धनवान् कैसे बनें

 

HOW TO BECOME RICH

का हिन्दी अनुवाद

 

 

 

लेखक

श्री स्वामी शिवानन्द सरस्वती

 

 

 

अनुवादिका

शिवानन्द राधिका अशोक

 

 

 

प्रकाशक

 

द डिवाइन लाइफ सोसायटी

पत्रालय : शिवानन्दनगर-२४९१९२

जिला : टिहरी गढ़वाल, उत्तराखण्ड (हिमालय), भारत

www.sivanandaonlineorg, www.dlshq.org

 

 

 

 

प्रथम हिन्दी संस्करण : २००६

द्वितीय हिन्दी संस्करण : २०१४

(१,००० प्रतियाँ )

 

 

 

 

 

 

© द डिवाइन लाइफ ट्रस्ट सोसायटी

 

HS 13

 

PRICE: 50/-

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

'द डिवाइन लाइफ सोसायटी, शिवानन्दनगर' के लिए

स्वामी पद्मनाभानन्द द्वारा प्रकाशित तथा उन्हीं के द्वारा

'योग-वेदान्त फारेस्ट एकाडेमी प्रेस, पो. शिवानन्दनगर,

जि. टिहरी गढ़वाल, उत्तराखण्ड, पिन २४९१९२' में मुद्रित ।

For online orders and Catalogue visit: disbooks.org

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

समृद्धि, शान्ति और आनन्द की खोज करने वाले समस्त जनों को समर्पित !

 

 

 

 

 

 

 

 

 

प्रकाशक का वक्तव्य

 

स्वामी शिवानन्द जी महाराज जो मानव मात्र के प्रति प्रेम और मानव-कल्याण के कार्यों के लिए समस्त विश्व में जाने जाते हैं उन्होंने 'धनवान् कैसे बनें' पुस्तक को समस्त जनों के कल्याणार्थ प्रस्तुत किया है और इसके लिए वे सदा स्वामी जी के ऋणी रहेंगे।

 

यह पुस्तक न तो पूर्णतया भौतिक या सासारिक विचारों से सम्बन्धित है, जैसा कि इसका शीर्षक इगित करता है और न ही यह मात्र आध्यात्मिक सम्पदा से अभिप्रेत है जिसके गहन ज्ञान की स्वामी शिवानन्द जी लोगों से सामान्यतया अपेक्षा रखते थे।

 

इसमें स्वामी जी ने व्यापार की आचार-नीति के मुख्य गूढ़ रहस्यों का आश्चर्यजनक ढंग से शब्दों में वर्णन किया है और भौतिक सम्पदा के आकाक्षी जनों के चरित्र के अन्तरस्थ पुनर्जीवन तथा उनमें भौतिक सम्पत्ति के स्थान पर सद्गुणों के अर्जन द्वारा स्थायी आध्यात्मिक सम्पदा की प्राप्ति की ओर तथा स्थायी आनन्द-प्राप्ति की उत्कट इच्छा जाग्रत करने के लिए उनके मन को रूपान्तरित करने के लिए उपदेश भी दिये हैं।

 

पुस्तक के चारों अध्यायों में दिये गये निर्देशों का सही वास्तविक अर्थ स्वामी शिवानन्द जी ने प्रस्तावना में भली-भाँति स्पष्ट किया है जो परस्पर विरोधी लगने वाली प्रत्येक बात का समाधान करता है।

 

-द डिवाइन लाइफ सोसायटी

 

 

 

 

 

 

 

 

अनुवादिका का विनम्र निवेदन

 

परम पूज्य गुरुदेव श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज कहते थे कि 'तुम मेरी व्यक्तिगत सेवा करना चाहते हो, तो मेरी पुस्तकों का अनुवाद करो ।' इससे मुझे प्रेरणा मिली कि हिन्दी भाषी पाठकों के लिए मुझे पूज्य श्री गुरुदेव की पुस्तकों का अनुवाद करना चाहिए और परम पूज्य गुरुदेव श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज की प्रेरणा और आशीर्वाद से उनकी पुस्तक 'How to Become Rich' का हिन्दी अनुवाद 'धनवान् कैसे बनें' प्रस्तुत है। इसके द्वारा प्रेरणा प्राप्त कर युवा पीढ़ी अपने अमूल्य मानव-जीवन को सफल बनाये और अपने परम लक्ष्य को प्राप्त करे। इसी अपेक्षा के साथ परम पूज्य गुरुदेव श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज के पावन चरणों में सादर समर्पित ।

 

-शिवानन्द राधिका अशोक

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

लेखक की प्रस्तावना

 

धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, चारों पुरुषार्थों के मध्य प्रथम तीन इस जगत् से सम्बन्ध रखते हैं। अर्थ और काम का नियन्त्रण करने वाला और निर्धारण करने वाला प्रतिनिधि धर्म है। उपरोक्त दोनों परस्पर आश्रित हैं, कोई भी एक अन्य के बिना पूर्ण नहीं है। न तो काम लालसा है और न ही अर्थ उसे पूर्ण करने वाला प्रतिनिधि । गीता में भगवान् कृष्ण कहते हैं कि मैं वह अभिलाषा हूँ जो धर्म के विरुद्ध नहीं है। अर्थात् किसी के जीवन हेतु निस्सन्देह अर्थ और काम सम्पूर्ण कारक नहीं हैं। किसी की आध्यात्मिक सम्पत्ति की अवहेलना करने में अर्थ और काम सफल नहीं हो सकते। क्योंकि सभी एकमात्र मोक्ष या मुक्ति की इच्छा ले कर जन्म नहीं लेते और न ही अधिकांश मानव-समूह तत्काल संन्यास हेतु उपयुक्त होता है; इसलिए उनके लिए उच्च ज्ञान प्राप्ति हेतु अर्थ और काम बने हैं।

 

पुस्तक का शीर्षक 'धनवान् कैसे बनें' मात्र भौतिक समृद्धि से सम्बन्ध नहीं रखता । यदि ऐसा होता, तो यह वास्तव में विवेकी मनुष्य की अभिलाषाओं के अनुरूप नहीं होता और न ही यह किसी के आध्यात्मिक अनुग्रहों का सांसारिक की भाँति विरोध करता है। यदि ऐसा होता, तो यह हजार व्यक्तियों में से मात्र एक व्यक्ति पर अपना प्रभाव डालता। किन्तु यह शीर्षक दोनों की ओर संकेत करता है। यह दोनों का समन्वय करता है। दोनों के सम्मिलित रूप के अर्थ में नहीं, बल्कि इस अभिप्राय से कि प्रथम तो मनुष्य को ज्ञान प्राप्त करना चाहिए, फिर धनवान् बनने का प्रयत्न करना चाहिए। अधिकांश पाठकों के लिए 'धनवान् कैसे बनें' का क्या तात्पर्य है? यह पुस्तक जो अपूर्व आध्यात्मिक धीर हैं, उनके लिए अत्यन्त विचारोत्तेजक आध्यात्मिक कोषगृह है और बाद का आधा काम उनके लिए है, जिनकी अभिलाषाओं में धन अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। इसलिए यह मात्र एक के लिए ही सन्देश नहीं है।

 

काम के पहले भाग में मैंने कुछ गुणों के विकास पर बल दिया है, जो व्यक्ति को उसकी अर्जन-क्षमता की वृद्धि करने और उसे आत्म-निर्भर बनने हेतु सामर्थ्य प्रदान करते हैं। व्यक्ति के चरित्र के कुछ गुण जो उसे मित्रों पर विजय हेतु तथा उसकी निरीक्षण-क्षमता बढ़ाने हेतु आवश्यक हैं, फिर व्यापार आरम्भ करने हेतु कुछ सुझाव, इसके बाद व्यापारिक जीवन में कृषि और उद्योग का कार्य तथा धन के सदुपयोग हेतु मार्गों की भी व्याख्या की गयी है।

 

गोद लिया पुत्र बनना या बहुत अधिक धन कमाना किसी को इस मिथ्या विचार हेतु प्रेरित नहीं करता कि धन उसकी मूलभूत इच्छाओं की पूर्ति हेतु अथवा एक वैभवशाली जीवन हेतु साधन मात्र है। इच्छाएँ वास्तव में कभी भी पूर्ण नहीं होतीं। यह अजगर की अधि (ड्रेगन-फायर) की भाँति है, जो अपने शिकार को तेजी से भस्म कर देती है। इसे शान्त करने वाला जो इसे अपने प्रयासों से अधिकाधिक उत्तेजित करता है, उस पीड़ित व्यक्ति के शरीर के नष्ट हो जाने के बाद भी यह उससे चिपकी रहती है। वास्तव में वैभवशाली जीवन व्यक्ति को स्थायी आनन्द की प्राप्ति हेतु किसी भी प्रकार से शक्ति-प्रवाहक नहीं है, तो फिर कोई धन अर्जन क्यों करे और क्यों वह दत्तक पुत्र बने ? हाँ, इसका एक निश्चित प्रयोजन है। धन मानव-कल्याण के यशस्वी कार्यों हेतु साधन है, जिसके द्वारा हजारों की सहायता होती है और उन्हें जीवन में प्रगति के अवसर प्राप्त होते हैं। यह दीन-दुखियों की उन्नति तथा रोगों से पीड़ित जनों को सान्त्वना देने का साधन है। इसका प्रयोजन समाज-सेवी संस्थानों की स्थापना और उन्हें आर्थिक सहायता देने के लिए है, जहाँ अनाश्रितों को आश्रय, अनाथों का पालन और भूखों के पेट भरे जाते हैं तथा गरीबों को शिक्षा, पीड़ितों को औषधि और आकांक्षियों को आध्यात्मिक ज्ञान मिलता है।

 

इसी प्रकार एक धनवान् कन्या से विवाह करने का अर्थ यह नहीं है कि उसका चुनाव धन के कारण अन्धा हो गया है। इसे एक समृद्धिशाली जीवन के निर्माण के लिए जो मानव मात्र की सेवा हेतु समर्पित है, इस दृष्टिकोण से लिया जाना चाहिए। मैंने अविवाहित युवाओं को एक शृंगार-प्रेमी बाला को जीवन-साथी बनाने हेतु सावधान किया है; क्योंकि ऐसे विवाह के परिणाम सदैव तिरस्कार के योग्य और इसका अन्त सदा ही घरेलू अप्रसन्नता और वैवाहिक जीवन नष्ट होने में होता है-विशेषकर तब, जब कि पुरुष आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न नहीं होता। मैंने यहाँ यह भी अवश्य बताया है कि विवाह प्रत्येक के जीवन में आवश्यक नहीं है। अच्छा होगा, एक सच्चा अभिलाषी विवाहित जीवन के बन्धन से स्वयं को बहुत दूर रखे । उसके लिए विवाह अभिशाप बन जायेगा । जब कि इसके स्थान पर एक कामुक पुरुष, जिसके लिए सांसारिक वासनाओं पर विजय पाना अत्यन्त कठिन है, उसके लिए विवाह एक चहारदीवारी की तरह और उसकी नैतिक असावधानियों में गुफा की भाँति सुरक्षा करता है। इस कारण विवाह की व्यवस्था की गयी है और यह उन अधिकांश मानवों पर लागू की जाती है जो पूर्ण आत्म-संयमी जीवन हेतु तत्काल उद्यत नहीं हैं। विवाह को एक संस्कार के रूप में सम्मान दिया जाता है, न कि स्व-सन्तुष्टि हेतु अधिकार-पत्र की तरह ।

