महात्मा सुदुर्लभः

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

प्रकाशक

 

डिवाइन लाइफ सोसायटी

 

पत्रालय : शिवानन्दनगर- २४९१९२

जिला : टिहरी-गढ़वाल, उत्तराखण्ड (हिमालय), भारत

www.sivanandaonline.org, www.dlshq.org

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

प्रथम संस्करण : २०१५

 

(,००० प्रतियाँ)

 

© डिवाइन लाइफ ट्रस्ट सोसायटी

 

 

 

 

 

Swami Chidananda Birth Centenary Series-43

 

 

 

 

 

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' डिवाइन लाइफ सोसायटी, शिवानन्दनगर' के लिए स्वामी पद्मनाभानन्द द्वारा प्रकाशित तथा उन्हीं के द्वारा 'योग-वेदान्त फारेस्ट एकाडेमी प्रेस, पो. शिवानन्दनगर- २४९१९२, जिला टिहरी-गढ़वाल, उत्तराखण्ड' में मुद्रित

 

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महात्मा सुदुर्लभः

 

यह पुस्तिका भगवत् स्वरूप सद्गुरुदेव श्री स्वामी चिदानन्द सरस्वती जी महाराज के चरण-कमलों में सेवक के श्रद्धा-सुमन, जन्मशत वार्षिक अवसर पर सादर-सप्रेम समर्पित हैं।

 

सद्गुरुदेव श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज की भाषा में सन्त-महात्मा वह हैं- जिनमें अहंता होती है, ही ममता। वह काम, क्रोध तथा लोभ से मुक्त होते हैं। सभी प्राणियों को आत्मभाव से प्रेम करते हैं। वह वैराग्य तथा दया से सुसम्पन्न होते हैं। वह सर्वदा सत्य, हित और मधुर भाषी होते हैं। दूसरों की शिकायत करते, निन्दा करते हैं। वह सदा समदृष्टि-समदर्शी होते हैं। वह सदा शान्त तथा प्रसन्न रहते हैं। वह निर्भय और उदार होते हैं। वह कभी माँगते नहीं हैं। सदैव देते ही रहते हैं। दया, प्रेम, दान और करुणा उनका स्वभाव होता है बुराई के बदले सदा भलाई ही करते हैं और अपशब्द कहने वालों को भी आशीर्वाद देते हैं। सदैव दूसरों का कल्याण करने को तत्पर रहते हैं। समग्र विश्व में ऐसा सच्चा सन्त तो कोई विरला ही होता है। ऐसे सन्त-महात्मा की प्राप्ति सुगम नहीं होती।

 

जैसे वसन्त ऋतु सुगन्धित मन्द वायु से, नवीन कोमल मृदु पत्र-पुष्प से विश्व को आनन्दित तथा मन्त्रमुग्ध कर देता है, इसी प्रकार सन्त महापुरुष संसार रूपी सागर को स्वयं पार करके अपनी अहैतुकी कृपा से इस असार संसार रूपी सागर में डूबे हुए जनसाधारण को पार करा के सुख, शान्ति तथा आनन्द प्रदान करते हैं।

 

एक बार गुरुदेव श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज स्वामी याज्ञवल्क्यानन्द जी से बोले थे- "आप उन्हें (स्वामी चिदानन्द को) सही मायने में नहीं जानते, कदाचित् ही कोई उन्हें जानता है। वे किसी की भी कल्पना से कहीं अधिक महान् हैं। आपकी बुद्धि उनकी महानता को ग्रहण नहीं कर पायेगी, वे इतने महान् व्यक्ति हैं। मैं उनकी सिद्धता को सिद्ध करने के लिए यहाँ आया हूँ।"

 

यदि हम एक ऐसे अतिमानवीय व्यक्तित्व को देखते हैं जो पवित्रता से, धार्मिकता से, उदारता से, सज्जनता से, भलाई से, परोपकारिता से, उदात्त चरित्र से, ज्ञान से कुछ असाधारण हैं, तब हम कहते हैं, इस प्रकार का एक अति मानवीय व्यक्ति यदि विद्यमान है, तब भगवान् अवश्य है। नहीं तो यह सब गुण कहाँ से आते हैं? जो हम साधारणतः नहीं देखते किसी के अन्दर, जब हम ऐसा देवत्व, ऐसी पवित्रता, ऐसी धार्मिकता, ऐसी करुणा देखते हैं तब हम अनुभव करते हैं कि हाँ, मैंने भगवान् को नहीं देखा, परन्तु भगवत्व को मैंने देखा है।

 

ऐसे ही सन्त परम पावन स्वामी चिदानन्द जी महाराज को बोध करने हेतु और एक स्वामी शिवानन्द या चिदानन्द जैसा सन्त होना पड़ेगा। गुरु महाराज स्वामी चिदानन्द जी महाराज के बारे में कुछ लिखना सेवक के लिए असम्भव है, परन्तु उनकी कृपा से उनकी सेवा में रह कर जो कुछ देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, उसमें से कुछ यहाँ प्रस्तुत करता हूँ, ताकि हम सब अपने जीवन में कुछ सीख कर ग्रहण कर सकें। हमारा मानना है कि स्वामी जी महाराज का जीवन ही जीते-जागते वेदान्त-दर्शन का उदाहरण है। स्वामी जी महाराज ने गीता, उपनिषद् आदि शास्त्रों का सिर्फ उपदेश नहीं दिया है, परन्तु अपने जीवन में सब पालन करके, आचरण में उतार कर दिखाया है। हम सब धन्य हैं कि हम सब उनके सान्निध्य में आये हैं। (गुरु महाराज, स्वामी जी महाराज और स्वामी जी आदि शब्दों को स्वामी चिदानन्द जी महाराज समझना चाहिए।)

 

 

सन् १९९४ दिसम्बर माह रात प्रायः :३० का समय होगा। गुरु महाराज की गाड़ी भुवनेश्वर के खण्डगिरि स्थित शिवानन्द शत वार्षिक बालक उच्च माध्यमिक विद्यालय के गुरु कुटीर में कर रुकी। गेट से गुरु कुटीर करीब - मीटर होगा। उस पथ की चौड़ाई - फीट होगी। पथ के दोनों तरफ गेंदे के पौधे लगे हुए थे। गेंदे के बाद द्रहेलिया, गुलाब आदि पौधे लगे हुए थे। गुरु कुटीर के बरामदे में एक लाइट जल रही थी जो कि पथ को सामान्य रूप से आलोकित (उजाला) कर रही थी। गुरु महाराज जी गाड़ी से नीचे उतरे और वहाँ उपस्थित और सेवक ने प्रणाम किया, परन्तु गुरु महाराज जी सबको नमो नारायणाय कहते हुए वहीं पथ में ही नीचे बैठ गये। जैसे गुरु महाराज जी का ध्यान कहीं और हो। पहले तो किसी की समझ में नहीं आया कि क्या हुआ है? गुरु महाराज एक गेंदे के पौधे को एकटक देखने लगे, तभी सबका ध्यान उस गेंदे के पौधे की तरफ गया तो पता चला कि पौधे की एक छोटी-सी टहनी किसी प्रकार टूट कर नीचे की तरफ लटक गयी है। टार्च लाईट से थोड़ा उजाला हुआ। सेवक गैस लाइट भी ले कर आया। उजाले में गुरु महाराज अच्छे से देखने के बाद बोले- "गत्ता और धागा ले कर आओ।" गुरु महाराज जी के निजी सेवक बोले- "स्वामी जी, हम लोग गेंदे के पौधे को ठीक से बाँध देंगे, आप चल कर फ्रैश हो जायें।" कारण गुरु महाराज जी करीब १२० किमी की दूरी से कार से सफर करके आये थे। परन्तु गुरु महाराज चुप रहते हुए ध्यान से अपना काम करते रहे। सेवक धागा और गत्ता ले कर आया। जैसे किसी के हाथ-पैर टूटने पर उसके प्लास्टर किया जाता है ठीक वैसे ही गुरु महाराज जी ने गेंदे के पौधे की टहनी पर गत्ते द्वारा बड़ी ही सफाई से पट्टी की। सेवक को पकड़ने को कहा और खुद धागा बाँधा। बाँधने के बाद जब खुद को तसल्ली हुई तब उठ कर अपने कमरे में गये। यह काम करने में गुरु महाराज जी को शायद २०-२५ मिनट का समय लगा। सही मायने में यह बात कही जा सकती है, लिखी जा सकती है; क्योंकि गुरु महाराज जी ने जिस भाव से, जिस श्रद्धा से, जिस तन्मयता से, जिस एकाग्रता से यह कार्य किया, उसको भाषा देने में सेवक असमर्थ है। कैसी अद्वितीय दृष्टि है गुरु महाराज की! जैसे पेड़-पौधों की पीड़ा को खुद अनुभव करते हैं या उनकी भाषा को समझते हैं। नरसी मेहता की भाषा में- 'वैष्णव जन तो तेने कहिए, जो पीर पराई जाने रे।' गीता की भाषा में कहें तो-

 

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं मयि पश्यति।

तस्याहं प्रणश्यामि सच मे प्रणश्यति ।। (गीता : -३०)

 

जो पुरुष मुझे सर्वत्र देखता है और सर्वस्व मुझमें देखता है, वह कभी मुझसे दूर नहीं होता और ही मैं उसके लिए कभी अदृश्य होता हूँ।

 

 

सन् २००४ अक्तूबर माह में स्वामी जी महाराज देहरादून, शान्ति निवास के गेट से लान तक और लान से गेट तक टहल रहे थे। समय सायं बजे के आस-पास का होगा। दो सेवक स्वामी जी महाराज के दोनों तरफ थे और बाकी स्वामी जी महाराज के पीछे-पीछे चल रहे थे। दो सेवक धोती की तह लगा कर स्वामी जी महाराज के चारों तरफ मक्खी-मच्छर भगा रहे थे। इसी बीच एक मच्छर स्वामी जी महाराज के चरणों के पीछे-पीछे जा रहा था। उस मच्छर को कई बार भगाने की कोशिश की गयी; परन्तु वो गया ही नहीं, जैसे वह मच्छर स्वामी जी महाराज का अनुसरण कर रहा हो। सबकी निगाहें उसी मच्छर पर थीं। स्वामी जी महाराज गेट से लान और लान से गेट, फिर गेट से लान और लान से गेट-साथ-साथ मच्छर भी पीछा कर रहा था। स्वामी जी महाराज को इस विषय में अवगत कराया गया। तब स्वामी जी महाराज बोले- "उसका इस शरीर (अपनी ओर इशारा करते हुए) के साथ पूर्वजन्म का कुछ ऋणानुबन्ध होगा, इसीलिए वह पीछे-पीछे घूम रहा है। ऋणानुबन्धन जब पूरा हो जायेगा, तब वह मुक्त हो जायेगा।" स्वामी जी महाराज इस बात को बोलने के लिए जितने समय खड़े रहे, उतने ही समय में वह मच्छर स्वामी जी महाराज को स्पर्श करके कहें या फिर काट कर चला गया। स्वामी जी महाराज चलने लगे। इस बार जब स्वामी जी महाराज गेट से लान की ओर आये तो मच्छर नहीं था। शायद स्वामी जी महाराज की बात का गूढ़ रहस्य यही है कि एक मच्छर स्वामी जी महाराज का अनुसरण करके मुक्त हो सकता है तो हम सब अगर गुरुदेव, गुरु महाराज जी के बताये हुए पथ का अनुसरण करें तब निश्चित ही मुक्ति पा सकेंगे !

 

सन् १९९५ में गुरु महाराज के शिवानन्द शतवार्षिक बालक उच्च माध्यमिक विद्यालय की गुरु कुटीर में आवास काल के समय, एक दिन सायं से पहले फिल्टर कॉफी (मद्रास कॉफी) पीने वाले थे। अभी शुरू नहीं की थी, उसी समय एक कुत्ते के खाँसने की आवाज सुनायी पड़ी। कुत्ते का खाँसना बहुत लम्बा था, जैसे कि वह रो रहा हो। गुरु महाराज जी ने अपने कमरे से कर आवाज दी तो प्रशान्त मिश्रा जी (अब स्वर्गीय), स्वामी जी के कमरे में गये, तब गुरु महाराज जी बोले-"कुटीर के पीछे की ओर कुत्ता खाँस रहा है, उसके लिए - पीस ब्रेड ले कर जाओ, एक-एक ब्रेड उसे खाने को दो।" मिश्रा जी और सेवक ब्रेड ले कर पीछे की ओर गये, परन्तु वहाँ कोई कुत्ता नहीं मिला। गुरु कुटीर के चारों तरफ ढूँढ़ा, कुत्ता नहीं मिला। हॉस्टल और स्कूल की तरफ भी देखा, परन्तु कहीं भी कुत्ता नहीं मिला। वापस गुरु कुटीर आये तब तक गुरु महाराज जी ने कॉफी सेवन कर ली थी। गुरु महाराज जी को बताया गया कि हमने पूरा कैम्पस देख लिया, परन्तु कुत्ता नहीं मिला।

 

कुछ समय के बाद गुरु महाराज जी छत के ऊपर टहलने के लिए निकले। छत के ऊपर जाने के लिए सीढ़ी चढ़ने लगे थे, तब एक बार फिर कुत्ते की आवाज सुनायी पड़ी, तब तक थोड़ा अँधेरा हो गया था। आज जैसी गुरु कुटीर के चारों तरफ दीवार है, उस समय नहीं थी। उस समय बाँस में हल्का घेरा (बाड़) बनाया गया था। गुरु महाराज जी पीछे के घेरे के पास गये, गैस लाइट और टार्च लाइट से कुत्ते को ढूँढ़ना शुरू किया, ब्रेड भी लायी गयी। उस समय वह कुत्ता अपने आप उसी स्थान में आया जहाँ गुरु महाराज जी बाँस को पकड़ कर खड़े थे। जैसे वह कुत्ता गुरु महाराज जी को पहचानता हो और उनके हाथ से ही (ब्रेड रूपी) प्रसाद ग्रहण करना चाहता था। इसलिए जब गुरु महाराज जी खुद नहीं आये तब वह दिखायी नहीं दिया और अब अपने आप गुरु महाराज के पास आया। तब गुरु महाराज जी ने झुक कर एक-एक ब्रेड पीस उसे अपने हाथ से खिलाया और वे उसके माथे पर बड़े प्यार से अपना एक हाथ फिरा रहे थे। उस कुत्ते के शरीर में ज्यादातर बाल नहीं थे और वह बहुत रुग्ण (बीमार) भी था, देखने में बहुत अजीब लग रहा था। शायद हम लोग उसे छूना भी पसन्द नहीं करते। उसी रात गुरु महाराज जी ने किसी को मिलने के लिए समय दे रखा था, परन्तु उनको कोई जल्दी नहीं थी। कुछ समय के बाद गुरु महाराज जी सीधे खड़े हुए और कुत्ता भी वहाँ से धीरे-धीरे चला गया। गुरु महाराज जी छत के ऊपर टहलने के लिए गये, लेकिन कुत्ते की वह आर्त चाह और गुरु महाराज की वह करुणापूर्ण चाह वर्णन से परे है। वह कुत्ता भी बहुत नसीब वाला है। बाद में कभी वह कुत्ता दिखायी नहीं दिया। 'शुनि चैव श्वपाके पंडिताः समदर्शिनः' (गीता : -१८)

 

 

