कर्म और रोग

 

 

 

 

 

 

लेखक

 

श्री स्वामी शिवानन्द सरस्वती

 

MEDITATE SERVE LOVE THE D DIVINE LIFE SOCIETY

 

 

 

 

अनुवादिका

शिवानन्द राधिका अशोक

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

प्रकाशक

डिवाइन लाइफ सोसायटी

पत्रालय : शिवानन्दनगर-२४९ १९२

जिला : टिहरी गढ़वाल, उत्तराखण्ड (हिमालय), भारत

www.sivanandaonline.org, www.dlshq.org

 

 

 

 

 

प्रथम हिन्दी संस्करण : २००४

द्वितीय हिन्दी संस्करण : २००७

तृतीय हिन्दी संस्करण : २०११

चतुर्थ हिन्दी संस्करण : २०१५

पञ्चम हिन्दी संस्करण : २०१९

 

(,००० प्रतियाँ)

 

 

 

© डिवाइन लाइफ ट्रस्ट सोसायटी

 

HS 104

 

PRICE: 25/-

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

' डिवाइन लाइफ सोसायटी, शिवानन्दनगर' के लिए

स्वामी पद्मनाभानन्द द्वारा प्रकाशित तथा उन्हीं के द्वारा 'योग-वेदान्त

फारेस्ट एकाडेमी प्रेस, पो. शिवानन्दनगर, जि. टिहरी गढ़वाल,

उत्तराखण्ड, पिन २४९ १९२' में मुद्रित

For online orders and Catalogue visit : dlsbooks.org

प्रकाशकीय

 

कर्म तथा उनके प्रतिफलों का विस्तृत विवरण इसमें दिया गया है। इसके द्वारा विवेकी मनोविज्ञान और अन्तर्दृष्टि वाला मनुष्य एक वास्तविक उद्देश्य को अपनाने हेतु प्रेरित होता है। जब तक आत्म-साक्षात्कार प्राप्त नहीं होता, ईश्वर का ज्ञान प्राप्त नहीं होता, प्रत्येक मानव सदैव गिरता फिर पुनः उठता और पशुता तथा मानवीयता के मध्य झूलता रहता है। जिन रोगों से हम पीड़ित हैं और हमें इस पृथ्वी पर जो जन्म मिला है, वह हमारे पूर्वजन्म के कर्मों के परिणाम हैं तथा कोई भी कर्म बिना उसके अनुरूप प्रतिफल के नहीं जाता। बुरा कर्म उसे करने वाले के ऊपर अपना प्रभाव डालता है। यहाँ पर जीवन को निम्न गर्त में ले जाने वाली कुछ परिस्थितियाँ दी गयी हैं, जिनमें मनुष्य असावधानीपूर्वक किये गये अपने कर्मों के फलस्वरूप रहने को विवश होता है। पापी या पाप करने वाले के ऊपर जो कष्ट आते हैं, वे इसमें उद्धृत हैं। वे ऐसे लोकों में वास्तविक जन्म के द्वारा या जो यहाँ उद्धृत हैं ऐसे कष्ट के समतुल्य कष्ट का अनुभव किसी अन्य अस्तित्व के क्षेत्र में या पृथ्वी पर ऐसी बाधाओं के साथ जन्म लेते हैं जहाँ कि ऐसे कष्टों को या तो प्रत्यक्ष या अन्य के माध्यम से भोगते हैं।

 

- डिवाइन लाइफ सोसायटी

 

सन् १९३२ में स्वामी शिवानन्द जी ने शिवानन्द आश्रम के कार्यों का श्रीगणेश किया। सन् १९३६ में दिव्य जीवन संघ की स्थापना हुई। सन् १९४८ में योग-वेदान्त फारेस्ट एकाडेमी के कार्यक्रम प्रारम्भ किये गये। इन सबका उद्देश्य था- आध्यात्मिक ज्ञान का प्रचार करना तथा व्यक्तियों को योग और वेदान्त में प्रशिक्षण देना सन् १९५० में स्वामी जी ने भारत तथा सीलोन की यात्रा की सन् १९५३ में स्वामी जी ने 'विश्व धर्म संसद' का संयोजन किया। स्वामी जी ३०० से अधिक पुस्तकों के लेखक हैं। संसार-भर में उनके शिष्य हैं-जिनमें सभी राष्ट्रों के निवासी तथा सभी धर्मों और मतों के अनुयायी सम्मिलित हैं। स्वामी जी की पुस्तकों का अध्ययन करना परम प्रज्ञामृत का पान करने के समान है। १४ जुलाई १९६३ को स्वामी जी महासमाधि में लीन हुए।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

कर्म और रोग

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

कर्म और उनके फलस्वरूप होने वाले रोग

प्रस्तावना

 

वर्तमान समय में यह सामान्यतः यह कहते हुए सुना जाता है कि पुराण अत्यंत अविश्वसनीय ग्रंथ हैं उनमें बहुत सी बातो के बारे में अतिशयोक्तियाँ की गई हैं। ये आलोचक कहते हैं कि पुराणों में पाठकों को डराने के लिये बहुत अतिरंजनायें और निरर्थक बचकाने प्रयास स्वर्गलोक के सुख ऐश्वर्य तथा नरक की अग्ति के भयंकर चित्रों और वहाँ पर दी जाने वाली यातनाओं के वर्णन के आडंबरपूर्ण विवरण द्वारा किये गये हैं। किसी विषय की आलोचना करने के लिये बहुत थोड़ी बुद्धि की आवश्यकता होती है। विषय की गंभीरता को सोचे विचारे बिना सीधे निंदा करना मानव बुद्धि का जन्मजात स्वभाव है। किंतु इन पूर्वाग्रहों के समतुल्य यदि थोड़ा ध्यानपूर्वक विचार किया जाये तो पुराणों के ऋषियों ने इन बातों को जिस रूप में लिखा है उसका कोई विशिष्ट उद्देश्य था इस बात का रहस्योद्घाटन उन्होंने विशेष दृष्टिकोण से कुछ विषयों को विशेष महत्त्व प्रदान कर उन पर विशेष दबाव डाला है। कर्म तथा उनके प्रतिफलों का विस्तृत विवरण इस लेख में किया गया है। इस लेख के द्वारा विवेकी मनोविज्ञान और अंतरदृष्टि वाला मनुष्य एक वास्तविक उद्देश्य को अपनाने हेतु प्रेरित होता है।

 