इसके बाद मैंने एक सफल भविष्य हेतु मार्गों और साधनों के बारे में बहुत अधिक लिखा है जो कि प्रत्येक व्यक्ति के आन्तरिक निर्माण द्वारा एक न समाप्त होने वाला मूल्य प्रदान करता है-जैसे शुद्ध चरित्र रखना, अपने अन्त:करण के प्रति सच्चा होना, नैराश्य में आशावादी होना और दृढ़ संकल्प रखना। इसमें मैंने पाठकों को द्यूतक्रीड़ा, मद्यपान और ऋण लेने के अभ्यास के भयंकर परिणाम हेतु सावधान किया है और उनकी स्मृति, संकल्प शक्ति और चित्त की एकाग्रता, ब्रह्मचर्य का पालन, वैराग्य की वृद्धि तथा कल्पना कियाविधि और सद‌द्व्यवहार की कला के अभ्यास हेतु बल दिया है। उपरोक्त सभी क्रमबद्ध सिद्धान्त सफलतम समृद्धिशाली भविष्य हेतु शक्ति का संचार ही नहीं करते, बल्कि वे किसी के विकाय और उच्व लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए भौतिक सम्पत्ति से अधिक अभिलाषा करने के योग्य हैं। उपरोक्त सिद्धान्तों का अभ्यास व्यक्ति को पूर्ण आत्म-संयमी जीवन और पूर्ण संन्यास के लिए या जीवन के उच्चतम लक्ष्य आत्म-साक्षात्कार हेतु तैयार करना है. साथ-ही-साथ निम्न वासनाओं से उसकी रक्षा भी करता है।

पुस्तक के अन्त में आकांक्षी पाठक पूर्णता (सिद्धि) को अपनी पहुँच में पाता है। उसे धन के दोषों का ज्ञान हो गया है। उसे सांसारिक सुखों की नश्वरता और कामना रहित अवस्था के परमानन्द का स्मरण कराया है। सबसे धनवान् कौन है? इसकी आकांक्षा उसके भीतर ज्योतित होती है। वह धीरे-धीरे उत्साहपूर्वक धन रहित और पत्नी रहित स्थिति हेतु जाग्रत होता है।

अन्त में वह उस कृपा के चुनाव हेतु तैयार हो जाता है जो कि कठोपनिषद् के जिज्ञासु नचिकेता ने भगवान् यम से प्राप्त की थी। अब वह सत्य या कल्याण की अविनाशी प्रकृति और भौतिक सुखों की चंचल या मायावी प्रकृति तथा यह सुख उनके लिए दुःख है जो वैराग्य से युक्त नहीं हैं और स्वयं को माया की भस्म करने वाली ज्वालाओं में डाल रहे हैं। वह अब समझ चुका है कि कल्याण एक चीज है और सुख अन्य । इन दोनों का लक्ष्य भिन्न-भिन्न है- "वह जो सोचता है और कल्याण की खोज करता है, सफलता को प्राप्त करता है और जो सुख की खोज करता है, वह अपने लक्ष्य से भटक जाता है।" (कठोपनिषद) इच्छा रहित बनो, तुम सारे संसार में सबसे धनवान् बन जाओगे।

तुम सब सच्चे विवेक से युक्त हो ! ईश्वर तुम सबको शान्ति, समृद्धि और सफलता, परमानन्द और कैवल्य का आशीर्वाद प्रदान करे !

 

 

 

Sivananda

जनवरी १, १९५०

 

 

 

 

 

 

 

भाग्यवान् आकांक्षियो !

 

मैं आप सबके उज्ज्वल और प्रसन्नतापूर्ण नव-वर्ष की कामना करता हूँ।

 

इस जीवन-संग्राम में वीरतापूर्वक युद्ध करें। स्वयं को विवेक की ढाल और विवेक के शस्त्र से सुसज्जित करें। शूरता से आगे बढ़ें। प्रलोभनों के अधीन न हों।

 

अन्तरात्मा पर नित्य ध्यान करें। आप परमानन्द और अनन्त सुख के प्रदेश में प्रवेश करेंगे। आप निश्चल शक्ति, विश्वास और शान्तिमय जीवन का निर्माण करेंगे।

 

ईश्वर आपको आशीर्वाद प्रदान करे !

 

Sivananda

१ जनवरी १९५०

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

विषयानुक्रणिका

 

प्रकाशक का वक्तव्य... 4

अनुवादिका का विनम्र निवेदन. 5

लेखक की प्रस्तावना.. 6

प्रथम अध्याय समृद्धिशाली कैसे बनें

दत्तक पुत्र बनें. 13

धनवान् कन्या से विवाह करें. 13

श्रृंगार-प्रेमी पत्नी से डरें. 14

साहसी बनें. 15

स्व-परिश्रम से उन्नत व्यक्ति बनें. 15

व्यवसाय कैसे प्रारम्भ करें ?. 16

मित्रों पर कैसे विजय पायें ?. 16

निरीक्षण-क्षमता का विकास करें. 17

सदैव व्यस्त रहें. 17

अपनी अर्जन-क्षमता बढ़ायें. 18

सौदे में विवाद करना त्याग दें. 18

उद्योगी बनें. 19

या, कृषि-कर्म करें. 19

मृत्यु-पत्र द्वारा अधिक धन छोड़ें. 20

अपने धन का सदुपयोग करें. 20

द्वितीय अध्याय सफलता  के मार्ग

सफलता के रहस्य... 22

स्वास्थ्य ही सम्पत्ति है. 22

जल्दी सोयें, जल्दी जागें. 23

कभी ऋण लें. 23

द्यूतक्रीड़ा करें. 24

मद्यपान त्याग दें. 25

मित्र, निराश हों! 25

नित्य ध्यान करें. 26

लक्ष्मी मन्त्र का जप करें. 26

भुक्ति और मुक्ति.... 27

तृतीय अध्याय आन्‍तरिक तैयारी

शुद्ध चरित्र रखें.. 28

सद्गुणों का विकास करें. 28

सत्यवादी बनें. 29

ब्रह्मचर्य का पालन करें. 29

वैराग्य का विकास करें. 30

स्मृति का विकास करें. 30

संकल्प का विकास करें. 31

दृढ़ निश्चय रखें.. 31

कल्पना, आचरण, सद्व्यवहार. 32

चतुर्थ अध्याय पूर्णता प्राप्‍त करें

सबसे धनवान् कौन है?. 33

धन के दोष. 33

रुपये का कोई मूल्य नहीं है. 34

धन आता है और जाता है. 34

इच्छा रहित बनें. 35

परमानन्द की पत्नी रहित स्थिति.. 35

जप की सम्पत्ति.. 36

महान् सम्पत्ति-मोक्ष.. 36

परिशिष्

धन के उपार्जन पर. 37

धन के व्यय पर. 39

स्वर्णिम कोष. 41

लक्ष्मीस्तोत्रम्. 45

जप के लिए मन्त्र... 46

कीर्तन. 47

ईश्वर के प्रति कृतज्ञता प्रकट करना.. 48

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

ॐ श्री महालक्ष्म्यै नमः

प्रथम अध्याय

समृद्धिशाली कैसे बनें

दत्तक पुत्र बनें

 

एक धनवान् व्यक्ति का दत्तक पुत्र बनें,

उनका सारा धन आपका होगा,

अपने पिता के प्रति कर्तव्य परायण बनें,

उनके सभी कार्यों में लगन से सहायता करें,

उनके प्रति सत्यवादी, ईमानदार और विश्वसनीय बनें,

बुरी संगत त्याग दें,

समस्त बुरी आदतें छोड़ दें,

अपने पिता का सम्मान करें और

उनके आदेशों का पालन करें,

अपने परिश्रम से उनकी सम्पत्ति में वृद्धि करें,

अपने स्व-अर्जित धन का दस प्रतिशत दान करें,

व्यवसाय को अच्छी तरह समझें,

चतुर बनें, दृढ़ बनें, अध्यवसायी बनें,

परिश्रमी बनें, सावधान बनें, ईमानदार बनें।

 

धनवान् कन्या से विवाह करें

 

धनवान् कन्या से विवाह करें,

आप भी धनवान् हो जायेंगे,

उसकी सम्पत्ति आपकी सम्पत्ति होगी,

क्योंकि वह आपकी जीवन-संगिनी है;

उसके साथ अच्छा व्यवहार करें और उसे प्रसन्न करें,

सभी विषयों में,

उसके प्रति समर्पित रहें,

उसे अंगीकार करें, सामंजस्य रखें, मिलनसारिता रखें।

अपने श्वसुर को भी प्रसन्न रखें,

उनका सम्मान करें, मृदु भाषण करें, विनम्र बनें,

इस सम्पत्ति का अपव्यय, वृथा व्यय न करें,

मितव्ययी बनें और सुरक्षित निवेश तथा बुद्धिमत्तापूर्ण

व्यवसाय के द्वारा सम्पत्ति में वृद्धि करें,

अपनी पत्नी से कलह न करें,

उसके साथ गृहलक्ष्मी की तरह व्यवहार करें।

 

श्रृंगार-प्रेमी पत्नी से डरें

 

ऐसी पत्नी महान् कष्टदायक होती है,

वह अपने पति से सदा कलह करती है,

वह धन का अपव्यय करती है,

वह अपने पालकों, भाई और बहन को धन भेजती है।

वह कभी सन्तुष्ट नहीं होती,

बह साड़ियों और गले के हारों में धन का अपव्यय करती है।

वह भोजन नहीं पका सकती,

वह कई नौकर चाहती है,

वह उनके साथ कलह करती है,

नौकर भाग जाते हैं,

अब नये नौकर कैसे मिलेंगे,

पति व्याकुल और चिन्तित है,

जब वह ध्यान करने बैठता है,

वह सोचती है-वह शीघ्र संन्यास ले लेगा,

वह उससे इस विषय पर कलह करती है,

वह घर 'राम विलास' या 'शान्ति विला'