साधारणतः व्यक्ति के व्यवहार से ही पता चलता है कि वह कैसा इनसान है। हर कोई अपने से महत्त्वपूर्ण व्यक्ति, वयोज्येष्ठ, किसी उच्च पद पर आसीन व्यक्ति, किसी सम्मानस्पद व्यक्ति को ही प्यार, सम्मान और आदर करता है। अपने से हर प्रकार से कम ओहदे वाले को लोग प्यार, सम्मान और आदर देने में चूक जाते हैं। कोई बिरला ही सबका आदर कर पाता है। गुरुदेव स्वामी शिवानन्द जी महाराज ने अपनी विश्व-प्रार्थना में दिया है-हम सब नाम-रूपों में तुम्हारा दर्शन करें। तुम्हारी अर्चना के ही रूप में इन नाम-रूपों की सेवा करें। स्वामी जी महाराज ने जो दूसरों को उपदेश दिया, वह अपने जीवन में आचरण करके दिखाया।

 

शान्ति निवास, देहरादून में स्वामी जी महाराज का मुण्डन करने के लिए कयूम नाम का एक मुसलमान नाई आता था। जो लोग शान्ति निवास गये हैं, उन्होंने देखा होगा, जहाँ गुरु महाराज की व्हील चेयर रखी हुई है, उस जगह की चौड़ाई कम है और लम्बाई ज्यादा है। उसी जगह पर नीचे बैठ कर गुरु महाराज मुण्डन करवाते थे। मुण्डन की सारी सामग्री पहले से तैयार रहती थी। ठण्ढी के दिन हैं तो रूम हीटर लगा कर उस जगह को पहले से ही गर्म रखा जाता था। नाई पहले से चाय-नाश्ता करके इन्तजार करता था। गुरु महाराज अपने कमरे से निकलते ही बोलते थे- "अल्ला हु अकबर = बिसमिल्ला हिर रहमानिर्रहीम अलहम्दु लिल्लाही रब्बिल आलमीन।"

 

तब तक गुरु महाराज मुण्डन के स्थान पर पहुँच जाते थे। तब नाई को हाथ जोड़ कर थोड़ा झुक कर 'अस्सलामु अलैकुम' बोलते थे। नाई भी हाथ जोड़ कर 'वालेकुम अस्सलाम' बोलता था।

 

गुरु महाराज अपने आसन पर बैठ जाने के बाद नाई को अपने सामने बुलाते थे। नाई के सामने जाने पर गुरु महाराज नाई के चरणों में सिर लगा कर प्रणाम करते थे। फिर नाई को एक हाथ दीवार में सहारा दे कर अपना एक पैर जमीन से थोड़ा-सा ऊपर करने को कहते थे। नाई जैसे ही एक पैर ऊपर करता, तब गुरु महाराज जी उसके पैर के तलवे में अपना हाथ फिरा कर चरण धूल अपनी आँखों में और सिर में लगाते थे। फिर दूसरा पैर ऊपर उठाने को बोलते थे। वैसे ही दूसरे पैर के तलवे में हाथ फिरा कर आँख और सिर पर लगाते थे। दो लिफाफे और दो प्रसाद के पैकेट नाई को देते थे, जिनको पहले से तैयार करके रखा जाता था। एक लिफाफे में 'पारिश्रमिक' और नाई का नाम 'कयूम जी' लिखा होता था, दूसरे लिफाफे में 'ईनामी'- 'बक्शीश' और 'कयूम जी' लिखा होता था जिसको स्वामी जी महाराज खुद हिन्दी में लिखते थे। दोनों लिफाफों में अलग-अलग अवसरों पर अवसरानुकूल धनराशि होती थी। कभी होली, कभी ईद, कभी दीवाली, कभी मुहर्रम, कभी रमजान पर ज्यादा रकम होती थी। प्रसाद के पैकेट में एक कयूम के बच्चों के लिए होता था, जिसमें कई किस्म की चाकलेट और बिस्कुट होते थे। दूसरे पैकेट में जो सबको देते हैं वही सोनपापड़ी, दो नमकीन के पैकेट, दो बिस्कुट पैकेट होते थे। यह सब हो जाने के बाद स्वामी जी महाराज आँख मूँद कर सीधा हो कर बैठ जाते थे जैसे ध्यान में बैठे हों। मुण्डन का एक कपड़ा स्वामी जी को ओढ़ा दिया जाता, तब मुण्डन-प्रक्रिया शुरू की जाती थी। कयूम बहुत प्यार से, ध्यान से स्वामी जी महाराज का मुण्डन करता था। मुण्डन के अन्त में पास में जो सेवक होते थे, वह देख लेते थे कि कहीं छूट तो नहीं गया। मुण्डन हो जाने के बाद स्वामी जी महाराज पहले की भाँति नाई को प्रणाम करते थे। धन्यवाद देना तो कभी भी नहीं भूलते थे। स्वामी जी महाराज बोलते थे- "आप हजामत करके सबको सुन्दर बनाते हो, लगता है जैसे उमर कम हो गयी हो।" कभी-कभी पूछते थे- "आप रोज नमाज पढ़ते हो ? जुम्मे के दिन मस्जिद जा कर नमाज अदा करना। अगर नहीं जा सके तो जहाँ हो, वहीं नमाज अवश्य पढ़ना।" एक बार तो नमाज के समय आवश्यक आसन और टोपी खरीद कर नाई को भेंट दीं। नाई को धन्यवाद बोल कर स्वामी जी अपने कमरे में चले जाते थे। यह तो बाह्य दृष्टि है, परन्तु स्वामी जी महाराज के भाव तो अवर्णनीय हैं। 'अमानिना मानदेन' स्वयं अहंभाव से शून्य होना, और दूसरों को मान देना तो कोई आपसे सीखे।

 

तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना।

अमानिना मानदेन कीर्तनीयः सदा हरिः ।।

 

घास के समान विनीत, वृक्षों से भी अधिक सहनशील, अहंभाव से शून्य, दूसरों के प्रति आदर-सम्मान का भाव रखते हुए सदा हरि की महिमा का गान करना चाहिए।

 

 

भगवान् बद्रीनाथ जी के पुजारी जी को रावल जी कहते हैं। एक बार मुख्य रावल जी अपने कुछ सहायक साथियों के साथ स्वामी जी की अनुमति ले कर दर्शन के लिए शान्ति निवास आये थे। स्वामी जी महाराज ने पहले से सबको बोला था कि रावल जी कहाँ पर और कौन-सी कुर्सी में बैठेंगे और बाकी लोग कहाँ बैठेंगे। रावल जी की कुर्सी में सफेद कपड़ा डालने को कहा था। सबको फिल्टर कॉफी देने को कहा था। प्रसाद में अनेक प्रकार के मेवे और फल, रावल जी के लिए फलों की टोकरी, फूलमाला आदि सब-कुछ पहले से बोल रखा था। शान्ति निवास हॉल में स्वामी जी महाराज की कुर्सी के दाहिनी ओर रावल जी के लिए कुर्सी में सफेद कपड़ा डाल कर रखा गया। ठीक समय में रावल जी अपने सहयोगी साथियों के साथ शान्ति निवास में पहुँचे, शायद वह १७ लोग थे। सेवक ने सबके लिए मद्रास कॉफी फिल्टर मशीन में डाल कर चूल्हे पर रखी, साथ-साथ सबको देने के लिए प्रसाद के पैकेट भी तैयार कर रहा था। परन्तु कॉफी और प्रसाद पैकेट तैयार होने से पहले गुरु महाराज जी अपने कमरे से जय बद्रीविशाल कहते हुए हॉल में गये।

 

हॉल में आने के बाद गुरु महाराज ने पहने हुए अपने शाल और टोपी निकाल दिये। रावल जी को जय बद्रीविशाल कह कर तीन बार साष्टांग प्रणाम किया, रावल जी ने भी स्वामी जी महाराज को साष्टांग प्रणाम किया। गुरु महाराज जी ने गुलाब फूल की एक बड़ी माला रावल जी को पहनायी, एक शाल ओढ़ाया और प्रणामी लिफाफा भेंट किया। स्वामी जी महाराज अपनी कुर्सी पर बैठ गये तब रावल जी ने बद्रीनाथ जी का प्रसादी उत्तरीय, स्वामी जी को ओढ़ाया और चन्दन, तुलसी, प्रसाद आदि स्वामी जी को भेंट दिया। गुरु महाराज ने सारे प्रसाद को अपने सिर में लगा कर प्रणाम किया और एक थाली में रखा। हम सबसे बोले कि आप सब प्रणामी लिफाफा दे कर प्रणाम करें। स्वामी जी ने हम सबको लिफाफे में रुपये रख कर पहले से दिये थे। ब्रिगेडियर सब्बरवाल जी आदि सबने पहले एक-एक करके रावल जी को साष्टांग प्रणाम करके प्रणामी लिफाफा भेंट किया। आखिर में सेवक ने रावल जी को साष्टांग प्रणाम किया और ठीक प्रणामी लिफाफा देते समय एक सेवक ने इस सेवक का नाम ले कर कहा- "सारी कॉफी चूल्हे में गिर गयी।" सेवक ने गैस को कम कर रखा था। फिर भी कॉफी नीचे गिर गयी। यह बात सुन कर सेवक का ध्यान हट गया। उस समय यूँ हुआ कि सेवक ने दाहिने हाथ में लिफाफा पकड़ा था, बायाँ हाथ दूर था, और रावल जी को नहीं देख कर किचन की ओर देख रहा था। सेवक उस समय स्वामी जी महाराज से करीब फुट की दूरी पर था। स्वामी जी महाराज सेवक का ऐसा आचरण देख रहे थे। उसी समय स्वामी जी महाराज जोर से बोल उठे- "ये.... ये... क्या?" इतनी तेज आवाज सुन कर सेवक चौंक गया और हाथ से लिफाफा नीचे गिर गया। शीघ्रता से नीचे से लिफाफा उठा लिया। स्वामी जी बोले- "ये क्या, ऐसा कोई किसी सम्मानस्पद, पूज्य व्यक्ति को देता है क्या? जैसे पोस्ट मैन चिट्ठी देता है! तुमने खुद देखा नहीं किसको देते हो। जिनको देते हो, उन्होंने भी देखा नहीं, और उनके हाथ में भी दिया नहीं। दोनों हाथों में लिफाफा पकड़ कर प्रेम से उनके हाथ में देना चाहिए। फिर प्रेम से साष्टांग प्रणाम करना चाहिए और ये क्या? पूरी तरह मैकेनिकल से?"

 

सेवक ने दोनों हाथ जोड़ कर क्षमा याचना की- "सारी, स्वामी जी गलती हो गयी।" तब स्वामी जी महाराज कुछ नहीं बोले। स्वामी जी महाराज के कहने के अनुसार दोनों हाथों से लिफाफा पकड़ कर रावल जी के हाथ में दे कर साष्टांग प्रणाम किया। सेवक के मन में थोड़ा-सा खेद हुआ कि आज हमारा आचरण ठीक नहीं रहा। फलस्वरूप गुरु महाराज जी को नाराज होना पड़ा। परन्तु खुशी भी थी कि गुरु महाराज जी ने करुणा करके सेवक के टेढ़ेपन को सीधा किया। यह सीख सेवक कभी नहीं भूलेगा।

 

सेवक अपने काम में लग गया। पहले सबके लिए फिल्टर कॉफी बनायी, सबको कॉफी देने के लिए हॉल में लानी है और वह भी स्वामी जी महाराज के सामने। मन में भय है कहीं इस बार भी कोई गलती हो जाये। गुरुदेव को स्मरण करके सेवक और एक अन्य स्वामी जी सबके लिए कॉफी हॉल में ले कर आये। पहले रावल जी को, फिर बाकी लोगों को कॉफी दी गयी। फिल्टर कॉफी की सुगन्ध बहुत अच्छी होती है। स्वामी जी महाराज बोले- "मुझे भी कॉफी बना कर दे दो।" साधारणतः कॉफी, दूध, चीनी आदि अलग रख कर दिये जाते हैं। स्वामी जी महाराज खुद मिला कर पीते हैं। स्वामी जी महाराज को अपने कप में कॉफी बना कर दिया गया। सब लोगों ने एक-साथ कॉफी पी, बातचीत भी होती रही। नर-नारायण की तपस्या, श्रीकृष्ण भगवान् द्वारा उद्धव जी को बद्रीविशाल क्षेत्र में तपस्या के लिए भेजना, आदि शंकराचार्य जी द्वारा बद्रीनाथ जी की प्रतिमा की स्थापना आदि अनेक चर्चाएँ हुईं। सेवक ने सबके लिए प्रसाद के पैकेट भी तैयार कर लिये। स्वामी जी महाराज ने रावल जी को फल की टोकरी भेंट की और बाकी सबको प्रसाद के पैकेट दिये।

 

रावल जी वापस जाने के लिए खड़े हुए, स्वामी जी महाराज ने अपने आसन से उठ कर रावल जी को साष्टांग प्रणाम किया। रावल जी के चरणों के आस-पास कुछ गुलाब फूल की पंखुड़ियाँ गिरी हुई थीं। स्वामी जी महाराज जब प्रणाम करके उठे, उन पंखुड़ियों को एकत्र किया और बोले- "ओजी, छोटी प्लेट ला कर यह बद्रीविशाल जी के प्रसादी फूल मेरे पूजा के स्थान (Altar) में रख दो।" स्वामी जी महाराज के कमरे में जो पूजा-स्थान है, वहाँ रख दिया गया। सोचने योग्य है कि कैसी अद्भुत स्थिति है, कैसा भाव है, कैसी दृष्टि है! स्वामी जी महाराज रावल जी को विदाई देने के लिए बाहर तक आये। स्वामी जी महाराज को चप्पल पहनाने का सुयोग सेवक को मिला। उस समय स्वामी जी महाराज ने एक-दो क्षण के लिए सेवक के शिर पर हाथ फिराया। सेवक ने मुँह ऊपर करके स्वामी जी महाराज को देखा, तब स्वामी जी महाराज ने भी सेवक की तरफ देखा। परन्तु वह देखने में जैसे करोड़ों माताओं (जननी) का वात्सल्य एक-साथ प्रवाहित हो रहा हो, जिसको भाषा में प्रकाशित करना असम्भव है।

 

 

ऋषिकेश कैलास आश्रम के पास मधुवन आश्रम है। आश्रम में जगन्नाथ जी का मन्दिर है। हर साल जगन्नाथ जी की रथ-यात्रा होती है। मधुवन आश्रम के श्री स्वामी भक्तियोग जी महाराज सन् २००५ के फरवरी माह में गुरु महाराज से मिलने के लिए शान्ति निवास, देहरादून में आये थे। गुरु महाराज जी जब हॉल में आये, तब 'जय जगन्नाथ, जय बलभद्र, जय सुभद्रा माता' बोल कर श्री स्वामी भक्तियोग जी महाराज को साष्टांग प्रणाम किया। श्री स्वामी भक्तियोग जी ने भी स्वामी जी को साष्टांग प्रणाम किया। बाद में श्री स्वामी भक्तियोग जी बोले-"स्वामी जी, आप हमारे गुरुतुल्य हैं, वयोज्येष्ठ हैं, आप इस दास को प्रणाम करें, अच्छा नहीं लगता है।"

 

गुरु महाराज जी बोले- "आप तो भगवान् जगन्नाथ जी के सेवक हैं, परन्तु हमारे लिए आप जगन्नाथ महाप्रभु हैं। इसलिए मैं प्रणाम करता हूँ। अन्तःचक्षु से दर्शन करना ही सही मायने में दर्शन है, बाह्य चक्षु से भगवान् की माया और भगवान् की शक्ति का दर्शन होता है। जो कुछ भी हम देख रहे हैं, उन सबमें परमात्मा के दर्शन करना ही सही मायने में दर्शन करना है। अपने अन्दर जो परमात्मा विद्यमान है, वही परमात्मा सबके अन्दर विराजमान है। इसको सदा अनुभव करना चाहिए।"

 

ऐसी ही अनेक चर्चाएँ हुईं। बाद में गुरु महाराज जी ने श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज की किताब वैराग्य माला और फल की टोकरी श्री स्वामी भक्तियोग जी महाराज को भेंट की।

 

 

जो लोग पुरी के श्री जगन्नाथ महाप्रभु के दर्शन के लिए गये हैं, उन्होंने मन्दिर के अन्दर गरुड़ स्तम्भ के पीछे की दीवार में चैतन्य महाप्रभु जी के उँगली के निशान देखे होंगे, जो कि चैतन्य महाप्रभु से भावविभोर हो कर श्री जगन्नाथ जी के दर्शन करते समय बन गये थे, जैसे कि वह कोई पत्थर नहीं गीली मिट्टी या मक्खन हो। सेवक जब छोटा था तो मन में ये प्रश्न उठता था कि ऐसा कभी हो सकता है क्या?

