अच्छी नींद कैसे सोयें
'HOW TO GET SOUND SLEEP'
का हिन्दी अनुवाद
लेखक
श्री स्वामी शिवानन्द सरस्वती
अनुवादिका
शिवानन्द राधिका अशोक
प्रकाशक
द डिवाइन लाइफ सोसायटी
पत्रालय : शिवानन्दनगर – २४९ १९२
जिला : टिहरी गढ़वाल, उत्तराखण्ड (हिमालय), भारत
www.sivanandaonline.org, www.dlshq.org
प्रथम हिन्दी संस्करण :२००५
द्वितीय हिन्दी संस्करण :२०१३
तृतीय हिन्दी संस्करण- :२०१६
(१,००० प्रतियाँ)
© द डिवाइन लाइफ ट्रस्ट सोसायटी
HS 11
PRICE : ₹70/-
'द डिवाइन लाइफ सोसायटी, शिवानन्दनगर' के लिए
स्वामी पद्मनाभानन्द द्वारा प्रकाशित तथा उन्हीं के द्वारा 'योग-वेदान्त
फारेस्ट एकाडेमी प्रेस, पो. शिवानन्दनगर- २४९१९२,
जिला टिहरी गढ़वाल, उत्तराखण्ड' में मुद्रित।
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जिन्हें नींद नहीं आती हो तथा समाधि के आकांक्षी जनों के लिए
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दृष्टि को रूपान्तरित करें, इन्द्रियों को अन्तर्मुखी करें, मन को स्थिर करें, समाधि का आनन्द उठायें ।
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श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज को आधुनिक रोग, जिसे अनिद्रा कहते हैं, से पीड़ित अनेकों लोगों के ढेरों पत्र नित्य आते थे।
यह स्थिति निःसन्देह आधुनिक भौतिक सभ्यता के कृत्रिम जीवन, भावनात्मक स्थिति तथा मानव की नाड़ी शक्ति के अत्यधिक बहाव के कारण उत्पन्न हुई है। परन्तु मात्र कहने से ही तो समस्या का समाधान या कष्ट का निवारण नहीं होता।
इसलिए यह पुस्तक श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज ने विशेष रूप से अनिद्रा से पीड़ित जनों की सेवा हेतु लिखी है। श्री स्वामी जी ने अलग-अलग प्रकृति के लोगों के लिए अलग-अलग विधियाँ बतायी हैं। जिन्होंने भी स्वामी जी की आध्यात्मिक विधियों को अपनाया, उन्हें ऐसा लगा जैसे कोई प्यासा एक गिलास पानी को खोज रहा हो और उसे अमरत्व प्रदान करने वाला घड़ा भर अमृत मिल गया हो।
यह पुस्तक अनिद्रा को ही दूर करने में सहायक नहीं होगी, प्रत्युत् यह को अज्ञानता की नींद से जगायेगी और उसे जाग्रत निद्रा की सर्वोच्च मनुष्य स्थिति समाधि या निर्वाण हेतु प्रेरित करेगी।
- द डिवाइन लाइफ सोसायटी
श्वसन क्रिया के बाद नींद जीवन की सबसे बड़ी आवश्यकता है। यदि श्वसन क्रिया जीवन को चलाती है, तो निद्रा जीवनी-शक्ति को वह आवश्यक अन्तराल प्रदान करती है जिससे शरीर की क्षति पूर्ति हो सके। यदि श्वसन क्रिया से जीवन का संरक्षण होता है, तो निद्रा से दैनिक कार्यकलापों में व्यय होने वाली ऊर्जा की पूर्ति होती है। यदि श्वसन क्रिया सभी प्राणियों में स्पन्दित होने वाली शक्ति का संकेत है, तो नींद अचल सुप्त यथार्थता हेतु आधार प्रदान करती है। यदि श्वसन रूपों की अनन्त विभिन्नताओं में प्रकट होता है, तो नींद अस्तित्व की अनिवार्य एकता का वर्णन हमारे समक्ष करती है। यदि श्वसन हमारे चारों ओर व्याप्त दिव्य ऊर्जा के स्रोत से, हिरण्यगर्भ से जीवन-शक्ति और ऊर्जा हमें ला कर देता है, तो नींद इनको हमारे अन्दर स्थित आत्मा से ला कर देती है। इस प्रकार श्वसन और निद्रा—दोनों ही आत्मा की अन्तर्वती अवस्था और श्रेष्ठता, सभी प्राणियों में व्याप्त वह सत्यता जो हमारे अन्दर है, विभिन्नता के मध्य एकता, वह अचल यथार्थता जो तत्क्षण अनन्त गति को प्राप्त हो सकती है तथा उस एकमात्र ईश्वर को जिसके द्वारा श्वसन और निद्रा अपनी शक्ति प्राप्त करते हैं, हमें दिखाती हैं। उस ईश्वर को नमन, उस पराशक्ति को प्रणाम जो इस संसार को चलाती हैं। उस निद्रा देवी को प्रणाम जो अचेतन अवस्था में आपको लोरी सुनाती है, जिससे आप अगले दिन के काम के लिए जीवनी-शक्ति प्राप्त कर सकें।