वास्तव में भयंकर नरक है।

यदि तुम उससे एक कप चाय की माँग करोगे

वह तुम्हें तंग करेगी,

क्योंकि तुमने उसकी हीरों के हार की इच्छा को पूर्ण नहीं किया,

वह कहेगी-

"तुम स्नातक हो, मैं भी स्नातक हूँ,

मुझे पहले एक कप चाय ला कर दो।"

अपनी पत्नी के चुनाव में सावधान रहो,

वहाँ मानसिक एकता आवश्यक है,

वह धार्मिक और भक्तिमती होनी चाहिए।

अपने देश की कन्याओं में से अपनी पत्नी का चुनाव करो,

जिनमें आधुनिक सभ्यता और रेडियो है

उन्हें प्रवेश नहीं करने देना चाहिए।

साहसी बनें

 

नैरोबी, नेटाल, अमेरिका, पेरिस या ब्रसल जाओ,

किसी व्यापारिक प्रतिष्ठान या फर्म से जुड़ो,

कठिन परिश्रम करो, सच्चे और ईमानदार बनो,

कार्य के सभी पक्षों को विस्तृत रूप में सीखो,

या वहाँ पर अपना चिकित्सा का व्यवसाय प्रारम्भ करो,

या एक ठेकेदार अथवा पत्रकार बन जाओ,

या कोई सांस्कृतिक संस्था प्रारम्भ करो,

या आढ़तिया बन जाओ।

स्व-परिश्रम से उन्नत व्यक्ति बनें

 

अपने परिश्रम से उन्नत मनुष्य बनो,

अपनी जीविका स्वयं उपार्जित करो,

अपने पिता की सम्पत्ति में से एक पाई भी न छुओ,

अपना पौरुष, बल और सामर्थ्य प्रकट करो,

अपने पिता की अर्जित सम्पत्ति पर रहना अपमानजनक है।

तुम्हारे अन्दर शक्ति का भण्डार है,

तुम इस संसार में वस्तुओं को बना या

उन्हें नष्ट कर सकते हो।

तुम आश्चर्य कर सकते हो,

न्यायाधीश मुत्तुस्वामी ने सड़क के लैंप के

प्रकाश में अध्ययन किया,

वे बहुत गरीब थे,

उन्होंने बहुत उच्च स्थान प्राप्त किया,

कठिन परिश्रम से अपनी समस्त

आन्तरिक शक्तियों को प्रकट करो,

और शक्तिशाली व्यक्तित्व की भाँति चमको ।

व्यवसाय कैसे प्रारम्भ करें ?

 

जब आप कोई व्यापार प्रारम्भ करो,

वरिष्ठ अनुभवी व्यापारियों से सलाह लो,

उनके साथ शिष्य की तरह रहो,

व्यापार की गूढ़ बातों को अच्छी तरह सीखो,

मात्र तभी आप आगे बढ़ सकेंगे।

यदि आप कोई व्यवसाय सीधे प्रारम्भ कर देंगे,

बिना किसी अनुभव के,

आप असफल हो जायेंगे।

बुक कीपिंग, एकाउन्ट्स और टायपिंग सीखें,

थोड़ी पूँजी से व्यवसाय प्रारम्भ करें।

मित्रों पर कैसे विजय पायें ?

 

वाणी में मधुरता लायें,

अच्छी तरह व्यवहार करें, सुशील बनें, विनम्र बनें,

साफ-सुथरा लेन-देन रखें,

जो आपके पास है, उसमें दूसरों को भी हिस्सा दें,

अनावश्यक विवाद न करें, विजय प्राप्त करने के लिए किसी के विरुद्ध न कहें,

अपने वचन पर टिके रहें,

अन्य जब बीमार हों, उनकी सेवा करें,

ध्यान और प्रार्थना के द्वारा

चुम्बकीय व्यक्तित्व का विकास करें,

अन्य जो कहें, उसे धैर्यपूर्वक सुनें,

जब आप कोई पुस्तक उधार लें,

उस पर कवर चढ़ायें और उसे साफ रखें,

और उसे उपयुक्त समय पर वापस करें;

किसी से कभी न कहें कि वह गलत है,

उदार बनें, धर्मात्मा बनें, दयालु बनें।

निरीक्षण-क्षमता का विकास करें

 

सदैव चौकन्ने और फुर्तीले रहें,

प्रकृति के समस्त रूपों को देखें,

लोगों को भली प्रकार जानें,

उनके स्वभाव, कार्य-प्रणाली और आदतों का अध्ययन करें,

बुद्धि को तीक्ष्ण और निर्णयात्मक रखें,

बुद्धि की प्रखरता का विकास करें और

निर्णय का ज्ञान रखें,

चित्त को एकाग्र करके अन्तर का प्रकाश प्राप्त करें,

अपने कानों और आँखों को सदा चैतन्य रखें,

सही सोच, चिन्तन, ध्यान,

तुलना, विचार, निर्णय और अनुमान करें।

सदैव व्यस्त रहें

 

परिश्रमी मनुष्य की तरह सदा व्यस्त रहें,

अपने मस्तिष्क को सदा काम में लगाये रखें,

आलस्य को जड़ से नष्ट कर दें,

आलसी मस्तिष्क शैतान की कार्यशाला है,

आसन, प्राणायाम, व्यायाम, घूमने, बैठक में नियमित रहें।

तामसिक भोजन जैसे प्याज, लहसुन, मांस आदि त्याग दें।

नित्य कार्यक्रम पर अडिग रहें,

एक स्मरण दैनन्दिनी रखें,

प्रार्थना करें, सन्ध्या, जप, स्वाध्याय और ध्यान करें,

प्रातःकाल शहद और नीबू का रस लें,

कभी-कभी त्रिफला चूर्ण लें।

अपनी अर्जन-क्षमता बढ़ायें

 

यदि आप व्याख्याता हैं,

विद्यार्थियों और लोगों के लिए उपयोगी पुस्तकें लिखें;

यदि आप व्यापारी हैं,

ठेके सावधानी से लें;

अपने भागीदारों के चुनाव में सावधान रहें,

आप दो, तीन या चार प्रकार के व्यवसाय कर सकते हैं।

टोकरी बनाना, प्रिंटिंग प्रेस, कपड़े का व्यवसाय आदि,

जब आप व्यापार के क्षेत्र में होते हैं,

आपकी छठवीं ज्ञानेन्द्रिय उद्यत होती है

और आपका निर्देशन करती है।

ईश्वर में पूर्ण आस्था रखिए,

वे आपको अवश्य निर्देशन देंगे,

वे आपके भीतर निवास करने वाले और अन्तः शासक हैं।

सौदे में विवाद करना त्याग दें

 

व्यापार में सौदे में विवाद करना बहुत बुरा है,

यह बुरा प्रभाव निर्मित करता है,

आप अपने ग्राहक खो देंगे,

एक निश्चित मूल्य रखें,

अपने व्यवसाय के प्रति विश्वसनीय और ईमानदार रहें,

आपको अनगिनत ग्राहक प्राप्त होंगे,

समस्त जन आपकी ओर खिंचे चले आयेंगे,

आप बहुत नाम कमायेंगे,

आप अपने व्यापार में उन्नति करेंगे।

उद्योगी बनें

आप मन्त्री या उच्च न्यायालय के जज भी बन जायें

तो भी आप धनी नहीं बन सकते,

मात्र उद्योग ही आपको धनवान् बना सकता है।

ध्यान दो! श्री बिरला, टाटा, फोर्ड, धानुकर

उद्योग-धन्धे से कितने धनवान् हो गये।

आइल मिल, कपड़ा मिल, जूट मिल,

साबुन का कारखाना, बिस्कुट का कारखाना, पेपर मिल,

शक्कर का कारखाना, चावल मिल, लोहे का कारखाना,

कढ़ाई का कारखाना, सूत मिल प्रारम्भ करें।

सबसे पहले सारे संसार की यात्रा करके आयें,

सभी कारखानों और मिलों को देखें,

उद्योग की सभी गुप्त बातों को सीखें,

तब कार्य प्रारम्भ करें।

या, कृषि-कर्म करें

मन्त्री पद, विधायक या

बोर्ड सदस्य पद के प्रति आकर्षण छोड़ें।

यदि आपके पास पैतृक भूमि है, कृषि-कर्म करें।

लज्जा का अनुभव न करें,

यह एक गौरवशाली, निष्कंटक व्यापार है।

यदि आप पसन्द करते हैं तो

कोट, पैंट, टाई, जूते भी पहन सकते हैं।

एक कृषि महाविद्यालय में तीन माह अध्ययन करें,

पौधों और फलदार वृक्षों के बारे में अध्ययन हेतु

 एक छोटा सत्र करें,

एक गौशाला और डेरी रखें,

गेहूं, चावल और सब्जियाँ उगायें,

आप भरपूर धन प्राप्त कर सकते हैं,

आप अच्छा स्वास्थ्य और शुद्ध वायु का लाभ प्राप्त करेंगे।

आप कस्बे के जीवन और सभ्यता के रोगों से मुक्त रहेंगे।

आप शुद्ध दूध और घी की पूर्ति कर सकते हैं

इस तरह आप समाज-सेवा भी करेंगे,

बच्चे जो कि भविष्य के नागरिक हैं, स्वस्थ होंगे।

मृत्यु-पत्र द्वारा अधिक धन छोड़ें

अपने पुत्रों को अच्छी शिक्षा दें,

उनके लिए अधिक सम्पत्ति न छोड़ें,

उन्हें स्वयं अर्जन करने दें,

उन्हें स्वयं अपने पैरों पर खड़े होने दें,

प्रत्येक वस्तु दान में दे दें,

अच्छे गुणों का अर्जन करें,

वे आलसी हो जायेंगे,

यदि आप उन्हें अधिक धन देंगे।

वे मद्यपान, द्यूतक्रीड़ा और वेश्यावृत्ति में

आपके धन का अपव्यय करेंगे,

और आपके परिवार पर कलंक लगायेंगे।

अपने धन का सदुपयोग करें

वो जिन पर ईश्वर की कृपा होती है,

जो सत्संग का लाभ लेते हैं,

वे धन का सदुपयोग करते हैं।

वे आश्रमों, मन्दिरों, तालाबों, कुओं,

समाज-सेवी संस्थानों, पाठशालाओं, अनाथाश्रमों,

चिकित्सालयों आदि का निर्माण करते हैं।

वे यहाँ पर श्रेष्ठता प्राप्त करते हैं

और स्वर्ग में सुख का उपभोग करते हैं।

धन जन-कल्याण के कार्यों हेतु बना है,

धन का अर्जन करो और दान में व्यय करो।

यह तुम्हारे हृदय को शुद्ध करेगा

और दिव्य ज्योति के उद्गम की ओर अग्रसर करेगा।

आपका नाम धरती पर अमर हो जायेगा।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