जब तक कि आत्म-साक्षात्कार प्राप्त नहीं होता ईश्वर का ज्ञान नहीं प्राप्त होता प्रत्येक मानव सदैव गिरता फिर पुनः उठता और पशुता और मानवीयता के मध्य झूलता रहता है। जीव जब तक अंतिम रूप से ईश्वर से नहीं मिलता पाशविकता पूर्णतया समाप्त या उस पर पूर्ण विजय नहीं पाई जा सकती। जहाँ तक मानव है साथ ही साथ उसके पशु भी हैं। कभी एक ऊपर होता है कभी दूसरा केवल तभी जब जीवात्मा ऊपर होगा और इन दोनों से परे उसकी प्रकृति के तीसरे निष्क्रिय स्वरूप जिसे दिव्य स्वरूप कहते हैं उसमें रूपांतरित और स्थापित हो जायेगा, तब वह मृग नर अतीत बन जायेगा। फिर आगे से भविष्य में जीव चेतना के क्षेत्र मे पशुता और मानवीय प्रकृति के मध्य वरीयता हेतु हार जीत का युद्ध कभी नहीं होगा। अब दिव्य क्षेत्र का स्वयं क्षेत्र के ऊपर आधिपत्य होगा।

 

जब तक यह स्थिति प्राप्त नहीं होती मनुष्य अपनी वृत्तियों के अनुरूप पशु या मानव में परिणित होता रहता है। वह स्वयं को बारी-बारी से श्रेष्ठ और निम्न प्रदर्शित करता रहता है वह उत्कर्ष और अपकर्ष के मध्य झूलता रहता है। उसके दो विभिन्न स्वरूप बाह्य प्रतिक्रियाओं को अपनी विशिष्ट रीति से प्रभावित करते हैं इसी प्रकार समान रूप से बाह्य अभिगम की विशेष प्रक्रिया ही दोनों उपरोक्त रूपों की वाँछित प्रतिक्रिया मानवीय चेतना में जगाने में सक्षम होती है। इसीलिये हम पाते हैं कि जो स्वयं संयम से रहते हैं और सत्त्व, संस्कार, संस्कृति और चरित्र का अधिक मात्रा में अर्जन करते हैं उन पर अपरिष्कृत आवेग और वासनायें अपना प्रभाव नहीं डाल पार्टी वे मात्र कुछ आपत्तिजनक परिस्थितियों में ही विकसित होती हैं जब कि मनुष्य पूर्व कुसंस्कारों के जागने के कारण दुर्भाग्य से कमजोर पड़ जाता है। जब भी अपरिष्कृत प्रकृति में ये वासनायें तत्काल विध्वंस और विपरीत कार्य करतीं हैं अच्छे संस्कार उसी क्षण शुद्ध प्रकृति पर प्रभाव डालते हैं किंतु घोर पाश्विक मनुष्य पर वे अपना प्रभाव डालने में असफल रहते हैं। मराठी भाषा में इसके लिये कहा गया है "बिना छड़ी के बंदर नहीं नाचेगा।" यही बात अच्छी भावनाओं के लिये भी है। रुगबी के प्रसिद्ध डा. आरनाल्ड ने अपने लड़कों में विश्वसनीय सहज वृत्ति के विस्तार हेतु यह मनोविज्ञान सावधानीपूर्वक प्रयुक्त किया मार्क एन्टोनी ने अपनी उत्तेजक और विश्वसनीय वाकपटुता का कुशलता पूर्वक प्रयोग कर अपने रोमन श्रोताओं के मानवीय पक्ष पर सूक्ष्मता से प्रभाव डालकर उनकी संवेदनाओं को जगाया औरफिर उनके शक्तिशाली और पाशविक मनोविकार क्रोध को, उनके भीतर क्रोध के प्रति प्रतिकार तथा उग्रता का उन्माद पैदा कर समाप्त किया।

 

पौराणिक हिंदू धर्म के नर्क और प्रतिफलात्मक विचारों का आधार गहरी मानवीय अंतरदृष्टि और प्रशंसा के योग्य भीतर तक प्रवेश करने वाला मनोविज्ञान है। वे जानते हैं मधुर सीटी की आवाज उस बैल को हटने के लिये विवश नहीं कर सकती जो कोड़े की मार चाहता है। हम जानते हैं कि लंका के पुल को बनाने की पूर्व संध्या पर जब समुद्र नरेश से उचित व्यवहार हेतु समस्त प्रार्थनायें विफल हो गईं तो राम भगवान् ने क्रोध में बाण लिया अगले ही क्षण समुद्र नरेश भगवान राम के समक्ष हाथ जोड़ कर विनती करने लगे। इसी प्रकार श्रेष्ठ कार्यों के लिये, उच्च महत्त्वाकांक्षाओं और सच्चरित्र हेतु अंकुश लगाने के लिये पुराणों के ऋषियों ने उसके समक्ष उत्तम जीवन के गुणगान, उसके अनकहे लाभ और अनुग्रह की प्रशंसा का स्पष्ट विवरण प्रस्तुत किया है। यहाँ उन्होंने मनुष्य के मानवीय पक्ष की सहायता का प्रयास किया है। किंतु जब वह बहुत अधिक घोर पापकर्मों में और पाश्विक विषय भोगों में लिप्त रहता है तब वे जानते थे कि यह विषय को हल्का करने का अवसर नहीं है। pi पशु को दंडित करनें के लिये उसके कर्मों के अवश्यंभावी, सत्य तथा तीव्र विवरण ही मात्र पर्याप्त नहीं होते यहाँ हमें यह अवश्य ध्यान रखना चाहिये वे अतिश्योक्ति या असत्य भाषण करें बल्कि वे विषय को सजीव विवरण के द्वारा मापकर उसे विशेष महत्त्व दें और उसे करने में किसी प्रकार के कष्ट का अनुभव करें। वे जीव को भयंकर परिणामों की भयानक सेना के बारे में बताते हैं जो कि पापी के बुरे कर्मों के कारण अवश्यंभावी है। वे नैतिक और आध्यात्मिक नियमों के अतिक्रामी अनुशासन हीन लोगों की राह देखने वाली विभिन्न यातनाओं का विस्तृत विवरण देते हैं। वे अतिक्रामी के पूर्व कर्मों और उनके प्रतिफल जो उन्होंने पहले किये हैं उनसे संबंध रखते हैं और इसकी सत्यता को प्रमाणित करते हैं। पुराणों में निम्न कर्मों के परिणाम जो कि निम्न गर्भों में जीवन पर्यंत भोगे गये ऐसे भयंकर उदाहरण से भरे हुए हैं। जैसे नहुष, जय और विजय और गजेन्द्र आदि।

