प्राणायाम-साधना
THE SCIENCE OF PRANAYAMA
का अविकल अनुवाद
लेखक
श्री स्वामी शिवानन्द
SERVE LOVE MEDITATE REALIZE
THE DIVINE LIFE SOCIETY
अनुवादक
श्री स्वामी ज्योतिर्मयानन्द
प्रकाशक
द डिवाइन लाइफ सोसायटी
पत्रालय : शिवानन्दनगर—२४९१९२
जिला : टिहरी गढ़वाल, उत्तराखण्ड (हिमालय), भारत
www.sivanandaonline.org, www.dlshq.org
प्रथम हिन्दी संस्करण १९६१
सप्तम हिन्दी संस्करण :२०१९
(१,००० प्रतियाँ)
© द डिवाइन लाइफ ट्रस्ट सोसायटी
ISBN 81-7052-072-X
HS 122
PRICE: ₹75/-
'द डिवाइन लाइफ सोसायटी, शिवानन्दनगर' के लिए
स्वामी पद्मनाभानन्द द्वारा प्रकाशित तथा उन्हीं के द्वारा 'योग- वेदान्त
फारेस्ट एकाडेमी प्रेस, पो. शिवानन्दनगर – २४९१९२,
जिला टिहरी गढ़वाल, उत्तराखण्ड' में मुद्रित।
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इस पुस्तक के विषय अथवा इसके लेखक श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज के गुणों पर बल देना हमारे लिए अनावश्यक ही है। श्री स्वामी जी इसके पहले से ही विश्व जनमानस में एक 'विश्वसनीय परित्राता' के रूप में निवास करते हैं। योग के ऐसे जटिल विषयों को प्रत्ययकारी आश्वासनों से युक्त अप्रतिम, सरल शैली में उपस्थापन की स्वामी जी की रीति अनुपम तथा अद्वितीय है। यह इसलिए और भी अधिक प्रामाणिक है कि स्वामी जी एक अनुभवी चिकित्सक, एक पूर्ण विकसित योगी तथा एक जीवन्मुक्त के संयोग हैं।
सिद्धगुरु के सान्निध्य की अपरिहार्य आवश्यकता, आहार-सम्बन्धी प्रतिबन्ध और तथाविध सीमाबद्धता के कारण कुछ दिशाओं के लोगों में योगाभ्यास को आशंका की दृष्टि से देखा जाता है। स्वामी जी ने इसमें इस प्रकार की आशंकाओं की असंगतता को स्पष्ट शब्दों में समझाया है और इसके लिए बहुत ही सरल तथा निरापद विधि निर्धारित की है। इस पुस्तक में सभी प्रकार के साधकों के लिए उपयुक्त शिक्षाएँ हैं। जो इस पुस्तक के अन्तिम भाग में दिये हुए विशेष उपदेशों का पालन करेंगे, वे अपनी प्रत्याभूत सफलता तथा सुरक्षा के विषय में आश्वस्त रह सकते हैं।
प्राणायाम अष्टांगयोग का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। यह सुस्वास्थ्य और प्रत्येक व्यवसाय में सफलता तथा उन्नति हेतु प्रत्येक व्यक्ति के लिए उसके दैनिक जीवन में समान रूप से आवश्यक है। यह क्योंकर है, इसका स्पष्टीकरण इन पृष्ठों में दिया गया है। शिथिलीकरण का विज्ञान सभी पाठकों के लिए एक महान् देन है। यह सबको लाभ पहुँचायेगा ।
हमारे प्रिय पाठकों ने इसके पूर्ववर्ती संस्करणों को जिस हार्दिकता से स्वीकार किया, उससे हमें बहुत ही प्रोत्साहन मिला है और हम आशा करते हैं कि अधिकाधिक संख्या में साधक अपनी दैनिक आध्यात्मिक साधनाओं में साधना के इस महत्त्वपूर्ण पहलू को अपनायेंगे तथा सुख और आनन्द का स्वयं अनुभव करेंगे, जो स्वभावतः ही उन्हें आनन्दमय 'दिव्य जीवन' की दिशा में ले जायेगा।
-द डिवाइन लाइफ सोसायटी
आजकल शीघ्र यात्रा करने के लिए तीव्रगामी रेलगाड़ी, स्टीमर, वायुयान आदि की सुविधाएँ इस भौतिक जगत् में हमें प्राप्त हैं; परन्तु योगियों का दावा है कि योगाभ्यास के द्वारा शरीर के भार को इतना कम किया जा सकता है कि वह पल मात्र में आकाश मार्ग से कहीं भी, कितनी भी दूरी पर जा सके। योगी चमत्कारी मलहम तैयार कर सकते हैं, जिसे पैर के तलवे में लगा कर वे अल्प समय में ही इस पृथ्वी पर कहीं भी जा सकते हैं। खेचरी मुद्रा के अभ्यास से दीर्घित जिह्वा को अन्दर की ओर मोड़ कर, उससे पश्च नासाद्वार को बन्द कर योगी वायु में उड़ सकते हैं। वे अपने मुख में किसी चमत्कारी गोली को रख कर पल मात्र में ही आकाश मार्ग से जहाँ चाहे वहाँ जा सकते हैं। सुदूर स्थलों अथवा विदेशों में रहने वाले अपने सम्बन्धियों का कुशल-क्षेम जानने के लिए चिन्तित होने पर हम पत्र लिखते हैं अथवा साधारण या अविलम्ब्य तार भेजने का आश्रय लेते हैं; परन्तु योगियों का दावा है कि वे संसार के किसी भी भाग की घटनाओं को अपने मनःप्रक्षेपण के द्वारा अथवा कुछ क्षणों के मानसिक भ्रमण द्वारा जान सकते हैं। योगी लाहिड़ी, जिनकी समाधि वाराणसी में वर्तमान है, ने अपने किसी वरिष्ठ अधिकारी की पत्नी के स्वास्थ्य की जानकारी प्राप्त करने के लिए लन्दन की यात्रा की थी। किसी दूर स्थित मित्र से बातें करने के लिए इस भौतिक जगत् में दूरभाष, बेतार का तार आदि साधन हैं; परन्तु योगी-जन अपनी यौगिक शक्ति से किसी भी बात को कितनी ही दूर से सुन सकते हैं। वे ईश्वरीय वाणी तथा आकाश में वर्तमान अदृश्य देवताओं की वाणी को भी सुन सकते हैं। आज जब कोई व्यक्ति रोगग्रस्त होता है, तो इस भौतिक जगत् में उसके लिए चिकित्सक, औषधि, अन्तःक्षेप (इंजेक्शन) आदि की व्यवस्था है; परन्तु योगियों का कहना कि वे दृष्टि अथवा स्पर्श मात्र से अथवा मन्त्रों के जप मात्र से रोगी का उपचार कर सकते हैं। इतना ही नहीं, वे मृतकों को भी जीवित कर सकते हैं।
ये योगी धारणा के निरन्तर अभ्यास के द्वारा विभिन्न यौगिक शक्तियाँ, जिन्हें सिद्धियाँ कहते हैं, प्राप्त कर लेते हैं। जिनके पास सिद्धियाँ होती हैं, उन्हें सिद्ध कहते हैं। जिस प्रक्रिया से वे सिद्धि प्राप्त करते हैं, उसे साधन कहते हैं। प्राणायाम इन साधनों में से एक प्रमुख साधन है। आसनों के अभ्यास से आप स्थूल शरीर को वश में कर सकते हैं तथा प्राणायाम के अभ्यास से आप सूक्ष्म शरीर अथवा लिंग शरीर को वशीभूत कर सकते हैं। श्वास तथा प्राणिक नाड़ियों के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध है; अतः श्वास के नियन्त्रण से प्राणिक प्रवाहों पर भी नियन्त्रण हो जाता है।