द्वितीय अध्याय

सफलता के मार्ग

सफलता के रहस्य

 

प्रतिक्षण समय के पाबन्द रहें,

अपने कार्यालय समय से आधा घण्टे पहले पहुँचें,

कार्यालय को समय के आधा घण्टे बाद छोड़ें,

अधिकारी या स्वामी की आज्ञा का पालन करें,

उनके प्रति विश्वसनीय और सत्यवादी रहें,

उनके घरेलू और व्यक्तिगत कामों में सहायता करें,

इस तरह उनके हृदय को जीतें,

उनके हृदय में गहरे उतर जायें,

वह आपको कभी नहीं छोड़ेंगे।

वे आपको अधिक लाभ और विशेष वेतन-वृद्धि प्रदान करेंगे,

वे आपके अधीन हो जायेंगे,

आप कार्यालय के सर्वेसर्वा होंगे,

वे आपको चेक पर हस्ताक्षर की अनुमति देंगे,

वे आप पर पूर्ण विश्वास करेंगे,

वे आपसे अपने पुत्र या भाई की भाँति

स्नेह, प्रेम और आदर का व्यवहार करेंगे।

यह सफलता और प्रचुरता का रहस्य है।

हे राम, मेरे शब्दों को सदा ध्यान में रखो।

स्वास्थ्य ही सम्पत्ति है

 

स्वास्थ्य महानतम सम्पत्ति है।

बिना अच्छे स्वास्थ्य के आप कोई काम नहीं कर सकते।

बिना इसके आप धन का अर्जन नहीं कर सकते ।

बिना इसके आप अपना भोजन नहीं पचा सकते, इ

सके बिना आपका जीवन दुःखी हो जायेगा।

इसलिए इस स्वास्थ्य को

अच्छे भोजन, सूर्य-स्नान,

उचित व्यायाम, विश्राम और अच्छी निद्रा,

शुद्ध वायु और शुद्ध जल,

ब्रह्मचर्य, अच्छे विचार, प्रार्थना और ध्यान,

स्वास्थ्य और आरोग्य के नियमों का दृढ़ता से पालन,

साफ-सफाई और सन्तुलित आहार द्वारा प्राप्त करें।

जल्दी सोयें, जल्दी जागें

 

रात्रि ९ या १० बजे सो जायें,

शय्या को प्रातः ४ बजे त्याग दें,

१ घण्टे प्रार्थना, जप करें और ध्यान करें।

प्रातःकाल तेजी से भ्रमण हेतु जायें,

यदि आप प्रातः शीघ्र जागेंगे

और दिन का शुभारम्भ प्रार्थना आदि से करेंगे,

आपके दिन-भर के कार्यों में अनुरूपता होगी।

आपके पास दिन के कामों के बारे में सोचने हेतु

जैसे 'इसे कैसे किया जाये?' 'किससे मिलना है ?'

आदि सोचने हेतु पर्याप्त समय होगा,

रात्रि के समय जब आप शय्या पर विश्राम हेतु जायें,

अपनी आध्यात्मिक दैनन्दिनी भरें,

आपने जो गलतियाँ कीं, उन्हें लिखें,

आप शीघ्र विकास करेंगे।

कभी ऋण लें

 

अपनी आय का दस प्रतिशत दान करें,

आपके पाप धुल जायेंगे,

और अधिक धन की वर्षा होगी,

कपड़े के अनुपात में कोट काटें,

अपनी आय से अधिक व्यय न करें,

प्रति माह आय में से एक भाग सदा बचायें,

'सादा जीवन, उच्च विचार' का अभ्यास करें।

कभी ऋण न लें।

जो ऋण लेने जाता है, वह दुःख लेने जाता है।

सादे वस्त्र पहनें, सादा भोजन करें,

अपनी आदतों में सरल बनें।

द्यूतक्रीड़ा करें

 

आप अपनी सारी सम्पत्ति खो देंगे,

आप बहुत बुरा नाम अर्जित करेंगे,

लोग आपको जुआरी कह कर पुकारेंगे,

अपने जाल में फँसा कर आपका विनाश करने हेतु

द्यूत माया का चारा है।

यह मद्य या नाचने वाली लड़की की भाँति प्रलोभी है,

एक बार आप फँस गये, आप सदा के लिए दण्डित हो गये,

अब आपके बचाव का कोई साधन नहीं है।

जुआरियों के साथ मेल-जोल न रखें,

घुड़दौड़ देखने न जायें,

छोटी-सी पूँजी से भी जुआ न खेलें,

यह सिगरेट पीने की तरह ही है,

 सिगरेट पीने वाला,

अपने सिगरेट पीने वाले मित्र के प्रसाद (सिगरेट) का

साथ दे कर सिगरेट पीना आरम्भ करता है,

बाद में वह कुछ डिब्बे सिगरेट नित्य पी जाता है।

 

मद्यपान त्याग दें

 

मद्यपान प्राण नाशक अभिशाप है,

कई नष्ट हो गये,

यह मनुष्य की जीवनी-शक्ति का समूल नाश कर देता है,

यह अपयश, अनादर, रोग लाता है,

पैसा निरर्थक व्यय होता है, जीवन निष्प्रयोजन हो जाता है,

ऊर्जा व्यर्थ जाती है, समय व्यर्थ जाया होता है,

यह मनुष्य को शीघ्रता से कब्र की ओर ले जाता है,

इसलिए इसे मत पियो, इसे स्पर्श भी मत करो,

यदि तुम पियक्कड़ हो,

एक ही बार में इसे त्याग दो, पूर्णतया त्याग दो,

यदि धीरे-धीरे छोड़ोगे, तो तुम इसे त्याग नहीं पाओगे,

तब तुमको निराशाजनक असफलता हाथ लगेगी,

सिगरेट पीना, भाँग, मद्यपान

इनको एक-समान ही जानो,

ये सभी एक-दूसरे के मित्र हैं और मद्य के बड़े भाई हैं।

मित्र, निराश हों!

 

मित्र, कठिनाइयों, व्यापार में हानि, विपत्तियों,

रोग, असफलता आदि में निराश न हों।

साहसी बनें, प्रसन्न रहें,

भविष्य के कामों के लिए स्वयं को शक्तिशाली बनायें,

अपने भीतर साहस लायें,

प्रार्थना, जप करें, ध्यान करें,

बुद्धिमान् लोगों से सलाह लें,

अपनी दुर्बलता और दोषों को दूर करें,

 खड़े हो जायें और ॐ ॐ ॐ का गर्जन करें,

सदैव तत्काल बुद्धि रखें।

सन्देह रहित उत्साह और साहस के साथ

वीरतापूर्वक हे वीर, आगे बढ़ो!

कोई नैराश्य नहीं, निराश न हो,

एक उज्ज्वल भविष्य आपकी राह देख रहा है,

ईश्वर प्रत्येक कार्य आपके कल्याण हेतु करते हैं,

असफलता सफलता की सीढ़ियाँ हैं।

 

नित्य ध्यान करें

 

अच्छी एकाग्रता वाला व्यक्ति

थोड़े समय में

अत्यधिक कार्य कर सकता है।

एकाग्रता व्यापार, कार्यालय, अध्ययन,

आध्यात्मिक खोज, जीवन में सफलता,

संगीत आदि में उपयोगी है,

इसलिए चित्त की एकाग्रता का विकास करें।

प्रातःकाल ४ बजे

आँखें बन्द करके पद्मासन में बैठें ।

भगवान् विष्णु, भगवान् कृष्ण, भगवान् राम,

भगवान् शिव या ॐ के रूप का ध्यान करें।

एक बार पुनः शाम ५ बजे या ८ बजे बैठें।

लक्ष्मी मन्त्र का जप करें

 

लक्ष्मी जी धन की देवी हैं।

'ॐ श्री महालक्ष्म्यै नमः'

(मैं श्री महालक्ष्मी देवी को प्रणाम करता हूँ)

इसका जप श्रद्धा और भक्ति के साथ करें,

प्रातःकाल और बाद में पाँच, दस या बीस माला जप नित्य करें,

इस जप में नियमित रहें,

अगर कर सकें, रोज दो सौ माला जप करें।

महालक्ष्मी देवी का चित्र अपने सामने रखें।

आप थोड़ी पूजा भी कर सकते हैं।

पुष्प, फल, खीर आदि अर्पित करें।

धूप, दीप, कपूर, बत्ती जलायें।

लक्ष्मी मन्त्र से हवन करें,

यदि सम्भव हो,

कुछ ब्राह्मणों, गरीबों और साधुओं को भोजन करायें ।

 

भुक्ति और मुक्ति

 

अपने जप, सन्ध्या, प्रार्थना, ध्यान और

धर्मग्रन्थों के स्वाध्याय में नियमित रहें,

ईश्वर आपको भुक्ति, मुक्ति देंगे।

भुक्ति सांसारिक उपभोग है।

माँ गायत्री आपको ऐश्वर्य, शान्ति, मुक्ति और

आनन्द प्रदान करेंगी,

इसलिए आध्यात्मिक साधना की उपेक्षा न करें।

गायत्री माता से प्रार्थना करें, उनके रूप का ध्यान करें।

गायत्री मन्त्र का जप करें,

आप सब-कुछ प्राप्त करेंगे।

उन्होंने अपने भक्त विद्यारण्य को

प्रसन्न करने के लिए स्वर्ण की वर्षा की थी।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

तृतीय अध्याय

आन्तरिक तैयारी

शुद्ध चरित्र रखें

 

चरित्र ही शक्ति और सम्पत्ति है;

सद्गुणों का अर्जन कर

और दुर्गुणों को दूर कर

शुद्ध चरित्र का विकास कीजिए।

पुनः-पुनः प्रयास कीजिए।

सत्संग में जाइए।

प्रेरणाप्रद पुस्तकों का स्वाध्याय कीजिए।

'जीवन में सफलता के रहस्य' पुस्तक के अनुसार चलिए।

शुद्ध धर्मानुरूप जीवन यापन कीजिए।

चरित्र विहीन जीवन मृतक के समान है।

'सन्त-चरित्र' पुस्तक का अध्ययन करें।

उनके गुणों को हृदय में उतारने का प्रयत्न कीजिए।

अपने सामने

भगवान् बुद्ध, प्रभु ईसा, भगवान् राम,

भीष्म पितामह, युधिष्ठिर, शंकराचार्य का

मानसिक चित्र और आदर्श रखें।

सद्गुणों का विकास करें

 

