ! कैसे कोई कर पाता सहन
इस जीवन के कष्टों को
जब अत्याचार और निर्दयता का
आज है चहुँओर विस्तार,
नीरसता, निराशा, उदासीनता, भय
और सन्देह में जकड़ी हैं अनेकों जीवात्माएँ
दि न होते इस धरा पर
श्री चिदानन्द सम सर्वस्नेही सन्त ?
क्या आप एक दुर्लभ एवं उच्चतर
सौन्दर्य और मनोहारिता के हैं दर्शनाभिलाषी ?
तो देखिए उन्हें जब वे करते नृत्य कुष्ठरोगियों संग,
जब वे निहारते आश्चर्य से, न कि घृणा से
तितों एवं अज्ञानियों को।
और जब उन्हें करना है,
किसी की गम्भीर त्रुटि का सुधार
वे न करते कभी क्रोध से
उसके त्रुटिग्रस्त हृदय को आहत;
अपितु काटते अज्ञान ग्रन्थि को
ज्ञान के शान्तिप्रद शस्त्र से।
मित्रो ! क्या कोई रख सकता
उच्चादर्शों एवं मूल्यों में विश्वास एवं श्रद्धा
इस विभ्रमकारी चमक-दमक के युग में
जब 'स्वर्ण' कह कर प्रायः थमा दी जाती है
कोई चमचमाती वस्तु झूठे गुरुओं द्वारा
और धनलोलुप साधुओं द्वारा।
जब प्रखर बुद्धिसम्पन्न विचारहीन मनुष्य
नित नवीन साधन हैं खोजते
जो ले जाएं सम्पूर्ण मानवता को
भयंकर विनाश की ओर-
क्या ऐसे युग में रख पाते हम
धैर्य, आशा एवं शान्ति सुस्थिर
यदि न होते इस धरा पर
श्री चिदानन्द सम सर्वस्नेही सन्त ?
देखिए ! देखिए, कितनी करुणापूर्वक वे उठाते
मार्ग में आए एक क्रुद्ध बिच्छू को
एक तप्त रेतीले स्थान से और
रख देते उसे शीतल ओसपूर्ण घास पर।
देखिए, कैसे वे स्नेहिल हाथों से उठाते
एक सुरभित सुमन अथवा बालक के पवित्र मुख को।
उनकी है समदृष्टि सबके प्रति-
तुच्छ और महान्, निर्धन और धनवान्
रुग्ण, स्वस्थ, सज्जन, दुर्जन
परिचित, अपरिचित, दूर हों अथवा समीप
सब हैं समान उनकी दृष्टि में।
देखिए, कैसे वे करते हैं सम्मानित
सभी धर्मों के सन्त-महापुरुषों को।
मनुष्यता न होगी कभी निराश
जब तक हैं धरा पर
श्री चिदानन्द सम सर्वस्नेही सन्त ।
क्या स्मरण है मित्रो, वह दिन आपको
जब रखा गया एक कूप-सम कक्ष में
हमारे गुरुदेव की पार्थिव देह को
इस सुसज्जित समाधि मन्दिर के नीचे;
और भक्तवृन्द का एक वृहद् समूह बढ़ा आगे
दर्शनार्थ प्रिय गुरुदेव के मनोहारी मुख के
पुनः एक बार-इसके उपरान्त फिर कभी नहीं ?
मित्रो ! क्या कोई कर सकता विस्मृत वह समय
जब श्री चिदानन्द जी थे खड़े इस सोपान पर
एक संरक्षक देवदूत सम और कर रहे थे प्रयास,
रोकने उस वृहद् समूह को
नियन्त्रित करने मानव-बाढ़ को
अचानक कब्जे टूटे द्वार के
घरघराहट सहित खुल गया द्वार
और अपने संकेत, वाणी एवं दृष्टि से
किया नियन्त्रित उन्होंने उन बहुशीर्षा लहरों को ?
आत्म-दीप्ति से नित-देदीप्यमान उनके वे नेत्र
तब उस एक व्यथित क्षण में
सहसा भयाक्रान्त हो चमके
और यह कहते-से प्रतीत हुए :
"क्या इसी विश्व का मुझे है करना सामना
जहाँ प्रेम भी रूप लेता क्रोधोन्माद का
अपनी अनियन्त्रित गहनता में;
जहाँ श्रद्धा एवं भक्ति भी
अचानक बन जाती एक तूफान-
एक शक्ति जो कुचल देती
अपने मार्ग की बाधाएँ सब
शिष्टता के सभी नियमों को तोड़ ?"