भारतीय धर्म में प्राणायाम का बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। प्रत्येक ब्रह्मचारी तथा प्रत्येक गृहस्थ को अपनी दैनिक पूजा के समय तीन बार—प्रातः, दोपहर तथा सायं को-प्राणायाम का अभ्यास करना पड़ता है। हिन्दुओं का प्रत्येक धार्मिक कार्य इससे प्रारम्भ होता है। खाने से पहले, पीने से पहले, किसी कार्य को करने का संकल्प करने से पहले प्राणायाम कर लेना चाहिए और तब अपने निश्चय को स्पष्ट रूप से निरूपित करना और उसे मन के समक्ष रखना चाहिए। प्रत्येक संकल्प के प्रयास से पूर्व प्राणायाम करने में यह बात असन्दिग्ध है कि प्रयास फलीभूत होगा तथा मन अभीप्सित परिणाम पूरा करने की दिशा में निर्देशित होगा। यहाँ स्मरण-शक्ति के असाधारण कार्यों का उल्लेख किया जा सकता है, जिसका अभ्यास हिन्दू योगी शतावधान के नाम से करते हैं। इसमें शतावधानी से त्वरित क्रम में विभिन्न व्यक्ति १०० भिन्न-भिन्न प्रश्न करते हैं, जिनमें से कुछ उसकी शाब्दिक स्मरण शक्ति की, कुछ उसकी मानसिक गणना-शक्ति की और कुछ उसकी कलात्मक निपुणता को जाँचने के लिए होते हैं। किये गये प्रश्नों को स्मरण करने के लिए उसे कुछ भी समय नहीं दिया जाता है। शतावधानी उन प्रश्नों को उनके किसी भी क्रम में एक-एक कर दोहराता है तथा उनका उत्तर देता जाता है। इसे वह साधारणतया तीन या उससे अधिक बारियों में करता है। प्रत्येक बारी में प्रत्येक प्रश्न के एक अंश का ही उत्तर देता है तथा दूसरी बारी में जहाँ प्रथम बार उत्तर छोड़ा था, वहीं से उसे पुनः आरम्भ कर देता है। यदि प्रश्न गणितीय निर्मेय हुए, जिनका हल अपेक्षित है, तो वह उन्हें मन में हल कर प्रश्न के साथ उत्तर दे देता है।
मन की एकाग्रता की यह क्षमता प्रायः बुद्धि के विषय में ही नहीं, अपितु पंचेन्द्रियों के विषय में भी प्रदर्शित की जाती है। कई घण्टियों में भिन्न-भिन्न चिह्न अंकित कर देते हैं और उनके चिह्नों के साथ उनकी ध्वनियों का अध्ययन करने तथा उन पर मानसिक रूप से ध्यान देने दिया जाता है। एक ही रंग तथा आकार के अनेक पदार्थों, जो सामान्य व्यक्ति के नेत्रों को धोखे में डाल सकते हैं, को अवधानी को उनकी अंकित संख्या के साथ एक बार दिखला दिया जाता है। जब वह किसी अन्य काम में निरत हो, तो यदि एक घण्टी बजा दी जाये अथवा उन पदार्थों में से एक पदार्थ उसके नेत्रों के समक्ष प्रदर्शित कर दिया जाये, तो वह तत्काल उस घण्टी का चिह्न अथवा प्रदर्शित पदार्थ की संख्या बतला देता है। इसी भाँति उसकी स्पर्शेन्द्रिय की कुशाग्रता की भी परीक्षा की जाती है। स्मरण-शक्ति के ऐसे असाधारण कार्य प्राणायाम के दैनिक अभ्यास से प्राप्त प्रशिक्षण से ही सम्भव होते हैं।
प्राण की व्याख्या प्रत्येक वस्तु में विद्यमान उस सूक्ष्मतम प्राणिक बल के रूप में की जा सकती है जो भौतिक जगत् में गति तथा क्रिया के रूप में तथा मानसिक जगत् में विचार के रूप में व्यक्त होता है। अतः प्राणायाम शब्द का अर्थ है—प्राणिक ऊर्जाओं का नियन्त्रण। यह उस प्राणिक ऊर्जा का नियन्त्रण है जो लोगों की स्नायुओं में सनसनाती, उसकी मांसपेशियों का संचालन करती तथा उसके बाह्य जगत् का अनुभव करने और आन्तरिक विचारों को सोचने का कारण बनती है। इस ऊर्जा का स्वरूप ऐसा है कि इसे प्राणी-शरीर रचना की गतिज ऊर्जा कहा जा सकता है। प्राणायाम के द्वारा इस ऊर्जा पर नियन्त्रण पाना ही योगियों का लक्ष्य है। जो व्यक्ति प्राण पर विजय प्राप्त कर लेता है, वह शारीरिक तथा मानसिक जगत् में अपने अस्तित्व का ही नहीं, वरन् समस्त संसार का विजेता हो जाता है; क्योंकि प्राण ही विश्वात्म-जीवन का सारतत्त्व है, वह सूक्ष्म तत्त्व है जिससे इस समस्त जगत् का इस वर्तमान रूप में उद्विकास हुआ और जो उसे उसके चरम लक्ष्य की दिशा में आगे धकेल रहा है। योगी के लिए समस्त ब्रह्माण्ड उसका शरीर है। उसके शरीर को संघटित करने वाला तत्त्व वही है, जिससे इस ब्रह्माण्ड का उद्विकास हुआ। उसकी स्नायुओं में जो शक्ति स्पन्दित होती है, वह उस शक्ति से भिन्न नहीं है जो ब्रह्माण्ड में दोलायमान है। अतः योगी के लिए शरीर पर विजय का अर्थ है—प्रकृति की शक्तियों पर विजय। हिन्दू-दर्शन के अनुसार यह सारी प्रकृति दो मुख्य द्रव्यों से संघटित है। उनमें से एक को आकाश की संज्ञा दी जाती है और दूसरे को प्राण की। इन दोनों को आधुनिक वैज्ञानिकों के द्रव्य तथा शक्ति के अनुरूप कहा जा सकता है। इस विश्व की प्रत्येक वस्तु, जिसका कोई रूप अथवा आकार है अथवा जिसकी भौतिक सत्ता है, इस विभु तथा सर्वव्यापक सूक्ष्म द्रव्य 'आकाश' से उत्पन्न हुई है। गैस (वाति) तरल तथा सान्द्र, हमारे सौर-मण्डल तथा हमारे सौर मण्डल की भाँति लाखों विशाल मण्डलों से निर्मित यह ब्रह्माण्ड तथा वास्तव में 'सृष्टि' शब्द के अन्तर्गत आने वाला प्रत्येक प्रकार का अस्तित्व इस एक सूक्ष्म तथा अदृश्य आकाश की उपज है तथा प्रत्येक कल्प के अन्त में वे उस प्रारम्भ-बिन्दु को वापस चले जाते हैं। इसी भाँति मनुष्य को ज्ञात प्रकृति की सभी प्रकार की शक्तियाँ, गुरुत्वाकर्षण, प्रकाश, ताप, विद्युत्, चुम्बकत्व; 'शक्ति' के व्यापक नाम के अन्तर्गत समूहित होने वाली सभी शक्तियाँ, भौतिक सृष्टि, स्नायविक प्रवाह, जान्तव शक्ति के नाम से ज्ञात सभी शक्तियाँ, विचार तथा अन्य बौद्धिक शक्तियाँ भी विश्वात्म-प्राण