ज्योति, शक्ति और प्रज्ञा

 

'Light, Power and Wisdom'

का हिन्दी रूपान्तर

 

 

 

 

लेखक

 

श्री स्वामी शिवानन्द सरस्वती

 

 

 

अनुवादक

श्री स्वामी ज्योतिर्मयानन्द सरस्वती

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

प्रकाशक

 

डिवाइन लाइफ सोसायटी

पत्रालय : शिवानन्दनगर-२४९ १९२

 जिला : टिहरी गढ़वाल, उत्तराखण्ड (हिमालय), भारत

www.sivanandaonline.org, www.dishq.org

प्रथम हिन्दी संस्करण : १९६०

सप्तम हिन्दी संस्करण : २०१५

(,००० प्रतियाँ)

 

 

 

 

 

 

 

 

 

© डिवाइन लाइफ ट्रस्ट सोसायटी

 

 

 

 

 

ISBN 81-7052-101-7 HS 224

 

PRICE: 40/-

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

' डिवाइन लाइफ सोसायटी, शिवानन्दनगर' के लिए

स्वामी पद्मनाभानन्द द्वारा प्रकाशित तथा उन्हीं के द्वारा 'योग-वेदान्त

फारेस्ट एकाडेमी प्रेस, पो. शिवानन्दनगर-२४९ १९२,

 जिला टिहरी गढ़वाल, उत्तराखण्ड' में मुद्रित

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प्रकाशकीय वक्तव्य

 

यह छोटी-सी पुस्तिका वरदान स्वरूप है। यह आपकी जेब-गुरु, नित्य साथी, शक्तिवर्धक टॉनिक तथा कोमल अंकुश है। इस अनुपम खजाने में महर्षि शिवानन्द के जाज्वल्यमान शब्द सँजो कर रखे गये हैं, जिससे आप अधिकतम लाभ उठा सकें। इसका प्रत्येक शब्द आपको ही सम्बोधित करके लिखा गया है।

 

सम्भवतः आप किसी समस्या के फेर में पड़ गये हों, जिसका समाधान होता हो, तो इसके किसी भी पृष्ठ को उलटिए और आप अवश्य ही एक मार्ग को पा जायेंगे, जिसके द्वारा या तो आप समस्या का समाधान कर लेंगे या फिर समस्या ही दूर हो जायेगी। सम्भवतः आप शंका तथा निराशा से आक्रान्त हों, निराशा की घनीभूत कुहेलिका से आवृत होते जा रहे हों। तब आप इस पुस्तिका के किसी भी पृष्ठ को उलटिए और आप इस पुस्तिका से पूर्ण लाभ उठा सकेंगे; इससे निकलने वाली ज्योति निश्चय ही अन्धकार को दूर भगायेगी। इसका प्रत्येक पृष्ठ दिव्य ज्योति, शक्ति तथा प्रज्ञा से परिपूर्ण है।

 

आध्यात्मिक साधक तो इस उपयोगी पुस्तिका को अपने नेत्रों से भी अधिक उपयोगी पायेंगे। अपने महान् लक्ष्य की ओर यात्रा करते समय उन्हें घनीभूत अन्धकार का जो संसार है, उसका सामना करना पड़ता है और उनको ज्योति की आवश्यकता होती है; मार्ग की बाधाओं का सामना करने, अपनी सावधानी को सतत बनाये रखने तथा प्रगति के पथ पर अग्रसर होने के लिए उनको शक्ति की आवश्यकता होती है और गलतियों से बचने के लिए, विवेक की ज्योति को सदा प्रखर बनाये रखने के लिए तथा अपने स्वरूप का साक्षात्कार करने के लिए उन्हें प्रज्ञा की आवश्यकता होती है। आप इस पुस्तिका में इन सबको प्राप्त करेंगे।

 

आशा है, 'Light, Power and Wisdom' के अनुवाद-रूप में प्रस्तुत इस पुस्तिका का आध्यात्मिक साधक हार्दिक स्वागत करेंगे।

 

- डिवाइन लाइफ सोसायटी

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

श्री स्वामी शिवानन्द

 

दिव्य जीवन संघ के परम पूज्य संस्थापक

 

श्री स्वामी शिवानन्द का जन्म सन्त अप्पय्य दीक्षितार तथा अन्य अनेक प्रख्यात सन्तों तथा विद्वानों के कुलीन परिवार में सितम्बर १८८७ को हुआ था। वेदान्त के अध्ययन तथा उसके व्यावहारिक पक्ष की ओर उन्मुख जीवन के प्रति उनमें जन्मजात झुकाव था। उनमें प्राणिमात्र की सेवा करने की अन्तर्जात आकांक्षा तथा समस्त मानवों में अन्तर्निहित एकता की सहज भावना थी। यद्यपि उन्होंने एक रूढ़िवादी परिवार में जन्म लिया था, तथापि वह अत्यन्त उदारमना, सहिष्णु तथा धर्मपरायण थे।

 

सेवा करने की आकांक्षा ने उन्हें चिकित्सा क्षेत्र की ओर आकर्षित किया। फिर उन्होंने उन स्थानों की ओर ध्यान दिया, जहाँ उनकी सेवा की अत्यधिक आवश्यकता थी। इसी दृष्टि से वह मलया (मलेशिया) गये। इस बीच उन्होंने एक स्वास्थ्य-पत्रिका को सम्पादित करना प्रारम्भ कर दिया था। वह उसमें नियमित रूप से स्वास्थ्य-सम्बन्धी समस्याओं के बारें में लिखा करते थे। उनका कहना था कि जन-साधारण को सही ज्ञान प्रदान करने की परम आवश्यकता है। ऐसे ज्ञान का प्रचार-प्रसार उनका जीवन-लक्ष्य बन गया।

 

यह ईश्वर का मंगलमय विधान ही था, जिसके कारण मन तथा शरीर के इस चिकित्सक में तीव्र वैराग्य की भावना उत्पन्न हो गयी। परिणाम- स्वरूप वह अपनी जीवन-वृत्ति को त्याग कर मानव की आत्मोन्नति में सहायक बनने के लिए संन्यासी बन गये। ऋषिकेश को उन्होंने अपना तपःस्थल बनाया तथा एक मनीषी, योगी, सन्त और जीवन्मुक्त के रूप में ख्याति प्राप्त की।

 

पूज्य स्वामी जी ने मात्र जीवित रहने के लिए कभी उदर-पोषण नहीं किया। हाँ, उन्होंने सेवा करने के लिए जीवित रहना आवश्यक समझा। एक छोटी-सी जीर्ण-शीर्ण कुटिया-जिसमें मच्छरों-बिच्छुओं के अतिरिक्त और कोई नहीं रहता था-ने वर्षा और धूप से उनकी रक्षा की। कठिन तपश्चर्या का जीवन व्यतीत करते हुए भी उन्होंने रोगियों की बहुत सेवा की। वह दवाएँ ले कर रोगी साधुओं की कुटियाओं में जाते थे और उनकी सेवा-शुश्रूषा करते थे। वह उनके लिए भिक्षा माँग कर लाते और उन्हें अपने हाथों से खिलाते थे। रोगियों के सिरहाने रात-रात भर बैठ कर उनकी देख-भाल करना उनकी दिनचर्या का एक अंग बन गया था। तीर्थयात्रियों को भगवान् का रूप मान कर वह उनकी भी सेवा मन लगा कर किया करते थे।

 

अपने परिव्राजक जीवन में पूज्य स्वामी जी ने पूरे भारत का भ्रमण किया। भ्रमण-काल में वह संकीर्तन कराते और प्रवचन दिया करते थे। स्वामी जी ने उन्हीं दिनों में कैलास तथा बदरी की भी यात्राएँ कीं।

 

तीर्थयात्रा से लौटने के बाद सन् १९३२ में उन्होंने पवित्र गंगा के दक्षिण तट पर शिवानन्दाश्रम की स्थापना की। सन् १९३६ में उन्होंने दिव्य जीवन संघ की स्थापना की। किसी परित्यक्त गौशाला की तरह दिखायी पड़ने वाला एक टूटा-फूटा पुराना कुटीर उन्हें मिल गया। उनके लिए वह एक महल से भी बढ़ कर था। उन्होंने उसकी सफाई की और फिर उसी में रहने लगे। जब उनके श्रीचरणों के निकट बैठ कर उनके उपदेशामृत का पान करने वाले भक्तों की संख्या बढ़ने लगी, तब उसके विस्तारण की आवश्यकता समझी जाने लगी। कुछ और रहने योग्य खाली शेड ढूँढ़ निकाले गये। इनमें कोई भी रहने का साहस नहीं कर पाता था। दिव्य जीवन संघ का शैशव इन्हीं -वासयोग्य टूटे-फूटे भवनों में व्यतीत हुआ।

 

श्री स्वामी शिवानन्द योग के, मानवीय कष्टों के उपशमन के तथा प्रत्येक वस्तु के संश्लेषण (समन्वय) में विश्वास रखते थे। स्वामी जी ने सेवा, ध्यान तथा भगवद्-साक्षात्कार के दिव्य उदात्त सन्देश को अपनी पत्रिकाओं, पत्रों तथा अपनी ३०० से अधिक पुस्तकों के माध्यम से संसार के कोने-कोने में प्रचारित-प्रसारित किया। उनके निष्ठावान् शिष्यों में सभी धर्मों, पन्थों तथा सम्प्रदायों के अनुयायी थे।

 

स्वामी शिवानन्द का योग-समन्वययोग-कर्मयोग, ज्ञानयोग तथा भक्तियोग के अभ्यास के माध्यम से 'हाथ', 'मस्तिष्क' तथा 'हृदय' का सुसंगत विकास सम्पन्न करता है। दिव्य जीवन संघ का मुख्य उद्देश्य आध्यात्मिक ज्ञान का अधिकाधिक प्रचार-प्रसार करना है। इसके सुविख्यात संस्थापक श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज ने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए गंगा-तट पर स्थित अपने छोटे-से कुटीर में बैठ कर ३० वर्षों तक घोर परिश्रम किया

 

१४ जुलाई १९६३ को महात्मा श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज शिवानन्दनगर में स्थित गंगा-तट पर बने हुए अपने कुटीर में अपना पार्थिव शरीर त्याग कर महासमाधि में लीन हो गये।

 

यद्यपि आज स्वामी शिवानन्द जी महाराज हमारे बीच नहीं हैं; परन्तु वह अपने द्वारा प्रारम्भ किये गये महान् कार्य का मार्ग-निर्देशन आज भी सूक्ष्म रूप से कर रहे हैं। प्रत्येक व्यतीत हो जाने वाला क्षण उस कार्य की गतिमात्रा में वृद्धि कर जाता है। पूज्य गुरुदेव श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज और परमाराध्य श्री स्वामी चिदानन्द जी महाराज की कृपा आशीर्वाद से अपने परमाध्यक्ष श्री स्वामी विमलानन्द जी महाराज के नेतृत्व में दिव्य जीवन संघ के वरिष्ठ संन्यासी दिव्य जीवन के इस सिद्धान्त को प्रचारित करने में सदा-सर्वदा रत हैं जो पूज्य गुरुदेव के इन शब्दों में समाहित है :

 

सेवा, प्रेम, दान, शुचिता, ध्यान, साक्षात्कार!"

 

 

 

 

विषय-सूची

 

प्रकाशकीय वक्तव्य... 3

श्री स्वामी शिवानन्द... 4

प्रथम अध्याय. 12

ज्योति.. 12

. क्या आप सचमुच ईश्वर को चाहते हैं?. 12

. ज्योति आपके अन्दर है. 12

. जीवन के उपदेश. 13

. भला बनें, भला करें. 13

. वैसा ही कीजिए, जैसा आप दूसरों से चाहते हैं. 13

. उठिए और कार्य कीजिए. 14

. अहिंसा का अभ्यास कीजिए. 14

. दयालु बनिए. 15

. विशुद्ध प्रेम का विकास कीजिए. 15

१०. समदृष्टि रखिए. 15

११. विस्तृत दृष्टिकोण रखिए. 16

१२. सभी से प्रेम कीजिए. 16

१३. सबमें आत्मा के दर्शन कीजिए. 17

१४. सेवा करें, प्रेम करें, दान दें. 17

१६. सदा प्रसन्न रहिए. 18

१७. यथाव्यवस्था के गुण अर्जन कीजिए. 18

१८. सदाचारी बनें. 19

१९. सद्गुणों का विकास करें. 19

२०. अच्छी आदतें डालिए. 19

२१. सहन-शक्ति का विकास कीजिए. 20

२२. नपे-तुले शब्द बोलिए. 20

२३. जीवन को ज्योति दें. 21

२४. अपने दोषों को स्वीकार कर लीजिए. 21

२५. छोटे अहं को मार डालिए. 21

२६. आत्म-निर्दोषिता सिद्ध करने वाली भावनाको नष्ट कीजिए. 22

२७. क्रोध को प्रेम से जीतिए. 22

२८. बीस आध्यात्मिक नियमों का पालन कीजिए. 22

२९. सरल जीवन बिताइए. 23

३०. सादा जीवन तथा उच्च विचार. 23

३१. अनुशासित जीवन बितायें. 24

३२. जीवन अमूल्य है. 24

३३. आध्यात्मिक धन प्राप्त कीजिए. 24

३४. कर्म के नियम को समझिए. 25

३५. एक ही गुरु में निष्ठा रखिए. 25

३६. अपने गुरु की पूजा कीजिए. 26

३७. ज्ञानियों के साथ सत्संग कीजिए. 26

३८. ज्ञानियों के उपदेशों पर चलिए. 26

३९. ईश्वर प्रेम है. 27

४०. नाम सर्वशक्तिमान् है. 27

४१. नियमित कीर्तन कीजिए. 27

४२. ईश्वरीय महिमा गाइए. 28

४३. भक्ति का विकास कीजिए. 28

४४. प्रेम के द्वारा ईश्वर का साक्षात्कार कीजिए. 28

४५. हार्दिक प्रार्थना कीजिए. 29

४६. प्रार्थना आश्चर्य कर दिखाती है. 29

द्वितीय अध्याय. 30

शक्ति.... 30

. ज्वलन्त मुमुक्षुत्व... 30

. अपने सिद्धान्तों पर दृढ़ रहिए. 30

. अपने संकल्प में दृढ़ बनिए. 30

. अपने व्रतों में दृढ़ बनिए. 31

. कभी निराश हों.. 31

. जैसा सोचोगे, वैसा ही बनोगे. 31

. अपने अन्दर से शक्ति प्राप्त कीजिए. 32

. प्रकृति पर विजय. 32

. यह जगत् महान् पाठशाला है. 32

१०. जगत् आपका शरीर है. 33

११. कर्मयोग के रहस्य को समझिए. 33

१२. कर्मयोग आनन्द प्रदान करता है. 34

१३. कर्मयोग द्वारा ज्ञान. 34

१४. कर्मयोगी ईश्वर के बहुत निकट है. 34

१५. कर्मयोग ही सर्वोत्तम योग है. 35

१६. सभी के साथ एकता का अनुभव करें. 35

१७. विकसित बनिए, प्रगति कीजिए. 35

१८. अपनी प्रवृत्तियों की जाँच कीजिए. 36

१९. आध्यात्मिक दैनन्दिनी रखिए. 36

२०. साधना का तत्काल अभ्यास कीजिए. 37

२१. सतत साधना कीजिए. 37

२२. अपनी साधना में नियमित बनिए. 37

२३. प्रेम के द्वारा सबल बनिए. 38

२४. साधना तथा सन्तोष स्वास्थ्य के रहस्य हैं. 38

२५. साधन-चतुष्टय से युक्त बनिए. 38

२६. आत्मसंयमी बनिए. 39

२७. आत्मावलम्बी बनें. 39

२८. प्रकृति को जीतिए. 39

२९. वैराग्य प्राप्त कीजिए. 40

३०. श्रद्धा ही जीवन है. 40

३१. श्रद्धा नहीं, तो ज्ञान नहीं.. 40

३२. उसके सार को जानिए. 41

३३. ध्यान कीजिए और बल प्राप्त कीजिए. 41

३४. अज्ञान को नष्ट कीजिए. 41

३५. तीन प्रकार की तपस्याओं का अभ्यास कीजिए. 42

३६. अमृत-पान कीजिए. 42

३७. अमृतत्व आपका जन्माधिकार है. 43

३८. अपने लक्ष्य को भूलिए. 43

३९. जागिए तथा लक्ष्य को प्राप्त कीजिए. 43

४०. जीवन का लक्ष्य ईश्वर-साक्षात्कार है. 44

तृतीय अध्याय. 45

प्रज्ञा.. 45

. राग का परित्याग कीजिए. 45

. विषय-सुखों का परित्याग कीजिए. 45

. समत्व-बुद्धि रखिए. 46

. मन को प्रलोभन दीजिए. 46

. मन को अनुशासित कीजिए. 47

. मन को पूर्णतः संलग्न रखिए. 47

. मन को ढीला छोड़िए. 47

. विवेक करना सीखिए. 48

१०. आनन्द की प्राप्ति के लिए विषय-भोग का बलिदान कीजिए. 48

११. ठीक-ठीक विचारिए. 49

१२. अपने विचारों को नियन्त्रित करें. 49

१३. अपने कार्यों को ईश्वरार्पण-रूप में कीजिए. 49

१४. शुद्ध बनिए, बुराई स्वतः नष्ट हो जायेगी.. 50

१५. विवेक-दण्ड उठाइए. 50

१६. केवल ईश्वर पर निर्भर रहें. 51

१७. ईश्वर में ही नित्य-सुख है. 51

१८. गरीबों में ईश्वर की पूजा करें. 51

१९. ईश्वर में संस्थित बनें. 52

२०. ईश्वर अन्तर्यामी है. 52

२१. आत्मा की खोज प्रारम्भ कीजिए. 52

२२. विचारिए, 'मैं कौन हूँ?' 53

२३. खोजें, समझें, साक्षात्कार करें. 53

२४. अन्तर्निरीक्षण करें. 53

२५. ईश्वर को अपने हृदय के अन्दर खोजिए. 54

२६. आवरण दूर करें. 54

२७. अपने अन्दर देखें.. 55

२८. ज्ञान मुक्ति प्रदान करता है. 55

२९. स्थिर बैठ जाइए. 55

३०. श्रवण, मनन तथा निदिध्यासन. 56

३१. ब्राह्ममुहूर्त में ध्यान कीजिए. 56

३२. ध्यान का नियमित अभ्यास कीजिए. 57

३३. मूल से शक्ति प्राप्त कीजिए. 57

३४. धारणा से सुख की प्राप्ति.... 57

३५. अविचल शान्ति बनाये रखिए. 58

३६. मौन बनिए. 58

३७. स्थिरता में सत्य विभासित होने दें. 58

३८. आन्तरिक वाणी का श्रवण कीजिए. 59

३९. भान कीजिए कि आप आत्मा हैं. 59

४०. आत्मा में निवास कीजिए. 60

४१. आत्मा में आनन्द प्राप्त कीजिए. 60

४२. बालक की भाँति स्पष्टवादी बनें. 60

४३. नम्र तथा सरल बनिए. 61

४४. नित्य-सुख का आस्वादन कीजिए. 61

४५. असीम सुख का साक्षात्कार कीजिए. 62

४६. ईश्वर में निवास कीजिए. 62

४७. ईश्वर से सम्बद्ध रहें. 62

४८. पूर्ण आत्मार्पण कीजिए. 63

४९. नियन्ता के साथ एक बन जाइए. 63

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

प्रथम अध्याय

ज्योति

. क्या आप सचमुच ईश्वर को चाहते हैं?

 

क्या आप सचमुच ईश्वर को चाहते हैं? क्या आप सचमुच उसके दर्शन के लिए लालायित हैं? क्या आपमें सच्ची आध्यात्मिक भूख है?