निद्रा बहुत से विशिष्ट सत्यों के लिए सूत्र प्रदान करती है। यह गुप्त रूप से प्रकट करती है कि आत्मा निःसन्देह एक सदृश और एक है। यहप्रकट करती है कि आत्मा समस्त कष्टों से परे और यह कि आत्मा एक शुद्ध आनन्द का पुंज है। निद्रा आपको यह बताती है कि जाग्रत अवस्था के समस्त अनुभव तथा (स्वप्नावस्था के विस्तार के अनुभव भी ) कम या अधिक कष्टप्रद होते हैं। गहन निद्रा में अनुभूत किये जाने वाले सुख तथा उसके सदृश अनुभव आपको किसी भी प्रकार के भौतिक अनुभव में नहीं प्राप्त होते। गहन निद्रा में मात्र एक ही दोष है (जो कि सारी विभिन्नताओं का कारण है), वह यह कि आप इसमें अपनी आत्मा के प्रति जाग्रत नहीं रहते। तुरीयावस्था सुषुप्ति के सदृश ही होती है; उसमें सबसे जीवित भिन्नता यह है कि तुरीयावस्था में आप आत्मा के प्रति चैतन्य रहते हैं। किन्तु यदि अनुभवों से जुड़े अन्य रूपों को देखा जाये, तो वे बिलकुल एक जैसे हैं। दोनों में से किसी भी अवस्था में दर्द की कोई अनुभूति नहीं होती।
दोनों ही अनुभव सभी के लिए एक प्रकार के और सामान्य हैं। किन्तु ऐसा जाग्रत अवस्था के अनुभवों के साथ नहीं है। विषय-वस्तुएँ सभी को एक-समान सुख नहीं देतीं, न ही वे एक मनुष्य को प्रत्येक बार एक-सा सुख प्रदान करती हैं। विषय-वस्तुओं से प्राप्त होने वाले सुख वास्तव में दुःख ही हैं।
कोई भी अनुभव जो मन को बहिर्मुखी बना कर मन और इन्द्रियों के संसर्ग पर प्रभाव डालता है, वह कष्ट ही है। कोई भी अनुभव जो मन को अपनी आत्मा की ओर ले जाता है, वही सच्चा सुख है। चेतना की दो अवस्थाओं गहन निद्रा की अवस्था और समाधि में मन स्वयं को इन्द्रियों और उनके विषयों से पृथक कर लेता है। यद्यपि स्वप्नावस्था में मन प्रत्यक्षतः इन्द्रियों और उनके विषयों से नहीं जुड़ा रहता, तो भी वह अपने आनन्दोपभोग हेतु स्वयं की वासनाओं की सहायता से स्वप्निल वस्तुओं की रचना करके उनसे खेलता रहता है। मन इस समय भी जाग्रत रहता है या अन्य शब्दों में यह इसके स्वयं के एकीकृत केन्द्र से दूर विषमता के क्षेत्र में
अभी भी विद्यमान रहता है। वह मनुष्य जो कई प्रकार के स्वप्न देखते हुए सारी रात बिस्तर में करवट बदलते हुए बिताता है, जब जागता है तो उतना ही अप्रसन्न रहता है जितना कि वह व्यक्ति जो जागृत अवस्था में बुरी तरह असफल रहा हो।
जाग्रतावस्था में मन इन्द्रियों से जुड़ा रहता है, चाहे अनुभव स्पष्ट रूप से कष्टप्रद या सुखदायक हों। उदाहरण के लिए पैर में काँटा चुभने के कष्टप्रद अनुभव को लीजिए। क्या होता है? तुरन्त इससे जुड़ा संवेदन अंग मन को पुकारता है — "हे मन! देखो, कोई मेरे भीतर प्रविष्ट हो गया है और मुझे दुःख दे रहा है।" मन तुरन्त उस स्थान पर जा कर उसका निरीक्षण करता है। और उपयुक्त अंग को उस काँटे को बाहर निकालने का आदेश देता है। यहाँ मन अन्तरात्मा से बहुत दूर रहता है, इसी कारण हमें दर्द की अनुभूति होती है।
आनन्ददायक अनुभव में इन्द्रियाँ प्रसन्नता से चीखती हैं— “अरे मन ! देखो, क्या ही आश्चर्यजनक वस्तु है।" यह ऐसा अनुभव है, जो इन्द्रियों को रुचिकर है। इसलिए मन उस स्थान को नहीं जाता, इसके विपरीत वह उनको देख कर अन्दर-ही-अन्दर प्रसन्न होता रहता है कि इन्द्रियों को उनकी रुचि की वस्तु मिल गयी है। किन्तु फिर भी यहाँ मन की इन्द्रियों से कुछ अंशों में एकता रहती है। मन ही इन्द्रियों को आनन्दोपभोग हेतु शक्ति प्रदान करता है। यदि मन इन्द्रियों से अपनी शक्ति खींच ले, तो वे शान्त हो जायेंगी और मृत हो जायेंगी। सुखदायक तथा कष्टप्रद, दोनों ही प्रकार के अनुभव शक्ति का ह्रास करते हैं; क्योंकि मन का बहाव बाहर की ओर होता है। इसलिए दिन के अनुभव सुखप्रद या कष्टप्रद कैसे भी हों, मन थका हुआ अनुभव करता है। वह निद्रा की अभिलाषा रखता है और नींद के सच्चे और शुद्ध आनन्द का उपभोग करना चाहता है।
याद रखें। जब आप स्वयं को थका हुआ और शक्तिहीन अनुभव करते हैं, उस समय निद्रा की अनिवार्य आकांक्षा यह दर्शाती है कि सच्चा सुख और सच्ची शक्ति हमारे भीतर है। यदि इन्द्रिय-सुख आपको सच्चा सुख प्रदान करते, तो मात्र एक गहरी नींद के लिए आप अपना सब कुछ छोड़ने लिए तैयार न हो जाते। जब नींद आप पर आधिपत्य कर लेती है या अन्य शब्दों में इन्द्रियाँ और मन थके हुए हों, तो सबसे स्वादिष्ट व्यंजन भी आपको नहीं ललचाता, सबसे सुन्दर दृश्य भी आपको नहीं लुभाता, सबसे मधुर संगीत आपको उबाऊ लगता है, सुगन्ध का भी अनुभव नहीं होता है। और पत्थरों की शय्या महँगे नर्म बिस्तर का सुख देती है। यदि सुख इनमें ही होता, तो आप इन्हीं में लगे रहते, इन्हें छोड़ कर सुख को स्वयं के भीतर न खोजते ।