की अभिव्यक्तियाँ कही जा सकती हैं। ये प्राण से ही सत्ता-रूप में प्रकट होती हैं और अन्त में प्राण में ही विलीन हो जाती हैं। इस विश्व की प्रत्येक प्रकार की —— शारीरिक अथवा मानसिक शक्ति इस आद्य शक्ति में ही विघटित हो जाती है। अपने किसी-न-किसी रूप में इन दो तत्त्वों के अतिरिक्त कोई भी नवीन पदार्थ नहीं हो सकता। पदार्थ का संरक्षण तथा शक्ति का संरक्षण—ये प्रकृति के दो मौलिक नियम हैं। एक यह सिखलाता है कि विश्व का निर्माण करने वाले आकाश का कुल योग स्थिर है, तो दूसरा सिखलाता है कि विश्व को स्पन्दित करने वाली शक्ति का कुल योग भी स्थिर-परिमाण का है। प्रत्येक कल्प के अन्त में शक्ति के विभिन्न रूप शान्त हो कर प्रच्छन्न हो जाते हैं। इसी भाँति आकाश भी अव्यक्त हो जाता है; किन्तु आगामी कल्प के प्रारम्भ में शक्तियाँ पुनः प्रकट होती हैं। तथा विविध रूपों के उद्विकास के लिए आकाश को प्रभावित करती हैं। आकाश में जब स्थूल अथवा सूक्ष्म विकार होते हैं, तो प्राण में भी तदनुसार स्थूल अथवा सूक्ष्म विकार होते हैं। योगी के लिए मानव शरीर लघु-ब्रह्माण्ड है। उसके लिए उसके शरीर की स्नायु प्रणाली तथा ज्ञानेन्द्रियाँ आकाश के तथा स्नायु प्रवाह और विचार प्रवाह विश्वात्म-प्राण के द्योतक हैं। अतएव उनकी कार्य-प्रणाली के रहस्य को समझना तथा उनको नियन्त्रित करना ही परम ज्ञान तथा विश्व पर विजय प्राप्त करना है।
जिसने इस प्राण को पूर्ण रूप से समझ लिया है, उसने विश्वात्म-जीवन और उसके कार्य-कलाप के हार्द को समझ लिया है। जिसने इस सार-तत्त्व पर विजय तथा नियन्त्रण प्राप्त कर लिया है, उसने न केवल अपने शरीर तथा मन पर, अपितु इस संसार के प्रत्येक शरीर तथा मन पर अधिकार कर लिया है। इस प्रकार प्राणायाम वह साधना है जिससे योगी अपने लघु-शरीर में सम्पूर्ण विश्वात्म-जीवन का साक्षात्कार करने के लिए प्रयत्नशील बनता है तथा विश्व की समस्त शक्तियों को उपलब्ध कर पूर्णता प्राप्ति का प्रयास करता है। उसकी विविध साधनाएँ तथा प्रशिक्षण इस एक लक्ष्य के लिए ही होते हैं।
विलम्ब क्यों करते हैं? विलम्ब करने का अर्थ है—और अधिक दुःखों तथा क्लेशों को भोगना । गति बढ़ायें, काल-रूपी विशाल खाई को पार करने में सफल होने तक कठोर सघर्ष करें। समुचित साधना द्वारा तत्काल, इस शरीर में अभी, इसी क्षण लक्ष्य को प्राप्त करें। हम उस अनन्त ज्ञान, असीम आनन्द, अपरिमित शान्ति तथा अपरिमेय शक्ति को अभी ही क्यों न प्राप्त करें!
इस समस्या का समाधान योग की शिक्षा है। सम्पूर्ण योग-विज्ञान का यह एक दृष्टिकोण है—मनुष्य को संसार-सागर के सन्तरण, शक्ति-संवर्धन, ज्ञान-विकास तथा अमरत्व और नित्यानन्द की प्राप्ति में सक्षम बनाना ।
विषय-सूची
१९. कुण्डलिनी जागरण के लिए प्राणायाम
३७. प्राणायाम का महत्त्व तथा लाभ
प्राणायाम-साधना
प्राणायाम वास्तविक विज्ञान है। यह अष्टांगयोग का चतुर्थ अंग है। पातंजलयोग के द्वितीय अध्याय के ४९ वें सूत्र में प्राणायाम की परिभाषा इस प्रकार की गयी है : "तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणायामः " आसन के स्थिर होने पर श्वास-प्रश्वास की गति का रोकना प्राणायाम है।
श्वास का अर्थ है- नासिका से वायु भीतर खींचना तथा प्रश्वास का अर्थ है - वायु को बाहर छोड़ना । श्वास प्राण की बाह्य अभिव्यक्ति है। श्वास विद्युत् की भाँति ही स्थूल प्राण है। श्वास स्थूल है। प्राण सूक्ष्म है। श्वास पर नियन्त्रण के द्वारा आप आन्तरिक सूक्ष्म प्राण पर नियन्त्रण कर सकते हैं। प्राण को वश में करने का अर्थ है—मन को वश में करना। प्राण की सहायता के बिना मन काम नहीं कर सकता। प्राण के ही स्पन्दन मन में विचार उत्पन्न करते हैं। प्राण ही मन को गतिशील करता है। प्राण ही मन को चलायमान करता है। सूक्ष्म प्राण का मन के साथ गहरा सम्बन्ध है। प्राण मन का ओवरकोट है। श्वास यन्त्र के महत्त्वपूर्ण गति - पालक-चक्र का प्रतीक है। जैसे यन्त्र - चालक जब गति पालक चक्र को रोक देता है तो दूसरे चक्र रुक जाते हैं, वैसे ही जब योगी श्वास को रोक देता है तो अन्य अंग कार्य करना बन्द कर देते हैं। यदि आप गति पालक-चक्र पर नियन्त्रण कर सकते - हैं, तो आप अन्य चक्रों पर सहज ही नियन्त्रण कर सकते हैं। इसी भाँति यदि आप बाह्य श्वास पर नियन्त्रण कर सकते हैं, तो प्राण पर सहज ही नियन्त्रण कर सकते हैं। बाह्य श्वास के नियमन द्वारा प्राण को वश में करने की जो प्रक्रिया है, उसे ही प्राणायाम कहते हैं।
जिस भाँति स्वर्णकार स्वर्ण को गरम भट्टी में तपा कर, धौंकनी को जोरों से धौंक कर उसके मल को दूर करता है, उसी भाँति योग का साधक अपने फुप्फुसों को धौंक कर अर्थात् प्राणायाम के व्यवहार द्वारा अपने शरीर तथा इन्द्रियों की मलिनताओं का निवारण करता है।
प्राणायाम का मुख्य उद्देश्य है प्राण तथा अपान को संयुक्त करना तथा इस संयुक्त प्राण-अपान को शनैः-शनैः शिर की ओर ले जाना । प्राणायाम का फल है उद्घाटन अथवा प्रसुप्त कुण्डलिनी का जागरण ।