 

स्वामी जी महाराज हर दिन टहलने के लिए कमरे से बाहर आते थे, पहले हॉल के पूजा-स्थान में गुरुदेव की कुर्सी में प्रणाम करते थे। यह शान्ति निवास का मकान श्री बी. एन. कौल जी का है। उन्होंने आश्रम को अनुदान में दिया है। सारकेश्वरी कौल माता जी की इच्छा थी कि गुरुदेव स्वामी शिवानन्द जी महाराज हमारे घर पधारें। एक बार कौल साहब और माता जी जब शान्ति निवास में नहीं थे, तब सद्गुरु स्वामी शिवानन्द जी महाराज अपने कुछ सेवक शिष्यों के साथ शान्ति निवास, देहरादून आये थे। गुरुदेव ने हॉल में एक सोफे में बैठ कर कुछ समय कीर्तन किया और मद्रास कॉफी पीने के बाद वापस गये थे। जब कौल साहब और माता जी को पता चला कि गुरुदेव हमारे घर में कर कुछ समय कीर्तन करने के बाद कॉफी पी कर चले गये थे, तब वे बहुत प्रसन्न हुए। जिस सोफे में गुरुदेव बैठे थे, उस सोफे में और कोई बैठे, इसलिए उस पर गुरुदेव की एक फोटो रख दी गयी। बाद में उस सोफे में गुरुदेव की एक जोड़ी पादुका रख दी गयी। तब से स्वामी जी महाराज घुटने के बल खड़े हो कर पादुका में सिर लगा कर प्रणाम करते थे। प्रणाम करने में स्वामी जी महाराज को करीब २० मिनट लग जाते थे। जब स्वामी जी महाराज की तबीयत ठीक नहीं रही, तब भी व्हील चेयर में कर, उसमें बैठे-बैठे प्रणाम किया करते थे। समय वही २०-२५ मिनट लग जाता था। हॉल में प्रणाम करने के बाद मकान के सम्मुख स्थित तुलसीचौरा को प्रणाम करते थे। स्वामी जी महाराज के दिखाये गये स्थान पर तुलसीचौरा बनाया गया था। स्वामी जी महाराज बोलते थे कि तुलसी कोई पौधा नहीं है, वह साक्षात् भगवती का स्वरूप है।

 

वृन्दावृन्दावनी विश्वपूजिता विश्वपावनी।

पुष्पसारा नन्दिनी तुलसी कृष्णजीवनी ।।

महाप्रसादजननी सर्वसौभाग्य वर्धिनी।

आधिव्याधि हरा नित्यं तुलसी त्वां नमोऽस्तु ते ।।

वृन्दायै तुलसीदेव्यै प्रियायै केशवस्य च।

विष्णुभक्तिप्रदे देवि सत्यवत्यै नमो नमः ।।

 

चौरा में पहले स्वामी जी महाराज ने तुलसी पौधा लगाया, अर्घ्य, गन्ध, कुंकुम, पुष्प, धूप-दीप और आरती के साथ पूजा की, तुलसी जी की तीन परिक्रमा करके प्रणाम किया। उस समय स्वामी जी महाराज बोले थे कि तुलसी जी की नित्य सुबह-शाम को पूजा की जाये, जो आज तक हो रही है।

 

हर दिन स्वामी जी महाराज के तुलसी जी की तीन परिक्रमा और प्रणाम करने में करीब ३० मिनट समय लग जाते थे। जब से व्हील चेयर में आये, तब परिक्रमा तो कर नहीं पाये किन्तु समय वही ३० मिनट लग जाता था। प्रणाम करते समय स्वामी जी महाराज कुछ स्तोत्र-मन्त्र-पाठ करते थे, जैसे स्वामी जी महाराज तुलसी माता जी से बात कर रहे हों। जगत् के कल्याण के लिए, सबकी दुःख-निवृत्ति के लिए प्रार्थना करते थे, जो बहुत धीरे और बहुत ही प्रेम से करते थे। स्वामी जी महाराज के हाथ की विभिन्न भावभंगिमाओं की मुद्राएँ अनेक कुछ दर्शाती थीं। परन्तु वह सब हमारी समझ से परे था। इसके बाद स्वामी जी महाराज कुछ देर टहलते थे-कभी नीचे तो कभी छत के ऊपर। टहलने के बाद स्वामी जी महाराज पुनः हॉल के पूजा-स्थान में कुछ स्तोत्र-मन्त्र-पाठ आवृत्ति के साथ प्रणाम करते थे। स्वामी जी की व्हील चेयर पूजा-स्थान की ओर मुँह करके होती थी और स्वामी जी महाराज हाथ जोड़ कर बहुत ही प्रेम-भाव से स्तोत्र आवृत्ति पाठ करते थे।

 

त्वं हि विष्णुर्विरंचिस्त्वं त्वं देवो महेश्वरः।

त्वमेव शक्तिरूपोसि निर्गुणस्त्वं सनातनः ।।

 

यस्य देवे पराभक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ।

तस्यैते कथिता ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः ।।

 

यच्च किंचिज्जगत्सर्वं दृश्यते श्रूयतेऽपि वा।

अन्तर्बहिश्च तत्सर्वं व्याप्य नारायणः स्थितः ।।

 

जले विष्णुः स्थले विष्णुः विष्णुः पर्वत मस्तके।

ज्वालमाला कुले विष्णुः सर्वं विष्णुमयं जगत्।।

 

नमोऽस्त्वनन्ताय सहस्रमूर्तये सहस्रपादाक्षिशिरोरुबाहवे।

सहस्रनाम्ने पुरुषाय शाश्वते सहस्रकोटियुगधारिणे नमः ।।

 

नमो ब्रह्मण्य देवाय गो ब्राह्मण हिताय च।

जगद्धिताय कृष्णाय गोविन्दाय नमो नमः ।।

 

किसी स्तोत्र को स्वामी जी महाराज कभी-कभी बहुत ही प्रेम से दोहराते थे। पहले भी अनेक बार स्वामी जी महाराज को प्रार्थना-स्तोत्र-पाठ करते हुए देखा है; परन्तु ऐसा प्रेम, ऐसा भाव भक्ति नहीं देखा। हम सब हाथ जोड़ कर खड़े रहते थे। सेवक के मन में कोई भी प्रार्थना का भाव नहीं है, केवल मात्र खड़ा रह कर स्वामी जी महाराज का निरीक्षण करता था। परन्तु तन-मन में अनेक लक्षण मालूम होता था-शरीर में कम्पन, अश्रुपात, रोमांच आदि जैसा कि अष्ट सात्त्विक लक्षण हों। उसको भाषा में प्रकाशित नहीं किया जा सकता। तब याद आया कि जगन्नाथ जी के मन्दिर में जो चैतन्य महाप्रभु जी के उँगली के निशान हैं, वह असम्भव नहीं शत-प्रतिशत सम्भव है। स्वामी जी महाराज की वह स्थिति सेवक की समझ से परे है। यहाँ भी स्वामी जी महाराज को करीब २० मिनट का समय लग जाता था। प्रणाम करने के बाद स्वामी जी महाराज अपने कमरे में चले जाते थे।

 

एक दिन ऐसा ही स्वामी जी महाराज हॉल में प्रणाम करते समय बोले थे- "ओजी, आप जब सुबह-शाम आरती और आरती के बाद प्रणाम करते हो तब सारकेश्वरी कौल माता जी की तरफ से भी गुरुदेव को अवश्य प्रणाम करना। अपने लिए तो प्रणाम करना, माता जी की तरफ से गुरुदेव को प्रणाम करना।

महात्मा सुदुर्लभः

 

 

स्वामी जी महाराज हर दिन टहलने से पहले तुलसीचौरा में प्रणाम करते थे। जब बारिश होती है तब शान्ति निवास के सामने वाले बरामदे से ही तुलसी जी को प्रणाम करते थे। ठण्ढी के दिनों में विशेषकर दिसम्बर और जनवरी के महीनों में अत्यधिक ठण्ढी से तुलसी के पौधे को बचाये रखना एक चुनौती होता है। कभी रात को ढक कर, कभी गमले में रख कर, कभी धूप में रख कर, फिर भी बचाना मुश्किल होता था। सन् २००८ अप्रैल महीने के पहले सप्ताह में एक छोटा-सा तुलसी पौधा चौरा में लगाया गया था। शाम को जब स्वामी जी महाराज प्रणाम करने आये, तब बोले- "माता जी तो मुझे दिखायी देती नहीं हैं, मिट्टी दे कर थोड़ा-सा ऊपर करो।" उसी समय मिट्टी डाल कर तुलसी जी को स्वामी जी महाराज को दिखायी देने लायक ऊपर किया गया। तब स्वामी जी महाराज ने तुलसी जी को प्रणाम किया। वह तुलसी जी का पौधा दिन-प्रतिदिन बढ़ता गया। जुलाई अगस्त के महीने तक घना और हरा-भरा हो गया था। २८ अगस्त शाम बजे सेवक ने हर दिन की तरह तुलसी जी की पूजा की। उसी रात :११ को स्वामी जी महाराज ब्रह्मलीन हो गये। दूसरे दिन स्वामी जी महाराज के जल-समाधि के बाद हम सब करीब सुबह १० बजे शान्ति निवास पहुँचे। सेवक अन्दर जाने से पहले तुलसी जी को प्रणाम करने गया तो देखता है कि जैसे कई दिन से तुलसी माता का महाप्रयाण हो गया हो। कल शाम को बिलकुल हरी-भरी थीः परन्तु एक ही रात में कैसे ऐसा हो गया, आश्चर्य लगा। बारिश के दिन में पेड़-पौधे के सूखने का कोई कारण नहीं है। तब एक स्वामी जी बोले कि स्वामी जी महाराज के साथ तुलसी माता भी अपने धाम को पधार गयीं। तुलसी माता जी को स्वामी जी महाराज के कमरे में रखेंगे। अभी उन्हीं तुलसी जी को स्वामी जी महाराज के कमरे में पूजा के स्थान पर रखा गया है।

 

जय माम्ं तुलसी

जय मॉं वृन्दावनी  ।।

सन् १९९५ में शिवानन्द शतवार्षिक बालक उच्च माध्यमिक विद्यालय वीं कक्षा का एक विद्यार्थी पढ़ने-लिखने में सबसे पीछे, परन्तु झूठ बोलना, चोरी करना और दुष्टता करने में सबसे आगे। हर दिन उसके नाम से कुछ--कुछ शिकायत होती थी। सेवक ने अनेक बार उसे समझाया, भय दिखाया और दण्ड भी दिया; परन्तु उसमें कोई बदलाव नहीं हुआ। एक दिन ऐसे ही सेवक ने उसे रंगेहाथ पकड़ लिया, फिर भी उसने अपनी गलती स्वीकार नहीं की। तब उसको दण्डित किया। परन्तु सेवक को कुछ अच्छा नहीं लगा। मन अशान्त रहा। जैसा भी है, है तो बच्चा ही-थोड़ा-सा और समझाना चाहिए था। सेवक अपने कमरे में गया। कमरे में पहले से ही गुरु महाराज स्वामी चिदानन्द जी के ऑडियो प्रवचन कैसेट (लौकिक जीवन में अलौकिक साधना) का आधा प्रवचन सुन रखा था, साथ-साथ जब कैसेट प्लेयर ऑन किया तब जो पहला वाक्य था स्वामी जी महाराज का, वह है- "किसी को हाथ उठा कर मारो मत।" परन्तु सेवक अभी-अभी मार के आया है। और गुरु महाराज बोल रहे हैं-"किसी को हाथ उठा कर मारो मत।" बहुत बुरा लगा। कैसेट प्लेयर बन्द कर दिया और सोचने लगा कि अध्यापक द्वारा विद्यार्थी को सही मार्गदर्शन कराना, पहले भली-भाँति समझाया जाना चाहिए कि सही क्या है गलत क्या है, क्यों गलत कर्म नहीं करना चाहिए एवं गलत कर्म करने से क्या होता है आदि। उस समय मन में आया कि गुरु महाराज जब इस बार स्कूल में आयेंगे तब पूछना है कि, अगर ऐसी ही कुछ समस्या होती है, उनको सुधारने के लिए, उन्हें दण्ड देना चाहिए कि नहीं? परन्तु यह बात अपने मन में रखी, किसी को बताया नहीं।

 

कुछ महीनों बाद गुरु महाराज जी - दिनों के लिए स्कूल में आये। सोचा कि गुरु महाराज जी से फुरसत के समय मन की बात पूछेंगा, परन्तु जिस दिन सुबह गुरु महाराज जी स्कूल में आये उसी दिन शाम को प्रार्थना के पश्चात् स्कूल के सारे अन्तेवासियों से मिलने के लिए प्रार्थना-कक्ष में आये और सेवक को बोले- "आप जीरा उबाल कर, पानी को छान कर प्रार्थना-कक्ष में ले कर आओ।" सेवक कुछ समय पश्चात् थर्मोफ्लास्क में जीरा पानी और गिलास कटोरी ले कर प्रार्थना कक्ष में आया। जीरा पानी गुरु महाराज जी के पास रख कर पंडाल के नीचे बैठ गया। उस समय गुरु महाराज जी गुरुदेव स्वामी शिवानन्द जी द्वारा लिखित विश्व-प्रार्थना को समझा रहे थे।

 

"हम सब नाम-रूपों में तुम्हारा दर्शन करें।

तुम्हारी अर्चना के ही रूप में इन नाम-रूपों की सेवा करें।"

 

"माता, पिता, चाचा, चाची, शिक्षक और तुम्हारे सहपाठी बन्धु तुम्हारे भाई-बहनें, सबमें भगवान् वास करते हैं। इसलिए सबका सम्मान करें, सबको प्रणाम करें, सबका आदर करें। किसी के प्रति अनादर, असम्मान नहीं करना। सदा भगवान् का नाम स्मरण करते रहना। आप भगवान् के जिस रूप के प्रति श्रद्धा रखते हैं, उसी का नाम-जप करते रहना चाहिए। पढ़ाई के समय में नहीं, बीच में जो खाली समय मिला, उसमें भगवत् स्मरण करें। उचित समय पर उचित कर्म करना चाहिए। अपने को मिले हुए वर्तमान समय को जिसने व्यर्थ गँवाया उसने अपने भविष्य को व्यर्थ कर लिया। इसलिए अपने समय को व्यर्थ की बातों में और व्यर्थ के कामों में लगायें। आप सब ज्ञान अर्जन करने यहाँ आये हैं उसका सही उपयोग करें। अन्त में गुरु महाराज जी ने पूछा कि आप सबने पढ़ाई करके अपना समय व्यर्थ गँवाने के साथ-साथ दूसरों का समय भी व्यर्थ करके,दुष्टता की अथवा गलत कर्म किये, तो आपको दण्ड मिलना चाहिए कि नहीं?"