 

वे इसके साथ ही समाप्त नहीं होते पाप कर्मों के अपराधों के फलों का दृष्टांत देना ही पर्याप्त नहीं होता इसलिये वे ऐसे घटनाक्रमों का उद्धरण भी देते हैं जो तुलनात्मक रूप से अहितकर कर्मों अच्छे भाव जैसे स्नेह, आदि में मन रखने से भी मनुष्य के ऊपर गंभीर कष्ट ले कर आते हैं। प्राचीनकाल में ऋषि जड़ भरत की कहानी में यह चेतावनी एक उदाहरण के रूप में है असत्य भाषण की प्रतीति मात्र भी चाहे अनजाने में हुई हो तो भी भयंकर नरकाग्नि के एक क्षण के दर्शन हेतु आत्मा को भेजने के लिये पर्याप्त है। यहाँ महान् युधिष्ठिर जी का नरक दर्शन का उदाहरण दिया गया है। वृहत जनसमूह के द्वारा वर्तमान समय में असंख्य पुराणों में से सौभाग्य या दुर्भाग्य से मात्र कुछ का ही अध्ययन किया जाता है। जिन थोड़े श्रद्धालु जनों ने जिन पुराणों का अध्ययन या श्रवण किया है उनमें मात्र शास्त्रीय शैव पुराण या विष्णु पुराण हैं। सामान्यतया मात्र स्कंद, मारकण्डेय, विष्णु या श्रीमद्भागवत महापुराण का ही परिशीलन किया जाता है। यह मात्र विद्यार्थी या रूढ़िवादी ब्राह्मण वर्ग ही नहीं बल्कि वह सामान्य व्यक्ति भी है जो कि भीड़-भाड़ से दूर रहता है वह भी इनका ही परिशीलन करता है।

 

इस प्रकार कर्म और कर्मफलों के उदाहरण का कोड़ा मनुष्य में रहने वाले विषयी पशु हेतु मजबूत नहीं है और इसके फलस्वरूप मनुष्य इतना उपधर्मी पहले कभी नहीं हुआ। किंतु सिद्धांत चाहे दिव्य या ऐहिक हो सदा अटल है। दंड संहिता का अज्ञान होने से किये गये अपराध के दंड से मुक्ति नहीं मिल सकती और ही कर्म करने वाल मुक्त हो सकता है। जो चोरी करेगा वह जेल जायेगा। जो मारेगा वह फाँसी पर चढ़ेगा। इस प्रकार जिसने पाप किया है उसे भोगना ही होगा।

 

यदि इस ब्रह्मांडीय सिद्धांत के अपरिहार्य क्रम के सत्य को उसके सामने अनलंकृत रूप तथा निश्चित रूपरेखा के साथ उसके सामने रखा जाये तो यह उसे दुर्गुण छोड़ने तथा सद्गुण अपनाने, अधर्म त्यागने और धर्म को अंगीकार करने हेतु थोड़ा सा तो प्रेरित करेगा ही। यही "कर्म और उनके प्रतिफलस्वरूप होने वाले रोग" इस छोटी सी पुस्तक का उद्देश्य है।

 

इसका उद्देश्य मुख्यतया परलोक में मिलने वाले प्रतिफलों के कारण जो कष्ट इस पृथ्वी लोक में उसे शारीरिक और मानसिक रूप से मिलते हैं उसके प्रति उसमें विश्वास जगाना है। आधुनिक मनुष्य "जो उसे दिखाई देता है उस पर विश्वास करना" यही उसका लक्ष्य है और वह धर्म विरुद्ध कर्म करने के फलस्वरूप दंड के रूप में अस्पतालों और कलीनिकों में जो चुका रहा है उस पर एक क्षणिक दृष्टि भी नहीं डालना चाहता।

 

जिन रोगों से हम पीड़ित हैं और हमें इस पृथ्वी पर जो जन्म मिला है वह हमारे पूर्व जन्म के कर्मों के परिणाम हैं तथा कोई भी कर्म बिना उसके अनुरूप प्रतिफल के नहीं जाता। बुरा कर्म उसे करने वाले के ऊपर अपना प्रभाव डालता है। यहाँ पर जीवन को निम्न गर्त में ले जाने वाली कुछ परिस्थितयाँ दी गई हैं। जिनमें मनुष्य अपने असावधानी पूर्वक किये गये कार्यों के फलस्वरूप रहने को विवश होता है।

 

जैसा कि आधुनिक प्रबुद्ध मनुष्य सामान्यतया विश्वास करते हैं वैसी नर्क कोई असत्य कल्पना नहीं है। अनुभववादी मात्र अपनी इंद्रियों के स्पर्श द्वारा होने वाले अनुभवों में ही विश्वास करते हैं और अपनी बुद्धि के आदेशों से परे जाने में स्वयं को अयोग्य पाते हैं। इसका अर्थ यह नहीं है कि उनकी समझ से परे जो सत्य है उन्हे अनदेखा करना चाहिये हमें यह निश्चय पूर्वक कहने का कोई अधिकार नहीं है कि यह पृथ्वी मात्र प्रत्यक्ष या मूर्त सत्य है और अन्य आभास मात्र है। क्योंकि हम तारों को टिमटिमाता हुआ प्रकाश का बिंदु देख सकते हैं इसलिये वे टिमटिमाते हुए प्रकाश का बिंदु नहीं बन जायेंगे। यदि मैने अमेरिका नहीं देखा है तो मुझे उस देश के अस्तित्व को नकारने का कोई अधिकार नहीं है। हमें यह स्वीकारने के लिये कि परलोकों का भी अस्तित्व है जो कि प्रकृति और आकार में आँतरिक रूप से भिन्न है अंतर्ज्ञान और तर्कबुद्धि दोनों प्रकार के प्रमाण हैं। योगवाशिष्ठ कहता है कि हमारी दृष्टि से परे स्थित अन्य बृहत लोकों के मध्य हमारी पृथ्वी एक अणु के समान है। हमें योगवाशिष्ठ के इस तथ्य को नकारने का कोई अधिकार नहीं है कि वे लोक विभिन्न पदार्थों जैसे ताँबा, लोहा, सोने आदि से निर्मित तथा पानी और दूध से आपूरित है तथा वहाँ सर्प, पशु दैत्य आदि निवास करते हैं। यह कोई आवश्यक नहीं है कि समस्त लोकों में मात्र मनुष्य प्राणी ही रहे और जिन लोकों का अस्तित्व है उनमें पृथ्वी जैसी स्थितियाँ ही अभिभावी हों। यह ब्रह्मांड अनंत ईश्वरीय चेतना का विभिन्न अंशों का क्रमिक प्राकट्य है जो जीवन और अनुभव के प्रत्येक प्रकार में सम्मिलित है। अनंत एक महान आश्चर्य है और हम यह नहीं कह सकते कि इसके गर्भ मे कौनसी वस्तुएँ पल रही हैं। अनंत में कई परिवार हैं और पृथ्वी, नर्क, स्वर्ग, मनुष्य, पशु, देवतागण सभी भिन्न-भिन्न प्रकृति वाले इसकी संतान हैं। परमात्मा छोटे से पदार्थ से परमानंद तक विस्तृत है और उनके अस्तित्व के मध्य अनगिनत ब्रह्मांड अपनी अंतरनिहित वस्तुओं के साथ स्थित है। वे उनकी स्वयं की प्रकृति और उनकी अंतरनिहित वस्तुओं दोनों में भिन्न है। ऐसा कहा जाता है कि प्राणी इस या अन्य किसी भी लोकों में अपने कर्मों के अनुसार जन्मता है। अग्नि ही मात्र उष्णता प्रदान करती है और मात्र भोजन ही क्षुधा को शांत करता है। इसी प्रकार विशेष कर्मों के फलों की प्राप्ति के लिये विशेष परिस्थ्तियाँ और वातावरण आवश्यक होता है।