"जो प्राण को जानता है, वह वेदों को जानता है", श्रुतियों की यह घोषणा है। आप वेदान्त-सूत्र में पायेंगे - "इसी कारण से प्राण ब्रह्म है। " प्राण विश्व में अभिव्यक्त सभी शक्तियों का कुल योग है। यह प्रकृति की सारी शक्तियों का कुल योग है। यह मनुष्य में प्रच्छन्न तथा हमारे चतुर्दिक् सर्वत्र स्थित सभी शक्तियों का कुल योग है। ताप, प्रकाश, विद्युत्, चुम्बकत्व - ये सभी प्राण की ही अभिव्यक्तियाँ हैं। सारी शक्तियाँ, सारे बल तथा यह प्राण एक ही स्रोत 'आत्मा' से उद्भूत है। सारी भौतिक शक्तियाँ, सारी मानसिक शक्तियाँ प्राण की श्रेणी में आती हैं। यह वह शक्ति है जो हमारी सत्ता के उच्चतम से निम्नतम तक प्रत्येक तल में विद्यमान है। जो कुछ भी गतिशील अथवा कार्यशील है अथवा जिसमें जीवन है, वह इसी प्राण की ही अभिव्यक्ति अथवा प्रकटीकरण है। आकाश भी प्राण की ही अभिव्यक्ति है। प्राण का सम्बन्ध मन से तथा मन के द्वारा संकल्प शक्ति से और संकल्प-शक्ति के द्वारा आत्मा से तथा आत्मा के द्वारा परमात्मा से है। यदि आप मन से हो कर कार्य करने वाली प्राण की लघु लहरियों को दमन करना जान लें, तो आपको वैश्व प्राण को वश में करने का रहस्य मालूम हो जायेगा। इस रहस्य को जानने वाले योगी को किसी भी शक्ति से भय नहीं होता; क्योंकि वह विश्व में शक्ति की सभी अभिव्यक्तियों पर अपना आधिपत्य जमा लेता है। साधारणतः जिसे व्यक्तित्व की शक्ति कहते हैं, वह उस व्यक्ति में प्राण पर शासन करने की स्वाभाविक क्षमता के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है। कुछ व्यक्ति दूसरों की अपेक्षा जीवन में अधिक सफल, अधिक प्रभावशाली तथा अधिक आकर्षक होते हैं। यह इस प्राण की शक्ति के कारण ही है। ऐसे लोग अनजानते ही प्रतिदिन उस प्रभाव से कार्य लेते हैं जिसे योगी जन जानते हुए अपनी संकल्प-शक्ति के द्वारा प्रयोग करते हैं। कुछ ऐसे भी हैं जो संयोगवश इस प्राण को अनजानते ही कुछ अंश में प्राप्त कर लेते हैं तथा मिथ्या नाम से इसे निम्न उद्देश्यों की पूर्ति का साधन बना लेते हैं। हृदय के प्रकुंचन तथा प्रसारण, धमनियों में रुधिर का संचरण, श्वास-प्रश्वास की क्रिया, भोजन के पाचन, मलमूत्र निष्कासन, वीर्य, वसा-लसीका, अम्लान्न, आमाशय रस, पित्त, पक्वाशय-रस, लार के निर्माण, आँखों की पलकों का गिरना तथा उठना, टहलना, खेलना, दौड़ना, बोलना, सोचना, तर्क करना, अनुभव करना, संकल्प करना — इन सबमें प्राण के ही कार्यों के दर्शन होते हैं। प्राण ही सूक्ष्म तथा स्थूल शरीर के बीच सम्बन्ध स्थापित करता है। जब सूत्रवत् सूक्ष्म प्राण को काट दिया जाता है, तब सूक्ष्म शरीर इस भौतिक शरीर से अलग हो जाता है। मृत्यु आ धमकती है। जो प्राण भौतिक शरीर में कार्य कर रहा था, वह सिमट कर सूक्ष्म शरीर में आ जाता है।
यह प्राण महाप्रलय के समय सूक्ष्म, स्थिर, अव्यक्त तथा अभिन्न अवस्था में रहता है। जब स्पन्दन प्रारम्भ होता है, तब प्राण गतिशील हो कर आकाश पर प्रभाव डालता है और विभिन्न रूपों का निर्माण करता है। ये ब्रह्माण्ड तथा पिण्डाण्ड इसी प्राण (ऊर्जा) तथा आकाश (द्रव्य) के संयोग से बने हैं।
जो ट्रेन तथा स्टीमर के यन्त्रों को गतिशील करता है, जो वायुयान को आकाश में संचालित करता है, जो फेफड़ों में श्वास का संचार करता है, जो इस श्वास का भी जीवन है, वह यह प्राण ही है। मैं समझता हूँ कि आपको प्राण के विषय में व्यापक ज्ञान प्राप्त हो गया होगा। प्रारम्भ में आप इस प्राण के विषय में बहुत ही अस्पष्ट ज्ञान रखते थे।
श्वास- क्रिया को वश में ला कर आप शरीर की विभिन्न गतियों तथा शरीर में प्रवाहित होने वाले विभिन्न स्नायु प्रवाहों पर कुशलतापूर्वक विजय प्राप्त कर सकते हैं। आप प्राणायाम के द्वारा शरीर, मन तथा आत्मा पर शीघ्र तथा सहज निग्रह स्थापित कर उनको विकसित कर सकते हैं। प्राणायाम के द्वारा आप अपनी परिस्थितियों तथा चरित्र पर नियन्त्रण ला कर व्यष्टि जीवन का समष्टि जीवन के साथ ज्ञानपूर्वक मेल साध सकते हैं।
संकल्प शक्ति से नियन्त्रित विचार के द्वारा संचालित श्वास वह - प्राणप्रद, नवजीवनदायिनी शक्ति है जिसे आप आत्म-विकास के लिए लगा सकते हैं। अपने शरीर की असाध्य बीमारियों को भी उसके उपयोग से दूर कर सकते हैं। दूसरों के रोगों का भी निदान कर सकते हैं तथा अन्य विविध उपयोगी कार्यों में उस शक्ति को लगा सकते हैं।
आप जीवन के प्रत्येक क्षण में सुगमतया इसे प्राप्त कर सकते हैं। यह आपकी पहुँच के अन्दर है। इसका बुद्धिमानीपूर्वक उपयोग कीजिए। प्राचीन काल में श्री ज्ञानदेव, त्रिलिंग स्वामी, बडालूर के रामलिंग स्वामी तथा अन्य योगियों ने इस प्राण-शक्ति को विभिन्न रूप से सदुपयोग में लाया था। यदि आप निर्धारित श्वास- व्यायाम के द्वारा प्राणायाम का अभ्यास करें, तो आप भी वैसा ही कर सकते हैं। आप वायु नहीं, वरन् प्राण को ही श्वास द्वारा खींच रहे हैं। स्थिर एवं एकाग्र मन से धीरे-धीरे शान्तिपूर्वक श्वास लीजिए। जितनी देर आसानी से हो सके, उसको रोके रखिए। तब धीरे-धीरे श्वास को बाहर निकालिए। प्राणायाम की किसी भी अवस्था में जरा भी तनाव अथवा श्रम नहीं होना चाहिए। श्वास में जो सूक्ष्म शक्तियाँ अन्तर्निहित हैं, उनको प्राप्त कीजिए। योगी बनिए तथा आनन्द, ज्योति एवं शक्ति को अपने चतुर्दिक् विकीर्ण कीजिए ।
प्राणवादियों की मान्यता है कि प्राण तत्त्व मनस्तत्त्व से भी बड़ा है। उनका कहना है कि सुषुप्ति में जब मन नहीं रहता, तब भी प्राण रहता है। अतः प्राण का महत्त्व मन से भी अधिक है। यदि आप कौषीतकी तथा छान्दोग्य उपनिषद् के दृष्टान्तों को पढ़ेंगे, जहाँ इन्द्रिय, मन तथा प्राण आपस में अपना बड़प्पन सिद्ध करने के लिए झगड़ते हैं, तो आपको प्राण की सर्वश्रेष्ठता मालूम होगी। प्राण ही श्रेष्ठ है; क्योंकि यह गर्भावस्था से ही शिशु में काम करना प्रारम्भ कर देता है। उसके विपरीत श्रोत्र आदि इन्द्रिय बाद में जब उनके स्थानों का (कान इत्यादि का) निर्माण हो जाता है, तब कार्य करने लगते हैं। प्राण को उपनिषदों में ज्येष्ठ तथा श्रेष्ठ कहा गया है। सूक्ष्म प्राण के स्पन्दन से ही मन, संकल्प आदि का अस्तित्व टिका हुआ है तथा वृत्तियों एवं विचारों का निर्माण होता है। आप देखते हैं, सुनते हैं, सोचते हैं, अनुभव करते हैं, संकल्प करते हैं, जानते हैं आदि। यह सब प्राण की सहायता से ही सम्भव है। अतः श्रुति कहती है- "प्राण ही ब्रह्म है।"