 

जो ईश्वर-दर्शन के लिए लालायित है, वही प्रेम का विकास कर सकता है। उसके लिए ही ईश्वर प्रकट होगा। ईश्वर तो माँग तथा माँग-पूर्ति का विषय है। यदि ईश्वर के लिए सच्ची माँग है, तो वह शीघ्र ही प्रकट होगा।

 

प्रह्लाद-जैसी प्रेमपूर्ण प्रार्थना कीजिए। राधा-जैसा गायन कीजिए। वाल्मीकि, तुकाराम तथा तुलसीदास की तरह उसके नाम का जप कीजिए। गौरांग की तरह कीर्तन कीजिए। भगवान् के विरह में एकान्त में बैठ कर मीरा की तरह रुदन कीजिए। आप इसी क्षण भगवान् का दर्शन प्राप्त करेंगे।

. ज्योति आपके अन्दर है

 

सदा धार्मिक बनिए। धर्म-मार्ग से कभी विचलित होइए। सदाचारी बनिए। वीर बनिए। निर्भय बनिए। सत्य का अभ्यास कीजिए। सर्वत्र इसकी घोषणा कीजिए।

 

आध्यात्मिक मार्ग में आगे बढ़ते जाइए। आपके अन्दर ही ज्योति है। ईश्वर पर मन को एकाग्र कीजिए। अहंकार तथा अभिमान को मार डालिए। सहानुभूति तथा विश्व-बन्धुत्व का अर्जन कीजिए। सबसे प्रेम कीजिए। आप परिपूर्ण जीवन प्राप्त करेंगे।

 

इन्द्रियों का दमन कीजिए। गम्भीर श्रद्धा तथा हार्दिकता के साथ उसकी प्रार्थना कीजिए। ईश्वर के अस्तित्व तथा आध्यात्मिक साधनाओं की शक्ति में अविचल विश्वास कीजिए। नम्र तथा सरल बनिए। आप अमरत्व को प्राप्त करेंगे।

. जीवन के उपदेश

 

नित्य चार बजे प्रातः उठ जाइए। ईश्वर के नाम का कीर्तन कीजिए (जैसे-गोविन्द जय-जय, गोपाल जय-जय, राधारमण हरि गोविन्द जय-जय) हरि-नाम का गायन करते समय सदा यह अनुभव कीजिए कि हरि आपके हृदय के अन्दर ही विराजमान हैं और आपका कीर्तन श्रवण कर रहे हैं।

 

गीता, रामायण, भागवत, विष्णुसहस्रनाम, ललितासहस्रनाम का आधे घण्टे से ले कर एक घण्टे तक नियमित स्वाध्याय कीजिए। अपने माता-पिता की आज्ञा मानिए। सदा सत्य बोलिए। अल्प बोलिए। मधुर बोलिए।

 

ईश्वरीय ज्योति आपके भीतर अधिकाधिक चमकती रहे! आप धर्म के मार्ग का अनुगमन कर इसी जीवन में भगवान् का साक्षात्कार करें!

. भला बनें, भला करें

 

"तू बिना किसी प्रकार की आसक्ति रखे अपने कर्तव्यों का पालन किये जा; क्योंकि आसक्ति-विहीन कर्मों के करने से मनुष्य परम पुरुष को प्राप्त करता है" (गीता : -१९)

 

जब भला विचार मनुष्य के जीवन का अंग बन जाता है, तो बुरा विचार उसके अन्दर प्रवेश नहीं कर पाता है। वह दूसरों की सेवा, दूसरों की भलाई में ही बहुत आनन्द लेता है। निष्काम कर्म में अपूर्व सुख तथा आनन्द है।

 

विकसित बनिए। अपने हृदय में निष्काम सेवा की सच्ची भावना बनाये रखिए। जीवन के प्रत्येक क्षण को जीवन के आदर्श तथा लक्ष्य के लिए बिताइए; तभी आप निष्काम सेवा के वास्तविक महत्त्व को समझ सकेंगे। आप निष्काम सेवा के अभ्यास द्वारा प्रखर योगी के रूप में विभासित हों! आप सच्चे शाश्वत सुख का आस्वादन करें !

. वैसा ही कीजिए, जैसा आप दूसरों से चाहते हैं

 

प्रकृति की सभी वस्तुएँ एक मुख्य नियम के द्वारा संचालित हैं और वह है कारणत्व का नियम-कर्म का नियम। यह नियम ही आन्तरिक समता तथा विधान बनाये रखता है। इस महान् नियम से कोई भी वस्तु मुक्त नहीं रह सकती।

 

कारण कार्य में निहित है तथा कार्य कारण में। कार्य कारण सदृश होता है। यह जगत् इस भौतिक नियम पर ही परिचालित होता है। यह नियम अमोघ तथा अकाट्य है।

 

प्रत्येक क्रिया की आपके अन्दर आवश्यक प्रतिक्रिया होगी। यदि आप किसी दूसरे व्यक्ति की भलाई कर रहे हैं, तो वस्तुतः आप अपनी ही भलाई कर रहे हैं; क्योंकि आत्मा के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है। 'आत्मैवेदं सर्वम्' -यही श्रुतियों अथवा उपनिषदों की जोरदार घोषणा है। यह धार्मिक कार्य समान बल तथा प्रभाव के साथ आप पर अपना प्रतिघात दिखायेगा। यह आपके लिए आनन्द तथा सुख लायेगा।

. उठिए और कार्य कीजिए

 

प्रार्थना की शक्ति अवर्णनीय है। इसकी महिमा अमिट है। सच्चे भक्त ही इसके लाभ तथा महत्त्व को समझ सकते हैं।

 

आलसी बन कर ईश्वर की सहायता के लिए लालायित बनिए। उठिए और कार्य कीजिए; क्योंकि ईश्वर उसी की सहायता करता है जो स्वयं अपनी सहायता करता है। जितना भी आपसे हो सके, आप कीजिए; शेष ईश्वर पर छोड़ दीजिए।

 

भक्तों की सेवा कीजिए। उनके संग में रहिए। जप तथा कीर्तन कीजिए। रामायण तथा भागवत का पाठ कीजिए। आप शीघ्र ही भक्ति का विकास करेंगे। ईश्वरीय कृपा का आप पर अवतरण होगा।

 

 

 

. अहिंसा का अभ्यास कीजिए

 

इस जीवन का लक्ष्य ईश्वर-साक्षात्कार ही है। इसको कभी भी भूलिए। उनकी कृपा के लिए अनवरत कामना बनाये रखिए। उनके दर्शन के लिए पिपासु बनिए। सतत सत्संग कीजिए। आप उनका दर्शन करेंगे।

 

अहिंसा का अभ्यास कीजिए। सत्य बोलिए। ईश्वर पर अटूट श्रद्धा रखिए। ईश्वरार्पण-भाव से सारे काम कीजिए। अथक सेवा कीजिए। पूर्ण भक्ति के साथ प्रार्थना कीजिए। मन तथा इन्द्रियों के साथ अपना संग्राम छेड़िए उनको ईश्वर की ओर मोड़िए। ईश्वर-विरह में रोइए। आप उनका दर्शन प्राप्त करेंगे।

 

मान कीजिए कि ईश्वर आपके हाथों से काम करते, आपकी आँखों से देखते तथा आपके कानों से सुनते हैं। आपके अन्दर परिवर्तन होगा। आपको नवीन दृष्टिकोण प्राप्त होगा। आप परमानन्द का उपभोग करेंगे।

. दयालु बनिए

 

सभी छोटे तथा बड़े धर्मग्रन्थों का सार उसी प्रकार निकाल लीजिए, जिस प्रकार मधुमक्खी फूलों में से मधु को निकाल लेती है। सभी प्रकार की बुरी आशाओं तथा कामनाओं का परित्याग कर परमेश्वर की शरण में जाइए

 

सभी वस्तुओं में ईश्वर की व्यापकता का भान कीजिए। अपने से छोटे के प्रति दयालु तथा कारुणिक बनिए, अपनी बराबरी वाले के प्रति मैत्री की भावना रखिए तथा अपने से बड़े लोगों के प्रति आदर का भाव रखिए।

 

वैराग्य-धन का अर्जन कीजिए। आत्मानन्द के द्वारा अपने मन को शीतल बनाइए। वासना-क्षय तथा तत्त्वज्ञान से प्राप्त मन की शान्ति के अमृत में आनन्द लुटिए

. विशुद्ध प्रेम का विकास कीजिए

 

प्रेम ईश्वर के राज्य, सत्य तथा शान्ति एवं सुख के अक्षय धाम का साक्षात् मार्ग है। यह सृष्टि का जीवन्त सिद्धान्त है। यही मीरा, तुकाराम तथा गौरांग महाप्रभु में निहित शक्ति थी।

 

अतः शुद्ध एवं निःस्वार्थ प्रेम का विकास करें। शुद्ध प्रेम एक अनमोल वस्तु है। इसका अर्जन शनैः शनैः कीजिए। द्वेष, मन की संकीर्णता आदि सब दुर्गुण दूर हो जायेंगे। प्रेम मन को पूर्ण शुद्ध बनाता है।

 

सब प्रकार के गलत विश्वासों, दुर्बलताओं, अन्धविश्वासों, गलत धारणाओं तथा व्यर्थ विचारों का परित्याग कीजिए। प्रेम में निवास कीजिए दिव्य जीवन पर श्रद्धा जमाइए। ईश्वर में निवास करने के लिए उत्सुकतापूर्वक सतत प्रयास कीजिए। आप परमानन्द का उपभोग करेंगे।

१०. समदृष्टि रखिए

 

सभी के प्रति समदृष्टि रखिए। गपशप का त्याग कीजिए। ज्ञानी बनना सीखिए। ईश्वर के नाम में अटूट विश्वास रखिए, उसके नाम का गायन कीजिए तथा उसके अस्तित्व का सर्वत्र भान कीजिए।

 

कठिनाइयों से विचलित होइए। धैर्य से उन्हें सहन कीजिए। मन को ईश्वर की ओर मोड़िए। आध्यात्मिक सिंह की तरह चलिए। कामना के पाश को तोड़ कर छिन्न-भिन्न कर डालिए। करुणा, शान्ति, क्षमा, सहिष्णुता आदि दैवी सम्पत् का विकास कीजिए। आप निश्चय ही परम ज्ञान तथा आनन्द प्राप्त करेंगे।

 

सर्वशक्तिमान् ईश्वर से उसकी कृपा के लिए हार्दिक प्रार्थना कीजिए। सांसारिक जीवन की परम्परागत विभिन्नताओं से ऊपर उठिए। ज्ञान-सूर्य के उदय के द्वारा अविद्या के अन्धकार को दूर कीजिए। ईश्वर के प्रति अशेष तथा पूर्ण आत्मार्पण कीजिए। आप शान्ति का उपभोग करेंगे।

११. विस्तृत दृष्टिकोण रखिए

 

सेवा-परायण जीवन बिताइए। सेवा के लिए अपने हृदय को उत्साह तथा प्रेरणा से ओत-प्रोत कर डालिए। हर क्षण सर्वशक्तिमान् प्रभु को याद रखिए।

 

अपने चरित्र का निर्माण कीजिए। उचित व्यवहार कीजिए। दया, उदारता, सहानुभूति, सहनशीलता तथा नम्रता का विकास कीजिए। अपने अभिमान के छोटे से दायरे से निकल जाइए और विस्तृत दृष्टिकोण रखिए। शिष्टतापूर्वक विनीत तथा मधुर शब्दों का उच्चारण कीजिए। अनावश्यक कामनाओं तथा विचारों को नष्ट कर डालिए।

 

अपने आदर्शों, सिद्धान्तों तथा विचारों पर दृढ़तापूर्वक डटे रहिए। समस्त जगत् के विरोध करने पर भी अपने संकल्प से विचलित होइए। सदाचार तथा दिव्य जीवन के सिद्धान्तों पर साहस के साथ डटे रहिए। एक गुरु के उपदेश का पालन कीजिए। आप परब्रह्म को प्राप्त करेंगे।

१२. सभी से प्रेम कीजिए

 

सबसे प्रेम कीजिए। शुद्ध बनिए। सबकी आत्म-भाव से सेवा कीजिए। अपनी इन्द्रियों पर पूर्ण नियन्त्रण रखिए। स्वयं पर निर्भर रहिए। ईश्वर की कृपा के लिए अनवरत प्रयास करते रहिए।

 

स्त्री-पुरुष के बीच कोई भेद रखिए। जब आप स्त्रियों के साथ हों, तब इस मन्त्र का जप कीजिए- "एक सच्चिदानन्द आत्मा।" जो आत्मा आपके हृदय में है, वही आत्मा सभी स्त्रियों के अन्दर भी व्याप्त है। लिंग-भावना विलुप्त हो जायेगी। आप उनमें भी ईश्वर का ही दर्शन करेंगे।

 

अनुभव कीजिए कि भगवान् श्री कृष्ण सभी हाथों से काम करते, सभी आँखों से देखते तथा सभी श्रोत्रों से सुनते हैं। राधा की भाँति गाइए। उनके दर्शन के लिए गोपियों के समान लालायित रहिए। भगवान् कृष्ण की कृपा आप पर अवश्य होगी। वह अमर मित्र हैं। इसको कभी भूलिए। आप उनका साक्षात्कार करेंगे।

१३. सबमें आत्मा के दर्शन कीजिए

 

कोई ऐसी वस्तु है जो धन से भी बढ़ कर प्रिय है; कोई ऐसी वस्तु है जो पुत्र से भी बढ़ कर प्रिय है; कोई ऐसी वस्तु है जो स्त्री से भी बढ़ कर प्रिय है; कोई ऐसी वस्तु है जो प्राणों से भी अधिक प्रिय है; वह तेरी आत्मा है-अन्तर्यामी, अमर करुणानिधान प्रभु!

 

दयालु तथा कारुणिक बनिए। शुद्ध तथा विनम्र बनिए। मधुर तथा प्रिय बनिए। विनीत बनिए। सहृदय बनिए। दीनों के बन्धु बनिए; उनके साथ रहिए; उनकी सेवा कीजिए; जब भी वे कठिनाई में हों, उनको प्रसन्न कीजिए। अपने जीवन को सरल बनाइए। सबमें आत्मा को ही देखिए। अनेकता के भावों को त्याग दीजिए। सबके प्रति समदृष्टि रखिए।

 

कठोर शब्दों का प्रयोग करें। दूसरों का शोषण करें। बेकार बकवास तथा सांसारिक गपशप में अपना अमूल्य समय नष्ट करें। सारी आसक्तियों से संन्यास ले लें।

१४. सेवा करें, प्रेम करें, दान दें

 

ओछे तथा सम्मान प्राप्त कार्यों में विभेद लायें। यदि कोई आदमी अपने शरीर के किसी हिस्से में तीव्र वेदना का अनुभव कर रहा हो, तो उसके उस पीड़ित भाग को धीरे-धीरे दबाइए। ऐसा अनुभव कीजिए कि आप रोगी के शरीर में भगवान् की सेवा कर रहे हैं। अपने इष्ट-मन्त्र का भी जप कीजिए। यदि आप सड़क के किनारे किसी मनुष्य अथवा किसी जानवर के शरीर से रुधिर प्रवाहित होते देखें, तो अपनी कमीज के ऊपरी हिस्से में से कुछ कपड़ा फाड़ कर उसके घाव पर पट्टी बाँधिए। रेलवे स्टेशन पर गरीब कुलियों के साथ किसी भी प्रकार का झगड़ा आदि कीजिए। उदार तथा दानशील बनिए। सदा अपनी जेब में कुछ पैसे रखिए तथा उनकों गरीबों और असहायों में बाँट दीजिए।

 

हृदय के शुद्ध होने पर मन स्वतः ही ईश्वर की ओर लग जायेगा। शुद्ध प्रेम, आत्मार्पण तथा उपासना के द्वारा अन्ततः यह ईश्वर में ही विलीन हो जाता है।

 

१५. दान दीजिए, दान दीजिए

 

दान के द्वारा ही पापों को नष्ट किया जा सकता है। प्रभु ईसामसीह कहते हैं-"दान अनेकानेक पापों को ढक लेता है।" भगवद्गीता में आप पायेंगे : "यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्-यज्ञ, दान तथा तप ज्ञानियों के लिए भी पावन हैं।

 

कष्टपीड़ित मानवों के दुःखों को दूर करने के लिए प्रचुर, अबाध तथा सहज रूप से दान करना ही बुरी प्रकृति को नष्ट करने का प्रबल साधन है। पानी के समान धन का दान कीजिए। यदि आप दान करते हैं, तो संसार का सब धन आपको प्राप्त होगा। यही प्रकृति का अमिट, अकाट्य तथा अविचल नियम है। अतः दीजिए, दीजिए।

१६. सदा प्रसन्न रहिए

 

सदा प्रसन्न तथा सुखी रहिए। उदासी तथा निराशा को दूर कीजिए। उदासी से बढ़ कर कोई भी दूसरा संक्रामक रोग नहीं है। विचार, ईश्वरीय भजन, प्रार्थना, प्राणायाम, तेजी से खुली हवा में टहलना, विरोधी गुण-सुख के भाव आदि पर विचार करना इत्यादि के द्वारा निराशा तथा उदासी को दूर भगाइए।

 

दूसरों के लिए वरदान के रूप में जीवन-यापन कीजिए। भान कीजिए कि सब-कुछ ज्योति तथा आनन्द ही है। अपने मन को किसी भी बाह्य वस्तु की ओर जाने दीजिए। मन की सभी बिखरी किरणों को समेट लीजिए। अवधान-शक्ति को बढ़ाइए। अप्रिय वस्तुओं तथा विचारों के प्रति भी दिलचस्पी बढ़ाइए। बहुत-सी मानसिक दुर्बलताएँ स्वतः ही मिट जायेंगी। आपका मन अधिकाधिक सबल होता जायेगा।

 

 

१७. यथाव्यवस्था के गुण अर्जन कीजिए

 

दूसरों की सेवा करते समय कभी भी आनाकानी करें। सेवा में आनन्द लें। सेवा के सुअवसर की ताक में रहें। काम ही ईश्वर की पूजा है।

 

मिलनसार, प्रिय तथा प्रसन्न स्वभाव रखिए। सहानुभूति, यथा- व्यवस्था, आत्मसंयम, प्रेम तथा करुणा रखिए। दूसरों की आदतों तथा उनके तौर-तरीकों के अनुकूल ही स्वयं को बनाने की कोशिश करें। दूसरों से कटु शब्द सुन कर और अपमानित किये जाने पर भी सन्तुलित रहें। सुख, दुःख, शीत एवं उष्ण-सभी में सन्तुलित मन बनाये रखिए।

 

ज्योति तथा ज्ञान को ग्रहण करने के लिए कर्मयोग मन को तैयार करता है। एकता के मार्ग के सारे व्यवधानों को तोड़ कर यह हृदय को विकसित बनाता है। चित्तशुद्धि के लिए कर्मयोग एक प्रबल साधन है। अतः सतत निष्काम सेवा का अभ्यास करें।

१८. सदाचारी बनें

 

पुण्य-कर्मों के द्वारा सुख तथा पाप-कर्मों के द्वारा दुःख होता है। कर्मों के फल अवश्यमेव मिलते हैं। कर्म के बिना कोई भी फल नहीं मिलता। सदाचार ही ईश्वर के चरण कमलों की प्राप्ति का आश्रय है। सदाचार के द्वारा सब-कुछ प्राप्त किया जा सकता है।

 

मन, वचन तथा कर्म से किसी प्राणी की हिंसा करें। दयालु तथा दानशील बनें। अपने विचारों में उदार बनें। सतत सत्यपरायण रहें। क्रोध, घृणा तथा द्वेष से मुक्त रहें।

 

अपने गुरुओं तथा गुरु जनों के प्रति आदर तथा भक्ति रखें। श्रद्धा एवं सच्चाई के साथ देवों की पूजा करें। कपटी लोगों के प्रति विनम्र रहें। आप इस लोक तथा परलोक में बहुत यश और पुण्य भोगेंगे।

१९. सद्गुणों का विकास करें

 

सद्गुणों का विकास कीजिए। आप अपने अन्दर अच्छी आदतों को डालिए। भले कर्म कीजिए। नियमित ध्यान कीजिए। ईश्वर में निवास करने का प्रयास कीजिए। सारे दोष, दुर्बलताएँ तथा बुरे विचार मूलतः नष्ट हो जायेंगे।

 

अपने हृदय में कोई भी कामना रखें। सबसे मिल कर रहें। सबको गले लगायें। सबसे प्रेम करें। यथाव्यवस्था के गुण को बनायें। अथक सेवा के द्वारा सभी के हृदय में प्रवेश करें। इस प्रकार सबके अन्दर एक ही आत्मा का दर्शन करें।

 

सारे भ्रामक नाम-रूपों को भूल जाइए। हर क्षण, हर वस्तु में भगवान् श्री कृष्ण के दर्शन कीजिए। आप परम शान्ति, आनन्द तथा अमृतत्व का उपभोग करेंगे।

२०. अच्छी आदतें डालिए

 

आपके चित्त का अधिकांश भाग ऐसे अनुभवों के द्वारा गठित हुआ है, जो भीतर के प्रकोष्ठों में डूबे हुए हैं; परन्तु जिनको पुनः निकाला जा सकता है। आप चित्त में नयी प्रवृत्तियों, नये पदार्थों, विचारों तथा चरित्र का निर्माण कर सकते हैं।