यदि आप जागते हुए गहरी नींद में चले जायें, यदि आप बाह्य जगत् के लिए पूर्ण मृत होते हुए आन्तरिक रूप से पूर्ण चैतन्य रहें, तो आप सर्वोच्च चेतना की स्थिति, निर्विकल्प समाधि का आनन्द उठा सकते हैं। इसके द्वारा जो ज्ञान, जो शक्ति, जो आनन्द आप प्राप्त करेंगे, वह अवर्णनीय होगा। निद्रा इस परमावस्था का संकेत मात्र है, और कुछ नहीं ।
सम्पूर्ण जगत् में ऐसे अरबों मनुष्य हैं, जो रात में चैन की नींद नहीं सो पाते, जो प्रगाढ़ निद्रा का आनन्द नहीं ले पाते। वे इस पृथ्वी पर कष्टमय जीवन जी रहे हैं। वे अनिद्रा के कारण विभिन्न रोगों और नाड़ी-दोषों का शिकार हैं। उनके लिए इस पुस्तक में विभिन्न उपाय सुझाये गये हैं। उनके लिए मैंने इस पुस्तक में बहुत से उपचार प्रस्तावित किये हैं। सामान्य रूप से प्राकृतिक और नामोपचार पद्धति ली गयी है। यदि रोगी कुछ अन्य प्रकार की उपचार पद्धति का प्रयोग भी करता है, तो इस मिश्र-पद्धति द्वारा रोग में शीघ्र सुधार परिलक्षित होगा।
मैं आपसे यह स्मरण रखने के लिए कहता हूँ कि आप नींद हेतु पुराने अनुभव के साथ बिस्तर पर न जायें। निद्रा आपके पास स्वयं ही आयेगी, आपको मात्र उसे निमन्त्रण भेजना है और निद्रा के स्वागत हेतु तैयार रहना है। आपको स्वयं में और अपने चारों ओर ऐसी स्थितियाँ निर्मित करनी हैं, जिससे नींद आपके पास आने के लिए ललचाये। बस, इतना ही, और कुछ नहीं करना है तथा जब तक नींद न आये, उसकी प्रतीक्षा करनी है।
यह इसलिए क्योंकि एक साधक जो सतत समाधि में अवस्थित रहता है, उसके सिवा अन्य कोई नहीं जानता कि वह निद्रा में कब जाता है या अन्य शब्दों में निद्रा किस द्वार से प्रवेश करती है, चाहे वह जागा हो या सोया हो अथवा स्वप्न देख रहा हो (क्योंकि स्वप्न भी जाग्रत अवस्था का विस्तार ही है)। क्योंकि जब आप सोने वाले होते हैं, उसी समय वह ज्योति जिसकी सहायता से आप जानते, काम करते और विचार करते हैं, आपके हृदय में आने वाली रहस्यमय अतिथि - निद्रा द्वारा बुझा दी जाती है।
यहाँ पुनः आप निद्रा और समाधि में गहरी समानता पायेंगे। आपआत्मा के प्रकाश में प्रवेश नहीं कर सकते। जब तक आपका अस्तित्व है, प्रकाश का अनुभव नहीं होगा। प्रकाश के अनुभव के पूर्व अहंकार समाप्त होना चाहिए। ईश्वर आपके सामने स्वयं ही प्रकट होंगे। आप उनसे आने के लिए भावपूर्ण प्रार्थना मात्र कर सकते हैं। आप नहीं जान सकते, वे कैसे आयेंगे, कब आयेंगे और किस द्वार से आयेंगे। आपको सभी द्वार खुले रखने होंगे। आपको अपना अन्तःकरण स्वच्छ, शुद्ध और क्षिपग्राही रखना होगा। जब वे प्रवेश करेंगे, वे तत्क्षण आपकी बुद्धि की भ्रामक ज्योति, जिसके द्वारा आप इस दृश्यमान जगत् को इन्द्रियों द्वारा ग्रहण करते हैं, बुझा देंगे। उनके स्नेहपूर्ण हाथों में आप स्वयं को, स्वयं के अस्तित्व को भूल जायेंगे। जब तक आप विषय-वस्तुओं को जानते हैं, उन्हें नहीं जान सकते। आपको उनका अनुभव एक रहस्यमय तरीके से होगा—जैसा किआप गहन निद्रा में प्रसन्नता का अनुभव करते हैं, यह ठीक वैसा ही होगा। वह तुच्छ साधन जिससे आप अपनी जाग्रतावस्था के अनुभव का अन्वेषण करते हैं, जिससे आप विषयों को इन्द्रियों द्वारा ग्रहण करते और उनका आनन्द उठाते हैं, वह बुद्धि दोनों ही अवस्थाओं में अनुपस्थित रहती है। इसलिए आप नींद अथवा समाधि में कैसे जाते हैं, इसका आपको ज्ञान नहीं होता। दोनों ही विषयों में आप मात्र निमन्त्रण भेजें और स्वयं को तैयार रखें।
सबसे श्रेष्ठ निमन्त्रण आत्म-समर्पण है, दिव्यता के प्रति सम्पूर्ण और स्वतन्त्र आत्म-समर्पण जो आपको समाधि में अत्यन्त शीघ्र प्रवेश हेतु, तत्काल भाव समाधि का आनन्द उठाने के लिए और सदैव सहज अवस्था में रहने के योग्य बनायेगा ।
पुनः यह आत्म-समर्पण अनिद्रा के लिए एकमात्र त्रैलोक्य- चिन्तामणि है।
आप सब पूर्ण आत्म-समर्पण और आत्मा पर ध्यान द्वारा जाग्रत निद्रा या समाधि का उपभोग करें! आप सभी इसी जन्म में जीवन्मुक्ति के सुख का उपभोग करें!