प्राण का स्थान हृदय है। यद्यपि अन्तःकरण एक ही है, फिर भी उसके चार रूप हैं : (१) मन, (२) बुद्धि, (३) चित्त तथा (४) अहंकार। उसी तरह प्राण भी एक ही है; परन्तु कार्य के अनुसार इसके पाँच रूप हैं : (१) प्राण, (२) अपान, (३) समान, (४) उदान तथा (५) व्यान। इसे वृत्ति-भेद कहते हैं। प्रधान प्राण मुख्य प्राण कहलाता है। अहंकार के साथ युक्त प्राण हृदय में निवास करता है। इन पाँचों में प्राण तथा अपान ही महत्त्वपूर्ण कार्य करते हैं।
प्राण का स्थान हृदय है, अपान का स्थान गुदा है, समान का स्थान नाभि है, उदान का कण्ठ है तथा व्यान सारे शरीर में व्याप्त है।
नाग, कूर्म, कुकर, देवदत्त तथा धनंजय —ये पाँच उप-प्राण हैं। प्राण का कार्य है श्वास-क्रिया, अपान का कार्य है मल निष्कासन, समान का कार्य है पाचन, तथा उदान का कार्य है भोजन निगलना। उदान जीव को सुषुप्ति-अवस्था में ले जाता है। यह मृत्यु के समय सूक्ष्म शरीर को स्थूल शरीर से अलग करता है। व्यान रुधिर-संचार करता
नाग से डकार तथा खाँसी आती है। कूर्म आँखें खोलने का कार्य करता है। कृकर के द्वारा भूख-प्यास लगती है। देवदत्त जम्हाई लेने का कार्य करता है। धनंजय मृत्यु के उपरान्त शरीर को विघटित करता है। जिस मनुष्य का प्राण ब्रह्मरन्ध्र का भेदन कर शिर से हो कर बाहर निकलता है, वह पुनः जन्म नहीं लेता।
प्राण रक्त, लाल मणि अथवा प्रवाल के वर्ण का होता है। अपान मध्य में है और उसका रंग इन्द्रगोप के समान है। समान का रंग प्राण तथा अपान—दोनों के बीच का है। यह रंग शुद्ध दूध या स्फटिक के समान धवल और स्नेहयुक्त एवं चमकीले रंग के बीच का है। उदान का रंग धूमिल धवल तथा व्यान का ज्योति-किरण के समान है।
इस वायु शरीर का परिमाण ९६ अंगुल (६ फीट) है। श्वास छोड़ते समय उसकी साधारण लम्बाई १२ अंगुल (९ इंच) की, गाते समय लम्बाई १६ अंगुल (१ फुट) की, खाते समय वह २० अंगुल (१५ इंच) की, सोते समय ३० अंगुल (२२.५ इंच) की तथा मैथुन के समय ३६ अंगुल (२७ इंच) की होती है। शारीरिक व्यायाम के समय उससे भी बहुत अधिक की हो जाती है। प्रश्वास के वायु प्रवाह की लम्बाई को ९ इंच से भी कम करने से आयु की वृद्धि होती है तथा इसकी लम्बाई की वृद्धि होने से आयु घटती है।
बाहर से प्राण को नासिका द्वारा खींच कर तथा उससे पेट को भरते हुए प्राण तथा उसके साथ मन को नाभि के मध्य में, नासिका के अग्र भाग में तथा पैर की उँगलियों में सन्ध्या के समय अथवा सर्वदा केन्द्रित किये रखिए। इससे योगी सभी रोगों तथा थकावटों से मुक्त हो जाता है। प्राण को नासिकाग्र पर केन्द्रित करने से वह वायु तत्त्व पर विजय पा लेता है, नाभि के मध्य में केन्द्रित करने से सारे रोग नष्ट हो जाते हैं और पादांगुलियों पर केन्द्रित करने से शरीर हलका बन जाता है। जो जिह्वा से वायु पीता है, वह थकावट, प्यास तथा अन्य बहुत-सी व्याधियों को दूर कर पाता है। जो दोनों सन्ध्याओं के समय तथा रात्रि के पिछले दो घण्टे मुँह से वायु पीता है, तीन महीने के अन्दर उसके वाक् में सरस्वती विराजती हैं तथा वह विद्वान् तथा सुवक्ता बन जाता है। छह महीने में वह सारे रोगों से मुक्त हो जाता है। जिह्वा मूल से वायु-पान करते हुए ज्ञानी मनुष्य अमृत पान के द्वारा सारे ऐश्वर्यों का उपभोग करता है।
यहाँ फेफड़ों तथा उनके काम के विषय में कुछ शब्द लिखना असंगत न होगा। श्वास-प्रणाली में छाती की दायीं तथा बायीं ओर दो फेफड़े तथा उन तक जाने वाली वायु-नलिकाएँ हैं। ये दोनों फेफड़े छाती के ऊपरी वक्ष रन्ध्र में स्थित हैं। वे मध्यम रेखा के दोनों ओर हैं, एक दायी ओर तथा दूसरा बायीं ओर। दोनों फेफड़े हृदय, बड़ी शिराओं तथा वायु नलिकाओं द्वारा एक-दूसरे से अलग हैं। फेफड़े स्पंज की भाँति छिद्रमय हैं तथा उनके ऊतक बहुत ही लचकीले हैं। फेफड़े में अनेकानेक वायु-कोष हैं जो वायु से भरे रहते हैं। शव परीक्षा के अनन्तर फेफड़ों को जब जल-पात्र में रखा जाता है, तो वे तैरने लगते हैं। ये फेफड़े एक कोमल लसी-कला से आवृत हैं जिसे फुप्फुसावरण कहते हैं। इस फुप्फुसावरण के भीतर एक प्रकार का लसी-द्रव रहता है। जो फेफड़ों की श्वास-क्रिया के समय घर्षण से रक्षा करता है। फुप्फुसावरण का एक भाग फेफड़े और दूसरा भाग छाती की भीतरी दीवाल से सटा हुआ है। इस फुप्फुसावरण के द्वारा फेफड़े छाती की दीवाल से आबद्ध हैं। दाहिने फेफड़े में तीन खण्ड हैं तथा बायें में दो खण्ड । हर फेफड़े में एक आधार है तथा एक शीर्ष है। आधार मध्य पट, पेशीय पटी की ओर जो कण्ठ तथा उदर का विभाजक है, निर्देशित है। शीर्ष ऊपर की ओर ग्रीवा - मूल के निकट है। न्यूमोनिया में आधार ही सूज जाता है। फेफड़े के शीर्ष भाग को पर्याप्त ओषजन (आक्सीजन) न मिलने से यक्ष्मा का शिकार बनना पड़ता है। यह टी.बी. के कीटाणुओं के लिए अनुकूल नीड़ अथवा प्रजनन क्षेत्र बन जाता है। कपालभाति और भस्त्रिका प्राणायाम तथा अन्य प्राणायामों के अभ्यास से इन शीर्षों को पर्याप्त ओषजन (आक्सीजन) मिल जाता है। फल-स्वरूप टी.बी. (क्षय रोग) नहीं होता। प्राणायाम से फेफड़ों का विकास होता है। जो प्राणायाम का अभ्यास करता है, उसकी वाणी शक्तिशाली, मधुर तथा सुरीली होती है।