 

गहराई के साथ विचार कीजिए। चिन्तन कीजिए। सतत सत्संग कीजिए। निष्काम सेवा-यज्ञ कीजिए। साधना-चतुष्टय का अर्जन कीजिए। उसका विकास कीजिए।

 

किसी का भी उपहास कीजिए। किसी के प्रति अपनी भृकुटि चढ़ाइए। अपनी इन्द्रियों का दमन कीजिए। सदा प्रसन्न रहिए। पीछे देखिए। कामना तथा क्रोध से अपने को मुक्त रखिए। अभिमान का परित्याग कीजिए। अपनी दृष्टि को अन्तर्मुखी बनाइए ध्यान कीजिए आप सच्चे सुख का अनुभव करेंगे।

२१. सहन-शक्ति का विकास कीजिए

 

सूर्यास्त के समय जिस तरह सूर्य अपनी सारी किरणों को समेट कर क्षितिज में विलीन हो जाता है, उसी प्रकार अपने मन की समस्त किरणों को समेट कर सर्वशक्तिमान् प्रभु के पाद-पद्मों में लीन कर दीजिए।

 

मन को ढीला कभी छोड़िए भगवान् बुद्ध के समान प्रेम, करुणा, दया तथा नम्रता का अर्जन कीजिए। गरीबों की सेवा तथा सहायता कीजिए। निराश तथा सन्तप्त व्यक्तियों को सान्त्वना तथा धीरज दीजिए। आप दिव्य बन जायेंगे।

 

तितिक्षा का विकास कीजिए। अपने को उन्नत आध्यात्मिक चेतना के अनुकूल बनाइए। अपने मन को ईश्वर के चरण-कमलों में स्थापित कीजिए। कृपा, ज्योति, शुद्धता, शक्ति, शान्ति तथा ज्ञान के लिए ईश्वर से प्रार्थना कीजिए। आप अवश्य ही उनको पायेंगे तथा परमानन्द का उपभोग करेंगे।

२२. नपे-तुले शब्द बोलिए

 

मन को चतुराई तथा कुशलता के साथ नियन्त्रित करें। ठीक-ठीक तथा स्पष्ट विचार करें। अपनी वाणी को अनुशासित करें। मधुर, कोमल, नम्र तथा सत्य-वचन बोलें। नपे-तुले शब्दों में बोलने वाला आदमी बनें

 

नम्र बनें तथा सभी प्राणियों को मानसिक अभिवादन करें। सर्वत्र ईश्वरीय सत्ता का भान करें। घमण्ड का परित्याग करें। मन, वचन तथा कर्म से कभी किसी को आघात पहुँचायें। सदा भले कर्म करें। आप परम शान्ति तथा नित्य-सुख को प्राप्त करेंगे।

 

नित्य-प्रति हृदय के अन्तरतम से प्रार्थना कीजिए तथा अपने हृदय को ईश्वर के साथ एक कर डालिए। सरल तथा विनीत बनें। सदाचार का अभ्यास करें। सन्तोष का विकास करें। आत्मानन्द का पान करें।

२३. जीवन को ज्योति दें

 

शक्ति की कामना, भौतिक लोभ, वैषयिक उत्तेजना, स्वार्थपरायणता, काम, धन तथा निम्न प्रवृत्तियों के प्रति राग ने मनुष्य को सच्चे आध्यात्मिक जीवन से गिरा कर भौतिक जीवन से आबद्ध कर दिया है। सच्चे हृदय से भक्ति के तत्त्वों के अभ्यास के द्वारा वह अपनी विगत ईश्वरीय महिमा को पुनर्प्राप्त कर सकता है। भक्ति पाशवी प्रकृति को दैवी प्रकृति में परिणत कर मनुष्य को दिव्य महिमा की चोटी पर आसीन करती है।

 

आप भक्ति का विकास करें, ताकि इसके द्वारा आप ईश्वरत्व तथा आत्म-साक्षात्कार में मार्ग-दर्शन प्राप्त करें। आध्यात्मिक ज्योति आपमें दिनानुदिन प्रखरतर होती जाये!

२४. अपने दोषों को स्वीकार कर लीजिए

 

दिव्य ज्योति को स्थिरता के साथ जलने दीजिए। हर व्यक्ति के साथ आदर के साथ बातचीत कीजिए। सबके प्रति समदृष्टि रखिए। सबमें ईश्वर को ही देखिए। ईश्वर के लिए उग्र तथा अनन्य भक्ति का अर्जन कीजिए।

 

छोटी-छोटी बातों के द्वारा उद्विग्न बनिए। दूसरों के द्वारा संकेत दिये जाने पर अपने दोषों को स्वीकार कर लीजिए। उस आदमी को धन्यवाद दीजिए, जो कि आपके दोषों को बतलाता है। प्रार्थना कीजिए। ईश्वरीय लीला का गान कीजिए। आप अमर सुख को प्राप्त करेंगे।

 

अपनी बुद्धिमत्ता से काम लीजिए। मनुष्य के लिए बुद्धिमत्ता ही इस जगत् की सबसे बड़ी निधि है। बुद्धिमानी के साथ इस जगत् के सारे कार्यों को कीजिए, तभी आप अपनी सारी कामनाओं की पूर्ति करने में समर्थ हो सकेंगे।

२५. छोटे अहं को मार डालिए

 

जिस प्रकार काले बादल सूर्य को ढक लेते हैं, उसी प्रकार अहंकार तथा वासनाएँ ज्ञान-सूर्य को ढक लेते हैं। ध्यान का अनवरत प्रवाह बनाये रखिए। छोटे अहं को मार डालिए। शुद्ध प्रेम का विकास कीजिए। कर्म का फल ईश्वर पर अर्पित कीजिए। उसकी कृपा के लिए प्रार्थना कीजिए। आप अमृतत्व-सुधा का पान करेंगे।

 

अज्ञान तथा भौतिकता की निद्रा से जाग उठिए। निष्काम सेवा तथा ईश्वर की उपासना की ओर ध्यान को लगाइए। सभी मनुष्यों के प्रति बन्धुत्व-भावना का विकास कीजिए; आप परम शान्ति का उपभोग करेंगे।

२६. आत्म-निर्दोषिता सिद्ध करने वाली भावनाको नष्ट कीजिए

छोटी-छोटी बातों से उद्विग्न बनिए। प्रसन्न, प्रिय स्वभाव तथा यथाव्यवस्था का गुण अपनाइए। दूसरों के द्वारा दर्शाये जाने पर अपने दोषों को स्वीकार कर लीजिए। उनको दूर कीजिए तथा दोष दिखाने वाले मनुष्य को धन्यवाद दीजिए, तभी आप आध्यात्मिकता तथा ध्यान में उन्नति प्राप्त कर सकेंगे।

 

अन्तर्निरीक्षण कीजिए। भीतर देखिए। अपने दोषों को दूर करने का प्रयास कीजिए यही सच्ची साधना है। आपको अपनी सारी दुर्बलताओं को दूर करना है, बहुत-सी पुरानी आदतों को नष्ट करना है। अपने को निर्दोष बताने की आदत तथा आत्मग्राही भावना को भी दूर कीजिए।

 

जप, प्रार्थना, कीर्तन, ध्यान, गीता तथा रामायण के स्वाध्याय में सदा नियमित बनिए। ब्रह्मचर्य तथा मौन व्रत का पालन कीजिए; आप परम वस्तु का शीघ्र ही उपभोग करेंगे।

 

२७. क्रोध को प्रेम से जीतिए

 

क्रोध शारीरिक स्नायु-प्रणाली को बरबाद कर अन्तः सूक्ष्म शरीर पर स्थायी छाप डाल देता है। सूक्ष्म शरीर से विषाक्त तीर निकलेंगे। भयंकर क्रोधावेश सूक्ष्म शरीर में गहरा घाव पैदा करेगा। क्या अब भी आपको क्रोध के भयंकर परिणामों का ज्ञान नहीं हुआ?

 

क्रोध का शिकार बनिए। उसको क्षमा, प्रेम, करुणा, सहानुभूति, विचार तथा दूसरों के प्रति दया के द्वारा नष्ट कीजिए।

 

अपने मन को ईश्वर के चरण-कमलों में लगाइए अपने हाथों को काम करने दीजिए। अभ्यास के द्वारा आप एक ही समय में दोनों कामों को कर सकते हैं। शारीरिक काम यन्त्रवत् स्वतः ही होने लगेंगे। आपका मन भगवान् के पाद-पद्मों में सदा निवास करेगा। संसार में रहते हुए भी आप ईश्वर का साक्षात्कार कर सकेंगे।

२८. बीस आध्यात्मिक नियमों का पालन कीजिए

 

आध्यात्मिक जीवन बकवास मात्र नहीं है। यह एक प्रकार की उत्तेजना भी नहीं है, वरन् यह है आत्मा में निवास तथा विशुद्ध आनन्द का अनुभवातीत अनुभव

 

सत्य तथा धर्म के मार्ग का अनुगमन कीजिए। बीस आध्यात्मिक नियमों का पालन कीजिए। अपने ध्यान में नियमित बनिए। धीर बनिए अन्तर्निरीक्षण का अभ्यास कीजिए। निष्काम सेवा कीजिए। सर्वग्राही प्रेम का अर्जन कीजिए। वैराग्य का विकास कीजिए। आप अमरत्व को प्राप्त करेंगे।

२९. सरल जीवन बिताइए

 

सरल जीवन बिताइए। आपके विचार उन्नत हों। ईश्वर से भय करिए सत्य बोलिए। सबसे प्रेम कीजिए। सबके अन्दर अपनी आत्मा कादर्शन कीजिए। अपने सभी कार्यों में सच्चा बनिए। आप अपने जीवन में सफलता तथा आत्म-साक्षात्कार को प्राप्त करेंगे।

 

किसी मामले में चिन्ताग्रस्त बनिए सदा प्रसन्न रहिए। सदा अपनी सहज बुद्धि तथा अपने विचार के द्वारा काम कीजिए। सदा अपने मन को सन्तुलित बनाये रखिए। अपने मन को ईश्वर की ओर मोड़िए। उसके नाम का गान कीजिए। उसके दर्शन के लिए पिपासु बनिए। हृदय से सच्चा बनिए। आप पर ईश्वरीय कृपा का अवतरण होगा।

 

दृढ़-निश्चय तथा लौह-संकल्प रखिए। आपके पास अपने-आपको एक सन्त के रूप में परिणत करने की समस्त सामग्री है। आध्यात्मिक मार्ग में सदा संलग्न रहिए। आन्तरिक शक्ति को प्रबुद्ध बनाइए प्रयत्न कीजिए। बढ़ते जाइए। साक्षात्कार कीजिए।

३०. सादा जीवन तथा उच्च विचार

 

वेद-मन्त्रों की शक्ति में श्रद्धा का अर्जन कीजिए। नित्य-प्रति जप तथा ध्यान का अभ्यास कीजिए। सात्त्विक आहार कीजिए। अपने पेट को अधिक भरिए। प्रकृति के नियमों का पालन कीजिए। नित्य-प्रति प्रचुर शारीरिक व्यायाम कीजिए। अपने नित्य के कर्मों को यथा-समय कीजिए। सरल जीवन तथा उच्च विचार का विकास कीजिए। आप इसी जीवन में ईश्वर का साक्षात्कार कर सकेंगे।

 

आप ईश्वर के पावन नामों का स्मरण करते जायें; आप दिव्य समाधि तथा ईश्वरीय योग के सागर में निवास करें! आप महिमामय ऐश्वर्य के पथ पर सदा अग्रसर होते रहें!

३१. अनुशासित जीवन बितायें

आप समस्त संसार के वास्तविक मालिक अथवा शासक हैं। आप किसी के भी अधीन नहीं हैं। सभी प्रकार के दुःखों, भयों तथा शोकों का

 

परित्याग कीजिए। शान्ति में सदा निवास कीजिए। सदा आत्मा की पूजा करें। अनुशासित जीवन बितायें। अपने चरित्र का निर्माण करें। धार्मिक बनें तथा दूसरों की भलाई के लिए सदा कार्य करें। अपने गुरु के प्रति भक्ति तथा श्रद्धा का भाव रखें। धारणा-शक्ति का विकास करें।

 

काम, अभिमान, क्रोध, स्वार्थ, मद इत्यादि का परित्याग करें। आप चित्त-शुद्धि को प्राप्त करेंगे। जब विषय-सुखों के प्रति राग तथा आकर्षण का लोप हो जायेगा, तब आत्म-ज्ञान का उद्भव होगा। आप परमानन्द का उपभोग करेंगे।

३२. जीवन अमूल्य है

 

तो जन्म से तथा पाण्डित्य से ही आदमी भला बन सकता है। अच्छे चरित्र से ही मनुष्य भला बनता है। जिसने अपने चरित्र को खो दिया है, उसने स्वयं को ही खो दिया है। सच्चरित्र के अर्जन द्वारा मनुष्य आध्यात्मिक प्रगति को प्राप्त करता है। जीवन बहुमूल्य है। गीता के उपदेश के अनुसार जीवन-यापन कीजिए। फल की कामना तथा अभिमान से रहित हो कर अपना कार्य कीजिए। सोचिए कि आप भगवान् नारायण के हाथों के उपकरण हैं। आप शीघ्र ही योगी बन जायेंगे। बहुरूपिया पुरुष में निष्ठा रखता है, परन्तु स्त्रियों-जैसी चेष्टा करता है; उसी प्रकार ईश्वर में निष्ठा रखिए तथा हाथों के द्वारा कार्य कीजिए। आप एक ही समय में दोनों वस्तुओं को पा जायेंगे। आप ईश्वर के साथ एक बन जायेंगे।

३३. आध्यात्मिक धन प्राप्त कीजिए

 

शून्य की कितनी भी संख्या तब तक कोई मूल्य नहीं रखती, जब तक कि उसके पीछे एक अंक नहीं रखा जाता; इसी प्रकार तीनों लोकों का धन भी व्यर्थ है यदि आप आध्यात्मिक धन अथवा आत्म-साक्षात्कार के लिए प्रयत्नशील नहीं हैं।

 

अतः आत्मा में निवास कीजिए। इस जीवन के साथ आत्मा को जोड़ दीजिए। "सबसे पहले ईश्वर के साम्राज्य की खोज कीजिए। ये सारी वस्तुएँ आपको स्वतः ही मिल जायेंगी" (प्रभु ईसामसीह) जिस प्रकार हरिकेन लैम्प के भीतर दीप जलता रहता है, उसी प्रकार चिरकाल से तुम्हारे हृदय-दीप में दिव्य ज्योति जल रही है। अपने हृदय की गहराइयों में गोता लगायें उस ईश्वरीय ज्योति पर ध्यान करें और उसके साथ एक हो जायें।

 

३४. कर्म के नियम को समझिए

 

कोई भी घटना बिना किसी निश्चित कारण के घटित नहीं हो सकती। हर वस्तु कारण-कार्य के नियम का अनुगमन करती है। यह नियम बहुत ही रहस्यमय है। यही कारण है कि भगवान् कृष्ण कहते हैं: "गहना कर्मणो गतिः-कर्म की गति गहन है।" प्रकृति की सारी शारीरिक तथा मानसिक शक्ति इस कारण-कार्य के महान् सिद्धान्त का अनुगमन करती है। नियम तथा नियन्ता एक ही हैं।

 

आप अपने विचार तथा चरित्र को बदल कर अपने लिए नवजीवन का निर्माण कर सकते हैं। धार्मिक विचारों तथा कार्यों के द्वारा आप एक धार्मिक व्यक्ति तथा सन्त बन सकते हैं। आत्मज्ञान प्राप्त कर लेने के बाद आप अपने स्वरूप में निवास कर सकते हैं। आप नियन्ता के साथ एक हो जायेंगे तथा फिर कारण-कार्य का नियम आप पर लागू नहीं होगा। आपने अब प्रकृति पर विजय प्राप्त कर ली है।

३५. एक ही गुरु में निष्ठा रखिए

 

क्षमा का विकास कीजिए। व्यर्थ की गपशप का त्याग कीजिए। धार्मिक ग्रन्थों का स्वाध्याय कीजिए। दृढ़ता, सरलता, ब्रह्मचर्य, निर्दोषिता तथा सुख-दुःख, हानि-लाभ आदि द्वन्द्वों में मन के समत्व को बनाये रखने का अभ्यास कीजिए। किसी प्राणि को हानि पहुँचाइए

 

धैर्य, लौह-संकल्प तथा अथक संलग्नता रखिए। एक स्थान, एक आध्यात्मिक गुरु, एक साधना तथा योग की एक ही प्रणाली पर आप टिके रहिए। यही सच्ची सफलता का एकमेव मार्ग है।

 

उदासी तथा अवसाद को, विचार, दिव्य संगीत के गायन, प्रार्थना, का जप, प्राणायाम, खुली हवा में तेजी के साथ टहलना तथा विपरीत गुण-आनन्द के द्वारा शीघ्र ही दूर कीजिए। सभी अवस्थाओं में प्रसन्न रहने का प्रयास कीजिए। अपने चतुर्दिक् के व्यक्तियों में आनन्द विकीर्ण कीजिए।

३६. अपने गुरु की पूजा कीजिए

कामनाओं से पूर्णतः मुक्त बनिए। ईश्वर के ज्ञान की पिपासा रखिए। निष्काम सेवा में संलग्न रहिए। आपको अपरोक्षानुभव तथा ईश्वर-दर्शन प्राप्त होंगे।

 

अपने माता, पिता, गुरु और अतिथि की सेवा कीजिए तथा उनको केवल मनुष्य ही नहीं, वरन् साक्षात् देवता समझ कर उनकी पूजा कीजिए। उनको तदनुसार आदर दीजिए। बड़े आदर-भाव के साथ उनकी सेवा कीजिए भाग्यवाद का शिकार बनिए। अपनी आदतों को बदल डालिए। सदाचारमय जीवन बिताइए। लोभ तथा उद्वेग का दमन कीजिए। अभिमान का त्याग कीजिए। ईश्वर के भक्त बनिए। आपमें दिव्य ज्योति का अवतरण होगा।

३७. ज्ञानियों के साथ सत्संग कीजिए

 

हृदय से सच्चा बनिए। नाम-रूप के मिथ्या खिलौनों की ओर दौड़िए। नाम-रूप सब मिथ्या हैं। वे वायु के स्पन्दन मात्र हैं। इस माया-जगत् में कोई भी व्यक्ति शाश्वत यश नहीं कमा सकता। अल्प तथा नश्वर वस्तुओं की चिन्ता कीजिए। शाश्वत सत्य के लिए ही सदा प्रयत्नशील रहिए ।ईश्वर के चिन्तन एवं आन्तरिक भाव के साथ निरन्तर मौन हो कर निष्काम सेवा कीजिए। दूसरों की सेवा करते समय कभी भी असन्तोष प्रकर कीजिए। सेवा करने के सुअवसर की प्रतीक्षा में रहिए। एक भी सुअवसर अपने हाथ से जाने दीजिए सुअवसरों का निर्माण कीजिए। जप, कीर्तन, ध्यान और गीता, रामायण आदि के स्वाध्याय में नियमित रहिए। अपने आवेगों को सदा नियन्त्रित रखिए। मौन तथा ब्रह्मचर्य का पालन कीजिए। साधु-सन्तों से सम्पर्क रखिए। आपको परमानन्द प्राप्त होगा।

३८. ज्ञानियों के उपदेशों पर चलिए

 

जो मनुष्य दो खरगोशों के पीछे दौड़ता है, वह उनमें से एक को भी नहीं पकड़ पाता; इसी प्रकार वह ध्याता जो कि दो विरोधी विचारों के पीछे दौड़ता है, किसी एक भी विचार में सफल नहीं होता।

 

एक ही ईश्वरीय विचार को बनाये रखिए। हर हालत में उसी पर निष्ठा रखिए। अधिकाधिक शक्ति, बल तथा एकाग्रता के साथ उस विचार का पीछा कीजिए। आप अवश्य ही सफल होंगे। चिन्तित बनें। मन के आदेशों पर चलें ज्ञानियों तथा सन्तों के आदेशानुसार कार्य कीजिए। महात्माओं के स्मरण मात्र से भौतिकवादी व्यक्तियों की नास्तिक प्रवृत्तियों का नाश होता है। उनमें मुक्ति अथवा ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति की प्रेरणा तथा प्रवृत्ति का जागरण होता है।

३९. ईश्वर प्रेम है

 