और तब भी, वे पीछे नहीं हटे;
आज भी अपने चयनित पथ से वे नहीं होते विचलित
यही उनका मिशन है कि वे उड़ेले
अपने गुरु के शान्तिदायक शब्दों को तैलधारा सम
(जैसे कि नाविक हैं उड़ेलते उफनती लहरों पर)
उन उग्र एवं शोक-सन्तप्त हृदयों पर
जो करते दिव्य शान्ति प्राप्त करने का प्रयास
सौम्य हृदयों के साथ-साथ।
परन्तु जानिए! पवन द्वारा झुलायी शाखाओं पर ही हैं उगते
सूर्य-परिपक्व, मधुरतम बीजपूरित फल।
शान्ति वे प्रदान करते हैं अन्यों को,
करके परित्याग उस असीम दिव्य शान्ति का
प्राप्त होती जो उन्हें एकान्त एवं मौन में।
ये सब जीवात्माएँ हैं अध्यात्म के प्रगति पथ पर
यह ज्ञान ही है चिदानन्द जी के लिए पुरस्कार स्वरूप।
यद्यपि प्रायः होता उन पर आघात
ऐसे दृश्यों एवं ध्वनियों का जो करें आहत एवं पीड़ित
एक साधारण मानव को; परन्तु वे होंगे सफल
दूर-दूरन्त प्रसार करने में
प्रशान्ति के आशीर्वाद-पवित्र आनन्द का
तथा उस ज्ञान का जो सिखाया
गुरुदेव श्री स्वामी शिवानन्द जी ने
जैसा कि वे स्वयं भी सिखाते,
अपनी वाणी और कर्मों से।
हम सब उनके अनुयायियों के लिए
आत्म-साक्षात्कार का ऊर्ध्वगामी पथ
बन जाता है आरोहण-सुगम
जब उन समान सन्त बरसाते हम पर
अपने पावन जीवन का अमृत।
पुष्पमालाएँ जो हमने गूँथीं-
दयामय स्वामी चिदानन्द जी आपके लिए,
उस शुभ दिवस पर आपको प्रसन्न करने
जब आपका हुआ इस धरा पर अवतरण -
मुरझा चुकी हैं क्योंकि
किया आपने दूर देश को प्रस्थान।
हमारे शरीर न कर पायेंगे आपका अनुसरण
परन्तु हम करेंगे प्रयास हर सम्भव रूप में
रने अनुकरण आपके उज्ज्वल आदर्श का;
हमारे मन-हृदय कर सकते हैं आपका अनुगमन
जहाँ भी आप जाते हैं कार्य अथवा विश्राम को
जिस प्रकार पक्षीवृन्द करते अनुसरण पथप्रदर्शी पक्षी का।
उन सुकुमार पुष्पों की तरह नहीं जो मुरझा जाते
समय की तीव्र गति के साथ-साथ
अपितु सुदृढ़ भूमि में हैं सुस्थिर
आपकी प्रसन्नता हेतु हमारी शुभकामनाएँ
सदैव परिपूर्ण और नित नवीन ।
हम करते हैं अर्पित उन्हें
आपके चरण-कमलों पर
आज और सदा के लिए।
प्राचीन समय में, महान् तपस्वी सन्तों के शिष्य
यदि गहन वनों में भटक जाते अथवा
हरी-भरी भूलभुलैया में
भूल जाते अपना मार्ग,
आश्रम में जब होता संध्याकाल का आगमन
तारावृन्द सहित परन्तु उन युवा शिष्यों रहित
तब आश्रम के अधिपति सन्त
स्वयं निकल पड़ते प्रेमपूर्ण करुणा के हो वशीभूत
ढूँढ़ने अपने प्रिय आश्रितों को उस गहरी गोधूलि वेला में
जब राक्षस और व्याघ्र विचरते, पाने अपना आहार;
वे उन्हें ढूँढ़कर, सान्त्वना देकर वापिस ले आते अ
पने सुपरिचित मार्ग से सुरक्षित स्थान पर।
इसी प्रकार श्री स्वामी शिवानन्द जी अपने ज्ञानपूर्ण उपदेश से
पुनः विश्वास हैं जगाते और करते हैं सुदृढ़ श्रद्धा को
उन अगणित शिष्यों के हृदयों में जो
भटक गये थे सन्देह व भय के अरण्यों में।
श्री स्वामी चिदानन्द भी यही करते हैं यदि साधक
होते हैं भयाक्रान्त, भ्रम एवं निराशा के घने जंगलों में।
वे जानते हैं अपने गुरु द्वारा निर्मित उस पथ को
जो गहन वन से खुले मैदान की ओर है जाता;
साहसपूर्वक तोड़कर उन कँटीली झाड़ियों को
जो बाँधे हैं पग एक गृहासक्त साधक के,
वे कर देते नाश आत्मा के पथ में आए सभी पाशों का।
नहीं है मेरे पास रेशम के सूत्र में बँधी सुन्दर राखी
आपकी पावन कलाई में बाँधने को
हे कृपामय, सौम्य श्री स्वामी चिदानन्द जी;
परन्तु बँधे हैं सुरक्षित सभी सच्चे हृदय आपके हृदय से
आज इस रक्षाबन्धन पूर्णिमा के पवित्र दिवस पर
और सदा के लिए-सुख की सुनहरी धूप
और कष्ट के तूफानों में—
श्रद्धा और भक्ति के दृढ़ सूत्रों से।
कही जाती है एक कथा बादशाह हुज़राव व उनके सेवक की-
किस प्रकार बादशाह एक बार गये आखेट को
सेवकों, दरबारियों, अतिथियों के साथ
करने शिकार एक निर्दयी व्याघ्र का और तत्पश्चात्