 

एक-साथ कुछ बच्चे बोले- "हाँ, मिलना चाहिए।"

 

गुरु महाराज बोले- "माता-पिता हो या शिक्षक, सभी आपका भला चाहते हैं। आपको उनकी बात माननी चाहिए और अच्छा बनना चाहिए। जो अपनी गलती स्वीकार कर लेता है, उसका गलत कर्म धीरे-धीरे कम हो जाता है, तो वह अच्छा इनसान बनता जाता है और जो अपनी गलती छुपाता है, उसका गलत कर्म बढ़ता जाता है। और वह धीरे-धीरे बुरा इनसान बन जाता है। कुछ विशेष परिस्थिति में माता-पिता हो या शिक्षक, दण्ड दे सकते हैं, लेकिन केवल गलती को सुधारने के लिए, सही मार्ग में लाने के लिए, परन्तु अपने अन्दर क्षोभ या गुस्सा करके नहीं। जैसे कुम्हार कच्चे मिट्टी के घड़े के टेढ़ेपन को सही करने के लिए एक हाथ से नीचे से सहारा देता है और दूसरे हाथ में लकड़ी ले कर प्यार से ठोकता है। ठीक वैसा ही गुरुजनों का दण्ड होता है। आप सब अच्छे विद्यार्थी हैं, दुष्टता नहीं करते होंगे।" अन्त में गुरु महाराज जी ने साथ में लाये हुए बालूशाही प्रसाद को सबमें वितरण किया।

 

सेवक को बिना पूछे ही अपने सवालों का उत्तर मिल गया। शायद इसीलिए कहा था कि जीरा पानी ले कर आओ नहीं तो सेवक गुरु कुटीर में ही रह जाता। श्री अन्तर्यामिणे नमः !

 

 

शान्ति निवास, देहरादून में स्वामी जी महाराज ने एक दिन सेम और लौकी की सब्जी अपने भोजन में लेने के लिए कहा था। सब्जी सामान्य नमक और हल्दी में उबाली होती थी। बाजार से जो सेम लायी गयी थी, वह ज्यादातर बूढ़ी हो गयी थी और उसमें कीड़े भी लगे थे। लौकी अच्छी थी। शान्ति निवास के बगीचे से कुछ सेम तोड़ कर लाया, परन्तु इसमें भी कीड़े लग गये थे। कुछ अच्छा नहीं लगा, क्या किया जाये? सेवक ने पहले नहीं देखा कारण स्वामी जी महाराज सुबह करीब ११ बजे को बोले थे और सेवक शाम को छह बजे सब्जी काटने जा रहा है। स्वामी जी महाराज भोजन करने बैठेंगे शाम :३० बजे के आस-पास। अभी बाजार से सब्जी ला कर बनाने के लिए समय नहीं है। क्या किया जाये सोच कर पहले लौकी काटना शुरू किया। रसोईघर में लगी हुई गुरुदेव की एक छोटी-सी फोटो को देख कर सोच रहा था कि क्या करूँ, कुछ उपाय बतायें। ठीक उसी समय एक सेवक कर बोले- "गुरु महाराज जी ने कहा कि सेम काटने से पहले बीच में लम्बाई में दो भाग करके देखो, अगर उसमें कीड़ा नहीं है तो उसे काट कर सब्जी बनाओ।"

 

सेवक की परेशानी दूर हो गयी और ठीक वैसा ही करने लगा। सब्जी बन गयी। स्वामी जी महाराज ने अपने समय में भोजन किया। सोचने योग्य है कि स्वामी जी ने सुबह कहा था कि वे सब्जी में क्या-क्या लेंगे। सेवक ने शाम को बनाना शुरू किया। इससे पहले अनेक बार सेम बनाया होगा परन्तु स्वामी जी महाराज कभी कुछ नहीं कहा। सेवक के मन की बात मन में है। अन्तर्यामी समझ गये और समाधान भी कर दिया।

 

 

एक बार एक बड़े आश्रम के महामण्डलेश्वर अपने दो शिष्यों के साथ स्वामी जी महाराज के दर्शन करने शान्ति निवास, देहरादून आये थे। अनेक वर्ष पहले गुरुदेव स्वामी शिवानन्द जी महाराज के समय में यह स्वामी जी स्वर्गाश्रम में रहा करते थे। कभी शिवानन्द आश्रम के पुस्तकालय में पढ़ने के लिए आया करते थे। कभी स्वामी शिवानन्द जी के सत्संग में आया करते थे। कभी दवाई के लिए अस्पताल आया करते थे। तब से स्वामी जी महाराज जी के साथ इनका सम्बन्ध है। जब यह स्वामी जी महामण्डलेश्वर पद से सुशोभित हुए उस समय भी स्वामी जी महाराज उपस्थित थे। ऐसा ही कुछ पुराने दिनों की बात हुई, बाद में यह स्वामी जी स्वामी जी महाराज से बोले- "स्वामी जी, मेरे मन में कुछ शंका है। उसका समाधान आपसे बढ़ कर कोई और नहीं कर सकता? समाधान से केवल मेरा नहीं अपितु यहाँ उपस्थित सब लोगों का भी कल्याण होगा। हम सबके कल्याण के लिए आपके सामने प्रश्न रखता हूँ।"

 

महामण्डलेश्वर जी ने पूछा- "अपने से कोई उच्च प्रतिष्ठित व्यक्ति, कोई सम्मानस्पद व्यक्ति, उच्च आध्यात्मिक व्यक्तित्व से मिलने से खुशी तो होती है उनका सम्मान भी व्यक्त करते हैं। लेकिन उनके प्रति हमारे मन में ईर्ष्या भाव उत्पन्न हो जाता है, तो हम क्या करें जिससे हम ईर्ष्या भाव से मुक्ति पा सकें ? हमने वेद-वेदान्त, उपनिषद् आदि अनेक शास्त्र पठन-पाठन किये, महामण्डलेश्वर बने, आश्रम के अधिकारी बने, सहस्र अनुयायी हुए; परन्तु जिसके लिए साधु बने वह अभी तक नहीं हुआ? यह बात तो सबको बता नहीं सकते, इसलिए आपके सम्मुख यह बात रखता हूँ। कृपया हमारा मार्गदर्शन करें।"

 

स्वामी जी महाराज कुछ देर चुप रहे और फिर बोले- "उपाय बहुत सरल और सहज है। सबके भीतर भगवान् निवास करते हैं, यह भावना सदा-सर्वदा बनाये रखें। अभ्यास में डालने के लिए बारम्बार प्रयास करना चाहिए। सबमें अगर भगवान् का दर्शन हो तब ईर्ष्या भाव कहाँ रह जायेगा। नहीं तो जिसके प्रति मन में ईर्ष्या भाव उत्पन्न होता है, उसको साष्टांग प्रणाम करें और विनम्र भाव से हाथ जोड़ कर क्षमा-याचना करें। और उनको बोलें कि आपके प्रति मेरे मन में ईर्ष्या भाव होता है, आप कृपा करके मुझे क्षमा करें। ऐसे बहुत ही शीघ्र ईर्ष्या भाव दूर हो जायेगा। अगर यह नहीं कर पायें तो आप मानसिक रूप में उनको बारम्बार प्रणाम करें, क्षमा याचना करें और साथ ही साथ परमात्मा से तहेदिल से प्रार्थना भी करें। बारम्बार प्रयास करते रहें। आप जिस भाव से यह बात मुझे बोले हैं वैसे ही आपने इन बातों के लिए भगवान् से प्रार्थना की है क्या?

 

"अपने कमरे में दरवाजा बन्द करके एकान्त में भगवान् से, इष्टदेव से निष्कपट शिशुवत् प्रार्थना करनी चाहिए। आश्रम में आपके अनेक दायित्व हैं, अनुयायिओं से भरे हुए हैं। शायद एकान्त मिल पाये। अपने आश्रम में अगर एकान्त हो सके तो दूर कहीं एकान्त में ऐसा प्रयत्न करना चाहिए। अपने इष्टदेव के चित्र के सम्मुख घुटने के बल खड़ा हो कर दोनों हाथों को जोड़ कर, भक्तिभाव से तहेदिल से व्याकुलता से रो-रो कर प्रार्थना करनी चाहिए। हे प्रभु! तेरी ही कृपा से यह सब पठन पाठन कर पाया परन्तु यह ईर्ष्या भाव से पार नहीं हो पाया। आत्म-उपलब्धि के लिए पठन-पाठन किया, विचार-मनन किया, परन्तु इसमें असफल ही रहे। आप सर्वसमर्थ हैं! आपके लिए यह क्या है? मुझ पर दया करो प्रभु, मुझ पर कृपा करो प्रभु। यह प्रार्थना कलाकार के अभिनय की तरह नहीं, दिल से, व्याकुलता से, आतुरता से रोते हुए होनी चाहिए। जिसकी व्याकुलता जितनी गहरी होगी उसको उतनी ही शीघ्र सफलता मिलेगी। लेकिन अहंकार सबसे बड़ी बाधा है। साथ ही साथ जो सब पठन-पाठन किया, जो ज्ञान अर्जन किया उसको अपने जीवन में, व्यवहार में उतारना चाहिए। वैसा ही जीवन व्यतीत करना चाहिए। तब हमको ही शीघ्र सफलता मिलेगी।" ऐसे ही अनेक बातें हुईं।

 

 

शिवानन्द आश्रम के स्वामी षण्मुखानन्द जी शिरडी साईं बाबा को बहुत मानते थे। वह स्वामी जी महाराज के गुरुभाई भी थे। स्वामी षण्मुखानन्द जी शीशमझाड़ी स्थित साईं मन्दिर में जाते थे। वहाँ रोज शाम को कुछ कुछ प्रसाद वितरण करते थे। स्वामी षण्मुखानन्द जी के अनुरोध पर स्वामी जी महाराज वहाँ गये थे।

 

स्वामी जी महाराज देहरादून से समोसा, गुलाबजामुन, काजू बर्फी, चॉकलेट आदि ले कर वहाँ गये थे। मन्दिर में पहुँच कर स्वामी जी महाराज ने साईं बाबा को प्रणाम किया, माला चढ़ायी, धूप, दीप, नैवेद्य और अन्त में आरती की; वहाँ भी प्रसाद की व्यवस्था की गयी थी। वह प्रसाद और स्वामी जी महाराज के लाये हुए प्रसाद का सब बच्चों को बैठा कर भोजन कराया गया। स्वामी जी महाराज ने कुछ सिक्के भी बच्चों को वितरित किये। सभी बच्चों ने बहुत ही आनन्द से प्रसाद पाया।

 

देहरादून राजपुर रोड पर एक साईं मन्दिर है। स्वामी जी महाराज ने एक जनवरी सन् २००४ को स्वामी षण्मुखानन्द जी को बुलाया था साथ में साईं मन्दिर जाने के लिए। एक स्वामी जी, स्वामी षण्मुखानन्द जी को ले कर समय पर शान्ति निवास में उपस्थित हुए। सुबह करीब ११ बजे को स्वामी जी महाराज, स्वामी षण्मुखानन्द जी, ब्रिगेडियर सब्बरवाल जी, महेश बब्बर जी और हम सब सेवक शान्ति निवास से निकले, परन्तु साईं मन्दिर में पहुँच कर देखा, इतनी भीड़ थी कि उसमें स्वामी जी महाराज को ले कर दर्शन कराना कठिन था। एक तो नया साल ऊपर से गुरुवार होने से बहुत लम्बी कतार लगी हुई थी। स्वामी जी महाराज बोले कि अगले दिन शुक्रवार जनवरी को आयेंगे। उस दिन वापस गये।

 

शुक्रवार सुबह ११ बजे के आस-पास सभी साईं मन्दिर पहुँचे। स्वामी जी महाराज के आदेश अनुसार साईं बाबा जी के लिए एक शॉल, एक बड़ी-सी फूलमाला और एक बड़ी फल की टोकरी साथ में ली थी। ठण्ढ तो बहुत थी, परन्तु स्वामी जी महाराज ने मन्दिर पहुँचते ही अपने पैर से मोजे निकाल दिये। साईं बाबा को साष्टांग प्रणाम किया और सभी ने प्रणाम किया। आज मन्दिर में बहुत ही कम लोग थे। स्वामी जी महाराज आगे-आगे और पीछे-पीछे स्वामी षण्मुखानन्द जी और उनके पीछे बाकी सब। स्वामी जी महाराज ने साई चरणों में शिर लगा कर प्रणाम किया। पास में एक दान-पात्र था, उसमें कुछ रुपये डाले और सबको बोले- "आप लोगों को भी कुछ--कुछ दानपात्र में डालना चाहिए।" जो फल की टोकरी, फूलमाला और शॉल ले कर गये थे, उसको उठा कर वेदी (मण्डप) पर रखा। वहाँ दो पुजारी थे। दोनों स्वामी जी महाराज को पहले से जानते थे। जो फूलमाला ले कर गये थे, उसी माला को एक पुजारी ने ले कर स्वामी जी के गले में डाल दिया। तब एक स्वामी जी बोले- "स्वामी जी तो बाबा के लिए यह माला लाये थे। आपने स्वामी जी को पहना दिया?" पुजारी ने तुरन्त ही स्वामी महाराज के गले से माला निकाल कर साईं बाबा के गले में डाल दी। तब वह स्वामी जी फिर बोले- "आपने स्वामी जी को माला पहनाने के बाद उसी माला को कैसे बाबा को पहना दिया?" लग रहा था जैसे पुजारी जी थोड़े घबराये हुए हैं। पुजारी जी ने हड़बड़ाते हुए तुरन्त उसी माला को साईं बाबा के गले से उतार कर स्वामी जी महाराज को पहना दिया।

 

स्वामी जी महाराज तत्काल धीर गम्भीर और मधुर भाव से अपनी ही ओर इशारा करके बोले- "मेरे और बाबा के बीच में कोई फर्क नहीं है।" एक-दो पल मौन रहने के बाद बोले- "बाबा के अन्दर जो परमात्मा विराजमान है, मेरे अन्दर भी वही परमात्मा विराजमान है और आप सबमें वही परमात्मा विराजमान है।" फिर स्वामी जी महाराज ने वहाँ रखा हुआ चरणामृत खुद लिया और सबको भी चरणामृत दिया।

 

तब तक साईं बाबा के मध्याह्न भोग लगने का समय हो गया। पुजारी जी ने धूप, दीप, नैवेद्य समर्पित किया और स्वामी जी महाराज को चामर सेवा करने को दी। स्वामी जी महाराज ने हम सबको चामर सेवा करने को दी। फिर आरती हुई। स्वामी जी महाराज ने आरती ली और प्रणाम किया। हमने सब भी आरती ले कर प्रणाम किया। पुजारी जी ने सबको चना और बताशा का प्रसाद दिया। मन्दिर से बाहर कर जहाँ अखण्ड धूनी जलती है, स्वामी जी वहाँ गये और वहाँ साष्टांग प्रणाम किया। धूनी जल नहीं रही थी तो स्वामी जी ने लकड़ी को थोड़ा-सा अन्दर करने के बाद फूक मार कर जलाया। स्वामी जी ने विभूति (ऊदी) अपने माथे पर लगायी और हम सबको लगाने के लिए बोले। हम सबने प्रणाम करके विभूति माथे पर लगायी, स्वामी जी महाराज धूनी की प्रदक्षिणा करके मन्दिर से बाहर आये।

 

मन्दिर में आज भण्डारा था। गेट के पास प्रसाद बाँट रहे थे। प्रसाद में पूरी, हलवा, आलू, कद्दू, चना दाल की सब्जी थी। एक सेवक पत्तल में कुछ प्रसाद ले आये थे। शान्ति निवास आने के बाद स्वामी जी महाराज कुछ समय धूप में टहले। स्वामी जी महाराज वरांडा में बैठने के बाद साईं बाबा का प्रसाद लाने को कहा और ब्रिगेडियर सब्बरवाल जी, महेश बब्बर जी को पास बुलाया। सब्बरवाल जी को घुटने के बल खड़े हो कर ऊपर की ओर देखने को बोले। एक चम्मच में हलवा ले कर उनको खिलाया। ठीक वैसे ही बब्बर जी को हलवा खिलाया मानो दोनों कृतकृत्य हो गये, धन्य हो गये। दोनों के घर के लिए भी थोड़ा-थोड़ा साईं बाबा का प्रसाद दिया। अपने लिए थोड़ा प्रसाद रख के बाकी सब प्रसाद सबमें बाँट देने के लिए बोले।

 

 

सन् २००८ में एक बार शान्ति निवास में शाम को गुरु महाराज जी टहलने के बाद हॉल के पूजा स्थान में प्रणाम के बाद स्तोत्र-पाठ कर रहे थे।

 

"नमोऽस्त्वनन्ताय... सहस्रकोटियुगधारिणे नमः।।"

 

यह स्तोत्र बहुत ही प्रेम से बारम्बार दोहराते रहे, एक स्वामी जी बोले- "स्वामी जी महाराज जैसे बोल रहे हैं लग रहा है कि जैसे स्वामी जी महाराज ही सहस्रमूर्ति हैं, सहस्रपाद हैं और अनन्त हैं।

महात्मा सुदुर्लभः

 

गुरु महाराज ने यह बात सुन ली और तत्क्षण बोले- "यस (Yes)...!"