ईश्वर सत्य है। ईश्वर प्रेम है। सत्य बोलिए। हर व्यक्ति से प्रेम कीजिए। आप शीघ्र ही उनका साक्षात्कार करेंगे। साधुओं, संन्यासियों तथा भक्तों का सत्संग कीजिए। इससे आप विवेक, बल, वैराग्य, आध्यात्मिक शक्ति तथा मन की शान्ति प्राप्त करेंगे। दूसरा कोई मार्ग नहीं है। साधुओं की खोज कीजिए। वे सर्वत्र हैं। आपमें सच्चाई की आवश्यकता है। वे प्रेमपूर्वक सदा खुले हाथों से आपको ग्रहण करने के लिए तैयार हैं।

 

सत्संग से आपका मन ईश्वरीय विचार-ईश्वरीय महिमा, ईश्वरीय भाव, आत्मोद्बोधक आध्यात्मिक विचार-से उसी प्रकार सन्तृप्त हो जायेगा, जिस प्रकार जल से चीनी सन्तृप्त होती है; तभी आप सदा दिव्य चेतना में संस्थित रहेंगे। तब आप उतनी ही देर में आत्म-साक्षात्कार कर सकते हैं, जितनी देर में मनुष्य एक फूल को मसल डालता है।

४०. नाम सर्वशक्तिमान् है

 

संसार-सर्प से डसे गये व्यक्तियों के लिए भगवान् का नाम ही प्रबल विष-हर मन्त्र है। यह अमृत है, जिससे अमृतत्व तथा शाश्वत शान्ति की प्राप्ति होती है। जो भगवान् के नाम का जप करते हैं, उनसे यमराज भी भयभीत रहता है। वह उनके पास तक नहीं पहुँच सकता। सदा ईश्वर के नाम का जप कीजिए और अभय अवस्था प्राप्त कीजिए।

 

ईश्वर आपके कार्यों का पथ-प्रदर्शन करे ! वह आपके पथ पर प्रकाश दे, जिससे आप जन्माधिकार, जीवन के लक्ष्य-आत्म-साक्षात्कार को प्राप्त कर लें! आप सुख, शान्ति तथा सम्पन्नता में निमग्न हो कर जियें।

४१. नियमित कीर्तन कीजिए

संकीर्तन मन अथवा आत्मा के लिए आहार है। संकीर्तन ईश्वरीय 'टॉनिक' है। संकीर्तन श्रान्त स्नायुओं के लिए परम विश्श्रान्तिदायक है। संकीर्तन स्वर्गिक सुधा है। ब्राह्ममुहूर्त तथा रात्रि में संकीर्तन के द्वारा इस अमृत का नित्य-प्रति पान कीजिए।

भक्ति का बल तथा उसकी उग्रता आत्मार्पण और त्याग की परिपूर्णता पर निर्भर है। अधिकांश लोग गुप्त तृप्ति के लिए सूक्ष्म कामनाओं को रखे रहते हैं, यही कारण है कि वे भक्त उन्नति नहीं कर पाते। कामना तथा अहंकार-ये ही आत्मार्पण की दो बाधाएँ हैं।

४२. ईश्वरीय महिमा गाइए

 

पूरे हृदय तथा चित्त के साथ सदा ईश्वर की पूजा कीजिए। उसकी महिमा गाइए। उसका नाम सदा स्मरण रखिए, सारी विपत्तियाँ स्वतः ही नष्ट हो जायेंगी। आपका हृदय शुद्ध हो जायेगा। आप शीघ्र ही ईश्वर-दर्शन करेंगे। आप उसकी उपस्थिति का भान करेंगे।

 

ईश्वरीय ज्योति के अवतरण के लिए ईश्वर से हार्दिक प्रार्थना कीजिए। उसकी कृपा के लिए लालायित रहिए। विरह-व्यथा के कारण उसके लिए रुदन कीजिए। उससे मिलने के लिए व्याकुल बनिए। दिव्य प्रेम के अनल में मन को विलीन कीजिए। प्रेम-मधु का पान कीजिए। ईश्वर-प्रेम की मदिरा पी कर उन्मत्त बन जाइए। अमृतत्व तथा परम सुख प्राप्त कीजिए।

४३. भक्ति का विकास कीजिए

 

मन, वाणी तथा कर्म पर पूरा-पूरा नियन्त्रण रखिए। सत्य बोलिए। शान्त रहिए। इन्द्रियों को अनुशासित कीजिए। ईश्वर के अवतारों तथा गुणों का श्रवण, जप, कीर्तन और ध्यान कीजिए।

 

ईश्वर के प्रति अनन्य भक्ति का विकास कीजिए। उसे अपना पूर्ण हृदय प्रदान कीजिए। किसी सांसारिक संस्कार को प्रश्रय दीजिए। आपके मन में कामना का लेशमात्र भी प्रवेश होने पाये। कीर्तन करना सीखिए। परस्पर भक्ति एवं प्रेम की वार्ता कीजिए। ईश्वर की लीला का स्मरण कीजिए, वर्णन कीजिए और ऐसा तब तक कीजिए, जब तक आपको रोमांच हो जाये। फिर गाइए और नृत्य करते जाइए, जब तक भाव-समाधि में स्वयं खो जायें।

४४. प्रेम के द्वारा ईश्वर का साक्षात्कार कीजिए

 

भगवान् शिव परमात्मा, अन्तर्यामी तथा सारे भूतों के पालक हैं। वह सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् तथा सर्वव्यापक हैं। वह अजर तथा अमर हैं।

 

यदि आप ईश्वर की सच्ची खोज करने वाले हैं, तो आप उसको एक क्षण में मिल सकते हैं। सदा उसका स्मरण रखिए। उसके नाम के आधार पर ही जीवन-यापन कीजिए। उसकी स्तुति कीजिए। अपने हृदय के अन्तरतम से उसका अनुसन्धान कीजिए। भक्तों से प्रेम-विधि सीख कर उसकी सेवा कीजिए, जो आपकी आत्मा का आधार, सारे जगत् का एकमेव स्वामी, आपके हृदय का अन्तर्वासी तथा अन्तर्यामी है।

 

आप सदा ईश्वर के पवित्र नामों को याद रखें तथा दिव्य भाव एवं ईश्वरीय मिलन के सागर में निवास करें! आप सदा सम्पन्न रहें !

४५. हार्दिक प्रार्थना कीजिए

 

ईश्वर में अटूट श्रद्धा तथा धार्मिक ग्रन्थों का सम्यक् ज्ञान रखिए। वैराग्य में आश्रय ग्रहण कीजिए। व्यर्थ की गपशप में अपना समय गँवाइए। समय गतिशील है। हर एक क्षण को उसकी पूजा तथा उपासना में लगाइए। नम्रता, क्षमा, धैर्य तथा सेवा-भाव का विकास कीजिए। सच्चा तथा ईमानदार बनिए। ईश्वर आपके हृदय में, आपके बिलकुल निकट है। जोंक के समान ईश्वर से चिपके रहिए। आप परमानन्द का उपभोग करेंगे।

 

ईश्वर से शुद्धता, ज्योति, भक्ति तथा ज्ञान के लिए प्रार्थना कीजिए शिशुवत् सरल बनिए अपने हृदय के प्रकोष्ठों को खोलिए; आप सब-कुछ प्राप्त कर लेंगे।

४६. प्रार्थना आश्चर्य कर दिखाती है

 

प्रार्थना में महती शक्ति है। महात्मा गान्धी प्रार्थना के बड़े हिमायती थे। यदि प्रार्थना सच्ची है, यदि वह आपके हृदय के अन्तरतम से निकलती है तो निश्चय ही भगवान् का हृदय पिघल जायेगा।

 

द्रौपदी की हृदय-निःसृत प्रार्थना को सुन कर भगवान् श्री कृष्ण नंगे पैर द्वारका से दौड़ कर चल पड़े थे। जगत् के महान् शासक भगवान् हरि ने प्रह्लाद से उसकी प्रार्थना पर कुछ विलम्ब से आने के कारण क्षमा-याचना की थी। कितने करुणानिधान तथा प्रिय हैं भगवान् ! प्रार्थना की शक्ति के विषय में विवाद कीजिए। आप भ्रमित हो जायेंगे। आध्यात्मिक मामलों में विवाद की आवश्यकता नहीं होती। बुद्धि सीमित तथा दुर्बल यन्त्र है। अविद्या के अपने अन्धकार को दूर कीजिए। आप प्रार्थना से विशुद्ध मुख का अनुभव करेंगे।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

द्वितीय अध्याय

शक्ति

. ज्वलन्त मुमुक्षुत्व

 

विषय-सुखों की तृष्णा का परित्याग कीजिए। ईश्वर पर श्रद्धा से टिके रहिए। सतत ज्वलन्त मुमुक्षुत्व बनाये रखिए। आपका मन शुद्ध बना रहेगा। कभी किसी व्यक्ति को मन, वचन तथा कर्म से आघात पहुँचाइए। सदा भले एवं सदय कर्म कीजिए। सारे दुःखों तथा शोकों से स्वयं को मुक्त बनाइए। शान्ति एवं मौन में निमग्न रहिए। आप परम शान्ति तथा नित्य-सुख प्राप्त करेंगे।

 

विवेक, सतत ध्यान तथा अनवरत ब्रह्म-विचार से मन के विक्षेप दूर कीजिए। अपने ध्यान को निष्काम सेवा तथा ईश्वर-पूजा की ओर लगाइए। आप परम सुख को पायेंगे।

. अपने सिद्धान्तों पर दृढ़ रहिए

 

सदा सत्य पर चलिए। अपने मन, वचन और कर्म द्वारा सत्यपरायण बनिए। कारुणिक बनिए। हिम्मत रखिए। ईश्वरार्पण कीजिए। ग्लानि तथा निराशा के लिए कोई भी स्थान नहीं है।

 

अपने सिद्धान्तों तथा आदर्शों पर टिके रहिए। अपने कर्मों के फल का विचार करते हुए, मात्र कर्तव्य करते जाइए; ईश्वर आपके साथ रहेगा। विरक्त बनिए विवेकी बनना सीखिए। अपने को जानिए तथा राग से मुक्त बन जाइए। आप काल तथा मृत्यु से परे चले जायेंगे।

. अपने संकल्प में दृढ़ बनिए

 

सदा प्रसन्न रहिए और अपने शोकों को मुस्कराते हुए भगा डालिए। जीवन के सिद्धान्तों का सदैव पालन कीजिए। खान, पान, शयन, विहार तथा अन्य सभी बातों में परिमित बनिए। ईश्वर में प्रबल श्रद्धा अर्जन कीजिए।

 

आलोड़ित आवेगों को तथा तरंगायमान वृत्तियों को शान्त करें। सांसारिक आकर्षणों में बहें। सावधान रहें। ज्ञानी बनें। सांसारिक बुद्धि वाले मनुष्य से दूर रहिए। छोटे-से-छोटे कार्य में भी मन, बुद्धि, हृदय तथा आत्मा को लगा दें। श्रद्धा तथा निश्चय के साथ काम करें। अपने संकल्प में दृढ़ तथा निश्चय में अटल रहें।

. अपने व्रतों में दृढ़ बनिए

 

अपने कर्तव्यों को समुचित रूप से निभाइए। अपने व्रतों में दृढ़ तथा वाणी में सच्चा बनिए सच्चरित्र बनिए सबके प्रति सदय बनिए क्रोध पर विजय पाइए। आत्म-विजयी बनिए। द्वेष से मुक्त बनिए। आप शीघ्र ही ईश्वर का साक्षात्कार करेंगे।

 

ईश्वर के नाम में आश्रय ग्रहण कीजिए। अपने दोषों तथा कमजोरियों के विषय में बार-बार मत सोचिए पूरे हृदय से दिव्य जीवन की कामना कीजिए। आध्यात्मिक जीवन में उन्नति को प्राप्त करें। आप ईश्वरत्व को प्राप्त करेंगे।

 

उस परमात्मा की महिमा तथा ज्योति पर ध्यान कीजिए जो सब वस्तुओं को प्रकाशित करता है, जो अदृश्य है तथा जो सच्चिदानन्द है। आप ब्रह्म को प्राप्त करेंगे।

. कभी निराश हों

 

आपको कर्म में स्वतन्त्रता है। आप अपने कर्म को जैसे भी चाहें, कर सकते हैं। मनुष्य एक असहाय प्राणी नहीं है। उसकी एक अपनी स्वतन्त्र इच्छा-शक्ति है।

 

अतः सभी प्रतिकूल परिस्थितियों पर विजय पाइए। साहस रखिए। वीर बनिए। कभी भी निराश बनिए। आप सफल होंगे। इस संसार में सम्यक् पुरुषार्थ के द्वारा कुछ भी अप्राप्य नहीं है।

 

अब जागिए। अपनी आँखें खोलिए। धार्मिक मनुष्य बनिए। अच्छे कर्म करिए। हरि के नाम का गायन करिए। सतत सत्संग करिए सारी बुरी आदतें नष्ट हो जायेंगी। शुद्ध बनिए। ध्यान करिए। आप लक्ष्य को प्राप्त करेंगे।

. जैसा सोचोगे, वैसा ही बनोगे

'मनुष्य जैसा विचार करता है, वैसा ही बन जाता है' यह प्रकृति का एक महान् नियम है। विचार कीजिए कि 'मैं शुद्ध हूँ', आप शुद्ध बन जायेंगे। विचार कीजिए कि 'मैं मनुष्य हूँ', आप मनुष्य बन जायेंगे। विचार कीजिए कि 'मैं ब्रह्म हूँ', आप ब्रह्म हो जायेंगे। सुन्दर स्वभाव की प्रतिमूर्ति बन जाइए। सदा भले कर्म ही कीजिए। सेवा कीजिए। प्रेम कीजिए। दान दीजिए। ब्रह्मचर्य तथा मौन का पालन कीजिए। क्रोध का दमन कीजिए। दूसरों को सुखी बनाने के लिए ही जीवन-यापन कीजिए। तभी आप भी सुखी बन सकेंगे।

. अपने अन्दर से शक्ति प्राप्त कीजिए

 

मन को अपने रास्ते पर स्वतन्त्र रूप से मत चलने दीजिए। अपने प्राण तथा इन्द्रियों को अपने अधीन रखिए। सत्त्व-सम्पन्न सबल बुद्धि के द्वारा मन को अपने अधीन कीजिए।

 

प्रतिज्ञा करने में शीघ्रता कीजिए; परन्तु प्रतिज्ञा का पालन करने में शीघ्रता कीजिए मिलनसार, प्रियकर स्वभाव तथा यथाव्यवस्था के गुण का अर्जन कीजिए साहसी बनिए। कभी भी निराश होइए। अपने अन्तर से बल प्राप्त कीजिए सर्वत्र ईश्वरीय स्थिति का भान कीजिए। ईश्वरीय उदाम में गहरा गोता लगाइए। आप असीम सुख का साक्षात्कार करेंगे।

. प्रकृति पर विजय

 

आदर्श तथा लक्ष्य के लिए संग्राम करना ही जीवन है। जीवन जागरण का एक क्रम है। मन तथा इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करें। ये ही आपके वास्तविक शत्रु हैं। व्रतों का आजीवन पालन करना चाहिए। अन्तर्बाह्य प्रकृति पर विजय पाइए। तामसिक, विद्रोही अज्ञान की शक्तियों के विरुद्ध जप तथा ध्यान की सहायता से संग्राम कीजिए। उन्नत आध्यात्मिक ज्ञान के धामों में विहार कीजिए। अपने पुरुषत्व तथा आध्यात्मिक बल का प्रदर्शन कीजिए।

. यह जगत् महान् पाठशाला है

 

यह जगत् महान् पाठशाला है। यह हमारी शिक्षा के लिए है। ज्ञानी बनिए। योग की चेतना रखिए। सारे शुभ अवसरों से यथासम्भव लाभ उठाइए बुराई-जैसी कोई वस्तु नहीं है। आपकी क्षमता तथा इच्छा-शक्ति विकसित होगी। आप अधिकाधिक दिव्य ज्योति, ज्ञान, शुद्धता, शान्ति तथा आध्यात्मिक बल प्राप्त करेंगे।

 

फूलों तथा हरी घास के साथ मुस्कराइए पौधों, पल्लवों तथा शाखाओं के साथ हिल-मिल जाइए। सभी पड़ोसियों, मनुष्यों, कुत्तों, बिल्लियों, गायों तथा वृक्षों-सारी सृष्टि के साथ बन्धुत्व का विकास कीजिए। आप जीवन की पूर्णता को प्राप्त करेंगे।

 

अपनी आँखें खोलिए। गम्भीर नींद तथा तमस् से जागिए। आप दिव्य हैं। आप आत्मा हैं, इसका साक्षात्कार करें तथा मुक्त बन जायें।

१०. जगत् आपका शरीर है

 

कर्मों के संस्कार बनते हैं। बारम्बार एक ही कर्म करने से प्रवृत्ति होती है। प्रवृत्तियों के द्वारा आदत तथा मनुष्य का चरित्र बनता है। मनुष्य की प्रवृत्तियों का कुल योग ही उसका चरित्र है। चरित्र से संकल्प की उत्पत्ति होती है। अतः यदि चरित्र शुद्ध तथा सबल है, तो संकल्प भी सबल तथा शुद्ध होगा।

 

अतः शीघ्र ही अच्छी आदतों के बीज बोइए। यह शनैः शनैः बढ़ेगा। यह शरीर तथा मन में अपना स्थान ग्रहण करने का प्रयास करेगा। यह तब तक प्रयत्नशील रहेगा, जब तक कि पूर्ण सफलता प्राप्त हो जाये सारी पुरानी आदतें तब विनष्ट हो जायेंगी। भान कीजिए कि सारा संसार आपका घर अथवा आपका शरीर है। भान कीजिए कि ईश्वर इस जगत् के सारे प्राणियों के अन्दर निवास करता है- "ईशावास्यमिदं सर्वम्।" आप परब्रह्म को प्राप्त करेंगे।

११. कर्मयोग के रहस्य को समझिए

 

देखिए, भगवान् बुद्ध, श्री शंकर तथा प्राचीन काल के अन्य कर्मयोगियों ने कितना विशाल तथा उदात्त कार्य कर दिखाया है। उनके नाम तथा यश परम्परा से चले रहे हैं। आज भी उनके नाम लिये जाते हैं। सारा जगत् आदर के साथ उनकी पूजा करता है। क्या आप उनमें लेशमात्र के लिए भी स्वार्थ की गन्ध पा सकते हैं? दूसरों की भलाई के लिए ही उन लोगों ने अपना जीवन-यापन किया। उनका आत्म-त्याग चरम सीमा को प्राप्त था।

 

कर्म विपत्ति का जनक नहीं है। कर्मों में आसक्ति तथा तादात्म्य- सम्बन्ध ही सभी प्रकार के दुःख, शोक तथा कष्टों के जनक हैं। कर्मयोग के रहस्य को समझिए तथा बिना आसक्ति एवं तादात्म्य-सम्बन्ध से कर्म कीजिए। आप शीघ्र ही ईश्वर-चैतन्य को प्राप्त करेंगे। यही ज्ञान है। यही ज्ञानामि है जो सभी कर्मों के फलों को जला डालती है।

 

१२. कर्मयोग आनन्द प्रदान करता है

क्या आप अपने छोटे पुत्र के लिए कुछ करते समय उसके बदले में उससे कुछ अपेक्षा रखते हैं? ठीक उसी प्रकार से आपको दूसरों के लिए भी निष्काम भाव से कार्य करना पड़ेगा। आपको विकसित हो कर यह भान करना पड़ेगा कि यह सारा जगत् आपकी आत्मा है।

 

इससे प्रारम्भ में तो आपको कुछ दुःख उठाना पड़ेगा; क्योंकि अब तक आपने निष्काम भाव से कभी भी सेवा नहीं की है। यदि आप अल्प मात्र भी निष्काम सेवा का आनन्द प्राप्त कर लेंगे, तो आप फिर उसको छोड़ नहीं सकते। सेवा की शक्ति आपको उत्साह तथा स्फूर्ति के साथ अधिकाधिक काम करने के लिए प्रेरित करती रहेगी।

 

आप यह अनुभव करने लगेंगे कि यह सारा जगत् ही ईश्वर की अभिव्यक्ति है। आपको अत्यन्त आन्तरिक शक्ति तथा हृदय की शुद्धता प्राप्त होगी। आपका हृदय सहानुभूति, करुणा तथा शुद्ध प्रेम से परिप्लावित हो जायेगा। निष्काम सेवा तथा आत्म-त्याग की आपकी चेतना अविराम असीमता की ओर विकसित होगी।