स्वामी शिवानन्द
२४ मार्च, १९५१
१. ईश्वर अज्ञानता, दुःख और भय को दूर करने वाले हैं। वे अनन्त सुख के दाता हैं। उन्हें जानें। वे आपके
भीतर सदा निवास करते हैं।
२. ईश्वर में पूर्ण आस्था रखें। आस्था और विश्वास ही ईश्वर का द्वार है। आस्था चमत्कार कर सकती है।
३. अपने छोटे-से-छोटे कार्य में अपने हृदय, मन, बुद्धि और आत्मा को लगा दीजिए। यही सफलता का
रहस्य है।
४. आहार, पीने, शयन, मनोरंजन और सभी बातों में संयम रखें।
५. जीवन के उचित नियमों का पालन करें। स्वास्थ्य, शक्ति, सफलता और ईश्वर - साक्षात्कार के लिए
प्रयत्न करें।
६. मुक्त - हस्त से दान करें। सब कुछ दान करें। यही प्रचुरता का रहस्य है।
७. सदैव विश्वास और दृढ़ संकल्प से काम करें। अपने संकल्प में दृढ़ रहें और अपने निर्णय में अटल रहें।
लौह-संकल्प रखें।
८. अतीत को जाने दें। अतीत पर मिट्टी डालें। आपके लिए देदीप्यमान भविष्य सामने है। प्रयत्न, प्रयत्न,
प्रयत्न करें।
९. सदा प्रसन्न रहें और चिन्ताओं को मुस्करा कर दूर कर दें। इच्छाओं, स्वार्थ और घृणा को निकाल कर
अपनी संकल्प-शक्ति का विकास करें।
१०. विषय-भोगों में लिप्तता आपको नाश की ओर ले जायेगी। वैराग्य आपको अमरत्व की ओर अग्रसर
करेगा। राग और आसक्ति छोड़ें।
११. उचित विचार सही चेष्टा, अच्छे कर्म और एक प्रशंसनीय चरित्र का निर्माण करते हैं। इसलिए सही
विचारों का विकास करें।
१२. शुद्ध विवेक-बुद्धि रखें। स्वयं को स्वार्थ से मुक्त करें। मैं और मेरे पन की भावना को नष्ट करें। मोक्ष
प्राप्त करें। मुक्त हो जायें। परमानन्द का लाभ उठायें।
१३. सेवा करें, प्रेम करें, दान करें और इन्द्रियों तथा मन को संयमित करें। भले बनें। भला करें। दयालु बनें।
पवित्र बनें। धैर्यवान् बनें।
१४. आगे बढ़ें। विकास करें। उन्नति करें। अलगाव की भावना को नष्ट करें। सबके साथ घुलें मिलें और
दिव्य प्रेम का विकास करें। निःस्वार्थ बनें।
१५. सावधान और परिश्रमी बनें। ध्यान दें और प्रार्थना करें। उपवास और ध्यान करें। अनुभव करें। भय,
चिन्ता और व्याकुलता को मन से हटा दें।
१६. साधुओं की सेवा करें। सत्संग में जायें। भगवान् का नाम गायें। एक महीने एकान्तवास करें। फल और
दूध पर रहें। ध्यान करें।
१७. मैं कौन हूँ? संसार क्या है ? ब्रह्म क्या है ? बन्धन क्या है? मुक्ति क्या है? माया क्या है? अविद्या
क्या है? विचार करें।
१८. विरागी बनें। मन को शान्त करें। मन को सदा एक बिन्दु पर केन्द्रित तथा सम स्थिति में रखें।
१९. आध्यात्मिकता को स्वीकारें। पवित्रता का अभ्यास करें। श्रेष्ठता का विकास करें। समाज-सेवा करें।
दानशीलता का अभ्यास करें। दिव्यता प्राप्त करें।
२०. शुद्धता रखें। ध्यान करें। मनन करें। चित्त को एकाग्र करें। सिद्धि प्राप्त करें।
उत्तर दिशा की ओर सिर करके न सोयें
इच्छा-शक्ति निद्रा प्राप्त करना
अनिद्रा रोग के लिए होमियोपैथिक औषधियाँ
नीचे बताये उपायों को करें : आप अच्छी नीद सोयेंगे
हृदय को झंकृत करने वाले कीर्तन
अच्छी नींद कैसे सोयें
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सोने जाने से पूर्व इस पवित्र मन्त्र को पन्दरह मिनट तक गायें। ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण करें। आपका मन सत्त्व से परिपूर्ण हो जायेगा और आप गहरी निद्रा का आनन्द उठायेंगे।
(धुन: सुनाजा सुनाजा)
दीनबन्धु दीनानाथ विश्वनाथ हे विभो;
पाहिमान् त्राहिमाम् प्राणनाथ हे प्रभो ।
"हे विश्व के स्वामी! हे सर्वव्यापक आत्मा! आप दीनबन्धु हैं, आप निर्बलों के, निर्धनों के, पतितों के रक्षक हैं। हे मेरे जीवन के स्वामी! हे मेरे जीवन के पालनहार ! मेरी रक्षा करो! मुझे बचाओ!"