धैर्य, सहिष्णुता,

सरलता, योग्यता, स्थिरता,

अध्यवसाय, साहस,

निष्कपटता, सत्यवादिता, विनम्रता,

निष्काम्य कर्म के प्रति उत्साह, त्याग,

दिव्य प्रेम, अहिंसा, शुद्धता,

विवेक, विचार शक्ति,

करुणा, चित्त की एकाग्रता, उदारता आदि

गुणों का विकास करें,

आप प्रत्येक साहसिक कार्य में सफल होंगे,

आप विपुल आध्यात्मिक सम्पदा भी प्राप्त करेंगे।

सत्यवादी बनें

 

अपने विचारों के साथ वाणी का समन्वय करें;

अपनी वाणी के साथ कार्यों का समन्वय करें।

अपने वचन पर हर मूल्य पर स्थिर रहें।

सदैव कहें-मैं प्रयास करूँगा,  

तब आप सुरक्षित रहेंगे,

आप आकर्षण का केन्द्र बन जायेंगे,

आपका आचरण गम्भीर होना चाहिए,

आप एक समृद्ध व्यवसाय के स्वामी होंगे,

क्योंकि आप सत्यवादी मनुष्य हैं।

ब्रह्मचर्य का पालन करें

 

ब्रह्मचर्य ही सच्ची सम्पत्ति है,

यह समृद्धि, शान्ति, शक्ति, सफलता, आत्मज्ञान,

नैतिक और आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्ति हेतु अत्यावश्यक है।

ब्रह्मचर्य जीवन में शक्ति, दिव्यता, कल्याण तथा

स्मरण शक्ति की वृद्धि करता है,

स्वास्थ्य, परमानन्द और अमरत्व की वृष्टि करता है,

इसलिए ब्रह्मचर्य का पालन करें।

इस बहुमूल्य कोष का अपव्यय न करें ।

सात्त्विक भोजन लें, जप करें, ध्यान करें ।

सन्तों के साथ सत्संग का लाभ लें ।

गीता, उपनिषद्, बाइबिल, कुरान का अध्ययन करें ।

 

वैराग्य का विकास करें

 

अनुराग से मुक्ति वैराग्य है,

वैराग्य आपको इस अखण्ड ब्रह्माण्ड में

सबसे धनवान् बनाता है,

आप असीम आध्यात्मिक सम्पदा

जो अनश्वर और अनन्त है, प्राप्त करेंगे ।

 कोई डाकू इसे लूट नहीं सकता।

यह परम श्रेष्ठ सम्पत्ति है।

कुबेर और इन्द्र भी आपके चरणों में झुकेंगे ।

वैराग्य वास्तव में अनमोल कोष है ।

इसकी उच्चतम स्थिति प्राप्त करें,

पूर्ण या परा वैराग्य प्राप्त करें।

स्मृति का विकास करें

 

जीवन में सफलता और आध्यात्मिक प्रगति के लिए

स्मृति प्रथम आवश्यक है,

बिना स्मृति या क्षीण स्मृति वाले व्यक्ति को

काम से बाहर निकाल दिया जाता है,

वह कोई व्यवसाय नहीं कर सकता,

उसे विद्या अध्ययन में कोई परिणाम नहीं प्राप्त होता,

इसलिए अच्छी स्मृति धारणा का अभ्यास करें,

'प्रेक्टिकल लेसन्स ऑन योगा' में बताये गये

स्मृति के व्यायामों का अभ्यास करें;

प्राणायाम, ब्रह्मचर्य, त्राटक, शीर्षासन आदि का अभ्यास करें।

ब्राह्मी, बादाम लें;

जप करें, ध्यान करें, प्रार्थना करें ।

संकल्प का विकास करें

 

यदि आप अटल और दृढ़ संकल्प के स्वामी हैं,

तो आप किसी भी साहसिक कार्य में प्रगति करेंगे,

आप सभी पर शासन करेंगे,

पर्वत आपके सामने चूर-चूर हो जायेंगे,

सागर आपके सामने सूख जायेंगे,

आप अच्छी तरह ध्यान करें,

अपने संकल्प का धीरे-धीरे विकास करें,

वासनाओं को जीतें, इच्छाओं को नियन्त्रित करें,

शुद्ध आत्मा पर नित्य ध्यान करें,

यह आपके संकल्प को शक्तिशाली और शुद्ध करेगा।

दृढ़ता से प्रतिज्ञा करें :

मेरा संकल्प दृढ़ है          

कोई मुझे रोक नहीं सकता   

मेरा संकल्प शुद्ध और दृढ़ है            

दृढ़ निश्चय रखें

 

अच्छी तरह सोच-विचार कर,

भली प्रकार चिन्तन करें,

तब एक निश्चित निर्णय पर आयें।

अपने संकल्प पर दृढ़ रहें,

फिर किंचित् मात्र भी विचलित न हों,

दृढ़ बनें, अडिग बनें, वज्रमय बनें।

जो दृढ़ संकल्प वाले नहीं होते,

जो अस्थिर बुद्धि वाले होते हैं,

किसी कार्य में उन्हें किसी प्रकार की सफलता नहीं मिलती,

वे एक तृण की भाँति इधर से उधर धक्के खाते रहते हैं।

दृढ़ संकल्प और निर्णय एक-साथ चलते हैं।

तामसिक हठ निर्णय नहीं है,

यह हठ बुद्धि है।

इस दुष्ट प्रकृति को त्याग दें।

कल्पना, आचरण, सद्व्यवहार

लज्जा, भीरुता और स्त्री स्वभाव वाली प्रकृति को त्याग दें;

पराक्रमी बनें, सदैव प्रसन्न रहें।

उत्साही प्रकृति, समय की पाबन्दी,

नियमितता का विकास करें।

पहले कल्पना करें,

फिर आचरण में लायें,

तब सद्व्यवहार का अभ्यास करें;

इस त्रियुक्ति को याद रखें :

"कल्पना, आचरण, सद्व्यवहार।"

मित्रता, सौजन्यता, सामाजिक प्रकृति,

सबको अंगीकार करना, सबके साथ सौजन्यता

और सबके साथ सामंजस्य बढ़ायें।

इसका अर्थ है-स्वार्थ में कमी,

राग-द्वेष, इच्छाओं, अनिच्छाओं को तनु करना;

अब आप तीनों लोकों में विजयी होंगे।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

चतुर्थ अध्याय

पूर्णता प्राप्त करें

सबसे धनवान् कौन है?

 

वह जो इच्छाओं और वासनाओं से रहित है,

वह जो मैं और मेरा से रहित है,

वह जो सदा अपने आत्मस्वरूप में स्थित है,

वह जो अविनाशी आत्मा में विश्राम करता है,

वह जो काम, क्रोध, अभिमान से मुक्त है,

जिसके पास समदृष्टि और सन्तुलन है,

वह इस संसार में सबसे धनवान् है।

वह आवश्यकताओं, विचारों, चिन्ताओं और भय से मुक्त है,

वह सदा शान्त, प्रसन्न और धन्य है।

ऐसे महान् जन सदा यशस्वी हों !

धन के दोष

 

धन का उपार्जन दुःखदायी है,

धन का संरक्षण दुःखदायी है,

यदि यह कम हो जाये तो और अधिक दुःखदायी है,

यदि यह खो जाये तो अत्यन्त दुःखदायी है।

सम्पत्ति से अहंकार, मिथ्या अभिमान प्रवेश करता है।

यह स्वार्थ को ठोस या घनीभूत करता है।

इससे व्यक्ति ईश्वर तथा उनकी दिव्य प्रकृति को

विस्मृत कर देता है,

यह मन की मलिनता और उन्माद उत्पन्न करता है,

यह मन पर आवरण चढ़ा देता है,

यह व्यक्ति को दुराचारी जीवन जीने हेतु प्रेरित करता है,

यह उसे द्यूतक्रीड़ा और मद्यपान हेतु उद्यत करता है,

अमर जीवन जीने के लिए,

इस माह वह एक स्त्री को रखता है,

अगले माह उसे एक लाख रुपये के चेक के साथ भेजता है,

वह प्रतिक्षण भिन्न-भिन्न स्त्रियों की लालसा रखता है

जो कि वास्तव में घोर अपमानजनक और पतित जीवन है।

रुपये का कोई मूल्य नहीं है

 

यदि आपके भीतर सच्चे वैराग्य और विवेक का उदय हो गया है,

यदि आप माया और संसार की असार प्रकृति और

अनन्त ब्रह्म के परमानन्द स्वरूप को जान गये हैं

तो तीनों लोकों की सम्पत्ति के प्रति

आपको कोई आकर्षण नहीं होगा,

यह आपके लिए मृगतृष्णा या घास के तृण के समान है।

जब आप वन में रह कर

एकान्तवास की शान्ति का आनन्द उठायेंगे,

जब आप संन्यासी जीवन में प्रवृत्त होंगे,

स्वर्णमुद्रा, हीरा या डालर का आपके लिए क्या मूल्य होगा ?

यह लालसा है, यह अज्ञानता है

जो धन का काल्पनिक मूल्य निर्मित करती है।

धन आता है और जाता है

 

यह इसकी प्रकृति है,

यह माया या संसार है,

यह सम्पत्ति का अर्थ है,

एक पंखा खींचने वाला साहूकार बन जाता है,

एक सेठ या लालाजी गरीब बन जाते हैं,

बिहार और क्वेटा के भूकम्प के समय

पाकिस्तान विभाजन के समय

अरबपति सड़कों पर भीख माँग रहे थे,

इस संसार में कोई सुरक्षित नहीं।

इस नश्वर सम्पत्ति पर निर्भर मत हो,

आत्मा की अविनाशी सम्पत्ति पर निर्भर रहो,

कि तुम सदा निशंक और सुरक्षित हो ।

इच्छा रहित बनें

 

इच्छा रहित बनो,

तुम इस सम्पूर्ण जगत् में

सबसे धनवान् बन जाओगे,

इच्छाएँ तुम्हें इस जगत् में भिखारियों का भिखारी बना देती हैं।

समस्त ऋद्धियाँ और सिद्धियाँ आपके चरणों में लोटेंगी,

वे आपकी दासियाँ हो जायेंगी ।

आप ईश्वर की सम्पूर्ण सम्पदा,

समस्त दिव्य ऐश्वर्यों का उपभोग करेंगे।

आप डालरों और सोने का ढेर लगा सकते हैं,

यह समृद्धि का रहस्य है।

परमानन्द की पत्नी रहित स्थिति

 

विवेकी सोचो- 'मैं कौन हूँ?'