 

अपनी छाती में हाथ रख कर बोले- "वही परमात्मा इसमें और सबमें विद्यमान है, जो अनन्त है, जो सर्वव्यापक है, जो सहस्रमूर्ति है उनको प्रणाम है, बारम्बार प्रणाम है।" गुरु महाराज ने फिर दूसरे स्तोत्रों का पाठ किया और बाद में अपने कमरे में चले गये।

 

 

माँ आनन्दमयी आश्रम के स्वामी भास्करानन्द जी महाराज सन् २००४ अप्रैल माह में स्वामी जी महाराज के दर्शन के लिए शान्ति निवास आये थे। स्वामी जी महाराज ने स्वामी भास्करानन्द जी को 'जय माँ' कह कर प्रणाम किया और स्वामी भास्करानन्द जी ने गुरु महाराज को प्रणाम किया। यहाँ भी गुरु महाराज जी स्वामी भास्करानन्द जी में जैसे माँ आनन्दमयी के दर्शन कर रहे थे। उसी समय अनेक पुराने दिनों की चर्चा हुई।

 

गुरु महाराज जी बोले कि एक बार जब वे अपनी यात्रा से आश्रम को लौट रहे थे तो ट्रेन से हरिद्वार स्टेशन में उतरने के बाद पता चला कि माँ आनन्दमयी अभी कुछ दिन से कनखल स्थित अपने आश्रम में हैं। गुरु महाराज ने अपने सेवक के हाथ अपना सामान गुरु निवास, ऋषिकेश भेज दिया और खुद माँ के दर्शन के लिए कनखल चले गये। ठण्ढी के दिन और सुबह का समय था। गुरु महाराज सीधे माँ के कमरे के पास पहुँचे। माँ की एक सेविका ने जा कर माँ को बताया कि शिवानन्द आश्रम से बाबा आये हैं। माँ आनन्दमयी को सभी जन 'माँ' कह कर पुकारते थे। गुरु महाराज भी 'माँ' सम्बोधन करते थे। माँ आनन्दमयी गुरु महाराज जी को 'बाबा' कह कर सम्बोधित किया करती थीं। माँ अविलम्ब अपने कमरे से बाहर आयीं। गुरु महाराज जी ने माँ को साष्टांग प्रणाम किया। माँ बोली- "बाबा, यहाँ किसको प्रणाम करते हो? यहाँ आप हैं, मैं हूँ, कोई और है! फिर ये प्रणाम कैसा ! यहाँ तो सब अनित्य, असत्य है। बस हर जगह वही एक ही है। फिर यह व्यवहार कैसा?"

 

गुरु महाराज जी सिर नीचे करके मौन रहे। माँ ने गुरु महाराज जी को अपने कमरे में बुला कर बैठाया। उस समय अनेक चर्चाएँ हुईं, गुरु महाराज जी को दूध पीने को दिया। आखिर में गुरु महाराज जी विदाई के समय बोले- "मेरा यहाँ आने का कोई प्रोग्राम नहीं था, ऋषिकेश जा रहा था कि सुना आप यहाँ हैं, तो सीधा गया आपके दर्शन करने को। इतनी सुबह रास्ते में कुछ भी नहीं मिला, इसलिए खाली हाथ गया।" गुरु महाराज जी बहुत विनम्र भाव से हाथ जोड़ कर माँ से क्षमा-याचना करने लगे-"माँ, मुझे क्षमा करें। आते समय भेंट स्वरूप मैं कुछ ला नहीं पाया।"

 

माँ बोली- "बाबा! मुझे माँ कहते हो, फिर भी ऐसी बात करते हो। माँ के लिए बाबा को मिलना ही सबसे बड़ी भेंट देना है। फिर बाहर की किसी चीज की क्या आवश्यकता है?"

           

फिर माँ से विदा ले कर गुरु महाराज जी गुरु निवास आये। कुछ महीने बाद आनन्दमयी आश्रम कनखल में संयम सप्ताह (साधना सप्ताह) का समय निकट आया। माँ आनन्दमयी के अनुरोध पर गुरु महाराज जी हर साल संयम सप्ताह के लिए कनखल जाते थे। गुरु महाराज ने संयम सप्ताह में जाने से पहले एक बड़ी-सी बोरी साफ करके बताशे भर कर रखे। समय पर गुरु महाराज जी बताशे की बोरी को साथ ले कर माँ आनन्दमयी आश्रम में पहुँचे। पहले माँ के कमरे के पास गये। माँ की सेविका अन्दर जा कर माँ को बोली- "शिवानन्द आश्रम से बाबा एक बड़ी-सी बोरी में कुछ लाये हैं।

 

माँ बोली- "बाबा अवश्य बताशे ले कर आये होंगे, तू जल्दी से पूर्ण (माँ का एक सेवक) को कह दे कि बाजार से बताशे नहीं लायेगा। मैंने उसको अभी बाजार से बताशे लाने को कहा था। तुम जल्दी जाओ, नहीं तो पूर्ण बाजार चला जायेगा।"

 

माँ कमरे से बाहर आयीं, गुरु महाराज जी ने साष्टांग प्रणाम किया। माँ ने गुरु महाराज जी का स्वागत करके, अपने कमरे में बिठाया। उसी समय माँ की सेविका ने कर बताया कि पूर्ण बाजार चला गया है। कुछ समय बाद पूर्ण बाजार से वापस आया और माँ से बोला - "आज वह दुकान बन्द थी, बताशे नहीं मिले।"

 

माँ बहुत खुशी में बोर्ली- "बाबा तो बताशे ले आये हैं और क्या जरूरत है।"

 

संयम सप्ताह के अन्त में माँ सबको रूमाल और बताशे प्रसाद के रूप में देती हैं। ऐसी ही अनेक बातें हुई। बाद में स्वामी भास्करानन्द जी के साथ आयी हुई एक विदेशी महिला गुरु महाराज जी से बोली- "ऐसे तो मैं ध्यान करती हूँ, परन्तु आपके मत से मुझे ध्यान कैसे करना चाहिए?"

 

गुरु महाराज जी बोले- "ध्यान से बड़ी कोई आध्यात्मिक सम्पत्ति नहीं, ध्यान से पहले उसकी पृष्ठभूमि तैयार करनी चाहिए। पहले यम, नियम, आसन, प्राणायाम आदि का अभ्यास करना चाहिए। विशेषकर यम-नियम का पालन करना चाहिए। यम के पाँच सिद्धान्त हैं-सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, अस्तेय (चोरी करना) नियम के पाँच सिद्धान्त हैं-शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर-प्रणिधान। इनका अपने जीवन में पालन करना चाहिए। एक आसन पर अधिक से अधिक समय बैठने का अभ्यास करना चाहिए। प्राणायाम का अभ्यास करना चाहिए। प्राणायाम से प्राण वायु, प्राण वायु से मन को स्थिर करना सहज होता है। तब ध्यान सफल होता है। ध्यान में उन्नति होती है। आप जैसे ध्यान कर रही हैं, वैसे अभ्यास करती रहें, पर साथ में यह सब भी अभ्यास करें। आप साधना में थोड़ा दुर्बल हैं। और आप हरिद्वार, ऋषिकेश जैसी तपोभूमि में आयी हैं तो यहाँ उसका सदुपयोग करें। दिन में २०० माला जप करें। गीता के कुछ श्लोक अर्थ सहित पाठ करें। पतंजलि महर्षि कृत राजयोग, भक्तियोग, ध्यानयोग आदि का पाठ करें। अपनी साधना में निरन्तरता बनाये रखें।" बाद में गुरु महाराज ने प्रसाद के साथ विदाई दी।

 

 

गुरु महाराज ने आश्रम आने के अनेक वर्ष बीत जाने तक बद्रीनाथ जी के दर्शन नहीं किये थे। जब गुरुदेव स्वामी शिवानन्द जी महाराज को पता चला तो वे बोले- "हर साल आप अनेक भक्तों को बद्रीनाथ भेजते हो। यात्रा की विस्तृत जानकारी देते हो, परन्तु आप खुद नहीं गये। आप पहले जा कर बद्रीनाथ जी के दर्शन कीजिए।" गुरु महाराज ने आश्रम का कुछ काम है, वह काम कर लेने के बाद जाने की इच्छा व्यक्त की। परन्तु गुरुदेव बोले- "काम तो चलता ही रहेगा। आप पहले बद्रीनाथ जी के दर्शन करो।" गुरुदेव की आज्ञा स्वामी जी महाराज को माननी पड़ी।

 

गुरुदेव ने एक पहाड़ी लड़के को भेजा जो स्वामी जी महाराज के साथ खच्चर में सामान ले जायेगा। उस समय पैदल ही जाना होता था। यहाँ तक की गुरुदेव ने चायपत्ती, चीनी, माचिस, मोमबत्ती आदि सामान ले जाने के लिए दिया और साथ में कुछ रुपये भी दिये। गुरुदेव उस लड़के शम्भू प्रसाद से बोले कि स्वामी जी महाराज का ख्याल रखना। स्वामी जी महाराज स्वामी कृष्णानन्द जी महाराज और स्वामी वेंकटेशानन्द जी महाराज को कुछ काम समझा कर और गुरुदेव से आशीर्वाद ले कर बद्रीनाथ धाम की ओर चले। उस समय स्वामी जी महाराज के पास एक जोड़ी मोजा था। उसको कभी पैर को ठण्ढ लगी तो पैर में और कभी हाथ में ठण्ढ लगी तो हाथ में पहन लेते थे। कुछ दिन में बद्रीनाथ धाम में पहुँच कर बद्रीविशाल के दर्शन किये। बद्रीनाथ धाम में एक-दो साधु बीमार थे। स्वामी जी महाराज उन साधुओं की सेवा करने लगे, तब कुछ दवाई की आवश्यकता हुई। आज की तरह वहाँ इतने सारे दुकान बाजार नहीं थे और ही दवाई की व्यवस्था थी। स्वामी जी महाराज ने आश्रम से कुछ दवाई लाने के लिए शम्भू प्रसाद जी को भेजा और खुद बीमार साधुओं की सेवा की, उनके पथ्य की व्यवस्था की। कुछ दिन बाद शम्भू प्रसाद दवाई ले कर बद्रीनाथ पहुँचे। साधुओं ने भी पूर्ण आरोग्य प्राप्त किया। और कुछ दिन बाद स्वामी जी महाराज आश्रम वापस आये। तब से शम्भू प्रसाद जी स्वामी जी महाराज के पास आते-जाते रहते थे। परन्तु दिन-प्रतिदिन स्वामी जी महाराज के व्यस्त कार्यक्रम और विदेश दौरे से दूरियाँ भी बढ़ती गर्मी। यह बात स्वामी जी महाराज ने कभी किसी प्रसंग में बतायी थी।

 

स्वामी जी महाराज ने देहरादून आने के अनेक वर्ष बाद शम्भू प्रसाद जी को याद किया। शम्भू प्रसाद जी ने भी अपनी बीमारी और आर्थिक समस्या में स्वामी जी महाराज को याद किया होगा। स्वामी जी महाराज की तबीयत भी ठीक नहीं रहती थी। एक दिन शम्भू प्रसाद जी के कोई रिश्तेदार शान्ति निवास आये और बताया कि शम्भू प्रसाद जी बीमार हैं और स्वामी जी महाराज को मिलना चाहते हैं। परन्तु स्वामी जी महाराज की तबीयत ठीक होने से यह सम्भव नहीं हुआ। बाद में जब यह स्वामी जी महाराज को बताया गया कि शम्भू प्रसाद बीमार है, मिलना चाहता है। तब स्वामी जी बोले- "मैं कई दिनों से उन्हें याद कर रहा था, परन्तु उनका कोई फोन नम्बर नहीं था। कैसे पता लगाया जाये?" आश्रम में जो पुराने लोग शम्भू प्रसाद जी को जानते थे, उनको पूछा गया, परन्तु कोई पता नहीं मिला। कुछ महीनों बाद शम्भू प्रसाद जी को पता चला कि स्वामी जी महाराज उनसे मिलना चाहते हैं।

 

एक दिन शाम से पहले शम्भू प्रसाद जी शान्ति निवास पहुँचे। स्वामी जी महाराज को अवगत कराया गया। स्वामी जी महाराज ने उसी समय उनको अपने कमरे में बुलाया। स्वामी जी महाराज बहुत ही प्रेम से शम्भू प्रसाद से मिले जैसे एक माँ अपने कई सालों से बिछड़े बच्चे से मिल रही हो। शम्भू प्रसाद जी का दिल और आँख भर आयीं। शम्भूप्रसाद जी देहरादून के रायपुर में पत्नी के साथ रहते थे। बेटे की शादी हो गयी है। वह दूसरी जगह अपना कुछ काम कर रहा है। स्वामी जी महाराज ने सब हालचाल पूछने के बाद कुछ आर्थिक सहायता के साथ विदा किया। कुछ दिन बाद पूरे परिवार को मिलने के लिए बुलाया।

 

कुछ महीनों बाद शम्भू प्रसाद जी बीमार पड़े। जब ये बात गुरु महाराज जी को पता चली तो डा. गिलहोत्रा जी को बुला कर उनके अस्पताल में रख कर उपचार करने का अनुरोध किया। डा. गिलहोत्रा जी ने भी उनकी अच्छी से सेवा की। परन्तु शम्भू प्रसाद जी को दिन में अनेक बार चाय और बीड़ी पीने की आदत थी, जो उनकी बीमारी के लिए घातक थी। इसलिए अस्पताल के स्टाफ के ऊपर वह बहुत गुस्सा करते थे। परन्तु डॉ. गिलहोत्रा जी प्यार से समझा कर भोजन और दवाई देते थे। तबीयत ठीक होने के बाद घर में आये।

 

एक बार स्वामी जी महाराज ने शम्भू प्रसाद के घर जाने की इच्छा व्यक्त की। पहले एक स्वामी जी उनका घर देख कर आये। दूसरे दिन स्वामी जी महाराज शम्भू प्रसाद जी के घर गये। शम्भू प्रसाद जी स्वामी जी महाराज को देख कर चकित हो गये। स्वामी जी महाराज शम्भू प्रसाद जी के कन्धे में हाथ रख कर उनके पास बिस्तर पर बैठे। तबीयत के लिए बहुत समझाया जैसे कि माता-पिता अपने बच्चे को समझाते हैं। हर समय भगवान् का नाम स्मरण करने को कहा। वापस आते समय रास्ते में बोले- "वे जैसे गन्दे बिस्तर में सो रहे हैं, उसमें तो अच्छा आदमी भी बीमार हो जायेगा।" अगले दिन शम्भू प्रसाद जी के लिए गद्दा, तकिया, रजाई, बिछाने की चादर, कम्बल आदि खरीद कर भेजे। वह जब कभी बीमार हुए, स्वामी जी महाराज ने सेवा की सारी व्यवस्था की। आखिरी समय में जब शम्भू प्रसाद जी बीमार हुए तब स्वामी जी महाराज ने विश्वनाथ मन्दिर में पूजा और हवन करवाया। उसके बाद उनका देहान्त हो गया। उस समय भी उनकी आत्म-शान्ति, आत्म-कल्याण के लिए प्रार्थना की। "योगक्षेमं वहाम्यहम्" (गीता : /२२)