१३. कर्मयोग द्वारा ज्ञान

 

कर्म पूजा है। कर्म ध्यान है। अत्यन्त प्रेम से कर्तृत्व-भाव के बिना, फल अथवा पुरस्कार की अपेक्षा करते हुए, निष्काम भाव से हर व्यक्ति की सेवा करें। आपको ईश्वर-साक्षात्कार की प्राप्ति होगी। मानवता की सेवा ईश्वर की सेवा है।

 

"हे अर्जुन, ईश्वर सबके हृदय का अन्तर्वासी है। वह अपार माया- शक्ति के द्वारा सभी भूतों तथा प्राणियों को ऐसा नचाता रहता है मानो कि वे सब-के-सब कुम्हार के चाक पर आरूढ़ हो।"

 

सेवा की भावना आपके अन्दर हड्डियों, जीवकोशों, मांसपेशियों, स्नायुओं आदि में गहराई तक गड़ जानी चाहिए। इसका फल अमूल्य है। अभ्यास कीजिए और विश्वात्म-विकास तथा असीम आनन्द का भान कीजिए। काम में अत्यन्त उत्साह रखिए। आपकी सेवा-भावना ज्वलन्त बने

१४. कर्मयोगी ईश्वर के बहुत निकट है

कर्मयोगी कहता है-“फल की अपेक्षा रखते हुए सारे कर्मों को कीजिए। इससे चित्त-शुद्धि होगी। तब आप आत्मज्ञान को प्राप्त करेंगे।" आप मोक्ष या अमरानन्द तथा अमृतत्व को प्राप्त करेंगे। यही उसका सिद्धान्त है।

उपर्युक्त सिद्धान्त की चेतना के अनुसार यदि आप काम करेंगे, तो आपका चित्त शुद्ध होगा। आपके द्वारा किये गये कर्मों का यह महान् पुरस्कार है। शुद्ध मन वाले व्यक्ति की उन्नत अवस्थाओं की आप कल्पना भी नहीं कर सकते। वह ईश्वर के बहुत निकट रहता है। वह ईश्वर का प्रिय है। वह शीघ्र ही दिव्य ज्योति को प्राप्त करेगा।

 

बिना किसी कामना से सेवा-कार्य करें। उसके फल के बदले शुद्धता तथा आन्तरिक बल का अनुभव करें। कितना विकसित होगा आपका हृदय ! अनिर्वचनीय अभ्यास कीजिए, अनुभव कीजिए तथा इस अवस्था का आनन्द लूटिए।

१५. कर्मयोग ही सर्वोत्तम योग है

 

यदि आप देश की, समाज की अथवा गरीब बीमार व्यक्तियों की थोड़ी भी सेवा करेंगे, तो इससे आपको विशेष लाभ अवश्य मिलेगा। इससे आपका हृदय शुद्ध होगा तथा आपका अन्तःकरण आत्मज्ञान को प्राप्त करने तथा ग्रहण करने में समर्थ बनेगा।

 

इन भले कर्मों के संस्कार आपके हृदय में गहरे गड़ जायेंगे। इन संस्कारों की शक्ति आपको पुनः भले कार्यों की ओर प्रवृत्त करेगी। सहानुभूति, प्रेम, राष्ट्र-भक्ति तथा सेवा-भावना का विकास होगा।

१६. सभी के साथ एकता का अनुभव करें

 

किसी भी समाज, आश्रम, मठ अथवा धार्मिक संस्था में नित्य-प्रति दो घण्टे तक निष्काम भाव के साथ सेवा कीजिए। इससे आपका हृदय शुद्ध हो जायेगा। याद रखिए कि ईश्वर समाज की भित्ति है। याद रखिए कि यह सारा जगत् भगवान् का विराट् रूप है। पृथ्वी हरि है। वृक्ष हरि है। यदि आप नारायण अथवा आत्म-भाव के साथ सेवा करेंगे, तो आपको नया दृष्टिकोण प्राप्त होगा। आप इसी पृथ्वी पर स्वर्ग को प्राप्त करेंगे।

१७. विकसित बनिए, प्रगति कीजिए

 

मन को पूर्णतः संलग्न रखें। सारी मानसिक दुर्बलताओं को दूर करें। इन्द्रियों को उपद्रवी बनायें। सदा सावधान तथा सतर्क रहें। काम से घृणा करें, स्त्री से नहीं। मौन में ईश्वरीय धीमी आवाज का श्रवण करें। आप अतीत जीवन का सदा उपभोग करेंगे।

 

सारे कार्यों को योग में बदल डालें। धर्म के मार्ग का अनुगमन करें। अज्ञान की नींद से जाग पड़ें। अवांछनीय व्यक्तियों के साथ मत मिलें। सात्त्विक संग में रहें। आप पर्याप्त शान्ति को प्राप्त करेंगे।

 

विकसित बनें। प्रगति करें। सबसे मिलें। नम्र बनें। ईश्वर में आश्रय ग्रहण करें। सारे कष्ट स्वतः दूर हो जायेंगे। आप परम शान्ति का उपभोग करेंगे।

१८. अपनी प्रवृत्तियों की जाँच कीजिए

 

निष्काम भाव से निःस्वार्थ सेवा कीजिए। अपनी प्रवृत्ति की जाँच कीजिए। आपकी प्रवृत्ति पूर्णतः शुद्ध होनी चाहिए। फल की कामना कीजिए; परन्तु आलस्य का शिकार भी बनिए। मानव-जाति तथा देश आदि की सेवा में अपनी पूरी शक्ति लगा दीजिए। निष्काम सेवा में निमग्न हो जाइए।

 

शारीरिक कार्य यन्त्रवत् होते रहेंगे। आपके दो मन होंगे। एक भाग सदा जप तथा ध्यान की ओर लगा रहेगा। काम करते समय भी भगवान् के नाम का जप करते जाइए। अष्टावधानी एक ही समय में आठ काम करते हैं। प्रश्न तो मन को अनुशासित करने का है। मन को इस प्रकार अनुशासित कर सकते हैं कि हाथों से काम करते समय भी यह ईश्वर का स्मरण कर सके। यही कर्मयोग तथा भक्तियोग का समन्वय है। यह सर्वोत्तम योग है।

१९. आध्यात्मिक दैनन्दिनी रखिए

 

सात्त्विक गुणों का विकास कीजिए। शक्ति की रक्षा कीजिए। नियमित व्यायाम के द्वारा अपने शरीर को मजबूत तथा स्वस्थ बनाइए सच्चाई के साथ शुद्ध अन्तःकरण से नित्य आध्यात्मिक दैनन्दिनी को भरिए अवधान का विकास कीजिए। आध्यात्मिक वीर बनिए।

 

सदा ठीक विचार कीजिए तथा ठीक काम कीजिए। उदार तथा उन्नत विचारों को प्रश्रय दीजिए। सदा आत्म-विश्वास बनाये रखिए। जो-कुछ भी कीजिए, उसमें सफलता का संकल्प रखिए। आप अपने प्रयासों में अवश्य ही सफल बनेंगे। यही रहस्य की बात है।

 

साधुओं तथा ऋषियों को सदा याद रखिए। उनके उपदेशों से प्रेरणा ग्रहण कीजिए। प्रेम-मार्ग का अनुसरण कीजिए। भक्ति का मधु छक कर पीजिए। ईश्वर के साथ मिलन प्राप्त कीजिए तथा ईश्वर-चैतन्य के परम धाम को पहुँच जाइए।

२०. साधना का तत्काल अभ्यास कीजिए

 

यही समय है जब कि आप अपना समय जप तथा ध्यान में नियमित रूप से सुखपूर्वक व्यतीत करें। ईश्वर ने आपको सब प्रकार की सुविधाएँ तथा सुअवसर प्रदान किये हैं। उसकी याद कीजिए तथा उसको धन्यवाद दीजिए।

 

उसकी महिमा का गायन कीजिए। अपने परिवार के सभी सदस्यों के साथ रात में कीर्तन कीजिए। वीर बनिए प्रसन्न रहिए। भलाई कीजिए। शुद्ध बनिए सावधान रहिए। इसी जन्म में जीवन्मुक्त बनिए।

२१. सतत साधना कीजिए

 

अपने मन को जप, धारणा, ध्यान, स्वाध्याय, सत्संग अथवा कुछ उपयोगी कार्य में सदा संलग्न रखिए।

 

साधना में नियमित रहना अनिवार्यतः आवश्यक है। इस बात को सदा अपने ध्यान में रखिए।

 

आप सदा ईवश्वर के नाम का गायन और निष्काम सेवा करते हुए, अपनी वस्तुओं को बाँटते हुए तथा नियमित जप और ध्यान में सुखी तथा सन्तुष्ट जीवन व्यतीत करें।

२२. अपनी साधना में नियमित बनिए

 

सदा सन्तुलित मन बनाये रखिए। प्रसन्न तथा सुखी बनिए। विचार तथा ईश्वरीय संगीत के गायन, प्रार्थना, का कीर्तन, प्राणायाम, तेजी के साथ खुली हवा में भ्रमण तथा प्रतिपक्षी गुण सुख की भावना पर ध्यान के द्वारा उदासी एवं अवसाद की भावना को दूर भगाइए। आप प्रसन्न रहेंगे।

 

सावधानी के साथ योग में संलग्न रहिए। अपनी कुशलता तथा दक्षता का प्रयोग कीजिए। विचारों तथा कामनाओं को मार डालिए। भाग्यवादी बनिए। सिंह की तरह उठिए। प्रयास कीजिए। प्रयत्न कीजिए। आप स्वतन्त्रता प्राप्त करेंगे।

 

मन को स्थिर बनाइए। ईश्वर पर उसको स्थापित कीजिए। किसान जिस तरह हल चलाता है, उसी प्रकार से धैर्य के साथ बढ़ते जाइए संलग्न रहिए। यही सच्ची साधना है। अपनी साधना में सदा नियमित बनिए। इसके द्वारा आप मुक्ति, आनन्द, शान्ति तथा अमृतत्व की प्राप्ति करेंगे।

२३. प्रेम के द्वारा सबल बनिए

 

आप अपनी आध्यात्मिक साधना में सदा नियमित रहिए। नियमित रहना परमावश्यक है। सबसे प्रेम कीजिए। सबको गले लगाइए। दिव्य प्रेम विकसित कीजिए। सबमें अपनी आत्मा का दर्शन कीजिए। दिनानुदिन अधिकाधिक आध्यात्मिक बल का अर्जन कीजिए। मोक्ष को प्राप्त कीजिए। आत्मा के सुख का उपभोग कर मुक्त बन जाइए।

 

आप सभी सुखी बनें! आप सभी रोग से मुक्त बनें! आप श्रेय वस्तु का साक्षात्कार करें! आप सदा ईश्वर में निवास करें!

२४. साधना तथा सन्तोष स्वास्थ्य के रहस्य हैं

 

सारे रोगों की सर्वोत्तम औषधि तथा सुन्दर स्वास्थ्य रखने का सर्वोत्तम साधन कीर्तन, जप तथा नियमित ध्यान है। ईश्वरीय तरंग जीवकोशों, स्नायुओं तथा मांसपेशियों में नव-जीवन का संचार करती है।

 

दूसरी सस्ती किन्तु प्रभावशाली औषधि है-सदा सुखी तथा प्रसन्न रहना नित्य-प्रति गीता के एक या दो अध्याय अर्थ के साथ पढ़िए अपने को पूर्णतः संलग्न बनाये रखिए, जिससे सांसारिक विचार प्रवेश कर पायें।

२५. साधन-चतुष्टय से युक्त बनिए

 

सत्य अथवा ब्रह्म की चट्टान पर अविचल स्थिर रहिए। स्वयंप्रकाश, अमर आत्मा तथा सत्य को कस कर पकड़े रहिए। साधन-चतुष्टय से युक्त बनिए

 

नित्य-प्रति यथासम्भव अधिक-से-अधिक सदाचारपूर्ण कार्य कीजिए। श्री राम, हरि अथवा अपने इष्ट-मन्त्र का शान्तिपूर्वक अथवा साँस के साथ मानसिक जप कीजिए। पुण्य कर्मों का करना ही आध्यात्मिक जीवन का श्रीगणेश है।

 

सरल, स्वाभाविक जीवन तथा उच्च उदात्त विचार रखिए। नैतिक गुण तथा इन्द्रिय और मन के दमन का विकास कीजिए। ध्यान का अभ्यास कीजिए और आत्म-साक्षात्कार कर सदा के लिए मुक्त हो जाइए।

२६. आत्मसंयमी बनिए

 

आध्यात्मिक जीवन कोरी गप्प नहीं है। यह आत्मा में यथार्थ जीवन है। यह विशुद्ध सुख का अनुभव है। यह पूर्णता तथा सम्पन्नता का जीवन है।

 

आत्मसंयमी बनें। विवेकी बनें। ठीक क्या है, इसको जानें। अपनी प्रतिज्ञा का पालन करें। उदार तथा निष्पक्ष बनें। भक्ति की गहराई में सागर के समान और दृढ़ता में हिमालय के समान बनें।

 

काम, घृणा, लोभ, स्वार्थ तथा द्वेष के पौधों को उखाड़ कर अपनी हृदयवाटिका में सुख तथा शान्ति के वृक्ष लगाइए। जागिए तथा सर्वदा यह भान कीजिए कि मैं सर्वव्यापक, अमर चैतन्य तथा अक्षय नित्य आत्मा हूँ।

२७. आत्मावलम्बी बनें

 

साहसी, सरल तथा सुशील बनें। अपने गुरु जनों का आदर करें। सदा सतर्क रहें। क्रोध पर पूर्ण नियन्त्रण रखें। सारी भलाई के मूल बन जायें। ऋषियों तथा सन्तों के उपदेशों के अनुसार चलें। अपनी आत्मा पर निर्भर रहें। धैर्य के साथ कष्टों को सहन करें। धीर बनें। प्रयत्नशील रहें। निश्चय ही आप सहायता प्राप्त करेंगे।

 

ईश्वर-परायण बनें। मन को शुद्ध बनायें। नित्य-प्रति कुछ घण्टों के लिए एकान्त स्थान में बैठें। अपनी सारी इन्द्रियों को विषयों से समेट लें। मन को अपने अधीन कर लें। उसको ईश्वर की ओर लगायें। ईश्वरीय कृपा का आप पर अवतरण होगा।

२८. प्रकृति को जीतिए

 

पवित्र कामनाओं को प्रश्रय दें। आप दिव्य महिमा से विभासित हो उठेंगे। आपको प्रयाग, हिमालय, काशी आदि में कई ऐसे स्थान मिलेंगे, जहाँ आप साधु-पुरुषों के साथ तपस्या, साधना तथा ध्यान कर आत्म-साक्षात्कार प्राप्त कर सकते हैं।

 

कारण-कार्य के अपरिवर्तनशील नियम की सुरक्षा में मनुष्य शान्तिपूर्वक अपनी इच्छा के अनुसार किसी भी कार्य के सम्पादन के लिए अग्रसर हो सकता है; अतः ईश्वरीय विचारों को प्रश्रय दीजिए। आप निश्चय ही अपने सुनिर्दिष्ट प्रयासों में सफल होंगे। प्रकृति में कुछ भी नष्ट नहीं होता। बेकन ने कहा है- "आज्ञाकारिता के द्वारा प्रकृति वशवर्ती होती है।

२९. वैराग्य प्राप्त कीजिए

 

कर्तव्य-पालन के लिए जितना आवश्यक है, उससे अधिक अपने सांसारिक मामलों के विषय में चिन्ता कीजिए। अपने कर्तव्य कीजिए, शेष ईश्वर के ऊपर छोड़ दीजिए। अपने आदर्श, सिद्धान्त तथा ध्येय रखिए। दृढ़ता तथा स्थिरता के साथ उनसे चिपके रहिए। अपने आदर्शों तथा सिद्धान्तों से लेशमात्र भी विचलित हों।

 

लक्ष्य तथा उद्देश्य को याद रखिए, जिसके लिए आपने यह भौतिक शरीर धारण किया है। मन का निरीक्षण कीजिए। वृत्तियों तथा विचारों का निरीक्षण कीजिए। उन्हें भगा दीजिए। मानसिक वैराग्य तथा मानसिक संन्यास प्राप्त कीजिए।

३०. श्रद्धा ही जीवन है

 

ईश्वर में अटूट श्रद्धा का अर्जन कीजिए। श्रद्धा ईश्वर में प्रवेश का द्वार है। श्रद्धा चमत्कार कर सकती है। सदा श्रद्धा तथा संकल्प के साथ काम कीजिए। प्रतिज्ञा में दृढ़ तथा संकल्प में ज्वलन्त बनिए

 

साधुओं तथा ज्ञानियों का स्मरण कीजिए। प्रार्थना, जप तथा कीर्तन नियमित रूप से कीजिए। अपने गुरु से सम्पर्क बनाये रखिए। गीता, रामायण तथा भागवत-जैसे धार्मिक ग्रन्थों का स्वाध्याय कीजिए। इससे श्रद्धा के बीज का वपन तथा विकास होगा; अन्ततः श्रद्धा सुदृढ़ तथा अविचलित हो जायेगी।

३१. श्रद्धा नहीं, तो ज्ञान नहीं

 

जीवन का लक्ष्य ईश्वर-साक्षात्कार है। जीवन श्रद्धा तथा ज्ञान है। साधक के लिए श्रद्धा प्रमुख गुण है। श्रद्धा नहीं, तो भक्ति नहीं। श्रद्धा नहीं, तो ज्ञान नहीं।

 

कुसंगति, काम, लोभ तथा पत्नी, पुत्र और सम्पत्ति के प्रति मोह एवं असात्त्विकता-ये श्रद्धा के शत्रु हैं। हलका, पौष्टिक तथा सात्त्विक आहार कीजिए।

 

ध्यान कीजिए। इसी क्षण अपरोक्षानुभव से उसका साक्षात्कार कर आत्म-सुख का उपभोग कीजिए।

३२. उसके सार को जानिए

भगवान् हरि ने साधुओं की रक्षा, दुष्टों का विनाश तथा धर्म की स्थापना के लिए भगवान् कृष्ण तथा राम के रूप में अवतार लिया भगवान् कृष्ण कहते हैं- "मेरी परा प्रकृति से अनभिज्ञ मूर्ख जन, मानव-रूप में मेरा अनादर करते हैं, मुझे सारे भूतों का महान् प्रभु नहीं मानते।"

 

उपद्रवी इन्द्रियों तथा माया की शक्तियों के प्रभाव से विचलित बनिए। भक्ति एवं श्रद्धा के साथ उसे तथा उसके सार को जानिए। उसकी कृपा से परम सुख, शान्ति तथा ज्ञान को प्राप्त कीजिए।

३३. ध्यान कीजिए और बल प्राप्त कीजिए

 

अपने अन्दर की सारी शक्ति की रक्षा कीजिए। गरमा-गरम बहस, वक्तृता, युद्ध तथा बौद्धिक पाण्डित्य के प्रदर्शन द्वारा अपने समय तथा शक्ति को नष्ट कीजिए। विवाद तथा बहस को पूरी तरह से त्याग दीजिए। आप आध्यात्मिक मार्ग में उन्नति प्राप्त करेंगे।

 

भ्रम को दूर कर भगवान् शिव की भक्ति का अर्जन कीजिए। वे ईश्वरों के ईश्वर, देवों के देव तथा योगियों के योगी हैं।

 

यदि आप आधा घण्टा ध्यान कर लें, तो उससे प्राप्त शक्ति से आप नित्य-प्रति के जीवन-संग्राम का सामना शक्ति एवं आध्यात्मिक बल के साथ एक सप्ताह तक कर सकते हैं। ध्यान के द्वारा ऐसा लाभ प्राप्त होता है।

 

आपको विभिन्न बुद्धि के व्यक्तियों से मिलना पड़ता है। अतः, ध्यान द्वारा पर्याप्त शान्ति तथा शक्ति का अर्जन कर लीजिए और शोक तथा दुःख से मुक्त बनिए

 

३४. अज्ञान को नष्ट कीजिए

 

तपस्या तथा ध्यान का जीवन बिताइए। संकीर्ण अहंकार के दायरे से निकल कर विशाल दृष्टिकोण प्राप्त कीजिए। कुसंगति से सावधान रहिए। पियक्कड़ों के साथ में रह कर एक भला आदमी भी पीना शुरू कर देता है।

 