करने विश्राम जंगल के एक प्राचीन परित्यक्त जीर्ण भवन में-
थे सभी आश्चर्यचकित उनके सहपथिक
बुद्धिमान् बादशाह की इस आकस्मिक सनक पर
कि वे करेंगे विश्राम एक जीर्ण-शीर्ण खण्डहर में।
परन्तु बादशाह तो बढ़ते रहे द्रुत गति से पथ पर
और अचानक गिरायी बहुमूल्य मोतियों से भरी सन्दूक
मोती लुढ़के रेत में झिलमिलाते मन्द-मन्द
नन्हें चन्द्रमाओं सम अथवा एक तारक की अश्रुबूँदों सम।
बादशाह ने पीछे मुड़कर कहा : "प्रत्येक रखे मोती उतने
जितने वह भूमि से उठा सके" और चल दिये स्वयं द्रुत गति से।
सभी सहसा रुके, उतरे अपने अश्वों से, टटोलने लगे रेत,
की उन्होंने खोज पत्थरों, काँटों, नुकीली घास के नीचे
और एकत्रित खजाने को छिपा लिया अपने कमरबन्दों में।
मात्र एक युवा सेवक ने किया अत्यधिक चिन्तातुर हो
यह विचार : "पहुँचेंगे प्रथम मेरे स्वामी
उस जीर्ण खण्डहर में; आह! कौन उनके लिए
लाएगा शीतल जल, बिछाएगा आसन, झलेगा पंखा,
तोड़ेगा फल और जगाएगा उस क्लान्त रक्षक को
उनींदेपन से यह कहने कि वह करे स्वच्छ
और करे व्यवस्था वायु-प्रवेश की, उन बन्द कक्षों में।
नहीं रुका यह सेवक अपितु दिया संकेत अपने कुशल अश्व को
अनुसरण करने हुज़राव के द्रुतगामी अरेबियन अश्व का।
वे दोनों पहुँचे उस स्थान पर और वहाँ इस श्रद्धालु सेवक ने
की परिचर्या अपने स्वामी की अत्यन्त स्नेहपूर्वक
छिपाते हुए दाहक खरोंचें, पार्टी जो उसने
जंगल के कण्टकाकीर्ण पथ में।
कृपालु एवं विवेकी बादशाह हुआ द्रवित एवं हर्षित भी;
और जब पहुँचे वहाँ दरबारीगण एवं अन्य शेष
हुए वे अति सन्तप्त देखकर उस सेवक को
बादशाह के समीप आसन पर बैठे हुए
और अपने प्रिय स्वामी के प्रेरक शब्दों
की मदिरा का पान करते हुए।
क्योंकि था हुज़राव एक पावन एवं ज्ञानसम्पन्न मनुष्य।
वे सभी हुए उद्विग्न पश्चात्ताप से परन्तु
पा न सके प्रशान्ति अपने उन बहुमूल्य मोतियों में।
यह है एक प्राचीन प्रतीक-कथा
स्पष्ट होगा इसका अर्थ उन समस्त को
जो हैं आकांक्षी उस सर्वोच्च लक्ष्य के।
कथा यह देती हमें चेतावनी, मार्ग में नहीं भटकें हम
मार्ग जो मोहान्धता और भ्रामक आकर्षणों के
बीहड़ क्षेत्र और जटिल भुलभुलैया से होकर जाता;
कभी न विचरें हम तृष्णा की तपती रेत में
धन और क्षणिक सुखों की खोज करते हुए;
न दें प्रत्युत्तर, समीप आए प्रलोभनों का;
करें सन्तों के शुभ सान्निध्य की आकांक्षा
जो है विभूतियाँ परम प्रभु की
और स्नेहिल करुणा से दिखलाती
है जो मार्ग उनकी प्राप्ति का।
अहो! कितने सौभाग्यशाली हैं हम, पाया अपने पथ-प्रदर्शकों को-
महान् श्री स्वामी शिवानन्द जी और उनके आध्यात्मिक सुपुत्र !
इस पावन दिवस पर हमारे ही कल्याण के लिए
ज्ञान एवं प्रेम से परिपूर्ण श्री स्वामी चिदानन्द जी ने
धारण किया धरा पर यह रूप
जो आज हम हैं देखते और करते आराधना,
चिर आभार और नित-नूतन भक्ति की मालाएँ
हम करते हैं अर्पित उनके सुन्दर कंठ में।
अनेकानेक समृद्ध एवं स्नेहपरिपूरित वर्षों तक
रहें वे अपने अनुयायियों के मध्य,
हों प्राप्त उन्हें अतिशय आनन्द एवं तृप्ति,
प्रकाश जो उदारतापूर्वक वे प्रदान करते हैं हमें
कृतज्ञ हदयों में उसकी प्रतिबिम्बित छवि
करे उनका नित्य अभिनन्दन।
शुद्ध स्वर्ण ही गढ़ा जाता
हार, कंगन, अँगूठी और मुकुट रूप में
और दिव्य स्वर्णिम आत्मा ही
प्रकट होती नाम-रूप वेश में
समस्त अशुद्धियों से मुक्त
पूर्व जन्मों के अग्निपात्रों में परिशुद्ध।
महान् सन्त श्री स्वामी चिदानन्द जी आए
एक दीप्तिमन्त आभूषण बन
हमारे महान् भ्रातृ-संघ की परम्परा में
और सम्मिलित हुए श्री शंकराचार्य से
श्री स्वामी शिवानन्द सम रत्नों की भव्य पंक्ति में
विश्व में अमूल्य ज्ञान रश्मियाँ विकीर्ण करते।
हे सौम्य, स्वर्णिम हृदयी सन्त
कृपालु स्वामी चिदानन्द जी
जिनकी आज हम मना रहे