 

 

गुरु महाराज अपने यात्राकाल में अनेक बार चेन्नै गये हैं, पत्तमडै आने-जाने के लिए चेन्नै से हो कर जाना होता है। गुरु महाराज जी को लेने और छोड़ने कुछ गिने-चुने लोग आते थे। एक सज्जन हमेशा खड़े-खड़े 'साष्टांग प्रणाम' बोलते थे। गुरु महाराज जी एक बार पत्तमडै से चेन्नै ट्रेन से आये थे, चेन्नै ईगमोर स्टेशन में ट्रेन पहुँच गयी। उस समय बारिश भी हो रही थी। प्लेटफार्म भी गीला था। गुरु महाराज गाड़ी से नीचे उतरे, तब वह सज्जन हाथ जोड़ कर बोले- "साष्टांग प्रणाम स्वामी जी!" गुरु महाराज ने वहीं भीड़ में थोड़ी-सी जगह में, कीचड़ जैसे प्लेटफार्म में उन सज्जन को साष्टांग प्रणाम किया। उपस्थित सभी लोग हैरान हो गये। गुरु महाराज उठ कर खड़े हुए, कपड़े सब खराब हो गये थे। थोड़ा-सा आगे जाने के बाद गुरु महाराज मुस्कराते हुए उन सज्जन से बोले- "इसको ही साष्टांग प्रणाम कहते हैं। प्रणाम करते समय अपने शरीर के आठ अंग भूमि से लगें, उसको साष्टांग प्रणाम कहते हैं।" फिर अपने गन्तव्य की ओर चले गये। तब से वह सज्जन कभी साष्टांग प्रणाम बोले नहीं, कहीं भी हो गुरु महाराज को देखते ही साष्टांग प्रणाम ही करते थे।

 

 

शान्ति निवास में कुछ काम चल रहा था। ऋषिकेश शिवानन्द आश्रम से मिस्त्री और मजदूर काम के लिए आये थे। परन्तु एक मजदूर की और जरूरत पड़ी, तब देहरादून से एक मजदूर किया गया। लेकिन वह कम उम्र का था। उसका नाम रक्षाराम था और वह फैजाबाद के पास का रहने वाला था। वह नवीं कक्षा की परीक्षा दे कर आया था। उसके घर वालों ने मना कर दिया कि हम तुमको आगे नहीं पढ़ा सकते। परन्तु रक्षाराम को पढ़ने की बहुत इच्छा थी। गाँव में दिहाड़ी मजदूरी का अधिक पैसा नहीं मिलता है, इसीलिए देहरादून अपने जीजा के पास आया ताकि गर्मियों की छुट्टी में पैसा कमा कर अपना पैसा जमा कर सके।

 

जब यह बात गुरु महाराज को पता चली, तो रक्षाराम को अपने कमरे में बुला कर बात की। उसने बताया कि दसवीं पढ़ने के लिए मुझे करीब हजार रुपये की आवश्यकता है, इसलिए मजदूरी करने आया हूँ। गुरु महाराज जी ने पूछा- "आप दसवीं के बाद क्या करोगे?"

 

रक्षाराम ने कहा - "आई. एस. सी. बी. एस. सी. करूँगा।"

 

स्वामी जी महाराज ने पूछा- "गाँव में आपके कालेज है? नहीं है तो नजदीक कहाँ है?"

 

रक्षाराम ने कहा- "गाँव में कालेज नहीं है। गाँव के नजदीक फैजाबाद में कालेज है। गाँव से करीब ३० किलोमीटर होगा।"

 

स्वामी जी महाराज बोले- "दसवीं के लिए हजार रुपये देते हैं। परन्तु अभी गाँव जाओ, वहाँ अपने स्कूल के किसी शिक्षक से पूछो कि आई. एस. सी., बी. एस. सी. की पाँच साल की पढ़ाई में कुल मिला कर कितना खर्चा आयेगा? उसमें कालेज की फीस, ड्रेस, हास्टल की फीस, कम्प्यूटर फीस, ट्यूशन फीस, आना-जाना आदि सब-कुछ मिला कर अन्दाज से कितना होगा, नोट करके लाना।" रक्षाराम को अपने घर जाने का किराया और रास्ते में भोजन-पानी के लिए पैसे दिये।

 

रक्षाराम को बोला गया कि गुरु महाराज तुमको पाँच साल की पढ़ाई का खर्चा देना चाहते हैं। इसलिए तुम यह सात हजार रुपये अपने नाम से गाँव के पास जो भी बैंक है, उसमें खाता खुलवा कर लाना और तुम्हारी उम्र की वजह से नहीं हो सके तो माता पिता जी के साथ ज्वाइंट एकाउंट (सांझा खाता) खुलवा देना। रक्षाराम गाँव गया। कुछ दिन बाद ज्वाइंट एकाउंट का खाता और इण्टर के दो साल का खर्चा करीब ७५ हजार रुपये का एक अनुमानित हिसाब ले कर आया। शान्ति निवास में संन्यासी सेवकों ने आपस में बात कर किसी प्रोफेसर से बात करके पाँच साल का उससे काफी अधिक अनुमानित खर्चा तैयार किया। फिर उसे गुरु महाराज जी को दिया गया। गुरु महाराज जी ने उतने ही रुपये का बैंक ड्राफ्ट बनवाया और रक्षाराम का जिस बैंक में खाता है उस बैंक मैनेजर को अपने लेटर पैड में एक चिट्ठी दी ताकि उसको भविष्य में कोई परेशानी हो। एक छोटे-से लड़के को एक साथ इतने रुपये देने का विरोध करने के स्थान पर गुरु महाराज ने रक्षाराम को सम्पूर्ण सहायता राशि दी। रक्षाराम भी खुशी-खुशी अपने घर गया आगे की पढ़ाई करने को।

 

"बादल बिना माँगे ही जल वृष्टि करते हैं, ऐसे ही सन्त जन भी बिना माँगे स्वयं दूसरे के हित में दूसरों की सेवा में लगे रहते हैं।"

 

- भर्तृहरिकृत नीतिशतकम्

 

 

माँ आनन्दमयी आश्रम विंध्याचल के एक कार्यक्रम में गुरु महाराज गये थे। विंध्याचल आश्रम पहाड़ में स्थित है। आश्रम के एक तरफ गुरु महाराज का निवास था। कमरे के पीछे पहाड़ में दूर एक रास्ता ऊपर गाँव की ओर गया था। यह रास्ता काफी घुमावदार और चढ़ाई का है। एक दिन मध्याह्न के भोजन के बाद गुरु महाराज हाथ-मुँह धो रहे थे। तब खिड़की से नजर पड़ी कि ठेली में चने का पेड़ भर कर एक वृद्ध और एक छोटा-सा लड़का ले जा रहे हैं। लड़के की उम्र करीब १० साल की होगी और वृद्ध की उम्र साठ से ज्यादा होगी। ठेली को पीछे से वृद्ध व्यक्ति धकेल रहा है और लड़का आगे से खींच रहा है। दोपहर का समय था, काफी धूप थी, पहाड़ की घुमावदार चढ़ाई में भरी हुई ठेली लाने में बहुत कठिनाई हो रही थी। यह दृश्य देखते ही सन्त हृदय द्रवित हो गया, तुरन्त ही एक स्वामी जी को फल, बिस्कुट, पानी की बोतल और कुछ रुपये लाने को कह कर खुद उस तरफ आगे बढ़े। यह सब एक छोटी-सी थैली में रख कर, वह स्वामी जी गुरु महाराज के पीछे चले। परन्तु गुरु महाराज और वह वृद्ध व्यक्ति के बीच में दीवारनुमा फीट का कटा हुआ पहाड़ जो खड़ा था, जैसे भी हो उन स्वामी जी के कहने पर गुरु महाराज जी उनकी पीठ पर चढ़ कर ऊपर उठ गये। वह स्वामी जी भी किसी प्रकार ऊपर गये। उनके पास पहुँच कर गुरु महाराज जी वृद्ध व्यक्ति के साथ पीछे से ठेली को धकेलने लगे और दूसरे सेवक स्वामी जी आगे से खींचने लगे। कुछ दूरी पर रास्ते के किनारे पर एक पेड़ था। उस पेड़ के पास जब पहुँच गये तब गुरु महाराज जी उनको बोले- "थोड़ी देर आराम कर लो।" ठेली को ठीक से स्थिर रखने के बाद सभी पेड़ की छाया में बैठे।

 

गुरु महाराज जी ने बहुत ही आत्मीयता से, बड़े ही प्यार से बातचीत करते हुए उनको फल और बिस्कुट खाने को दिये। वृद्ध व्यक्ति तो प्रेम से गद्गद हो गया। पीने के लिए पानी भी दिया। दोनों ही खा-पी कर पूर्ण रूप से तृप्त हो गये। बैग में काफी रुपये थे, गुरु महाराज ने उन सबको मोड़ कर एक छोटा-सा गोलाकार रोल बनाया और वृद्ध व्यक्ति की कमर की धोती में मोड़ कर रख दिया। तब गुरु महाराज जी बोले- "गुरुदेव स्वामी शिवानन्द जी महाराज की तरफ से यह छोटी-सी भेंट स्वीकार करें। हम उनके दासानुदास हैं। ऋषिकेश, मुनिकीरेती में गंगा के किनारे उनका आश्रम है। हम वहीं आश्रम में रहते हैं।"

 

बाद में गुरु महाराज जी और वृद्ध व्यक्ति ने ठेली को पीछे से धकेला और उन सेवक स्वामी जी और उस लड़के ने आगे से खींच कर पहाड़ की सब चढ़ाई पार कर दी। उनका गाँव पास गया। अब उनको अपने घर जाने में कोई दिक्कत नहीं थी। जब गुरु महाराज आश्वस्त हुए कि वह आराम से जा सकते हैं, तब वृद्ध व्यक्ति को बोले- "आप अपना दैनिक कर्म जो होता है, उसे करते रहें और भगवान् का नाम लेते रहें। हाथ में काम और मुख में भगवान् का नाम लेते रहें।" गुरु महाराज जी उनको आशीर्वाद दे कर आये और वह भी आनन्दित हो कर अपने घर को गये।

 

"पर उपकार वचन मन काया।

सन्त सहज सुभाऊ खगराया।" - रामचरितमानस

 

 

सद्गुरुदेव स्वामी शिवानन्द जी के जन्म स्थान पत्तमडै में उनकी जन्म शताब्दी के समय से शुरू हुआ 'स्वामी शिवानन्द सेंटनरी चेरिटेबिल हास्पिटल' है। स्वामी जी महाराज हर साल वहाँ कुछ दिन व्यतीत करते हैं। स्वामी जी महाराज वहाँ रहते समय सुबह और शाम की प्रार्थना सभा में जाते हैं। प्रार्थना सभा हास्पिटल के . पी. डी. हॉल में सद्गुरुदेव स्वामी शिवानन्द जी की प्रतिमा के सम्मुख होती है। प्रार्थना के बाद स्वामी जी महाराज का अल्प समय का प्रवचन होता है। अन्त में स्वामी जी महाराज के हाथ से सभी को प्रसाद मिलता है।

 

जब ऐसे ही एक बार स्वामी जी महाराज के रहते समय, आखिर दिन सुबह की प्रार्थना सभा में, प्रार्थना पूरी हो गयी, स्वामी जी महाराज का प्रवचन हो गया और सभी ने प्रसाद भी ले लिया। परन्तु स्वामी जी महाराज हाथ में प्रसाद लिये चारों ओर देख रहे हैं जैसे किसी को प्रसाद देने के लिए ढूँढ़ रहे हों।

 

तब किसी ने कहा- "सबने प्रसाद ले लिया, और कोई रह तो नहीं गया?"

 

स्वामी जी महाराज बोले- "एक ग्यारह बारह साल की लड़की हर दिन प्रसाद लेने आया करती थी, आज नहीं आयी? जो सफेद ड्रेस पहने थी, जिसका किनारा लाल रंग का था। नाक में लौंग (नाक फूल) पहने थी। जो आपके पीछे की पंक्ति में बैठती थी। आप लोगों में से किसी ने देखा है क्या ?"

 

वहाँ उपस्थित स्वामी शरवणभवानन्द जी और गुरु महाराज जी के सब सेवक 'नहीं देखा है' कह कर स्वीकृति दी। उपस्थित सब लोग एक-दूसरे से पूछने लगे, अन्दर-बाहर देखने लगे, परन्तु किसी ने नहीं देखा।

 

तब स्वामी जी महाराज बोले- "वह तो माता कन्याकुमारी ही थी। यह अस्पताल गुरुदेव की पावन जन्मभूमि दिव्य तो है ही, उसमें माता कन्याकुमारी की चरणरज और आशीर्वाद से और भी धन्य हो गयी। इस भूमि को माता जी की कृपा मिल गयी।

 

सब लोग आश्चर्यचकित हो गये। सोचने लायक बात है कि मातेश्री को मानव-शरीर धारण करके प्रार्थना सभा में उपस्थित होना और स्वामी जी महाराज के हाथ से प्रसाद प्राप्त करना बहुत सौभाग्य की बात है।

 

 

स्वामी जी महाराज वहीं पत्तमडै निवास के समय में, उड़ीसा के गंजाम जिला के एक मध्यम वर्ग के परिवार के माता, पिता और पुत्र का आगमन हुआ। उनका बेटा ब्लड कैंसर से ग्रसित था। उसका इलाज करा रहे थे; परन्तु कोई ज्यादा सुधार नहीं हो रहा था। माता-पिता की ऐसी आपत्ति, दुःखद स्थिति में केवल गुरु महाराज ही सहारा एवं भरोसा थे, गुरु महाराज से मिल कर किसी प्रकार अपनी व्यथा प्रकट करें, यही कोशिश कर रहे थे। परन्तु कभी सफल नहीं हो पा रहे थे। इसी बीच उनको किसी ने सलाह दी कि गुरु महाराज अभी पत्तमडै में हैं। तुम वहाँ जा कर मिलो, कोशिश करके देख लो। तब वह बेटे को ले कर पत्तमडै में गये।

 

गुरु महाराज जी को उनकी तकलीफ के बारे में अवगत कराया गया। दूसरे दिन गुरु महाराज अस्पताल परिसर में शाम के समय भ्रमण करते गेट के पास पहुँचे। साथ में अस्पताल के स्वामी जी लोग, कार्यकर्ता, गुरु महाराज जी के सेवक गण और भी अनेक लोग मौजूद थे। सबके पीछे वह माता, पिता और पुत्र थे। गुरु महाराज ने पीछे की ओर मुड़ कर उस बालक को अपने पास बुलाया। बालक के सिर पर अपने दोनों हाथ रख कर कुछ मिनट तक मन्त्र-पाठ किया, प्रार्थना की जैसे कि करुणामय भगवान् बुद्ध। अन्त में बोले-"सद्गुरुदेव स्वामी शिवानन्द जी महाराज आपका कल्याण करें, आपको लम्बी आयु दें।" फिर बालक के पिताजी से बात-चीत की। उन माता-पिता के प्रेमाश्रु बहने लगे, मानो कृतकृत्य हो गये हों। दूसरे दिन वह परिवार पत्तमडै से अपने घर चला गया, कुछ साल बाद पता चला कि वह बालक अब पूर्ण स्वस्थ हो गया है और अपना दैनिक जीवन अच्छे से व्यतीत कर रहा है।