कष्टों तथा कठिनाइयों में धैर्य रखें। दृढ़ बनें तथा बाधाओं पर विजय प्राप्त करें। मुक्ति की प्राप्ति के लिए ज्वलन्त कामना रखें। सत्संग तथा श्रवण, मनन और निदिध्यासन के द्वारा अज्ञान को नष्ट कर डालें।

 

अपने आवेगों पर शासन करें। अपने संकल्प में सदा दृढ़ बनें। अपनी प्रतिज्ञा पर अविचलित रहें। आप जीवन के हर क्षेत्र में सफलता प्राप्त करेंगे।

३५. तीन प्रकार की तपस्याओं का अभ्यास कीजिए

 

अपने मन, वचन एवं कर्म से अहिंसा तथा ब्रह्मचर्य का पालन कीजिए। शौच तथा आर्जव का अभ्यास कीजिए। समत्व-बुद्धि रखने का प्रयास कीजिए। सदा प्रफुल्लित रहिए। शुद्ध भाव रखिए। इन तीन प्रकार की तपस्याओं (वाचिक, मानसिक तथा शारीरिक) का अभ्यास कीजिए तथा अपने कार्यों पर पूरा नियन्त्रण रखिए।

 

अपनी वाणी में सावधान रहिए। थोड़ा बोलिए। प्रिय तथा मधुर शब्द बोलिए। कटु शब्द कभी बोलिए। ऐसा शब्द कभी बोलिए, जिससे दूसरों की भावनाओं को चोट पहुँचे। सत्य बोलने का प्रयत्न कीजिए। आप अपनी वाक्-इन्द्रिय पर पूरा नियन्त्रण रखें।

 

बुरे विचार ज्यों-ही मन के किले में घुसने का प्रयास करें, त्यों-ही बिवेक के खड्ग से उन्हें मार डालिए। इस प्रकार आप सुन्दर चरित्र का निर्माण कर सकते हैं।

३६. अमृत-पान कीजिए

 

मन को शुद्ध बनाइए। सारी इन्द्रियों को उनके विषयों से समेट लीजिए। मन को अपने अधीन कर लीजिए। अन्तर्निरीक्षण कीजिए अपने ध्यान को ईश्वर-साक्षात्कार की ओर लगाइए।

 

सच्चा ब्रह्मचारी बनिए मानसिक तथा शारीरिक ब्रह्मचर्य में स्थित हो जाइए। सात्विक आहार लीजिए। वैराग्य को बढ़ाइए। ईश्वर में पूर्ण श्रद्धा रखिए।

 

विवेक का कवच पहनिए। वैराग्य की ढाल ले लीजिए। साहस का शंख फूकिए। शंका, अज्ञान, काम, अभिमान आदि शत्रुओं को मार कर सुखमय ब्रह्म के असीम साम्राज्य में प्रवेश कीजिए। अमृत-सुधा का पान कीजिए।

३७. अमृतत्व आपका जन्माधिकार है

 

साहस, शक्ति, बल, ज्ञान तथा आनन्द आपकी दिव्य पैतृक सम्पत्ति और ईश्वरीय जन्माधिकार है। इसको कभी भूलिए कि आप विचार, प्रभाव तथा शक्ति के केन्द्र हैं।

 

यह जगत् मृत्यु से आक्रान्त है। दिन के बाद रात्रि और रात्रि के बाद दिन का यह चक्र निरन्तर चलता रहता है। एक दिन बीत जाये, तो समझिए कि जीवन का एक भाग ही उसके साथ क्षीण हो गया है।

 

अध्यवसायपूर्वक योग का अभ्यास कीजिए। साधुओं तथा ज्ञानियों का स्मरण कीजिए। सच्चा बनिए। करुणा, प्रेम, मैत्री तथा बन्धुत्व-भावना का विकास कीजिए। आप सबके साथ एक बन जायेंगे। आप प्रत्येक चेहरे में ईश्वर को देखेंगे। आप निःशेष आनन्द का उपभोग करेंगे।

३८. अपने लक्ष्य को भूलिए

 

कठिनाइयों, विपत्तियों तथा जीवन की हर कष्टपूर्ण परिस्थितियों में जहाँ तक सम्भव हो, शान्त बने रहने का प्रयास कीजिए। अपने हृदय के अन्तस्तल में प्रार्थना कीजिए तथा प्रतीक्षा कीजिए। आपको निश्चय ही सहायता मिलेगी। ईश्वर में दृढ़, पूर्ण एवं अनन्य श्रद्धा रखिए।

 

शुद्ध सार्वभौमिक सहानुभूति तथा विश्व-प्रेम का विकास कीजिए। समानता तथा एकता का जीवन यापन कीजिए। गम्भीर एकाग्र सद्विचार रखिए।

 

लक्ष्य को भूलिए। प्रतिदिन लक्ष्य की ओर एक-एक पग अग्रसर होते जाइए। माया विविध रूपों को धारण करेगी। ध्यान कीजिए, प्रार्थना कीजिए तथा बाधाओं को जीतिए।

३९. जागिए तथा लक्ष्य को प्राप्त कीजिए

 

उस लक्ष्य तथा उद्देश्य को स्मरण कीजिए, जिसके लिए आपने यह भौतिक शरीर धारण किया है। मन को ढीला छोड़िए। वृत्तियों और विचारों पर निगरानी रखिए। उन्हें भगा दीजिए।

 

जिस प्रकार सैनिक अपने शत्रुओं को किले में प्रवेश करते समय अपने खड्ग से मार डालता है; उसी प्रकार ज्यों-ही मन वृत्तियों का फन फैला कर चले, त्यों-ही विवेक-दण्ड से निर्ममतापूर्वक उस पर प्रहार कीजिए। अपनी वृत्तियों का उन्मूलन कीजिए।

४०. जीवन का लक्ष्य ईश्वर-साक्षात्कार है

 

जीवन का लक्ष्य ईश्वर-साक्षात्कार है। ईश्वर को जानने से सारी कामना पूरी हो जाती है। शुद्ध, सूक्ष्म विचार से ईश्वर-साक्षात्कार सम्भव है। विषय-वस्तुओं में लेशमात्र भी सुख नहीं है; क्योंकि वे जड़ हैं। लखपतियों तथा राजाओं के मन में भी सदा बेचैनी, अशान्ति तथा असन्तोष रहता है।

 

ईश्वरीय ज्ञान के उदय होते ही सारे भय, दुःख तथा कष्ट विलीन हो जायेंगे। आप जन्म-मृत्यु के चक्र तथा तत्सम्बन्धी बुराइयों से मुक्त हो जायेंगे। सारे समयों में ईश्वर की याद सदा बनाये रखने का दृढ़ स्वभाव बनाइए। इन्द्रियों का दमन कीजिए। सुख, दुःख, शीतोष्ण तथा मानापमान में सन्तुलित रहिए। ईश्वर के प्रति अविचलित भक्ति तथा अनन्य श्रद्धा बनाये रखिए।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

तृतीय अध्याय

प्रज्ञा

. वर्तमान में रहिए

 

भूत के बारे में सोचिए और भविष्य के लिए योजनाएँ बनाइए वर्तमान में रहिए। आत्मा की महिमा में विश्वास कीजिए। सबमें समान आत्मा समझिए। सबकी सहायता कीजिए।

 

अविद्या के आवरण को छिन्न-भिन्न कर डालिए। विचार तथा ब्रह्म-चिन्तन के पाश में मन-रूपी हिरण को फँसा लीजिए। आत्मज्ञान के हाथी पर चढ़ कर परम ज्ञान के सर्वोच्च शिखर पर पहुँच जाइए।

 

सारे भ्रामक भेदों को विलीन कर डालिए। एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य से पृथक् करने वाले सारे अवरोधों को दूर कर डालिए। सबसे मिलिए। सतत आत्म-चिन्तन अथवा अलिंग एवं अमूर्त आत्मा पर विचार के द्वारा लिंग-भाव को विनष्ट कर डालिए।

. राग का परित्याग कीजिए

 

राग माया का प्रथम शिशु है। राग के बल से ही ईश्वर की यह सारी लीला चल रही है। मन में संश्लेषक वस्तु है, जो कैस्टर आइल, मधु, ग्लिसरीन, सरेस, कटहल का रस आदि संसार की सभी चिपकने वाली वस्तुओं का सम्मिश्रण है। मानो इस सम्मिश्रण के द्वारा ही मन विषय से चिपक जाता है। यही कारण है कि राग बड़ा बलशाली होता है।

 

स्वार्थ से ही राग होता है। राग ही इस संसार के सारे क्लेशों एवं विपत्तियों का मूल-कारण है। बिना संग स्थापित किये सतत कार्य करें। तभी आप सच्चा सुख प्राप्त कर सकेंगे। आप स्वयं अनुभव करेंगे कि आप परिवर्तित हो चले हैं। यही ब्रह्मानन्द के धामों को खोलने की एकमेव कुंजी है।

. विषय-सुखों का परित्याग कीजिए

उस असीम, अपरिवर्तनशील तथा परम सुख की खोज कीजिए जो ऐसी सत्ता से प्राप्त हो सकता है जिसमें विकार नहीं है। ऐसी सत्ता की खोज कीजिए और उसको ढूँढ़ निकालिए; यदि आप उसको खोजने में समर्थ हो गये, तो आप निर्विकार सुख की प्राप्ति कर सकते हैं।

 

विषय-सुखों के साथ बहुत-से दोष भी लगे हुए हैं। इनके साथ बहुत-से पाप, दुःख, दुर्बलताएँ, आसक्ति, परतन्त्रता का भाव, दुर्बल संकल्प-शक्ति, कठिन प्रयास तथा संघर्ष, बुरी आदतें, तृष्णाएँ, कामनाओं की प्रबलता, मानसिक अशान्ति आदि का समावेश है। अतः सारे विषय-सुखों का त्याग कीजिए।

. समत्व-बुद्धि रखिए

 

गाय अपने बछड़े से अलग हो कर किसी भी क्षेत्र में घास चरने चली जाये, तो भी उसका मन सदा अपने बछड़े पर ही लगा रहता है; उसी प्रकार आपको भी अपने मन को जप के द्वारा ईश्वर में लगाये रखने तथा हाथों से कार्य करते रहने की आदत डालनी चाहिए।

 

सारे रागों का त्याग कीजिए। सफलता एवं विफलता, लाभ एवं हानि, विजय अथवा पराजय, सुख एवं दुःख में सदा सन्तुलित रहिए। सतर्कतापूर्वक मन को सन्तुलित कीजिए। यही आनन्द-धाम के द्वार खोलने के लिए एकमेव कुंजी है। यही योग में सफलता का रहस्य है।

 

भावना कीजिए तथा विचार कीजिए कि आप जीवन के हर क्षण में ईश्वर के लिए जीवित रहते, श्वास लेते तथा काम करते हैं और उसके बिना आपका जीवन पूर्णतः निस्सार है। यदि आप एक क्षण के लिए भी उसको भूल जायें, तो आपको विरह-दुःख होना चाहिए।

. मन को प्रलोभन दीजिए

 

अपने हृदय को परीक्षणों के प्रति झुकने दीजिए। अपनी आध्यात्मिक साधना में सदा ही संलग्न रहिए। विवेक करना सीखिए। ज्ञानी पुरुषों के सत्संग में सच्चा, शाश्वत वैराग्य बढ़ाइए।

 

मन को विषयों के मिथ्या स्वभाव से तथा वैषयिक जीवन के दोषों से अवगत कीजिए। अपने मन से बातें कीजिए। मन को प्रलोभन दीजिए। वह आपके शब्दों को सुनेगा धीरे-धीरे मन का भटकना बन्द हो जायेगा। तब आपका मन दृढ़तापूर्वक स्रोत के केन्द्र में ही स्थिर रहेगा।

 

योगी बनिए। योग सारे दुःखों का अन्त कर देगा। योग सारे क्लेशों का अन्त कर डालेगा। जाग उठो ! अपनी आँखें खोलो! हे तात, योगाभ्यास करो!

. मन को अनुशासित कीजिए

 

मन के संकल्पों को नष्ट कीजिए। विवेक, विचार, वैराग्य तथा आत्मा पर नियमित ध्यान के द्वारा मन को पूर्णतया नियन्त्रित कीजिए।

 

जीवन के प्रति विस्तृत दृष्टिकोण रखें। हर वस्तु तथा हर चेहरे में ईश्वर के दर्शन करें। उन सारी वस्तुओं का परित्याग कर डालें जो मिथ्या तथा असत् हैं। उत्सुकतापूर्वक प्रार्थना करें। सद्गुण तथा सुख से युक्त जीवन यापन करें।

 

अपने सारे शोक, भय तथा आकुलता का परित्याग कर धर्मग्रन्थों में बतलाये गये मार्ग का अनुसरण करें। आप शान्ति तथा नित्य-सुख को प्राप्त करेंगे।

. मन को पूर्णतः संलग्न रखिए

 

जीवन के उद्देश्य तथा लक्ष्य को पूरी तरह से समझ लीजिए। प्रलोभनों के आगे झुकिए। नम्रता, क्षमा, सहिष्णुता आदि सद्गुणों का विकास कीजिए। ईश्वर-चैतन्य को प्राप्त करने के लिए उत्सुक रहिए तथा हृदय के अन्तरतम से प्रार्थना कीजिए। श्रद्धा, रुचि तथा लगन रखिए। आप निश्चय ही सफल होंगे।

 

अपनी शक्ति की रक्षा कीजिए और उसे जीवन की उन्नत आध्यात्मिक प्राप्तियों में लगाइए। शुद्ध बनिए। न्याय-परायण बनिए। अपने प्रयासों में सच्चा बनिए सारे पैगम्बरों तथा साधुओं का आदर कीजिए। आप सक्रिय योगी के रूप में विभासित होंगे।

 

मन को पूर्णतः संलग्न रखिए। ईश्वर के नाम का कीर्तन कीजिए। माला फेरिए। सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय कीजिए और ईश्वर-चिन्तन कीजिए तथा सच्चे भाव एवं भक्ति के साथ ईश्वर पर ध्यान कीजिए। उसी में निमग्न हो जाइए। यही जीवन का परम लक्ष्य है।

. मन को ढीला छोड़िए

 

आध्यात्मिक मार्ग में केवल बहुमूल्य सुन्दर भाषणों को सुनना ही पर्याप्त नहीं है। आपको पूरे हृदय, मन तथा आत्मा को आध्यात्मिक साधना की ओर लगाना होगा। तभी आपकी इस मार्ग में उन्नति सम्भव है।

 

अपने गुरु के उपदेशों तथा सद्ग्रन्थों की शिक्षाओं का अक्षरशः पालन कीजिए। मन को ढीला छोड़िए उपदेशों का ठीक-ठीक अक्षरशः तथा पूर्ण रूप से पालन ही आपके लिए आवश्यक है।

 

अपने अधिकारों के लिए लड़िए। अपने कर्तव्यों के विषय में अधिक तथा अधिकारों के विषय में कम सोचिए। ये अधिकार तो व्यर्थ हैं। इसमें समय तथा शक्ति का व्यर्थ अपव्यय होता है। अपने ईश्वर-चैतन्य के जन्माधिकार को प्राप्त कीजिए। इसका साक्षात्कार कर ज्ञानी बन जाइए।

. विवेक करना सीखिए

 

सभी वस्तुओं को विवेक-दृष्टि से परखिए। भ्रमित बनिए आवेग को हम कभी-कभी भक्ति समझ लेते हैं। संकीर्तन के समय जोर से उछलने-कूदने को हम भाव समाधि समझ लेते हैं। राजसिक अशान्ति तथा हरकत को ईश्वरीय कर्म या कर्मयोग समझ बैठते हैं। तामसिक मनुष्य को सात्त्विक मनुष्य, तन्द्रा तथा गम्भीर निद्रा को समाधि, मनोराज्य तथा हवाई किले बनाने को ध्यान तथा शारीरिक नग्नता को जीवन्मुक्त-अवस्था समझ बैठते हैं।

 

जगत् के नियमों को समझिए। इस जगत् में कुशलतापूर्वक कार्य कीजिए। प्रकृति के रहस्यों को सीखिए। विवेक करना सीखिए तथा ज्ञानी बनिए। आन्तरिक संग्रामों को पुनः पुनः छेड़िए तथा विजयी बन कर निकल आइए।

१०. आनन्द की प्राप्ति के लिए विषय-भोग का बलिदान कीजिए

 

आध्यात्मिक खोज तथा योग के अभ्यास वास्तव में मधुर हैं, कटु प्रतीत होते हैं और विषय-भोग जो कि वास्तव में कटु हैं, मधुर प्रतीत होते हैं। यही अविद्या के कारण विपरीत-बुद्धि है।

 

कुछ अच्छे संगीतों तथा ध्वनियों को चुन लीजिए और रात्रि के समय अपने कुछ सम्बन्धियों तथा मित्रों के साथ उनका गान कीजिए। दिन में भी काम करते समय अपने इष्टदेव का नाम-संकीर्तन कर सकते हैं। इस प्रकार आप ईश्वरीय विचारों के प्रवाह को बनाये रख सकते हैं।

 

आप दिव्य ज्योति तथा आत्मज्ञान के अक्षय धन से विभासित बनें। यह आत्मज्ञान ही सारी मानव-जाति की एकमेव सम्पत्ति है।

 

 

११. ठीक-ठीक विचारिए

 

चिन्ता से सूक्ष्म शरीर तथा मन को बड़ी क्षति पहुँचती है। चिन्ता से शक्ति का अपव्यय होता है। यह आन्तरिक सूजन उत्पन्न करती तथा मनुष्य की शक्ति को चूस लेती है। चिन्तित रहने से कुछ भी लाभ नहीं सावधान रहिए। मन को पूर्णतः संलग्न रखिए। यह आदत दूर हो जायेगी

 

ईश्वरीय ज्योति को स्थिरतापूर्वक जलते रहने दें। प्रबल संकल्प तथा इच्छा रखें। साहस, मन की स्थिरता तथा जीवन में निश्चित उद्देश्य बनाये रखें। द्विविधा में रहें।

 

अज्ञान की गम्भीर निद्रा से जाग पड़ें। कभी भी भाग्यवादी बनें। ठीक-टीक विचार करें। ठीक-ठीक कार्य करें। धार्मिक जीवन बितायें। दूसरों की भावनाओं पर कभी भी आघात पहुँचायें। अपने चरित्र का निर्माण करें। मन को शुद्ध बनायें। धारणा का अभ्यास करें। मन को ईश्वर पर स्थापित करें।

१२. अपने विचारों को नियन्त्रित करें

 

किसी भी विवेकसंगत नियम का पालन करें। श्रद्धा तथा ध्यान के साथ उसका अनुगमन करें। आप उन्नति करेंगे तथा नित्य-सुख के धाम को प्राप्त करेंगे। अपने कर्तव्यों के पालन के द्वारा आप शीघ्र ही सुख, उन्नति तथा मुक्ति की प्राप्ति करेंगे।

 

घटनाएँ क्रमिक रूप से घटित होती रहती हैं। यहाँ पूर्ण नियम हैं। ये तीनों-कामना, विचार तथा कार्य एक ही साथ चलते हैं। विचार ही शरीर को कार्यों की ओर प्रेरित करता है। हर कार्य के पीछे विचार है। यदि आप बुरे विचारों को प्रश्रय देंगे, तो आप निश्चय ही बुरे कर्म भी करेंगे।

 

ज्ञानी बनना सीखें। विवेक करें। विचारों तथा कामनाओं को नियन्त्रित करें। अपने विचारों का सावधानी के साथ निरीक्षण करें। अपनी मानसिक कर्मशाला में किसी बुरे विचार को प्रवेश करने दें। आत्म-साक्षात्कार के लिए तीव्र मुमुक्षुत्व को जगायें। आप जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त कर लेंगे।

१३. अपने कार्यों को ईश्वरार्पण-रूप में कीजिए

 

ईश्वर महान् है। उसकी इच्छा के प्रति आप पूर्ण आत्मार्पण कीजिए। उसकी इच्छा महान् है और उसके कार्य ज्ञानपूर्ण हैं। संचित कर्म के सक्रिय होने पर किसी मनुष्य को किसी प्रकार का परिवाद अथवा आपत्ति नहीं हो सकती प्रकृति के कार्य के इतिहास में दुर्घटनाओं का भी एक अध्याय लगा रहता है। हम सभी सच्चे बनें तथा कर्मों एवं उनके फलों को ईश्वर के चरणों में समर्पित करें। हम सब ईश्वर को कभी भूलें। सारे जगत् की शान्ति के लिए हम ईश्वर से प्रार्थना करें।

 

आप निरन्तर आत्म-विचार में संलग्न रहें। आप सदा शान्ति में निवास करें!