यह सर्वाधिक प्रबल सूत्र है जो आपका तत्क्षण आत्मोत्थान करेगा ।। आपको सुख और शान्ति देगा। यह आपको शक्ति और ऊर्जा प्रदान यह करेगा। यह सन्देह और निराशा को दूर ले जायेगा। यह दुःख और भ्रम को बाहर निकाल देता है। यह उस भेद-बुद्धि को नष्ट कर देता है जो आपको ईश्वर से दूर रखती है। यह आपको संसार से बाँधने वाले कर्तृत्व-भोक्तृत्व अभिमान को नष्ट कर देता है। यह आपको ईश्वर के समक्ष निरहंकार और नम्र बनायेगा। यह आपके अहंकार को चूर-चूर करके नष्ट कर देगा। यह आपको अन्तर्मन से ईश्वर का ज्ञान कराने में सहायक होगा और आपके हृदय को विशाल बनायेगा ।
जब आप इसे दोहरायेंगे, आप तत्क्षण अनुभव करेंगे कि 'ईश्वर ही सब कुछ हैं, मैं कुछ नहीं हैं। आप अनुभव करेंगे कि ईश्वर सर्वव्यापक है। आप उनके विराट्स्वरूप के दर्शन का आनन्द उठायेंगे। मात्र इतना ही नहीं, आप अनुभव करेंगे कि वह आपके जीवन के स्वामी, अवलम्ब, स्रोत और लक्ष्य भी हैं। वे सर्वव्यापक और आपके हृदय के भीतर निवास करने वाले स्वामी हैं। वे आपकी श्वास से भी अधिक पास हैं। वे आपके जीवन को धारण करते हैं। वे आपको विचार करने, बोलने और कार्य करने की शक्ति प्रदान करते हैं। उनकी ही शक्ति से आप उनसे प्रार्थना करने के योग्य, उनकी पूजा करने के योग्य और यहाँ रहने के योग्य होते हैं। मन को इस प्रकार बना कर आप उनसे प्रार्थना कीजिए- "मैं आपका हूँ, सब आपका है, मेरे प्रभु मुझे बचायें, मेरी रक्षा करें।" आप उनसे रोगों से बचाव या गरीबी दूर करने हेतु प्रार्थना न करें। आप उनसे इस भवसागर से बचाने हेतु प्रार्थना कर सकते हैं। आप उनसे माया की बेड़ियों से बचाने हेतु कह सकते हैं। आपको प्रभु से प्रार्थना करनी चाहिए— "मुझमें से मेरे-पन की भावना को नष्ट कर मेरी रक्षा करें।” या अन्य शब्दों में आपको स्वयं को प्रभु में समाहित करने की उत्कण्ठा रखनी चाहिए और उनसे अपने अहंकार से स्वयं को बचाने की भिक्षा माँगनी चाहिए।
जिस क्षण आप इस प्रार्थना को सम्पूर्ण हृदय और आत्मा से करेंगे, ईश्वर उसी समय आपके पास दौड़े चले आयेंगे; वे तुरन्त आपकी प्रार्थना का उत्तर देंगे।
आप ऐसे भी गा सकते हैं:
पाहिमाम् पालयमाम्, पाहिमाम् रक्षमाम् ।
पाहिमाम् पाहिमाम्, त्राहिमाम् त्राहिमाम् ।।
हे निद्रा, हे प्यारी निद्रा !
हे निद्रा शक्ति,
तुम प्रकृति की मृदु परिचारिका हो।
पौष्टिक, मृदुल और स्फूर्तिदायक हो ।
हताशा, दुःख और दर्द में
तुम शान्त करने वाला लेप और बलवर्धक औषधि हो ।
मुझे ब्रह्म तक ले कर जाओ और परमानन्द में स्नान कराओ।
मेरी नाड़ियों और मस्तिष्क को आरोग्य प्रदान करो।
और उन्हें ऊर्जा से परिपूर्ण करो।
उस देवी को जो निद्रा का रूप है, मेरे विनम्र प्रणाम |
या देवी सर्वभूतेषु निद्रारूपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यैः नमो नमः ॥
अभाव-प्रत्यय-आलम्बन--वृत्ति निद्रा ।।
अभाव की प्रतीति को आश्रय करने वाली वृत्ति निद्रा है (योगसूत्र-समाधिपाद, १०) ।
जब तमोगुण की प्रबलता होती है तथा सत्त्वगुण और रजोगुण शान्त होते हैं, बाह्य जगत् का कोई ज्ञान नहीं होता, तब निद्रा प्रकट होती है। कुछ लोगों का सोचना है कि निद्रा में वृत्ति-शून्यता होती है; लेकिन ऐसा नहीं है। उस समय भी आपके भीतर स्मरण-शक्ति होती है, तभी तो आप जागने पर कहते हैं— “मैं बहुत गहरी नींद सोया; मुझे कुछ नहीं पता।" नींद के समय मन में एक विशेष वृत्ति (अभाव रूप वृत्ति) होती है। इससे यह नहीं समझना चाहिए कि निद्रा मन की वृत्ति का रूपान्तरण नहीं है। यदि ऐसा होता, तो नींद से जागने पर आपको यह याद नहीं रह सकता कि 'मैं गहरी नींद सोया।' जो आपने अनुभव ही नहीं किया, वह आपको कदापि स्मरण नहीं रह सकता। निद्रा एक विशेष प्रकार की वृत्ति है। यदि आप सिद्धि प्राप्त करना चाहते हैं, तो अन्य वृत्तियों की तरह इसे भी नियन्त्रित करना होगा।