 

स्वामी जी महाराज जब आश्रम में होते, तब सुबह और शाम के सत्संग में समाधि मन्दिर जाते थे। रात का सत्संग हो जाने के बाद स्वामी जी महाराज आश्रम में आये हुए अतिथि और भक्तों से मिलते थे। बहुत साल पहले ऐसे ही एक रात्रि सत्संग के बाद स्वामी जी महाराज आये हुए भक्तों से मिल रहे थे। स्वामी जी महाराज अपने आसन पर बैठे थे। चारों तरफ भक्त जन और आश्रमवासी थे। सामने-सामने सब लोग बैठे हुए थे और पीछे की ओर सब खड़े थे। स्वामी जी महाराज एक-एक कर लोगों से मिल रहे थे। अचानक पीछे से माता जी को स्वामी जी महाराज ने पास बुलाया। वह माता जी सबसे पीछे थी। परन्तु उनके सामने जो माता जी थी, वह आने लगी। स्वामी जी बोले- "नहीं-नहीं, वह पीछे जो माता जी हैं।"

 

वे माता जी बहुत ही खुश हो कर सामने आयी और शायद अपने बेटे को अपने पास बुलाया। देखने से लगता था कि माता जी किसी गाँव की होंगी, परन्तु वह भक्तिमती लग रही थी। थोड़ी ही जगह में माता जी ने स्वामी जी महाराज को बहुत ही भाव से प्रणाम किया। स्वामी जी महाराज ने काफी समय तक माता जी के साथ बात की। उसी समय स्वामी जी महाराज ने पूछा कि झुमरीतलैया में सब कैसे हैं? किसी-किसी का नाम ले कर भी पूछा। अन्त में स्वामी जी महाराज ने उनको कुछ प्रसाद दिया। तब उन माता जी को याद आया कि वह भी कुछ लायी थी स्वामी जी महाराज के लिये। आस-पास ढूँढ़ने लगी। तब किसी ने पीछे से काँच का एक जार दिखा कर बोला- "ये है क्या?" माता जी बोली- "हाँ, वही है।" माता जी को जब स्वामी जी महाराज ने पास बुलाया तब वह इतनी खुश हो गयी कि गुलाब जामुन का जार पीछे रह गया, लाना ही भूल गयी। उसमें माता जी खुद गुलाब जामुन बना कर लायी थी। स्वामी जी महाराज को दे कर बोली- "आपके लिए घर से बना कर लायी हूँ।"

 

स्वामी जी महाराज ने जार को अपने हाथ में लिया, गुरुदेव समाधि की तरफ जो लोग बैठे और खड़े थे, उनको थोड़ा-सा हटने के लिए इशारा किया। जार का ढक्कन खोला, दोनों हाथों से जार को ऊपर उठा कर गुरुदेव को भोग लगाया। तब एक चम्मच मँगाया और मुँह ऊपर करके दो गुलाब जामुन एक के बाद एक ग्रहण किये। स्वामी जी महाराज अपनी दवाई को छोड़ कर बाकी कोई भी खाने की चीज अन्य समय पर नहीं लेते थे। जो लेना है, वह केवल अपने भोजन के समय लेते थे। शायद जहाँ श्रद्धा है, भक्ति आदि है, वहाँ ऐसा ही कुछ व्यतिक्रम देखने को मिलता है। यह देख कर माता जी भावविभोर हो कर रोने लगी।

 

दो गुलाब जामुन लेने के बाद स्वामी जी महाराज बोले- "यह सबको बाँट दो।" एक स्वामी जी सबको एक-एक कर प्रसाद देने लगे। सेवक के मन में आया कि यहाँ इतने सारे लोग उपस्थित हैं और जार में जितना गुलाब जामुन है वह तो सबको पूरा नहीं होगा। इसलिए यह दुर्लभ प्रसाद आगे चल कर ले लेना चाहिए। सेवक धीरे से आगे बढ़ा और एक प्रसाद ले लिया। सबकी नजर, सबका ध्यान स्वामी जी महाराज की तरफ था, परन्तु सेवक की नजर प्रसाद पर थी। सबको प्रसाद देने के बाद चार गुलाब जामुन बच गये। बचे हुए गुलाब जामुन के जार को स्वामी जी महाराज के सामने रख दिया गया। जार को देख कर स्वामी जी महाराज बोले- "गुरु निवास ले चलो।" बाकी भक्त लोगों को मिलने के बाद स्वामी जी महाराज गुरु निवास चले गये। सेवक ने, बाद में जो स्वामी जी बाँट रहे थे और भी किसी-किसी से इस विषय में बात की, परन्तु किसी के ध्यान में यह बात नहीं थी। किसी ने इस बारे में ध्यान नहीं दिया था। किसी ने बोला- "हाँ होगा।

 

जार में थोड़ा-सा गुलाब जामुन समाधि मन्दिर में उपस्थित सबको मिलने के बाद भी बच गया, जैसे कि स्वामी जी महाराज खुद अनेक अवसर पर बोले हैं। बहुत वर्ष पहले स्वामी जी महाराज कुछ लोगों के साथ नैनीताल के पास कैंची में बाबा नीमकरोली जी के दर्शन के लिए गये थे। साथ में एक छोटी-सी टोकरी में कुछ सन्तरे ले कर गये थे। जब वहाँ पहुँचे तब बाबा अपने कमरे में कुछ लोगों के साथ बैठे थे। स्वामी जी महाराज ने बाबा को प्रणाम करके टोकरी को बाबा के पास रखा। बाबा ने वहाँ उपस्थित सब लोगों को एक-एक सन्तरा दिया, फिर भी पाँच-छह सन्तरे बच गये, जबकि जितने सन्तरे थे, लोग करीब उनसे दुगुने थे। फिर भी सन्तरे बच गये। बाबा नीमकरोली जी की बात स्वामी जी महाराज खुद सबको बोलते थे, परन्तु स्वामी जी महाराज अपनी बात हमेशा छुपाते हैं।

 

 

एक बार गुरुदेव स्वामी शिवानन्द जी महाराज के दो शिष्य परस्पर असहमत होने पर क्रोधावेश में कुछ अपशब्द कह बैठे। जब यह बात गुरुदेव स्वामी शिवानन्द जी को पता चली तब वे बिना किसी को बताये उस दिन निराहार रह कर उन दोनों शिष्यों के लिए भगवान् से क्षमा प्रार्थना तथा सद्बुद्धि के लिए प्रार्थना की। ठीक वैसा ही गुरु महाराज जी अपने शिष्यों के लिए वैसी ही परिस्थिति में उनको सन्मति प्राप्त होने के लिए प्रार्थना तो करते ही थे साथ ही उनको बुला कर स्वामी शिवानन्द जी कृत श्री राम की सर्वव्यापकता के गीत को उनके साथ दोहराने को कहते थे।

 

श्री राम जय राम जय जय राम

श्री राम जय राम जय जय राम

पृथ्वी जल अग्नि वायु आकाश में हैं राम

हृदय मन प्राण और इन्द्रियों में हैं राम

श्वास रक्त नाड़ी और मस्तिष्क में हैं राम

शब्द भाव विचार और कर्म हैं राम

श्री राम जय राम जय जय राम ।।

 

भीतर राम बाहर राम सामने हैं राम

ऊपर राम नीचे राम आगे-पीछे हैं राम

दायें राम बायें राम सर्वत्र हैं राम

व्यापक राम विभु राम पूर्ण हैं राम

श्री राम जय राम जय जय राम ।।

 

सत् हैं राम चित् हैं राम आनन्द हैं राम

शान्ति हैं राम शक्ति हैं राम ज्योति हैं राम

प्रेम हैं राम दया है राम सौन्दर्य हैं राम

आनन्द है राम प्रसन्नता है राम

पवित्रता है राम श्री राम जय राम जय जय राम ।।

 

आश्रय हैं राम सान्त्वना राम गति राम साक्षी है राम।

माता पिता मित्र बन्धु गुरु हैं राम

 मूल आधार स्रोत आदर्श केन्द्र लक्ष्य है राम

सृष्टिकर्ता पालनकर्ता संहारकर्ता मुक्तिदाता हैं राम

श्री राम जय राम जय जय राम ।।

 

परम लक्ष्य मानव का केवल एक हैं राम

श्रद्धा प्रेम उपासना से वरेण्य हैं राम

समर्पित भाव भक्ति से मिलते हैं राम

श्री राम जय राम जय जय राम ।।

 

अर्चन वन्दन प्रार्थना कीर्तन से प्राप्य हैं राम

श्री राम जय राम जय जय राम

श्री राम जय राम जय जय राम ।।

 

शायद इसका अभिप्राय यह है कि जब जड़ हो या चेतन, दृश्य हो या अदृश्य सब-कुछ राम ही है, भगवान् ही है, तो फिर किससे द्वेष करें, किस से क्रोध करें! किसी से द्वेष करने अथवा क्रोध करने का मतलब भगवान् से द्वेष करना है। बस सबसे प्रेम ही किया जा सकता है।

 

 

एक बार स्वामी जी महाराज व्हील चेयर में शान्ति निवास के चारों तरफ घूम रहे थे। साथ में हम सब संन्यासी सेवक और ब्रिगेडियर सब्बरवाल जी थे। बात कुछ चैतन्य महाप्रभु की चल रही थी। ब्रिगेडियर सब्बरवाल जी ने पूछा- "स्वामी जी, जब चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथपुरी में थे, वे पहले वृन्दावन नहीं गये थे। पहले अपने शिष्यों को भेज कर श्री कृष्ण ने किस जगह पर क्या-क्या लीला की थी, उसी उसी जगह को पुनरुद्धार के लिए प्रेरित किया ! उनको कैसे पता चला कि कौन-सी जगह पर श्री कृष्ण ने क्या लीला की थी?"

 

स्वामी जी महाराज बोले- "देखो.... जिन्होंने भगवत्साक्षात्कार किया है, वह जो जानने को चाहेंगे वह जान सकते हैं। भले ही अतीत का क्यों हो, जैसा कि आप टी.वी. देखते हैं, यहाँ तक कि जैसा मैं आपको देख रहा हूँ सुना रहा हूँ।"

 

तत्क्षण ब्रिगेडियर सब्बरवाल ने पूछ लिया - "स्वामी जी भी ऐसा देख सकते हैं?"

 

तब स्वामी जी महाराज बोलते-बोलते चुप हो गये। जितना भी समय बाहर घूमे, वह और कुछ भी नहीं बोले। कारण स्वामी जी महाराज ने अपने आपको हमेशा छुपाया है, कभी प्रकट होने नहीं दिया।

 

 

और एक दिन ऐसी ही कुछ बात हुई। स्वामी जी महाराज छत के ऊपर बैठे थे। उस समय स्वामी जी महाराज श्रीरामकृष्ण परमहंस की बात कर रहे थे। परमहंस जैसे कोई सन्त नहीं हुए जिन्होंने अलग-अलग मत से साधना कर भगवत् उपलब्धि की हो। जिस समय जिस मत को अपनाया, उस समय उसी में ही रम गये।

 

एक स्वामी जी ने पूछा- "रामकृष्ण परमहंस तो अभी शरीर में नहीं हैं। उनको ब्रह्मलीन हुए अनेक वर्ष बीत गये हैं। अगर कोई भगवत्साक्षात्कार किया हुआ सन्त चाहे तो अतीत के उन पलों को क्या देख सकते हैं?"

 

तब स्वामी जी महाराज बोले- "हाँ.... हाँ.... निश्चय ही देख सकते हैं।" फिर स्वामी जी महाराज दूसरी बात करने लगे।

 

 

 

सन् २००७ दिसम्बर महीने में रिवर डेल स्कूल देहरादून के कुछ छात्र-छात्राएँ, प्रिंसिपल सुरजीत आहलुवालिया माता जी के साथ स्वामी जी महाराज को मिलने के लिए शान्ति निवास आये थे। माता जी कुछ बच्चों के साथ दिसम्बर माह में स्वामी जी महाराज के दर्शन के लिए हर साल आती थीं। इस बार बच्चों ने क्रिसमस के कैरोल गाये। उनके साथ स्वामी जी महाराज ने भी कैरोल गुनगुनाये। बच्चों ने शंकराचार्य कृत निर्वाणाष्टकम्, भगवद्गीता के पंचदश अध्याय और हे प्रभु आनन्ददाता गा कर सुनाये। स्वामी जी महाराज बहुत प्रसन्न हुए। उसी समय बच्चों को बोले- "माता-पिता और शिक्षक का सम्मान करना, उनकी बात मानना, सबमें भगवान् वास करते हैं। माता-पिता और शिक्षक प्रत्यक्ष भगवान् हैं। सबके प्रति दया, मैत्रीभाव रखना। किसी से घृणा नहीं करनी चाहिए। किसी के प्रति क्रोध नहीं करना चाहिए। क्रोध अपना शत्रु है। वह अपना भी अनिष्ट करता है और दूसरों का भी अनिष्ट करता है। सबमें भगवान् वास करते हैं, तो आप किसी से क्रोध या घृणा करते हैं तो वह भगवान् के प्रति क्रोध करने के समान है। असत्य कभी नहीं बोलना चाहिए। असत्य बोलना पाप है। समय सबसे मूल्यवान् है इसीलिए समय कभी व्यर्थ नहीं जाने देना चाहिए। समय का हमेशा सदुपयोग करना चाहिए। जिस समय जो करना चाहिए, उसे पूरी लगन से करना चाहिए। तब आप जीवन में सफलता प्राप्त करेंगे। आप सब सत्यवादी बनें, सदाचारी बनें, महापुरुषों की जीवनी का पाठ करें। मन चंचल है, उसे हमेशा अच्छे कर्मों में लगाये रखें।"

 

उन बच्चों में से दो मुसलमान थे। उनसे स्वामी जी महाराज ने पूछा कि आप प्रत्येक शुक्रवार को पिता जी के साथ मसजिद में नमाज पढ़ने जाते हैं क्या ?