१४. शुद्ध बनिए, बुराई स्वतः नष्ट हो जायेगी

 

जप तथा ध्यान के समय यदि बुरे विचार आपके मन में घुसने लगें, तो उनको दूर भगाने के लिए संकल्प-शक्ति का प्रयोग करें। इससे आपकी शक्ति का क्षय होगा। आप अपनी इच्छा-शक्ति को ही मार देंगे। आप थक जायेंगे। जितना अधिक प्रयत्न करेंगे, उतने ही अधिक बुरे विचार भी अधिकाधिक बल के साथ वापस लौटेंगे। वे शीघ्रतापूर्वक लौटेंगे। विचार अधिक सबल हो जायेंगे। उदासीन बनें। शान्त रहें। वे शीघ्र ही दूर हो जायेंगे अथवा किसी अच्छे प्रतिपक्षी विचार को प्रश्रय दें या अपने इष्टदेव की मूर्ति और मन्त्र के विषय में बार-बार विचार करें। बल के साथ प्रार्थना करें।

 

एक दिन के लिए भी ध्यान का अभ्यास छोड़ें। अपनी आध्यात्मिक साधना में नियमित तथा क्रमिक बनें। सात्त्विक आहार करें; फल तथा दूध से मानसिक एकाग्रता में आपको सहायता मिलेगी।

१५. विवेक-दण्ड उठाइए

 

अपने मन की सारी किरणों को समेट लीजिए। मन को ईश्वर की ओर मोड़िए। ईश्वरीय ज्ञान की प्राप्ति के लिए पूरे हृदय के साथ संलग्न बनिए। कठिन प्रयत्न कीजिए। आप सफल बनेंगे।

 

सब प्रकार के भय, चिन्ता, शोक तथा उद्वेगों का परित्याग कीजिए। मौन के सागर में विश्राम कीजिए। विवेक के दण्ड तथा वैराग्य के खड्ग द्वारा सभी प्रकार के भयों को नष्ट कर डालिए।

 

सहायता तथा पथ-प्रदर्शन के लिए सर्वशक्तिमान् प्रभु से प्रार्थना कीजिए। उसकी कृपा के लिए तड़पिए। उसमें अपना विश्वास जमाइए कठिनाइयों के द्वारा चलायमान बनिए कठिनाइयाँ आपकी इच्छा-शक्ति तथा तितिक्षा को और दृढ़ बनाती हैं। ये आपके मन को ईश्वर की ओर प्रेरित करती हैं। वह (ईश्वर) सारे कार्यों में आपका पथ-प्रदर्शन करेगा।

१६. केवल ईश्वर पर निर्भर रहें

कर्मों में संलग्न जीवन व्यतीत करें। किसी पर भी निर्भर बनें। ईश्वर पर ही निर्भर रहें। व्यर्थ की गप-शप छोड़ें। हर क्षण ईश्वर का स्मरण करें। हर श्वास के साथ ईश्वर के नाम का जप करें। अपने विचारों को उसके पाद-पद्मों में केन्द्रित करें। उसमें प्रबल श्रद्धा रखें। अपनी श्रद्धा को पूजा तथा प्रेम के रूप में बदलने के लिए प्रयत्नशील बनें। आप परमानन्द का उपभोग करेंगे।

 

ठीक-ठीक तथा स्पष्टता के साथ विचार करें। नपे-तुले शब्दों में बात करें। निष्काम सेवा करें। कर्म के फलों को ईश्वर पर अर्पित करें। कृपा, ज्योति, शुद्धता तथा पथ-प्रदर्शन के लिए प्रभु से प्रार्थना करें। आप परमब्रह्म को प्राप्त करेंगे।

१७. ईश्वर में ही नित्य-सुख है

 

ईश्वर में ही नित्य-सुख तथा परम शान्ति सम्भव है; अतः सर्व- शक्तिमान् प्रभु से प्रार्थना करें- "हे प्रभु! अनेकानेक व्यर्थ विचारों, निराधार कल्पनाओं तथा अगणित संकल्पों के द्वारा मेरे हृदय तथा मन गहरे घावों से व्यथित हो रहे हैं। बस, अब तो मेरी रक्षा करो। हे प्रभु! रक्षा करो और मेरे मन को अपने पाद-पद्मों की ओर मोड़ दो। यह तुझमें ही सदा के लिए विश्राम करे। यही मेरी हार्दिक प्रार्थना है। इतनी ही मेरी इच्छा है। तू मेरे हृदय को जानता है।" वह आपके सारे कार्यों में आपका पथ-प्रदर्शन करेगा।

१८. गरीबों में ईश्वर की पूजा करें

 

सन्मति तथा सद्विचार का अर्जन करें। विश्व-प्रेम का विकास करें। स्वार्थ को नष्ट करें। यम तथा नियम का अभ्यास करें। सद्गुणों का विकास करें। ईश्वर के अस्तित्व में अपनी आस्था रखें। नित्य सर्वशक्तिमान् प्रभु से प्रार्थना करें। आपको ईश्वरीय कृपा की प्राप्ति होगी।

पवित्र कामनाओं के द्वारा अपवित्र कामनाओं को नष्ट कर डालें। आलसी बनें। सदा काम में संलग्न रहें। अविद्या के परदे को ध्वस्त कर डालें। स्वयं को जानें तथा मुक्त बन जायें।

 

गरीबों तथा रोगियों में ईश्वर की पूजा करें। गहन प्रेम के साथ सबकी सेवा करें। अपने हाथों को काम में लगायें तथा मन को राम में रमायें। आप परम शान्ति, आनन्द तथा अमृतत्व की प्राप्ति करें।

१९. ईश्वर में संस्थित बनें

 

अपने जीवन के लक्ष्य को स्पष्टतः समझ लें। अपने लक्ष्य के अनुकूल ही अपने कार्यों को निर्धारित करें। आदर्श की प्राप्ति के लिए कठिन श्रम करें। सदा अपने आदर्श को अपनी दृष्टि में रखें तथा हर क्षण उसके अनुसार ही चलने का प्रयास करें।

 

असावधानी तथा विस्मृति को दूर करने की प्रबल कामना रखें। अपनी शक्तियों एवं क्षमताओं में विश्वास रखें।

 

जगत् के परिवर्तनों में सफलता अथवा विफलता, लाभ अथवा हानि तथा सुख अथवा दुःख की चिन्ता करते हुए मन का सन्तुलन बनाये रखें। सारे कार्यों को करते समय अपने मन को ईश्वर में संस्थित रखें। तीव्र वैराग्य तथा गहन धारणा की धौंकनी के सहारे भक्ति की ज्वाला को प्रज्वलित करें।

२०. ईश्वर अन्तर्यामी है

 

ईश्वर अन्तर्यामी है। वह शरीर, मन तथा इन्द्रियों को कार्यों की ओर प्रेरित करता है। ईश्वर के हाथों में यन्त्र बन जायें। अपने कार्यों के लिए धन्यवाद अथवा प्रशंसा की अपेक्षा करें। अपने कार्यों को कर्तव्य के रूप में करें तथा उन्हें और उनके फल को ईश्वर पर अर्पित कर डालें। आप कर्मों के बन्धन से मुक्त हो जायेंगे। आपका हृदय शीघ्र ही शुद्ध हो जायेगा।

 

इस मन्त्र का जप करें-"हे प्रभु! मैं तेरा हूँ, सभी तेरे हैं। तेरी ही इच्छा हो कर रहेगी।" सारा भार ईश्वर पर ही सौंप कर आराम से रहिए। अपने लिए कोई भी कामना रखिए। प्रभु के प्रति अशेष, पूर्ण तथा सहर्ष आत्मार्पण के द्वारा अहंकार को पूर्णतया नष्ट कर डालें। यदि आपका आत्मार्पण पूर्ण तथा सच्चा है, तो ईश्वरीय कृपा अवश्य ही अबाध रूप से प्रवाहित होगी।

२१. आत्मा की खोज प्रारम्भ कीजिए

 

भावना रखिए तथा ईश्वर की छत्रछाया में कर्म कीजिए। ईश्वरेच्छा में दृढ़ विश्वास रखिए। ईश्वर के इन दिव्य गुणों-करुणा, विश्व-प्रेम, सौन्दर्य तथा सर्वव्यापकता पर ध्यान कीजिए। आप जीवन में सफलता तथा ईश्वर-साक्षात्कार प्राप्त कर लेंगे। स्वार्थ, लोभ, काम आदि को दूर कर हृदय-द्वार को खोले रखिए, जिससे सर्वशक्तिमान् प्रभु उसमें कर अपना निवास बना सकें। सारे निरर्थक विवादों का परित्याग कर सीधे आत्मा अथवा परमात्मा की खोज के लिए अग्रसर बनिए। आप प्रबल अन्तः- आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त करेंगे। सारे अन्ध-विश्वासों तथा शंकाओं का त्याग कीजिए। अजेय संकल्प-शक्ति रखिए। आत्म-साक्षात्कार के लिए अनवरत प्रयत्नशील बनिए। आप परम शान्ति, सुख तथा अमृतत्व प्राप्त करेंगे।

 

२२. विचारिए, 'मैं कौन हूँ?'

 

धैर्य, सहिष्णुता, करुणा तथा प्रेम का विकास करें। विचार का अभ्यास करें। 'मैं कौन हूँ' पर विचार करें। आत्मभाव के साथ दूसरों की सेवा करें।

 

श्रुतियों तथा शास्त्रों में अटूट श्रद्धा रखें। दूसरों के साथ व्यवहार करते समय अपने आचरण को संयमित रखें। हर व्यक्ति को मानसिक नमस्कार करें। मुक्ति के लिए तीव्र मुमुक्षुत्व तथा गम्भीर वैराग्य का अर्जन करें। सच्चे तथा उत्साही बनें। अपनी क्षरणशील शक्ति को सुरक्षित रखें। नित्य के लिए अपना एक कार्यक्रम रखें तथा उसका नियमित रूप से पालन करें। बढ़ें। विकसें जीवन में सफलता प्राप्त करें। ईश्वर-साक्षात्कार करें।

२३. खोजें, समझें, साक्षात्कार करें

 

धर्म के प्रदीप को दृढ़ता के साथ पकड़े रहें। ईश्वर-प्रेम के विचारों को प्रश्रय दें। सफलता तथा विफलता में सदा मन का सन्तुलन बनाये रखें। अपनी इन्द्रियों का दमन करें। मन को शान्त बनायें। उसे ईश्वर पर स्थित करें। आनन्द के धाम में विचरण करें। एकता का दर्शन करें। आप विश्वात्म-दर्शन प्राप्त करेंगे।

 

सभी प्रकार के भय, क्रोध, चिन्ता, शोक एवं उद्वेग का परित्याग करें। विफलताओं से हतोत्साहित हों। इसे कभी भूलें कि दुःख ही संसार में सर्वोत्तम वस्तु है। यही हमारी आँखें खोलता है।

 

प्रिय मित्र! क्या सुख तथा आर्थिक सम्पत्ति, आराम के कुछ और अधिक साधन-विद्युत् बल्ब, पंखे तथा सोफा आपको वास्तविक शान्ति तथा मुक्ति प्रदान कर सकते हैं? निश्चय ही नहीं। खोजें, समझें और साक्षात्कार करें। आपका पथ-प्रदर्शक गया है।

२४. अन्तर्निरीक्षण करें

 

अपने मन तथा विचारों को देखें। अन्तर्निरीक्षण तथा आत्म- विश्लेषण का अभ्यास करें। कुसंग से दूर रहें। माया की चाल को समझें। सावधान रहें। सदा नम्र तथा सरल बनें। हर क्षण ईश्वर को याद रखें।

 

धृष्टता, आत्माभिमान तथा आलस्य को दूर करें। नम्रता का अधिकतम विकास करें। सच्चे बनें। प्रेम के साथ सबकी सेवा करें। अपने गुरु जनों तथा माता-पिता का सम्मान करें। सरल तथा श्रमपूर्ण जीवन व्यतीत करें।

 

सदा प्रसन्न रहें। ईश्वर में पूर्ण विश्वास रखें। मन को सदा संलग्र बनाये रखें। ध्यान का नित्य अभ्यास करें। सद्गुणों का विकास करें। ईश्वर के नाम का गायन करें। उसके दर्शन के लिए तड़पें ईश्वरीय कृपा आपको प्राप्त होगी। आप परमानन्द, सुख तथा अमृतत्व का पान करेंगे।

२५. ईश्वर को अपने हृदय के अन्दर खोजिए

 

ईश्वर आपकें हृदय में है। वह आपमें है और आप उसमें हैं। उसे अपने हृदय के अन्दर खोजिए। यदि आप उसको अपने हृदय के अन्दर खोज सकें, तो आप उसको अन्यत्र कहीं भी नहीं पा सकते।

 

ईश्वर की खोज में माँग तथा माँग-पूर्ति का प्रश्न है। यदि आप वास्तव में ईश्वर की कामना रखते हैं और यदि आपकी ईश्वर-प्राप्ति की यह माँग तीव्र है, तो आपकी यह माँग शीघ्र ही पूरी होगी।

 

मिथ्या जीवन के प्रति अपनी आसक्ति का त्याग करें। निर्भय बनें। वैराग्य का आश्रय लें। सारे भय दूर हो जायेंगे। ईश्वर के चरण-कमलों में आसक्त बनें। अदृश्य ब्रह्म में स्थिर रहें। सर्वशक्तिमान् प्रभु आपके सारे कार्य-व्यापारों में आपका पथ-प्रदर्शन करें तथा प्रेरणा दें !

२६. आवरण दूर करें

 

अज्ञान के आवरण को दूर करें, जिसने आपके वास्तविक स्वरूप को ढक रखा है। अभिमान, द्वैत-भावना तथा नानात्व को विनष्ट करें। आपका वास्तविक स्वरूप सच्चिदानन्द है। इस बात को कभी भी भूलें। आप ब्रह्म के साथ एक हैं।

 

अपने को सदा बुरे प्रभावों से बचाये रखें। अपने आध्यात्मिक संस्कारों को मिटने दें। आध्यात्मिक वस्तु को खो देने पर उसको पुनः प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है। सदा विचार तथा विवेक का अभ्यास करें। बुरे प्रभावों का सामना करने के लिए संकल्प-शक्ति का प्रयोग करते रहें।

 

तितिक्षा तथा महान् धैर्य के द्वारा अपनी कामनाओं को नष्ट कर अपनी संकल्प-शक्ति को विकसित बनायें। सन्तोष, विचार, सत्संग तथा प्रबल धैर्य के द्वारा शान्ति प्राप्त करें। आप अपनी महिमा में विभासित बनेंगे।

२७. अपने अन्दर देखें

 

आपके भीतर ईश्वर छिपा हुआ है। आपके भीतर अमर आत्मा है। आपके भीतर अक्षय आध्यात्मिक भण्डार है। आपके भीतर आनन्द का सागर है।

 

आपने अब तक जिस सुख की नश्वर वैषयिक पदार्थों में व्यर्थ खोज की है, उसे अपने अन्दर ही खोजें। अपनी आत्मा में शान्ति के साथ विश्राम करें।

 

सब-कुछ उसके प्रति अर्पित कर डालें। अपने अहंकार को उसके चरणों पर रख कर आराम करें। वह आपकी हर तरह से देख-रेख करेगा। वह आपके लिए सब-कुछ करेगा। अभ्यास करें। अनुभव करें। प्राप्त करें। ब्रह्म के सुख का उपभोग करें।

२८. ज्ञान मुक्ति प्रदान करता है

 

निष्काम सेवा के अभ्यास के द्वारा पाप तथा मल नष्ट होते हैं तथा अन्तःकरण निर्मल बन जाता है। शुद्ध मन में आत्मज्ञान का उदय होता है। आत्मज्ञान ही मुक्ति का साक्षात् साधन है। जिस प्रकार बिना आग के भोजन नहीं बन सकता, उसी प्रकार बिना आत्मज्ञान के मुक्ति नहीं मिल सकती। ज्ञान उसी प्रकार अज्ञान को नष्ट कर डालता है, जिस प्रकार प्रकाश सघन अन्धकार को नष्ट कर डालता है।

 

अपने कार्य में तल्लीन रहें। उसमें अपने पूर्ण हृदय, मन तथा आत्मा को लगा दें। फल की चिन्ता करें। सफलता और विफलता का विचार करें। भूत का विचार करें। पूर्ण विश्वास रखें। आत्म-निर्भरता का अभ्यास करें। सदा प्रसन्न वदन रहें। अपने मन को शान्त तथा सन्तुलित बनाये रखें। कार्य के लिए कार्य करें। वीर तथा साहसी बनें। आप हर कार्य में सफलता प्राप्त करेंगे। यही सफलता का रहस्य है।

२९. स्थिर बैठ जाइए

 

बुरी परिस्थितियों की शिकायत कीजिए। अपने मानसिक जगत् तथा अपनी परिस्थिति का स्वयं निर्माण कीजिए। चरित्र का सम्यक् निर्माण करें। स्वस्थ तथा सदाचारपूर्ण आदतों का विकास करें।

 

आत्मा की महिमा, गरिमा तथा शक्ति को समझिए, जो आपके मन, विचार, संकल्प तथा स्मृति के पीछे है। नियमित व्यायाम के द्वारा अपने शरीर को स्वस्थ, सबल तथा पुष्ट बनाइए। आध्यात्मिक वीर बनिए

 

इन्द्रियों के द्वार को बन्द कीजिए। विचारों, आवेगों तथा भावनाओं को स्तब्ध बनाइए। ब्राह्ममुहूर्त में अचल तथा शान्त बैठ जाइए। ग्राहक-वृत्ति रखिए। ईश्वर से सम्बन्ध स्थापित कीजिए। उसके साथ योग प्राप्त कीजिए। मौन में शाश्वत शान्ति का उपभोग कीजिए।

३०. श्रवण, मनन तथा निदिध्यासन

 

मन तथा इन्द्रियों को अनुशासित कीजिए। दिव्य सद्गुणों का अर्जन कीजिए। साधन-चतुष्टय से सम्पन्न बनिए। श्रुतियों का श्रवण कीजिए।

 

आत्मा पर मनन तथा निदिध्यासन करें। इससे आत्म-साक्षात्कार की प्राप्ति होगी।

 

अन्ध-श्रद्धा रखिए सावधानी के साथ विचार कीजिए, तदुपरान्त किसी वस्तु को मानिए। काम, क्रोध, लोभ आदि का उन्मूलन कीजिए जो-कुछ भी आपके पास मानसिक, भौतिक तथा नैतिक है, उसमें दूसरों को भी भाग दीजिए। दूसरों की सेवा करने में प्रसन्नता का भान कीजिए। आपके अभिमान तथा मद स्वतः ही दूर हो जायेंगे।

 

अपने हृदय-प्रदीप में वैराग्य का तेल डालिए। भक्ति की बत्ती डालिए। सतत ध्यान के द्वारा ज्ञान की ज्योति को जलाइए और देखिए। अज्ञान का अन्धकार अपने-आप ही दूर हो जायेगा। आप पूर्ण ज्ञानी बन जायेंगे।

३१. ब्राह्ममुहूर्त में ध्यान कीजिए

 

हृदय को शुद्ध बनाइए तथा ध्यान कीजिए। हृदय के अन्तरतम प्रकोष्ठ में गहरा गोता लगाइए। आप आत्म-मुक्ता को प्राप्त करेंगे। गहरे पानी में खोजने पर ही आपको आत्म-मुक्ता प्राप्त होगी। यदि आप किनारे पर ही रह जायेंगे, तो आपको फूटी कौड़ियाँ ही प्राप्त होंगी।

 

हे मित्र ! जागें। अब अधिक सोयें। ध्यान करें। अब ब्राह्ममुहूर्त है। प्रेम की कुंजी से अपने हृदय में ईश्वर-मन्दिर के द्वार खोल दें। आत्मा का संगीत सुनें। अपने प्रियतम का प्रेम-संगीत गायें। असीम का स्वर बजायें। उसके ध्यान में मन को विलीन कर दें। उससे एक बन जायें। प्रेम तथा सुख के सागर में निमग्न हो जाइए।

 

 

३२. ध्यान का नियमित अभ्यास कीजिए

 

मन को ढीला छोड़िए। निर्ममतापूर्वक उसका दमन कीजिए। उसको विनष्ट कर डालिए। आप शीघ्र ही सत्य का साक्षात्कार कर मोक्ष को प्राप्त करेंगे। सारे दुःख, शोक तथा मोह का अन्त हो जायेगा।

 