 

किसी दिव्य श्रेष्ठ प्राणी के क्रोध के कारण दण्ड या विपत्ति अनिवार्य नहीं है, यह प्रकृति के निश्चित नियम के अनुसार कि आत्मा अपने पूर्व जन्म में किये गये कर्मों के कारण जो अनुभव निश्चित किये गये हैं उनके लिये उपयुक्त शरीर में स्वयं को प्रगट करती है उनके द्वारा निश्चय ही वे दंड या विपत्ति अनिवार्य होती है। इसी प्रकार लोकों की प्रकृति में भिन्नता वास्तविक है यह निर्मूल नहीं है। हमें याद रखना चाहिये कि सत्य अनदेखा होता है।

 

नर्क, इन्द्रलोक या हमारी पृथ्वी की ही भाँति वास्तविक लोक है। ये लोक उनके आविर्भाव की सूक्ष्मता में भिन्न होते हैं। वे चेतना की स्थिति जो उनके द्वारा प्रदर्शित की गई है उसमें अंशतः भिन्न होते हैं। पापी या पाप करने वाले के ऊपर जो कष्ट आते हैं यहाँ नीचे उद्धृत हैं वे ऐसे लोकों में वास्तविक जन्म के द्वारा या जो यहाँ उद्धृत हैं ऐसे कष्ट के समतुल्य कष्ट का अनुभव किसी अन्य अस्तित्व के क्षेत्र में या पृथ्वी पर ऐसी बाधाओं के साथ जन्म लेते जहाँ कि ऐसे कष्टों को या तो प्रत्यक्ष या अन्य के माध्यम से भोगते हैं।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

कर्म और उनके फलस्वरूप होने वाले रोग

 

 

कर्म

रोग

जो अन्यों का अपमान करता है, वचन तोड़ता है, दूसरों को निराश करता है, किसी को उसकी संपत्ति से अपवंचित करता है।

घोर मानसिक यंत्रणा भोगता है।

जो चूहे या सर्प के बिल का मुँह बंद कर देता है। जो मछली को पकड़ता है और उसके दम घुटने का कारण होता है या किसी प्राणी की गला दबाकर हत्या करता है।

अस्थमा, फेफड़ों के रोग, फुसफुसावरण-शोथ उरोग्रह श्वसनशोथ (गंभीर) न्यूमोनिया आदि से पीड़ित होता है।

 

जो अन्यों को विष बुझे औजारों से घायल करता अथवा हत्या करता है।

बिच्छू दंश और सर्पदंश से पीड़ित होता है।

 

जो अन्य पर अत्याचार करता है और उन्हें अत्यधिक दंभ तथा अहंकार कारण स्थाई रूप से दास बनाकर रखता है।

हाथी पाँव रोग होता है।

जो कृपण और जमींदार होता है, जो विध्वंस करता है, जो अपने ऋण लेने वाले लोगों को कंगाल कर देता है और अधिक ब्याज लेकर भुखमरी की स्थिति में ला देता है।

क्षय रोग से पीड़िता होता है।

 

जो वेश्याओं में आसक्त रहता है, मिलावट करता है और अपवित्र जीवन बिताता है।

उसे कुष्ठ रोग होता है।

जिसे अपने शारीरिक बल का अभिमान होता है और जो अपनी शक्ति का दुरुपयोग अन्यों पर अत्याचार करने और अन्य से झगड़ने में करता है।

मिर्गी रोग से पीड़ित होता है।

जो स्त्रियों पर कामुक दृष्टि डालता है, जो दूसरों की संपत्ति पर दृष्टि डालता है, जिसका हृदय दूसरों की समृद्धि से जलता है, जो नाच सभा में जाता है।

स्थाई नेत्र रोग हो जाते हैं।

जो किसी के घर को आग लगाता है और अन्यों की मृत्यु का कारण होता है।

उसे विसर्प और गर्भ में गर्म फफोले हो जाते हैं।

 

जो अन्यों को क्षत्रक, रस पुष्प तथा उत्तेजक विष देता, जो चावल में चुना मिलाता है, होटल में काम करता है, जो दूध में पानी मिलाकर उसे शुद्ध दूध के समान उच्च मूल्य पर बेचता है।

उदर शूल और जठर शोथ

जो पाखण्डी है तथा अच्छाई और सद्गुणों का ढोंग करके अन्यों को सदा नृशंस कार्यों द्वारा यंत्रणा देता है, जो सदा दुर्व्यवहार करता है।

उसे बुरी खुजली और त्वचा रोग हो जाते हैं।

जो गपशप में लगे रहते हैं, जो परनिंदा और परदोष (अन्य का अपमान) करना पसंद करते हैं, जो नाच के शो में अश्लील गीत सुनते हैं।

कानों में दर्द आवाजें सुनाई देती हैं, कानों में घाव हो जाते हैं और कान में जलन होती है

पुत्र जो अपने पिता की अवज्ञा करते हैं और उन्हें न्यायालय में खींच कर ले जाते हैं।