उस सच्चिदानन्दब्रह्म को प्रणाम जो तीनों अवस्थाओं—जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति का मूक साक्षी है। निद्रा श्रेष्ठ आयुर्वर्धक रसायन और बलवर्धक औषधि है। निद्रा क्लान्त मनुष्य को विश्रान्ति प्रदान करने वाली प्राकृतिक औषधि है। निद्रा वह स्थिति है जिसमें मन कारण शरीर में शान्ति से विश्राम करता है। मन इसके कारण में विलीन हो जाता है। वृत्तियाँ और वासनाएँ सुप्त या सूक्ष्म हो जाती हैं और मन के सभी कार्यों को रोक देती हैं। भटकता हुआ मन विश्राम प्राप्त करता है। यह मन को उसके स्रोत में विश्राम दे कर उसे नयी ऊर्जा और शान्ति प्रदान करने का प्रकृति का तरीका है। निद्रा में मन का उसके मूल में अस्थाई अवशोषण या मनोलय होता है।
नींद में गहन तम होता है। तम सत्त्व और रज को पराजित कर देता है। उदान वायु जीव को जाग्रत अवस्था से आनन्दमय कोष या कारण शरीर में ले जा कर विश्राम कराती है।
अच्छी गहरी नींद के बाद व्यक्ति पूर्णतया प्रसन्न या विश्रान्त अनुभव करता है। निद्रा एक तामसिक अवस्था है; क्योंकि इसमें न तो क्रियाशीलता होती है, न ही जागरूकता। सोया हुआ मनुष्य बाह्य जगत् के प्रति अचेतन होता है। वह अपने भौतिक शरीर के प्रति भी चैतन्य नहीं रहता। उसे यह भी चेतना नहीं रहती कि वह सोया है।
किन्तु निद्रा किसी पत्थर या लकड़ी के लट्टे की तरह की तामसिक अवस्था नहीं होती। मन और शरीर में निद्रा की अवधि में परिवर्तन होते हैं। नींद में शरीर और मन तथा नाड़ियाँ जीवन-शक्ति से परिपूर्ण हो जाती हैं, उनकी मरम्मत होती है जिससे वे नये कार्य हेतु तैयार हो जाती है। नींद में मनुष्य सुख, प्रसन्नता और समस्त कष्टों से मुक्ति का अनुभव करता है। इसलिए नींद शरीर और मन को स्वस्थ रखने हेतु आवश्यक है।
अच्छी नींद के बिना कोई भी पूर्ण स्वास्थ्य का उपभोग नहीं कर सकता। नींद मस्तिष्क और नाड़ियों को विश्रान्ति तथा स्वास्थ्य प्रदान करती है। निद्रा एक ऐसा मल्हम है जो थकी हुई नाड़ियों को आराम पहुँचाता है। यह शरीर, मन और नाड़ियों को ऊर्जा तथा जीवन से परिपूर्ण करती है।
मन और शरीर एक समयान्तराल के उपरान्त या भौतिक मस्तिष्क और मानसिक शरीर के द्वारा किये गये कार्यों की प्रत्येक श्रेणी के पश्चात् विश्राम चाहते हैं।
रोगी मनुष्य अस्वस्थता के कारण सो नहीं पाता ; किन्तु यदि उसे नींद आ जाये, तो उसे अधिक आराम का अनुभव होगा। वह अपना कष्ट भूल जायेगा। नींद के समय सभी कष्ट समाप्त हो जाते हैं। नींद में कमी से रोग की तीव्रता अधिक हो जाती है। उसे ऐसा अनुभव होता है कि नींद न आने के कारण रोग और अधिक गम्भीर हो गया है। और वैसे भी नींद न आना स्वयं ही एक रोग है; इसलिए नींद अनिवार्य है।
मन को जैसे-जैसे आवश्यक विश्राम दिया जाता है, वह जाग्रत अवस्था के संस्कारों के द्वारा बलपूर्वक विषय-वस्तुओं की ओर ले जाया जाता है।
यह कामना या रजोगुण का बल है जो मनुष्य को नींद से वापस जाग्रत चेतना में लाता है। जिस प्रकार एक स्प्रिंग जो हाथ से दबा कर रखी हुई हो, से जब दबाव हटा लिया जाता है, तो वह पुनः अपनी वास्तविक लम्बाई और आकार को ग्रहण कर लेती है। इसी प्रकार गहरी नींद आ जाने के बाद दबे हुए विचार और अभिलाषाएँ मुक्त हो जाती हैं और मनुष्य पुनः जाग्रत चेतना को प्राप्त कर लेता है।
वास्तविक रूप से जाग्रत चेतना में आने के पूर्व मनुष्य अर्ध-चेतनावस्था में आता है जहाँ वह न तो जाग्रत रहता है, न स्वप्न देखता है। रात के समय बहुत समय तक मनुष्य तन्द्रा और आलस्य में रहता है। स्वप्न भी नींद में विघ्न डालते हैं। यही कारण है कि मनुष्य की सम्पूर्ण सन्तुष्टि के साथ अच्छी और गहन निद्रा का समय अत्यन्त थोड़ा होता है। छह घण्टे की नींद जो स्वप्न, आलस्य और तन्द्रा से बाधित हो, उसके स्थान पर एक घण्टे की गहन निद्रा मनुष्य को अधिक विश्रान्ति प्रदान करती है।
नींद के समय में भोजन की भूमिका भी महत्त्वपूर्ण है। एक पेटू मनुष्य निद्रालुता का अनुभव करता है। वह आठ बजे तक शय्या छोड़ना पसन्द नहीं करता। वह आलस्य से परिपूर्ण रहता है। एक मिताहारी मनुष्य शीघ्र ही शय्या त्याग देता है। वह थोड़ी किन्तु गहरी नींद से सन्तुष्ट रहता है।
पशु भी सोते हैं। विभिन्न पशुओं में निद्रा की अवधि भिन्न-भिन्न होती है। कुत्ते बहुत कम सोते हैं। वे बाधित निद्रा का अनुभव करते हैं। मछलियाँ बिलकुल नहीं सोतीं ।