शुभ स्वर्ण जयन्ती।
आपके गुरु भाई और बहिनों की
और आपके समस्त सच्चे शिष्यों की
यही है शुभकामना
कि आप जुबली से जुबली पर्यन्त-
डायमण्ड, प्लेटिनम, एमरॅल्ड, और भी आगे-
शान्ति एवं आनन्दपूर्वक रहें
तथा देखकर हों हर्षित
मानव-कल्याण हेतु अपनी निःस्वार्थ सेवा के
आनन्ददायक स्वर्णिम फल को।
हम करते हैं आराधना, स्वामी चिदानन्द जी की
उच्च, दुर्लभ, रक्ताभ कुमुदिनी पुष्प सम
धारण करते हैं जो गेरुआ -
यह वर्ण है अग्नि का और इसलिए प्रतीक पावनता का-
और प्रेम करते हैं जो पर्वत शिखरों और स्वच्छ पवन से।
यदि वे चयन करते तो रह सकते थे
एकाकी, दूरस्थ उच्च शिखरों पर
जहाँ है मौन और निरभ्र शान्ति का साम्राज्य
जो हैं उन्हें अत्यन्त प्रिय
और जहाँ मध्याह्न में हो दर्शन दिवा-तारक का।
वहीं किसी स्वच्छ पर्वतीय झरने के समीप
रहते एकान्त में परन्तु एकाकी नहीं
क्योंकि ईश्वर स्वयं करते हैं निवास उनके हृद्देश में
सद्चिन्तन और परम सत्य के ध्यान में
व्यतीत करते अपना समस्त जीवन।
परन्तु वे आये हमारे मध्य
करने अपने गुरु का कार्य
और दिखलाने जिज्ञासु जीवात्माओं को
परमानन्द प्राप्ति का पथ।
इस विशाल विश्व के दूरस्थ क्षेत्रों से
उन्हें पुकारा गया, की गयी प्रार्थनाएँ
कि वे करें वहाँ भी प्रसार
पवित्रता की सुरभि और ज्ञान के प्रकाश का
और अपनी दिव्य उपस्थिति से
करें आहत हृदयों का उपचार।
तब हममें से किसी ने कहा :
कैसे वे कर पायेंगे सहन
अपने पथ में आये शोर और
अशान्ति के तूफानों को ?
हम भी कैसे रह पायेंगे
उनके प्राणदायक प्रेम से वंचित हुए?
मित्रो! है उनके हृदय में ही
एक शान्त-प्रशान्त विश्रान्ति स्थल
जहाँ वे पाते असीम शक्ति
उन तूफानों को सहने की
जिनसे भयभीत भागते हैं दुर्बल जन।
मित्रो! चाहे वे करें अपने सदय प्रेम की
अनेकों अन्य हृदयों पर वर्षा,
प्रेम हम पर उनका न होता है कम
क्योंकि उसका स्रोत है अक्षुण्ण
और करेंगे हम अनुभव
उसके नित्य प्रवाह को
अभी और सदा के लिए।
जब स्वामी चिदानन्द जी विदेश की एक जेल में
गए मिलने वहाँ के अन्तेवासियों से-
बंधकों, दोषियों, अपराधियों से;
दी गयी उन्हें पूर्व चेतावनी कि ये क्रूर अपराधी
करेंगे उनका उपहास, न सुनेंगे उनकी वाणी को
अथवा आघात पहुँचाने का करेंगे प्रयास
और देंगे उन्हें वहाँ से जाने का आदेश!
परन्तु वहाँ उनकी उपस्थिति का हुआ ऐसा चमत्कार
उनके वचन थे इतने स्नेहसिक्त और विश्वासोत्पादक
इतनी मधुर और सच्ची थी उनकी सहानुभूति
कि अत्यन्त कटुता एवं निराशा से भरे हृदयों ने
पायी असीम शान्ति, सान्त्वना और साहस
यह सुनकर - "मनुष्य के अपराध हैं
आत्मा के, पूर्णता एवं मोक्ष प्राप्ति के
पथ की मात्र दुर्घटनाएँ,
मनुष्य है पवित्र आत्मा, अज्ञान के पाश में आबद्ध
और दण्डित अपराधी न समझें
स्वयं को सदा के लिए पतित एवं घृणित"
जब स्वामी जी जाने के लिए मुड़े, कुछ ने पकड़ी उनकी बाँहें,
कुछ लिपटे उनसे; बहे हृदयविदारक अश्रु कुछ नेत्रों से
प्रार्थना की गयी उनसे कि न जाए इतना शीघ्र
और शपथ भी उठायी गयी कि
वे स्मृति में सदैव सँजोये रखेंगे, उनके दिव्य वचनों को।
हम सब भी बंधक हैं : अशान्त मन,
देह, वासनाएँ, झूठी मान्यताएँ और दुःख
बाँधे हुए हैं हमें लौह अथवा स्वर्ण-पिंजर में,
स्वामी चिदानन्द सम करुणावान् सन्त
जो स्वयं बँधे हैं केवल मात्र मानवता के प्रति निःस्वार्थ प्रेम से
करते हैं हमारी सहायता उन दुःखों को धैर्यपूर्वक सहन करने में,
जो हमने स्वयं ही उत्पन्न किए अनेक जन्मों में;
अब हम निहारते हैं इन काल्पनिक सलाखों से उन सन्तों को
जो अवतरित हुए हैं, हमें मुक्ति प्रदान करने को।
प्राचीन समय के एक सन्त ने किया
अपने ही मन में एक अद्भुत मन्दिर का निर्माण
जो विनष्ट न हो पाए अग्नि अथवा अतिवृष्टि से
भूकम्प अथवा तूफान से और न ही मानव-कृत्य से!