उस पत्नी रहित परमानन्द की स्थिति को प्राप्त करो,

उस पुत्र रहित स्थिति

उस घर रहित स्थिति-अनिकेत,

उस निद्रा रहित स्थिति

उस क्षुधा रहित स्थिति

उस देह रहित अवस्था को प्राप्त करो,

धन की आवश्यकता अब कहाँ?

आप बिना धन के, बिना पत्नी के, बिना पुत्र और बँगले के,

बिना लड्डू, काफी और कार के

आप परमानन्द में हैं।

आप अब आत्म-सम्राट् या स्वयं के शासक हैं।

 

जप की सम्पत्ति

 

इस श्रेष्ठ सम्पत्ति में नित्य वृद्धि करें,

अपने जप में वृद्धि करें,

ईश्वर के अनन्त सागर में

यह महानतम पूँजी है।

बैठे हुए, बातें करते हुए, खाते हुए, चलते हुए

श्री राम का जप करो,

इस जप को आदत बना लो।

यह ही सच्ची सम्पत्ति है

जो आपके साथ जायेगी,

इस सम्पत्ति का नित्य संग्रह करो,

यह आपको शान्ति और मुक्ति प्रदान करेगी।

महान् सम्पत्ति-मोक्ष

 

आत्म-साक्षात्कार महान् सम्पत्ति है,

यह असीम सम्पदा है,

सांसारिक सम्पत्ति की समस्त इच्छाएँ लुप्त हो जायेंगी,

सभी लालसाएँ और अभिलाषाएँ नष्ट हो जायेंगी,

भीतर-बाहर पूर्णता होगी,

यह एक अवर्णनीय स्थिति है,

यह आपको राजाओं का राजा,

राजकुमारों का राजकुमार बना देगी।

इस महान् सम्पत्ति को प्राप्त करने के लिए

चतुस्साधनों और आत्मा के ऊपर ध्यान द्वारा

प्रयत्न, प्रयत्न, प्रयत्न, प्रयत्न करो।

परिशिष्

परिशिष्ट

धन के उपार्जन पर

 

एक जमींदार ने वर्षों से संचित पूँजी ४००० रुपये से एक सुन्दर घर बनवाया। उसने इसे स्वयं अपने निरीक्षण में बनवाया। अचानक उसे रात्रि में नित्य एक स्वप्न आने लगा कि उसका घर गिर गया है। वह भयंकर रूप से चिन्तित हो गया। उसने ज्योतिषियों से सलाह ली, उनका भी यही कहना था कि यह भवन खड़ा नहीं रहेगा। अब उसके दुःख की कोई सीमा नहीं थी।

 

उसकी बुद्धिमान् पत्नी ने उसे एक उपाय बताया कि वह उस घर को ४००० रुपये में बेच दे। सौ-सौ रुपये के चालीस नोट ले कर वह किराये के घर में रहने चला गया। उस रात वह प्रसन्नतापूर्वक सोया। सुबह जागने पर उसने सुना कि कुछ उपद्रवियों ने उसके पुराने घर को आग लगा दी और वह भग्नावशेष में परिवर्तित हो गया। वह स्वयं वहाँ गया और लेश मात्र दुःख के बिना उसने इस आश्चर्य को अपनी आँखों से देखा, वह प्रसन्न था कि उसने वह घर समय पर विक्रय कर दिया और अब यह उसका नहीं था । उसने अपनी तिजोरी में रखे ४००० रुपयों को याद किया और दौड़ कर अपने घर वापस आ गया। वह दुःस्वप्न फिर आया। लुटेरों के विचार ने उसे रात-भर सोने नहीं दिया। उसे अपने भाइयों, यहाँ तक कि अपने पुत्रों पर ही शंका होने लगी कि कहीं वे उसका धन लूट कर न ले जायें। इस स्थिति में भी उसकी पत्नी ने पुनः आ कर उसकी रक्षा की। पत्नी की सलाह पर उसने अपना धन बैंक में जमा कर दिया और बैंक की रसीद प्राप्त कर ली। अगले दिन समाचार मिला कि बैंक में भयंकर डाका पड़ा और सारा धन लुट गया; लेकिन जमींदार को चिन्ता नहीं हुई, क्योंकि उसके पास रुपयों की रसीद थी।

 

एक भय उसे पुनः भयग्रस्त करने लगा कि उसके पुत्र उसे विष दे देंगे और बैंक से उस रसीद के द्वारा धन के लिए दावा करेंगे। यह विचार उसे पीड़ा देने लगा। गाँव के एक साधु उसके पास आये और उससे पास में स्थित अनाथाश्रम के लिए सहायता हेतु प्रार्थना करने लगे। जमींदार इसे ईश्वर का आदेश मान कर भीतर गया और उसने रसीद ला कर अनाथाश्रम के सहायतार्थ साधु को दे दी। उस जमींदार के नाम से अनाथ बच्चों के लिए भवन बनाया गया। उसकी प्रसिद्धि दूर-दूर तक सुप्रतिष्ठित दानी व्यक्ति के रूप में फैल गयी। लोग उसका बहुत सम्मान करने लगे । अब उसे कोई भय नहीं था। उसे ज्ञात हो गया था कि जब तक वह जीवित रहेगा, तब तक उसके पड़ोसी उसे प्रसन्न रखेंगे और वह शान्तिपूर्वक रहेगा। साथ ही यह भी कि जब वह इस संसार को छोड़ेगा, तो यह दान और अनाथ बच्चों की प्रार्थनाएँ परलोक में भी उसके लिए कल्याणकारी होंगी।

 

शिक्षा : आसक्ति दुःख लाती है। इसके कारण जिसे तुम अपना समझते हो, वह तुम्हारे स्वयं के शत्रु में बदल जाता है। इससे ही सारे दुःख उत्पन्न होते हैं। जब आप इन्द्रिय-विषयों से स्वयं को अलग कर लेते हैं, तो यह आपके क्लेश को समाप्त कर देता है। आसक्ति को जड़ से काट डालो। प्रत्येक वस्तु को उस प्रभु का मान कर व्यवहार करो, तो तुम शान्ति और आनन्द का उपभोग करोगे।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

परिशिष्ट

धन के व्यय पर

 

बीरबल अकबर का प्रिय मन्त्री था। वह अपनी बुद्धिमानी और प्रखर बुद्धि के लिए प्रसिद्ध था।

 

बीरबल की पत्नी का भाई उससे ईर्ष्या करता था। वह सोचता था कि बादशाह इस व्यक्ति से अत्यधिक प्रसन्न क्यों है? मैं भी बीरबल की भाँति राज्य का प्रबन्ध कर सकता हूँ। कुछ कुटिल विधियों द्वारा वह बादशाह तक पहुँच गया और उनसे बोला कि आप बीरबल को पद से हटा दें, मैं मन्त्री के काम को उससे अधिक योग्यतापूर्वक और ईमानदारी से कर सकता हूँ।

 

जब बीरबल ने यह सुना, तो वह मुस्कराया और अपने साले को शिक्षा देने के बारे में सोचा, उसने अपने पद से त्याग-पत्र दे दिया तथा उसे अपनी जगह नियुक्त कर दिया और राज्य छोड़ कर चला गया।

 

अकबर ने अपने नये मन्त्री की योग्यता की परीक्षा लेने के लिए उसे ५०० रुपये दिये और कहा कि तुम्हें इन ५०० रुपयों को इस भाँति व्यय करना है कि ५०० रुपये मैं इस लोक में प्राप्त करूँ, ५०० रुपये परलोक में प्राप्त करूँ तथा ५०० रुपये न इस लोक में प्राप्त करूँ, न परलोक में और इसके बाद तुम मुझे ५०० रुपये वापस कर दो।

 

नया मन्त्री बड़ा चिन्तित हुआ। उसे इसके लिए कोई मार्ग सूझ नहीं पड़ रहा था। उसने कई रातें जागते हुए बितायीं। अब उसे भोजन भी अच्छा नहीं लगता। वह कुछ दिनों में कमजोर हो गया। उसकी पत्नी ने उसे बीरबल से सहायता लेने का सुझाव दिया, तथा उसे स्वयं भी इसके अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं सूझा ।

 

बीरबल ने उससे कहा- "रुपये मुझे दो, मैं सब कर दूँगा।" नये मन्त्री ने बीरबल को वे ५०० रुपये दे दिये। बीरबल सड़क के किनारे पैदल चलते हुए राज्य में प्रविष्ट हुआ, वहाँ एक बड़ा व्यापारी अपनी पुत्री का विवाह समारोह आयोजित कर रहा था। बीरबल उसके घर में गया। खुले पण्डाल के बीच उसने घोषणा की-"व्यापारी जी ! बादशाह साहब ने विवाह में भेंट करने के लिए ५०० रुपये भेजे हैं और यह भेंट आपको देने के लिए मुझे नियुक्त किया है।" वह व्यापारी बहुत प्रसन्न हुआ। उसने बीरबल की खूब आवभगत की और वापसी में उपहारस्वरूप कई वस्तुएँ और बहुत-सा धन भी दिया।

 

बीरबल पास के गाँव में गया। उसने उपहार में प्राप्त धन में से ५०० रुपये में बहुत से खाद्य पदार्थ और मिठाइयाँ क्रय करके बादशाह के नाम से गरीबों में बाँट दीं। उसके बाद वह कस्बे में आया और वहाँ एक नृत्य सभा का आयोजन किया, सभी नर्तकों तथा संगीतज्ञों को आमन्त्रित किया और इस पर ५०० रुपये व्यय किये। इसके बाद बीरबल अकबर के दरबार में गया। अकबर बीरबल को वापस दरबार में आया देख कर बड़ा प्रसन्न हुआ। बीरबल ने बादशाह से कहा- “बादशाह साहब! ये रहे आपके ५०० रुपये। मैंने वह सब किया, जो आपने मेरी पत्नी के भाई से करने के लिए कहा था।"

 

"कैसे?"