गहन और स्वप्नों से रहित निद्रा हेतु मानसिक शान्ति, चिन्ता, भय, व्याकुल बना लेना और जीवन में उत्तरदायित्वों की अनुपस्थिति और रोगों से मुक्ति — ये सभी सहायक हैं। जो शिथिलीकरण क्रिया को जानता है, उसे बिस्तर में लेटने के साथ ही तुरन्त गहरी नींद आ जाती है। रात के समय हलका भोजन लें। दूध और फल । रात को चावल न खायें। प्राणायाम का अभ्यास करें। आप अपनी नींद को कम कर सकेंगे और आपके स्वास्थ्य पर भी कोई हानिकारक प्रभाव नहीं पड़ेगा।
यदि आप गहरी नींद सो पायें, तो आप नींद की समयावधि को कम करके उस समय का उपयोग अन्य उपयोगी कार्यों में कर सकते हैं। यदि आप गहरी नींद का समय घटा सकें, तो आप अपनी साधना में अधिक समय दे सकते हैं। यदि आप दो घण्टे की नींद कम कर सकें, तो आप इस समय का सदुपयोग जप और ध्यान में कर सकते हैं। आठ-दस घण्टे की स्वप्नों से पूर्ण निद्रा से छह घण्टों की गहन निद्रा अधिक श्रेष्ठ है।
ऐसे लोग हैं जिन्होंने नींद पर विजय पायी, उन्हें गुडाकेश कहते हैं। अर्जुन और लक्ष्मण गुडाकेश थे। नेपोलियन बोनापार्ट का नींद पर आधिपत्य था । वह युद्धभूमि में भी अच्छी नींद सोने का आदी था। वह एकदम निश्चित समय तक सो सकता था। पाँच या दस मिनट की गहन निद्रा उसे अगले कार्य के लिए उत्साह से भर देती थी।
महात्मा गान्धी का भी नींद पर पूर्ण नियन्त्रण था। उन्हें श्रेष्ठ, गहन और स्वप्नों से रहित निद्रा प्राप्त थी। वे बहुत थोड़े-से समय के लिए सोते थे और एक निश्चित समय पर जग जाते थे और अपने दैनिक कार्यों को करने लग जाते थे
ऑफिस में काम करने वाले बाबू की तुलना में एक किसान या परिश्रमी मजदूर अधिक गहरी नींद सोता है; क्योंकि कठिन श्रम के कारण शरीर और मन थक जाते हैं, जब कि प्रथम विषय में ऐसा नहीं होता। शारीरिक थकावट से मानसिक थकान भी हो जाती है। शारीरिक श्रम कम और मानसिक श्रम अधिक करने वाले व्यक्तियों को नींद कम आती है। कुछ लोगों में शरीर की तुलना में मन कम थकता है। सारे दिन काम करने वाले कुली को अधिक नींद की आवश्यकता होती है। वह गहरी नींद सोता है। जब आप सपने देखते हैं, मन को विश्राम नहीं मिलता। मन जाग्रत अवस्था के अनुभवों के काल्पनिक प्रतिरूपों से खेलता रहता है। इसलिए यदि आप नींद में पूरा आराम चाहते हैं, तो यह आवश्यक है कि आप सपनों से मुक्ति पा लें। यदि आप सपनों से बचना चाहते हैं, तो आपको अपने मन की चिन्ताओं, व्यग्रताओं तथा आकुलताओं से मुक्त और ईश्वर भक्ति एवं वैराग्य से परिपूर्ण रखना होगा।
जब मन व्यर्थ के विचारों में लगा रहता है, तो शीघ्र नहीं थकता । यह हवाई महल बनाता रहता है। एकाग्र मन शीघ्र ही थक जाता है। कठिन परिश्रम करने से शरीर शीघ्र ही थक जाता है। मन निद्रा में मुख्य कारक है। निद्रा शरीर और मन दोनों के लिए होती है। यदि शरीर थका हो और मन सोना नहीं चाहता हो, तो नींद नहीं आयेगी।
जब हम सोने जाते हैं, तो सर्वप्रथम हमारे शरीर पर यह प्रभाव होता है। कि हमें लेटना पड़ता है। उसके बाद हम आँखें बन्द करते हैं। जब हमारे ऊपर नींद का आधिपत्य हो जाता है, तो आवाजें अदृश्य हो जाती हैं, मन अन्तर्मुखी हो जाता है। प्रथम अवस्था में हम आवाजों को सुनते और बातों को समझते हैं। बाद में आवाजें तो सुनायी देती हैं, किन्तु हम उनके तात्पर्य को ग्रहण नहीं कर पाते। फिर धीरे-धीरे ध्वनियाँ भी समाप्त हो जाती हैं और हम बाह्य जगत् और शरीर की चेतना से परे चले जाते हैं। इसी क्रम से मन पहले अर्ध-चेतनावस्था में आता है, फिर उसके बाद जाग्रत अवस्था में। आकाश से वायु जन्म लेती है, वायु से अग्नि, अग्नि से जल, जल से जीवन और स्वास्थ्य। गहन निद्रा में इन्द्रियों के लय तथा पुनः जाग्रत अवस्था में आने के लिए भी यही क्रम रहता है।
जब तक मन शरीर के आराम पर केन्द्रित रहता है, नींद नहीं आती। अस्वस्थ मनुष्य को नींद न आने का यही कारण है। रोग उसके मन को शरीर के विषय में अधिक सोचने के लिए विवश करता है। उसे शरीर के दर्द की जितनी अधिक चेतना होगी, नींद उतनी कम होगी; किन्तु उन रोगों में जिनमें दर्द समयान्तराल से या रुक-रुक कर होता है, रोगी बीच-बीच में सोता रहता है।