प्रेरित हो उनके इस निर्माण से हमने यह समझा
कि विचारों से ही कर सकता है मानव
सन्तों और प्रभु की मानसिक आराधना
बना सकता है वह काल्पनिक वितान,
कर सकता है अर्पित अमूर्त विशाल थाल में
धरा के चयनित, सुन्दर, मधुरतम फल।
हे चिदानन्द जी! देखिए कैसे करते हम आपको नमन
यद्यपि हमसे अति दूर हैं आपके पावन चरण।
माया के स्वप्निल संसार में, हम देखते नित नूतन स्वप्न
और भेज रहे आपके लिए अदृश्य परन्तु अक्षुण्ण उपहार
निहारिए, अपने चरणों में यह अदृश्य पुष्प
समर्पितहृदय रूपी पुष्पमालाएँ
और आपको आच्छादित करता हमारा यह स्नेह-छत्र!
कुछ करते हैं नृत्य, कुछ गाते हैं, हो आनन्दमग्न
आप देख रहे हैं, हाँ आप देख रहे हैं
इन सूक्ष्म आध्यात्मिक उपहारों को
अपनी आवरणभेदी दिव्य दृष्टि से।
हे चिदानन्द जी! देखिए कैसे करते हम आपको नमन
यद्यपि हमसे अति दूर हैं आपके पावन चरण।
शिवानन्द आश्रम के पावन प्रांगण में,
हर्षित हैं आज सभी हृदय
क्योंकि आए हैं लौटकर हमारे पास
श्री स्वामी चिदानन्द जी महाराज
जिन्होंने समभाव से बाँधा अपने दिव्य स्नेहालिंगन में
उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम सभी को;
जैसे कि माली है सजाता एक पुष्पगुच्छ
गुलाब, नरगिस, कमल और गुलदाउदी के पुष्पों से।
वे हैं एक स्वार्थशून्य शान्ति-कपोत,
जो उड़ता है अन्यों के लिए,
अपने चिरपरिचित स्थान को छोड़
अन्धकारग्रस्त विश्व में करने प्रकाश
श्री स्वामी शिवानन्द जी की वाणी से
और अपने सारगर्भित उपदेशों से।
आज, जब यह सुन्दर शान्ति-कपोत लौट आया है
हम करते हैं उनसे प्रार्थना-अपने पावन पंखों को मोड़ ले यहाँ
जहाँ आप रहे और कार्य किये श्री गुरुदेव के साथ।
हे प्रिय कपोत! निहारिए इन कोमल हृदयों को
जो उत्सुक हैं आपके विश्राम हेतु शय्या बनने को
चाहे आप उनके समीप हैं अथवा दूर,
आप ही के लिए है सदैव उनका श्रद्धापूर्ण प्रेम।
नहीं है विश्व में कोई ऐसा
जिसने न दिया उपहार कभी-
मूल्यवान् अथवा साधारण उपहार।
देवगण देते हैं वरदान;
धनीजन करते वितरित अपने साथियों में
अपनी सम्पदा का कुछ अंश;
निर्धन तो कितने उदार-
देते जो दान निर्धनतरों को।
सम्पूर्ण विश्व ही देता मुक्तहस्त उपहार
प्रिय जनों को अथवा प्रसिद्ध जनों को
जन्म दिवस, जुबली अथवा विजय दिवस पर
और दुर्लभ उपलब्धि एवं सफलता प्राप्ति पर।
प्रतिवर्ष श्री स्वामी शिवानन्द जी के जन्मदिवस पर भक्तवृन्द
अर्पित करते उपहार, उनके पावन चरण-कमलों में
लोबान, रजत, स्वर्ण और वस्त्र
चीनी अथवा मुरमुरों के छोटे थैले;
और अनेक अन्य उपहार
सुरभित पुष्पमालाओं के साथ-साथ।
वे करते सभी स्वीकार
कृपापूर्ण मुस्कान तथा प्रेमपूर्ण दृष्टि से
भक्ति एवं प्रेम के प्रतीक स्वरूप
मूर्त एवं मानसिक वस्तुएँ
अर्पित की गयी उन्हें, उस शुभ प्रभात में।
तथापि वे सर्वोत्तम उपहार न कर सकते समता उसकी
जो देते श्री स्वामी जी महाराज,
क्योंकि वे हैं बरसाते ग्रहणशील हृदयों पर
उपहारों का उपहार : मुक्तिप्रदायक ज्ञान।
यह है ईश्वर का असीम अनुग्रह
और एक अद्भुत आश्चर्य !
श्री चिदानन्द जी के रूप में प्रभु ने दिया
श्री स्वामी शिवानन्द जी के अनुयायियों को ऐसा सन्त
जो है उन सम दीप्तिमन्त तारक
उनके समान ही सद्गुणी
मानवता के प्रति प्रेम में उनके समकक्ष ।
सन्त शिवानन्द जी और सन्त चिदानन्द जी
होते हैं प्रकाशित साथ-साथ हमारे हृदयाकाश में।
अतः उस पावन दिवस
जब हुआ जन्म श्री स्वामी चिदानन्द जी का
दिव्य जीवन पथ के यात्री
करते हैं अर्पित हार्दिक उपहार
उनकी गोद में, उनके हाथों में
और उनके धैर्यशील चरणों में।
स्वामी जी करते हैं स्नेहपूर्वक स्वीकार उनकी प्रेम भेंट,
मुस्कराते हैं उन शब्दों पर जो हैं अंकित इस पृष्ठ पर
करने उनका यशोगान :
वे वैसे ही मुस्कराते हैं जैसे मुस्कराते हैं
माता-पिता, सन्तान द्वारा अर्पित पुष्पों पर।
उनके विशाल उदार हृदय से
नित-प्रवाहित होता सुन्दरतम उपहार,
क्योंकि वे सतत करते अपना ही दान।
हे अक्षय स्रोत,
हे पवित्र उपहार; हे भव्य भेंट !