 

"५०० रुपये मैंने व्यापारी को आपकी ओर से भेंट में दिये, ये इस लोक के लिए । ५०० रुपये मैंने गरीबों के बीच बाँट दिये, वे आपको परलोक में मिलेंगे । ५०० रुपये मैंने नृत्य सभा में व्यय किये, वे न आपको इस लोक में मिलेंगे, न परलोक में। और, ये रहे आपके ५०० रुपये।"

 

यह देख कर बीरबल की पत्नी के भाई ने शर्म से सिर झुका लिया। उसका अभिमान चूर-चूर हो गया था। उसकी ईर्ष्या नष्ट हो गयी थी।

 

इस कहानी की अन्य शिक्षा भी है। वह धन जो आप अपने मित्रों पर व्यय करते हैं, वह आपको इस लोक में मिलता है। जो धन आप दान में व्यय करते हैं, वह आपको परलोक में ईश्वर के अनुग्रह और यशस्वी जीवन के रूप में मिलता है और वह धन जो आप इन्द्रिय-सुखों हेतु व्यय करते हैं, वह आपके लिए न इस लोक में सहायक है और न परलोक में। इसलिए दान करो और अनन्त सुख का उपभोग करो ।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

परिशिष्ट

स्वर्णिम कोष

 

आप दिव्य हैं। अपनी दिव्य प्रकृति का अनुभव करें और इसे सिद्ध करें। आप अपने भाग्य के स्वामी हैं। दैनिक जीवन-संग्राम में जब दुःख, कठिनाइयाँ और क्लेश आयें, तो निराश न हों। अपने भीतर साहस और आध्यात्मिक शक्ति लायें। आपके भीतर शक्ति और ज्ञान का विपुल भण्डार है। अपने भीतर गहरे उतरें। अन्तर की पवित्र त्रिवेणी के अनश्वरता के पवित्र जल में लीन हो जायें। जब आप 'मैं अविनाशी आत्मा हूँ' का साक्षात्कार करेंगे, तो आप पूर्णरूपेण विश्रान्त, पुनर्नवीन और सजीव होंगे।

 

अखण्ड ब्रह्माण्ड के सिद्धान्तों को समझें। जगत् में चतुराई से विचरण करें। प्रकृति के रहस्यों को जानें। मन को नियन्त्रित करने के श्रेष्ठ उपायों को जानने का प्रयास करें। मन पर विजय प्राप्त करें। मन पर विजय ही वास्तव में प्रकृति और संसार पर विजय है। मन का निग्रह ही आपको आत्म-शक्ति के स्रोत तक जाने योग्य बनायेगा और आप 'मैं अविनाशी आत्मा हूँ' का साक्षात्कार करेंगे।

 

जब कठिनाइयाँ और दुःख आप पर पड़ें, बड़बड़ायें नहीं, असन्तोष न करें। प्रत्येक कठिनाई आपके लिए अपने संकल्प के विकास और उसे दृढ़ बनाने हेतु सुअवसर है। इसका स्वागत कीजिए। कठिनाइयाँ आपके संकल्प को शक्तिशाली बनाती और आपकी सहन-शक्ति को बढ़ाती हैं और आपके मन को ईश्वर की ओर ले जाती हैं। उनका सामना मुस्कराहट के साथ करें। अपने वास्तविक बल में आप अजेय हैं। आपको कोई क्षति नहीं पहुँचा सकता । अपनी कठिनाइयों पर एक-एक करके विजय प्राप्त करें। यह नव-जीवन, यश और दैवी वैभवपूर्ण जीवन का शुभारम्भ है। उत्कट आकांक्षा रखें और सार ग्रहण करें। आगे बढ़ें। सभी सद्गुणों, दैवी सम्पद जैसे सहन-शक्ति, दयालुता और साहस जो आपमें लुप्त हैं, उन्हें स्थापित करें। आध्यात्मिक पथ का अनुकरण करें। मानव के कष्टों का मूल गलत विचार हैं। उचित विचारों, सही कार्यों का अभ्यास कीजिए। एकता हेतु आत्मभाव से निष्काम्य कर्म कीजिए। यही सही कर्म है। जब आप सतत 'मैं अविनाशी आत्मा हूँ' का चिन्तन करते हैं, तो यह सही विचार है।

 

पाप जैसी कोई वस्तु नहीं है। पाप मात्र एक भूल है। पाप का निर्माण मन से हुआ है। शिशु आत्मा विकास-प्रक्रिया में कुछ भूलें करती ही है। भूलें आपकी सर्वश्रेष्ठ शिक्षक हैं। यदि आप विचार करेंगे, 'मैं अविनाशी आत्मा हूँ' तो पाप का विचार हवा में उड़ जायेगा।

 

तुम अविनाशी आत्मा हो

 

नवीन दृष्टिकोण रखें। स्वयं को विवेक, आनन्द, दूरदृष्टि, उत्साह और मेधा से अलंकृत करें। एक यशस्वी उज्ज्वल भविष्य आपकी राह देख रहा है। भूतकाल पर मिट्टी डालें। आप चमत्कार कर सकते हैं। आप आश्चर्य कर सकते हैं। आशा न छोड़ें। आप प्रतिकूल ग्रहों के प्रभाव को अपनी संकल्प-शक्ति से नष्ट कर सकते हैं। आप प्रकृति के तत्त्वों पर शासन कर सकते हैं। आप दुष्ट शक्तियों के प्रभाव और गहन विरोधी बलों के प्रभाव को, जो आपके विरुद्ध कार्य करते हैं, उदासीन कर सकते हैं। कइयों ने ऐसा किया है। आप भी ऐसा ही करें । स्वीकारें, पहचानें और अपने जन्मसिद्ध अधिकार को तत्काल दृढ़तापूर्वक माँगें। "आप अविनाशी आत्मा हैं।"

 

संकल्प और आत्म-विश्वास आत्म-साक्षात्कार हेतु अति आवश्यक हैं। माण्डूक्योपनिषद् में आप पायेंगे - "जो शक्ति विहीन हैं, जो तत्पर नहीं हैं या जो बिना किसी लक्ष्य के तपस्या करते हैं, वे इस आत्मा को नहीं प्राप्त कर सकते। किन्तु एक विवेकी पुरुष यदि उक्त साधनों द्वारा प्रयत्न करता है, तो उसकी आत्मा ब्रह्म में प्रवेश कर जाती है।"

 

एक जिज्ञासु के लिए 'अभय' महत्त्वपूर्ण योग्यता है। उसे इस जीवन को त्यागने हेतु प्रतिक्षण तैयार रहना चाहिए। इस क्षणिक विषयी जीवन को त्यागे बिना आन्तरिक आध्यात्मिक जीवन की प्राप्ति नहीं हो सकती। दैवी सम्पत् या दैवी गुण जो गीता के सोलहवें अध्याय के प्रथम श्लोक में वर्णित है 'अभय' सर्वप्रथम आता है। एक भीरु या कायर मनुष्य अपनी वास्तविक मृत्यु से पूर्व कई बार मर चुकता है। जब आप एक बार अपनी आध्यात्मिक साधना का निर्धारण कर लें, तो चाहे आपका जीवन ही क्यों न संकट में हो, उसे न छोड़ें। पराक्रमी बनें। कमर कस लें। खड़े हो जायें। सत्य का साक्षात्कार करें। "आप अविनाशी आत्मा हैं," इसे सर्वत्र प्रदर्शित करें।

 

मत कहें-"कर्म, कर्म। कर्म मेरे लिए यह लाये।" प्रयत्न करें, प्रयत्न करें। पुरुषार्थ करें। तपस्या करें। चित्त को एकाग्र करें। निर्मल बनें। ध्यान करें। भाग्यवादी न बनें। जड़ता के अधीन न हों। मेमने की भाँति मिमियायें नहीं। वेदान्त के शेर की तरह दहाड़ें- ॐ ॐ ॐ । देखो, मार्कण्डेय जो कि प्रारब्धवश अपने सोलहवें वर्ष में मृत्यु का वरण करने वाला था, अपनी तपस्या के बल पर सोलह वर्षीय चिरंजीवी बालक किस तरह बना। यह भी देखो, सावित्री अपनी तपस्या के बल पर अपने मृत पति का जीवन किस तरह वापस ले आयी। किस तरह बेंजामिल फ्रेंकलिन और मद्रास उच्च न्यायालय के टी. मुत्तुस्वामी अय्यर ने अपने-आपको ऊँचा उठाया। याद रखो, मेरे निरंजन कि मनुष्य अपने भाग्य का स्वामी है। विश्वामित्र ऋषि, जो एक क्षत्रिय राजा थे, अपनी तपस्या के बल पर वसिष्ठ की भाँति ब्रह्मर्षि बने और उन्होंने अपनी तपस्या के बल पर त्रिशंकु के लिए तीसरे लोक का निर्माण किया। डाकू मधाई और जगाई पहुँचे हुए सन्त बन गये। वे गौरांग-नित्यानन्द भगवान् के शिष्य बने । जो दूसरों ने किया, वह आप भी कर सकते हैं। आप भी आश्चर्य और चमत्कार कर सकते हैं, यदि आप अपने को आध्यात्मिक साधना, तपस्या और ध्यान में लगायें। जेम्स एलन द्वारा लिखित पुस्तक 'पावर्टी टु पावर' को रुचि और ध्यान से पढ़ें। मेरे 'बीस आध्यात्मिक नियम' और 'फोर्टी गोल्डेन पर्सेप्टस' का अनुकरण कीजिए। मेरी पुस्तक 'जीवन में सफलता के रहस्य' पढ़ें। आध्यात्मिक दिनचर्या में दृढ़ रहें। स्वयं को उत्साह और लगनपूर्वक साधना में लगा दें। एक नैष्ठिक ब्रह्मचारी बनें। अपनी साधना में स्थिर रहें। "आप अमरता के पुत्र हैं।"

 

हे सौम्य ! प्रिय अविनाशी आत्मा ! साहसी बनें। चाहे आप बेरोजगार हैं, चाहे आपके पास खाने के लिए कुछ न हो, चाहे आप चिथड़ों में लिपटें हों, आपकी अनिवार्य प्रकृति सत्-चित्-आनन्द है। आपका बाह्य रूप यह नश्वर भौतिक शरीर छद्म तथा माया के द्वारा निर्मित है। मुस्करायें, सीटी बजायें, हँसें, कूदें, प्रसन्नता और हर्षातिरेक से नाचें । ॐ ॐ ॐ, राम राम राम, श्याम श्याम श्याम, शिवोऽहं शिवोऽहं शिवोऽहं, सोऽहं सोऽहं सोऽहं गायें। इस मांस के पिंजरे से बाहर आयें। आप यह नश्वर शरीर नहीं हैं। आप राजाओं के राजा के पुत्र, सम्राटों के सम्राट्, उपनिषदों के ब्रह्म, वह आत्मा हैं, जो आपकी हृदय-गुहा में सदैव निवास करती है, उसी तरह व्यवहार करें, उसी तरह अनुभव करें। अपने जन्मसिद्ध अधिकार को दृढ़तापूर्वक इसी क्षण माँगें। कल-परसों नहीं, अभी इस क्षण से अनुभव करें, दृढ़तापूर्वक स्वीकारें, साक्षात्कार करें, पहचानें-"तत् त्वं असि" । हे निरंजन, तुम अविनाशी आत्मा हो।