सारे शोकों, भयों तथा उद्वेगों का परित्याग कीजिए। धर्मग्रन्थों के द्वारा दिखाये गये मार्ग का अनुसरण कीजिए। मलिन वासनाओं का परित्याग कीजिए। शुद्ध वासनाओं का अर्जन कीजिए एवं नियमित रूप से शुद्ध, सर्वव्यापक आत्मा पर ध्यान कीजिए।

 

उस प्रभु का ध्यान कीजिए जो ज्योति, शक्ति तथा ज्ञान स्वरूप है। व्यर्थ की गपशप, खानपान तथा शयन में समय गँवाइए। आइए, आइए! अमृतत्व को प्राप्त कीजिए।

३३. मूल से शक्ति प्राप्त कीजिए

 

ईश्वरत्व की प्राप्ति के लिए ध्यान ही प्रशस्त राजपथ है। इसके बिना कुछ भी आध्यात्मिक उन्नति सम्भव नहीं है; अतः ध्यान कीजिए। इसके द्वारा आप भाव-समाधि की स्थिति को प्राप्त कर प्रेम-मधु तथा अमृतत्व का पान करेंगे।

 

अतः अपने मन को विषय-पदार्थों से समेट लीजिए। उसे ईश्वर के चरण-कमलों में स्थापित कीजिए। अन्तरात्मा में विलीन हो जाइए। मूक ध्यान का अभ्यास कीजिए। आनन्द के दिव्य सागर में स्वतन्त्रतापूर्वक तैरिए। दिव्यानन्द में तैरिए। मूल से शक्ति प्राप्त कीजिए। ईश्वरीय चैतन्य-रूपी निर्झर के उद्गम स्थल की ओर सीधे चलते जाइए तथा अमृत-रस का पान कीजिए।

३४. धारणा से सुख की प्राप्ति

 

सांसारिक दुःखों; क्लेशों तथा शोकों से छुटकारा पाने के लिए धारणा ही एकमेव मार्ग है। आपका एकमात्र कर्तव्य है-धारणा का अभ्यास करना। आपने धारणा का अभ्यास कर आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने के लिए ही इस जन्म को धारण किया है।

 

जब आप कोई पुस्तक पढ़ें, उसे धारणा के साथ पढ़ें। जल्दबाजी में पृष्ठों को उलटते रहने से कोई भी लाभ नहीं। गीता का एक पृष्ठ पढ़िए ग्रन्थ को बन्द कर दीजिए। जो कुछ भी आपने पढ़ा है, उस पर धारणा कीजिए। महाभारत, भागवत तथा उपनिषद् में उसके सदृश श्लोकों को ढूँढ़ निकालिए और उनका मिलान कीजिए।

३५. अविचल शान्ति बनाये रखिए

 

सभी परिस्थितियों में शान्त बने रहिए। सतत सश्रम प्रयास के द्वारा बारम्बार इस सद्गुण का अर्जन कीजिए। शम चट्टान के समान है। उद्वेगों की लहरें इसके साथ टकरा सकती हैं; परन्तु इसे प्रभावित नहीं कर सकतीं।

 

शान्त आत्मा पर नित्य हृदय में ध्यान कीजिए जो अपरिवर्तनशील है। आप शान्त मन की चट्टान पर विश्राम करेंगे। शान्त मन रखने वाला साधक ही गम्भीर ध्यान में प्रवेश कर सकता है तथा निर्विकल्प-समाधि को प्राप्त कर सकता है।

३६. मौन बनिए

 

हृदय से सच्चे बनिए। छोटी-छोटी नश्वर वस्तुओं की परवाह कीजिए। शाश्वत सत्य के लिए परवाह कीजिए। स्वार्थ, गपशप तथा लम्बी सस्ती और बड़ी बातों का परित्याग कीजिए। मौन बन जाइए।

 

अन्तर्निरीक्षण कीजिए। अन्दर देखिए। अपने दोषों को दूर करने का प्रयास कीजिए। अपने बिखरे हुए विचारों को समेट कर ईश्वर के स्मरण में अपने को लगा दीजिए। बहुत ही विनम्र बनिए। अच्छा स्वभाव बनाइए सदा भले कार्यों को ही कीजिए। सेवा कीजिए। प्रेम कीजिए। दान कीजिए। दूसरों को सुखी बनाइए।

३७. स्थिरता में सत्य विभासित होने दें

 

स्थिर बनिए और सत्य का साक्षात्कार कीजिए। सावधान रहिए तथा वासनाओं और वृत्तियों का उन्मूलन कीजिए। जितना ही अधिक वासना, अभिमान तथा देहाध्यास क्षीण होगा, उतना ही अधिकाधिक परमानन्द प्राप्त होगा।

 

दिव्य जीवन यापन, गरीबों तथा दुःखियों की सेवा, सदा सभी समयों में, सभी चेहरों में ईश्वरीय उपस्थिति का भान तथा जो कोई भी आपके सामने आता है, उसमें सुख तथा शान्ति का संचार करते हुए कैवल्य अथवा नित्य शान्ति को प्राप्त करें।

३८. आन्तरिक वाणी का श्रवण कीजिए

 

साधारण जनमत से प्रभावित एवं प्रवाहित बनिए। अपने अन्तःकरण से सम्मति ले कर आत्मा की आन्तरिक, धीमी तथा मधुर आवाज को श्रवण करते हुए वीरता एवं प्रसन्नता के साथ सन्मार्ग पर अग्रसर होते जाइए।

 

एक सात्त्विक व्यक्ति का साथ कीजिए। हर क्षण का सदुपयोग कीजिए। बीमारों की सेवा कीजिए। जो कुछ भी आपके पास है, उसमें गरीबों को भी हिस्सा दीजिए। अपने हृदय के प्रकोष्ठों में छिपे हुए ईश्वरत्व को प्रस्फुटित कीजिए।

 

अपने गुरु-मन्त्र अथवा इष्टदेवता के मन्त्र का मानसिक जप कीजिए। के जप के साथ असीम, नित्य, व्यापक, परिपूर्ण, सच्चिदानन्द, अखण्ड, अद्वैत, चिदाकाश इत्यादि की भावना जोड़िए मानसिक पूजा भी कीजिए।

३९. भान कीजिए कि आप आत्मा हैं

 

आवेगों के प्रभाव के कारण तुरन्त ही कोई कार्य कर डालिए। कितनी ही उन्नत भावुकता क्यों हो, उसका शिकार बनिए। सदा साबधान तथा संलग्न रहिए।

 

अनावश्यक चिन्ता को दूर कीजिए। व्यथित बनिए उद्विग्न बनिए। आलसी बनिए समय गँवाइए। यदि प्रगति में विलम्ब हो, तो चिन्ता कीजिए। शान्ति के साथ प्रतीक्षा कीजिए। आप निश्चय ही सफल होंगे।

 

सदा यह भाव बनाये रख कर कि 'मैं आत्मा हूँ', साहस का विकास कीजिए। देह-भ्रान्ति का निषेध कीजिए। निदिध्यासन का अभ्यास कीजिए। सारे कष्ट तथा क्लेश स्वतः ही दूर हो जायेंगे। आप विशुद्ध सुख का उपभोग करेंगे।

४०. आत्मा में निवास कीजिए

 

नाम-रूपों के स्वप्न से जाग पड़िए। इन भ्रामक नाम-रूपों के धोखे में पड़िए ठोस, जीवन्त सत्य पर ही टिके रहिए। अपनी आत्मा से ही प्रेम कीजिए। आत्मा ही शाश्वत है। आत्मा में ही निवास कीजिए। ब्रह्म बनिए। यही सच्चा जीवन है।

 

श्रद्धा, भक्ति तथा नम्रता के साथ दिव्य चिकित्सक ज्ञानियों के पास जाइए ज्ञान-रूपी औषधि सेवन कीजिए। तभी अज्ञान-रूपी रोग का नाश होगा। आप शाश्वत शान्ति को प्राप्त करेंगे।

 

माया के द्वारा भ्रमित बनिए निस्तरंग सागर के समान शान्त बनिए। आकाश के समान उदार बनिए। स्फटिक के समान शुद्ध बनिए। आत्म-साक्षात्कार के लिए सतत प्रयत्नशील रहिए। पृथ्वी के समान ही धीर बनिए। आप निश्चय ही सफल होंगे। विश्वास कीजिए कि आप सफल होंगे।

४१. आत्मा में आनन्द प्राप्त कीजिए

 

उम्र संलग्नतामय जीवन व्यतीत कीजिए। मन को सदा शान्त रखिए। इष्टदेव का मानसिक जप कीजिए। सबसे मिलिए। आत्म-भाव के साथ सबकी सेवा कीजिए। उनमें ईश्वर को देखिए।

 

आध्यात्मिक मार्ग में कठिनाइयों तथा असफलताओं के कारण विचलित बनिए। कठिनाइयों के द्वारा आपकी इच्छा-शक्ति का विकास होगा। विफलता ही सफलता की सीढ़ी है। बुद्धिमानी, चतुराई, विवेक तथा सहज बुद्धि से काम लीजिए। आप एक-एक कर सब कठिनाइयों का दमन कर लेंगे।

 

वज्रवत् दृढ़ रहिए सदा प्रसन्न रहिए। भय तथा उद्वेग को दूर कीजिए। आध्यात्मिक मार्ग में वीरता के साथ आगे बढ़ते जाइए। हतोत्साहित होइए। अन्दर से साहस, शक्ति तथा बल प्राप्त कीजिए। सावधान रहिए। आप अजेय हैं। कोई भी आपको हानि नहीं पहुँचा सकता। सदा शान्त बने रहिए। मुस्कराइए तथा आत्मा में ही आनन्द प्राप्त कीजिए।

४२. बालक की भाँति स्पष्टवादी बनें

 

अपने गुरु की शिक्षाओं को आत्मसात् करने के लिए सोस्तुक ग्राहक दृष्टिकोण अपनाइए। बालक की तरह स्पष्टवादी, खरा तथा निष्कपट बनिए। गुरुवाणी एवं श्रुतियों पर अविचल श्रद्धा रखिए।

 

सेवा के लिए सदा प्रस्तुत रहिए। विशुद्ध प्रेम, सहृदयता एवं नम्रता से सेवा कीजिए। सेवा के समय कभी भी चिन्ता या उदासीनता व्यक्त कीजिए। नितान्त सेवा-परायण जीवन-यापन कीजिए।

 

सहानुभूति, स्नेह, उदारता, सहनशीलता एवं मनुष्यता का विकास करें। उदार अथवा विशाल दृष्टिकोण रखें। सभी के विचारों को स्थान दें। आपका जीवन दीर्घ एवं हृदय अति-विशाल होगा। आप बुद्धत्व की उन्नतावस्था प्राप्त करेंगे।

४३. नम्र तथा सरल बनिए

 

मुदिता का विकास कीजिए। मिलनसार प्रकृति, सरल तथा नम्र स्वभाव बनाये रखिए। प्रकृति के रहस्यों को समझिए। अपनी संकल्प-शक्ति का विकास कीजिए। शक्ति के सभी प्रकार के अपव्यय रोक कर उस शक्ति की हर ओर से सुरक्षा कीजिए। कुशलतापूर्वक इस संसार में चलिए। आप पर्याप्त शान्ति प्राप्त करेंगे।

 

व्यर्थ की गपशप में अपने बहुमूल्य समय को गँवाइए। अपनी बातचीत को संक्षिप्त बनाइए। सरल तथा नम्र बनिए। ईश्वरार्पण-भाव से सब काम कीजिए। अपने दोषों को खुले रूप से स्वीकार कर लीजिए तथा भविष्य में उनका सुधार करने के लिए प्रयत्नशील बनिए सर्वशक्तिमान् प्रभु से ही उत्सुकतापूर्वक प्रार्थना कीजिए। आप शीघ्र ही उसका साक्षात्कार करेंगे।

४४. नित्य-सुख का आस्वादन कीजिए

 

अपने हृदय में प्रेम-तरंगों को सतत उठने दीजिए। दिव्य प्रेम की उष्णता का अनुभव कीजिए। दिव्य प्रेम की ज्योति में स्नान कीजिए। नित्य-जीवन के सुख का आस्वादन कीजिए।

 

कठिनाइयों तथा बाधाओं, रोगों तथा शोकों का सामना करते हुए असन्तोष प्रकट कीजिए। साहसी बनिए। धैर्य के साथ उनका सामना कीजिए। अपने मन को ईश्वर की ओर मोड़िए। मन की शान्ति का अर्जन कीजिए। अपनी संकल्प-शक्ति को प्रशिक्षित कीजिए। आप प्रबल आन्तरिक आध्यात्मिक बल को प्राप्त करेंगे। आपकी आध्यात्मिक उन्नति शीघ्र ही हो जायेगी।

 

एक-एक कर अपनी सभी कठिनाइयों पर विजय पाइए नित्य-प्रति ध्यान कीजिए। जीवन के आदर्श का साक्षात्कार कीजिए। उदार हृदय बनिए। आप परम सुख का उपभोग करेंगे।

४५. असीम सुख का साक्षात्कार कीजिए

 

आपका जन्म उन्नत उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए हुआ है। स्वर्णिम भविष्य आपकी प्रतीक्षा कर रहा है। भूत की बातों का चिन्तन कीजिए। शुद्ध बनिए धारणा का अभ्यास कीजिए। मनन कीजिए। ध्यान कीजिए। आगे बढ़िए। परमात्मा में निवास कीजिए।

 

कठिनाइयों, बाधाओं तथा शोक के द्वारा खिन्न बन जाइए। वे आपके हृदय में करुणा का संचार करते हैं। वे आपकी संकल्प तथा तितिक्षा-शक्ति का विकास करते हैं। वे आपको ज्ञानी बनायेंगे तथा आपकी प्रगति में आपको सहायता देंगे।

 

साहसी बनिए। कभी निराश होइए। अन्दर से शक्ति प्राप्त कीजिए। आगे बढ़िए। सर्वत्र ईश्वरीय सत्ता का भान कीजिए। चारों ओर ईश्वरीय महिमा का दर्शन कीजिए। ईश्वरीय उद्गम में गहरा गोता लगाइए। आप असीम सुख का साक्षात्कार करेंगे।

४६. ईश्वर में निवास कीजिए

 

सदय तथा मधुर शब्द बोलिए। महात्माओं का सत्संग कीजिए। मिताहार कीजिए। अपने स्वास्थ्य की रक्षा कीजिए। विश्व-बन्धुत्व तथा मैत्री-भाव का अर्जन कीजिए।

अपने बहुमूल्य समय को नष्ट कीजिए। अपनी बुरी आदतों को छोज निकालिए तथा उनको दूर कीजिए। इस विषय में आप स्वयं ही सर्वोत्तम जानकार हैं। बेकार लोगों के साथ अपने समय को व्यर्थ खोइए, कुसंग में समय के अपव्यय को यथाशक्ति कम कीजिए। सावधान बनिए। धोड़ा बोलिए।

 

भान कीजिए कि सारा जगत् ही आपकी आत्मा है। भान कीजिए कि सभी प्राणी आपकी ही आत्मा हैं। विश्व-प्रेम का विकास कीजिए। ईश्वर में निवास कीजिए। सबके प्रति दयालु बनिए। ईश्वर की शरण में जाइए। ईश्वर पर ध्यान कीजिए। आप साक्षात्कार प्राप्त करेंगे। आपमें ईश्वरीय ज्योति का अवतरण होगा।

४७. ईश्वर से सम्बद्ध रहें

 

हृदय के अन्तरतम से भावपूर्ण नित्य-प्रार्थना के द्वारा ईश्वर को अपने हृदय के साथ सम्बद्ध बना लीजिए। अपने हृदय को उसके समक्ष खोल कर रख दीजिए। किसी भी बात को गुप्त रखिए। उससे शिशु के समान ही बातें कीजिए नम्र तथा सरल बनिए। पश्चात्तापपूर्ण हृदय से अपने पापों की क्षमा के लिए उससे प्रार्थना कीजिए। उसकी कृपा के लिए उससे याचना कीजिए। मानवी सहायता पर निर्भर रहिए। एकमेव ईश्वर पर ही आश्रित रहिए। आप सब-कुछ प्राप्त कर लेंगे। आप उसके दर्शन प्राप्त करेंगे।

४८. पूर्ण आत्मार्पण कीजिए

 

सर्वशक्तिमान् प्रभु के प्रति पूर्ण आत्मार्पण कीजिए। अपने मन को उसी पर स्थापित कीजिए। सभी चेहरों में उसका दर्शन कीजिए। उसके नाम का गायन कीजिए। उसके लिए कर्म कीजिए। उसके अतिरिक्त किसी भी वस्तु का चिन्तन कीजिए।

 

वही आपका पथ-प्रदर्शक है। वही आपकी ज्योति है। आप चाहे सुख में हों या दुःख में, सदा उसको याद कीजिए। वह आपको प्रोत्साहित करेगा। जिस प्रकार उसने प्रह्लाद की रक्षा की थी, उसी प्रकार कर वह आपकी भी सारी कठिनाइयों को दूर कर देगा। वह आपको ज्योति, प्रेम और ज्ञान प्रदान करेगा।

४९. नियन्ता के साथ एक बन जाइए

 

मनुष्य उन स्थानों की ओर बलपूर्वक लाया जाता है जहाँ से कि वह कामनाओं की पूर्ति कर सके। मनुष्य की कामनाओं के अनुसार ही ईश्वर उसको अनुकूल वातावरण प्रदान करता है, जिससे वह विकास तथा प्रगति कर सके। यही प्रकृति का महत्तम नियम है।

 

यदि आप एक बार भी इस नियम को जान लें, जो आपके जीवन तथा कर्मों का निर्देशक है, तो आप इस प्रकार कार्य करेंगे जिससे कि वह नियम आपका विरोधी बन कर आपका सहायक तथा संगी बन जाये। जब तक आप इस नियम की शर्तों का पूर्ण रूप से पालन नहीं करेंगे, तब तक आपको किसी भी क्षेत्र में सफलता नहीं मिल सकती।

 

इस नियम को सावधानी के साथ समझिए। अपने कर्तव्यों का सावधानी के साथ सम्पादन कीजिए। आप शीघ्र ही ईश्वर-चैतन्य को प्राप्त करेंगे। आप नियन्ता के साथ एक बन जायेंगे।

विश्व-प्रार्थना

 

हे स्नेह और करुणा के आराध्य देव! तुम्हें नमस्कार है, नमस्कार है। तुम सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान् और सर्वज्ञ हो तुम सच्चिदानन्दघन हो। तुम सबके अन्तर्वासी हो।

 

हमें उदारता, समदर्शिता और मन का समत्व प्रदान करो। श्रद्धा, भक्ति और प्रज्ञा से कृतार्थ करो। हमें आध्यात्मिक अन्तःशक्ति का वर दो, जिससे हम वासनाओं का दमन कर मनोजय को प्राप्त हों। हम अहंकार, काम, लोभ, घृणा, क्रोध और द्वेष से रहित हों। हमारा हृदय दिव्य गुणों से परिपूरित करो।

 

हम सब नाम-रूपों में तुम्हारा दर्शन करें। तुम्हारी अर्चना के ही रूप में इन नाम-रूपों की सेवा करें। सदा तुम्हारा ही स्मरण करें। सदा तुम्हारी ही महिमा का गान करें। तुम्हारा ही कलिकल्मषहारी नाम हमारे अधर-पुट पर हो सदा हम तुममें ही निवास करें

 

-स्वामी शिवानन्द

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

विश्‍व प्रार्थना

हे स्‍नेह और करुणा के आराध्‍य देव

तुम्‍हें नमस्‍कार है, नमस्‍कार है ।

तुम सर्वव्‍यापक, सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ हो ।

तुम सबके अन्‍तर्वासी हो ।

      हमें उदारता, समदर्शिता और मन का समत्‍व प्रदान करो ।

      श्रद्धा, भक्ति और प्रज्ञा से कृतार्थ करो ।

      हमें आध्‍यात्मिक अन्‍त:शक्ति का वर दो ।

      जिससे हम वासनाओं का दमन कर मनोजय को प्राप्‍त हों ।

हम सब नाम-रूपों में तुम्‍हारा दर्शन करें ।

तुम्‍हारी अर्चना के ही रूप में इन नाम-रूपों की सेवा करें ।

सदा तुम्‍हारा ही स्‍मरण करें ।

सदा तुम्‍हारी ही महिमा का गान करें ।

तुम्‍हारा ही कलिकल्‍मषहारी नाम हमारे अधर-पुट पर हो ।

सदा हम तुममें ही निवास करें ।

-स्‍वामी शिवानन्‍द