वायुमार्ग में नाक का आन्तरिक भाग, ग्रसनी या कण्ठ, स्वर-यन्त्र या वायु-मंजूषा या ध्वनि-पेटी जिसमें दो स्वर-तन्त्री हैं, श्वास-नाल, श्वास प्रणाल या दाहिनी तथा बायीं श्वास नलिकाएँ तथा छोटी श्वास नली हैं। श्वास लेते समय हम नासिका से वायु खींचते हैं। तदनन्तर - वायु ग्रसनी तथा स्वर-यन्त्र से हो कर श्वास-प्रणाल या श्वास-नाल में जाती है। वहाँ से वह दाहिनी तथा बायीं श्वास नलियों में जाती है। तदुपरान्त वह अनेकानेक श्वास नलियों से हो कर अन्त में फेफड़े के छोटे-छोटे वायुकोषों में प्रवेश करती है। फेफड़ों में ये वायु कोष करोड़ों की संख्या में हैं। यदि फेफड़ों के वायु-कोषों को किसी समतल स्थान में फैलाया जाये, तो उनसे १,४०,००० वर्ग फीट का क्षेत्र ढक जायेगा।
उरः प्राचीर के कार्य से वायु फेफड़े में प्रवेश करती है। इसके फैलने पर छाती तथा फेफड़े का आकार बढ़ जाता है। इस प्रकार से सृष्ट शून्य स्थान को भरने के लिए बाह्य वायु झट भीतर प्रवेश करती है। उरःप्राचीर के शिथिल होने पर छाती तथा फेफड़े सिकुड़ते हैं और फेफड़ों से वायु निष्कासित हो जाती है।
स्वर - यन्त्र में स्थित स्वर-तन्त्रियों से ध्वनि उत्पन्न होती है। जब अत्यधिक गायन अथवा भाषण द्वारा अधिक तनाव पड़ने से ये स्वर - तन्त्रियाँ प्रभावित होती हैं, तो स्वर फट जाता है। स्त्रियों में ये तन्त्रियों छोटी होती हैं; अतः उनकी वाणी मधुर तथा सुरीली होती है। साधारणतः प्रति मिनट १६ बार श्वास लेते तथा छोड़ते हैं। न्यूमोनिया में यह संख्या बढ़ कर प्रति मिनट ६०, ७०, ८० हो जाती है। दमा में श्वास नलियाँ अनियमित हो जाती हैं। वे सिकुड़ती है; अतः श्वास लेने में कठिनाई होती है। प्राणायाम से इन नलिकाओं का अति-संकुचन या संकीर्णन दूर हो जाता है। स्वर-यन्त्र का ऊपरी भाग एक छोटे झिल्लीमय चिपटे ढक्कन से ढका होता है जिसे कण्ठपिधान कहते हैं। यह खाद्य-पदार्थ तथा जल को श्वसन मार्ग में प्रवेश करने से रोकता है। यह सुरक्षा-कपाट का काम करता है।
जब भोजन का एक कण भी श्वास-मार्ग में प्रवेश करने लगता है, तो तुरन्त खाँसी आ जाती है तथा वह कण बाहर फेंक दिया जाता है।
फेफड़े रुधिर को शुद्ध करते हैं। रुधिर दीप्त रक्त वर्ण तथा प्राणदायक गुणों तथा धर्मों से समृद्ध हो कर अपनी धमनीय यात्रा प्रारम्भ करता है। वह जब शिरीय मार्ग से लौटता है, तब विगुण, विवर्ण तथा शरीर के अपशिष्ट द्रव्यों से भाराक्रान्त रहता है। धमनियाँ वे रक्त नलिकाएँ हैं जिनसे हो कर शुद्ध ओषजनित रुधिर हृदय से शरीर के विभिन्न भागों को जाता है। शिराएँ वे नलिकाएँ हैं जो शरीर के विभिन्न भागों से दूषित रुधिर को लौटा लाती हैं। हृदय के दाहिने भाग में शिरा से प्राप्त दूषित रुधिर रहता है। हृदय के दाहिने भाग से यह दूषित रुधिर फेफड़ों में शुद्ध बनने के लिए जाता है। यह फेफड़ों के करोड़ों छोटे-छोटे वायु-कोषों में वितरित हो जाता है। हम श्वास लेते हैं। और वायु का ओषजन फेफड़े की केशवत् रुधिर-वाहिनियों की पतली दीवाल से हो कर दूषित रुधिर के सम्पर्क में आता है। इन रुधिर-वाहिनियों, जिन्हें फुप्फुसीय केशिकाएँ कहते हैं, की दीवालें बहुत ही पतली हैं। वे मलमल या छलनी की तरह हैं। इससे रुधिर सहज ही टपक कर या निःस्रवण हो कर बाहर आता है। ओषजन इन पतली कोशिकाओं की दीवाल से भीतर चला जाता है। ओषजन अब ऊतकों के सम्पर्क में आता है। यहाँ एक प्रकार की दहन क्रिया होती है।
रुधिर ओषजन को ग्रहण कर प्रांगारिक अम्ल वाति को छोड़ता है। प्रांगारिक अम्ल वाति अपशिष्ट उत्पाद तथा विषाक्त पदार्थ से उत्पन्न होता है जिसे रुधिर शरीर के सभी अंगों से एकत्रित करता है। यह शुद्ध रुधिर चार फुप्फुसीय शिराओं से बायें हृदयालिन्द में और वहाँ से बायें हृद्वेश्म में जाता है। यहाँ से रुधिर बड़ी धमनी में जाता है। इस महाधमनी के द्वारा वह शरीर की विभिन्न धमनियों में संचरित होता है। ऐसा अनुमान किया गया है कि एक दिन में ३५,००० पिण्ट रुधिर फेफड़ों में शुद्ध बनने के लिए केशिकाओं द्वारा भेजा जाता है।
धमनियों से शुद्ध रुधिर पतली केशिकाओं में जाता है। केशिकाओं से हो कर रुधिर का लसीका स्रवित हो कर शरीर के ऊतकों को नहलाता तथा परिपोषित करता है। ऊतकों में ऊतक श्वास-क्रिया होती है। ऊतक ओषजन को ग्रहण करते तथा कार्बन डाई आक्साइड को छोड़ देते हैं। मल-पदार्थ शिराओं से हो कर हृदय से दाहिने भाग में जा पहुँचता है।
इस सूक्ष्म संरचना का निर्माता कौन है? इन अंगों के पीछे क्या आप ईश्वर के अदृश्य हाथ का भान कर रहे हैं? इस शरीर की रचना निःसन्देह ईश्वर की सर्वज्ञता की परिचायक है। हमारे हृदयों का अन्तर्यामी द्रष्टा के रूप में आन्तरिक उद्योगशाला के कार्यों का निरीक्षण करता है। उसकी उपस्थिति के बिना हृदय साध को धमनियों में भेज नहीं सकता तथा फेफड़े रुधिर-शोधन के कार्य को नहीं कर सकते। प्रार्थना कीजिए। उस प्रभु को मौन श्रद्धांजलि अर्पित कीजिए। सदा-सर्वदा उसकी याद बनाये रखिए। अपने शरीर के सभी कोशों में उसकी उपस्थिति का भान कीजिए।