 

तुम्हारी वर्तमान व्याधि कर्मों की शुद्धि है। यह तुम्हें उसकी और अधिक याद दिलाने के लिए, आपके हृदय में दया का धीरे-धीरे प्रवेश कराने के लिए, तुम्हें शक्तिशाली बनाने के लिए, तुम्हारी सहन शक्ति बढ़ाने के लिए आयी है। कुन्ती ने भगवान् से प्रार्थना की थी कि वे उसे सदा कष्ट ही दें, ताकि वह सदा उन्हें याद करती रहे। भक्त कष्टों में अधिक प्रसन्न होते हैं। रोग, दर्द, बिच्छू, सर्प और संकट ईश्वर के सन्देशवाहक हैं। भक्त उनका स्वागत प्रसन्न मुखाकृति से करता है। वह कभी असन्तोष नहीं करता। वह एक बार और कहता है- "मैं तुम्हारा हूँ, मेरे स्वामी! तुम सब-कुछ मेरे कल्याण के लिए करते हो।"

 

मेरे प्रिय निरंजन, दुर्भाग्य और नैराश्य के लिए स्थान ही कहाँ है ! आप ईश्वर के प्रिय हैं; इसीलिए वे आपको कष्ट देते हैं। यदि वे किसी को अपनी ओर बुलाना चाहते हैं, तो वे उसका सारा धन ले लेते हैं। वे उसके प्रिय सम्बन्धियों और नातेदारों का नाश कर देते हैं। वे उसके समस्त सुख के केन्द्रों को नष्ट कर देते हैं, जिससे कि उसका मन उनके चरण-कमलों में पूर्ण विश्राम कर सके। प्रत्येक स्थिति का सामना प्रसन्नतापूर्वक और उत्साह के साथ करें। उनके गूढ़ मार्गों को समझें। प्रत्येक वस्तु, प्रत्येक मुखाकृति, मुख-मण्डल में ईश्वर का दर्शन कीजिए। दृष्टि से दूर, पर मन से दूर नहीं। जब हम शारीरिक रूप से ईश्वर से दूर रहते हैं, तो हम उनके अधिक निकट होते हैं। भगवान् कृष्ण स्वयं को अचानक छुपा लेते हैं, जिससे राधा और गोपियों की उनके दर्शनों की प्यास और अधिक बढ़े। राधा की तरह गायें। गोपियों की तरह उनके दर्शन की प्यास रखें। भगवान् कृष्ण के अनुग्रह की कोई सीमा नहीं है। वे आपके अमर मित्र हैं। वृन्दावन के बाँसुरी वाले, उनकी कृपा और देवकी के आनन्द को कभी न भूलें ।

सब पर दया करने वाले भगवान् आपकी हृदय-गुहा में निवास करते हैं। वे आपके अत्यन्त निकट हैं। आपने उन्हें विस्मृत कर दिया है; किन्तु फिर भी वे आपका ध्यान रखते हैं। वे अपनी लीला के खेल हेतु आपके शरीर और मन को योग्य साधन बनाना चाहते हैं। वे आपकी आवश्यकताओं का प्रबन्ध या आपकी सेवा आपसे अधिक अच्छी तरह कर सकते हैं। वह भार, जो आप अपने अज्ञानवश अनावश्यक रूप से अपने कन्धों पर उठा रहे हैं, नीचे रख दीजिए। अपने स्व-निर्मित उत्तरदायित्वों को छोड़ दें और पूर्ण विश्राम में हो जायें। उनमें पूर्ण विश्वास रखिए। पूर्ण स्वतन्त्र आत्म-समर्पण कीजिए। उनके पास अभी दौड़े चले जाइए। वे आपके स्वागत के लिए बाँहों को फैलाये खड़े हैं। वे आपके लिए सब-कुछ करेंगे। मेरा विश्वास कीजिए। इसके लिए मुझसे वचन ले लीजिए। एक शिशु की भाँति अपना हृदय उनके लिए पूरी तरह खोल दें। मात्र एक बार व्याकुलता से उनसे कहें-"मैं आपका हूँ, मेरे स्वामी सब आपका है, आप ही करेंगे।"

वियोग की खाई अब अन्तर्धान हो गयी। सारे कष्ट, कठिनाइयाँ, चिन्ताएँ और रोग द्रवीभूत हो गये। अब आप भगवान् के साथ एक हो गये।

ऐसा अनुभव करें -समस्त जगत् आपका शरीर है, आपका अपना घर है। सभी प्रतिरोध, जो मानव को मानव से पृथक् करते हैं, उन्हें द्रवीभूत या नष्ट कर दें। श्रेष्ठता का विचार अज्ञान या माया है। “ईशावास्यमिदं सर्वम्।" विश्व-प्रेम, सबका स्वागत करने वाला, सबको एक करने वाला प्रेम विकसित करें। सबके साथ एक हो जायें। वियोग या पृथकता ही मृत्यु है। ऐक्य नित्य जीवन है। समस्त जगत् विश्व-वृन्दावन है। अनुभव कीजिए-आपका शरीर ईश्वर का चलित मन्दिर है। जहाँ भी आप हैं-घर, कार्यालय, रेलवे स्टेशन या सिनेमा में-सोचें, आप मन्दिर में हैं। प्रत्येक कार्य को ईश्वर को समर्पित कर दें। अनुभव करें कि समस्त प्राणी ईश्वर के प्रतिरूप हैं। प्रत्येक कार्य को ईश्वर के प्रति समर्पित करके उसे योग में रूपान्तरित कर दें। यदि आप वेदान्त के विद्यार्थी हैं, तो अकर्ता भाव रखिए। यदि आप भक्ति मार्ग के अभिलाषी हैं, तो उनके हाथों के उपकरण की भाँति निमित्त भाव रखें। अनुभव करें कि भगवान् आपके हाथों से कार्य करते हैं। एक ही शक्ति सब हाथों से कार्य करती है, सभी आँखों से देखती है, सभी कानों से सुनती है। अब आप एक रूपान्तरित मनुष्य हो जायेंगे। आपका दृष्टिकोण बदल जायेगा। आप परम शान्ति तथा परमानन्द का उपभोग करेंगे।

 

स्व-प्रकाश्य ब्रह्म आपके समस्त कार्यों में आपका निर्देशन करें!

आपको सुख, शान्ति तथा अमरत्व की शुभ कामनाएँ !!

 

 

परिशिष्ट

लक्ष्मीस्तोत्रम्

 

लक्ष्मीं क्षीरसमुद्र राजतनयां श्रीरंगधामेश्वरीं

दासीभूतसमस्त देव वनितां लोकैक दीपांकुराम् ।

श्रीमन्मन्दकटाक्षलब्ध विभव ब्रह्मेन्द्रगंगाधरां

तां त्रैलोक्य कुटुम्बिनीं सरसिजां वन्दे मुकुन्दप्रियाम् ।।

 

अर्थ : क्षीरसागरराज की पुत्री, विष्णु-धाम की अधिष्ठात्री, समस्त देवांगनाएँ जिनकी सेवा कर रही हैं (ऐसी), जगत् की केवल मात्र ज्योति, ब्रह्मा, इन्द्र और शिव-जैसे महान् देवों का वैभव भी मन्द कृपा-कटाक्ष से वृद्धिंगत करने वाली, त्रैलोक्य-जननी, कमल-स्थित हरि-प्रिया (मुकुन्द-प्रिया) लक्ष्मी का मैं वन्दन करता हूँ।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

परिशिष्ट

जप के लिए मन्त्र

ॐ श्री गणेशाय नमः ।।

ॐ श्री शरवणभवाय नमः ।।

ॐ नमः शिवाय ।।

ॐ नमो नारायणाय ।।

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।।

ॐ श्री रामाय नमः ।।

ॐ श्री सरस्वत्यै नमः ।।

ॐ श्री दुर्गायै नमः ।।

ॐ श्री महालक्ष्म्यै नमः ।।

शिवोऽहं शिवोऽहं शिवोऽहम् ।।

सोऽहं सोऽहं सोऽहम् ।।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

परिशिष्ट

कीर्तन

 

जय गणेश जय गणेय जय गणेश पाहि माम्।

श्री गणेश श्री गणेश श्री गणेश रक्ष माम् ।।

 

शरवणभव शरवणभव शरवणभव पाहि मान् ।

कार्तिकेय कार्तिकेय कार्तिकेय रक्ष माम् ।।

 

जय गुरु शिव गुरु हरि गुरु राम।

जगद् गुरु परम गुरु सद् गुरु श्याम ।।

 

हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।।

 

ॐ नमः शिवाय, ॐ नमः शिवाय।

ॐ नमः शिवाय, ॐ नमः शिवाय ।।

 

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।

ॐ नमो भगवते रामचन्द्राय ।।

 

ॐ नमो नारायणाय, ॐ नमो नारायणाय ।

ॐ नमो नारायणाय, ॐ नमो नारायणाय ।।

 

रघुपति राघव राजा राम ।

पतित पावन सीता राम ।।

 

ॐ श्री राम जय राम जय जय राम ।

ॐ श्री राम जय राम जय जय राम ।।

 

 

परिशिष्ट

ईश्वर के प्रति कृतज्ञता प्रकट करना

 

उस सब पर दया करने वाले ईश्वर को धन्यवाद दें,

उसने आपको एक बलशाली स्वस्थ शरीर,

बुद्धि, सौन्दर्य, मधुर वाणी,

अच्छा व्यक्तित्व, सद्गुण,

सुख-सुविधाएँ, अच्छा भोजन, वस्त्र आदि दिये हैं।

वे सदा आपकी देखभाल करते हैं,

वे अदृश्य रूप में आपकी सहायता करते हैं।

उनकी कृपा और अदृश्य हाथों का अनुभव कीजिए।

वे आपके मित्र, निर्देशक, पिता, माता, गुरु हैं।

उनके प्रति कृतज्ञ हों,

उनका सदा स्मरण करें,

उनके नाम, यश और कीर्ति का गान करें।

उनके प्रति समर्पण करें।

उनकी पूजा करें।

उनका ध्यान करें।

सभी प्राणियों में उनकी सेवा करें।

सभी प्राणियों में उनका दर्शन करें।

जब भी आप कोई अच्छी वस्तु प्राप्त करें,

भगवान् से कहें :

हे ईश्वर आप कितने दयालु हैं!

मैं आपका हूँ, सब आपका है, मेरे ईश्वर।

आप ही सब-कुछ करते हैं ।

मैं आपके सामने कृतज्ञ हूँ।

आपको चरणों में मेरे करोड़ों प्रणाम !