धवल रोग तथा दृष्टिहीनता हो जाती है।

विधिवक्ता और वकील जो न्याया लय में सत्य को घुमाते और असत्य भाषण करते हैं।

उन्हें रंगहीनता (दृष्टिदोष), भेंगापन, मोतियाबिंद और विकृत शरीर के साथ जन्मते और स्मरणशक्ति में कमी से पीड़ित रहते हैं।

वे वैज्ञानिक जो विनाशकारी अग्निबम का आविष्कार करते तथा वे जो उन्हें भोलेभाले लोगों पर गिराते हैं।

वे असंख्य असाध्य रोगों से पीड़ित होते हैं, कीड़े के रूप में जन्म लेते हैं और पेड़ के खोखल में रहते हैं और जब वह पेड़ कटते हैं और लकड़ी जलाने के काम आती है। वे कई जन्मों तक क्रूरता पूर्वक राख में परिवर्तित होते हैं।

निर्दयी चिकित्सक जो अपने रोगियों की चिकित्सा ठीक से नहीं करते, निरर्थक महंगी दवाइयाँ देते हैं, पानी का इंजेक्शन लगाते हैं और बहुत अधिक फीस लेते हैं।

वे स्त्री के रूप में जन्मते और उन्हें गर्भाशय के रोग रहते हैं। उनकी गर्भ धारण और प्रसव में सदा कष्ट और गहन जटिलतायें होती हैं और इसका परिणाम अधिकतर गर्भपात होता है।

 

संन्यासी जो सिद्ध का वेश बनकार सांसारिक लोगों को ठगते हैं।

वे अपनी युवावस्था के प्रारंभ में शक्तिहीनता से विजय पा लेते हैं और जब भी वे सुखोपभोग की बहुत अधिक रखते हैं वे भयंकर हताशा से घिर जाते हैं।

जो मद्यपान करते हैं और अनैतिक कार्यों में लगे रहते हैं।

वे समय से पूर्व क्षीणकाय तथा अल्पविकसित जन्मते हैं और तंत्रिकावसाद और सामान्य अशक्तता से पीड़ित रहते हैं।

जो अपने भोजन पानी के लिये मूक प्राणियों का हरण करते और भोले-भाले गाय बैलों को पीटते हैं।

उन्हें पायरिया हो जाता है, सारे दाँत गिर जाते हैं और उनके गले में व्रण हो जाता हैं।

जो लोगों को बंदीगृह में यंत्रणा देते हैं।

वे विकलांग और लकवे से पीड़ित जन्मते हैं और असाध्य नाड़ी दर्द और गठिया से पीड़ित रहते हैं।

जो ईश्वर की निंदा करते हैं, जो संतों और शास्त्रों के बारे में अशिष्ट सम्भाषण करते हैं।

उन्हें जीभ का कैंसर हो जाता है और वे गूँगे बनते हैं।

 

वे डकैत जो लोगों की वस्तुओं का हरण करते और निर्धन लोगों को गोली मार देते हैं।

वे प्रत्येक महामारी से पीड़ित होते तथा प्रत्येक समय उनमें बार-बार आवृत्ति और जटिलतायें पैदा होती हैं।

जो द्विज अपने यज्ञोपवीत को निकाल के फेंक देता है, चोटी नहीं रखता, संध्या वंदना नहीं नहीं करता

उसे कमजोरी रहती है और और पागलपन के दौरे पड़ते हैं।

जो धनी व्यक्ति अपने कारखानों में श्रमिकों से दबावपूर्ण बहुत अधिक काम करवाते हैं और और उन्हें मजदूरी बहुत कम देते हैं आदि।

अस्थमा, मस्तिषक में अत्यधिक घुटन और अर्बुद्ध होता है जिसमें असहनीय दर्द होता है तथा वह गठिया, वात, कटिवात और कमर के झुकने से भी पीड़ित होता है।

जो बनावटी संबंधों द्वारा लोगों को ठगता है।

असाध्य प्रवाहिका और अजीर्ण तथा रक्त की कमी और कुपोषण के साथ प्लीहा के रोग।

जो बासी सब्जियों और फलों, सड़े हुए गेहूँ और चावल को ताजे जैसा बनकार उच्च मूल्य पर बेचता है।

वह बालों के गिरने, सफेद दाग, दाँत में गढ्ढे और मोतिया बिंद से पीड़ित रहता है।

मुनाफाखोर और कालाबाजारी करने वाले

उनको असाध्य रोग हाथी पाँव और आमाशय में अर्बुद्ध होता है।

चुगलखोर विश्वासघाती जन

उनको सिर और कंधों पर व्रण, आंतरिक व्रण और पीठ पर एग्जिमा आदि हो जाता है।

अधिकारी जो अपने अधीनस्थ कर्मचारियों, लिपिक तथा चपरासियों को अनाधिकृत कार्य निकालकर तथा उन्हें अनावश्यक रूप से परेशान करते हैं।

उन्हें असाध्य और असहनीय सिर दर्द, उच्च रक्तचाप तथा तीव्र चक्कर आता है।

 

वे अधिकारी जो जनता के धन का दुरुपयोग करते हैं और झूठी सूची बनाकर प्रस्तुत करते हैं।

वे जलोदर और विषाक्त ज्वर से पीड़ित होते हैं।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

कर्म और जन्म

 

ब्राह्मण की हत्या करने वाला क्षय रोगी की तरह जन्मता है। गाय की हत्या करने वाला कूबड़ युक्त और मूढ़ बुद्धि होता है। कुआँरी, कुआँरा या सती को मारने वाला कोढ़ी होता है।

 

स्त्री को मारने वाला और भ्रूण को नष्ट करने वाला ऐसा जंगली बनता है जिसे बहुत से रोग होते हैं। जो अधर्म से सहवास करता है वह हिजड़ा बनता है जो गुरु पत्नी के साथ संबंध रखता है वह रोगी त्वचा के साथ जन्मता है। नागाप्राह कर

 

जो माँस खाता है उसका रंग बहुत लाल होता है। मद्य पीने वाले के दाँत बहुत गंदे होते हैं। वह ब्राह्मण जो लालच के कारण खाने योग्य वस्तुएँ खाता है वह बड़े पेट वाला जन्मता है।

 

जो मिठाइयाँ अन्य को दिये बिना ग्रहण करता है वह अगले जन्म में सूजे हुए गले वाला बनता है जो श्राद्ध कर्म में अपवित्र भोजन देता है वह कोढ़ी के रूप में जन्म लेता है।

 