आप जीवन हैं धारण करते, कष्ट सहते
और करते प्रयास हमारे लिए,
हमारे ही लिए आपने किया त्याग
एकान्तजन्य शान्ति का
और दी है अपनी आहुति;
आपकी प्रत्येक श्वास करती है
प्रशमित एवं सुरभित हमें।
हे दिव्य सन्त!
करने आपको प्रसन्न, क्या कर सकते हैं हम अर्पित ?
यही कि अपने हृदय रूपी भिक्षा-पात्र को
हम रखें आपके समक्ष और
अनन्त आभार के साथ करें प्राप्त
आपका निःस्वार्थ दिव्य उपहार -
आपके मुक्तिदायक प्रेम का उपहार ।
प्रत्येक वस्तु है प्रतीक यहाँ :
यह श्वेत-शिरामय पत्थर
जिसे गढ़ा गया एक पत्ते की आकृति में
करता जो प्रदर्शित लघु स्तर पर
एक वृक्ष की आकृति-
प्रतीक है वृक्ष विश्व का
और यह विश्व स्वयं है प्रतीक
ईश्वर की रहस्यपूर्ण शक्तियों का।
करिए इस वस्तु को उलटा
तो दिखाती यह आकृति हृदय की।
यह पत्थर, एक वृक्ष, जिज्ञासु हृदय
समस्त है बहते, प्रवाहित हैं होते
स एक के भव्य स्वप्न की उर्मियों में
हते जाते और पुनः समाते उस एक में।
गुरु के पवित्र उपदेश और अनुग्रह ही
कराते शिष्यों को इस सत्य का साक्षात्कार।
वृक्षों, पत्थरों, अणुओं का
सूर्यों और समुद्रों का हृदय
श्री स्वामी चिदानन्द जी का कोमल हृदय
सभी हैं रहते उस हृदयों के हृदय में
ये हैं अनेक, पर एक ही है।
यदि तीव्र गति से होता हमारा नाड़ी-स्पन्दन
करते हुए ध्यान इस विचार पर,
होता ऐसा इसीलिए कि हम कर रहे शीघ्रता
माया के बन्धनों से परे जाने की और
वह बनने की जो हम हैं ही।
ऐसे कौनसे पुष्प अर्पण कर सकते हैं हम आपको
जो नहीं होते अर्पित प्रतिदिन आपके श्री चरणों में?
ऐसी कौनसी मालाएँ गूँथ सकते हैं हम आपके लिए
जो न उपलब्ध होती बाजार और दुकानों में?
कौनसे नवीन और दुर्लभ उपहार, कर सकते हैं हम तैयार
प्रसन्न करने आपको? किस प्रकार कर सकते हम आनन्दित उन्हें
जो प्रदान करते पवित्र आनन्द उन सबको
आते जो उनके पास शान्ति एवं आनन्द की खोज में?
क्या सागर न मुस्कराएगा यदि उड़ेले कोई
जल उसकी लहरों पर स्वर्ण अथवा मिट्टी के पात्र से
करने हृदय शीतल उसका ग्रीष्म ऋतु के एक दिन ?
परन्तु, फिर भी हम दें आपको, श्रेष्ठतम जो है हमारे पास।
बन जाए समस्त मनुष्यों के आपके सम्बन्ध में विचार
कण्टकरहित, निर्मल, नित-प्रफुल्लित गुलाब सम
और मधुमक्खी-विहीन कमल पुष्प सम
मारती जो डंक उसको आता जो समीप
मोहित हुआ पुष्प के सौन्दर्य और सुरभि से।
जीवनदाता प्रभु से करते हैं सभी प्रार्थना
परिपूर्ण करें वे आपकी हृदयाकांक्षा।
और उमड़ती है हमारे हृदयों से यही शुभकामना
करुणामय सन्त श्री स्वामी चिदानन्द जी करें सुशोभित
इस निष्ठुर संसार को अपनी शान्तिप्रद दिव्य उपस्थिति से
अनेकानेक वर्षों तक।
श्री स्वामी चिदानन्द जी से एक दिन
कहा एक अति उत्साही कलाकार ने-
"कीजिए स्वीकार इन्हें; केवल आप ही देख सकते इन्हें
ये पुष्प न पाये जाते इस सम्पूर्ण धरा पर कहीं;
क्योंकि पायी मैंने स्वयं में
नवीन रूप और आकृति निर्माण की शक्ति।
बना सकता हूँ मैं और कर सकता हूँ आपको अर्पित
अद्भुत सौन्दर्यशाली पुष्प और आभूषण
नवीनतम वस्तुएँ जो देखी न गयी मनुष्यों द्वारा
और न ही ईश्वर द्वारा।
जिस प्रकार कुशल माली करते विकसित
विलक्षण आकृति एवं रंगों के नवीन पुष्प
मैं भी रचता अपने मन की कल्पनाओं में
नवीन वस्तुएँ और करता मानसिक अर्पण
आपके श्रीचरणों में।"
सौम्य गुरु ने स्मितपूर्वक दिया प्रत्युत्तर-
"मेरे बालक, माली की नवीन रचनाएँ पल्लवित होती
धरा की पुरानी मिट्टी में, प्राचीन सूर्य और वर्षा तले
और हैं वे विकसित रूप, पूर्व-विद्यमान रूपों के।
स्तुएँ जो तुम रचते सूक्ष्मतम कला-कौशल से
हों कितनी नवीन तुम्हारे लिए, परन्तु वे तो हैं
वैश्विक मन में उत्पन्न प्रमुदित तरंगों की मात्र अभिव्यक्तियाँ