मेरुरज्जु के दोनों ओर दो नाड़ियाँ हैं। बायीं नाड़ी को इडा कहते हैं। तथा दाहिनी पिंगला कहलाती है। कुछ इन्हें वाम तथा दक्षिण अनुसंवेदी रज्जु मानते हैं; परन्तु वास्तव में ये सूक्ष्म नलिकाएँ हैं जिनसे प्राण संचरित होता है। चन्द्रमा इडा में तथा सूर्य पिंगला में संचरित होता है। इडा शीत लाती है। पिंगला उष्णता लाती है। इडा बायीं नासिका से तथा पिंगला दाहिनी नासिका से बहती है। श्वास एक घण्टा दाहिनी नासिका से तथा एक घण्टा बायीं नासिका से चलती है। इडा तथा पिंगला से जब श्वास चलती है, तब मनुष्य सांसारिक कार्यों में ग्रस्त रहता है । सुषुम्ना के कार्यशील होने पर वह जगत् के लिए मृतवत् हो जाता है। वह समाधि में प्रवेश करता है। योगी प्राण को सुषुम्ना नाड़ी से प्रवाहित करने का यथाशक्य प्रयत्न करता है। सुषुम्ना नाड़ी को ब्रह्म - नाड़ी भी कहते हैं। सुषुम्ना की बायीं ओर इडा है। तथा दाहिनी ओर पिंगला । चन्द्रमा तमोगुणी तथा सूर्य रजोगुणी है। विष सूर्य का तथा अमृत चन्द्रमा का भाग है। इडा तथा पिंगला समय (काल) परिलक्षित करती हैं। सुषुम्ना काल का भक्षण करती है।
सुषुम्ना सभी नाड़ियों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। यह विश्व की पालिका तथा संसार-गति तथा मुक्ति-पथ है। यह गुदा के पीछे स्थित है। यह मेरुदण्ड से संलग्न है तथा यह शिर में ब्रह्मरन्ध्र को जाती है। यह अदृश्य तथा सूक्ष्म है। सुषुम्ना के कार्यशील होने पर योगी के वास्तविक कार्य का प्रारम्भ होता है । सुषुम्ना मेरुरज्जु अथवा मेरुदण्ड के मध्य से हो कर जाती है। जननेन्द्रिय से ऊपर तथा नाभि से नीचे कन्द है जो अण्डे के आकार का है। यहाँ से सभी ७२,००० नाड़ियाँ निकलती हैं। इनमें ७२ सामान्य तथा साधारणतः ज्ञात हैं। इनमें भी दश प्रमुख हैं जो प्राणवाहिनी हैं। इनके नाम हैं—इडा, पिंगला, सुषुम्ना, गान्धारी, हस्तजिह्वा, पूषा, यशस्विनी, अलम्बुषा, कुहू तथा शंखिनी । योगियों को नाड़ियों तथा चक्रों का ज्ञान होना चाहिए। इडा पिंगला तथा सुषुम्ना प्राणप्रवाहिनी हैं तथा इनके देवता क्रमशः चन्द्रमा, सूर्य तथा अग्नि हैं। जब प्राण सुषुम्ना में संचरित हो, तो ध्यान के लिए बैठ जाइए। आप गम्भीर ध्यान में प्रवेश करेंगे। यदि कुण्डलिनी शक्ति सुषुम्ना नाड़ी से संचरित हो तथा उसे क्रमशः एक-एक कर चक्रों से हो कर ऊपर ले जाया जाये, तो योगी विभिन्न प्रकार के अनुभवों, शक्तियों तथा आनन्द को प्राप्त करता है।
कुण्डलिनी सर्प-शक्ति अथवा प्रसुप्त शक्ति है। इसके साढ़े तीन कुण्डल हैं तथा मुख नीचे की ओर मेरुदण्ड के आधार मूलाधार चक्र में है। इसके जागरण के बिना समाधि की प्राप्ति सम्भव नहीं है।
प्राणायाम में कुम्भक के अभ्यास से गरमी उत्पन्न होती है तथा उससे कुण्डलिनी जाग्रत हो कर सुषुम्ना नाड़ी से ऊपर की ओर जाती है। यौगिक साधक तरह-तरह के दर्शनों का अनुभव करता है। कुण्डलिनी छह चक्रों से गुजरती हुई अन्ततः सहस्रार अथवा शिर के सहस्रदलपद्य में स्थित भगवान् शिव से मिल जाती है। अब निर्विकल्प समाधि की प्राप्ति होती है तथा योगी को मोक्ष और सभी ईश्वरीय ऐश्वर्य प्राप्त होते हैं। व्यक्ति को धारणा के साथ (मन की एकाग्रता के साथ) प्राणायाम का अभ्यास करना चाहिए। जाग्रत कुण्डलिनी, जिसे मणिपूरक चक्र को ले जाते हैं, पुनः गिर कर मूलाधार को लौट सकती है। इसे पुनः प्रयत्नपूर्वक उठाना चाहिए। साधक को पूर्णतः निष्काम तथा वैराग्य से पूर्ण हो कर ही कुण्डलिनी जगाने का प्रयत्न करना चाहिए। कुण्डलिनी सूत्र के समान है तथा भास्वर है। जाग्रत होने पर यह डण्डे से मारे गये सर्प के समान फूत्कार करती है तथा शीघ्र ही सुषुम्ना-विवर में प्रवेश कर जाती है। जब यह एक चक्र से दूसरे चक्र को गमन करती है, तो मन की परतें एक-एक करके खुलती जाती हैं तथा योगी को विभिन्न सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं।
चक्र आध्यात्मिक शक्ति के केन्द्र हैं। ये सूक्ष्म शरीर में स्थित हैं; परन्तु भौतिक शरीर में भी इनके तदनुकूल केन्द्र हैं। इन चक्रों को खाली आँखों से नहीं देखा जा सकता है। केवल अतीन्द्रियदर्शी ही अपने सूक्ष्म नेत्रों से इन्हें देख सकता है। छह मुख्य चक्र हैं : मूलाधार (चार दल) गुदा में, स्वाधिष्ठान (छह दल) जननेन्द्रिय के स्थान पर, मणिपूरक (दश दल) नाभि में, अनाहत (बारह दल) हृदय में, विशुद्ध (सोलह दल) कण्ठ में तथा आज्ञा (दो दल) दोनों भौंहों के बीच में है। सातवें चक्र को सहस्रार कहते हैं जिसमें सहस्र दल हैं। यह शिर की चोटी में स्थित है। इन चक्रों के तदनुरूप भौतिक केन्द्र हैं जिनमें Sacral Plexus मूलाधार का, Prostatic Plexus स्वाधिष्ठान का, Solar Plexus मणिपूरक का, Cariac Plexus अनाहत का. Laryngal Plexus विशुद्ध का तथा Cavernous Plexus आज्ञाचक्र का तदनुरूप कहते हैं।
नाड़ियाँ सूक्ष्म तत्त्वों से निर्मित सूक्ष्म नलिकाएँ हैं जिनसे प्राणों का संचार होता है। उन्हें सूक्ष्म नेत्रों से ही देख सकते हैं। वे स्नायु नहीं हैं, उनकी संख्या ७२,००० है। इडा, पिंगला तथा सुषुम्ना इनमें मुख्य हैं। सुषुम्ना इनमें सबसे मुख्य है।
प्राण तथा अपान के योग को प्राणायाम कहते हैं। इसके तीन भेद हैं—रेचक, पूरक तथा कुम्भक। प्राणायाम को ठीक-ठीक करने के लिए इन्हें संस्कृत अक्षरों से सम्बन्धित करते हैं। प्रणव (ॐ) ही प्राणायाम कहलाता है। पद्मासन में बैठ कर मनुष्य को नासिकाग्र में गायत्री देवी पर ध्यान करना चाहिए जो लाल वर्ण वाली बालिका के रूप में अनेकानेक चन्द्र-किरणों से आवृत, हंस पर आसीन, हाथ में गदा लिये हैं। वे 'अ' अक्षर की प्रतीक हैं। 'उ' अक्षर सावित्री का प्रतीक है जो गरुड़ पर आसीन, हाथ में चक्र लिये हुए श्वेत वर्ण की युवती हैं। 'म' अक्षर के लिए सरस्वती प्रतीक हैं जो कृष्ण वर्ण की वृद्धा स्त्री, साँड पर सवार तथा त्रिशूल धारण मे किये हुए हैं। साधक इस तरह ध्यान करे कि एकाक्षर परम ज्योति प्रणव ॐ ही इन तीनों 'अ', 'उ' तथा 'म' का मूल है। सोलह मात्रा तक बायीं नासिका द्वारा इडा से वायु को खींचते समय वह 'अ' पर ध्यान करे, ६४ मात्रा तक वह उस खींची वायु को रोकते हुए अक्षर 'उ' पर ध्यान करे। तब वह इस वायु का प्रश्वास १२ मात्रा तक करे तथा इस समय 'म' अक्षर पर ध्यान करे। इसी उपर्युक्त क्रम से वह बारम्बार प्राणायाम का अभ्यास करे।