वह मनुष्य जो अहंकार के वशीभूत होकर अपने गुरु का अपमान करता है अगले जन्म में अपस्मार से पीडित होता है जो वेदों और पवित्र धर्मग्रंथों की उपेक्षा करता है पीलिया युक्त होता है। एकाकी शिक

 

जो झूठी गवाही देता है गूंगा बन जाता है जो साथियों की पंक्ति से अलग बैठकर भोजन करता है काना बन जाता है जो विवाह जोड़े को अलग करता है वह ओष्ठहीन होता है जो पुस्तकें चोरी करता है वह अंधा बनता है।

जो गाय या ब्राह्मण को उसके पैर से ठोकर मारता है वह लंगड़ा या विकलांग होता है जो असत्य वचन बोलता है वह हकलाता है। जो असत्य सुनता है वह बहरा होता है।

 

विष देने वाला विक्षिप्त बनता है, गृह दाही गंजा होता है। जो माँस विक्रय करता है सबसे अभागा और दुर्भाग्यशाली होता है। जो अन्य प्राणियों का माँस खाता हो वह रोगी होता है।

 

जो आभूषण चुराता है वह निम्न जाति में जन्म लेता है जो स्वर्ण चोरी करता है वह रोगी नाखूनों वाला होता है, जो अन्य धातु चुराता है वह अभाव ग्रस्त होता है।

 

जो भोजन चुराता है वह चूहा बनता है जो अन्न की चोरी करता है वह टिड्डी बनता है जो जल की चोरी करता है वह चातक पक्षी बनता है जो जहर चुराता है वह बिच्छू बनता है।

 

जो सब्जियाँ और पानी चुराता है वह मोर बनता है। जो इत्र चोरी करता है वह छबूंदर बनता है। जो शहद चुराता है वह गो मक्षिका बनता है। जो माँस चुराता है वह गिद्ध बनता है। जो नमक चुराता है वह चींटी बन जाता है।

 

जो बेलपत्र, फल और पुष्प चुराता है, जंगली बंदर बनता है। जो जूते, घास और रूई चुराता है वह भेड़ के गर्भ से जन्म लेता है।

 

जो आतंक मचाता है, जो राह के कारवाँ को लूटता है जो शिकार करता है वह कसाई के घर बकरी के रूप में जन्मता है।

 

जिसकी मृत्यु विषपान से होती है वह पहाड़ों पर काला सर्प बनता है जिसका स्वभाव असंयमित होता है वह निर्जन वन में हाथी बनता है। जो द्विज ईश्वर की अराधना नहीं करता और वह सभी प्रकार के भोज्य पदार्थों को बिना हिचकिचाहट और सोच-विचार के खा लेता है वह निर्जन वन में बाघ बनता है।

 

जो ब्राह्मण गायत्री जप नहीं करता, जो संध्या काल में ध्यान नहीं करता जो बाहर से तो पवित्र होता है और अंदर से दुःश्चरित्र है वह सारस बनता है।

 

जो कर्मकाण्ड नहीं कर सकते उनके लिये जो ब्राह्मण कर्मकाण्ड करता है वह गाँव का कुत्ता बन जाता है जो बहुत अधिक ऐसे कर्मकाण्ड करते हैं वे गधा बनते हैं। ईश्वर का स्मरण किये बिना भोजन करने से कौआ बन जाते हैं।

 

द्विज जो उसे ज्ञान प्राप्त करना चाहिये वह नहीं प्राप्त करता सांड बनता है। वह शिष्य जो गुरु की सेवा नहीं करता पशु गधा या कौआ बनता है।

 

जो अपने गुरु को धमकाता या गुरु पर थूकता है वह निर्जल, उजाड़ भूमि में महान भयंकर पिशाच बनता है।

 

जो द्विज को अपने वचन के अनुरूप दान नहीं देता वह सियार बनता है जो अपने आतिथेय के साथ अच्छा व्यवहार नहीं करता वह चिल्लाने वाला अग्नि मुख वाला दैत्य बन जाता है।

 

जो अपने मित्र को धोखा देता है वह पहाड़ी गिद्ध बन जाता है। जो विक्रय करने में बेईमानी करता है वह उल्लू बनता है। जो जाति और धर्म वर्ग के बारे में अशुभ बोलता है लकड़ी में कबूतर बनता है।

 

जो आशायें नष्ट करता है जो स्नेह नष्ट करता है, वह जो नापसंद होने के कारण अपनी पत्नी को त्याग देता है वह लम्बे समय के लिये लाल हंस बनता है।

 

जो माता-पिता और गुरु से घृणा करता है जो बहनो और भाइयों से लड़ाई करते हैं वो कम से कम एक हजार जन्मों तक गर्भ में रहते हुए ही नष्ट हो जाते हैं।

 

वह स्त्री जो अपने सास और ससुर का अपमान करती है और उनसे सदा झगड़ती है वह जूँ बन जाती है। वह जो अपने पति को डाँटती है वह जुआ बनती है।

 

वह स्त्री जो अपने पति को छोड़ती है और दूसरे पुरुष के साथ भाग जाती है वह उड़ने वाली लोमड़ी, छिपकली या स्त्री सर्प बन जाती है।

 

वह जो अपनी वंश परम्परा को तोड़कर अपने परिवार की स्त्री का आलिंगन करता है वह लकड़कग्घा और साही बन जाता है और भालू के गर्भ से उत्पन्न होता है।

 

जो कामुक मनुष्य जो किसी संन्यासिनी के साथ जाता है वह मरूस्थल में राक्षस बनता है जो अपरिपक्व बालिका के साथ मेल-जोल रखता है वह लकड़ी में रहने वाला एक बहुत बड़ा सर्प बनता है।

 

जो अपनी गुरु पत्नी के साथ मेल-जोल रखता है वह गिरगिट बनता है वह जो राजा की पत्नी के साथ जाने का प्रयत्न करता है वह बहुत दुश्चरित्र बनता है जो अपने मित्र की पत्नी के साथ सम्बंध रखता है वह गधा बन जाता है।

 

वह जो अप्राकृतिक पापाचार करता है वह गाँव का सुअर बन जाता है जो बहुत क्रोधी होता है वह कामुक घोड़ा बन जाता है।

 

जो मृतक के ग्यारहवें दिन अर्पित भोजन पदार्थ ग्रहण करता है वह कुत्ते के रूप में जन्म लेता है जो ब्राह्मण भगवान के लिये निर्मित प्रसाद के ऊपर निर्वाह करता है वह मुर्गी के गर्भ से जन्म लेता है।