प्रकटित हुई वे तुम्हारे समक्ष, बने तुम एक उपकरण
ईश्वर की अहैतुकी कृपा एवं अनुग्रहवशात्।
बालसुलभ उत्सुकता के साथ करते तुम आकांक्षा
देने इन नवीन और दुर्लभ उपहारों को उन्हें
हो तुम श्रद्धा और प्रेम से परिपूर्ण जिनके प्रति;
रंग और रेखाएँ जिनका तुम करते सम्मिश्रण
लेते हो तुम उन्हें पूर्वतः विद्यमान सम्पदा से ही।
तब, लज्जित और विचारमग्न, साथ ही
हो कृतज्ञ इस महान् शिक्षा के दान से,
मन-हृदय कर परिपूर्ण प्रसन्नता से
उस कलाकार ने किये अर्पित मनोनिर्मित उपहार
श्री स्वामी चिदानन्द जी के नित-धैर्यवान् चरणों में।
मानवता को करना चाहिए उनसे प्रेम
जो देते हैं मानव को अधिकाधिक
और उनसे तो अत्यधिक प्रेम जो दे देते सर्वस्व अपना-
अपनी शक्ति और सहानुभूति, अपना समय और ज्ञान।
क्या ऐसे महामानव
लाभान्वित हैं होते अन्यों के उपहारों से
अथवा क्या वे खो सकते हैं कभी कुछ
जैसे कि अन्य मनुष्य सदैव होते आक्रान्त खोने के भय से।
नहीं, वे कभी कुछ खोते नहीं
क्योंकि उन्होंने सदैव ही दिया अधिकाधिक ।
आप भी चाहते नहीं खोना, तो दीजिए, बाँटिए।
यदि यह अद्भुत संसार प्रायः प्रतीत होता
क्रूर तथा कठोर, करुणाशून्य और ज्ञानविहीन
कर नहीं सकता यह विदीर्ण आपका हृदय, हे दयामय सन्त!
क्योंकि जानते हैं आप
प्रेम की सर्वोद्धारक शक्ति नहीं है एक कल्पना;
हाँ, भली भाँति जानते हैं आप इस सत्य को,
क्योंकि प्रेम करता है निवास आपके हृदय में
हे मानवता के सौम्य स्नेहिल सखा, श्री स्वामी चिदानन्द जी।
एक पवित्र शिखर के आरोहण हेतु
तीर्थयात्री कर रहे हैं प्रस्थान
भिन्न-भिन्न स्थानों से प्रारम्भ कर यात्रा;
यद्यपि कुछ कर रहे प्रगति बहुशाखीय मार्गों से
पहुँचना है सभी को एक ही स्थान।
लम्बे जुलूसों में अथवा समूहों में
अथवा एक-एक कर एकान्त में,
तीव्र गति से आगे बढ़ते हुए
अथवा इधर-उधर भटकते हुए
चल ही रहे हैं सब पथिक।
परन्तु कुछ, जिनकी दृष्टि है तीक्ष्ण अन्यों से
जिनके हाथ एवं पैर, हृदय और संकल्प
दृढ़तर हैं अपने सहपथिकों से,
वे करते हैं निर्देशित उन्हें सुरक्षित पथ
और चट्टानों से निर्मित आश्रयस्थल
हल्की ढलानें, कठिन परन्तु लघुतर रास्ते
तथा खड़ी चट्टानों में पैर रखने के स्थान,
अन्धकार में लिए मशाल और ध्वजा।
जब होता प्रकाश, वे नहीं हैं छोड़ते उन्हें
रखी है आस्था जिन्होंने उन पर
देते वे नवीन साहस, सान्त्वना और सहायता
राह में गिरे हुए अथवा राह से भटके हुए पथिकों को।
इसी प्रकार करुणामय चिदानन्द जी करते हैं पथ-प्रदर्शित
पकड़े प्रेम की मशाल और आस्था का ध्वज ।
स्वयं की अन्तःप्रेरणा से संचालित हुए
अपने गुरु के पद-चिह्नों का अनुसरण करते हुए,
दिव्य आशा से परिपोषित हुए
वे करते हैं पथ-प्रदर्शन विभिन्न देशों के साधकों का-
आध्यात्मिकता के समस्त जिज्ञासुओं का -
उस उच्चतम लक्ष्य की ओर, जो करना है प्राप्त सभी को
अपना ही पवित्र स्रोत-परम आत्मा।
यही है कामना कि वे अपने चयनित पथ पर
अनेक अनेक वर्षों तक
पाते रहें मनोहारी पुष्प, करने उन्हें आह्लादित
स्वच्छ झरने और मृदुल पवन
करने उन्हें प्रमुदित एवं प्रफुल्लित;
पायें वे सतत आनन्द जीवात्माओं को दे संकट से मुक्ति
अथवा भटके हुओं की पुनः प्राप्ति से
तथा सतत अनुसरण करने वाले निष्ठावान् अनुयायियों से;
और पायें वे अवर्णनीय सूक्ष्मातिसूक्ष्म दिव्य आनन्द
जिसके विषय में हम मात्र देख सकते हैं स्वप्न
जब तक कि वे न करें प्रशिक्षित हमारे उत्सुक हृदयों को
ऐसी भव्य उपलब्धि योग्य ।
सभी चाहते हैं सुनना महापुरुषों की माताओं के विषय में
उनके आदर्श आचरण और प्रेरक प्रभाव के विषय में
और किस प्रकार दिये उन्होंने अपने प्रिय बालक को