आसन में दृढ़ता पा कर तथा आत्मसंयम का पूर्णतः पालन करते हुए योगी को सुषुम्ना की शुद्धि के लिए पद्मासन में बैठना चाहिए तथा बायीं नासिका से वायु खींच कर, जब तक हो सके, उसको रोके तथा दाहिनी नासिका से उसे धीरे-धीरे निकाल दे। तब वह पुनः दाहिनी नासिका से श्वास खींच कर, उसको रोक कर बायीं नासिका से निकाल दे। जिस नासिका से वह पूर्व-प्रश्वास करे, उसी से श्वास खींचे। पुनः इसी क्रम को करता रहे। जो इस प्रकार दाहिनी तथा बायीं नासिका से क्रमशः प्राणायाम का अभ्यास करते हैं, उनकी नाड़ियाँ तीन महीने के अन्दर शुद्ध हो जाती हैं। वह सूर्योदय, मध्याह्न, सूर्यास्त तथा अर्धरात्रि के समय चार बार प्राण-निरोध का अभ्यास करे। शनैः-शनैः दिन में अस्सी बार वह चार सप्ताह तक करता रहे। प्रारम्भावस्था में पसीना निकलता है, मध्यम अवस्था में शरीर -कम्प होता है तथा अन्तिम अवस्था में शरीर वायु में उत्थित होता है। ये परिणाम पद्मासन में बैठ कर श्वास रोकने से प्राप्त होते हैं। प्रयत्न करने पर पसीना निकलने से अपने शरीर को अच्छी तरह रगड़ना चाहिए। इससे शरीर दृढ़ तथा हलका बन जाता है। साधना के प्रारम्भ में दूध तथा घी से युक्त भोजन उत्तम है। इस नियम के पालन से मनुष्य को अभ्यास में दृढ़ता मिलती है तथा शरीर में ताप (जलन) नहीं होता। जिस तरह सिंह, हाथी, व्याघ्र को शनैः-शनैः पालतू बनाते हैं, उसी तरह प्राण भी प्रयत्नपूर्वक वश में हो जाता है।
प्राणायाम के अभ्यास से नाड़ियों की शुद्धि होती है, जठराग्नि प्रदीप्त होती है, सुन्दर स्वास्थ्य मिलता है तथा अनाहत नाद का श्रवण होता है। प्राणायाम के नियमित अभ्यास से जब नाड़ी केन्द्र शुद्ध हो जाते हैं, तब प्राण मध्य में स्थित सुषुम्ना के मुख से सुगमतापूर्वक प्रवेश करता है। ग्रीवा की मांस-पेशियों को आकुंचित कर तथा गुदा के आकुंचन से अपान को खींच कर प्राण को मध्य में सुषुम्ना में संचरित करते हैं। सुषुम्ना नाड़ी इडा तथा पिंगला के मध्य में है। प्राण साधारणतः इडा तथा पिंगला में बारी-बारी से संचरित होता रहता है। दीर्घ कुम्भक के द्वारा इसका दमन करते हैं तथा यह अपने परिचर आत्मा के साथ मध्यम नाड़ी सुषुम्ना में प्रवेश करता है। इसके प्रवेश से योगी समाधि अवस्था को प्राप्त कर जगत् से मृतवत् हो जाता है। अपान को ऊपर खींच कर तथा प्राण को कण्ठ से नीचे धकेल कर, योगी वृद्धावस्था से मुक्त हो कर सोलह वर्ष का युवक बन जाता है। प्राणायाम के अभ्यास से असाध्य बीमारियाँ जो एलोपैथिक, होमियोपैथिक, आयुर्वेदिक तथा यूनानी औषधियों से अच्छी नहीं होतीं, अच्छी हो जाती हैं।
नाड़ियों के शुद्ध हो जाने पर योगी के शरीर में कुछ बाह्य लक्षण प्रकट होते हैं। शरीर का हलकापन, वर्ण में चमक (कान्ति), जठराग्नि बढ़ना, शरीर की कृशता तथा शरीर में अशान्ति का अभाव — ये लक्षण हैं। ये शुद्धता के परिचायक हैं।
जिनका शरीर स्थूल तथा कफ-प्रधान है, उन्हें प्राणायाम के अभ्यास के लिए अपने को तैयार करने से पहले छह क्रियाओं का अभ्यास करना चाहिए। तब उनको प्राणायाम में सुगमतया सफलता मिलेगी। ये छह क्रियाएँ हैं : (१) धौति, (२) वस्ति, (३) नेति, (४) त्राटक, (५) नौलि तथा (६) कपालभाति ।
चार अंगुल चौड़ा तथा पन्दरह फीट लम्बा मलमल का एक स्वच्छ टुकड़ा लीजिए। उसे गुनगुने जल में भिगो दीजिए। उस टुकड़े के सारे किनारे अच्छी तरह सिले होने चाहिए जिससे कहीं भी धागा ढीला हो कर लटकता न रहे। तब शनैः-शनैः इसे निगलिए तथा पुनः बाहर निकालिए। प्रथम दिन एक फुट निगलिए तथा नित्य-प्रति थोड़ा-थोड़ा कर बढ़ाते जाइए। इसे वस्त्र-धौति कहते हैं। प्रारम्भ में आपको वमन की थोड़ी प्रवृत्ति होगी; परन्तु तीसरे दिन यह रुक जायेगी। यह अभ्यास उदररोग जैसे जठर-शोथ, मन्दाग्नि, डकार आना, ज्वर, कटिवात, दमा, प्लीहा, कुष्ठरोग, चर्मरोग तथा कफ एवं पित्त के दोषों को दूर करता है। इसे नित्य-प्रति करने की आवश्यकता नहीं है। सप्ताह में एक बार अथवा पक्ष में एक बार इसका अभ्यास कर सकते हैं। वस्त्र को साबुन से धो कर सदा साफ रखिए। क्रिया के अनन्तर एक प्याला दूध पी लीजिए, अन्यथा अन्दर शुष्कता अनुभव होगी।
इसे बाँस की नली के सहारे अथवा बिना किसी नली के ही किया जा सकता है; परन्तु बाँस की नली का रहना अधिक लाभकर है। पानी के टब में नाभि पर्यन्त पानी में बैठ जाइए। उत्कटासन लगाइए। शरीर को अपने पैरों के अगले भाग पर सन्तुलित कीजिए तथा एड़ियाँ नितम्बों से दबी हों। बाँस की छोटी नली लीजिए जो छह अंगुल लम्बी हो तथा चार अंगुल तक इस नली को गुदा में घुसाइए। घुसाने से पहले उसे वैसलीन अथवा साबुन अथवा एरण्ड के तेल से चिकना बना लीजिए। गुदा को सिकोड़िए। धीरे-धीरे आँतों में पानी खींचिए। पानी को भीतर अच्छी तरह हिलाइए। तब उसे बाहर फेंकिए। यह जल वस्ति है। यह प्लीहा, मूत्र-सम्बन्धी बीमारियों, गुल्म, पेशी-शूल, जलोदर, पाचन सम्बन्धी रोग, प्लीहा तथा आँतों के रोग, वात-पित्त-कफ-वार्धक्य