 

वह द्विज अभागा है जो संपत्ति के लिये देवताओं की पूजा करता है उसे कोई शाँति नहीं मिलती और वे जंगली चिड़िया बन जाते हैं।

 

जो स्वयं द्वारा दान किया या अन्य के द्वारा दान में दिया भूमि का टुकड़ा वापस ले लेता है वह विष्ठा में कीड़े के रूप में जन्म लेता है।

 

निम्न योनि के समस्त प्राणी, वृक्ष और इसी प्रकार के समस्त जीव नर्क से वापस आकर मानव साम्प्रज्य में निम्न और अछूत जाति में जन्म लेते हैं और तब भी पाप के चिन्ह उनमें रहते हैं और वे बड़े अभागे होते हैं।

 

वे ऐसे स्त्री और पुरुष बनते हैं जो रिसने वाले कुष्ठ रोग, जन्माँध, दुःखद रोगों से पीड़ित तथा उनके शरीर में पापों के चिन्ह होते हैं।

 

वह जो राजा बनता है द्विज को भूमि दान नहीं करता, वह बहुत बार भिखारी के रूप में जन्म लेता है जहाँ उसके पास एक झोंपड़ी भी नहीं होती। जो राजा अहंकार के कारण भूमि का दान नहीं करता वह जब तक सूर्य और चंद्रमा का अस्तित्व होता है नर्क में निवास करता है।

 

कर्म और नर्क

 

बहुत से नर्क हैं जिनमे जीव अपने पापों और मनोभावों के कारण किये हुए कर्मों के प्रतिफल के अनुरूप जाता है। भागवत में ऐसे उनतीस प्रकार के नर्क लोकों का वर्णन है जहाँ जीव उनके कर्मों के कारण जन्म लेते

 

वहाँ एक नर्क का नाम तमिस्र है। जो व्यक्ति दूसरे की संपत्ति, पत्नी और बच्चों पर अधिकार कर लेते हैं वे इस नर्क में जन्म लेते हैं। जीव को वहाँ बहुत अधिक कष्ट का अनुभव होता है। जीव को मर्त्य बंधनों से बाँधकर अंधेरों में तेजी से फेंक दिया जाता है। उसे भोजन पानी नहीं मिलता उसे डण्डों से मारा जाता है और उसे धमका कर रखते हैं और वेदना की स्थिति में ला देते हैं जीव यहाँ मूर्च्छित होकर गिर जाता है।

 

दूसरे नर्क का नाम है अंधतमिस्र इसमें उन्हे लाया जाता है जो अपनी पत्नी को धोखा देते हैं और अन्य की संपत्ति को ठगते हैं। ऐसे जीव यहाँ यातना देने हेतु लाये जाते हैं जहाँ अत्यधिक दर्द के कारण अपनी सारी चतुराई और संवेदना भूल जाते हैं। जीव को एक ऐसे पेड़ की तरह कष्ट होता है जिसकी जड़े काट दी गई हों।

 

जो स्वयं को इस भौतिक शरीर के रूप मे पहचानते हैं और इस संसार की संपत्ति को अपनी समझते हैं वे रौरव नाम के नर्क में गिरते हैं। जो लोग पृथ्वी पर लोगों को सताते हैं उन्हें इस भयंकर नर्क में जहरीले कीड़े जिन्हें रूरू कहते हैं के द्वारा यंत्रणा दी जाती है।

 

महारौरव भी इस प्रकार का नर्क है जो व्यक्ति कामवासना में अनुरक्त रहते हैं उन्हें यहाँ माँसभक्षी प्राणी खाते हैं।

 

कुम्भिपाक नर्क में ऐसे निर्दयी और क्रूर लोगों जो जीवित प्राणियों जैसे पशु और चिड़ियों और इसी प्रकार के प्राणियों को खाते हैं। ऐसे लोगों को भयंकर राक्षस तेल में उबालते हैं।

 

जो आध्यात्मिक मनुष्यों, ब्राह्मणों और पितरों का अपमान करता है उन्हें इस नर्क में फेंका जाता है जिसे कालसूत्र कहते हैं। चालीस हजार मील विस्तृत और निरंतर नीचे से अग्नि से और ऊपर सूर्य से गर्म हो रहे जलते हुए ताँबे की सतह पर उसे रखा जाता है और उसे भूखा प्यासा रखकर यंत्रणा दी जाती है और वहाँ कहा जा सके इतनी अधिक उसकी दुर्गति होती है।

 

एक नर्क है असिपत्रवन यह वन तीक्ष्ण क्षुरों से बनी पत्तियों से भरा हुआ है। इसमें जीव को दौड़ाया जाता है और उसे पशु की भाँति पीटा जाता है जो वैदिक धर्म का पालन नहीं करता और नास्तिक धर्म को मानता है वह इस नर्क में भेजा जाता है वास्तव में क्या ही दयनीय दृश्य है वह इधर उधर भागता है और उसके शरीर का प्रत्येक भाग लकड़ी की भयंकर तलवारों के द्वन्द्व के मध्य पिसता रहता है। जीव चिल्लाता है मैं मर गया और घोर व्यथा में नीचे गिर पड़ता है।

 

वह राजा जो भोले-भाले मनुष्यों को दंड देता है या जो ब्राह्मण को शारीरिक दंड देता है वह शुकर मुख नर्क में गिरता है। यहाँ उसके शरीर को प्रत्येक भाग गन्ने की तरह निचोड़ा जाता है। वह दर्द से चीखता है पर कोई उसकी सहायता नहीं करता

 

जो मनुष्य समाज में अच्छी स्थिति में रहते हैं और दूसरों को दुःख देते हैं वे अंधकूप नर्क में गिरते हैं यहाँ जीव को अंधेरे में विभिन्न भयंकर पशुओं, साँपों आदि द्वारा यातना दी जाती है और वह यह पाठ सीखता है कि अब ऐसे पाप पूर्ण कार्य फिर नहीं करेगा।

 

वे ब्राह्मण जो अपने नित्य के यज्ञ नही करते जो उनके पास है उसे दूसरों में नहीं वितरित करते वे कौआ कहलाने लायक हैं और वे ऐसे नर्क में गिरते हैं जहाँ उनका भोजन कीड़े रहते हैं। वे कीड़ो के बहुत बड़े सागर में फेंक दिये जाते हैं। जहाँ वे जीव को चारों ओर से काटते रहते हैं।

 