 

वह दोनों बोले- "हाँ, हम नमाज पढ़ने जाते हैं।" स्वामी जी महाराज बोले- "हर दिन नमाज पढ़नी चाहिए, शुक्रवार को तो अवश्य नमाज पढ़नी चाहिए।" बाद में कीर्तन, शान्तिपाठ कर सबको प्रसाद दिया।

 

 

 

एक बार ठण्ढी के दिन में समाधि मन्दिर के रात्रि सत्संग के बाद स्वामी जी महाराज अपनी गाड़ी से गुरु निवास रहे थे। गुरु निवास के सामने कुछ दुकानें हैं। एक दुकान के बरामदे में एक आदमी एक ही कम्बल ओढ़ कर सोया हुआ था। गाड़ी गुरु निवास गेट के पास पहुँचते ही स्वामी जी महाराज ने उसको देख लिया। तब बोले कि "इतनी ठण्ढ में एक ही कम्बल ठण्ढ नहीं सँभालेगा। उनको और एक अच्छा कम्बल ओढ़ा दो। परन्तु सावधानी से जिससे उसकी नींद टूटे। इसलिए धीरे से ओढ़ाना।" गुरु निवास में पहुँचने के बाद एक स्वामी जी ने एक मोटा-सा कम्बल दिया, सेवक ने जा कर उसको धीरे से कम्बल ओढ़ा दिया और नींद में व्याघात भी नहीं हुआ। शायद गुरु महाराज जी का कहने का मतलब था कि सेवा करते समय पूर्ण एकाग्रता से, श्रद्धा से और जिनकी सेवा कर रहे हैं, उनको किसी भी प्रकार की तकलीफ देते हुए करनी चाहिए। जिसकी सेवा की जाये, उसको पता भी चले की सेवा किसने की है।

 

 

 

स्वामी जी महाराज का खानपान पहले से ही बहुत कम है। बाद में धीरे-धीरे और कम होता गया। सन् २००६ से स्वामी जी महाराज का जो भोजन था वह करीब आधा गिलास मट्ठा (Butter milk) दिन में और रात को उतने ही दूध में हॉरलिक्स मिला कर लेते थे। कभी-कभी उसमें से भी छोड़ देते थे। पूरे २४ घण्टे में इतना ही लेते थे। शरीर बहुत कमजोर हो गया था। कभी-कभी तबीयत खराब हो जाती थी। उस समय में अगर पहले से किसी-किसी को मिलने के लिए समय दिया है तो स्वामी जी महाराज उनको मिलना बन्द नहीं करते थे। मिलते समय स्वामी जी महाराज को अपने शरीर का, ही समय का ध्यान रहता था। बाद में बहुत थक जाते थे। इतने थक जाते थे कि अपना मट्ठा या हॉरलिक्स का एक कप लेना भी बन्द कर देते थे और पूरा आराम करना चाहते थे। इससे और भी कमजोर हो जाते थे। कभी-कभी स्वामी जी महाराज पहले से बोलते थे कि मैं उनसे इतने समय मिलूँगा, समय हो जाये तो मुझे बता देना। किन्तु जितने समय के लिए बोलते थे उससे कई गुना ज्यादा समय खुद लेते थे। कभी-कभी लोग सोचते थे कि स्वामी जी महाराज की आवाज बढ़िया है, तबीयत भी ठीक लग रही है; परन्तु ये लोग बोलते हैं कि स्वामी जी महाराज की तबीयत ठीक नहीं है। किन्तु वास्तविकता कुछ दूसरी होती थी।

 

 

सन् २००५ में लुधियाना के चन्दनसिंह जी अपने परिवार सहित गुरु महाराज के दर्शन के लिए शान्ति निवास आये थे। चन्दनसिंह जी ने अपनी युवावस्था में गुरु महाराज जी से आर्थिक सहायता पा कर पढ़ाई की थी और ऋषिकेश में दर्जी के काम का प्रशिक्षण लिया था। लुधियाना में अपना कामकाज किया। अब बेटे की शादी के बाद गुरु महाराज जी के आशीर्वाद के लिए आये थे।

 

गुरु महाराज ने उनसे हालचाल पूछा। उसी समय सबको बोले- "अपने से बड़ों को आदर-सम्मान देना और छोटों को प्यार देना। तुम खाने से पहले दुःखी, दरिद्र, पशु, पक्षी, वृद्ध, बीमार आदि को अपनी शक्ति के अनुसार खाने के लिए देना। अन्न की निन्दा नहीं करना, और अन्न कभी बरबाद नहीं करना। अन्न ब्रह्म है। जितना हो सके परोपकार करना। दूसरों का भला करना, 'परोपकाराय इदं शरीरम्' भाव से सेवा करनी चाहिए। निःस्वार्थ भाव से सेवा करनी चाहिए। इसके फलस्वरूप आप शुद्ध हो जायेंगे। आप जो करोगे उसे आप ही भोगोगे। सदा भगवत् नाम स्मरण करते रहना। अपने दैनिक कर्म में जब फुर्सत मिले तो नाम जप करते रहना। भगवान् ने यह जिह्वा दी है कि मधुर बोलें, भगवत् नाम कीर्तन करें। नाम जप करें परन्तु किसी की निन्दा करें। अपनी वाणी द्वारा हो या कर्म द्वारा किसी को आघात करें। आप जो देखते हैं, जो सुनते हैं, जो स्वाद ग्रहण करते हैं, सबमें वही परमात्मा को अनुभव करें। सबमें भगवान् का दर्शन करें। इसका बारम्बार अभ्यास करें।" आखिर में स्वामी जी महाराज ने कीर्तन किया और सबको प्रसाद दिया।

 

 

 

ब्रिगेडियर डा. मेहता जी अनेक बार स्वामी जी महाराज के स्वास्थ्य परीक्षण के लिए शान्ति निवास आते थे। एक बार उन्होंने पूछा- "स्वामी जी, मेरे लिए कोई उपदेश।" स्वामी जी महाराज बोले- "रोगी की सेवा ही भगवान् की सेवा है। भगवान् सबमें विराजमान हैं। जब किसी रोगी की देखभाल करते हैं, तब यह भाव रखें कि उसके अन्दर जो परमात्मा है, मैं उनकी पूजा कर रहा हूँ। निःस्वार्थ सेवा ही सच्ची भगवत् आराधना है। अपना जो कर्तव्य मिला हुआ है, उसमें कभी अवहेलना करें। डाक्टर के वचन ऐसे होने चाहिए कि रोगी की आधी बीमारी ठीक हो जाये। जैसे हमारे शरीर को प्रतिदिन कुछ खाद्य की आवश्यकता है ठीक वैसी ही आत्मा के लिए प्रतिदिन स्वाध्याय की आवश्यकता है। प्रतिदिन कुछ आध्यात्मिक ग्रन्थ पाठ करें। भगवद्गीता के कुछ श्लोक अर्थ के साथ पाठ करें और उन पर चिन्तन-मनन करें। यह आपकी दैनिक साधना का अंग बन जाना चाहिए।"

 

 

 

१८ नवम्बर सन् २००४ दोपहर को धूप में स्वामी जी महाराज टहल रहे थे। उसी समय शिवानन्द सत्संग भवन, दिल्ली से धर्मसिंह जी स्वामी जी महाराज के लिए कुछ सामान ले कर आये। उनके साथ बात-चीत करते समय स्वामी जी महाराज बोले- " जी, हर समय भगवान् को याद करना, हर पल उन्हीं के नाम का जप करना। सद्गुरुदेव स्वामी शिवानन्द जी महाराज ने अपनी 'विश्व-प्रार्थना' में कहा है :

 

"हम सब नाम-रूपों में तुम्हारा दर्शन करें।

 

तुम्हारी अर्चना के ही रूप में इन नाम-रूपों की सेवा करें।

 

सदा तुम्हारा ही स्मरण करें।

 

सदा तुम्हारी ही महिमा का गान करें।

 

तुम्हारा ही कलिकल्मषहारी नाम हमारे अधर-पुट पर हो।

 

सदा हम तुममें ही निवास करें।"

 

"पेड़-पौधे और चींटी से ले कर इनसान तक सबके अन्दर वही एक परमात्मा को अनुभव करो। सबमें भगवान् के दर्शन करो। सबको भगवत् स्वरूप मान कर प्रणाम करो। सब जीवों की सेवा करो। वह भगवान् कहीं दूर नहीं है, वह हमेशा हर किसी के पास ही है। हमारे अन्दर है हमारे बाहर है। सब जगह है। हर पल उसको अनुभव करो। बारम्बार अभ्यास करो। जो भी काम मिला है उसे भगवान् की सेवा, भगवान् की पूजा मान कर करो। इस कलियुग में भगवत् नाम की महिमा अपार है। इसलिए हर समय भगवान् के नाम का जप करते रहना चाहिए। हर काम से पहले, काम के बीच में और काम के अन्त में भगवत् नाम स्मरण अवश्य करें। जितना अधिक नाम जप होगा, उतना ही अधिक आप शुद्ध और पवित्र होंगे। काम करते रहें, नाम जपते रहें।" ऐसी ही अनेक बातें उनको बतायीं।

 

 

 

सन् २००५ फरवरी में दो नवयुवक भाई, सिद्धार्थ कौल और सागर कौल स्वामी जी महाराज के दर्शन करने के लिए शान्ति निवास आये थे। वह दोनों मूल रूप से आनन्द आश्रम, कन्हनगढ़ से जुड़े थे। उनके मन में कुछ शंका थी। दोनों भाइयों ने सन् १९९१ में आनन्द आश्रम में पापा रामदास जी के ऑडियो कैसेट के जरिए मन्त्र-दीक्षा ली थी। कुछ साल बाद आनन्द आश्रम के एक स्वामी जी ने उनको बताया कि तुम्हारा गुरु पापा रामदास नहीं है। तुम्हारा गुरु तो स्वामी राम हैं (स्वामी राम एक महाराष्ट्र के सन्त हैं), क्योंकि वह तुम्हारे कुलगुरु हैं। स्वामी राम उनके घर को आते-जाते रहते थे। इसीलिए वे उलझन में थे कि सही मायने में हमारा गुरु कौन है।

 

स्वामी जी महाराज बोले- "हर एक परिवार का एक-एक कुलगुरु होता है। बिना कुलगुरु के परिवार में सोलह संस्कारों में से कोई भी संस्कार नहीं होता है। गर्भ संस्कार से ले कर अग्निदाह संस्कार तक सारे संस्कारों में कुलगुरु की आवश्यकता है। परन्तु सद्गुरु उनसे अलग है। जिससे मन्त्र-दीक्षा ले कर व्यक्ति जीवन्मुक्ति की ओर अग्रसर होता है, आत्म-साक्षात्कार करता है, वह सद्गुरु है। आप दोनों के फोटो रख कर पूजा कर सकते हैं, परन्तु सद्गुरु पापा रामदास ही हैं।"

 

उन्होंने पूछा- "पापा रामदास के इष्टदेव श्री कृष्ण थे, हमारे इष्टदेव कौन हैं?"

 

स्वामी जी महाराज बोले- "हाँ, पापा रामदास जी पहले श्री कृष्ण का ध्यान करते थे। श्री कृष्ण ने वंशी बजाते हुए, नृत्य करते हुए उनको दर्शन दिये, परन्तु पापा रामदास जी ने विनम्र भाव से, हाथ जोड़ कर प्रार्थना की-हे परब्रह्म, मैं आपका केवल इसी रूप में दर्शन करना नहीं चाहता हूँ। मैं आपका सब जगह दर्शन करना चाहता हूँ। सर्वं ब्रह्ममयम्।"

 

उन भाइयों में से एक ने कहा- "मैंने एक स्वप्न देखा जिसमें आपने मेरे कान में इष्ट-मन्त्र 'श्री राम जय राम जय जय राम' तीन बार उच्चारण किया। मैंने पूछा- मैं आपके जैसा जीवन्मुक्त बनना चाहता हूँ। मैं जीवन्मुक्त बनूँगा कि नहीं? आपने स्वप्न में ही उत्तर दिया- मैं जिस धारा में प्रवाहित हो रहा हूँ, तुम भी उस धारा में प्रवाहित होगे।" फिर उन्होंने स्वामी जी महाराज से पूछा- "क्या आप हमको मन्त्र-दीक्षा देंगे?"

 

स्वामी जी महाराज बोले- "नहीं-नहीं! आप मन्त्र-दीक्षा ले चुके हैं। उसी मन्त्र का जप करो। मैं आपको आध्यात्मिक उपदेश दे सकता हूँ। आपका मार्गदर्शन कर सकता हूँ, गुरु में श्रद्धा और विश्वास होना चाहिए। श्रद्धा और विश्वास के साथ अपना इष्टमन्त्र जप करना चाहिए।"

 

उन्होंने पूछा- "स्वामी जी, हम दोनों अभी कॉलेज में पढ़ रहे हैं। आज का कालेज का परिवेश हो या समाज का परिवेश बहुत कलुषित है। हम इस कलुषित परिवेश में अपने-आपको कैसे बचा कर रख पायेंगे और शीघ्र ही भगवत् उपलब्धि कैसे कर पायेंगे? कृपा करके उसका उपाय हमें बताइए?"

 

स्वामी जी महाराज बोले- "हर समय भगवत् स्मरण करो, समय व्यर्थ जाने दो, अपना हर कर्म उनकी पूजा बन जाये ऐसा हो, अपने सारे कर्म, कर्मफल सब भगवत् चरणों में समर्पित कर दो। जेब में अपने इष्टदेव की, गुरुदेव की एक फोटो रखो। हर आधा घण्टे में हो या जब फुरसत मिले तब जेब से निकाल कर देखो। तब भगवत् याद बनी रहेगी। अपने लक्ष्य को सदा याद रखो, कक्षा के दो प्रीयेड के बीच में जो समय मिला उस समय में भी जप करो या लिखित जप करो। लिखित जप के लिए एक कापी सदा अपने पास रखो। जब समय मिले तो मन्त्र लिख सको। लेकिन पढ़ाई के समय शत-प्रतिशत अपना मन पढ़ाई में और दूसरे समय शत-प्रतिशत भगवान् में ध्यान होना चाहिए। मन ही बन्धन-मोक्ष का कारण है। मन को एकाग्र करके परमात्मा में पूर्णरूपेण लगाना चाहिए। अनावश्यक बात करो। सबके अन्दर परमात्मा के ही दर्शन करो। तब आपसे कोई गलती नहीं होगी। और आपका कल्याण होगा।"

 

उन्होंने कहा - "स्वामी जी, हमें आशीर्वाद दीजिए। हम पर कृपा करें।"

 

स्वामी जी महाराज बोले-"परमात्मा परब्रह्म, पापा रामदास जी, माता कृष्णाबाई जी, स्वामी रामतीर्थ, रमण महर्षि जी, श्री श्री माँ आनन्दमयी जी, गुरुदेव स्वामी शिवानन्द जी और भारतवर्ष के सभी महान् सन्त-महात्मा आप दोनों पर कृपा अनुग्रह करें!"

 

उन्होंने कहा- "जैसे पापा रामदास जी ने आपके शिर पर दोनों हाथ रख कर आशीर्वाद दिया था, हमको भी वैसे ही आशीर्वाद दीजिए।"

 

स्वामी जी महाराज ने उनके शिर पर हाथ रख कर आशीर्वाद दिये। उन्होंने कहा- "हम इसी जन्म में जैसे शीघ्र भगवत् उपलब्धि करेंगे, ऐसी आप हम पर कृपा करें।" यह बात उन्होंने बार-बार दोहराई।

 

स्वामी जी महाराज बोले- "हाँ, इसी जन्म में भगवत् उपलब्धि करोगे।"

 

इतनी कम उम्र में कैसी व्याकुलता है! धन्य हैं उनके माता-पिता और धन्य हैं वे दोनों भाई।

 

स्वामी जी महाराज उनसे ऐसे बात करते-करते बोले- "मैंने पिछले जन्म में ही भगवत् उपलब्धि कर ली थी; परन्तु कुछ कर्म बाकी रह गये थे, इसलिए फिर आना पड़ा।"

 

स्वामी जी महाराज पूर्वजन्म से ही जीवन्मुक्त होने के बाद भी इस जन्म में, इतनी उम्र में, अनेक तकलीफें सह कर हम सबके कल्याण के लिए जीवन धारण किये हुए हैं। "परोपकाराय इदं शरीरम्।"

 

एक बार डाक्टर मोहन जी को किसी प्रसंग में स्वामी जी महाराज बोले थे कि इस शरीर द्वारा जो होना था, वह सब पूरा हो गया है। अब इस शरीर का कोई प्रयोजन नहीं है।

 

बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।

वासुदेवः सर्वमिति महात्मा सुदुर्लभः ।। (गीता : -१९)

 

अनेक जन्मों के उपरान्त ज्ञानी मेरी शरण में आता है, किन्तु 'वासुदेव ही सर्वस्व है' ऐसा ज्ञान प्राप्त करने वाला महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है।

 

विविध प्रसंगों में बहुत सी बातें हुई, परन्तु सारी बातें तो सेवक को याद नहीं है। जो थोड़ा-बहुत याद था, उसको भाषाबद्ध किया है। सेवक ने अपनी अल्पमति से जैसा देखा, जैसा समझा, उसी भाव को रूप देने का यह एक प्रयास मात्र है। आशा करता हूँ, इसमें जो भी त्रुटियाँ हैं, उनके लिए सन्त, महात्मा, ज्ञानी, गुणी पाठक वृन्द, मूढ़ सेवक को कृपा करके क्षमा करेंगे।

 

हरि तत्सत् ! सद्गुरुदेवार्पणमस्तु !