अपने सर्वोत्तम सद्गुण तथा किया परिपोषित उन गुणों को
जो बालक लाया ही था अपने साथ पूर्वतः।
अतः हो प्रशंसा से परिपूरित हम देखते रहे एकटक
उन महान् स्त्री की छोटी सी तस्वीर को
जो थी माता श्री स्वामी चिदानन्द जी की
और था जिनका सुन्दर नाम 'सरोजिनी'
परन्तु त्याग दी है जिन्होंने अपनी पार्थिव देह ।
देखते ही रहे हम लम्बी अवधि तक उनके
हृदयस्पर्शी तारूण्यसम्पन्न, प्रौढ़ावस्था से अनछुए
निर्मल, निष्कपट, अतीव शान्त-प्रशान्त
स्मितरहित परन्तु अविक्षुब्ध, बालवत् निर्दोष
पावन और पवित्र मुख को।
उनकी प्रतिमा प्रविष्ट हो गयी हमारे हृदय में,
नेत्रों के माध्यम से; हम करते अभिलाषा
उनके विषय में अधिकाधिक सुनने की।
क्योंकि जो थे उनसे परिचित, प्रेमपूर्वक करते हैं स्मरण
किस प्रकार थीं वे सम्पन्न मानवता के प्रियकर गुणों से
श्रद्धा, सहानुभूति, करुणा, दानशीलता और
अन्य दिव्य सद्गुणों से, जिन्हें हम हैं देखते
उनके यशस्वी सुपुत्र में। यदि हम उन्हें मिल सकते
और कुछ कह सकते! हम उनसे कहते यही-
"आप धन्य हैं देवी, जो हैं ऐसे पुत्र की जननी !
हम करते याचना आपसे, कीजिए प्रार्थना हमारे लिए
कि अनुकरण कर आपका और उनका, हम करें प्राप्त
उनकी परिपूर्णता के कुछ चिह्न और
आप सम सौम्यता और सहृदयता।”
क्या है इतना उच्चतम कि
उसके शिखर भी हैं अदृश्य ?
श्री स्वामी चिदानन्द जी के
परमोच्च विचार।
क्या है इतना गहनतम कि
उसकी गहराई है अपरिमेय ?
श्री स्वामी चिदानन्द जी की
अगाध सहानुभूति।
क्या है आकाश सम अनन्त
इन्द्रधनुष, मेघ और तारावृन्द सहित ?
श्री स्वामी चिदानन्द जी की
सुमधुर अनुकम्पा ।
क्या है वृहत गगन सा विशाल
मनुष्य के हृदयकमल में छिपा ?
श्री स्वामी चिदानन्द जी का
सर्वस्नेही हृदय।
कहा जाता है श्री स्वामी चिदानन्द जी के विषय में :
"वे हैं एक एकाकी और गम्भीर
सीधी-तनी-ग्रीवा के कुमुदिनी पुष्प सम,
गर्व और अभिमान से नहीं अपितु
सदैव रहती उनकी गगनाभिमुख दृष्टि
आन्तरिक आनन्दातिरेक से
और एक दिव्यतम आकांक्षा से
जो करती उन्हें सबसे पृथक्।"
परन्तु कभी जब होता उनका यशोगान
बालवत् पावन उन्मुक्त हँसी
फूट पड़ती उनके शान्त तपस् के मध्य
और देखा है कुछ ने उन्हें मस्तक झुकाते
एक मधुर भ्रम में, कहा जाता है उन्हें जब सन्त।
आइए, करें हम प्रार्थना उन भाग्यहीनों के लिए
जिनके गहन अज्ञान के दुःखद प्रदर्शन से
दिव्य कुमुदिनी हो जाती विचलित
और क्षण भर को छा जाता
विषाद उसके उज्ज्वल शीर्ष पर।
श्रद्धावान् है जो श्री स्वामी चिदानन्द जी के प्रति
न हो केवल आश्चर्यचकित
उनकी भव्य आत्म-दीप्ति से
अपितु बनायें हम अपने मन-हृदय इतने शुद्ध
कि उनमें हो प्रतिबिम्बित उनकी निष्कपटता,
उनकी सरलता और समस्त सद्गुण।
जैसे करती है घास नमन कुमुदिनी को
हम करें वन्दन हमारे सौम्य सन्त का।
श्री स्वामी वेदान्तानन्द सरस्वती माता जी (श्रीमती सर्पिया देवी)
यूरोप के पौलेण्ड देश की निवासी थीं। वे उच्च शिक्षा प्राप्त एक
प्रतिभासम्पन्न महिला थीं। उन्हें अनेक भारतीय एवं पाश्चात्य
भाषाओं का ज्ञान था। अंग्रेजी तथा फ्रेंच भाषा में उन्होंने गद्य एवं
पद्य दोनों ही विधाओं में अनेक उल्लेखनीय रचनाएँ कीं। वे
एक कुशल चित्रकार भी थीं। अपने बनाये 'ॐ' के मनोहारी चित्रों
को वे मित्रों एवं बन्धुओं को उनके जन्मदिवस इत्यादि पर अत्यन्त
स्नेहपूर्वक भेंट करती थीं। २० जुलाई १९५९ को उन्हें सद्गुरुदेव
श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज से संन्यास-दीक्षा का सौभाग्य प्राप्त
हुआ। इसके पश्चात् वे मुख्यालय आश्रम में
अन्तेवासी के रूप में रहीं। वर्ष १९८० में श्रद्धेया माता जी ने अपनी नश्वर देह का
त्याग किया।