जो ब्राह्मण या निर्धन व्यक्ति को लूटते हैं और इस प्रकार उन्हें बिना कारण सताते हैं वे इस नर्क में गिरते हैं जहाँ गर्म लोहे के चिमटे चुभोयें जाते हैं और उन्हें लाल गर्म गोलों से दागा जाता है।

 

जो स्त्री पुरुष ऐसे निर्धन नौकरों और कुलियों को जिनकी दयनीय स्थिति के कारण उन पर दया या सहायता की जानी चाहिये से अपशब्द कहते हैं वे ऐसे नर्क में गिरते हैं जहाँ उन्हें खूब कोड़े लगाये जाते हैं और उनको को भयंकर राक्षस तेल में उबालते हैंस्त्री या पुरुष की जलते हुए लोहे की प्रतिमा को आलिंगन करने हेतु बाध्य किया जाता है। स्त्री या पुरुष जो अपनी विवाह शैय्या का दुरुपयोग करते हैं उन्हे भी यही दण्ड दिया जाता है।

 

 भावावेश में आकर सभी प्राणियों के ऊपर क्रोध करते हैं वे सालमाली नर्क में भेजे जाते हैं जहाँ वे काँटों पर डालकर पूरे प्रदेश में घसीटे जाते हैं।

 

वह राजा जो न्यायोचित सीमाओं का अतिक्रमण करता है, अधिकारीगण जो न्याय के सिद्धांत का उल्लंघन करते हैं वे मरणोपरांत वैतरणी नदी में गिरते हैं। यहाँ पर जीव जलचर पिशाचों द्वारा पीटे जाते हैं किंतु वे अपने शरीर से अलग नहीं होते बल्कि वे अपनी जीव श्वास द्वारा अपने कर्मों के प्रतिफल को भोगने हेतु सदा जीवित रहते हैं। यह नदी कचरे, मूत्र, पीब, रक्त, बाल, नाखूनों, अस्थ्यिों, मज्जा ओर माँस और चर्बी से भरी रहती है।

 

जो मनुष्य उच्च जाति में जन्म लेते हैं और वेश्या स्त्री जो कि निम्न जीवन क्रम, विषयी और निर्लज्जता पूर्ण जीवन बिताती है उसे अपनी पत्नी हेतु चुनाव करते हैं वे मृत्यु के पश्चात नर्क के गड्ढे, पीब, कचरा, मूत्र, कफ के सागर में गिरते हैं और उन्हें इन बहुत घृणित वस्तुओं को निगलना पड़ता है।

 

वे ब्राह्मण और अन्य जो कुतिया के, और गधों के स्वामी बनना पसंद करते हैं, शाश्त्रों का उल्लंघन करके जानवरों का शिकार करना और उन्हें मारना जिन्हें प्रिय होता है मुत्यु के पश्चात क्रूर प्राणियों के तीरों से निशाना बनाकर उन्हें चुभाया जाता है।

 

वे मनुष्य जो क्रूरतापूर्वक पशुओं का वध करते हैं वे नर्क में बधिक के घर जन्म लेते हैं और उनके साथ भी वैसा ही व्यवहार होता है। वे पापी द्विज जो वासनओं के वशीभूत होकर समान गोत्र वाली पत्नी लाते हैं उन्हें अपना वीर्य पिलाते हैं वे वीर्य के समुद्र में फेंके जाते हैं और इसे पीने के लिये विवश किये जाते हैं।

 

जो दूसरों के घर में आग लगाते हैं दूसरों को विष देते हैं या गाँव और कारवाँ को लूटते हैं चाहे वे स्वयं राजा हों या राजा के कर्मचारी वे मरणोपरांत ऐसे नर्क में गिरते हैं जहाँ वे सात सौ बीस भूखे कुत्तों के भयंकर दाँतों द्वारा चबायें जाते हैं।

 

जो गवाही देने या उपहार देने में असत्य भाषण करते हैं वे अविचिमत नर्क में गिरते हैं जहाँ खड़े होने का स्थान भी नहीं होता। वहाँ जीव चौदह हजार मील ऊँचे शिखर से सिर के बल फेंक दिया जाता है। इस नर्क में पत्थर जैसी कठोर सतह जल की तरह आभासित होती है इसलिये जीव सदा भ्रमित होता रहता है। उसका शरीर टुकड़े टुकड़े कर दिया जाता है पर भी वह मरता नहीं है और वह बार-बार उठकर शिखर पर जाता है और बार-बार नीचे गिरता है।

 

यदि ब्राह्मण मद्य पीता है या आपत्तिजनक भोज्य पदार्थ ग्रहण करता है वह नर्क में पिघला लोहा पीने को विवश किया जाता है। जो वर्णाश्रम धर्म के नियमों के विरुद्ध जाते हैं उनको भी ऐसा ही दंड मिलता है।

 

जो व्यक्ति स्वयं की श्रेष्ठ पुरुष के रूप में प्रशंसा करता है कि जो जन्म, आदर और ज्ञान से महान है उनका सम्मान नहीं करते वे जीवित शव हें और वे अनंतयंत्रणा के खारे दलदल वाले नर्क में सिर आगे करके डाले जाते हैं।

 

जो चरित्रहीन मनुष्य अपने शरणागतों को यातना देते हैं क्योंकि वे उनके आधीन हैं वे मृत्यु के बाद अत्यंत भूख या प्यास से पीड़ित होने को बाध्य होते हैं और उनके चारों ओर तीखे भालों की बौछार होती रहती है जिससे वे अपने पापों को स्मरण करते रहें।

 

जो यहाँ पर स्वभाव से सर्प की भाँति क्रूर होते हैं और अन्य प्राणियों को आतंकित वे जब मरते हैं दंडसुक नर्क में गिरते हैं जहाँ पाँच या सात फनों वाले सर्प उन पर आक्रमण करते हैं और उन्हें मृत्यु से भय दिखाते हैं किंतु फिर भी वे नहीं मरते

 

जो यहाँ लोगों को अंधेरे घरों या काल-कोठरी में रखते हैं वे मरणोपरांत अग्नि और धुंए से भरे अंधकारपूर्ण वातावरण में कैद रहते हैं।

 

वे गृहस्थ जो अपने अतिथियों से क्रोधित होते हैं और उन्हें निर्मम आँखों से ऐसे देखते हैं जैसे वे उन्हे जला डालेंगे उनकी मृत्यु के उपरांत कठोर चट्टानों की तरह कठोर चोंच वाली चीलों द्वारा उनकी आँखें नोच ली जाती हैं।