निद्रा का विश्लेषण चेतना के पूर्ण अभाव तथा पूर्ण शिथिलीकरण द्वारा किया जा सकता है। जब मनुष्य सोता है, तो शरीर और मन दोनों पूर्ण विश्राम करते हैं। मन हृदय की हिता नाड़ी में विश्राम करता है और आत्मिक आनन्द का उपभोग करता है। विभिन्न क्रियाविधियों में व्यय होने वाली ऊर्जा की निद्रा में क्षति पूर्ति हो जाती है। इसलिए नींद लेना बहुत आवश्यक है। बिना नींद के नाड़ियाँ कमजोर हो जायेंगी, विभिन्न अंग क्षीण हो जायेंगे और शरीर शीघ्र ही नष्ट हो जायेगा ।
निद्रा रात्रि के समय अधिक विश्रान्ति प्रदान करती है; क्योंकि तब बाधा डालने वाली आवाजें नहीं होतीं। मन भी दिन के श्रम के कारण थका रहता है। रात प्राकृतिक रूप से सोने का समय है। दिन काम के लिए बना है। जब हम प्रकति के नियमों के अनुरूप चलते हैं, तो हम स्वस्थ और प्रसन्न रहते हैं। प्रकृति के नियमों का उल्लंघन करने के भयंकर हानिकर परिणाम होते हैं।
युवा मनुष्य की तुलना में बच्चा अधिक समय तक सोता है। जैसे-जैसे आयु बढ़ती है, नींद कम हो जाती है। यह शारीरिक अंगों की अक्षमता के कारण होता है।
जब बैठी हुई अवस्था में नींद आप पर आधिपत्य कर लेती है, तो शरीर की प्रवृत्ति लेट जाने की होती है। शरीर नीचे खिसक जाता है। सिर लटक जाता है। ऐसा इसलिए होता है; क्योंकि मन काम नहीं करता। इसलिए तब पेशियों के मध्य सामंजस्य नहीं रहता। मन भौतिक शरीर से अपने सम्बन्ध तोड़ लेता है, इसलिए शरीर नीचे गिर पड़ता है।
प्रत्येक व्यक्ति स्वयं से अत्यधिक प्रेम करता है। व्यक्ति निद्रा में अचेतन रहता है। निद्रा की अवधि में जीव को रेंगने वाले प्राणियों और अन्य जीव-जन्तुओं से हानि का पूर्वानुमान रहता है। इसलिए वह ऐसे स्थान की खोज करता है जहाँ वह खतरे से मुक्त रहे। उसे अच्छे वातावरण—जैसे अच्छा स्थान, नर्म बिस्तर आदि की आवश्यकता रहती है। ईश्वर की माया अत्यन्त गूढ़ है।
आप सभी जाग्रत निद्रा, तुरीयावस्था या चतुर्थ अवस्था, जो तीनों अवस्थाओं से श्रेष्ठ है, जहाँ न तो जगत् है न शरीर, न जाग्रत, न स्वप्न, न सुषुप्ति - उस निद्रा में विश्राम करें।
जिस प्रकार एक चिड़िया अपने भोजन की खोज में प्रातः काल से आकाश में ऊँची उड़ती है और उच्च स्थानों में इधर-उधर घूमती है एवं रात के समय अपने घोंसले में पूर्ण विश्राम करती है, उसी प्रकार जीव या जीवात्मा सारे दिन इन्द्रिय-वस्तुओं के घने वन में घूमने के बाद अपने गृह कारण शरीर में जाता है और सुषुप्ति या गहन निद्रा के आनन्द का उपभोग करता है।
मन दिन-भर कठिन परिश्रम करता है जिससे वह अपनी इच्छित वस्तु को प्राप्त कर सके। वह राग और द्वेष—दोनों वृत्तियों द्वारा इधर-उधर भेजा जाता रहता है, इसलिए वह थक जाता है। प्रकृति रात के समय उसे अपनी गोद में ले कर जाती है जिससे उसकी थकी नाड़ियों और मस्तिष्क को शान्ति मिले, उसे विश्रान्ति प्राप्त हो और उसे ऊर्जा और शक्ति से सम्पन्न करती है जिससे वह अगले दिन की गतिविधि कर सके।
वेदान्तियों ने निद्रा का गहन अध्ययन करके सर्वानन्दमयी आत्मा जो सुषुप्ति अवस्था की मूक साक्षी है, उसके बारे में निष्कर्ष दिये। गहन निद्रा में मन बीज-रूप को ग्रहण कर लेता है, संस्कार और वासनाएँ सुप्त हो जाती हैं। मन जो जाग्रत अवस्था में क्रियाशील रहता है, वह सुषुम्ना नाड़ी से आत्मा में चला जाता है और विश्राम करता है। चैतन्यता या बुद्धि जो गहन निद्रा की स्थिति से जुड़ी रहती है, वह है प्रज्ञा गहन निद्रा में कारण शरीर या बीज शरीर या आनन्दमय कोष कार्य करता है, जीवात्मा के बहुत पास रहता है। अज्ञानता का पतला-सा आवरण उसे आत्मा से पृथक् करता है। जैसे-जैसे अज्ञानता का यह आवरण हटता है और वह ब्रह्म का साक्षात्कार करता है और जीवात्मा आनन्द का उपभोग करता है। समस्त मनों के मूक साक्षी से मन, प्राण, इन्द्रियाँ और शरीर अपनी शक्ति प्राप्त करते हैं। यह आत्मा है जो वास्तव में इन्द्रियों, मन, शरीर और कार्य करने वाली प्रकृति को चलाती है। इसीलिए आत्मा सर्वकर्ता और अकर्ता, सर्वभोक्ता तथा अभोक्ता है।
निद्रा प्राकृतिक शक्तिवर्धक है जो स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है। व्यक्ति जितनी गहरी नींद सोयेगा, वह उतना अधिक स्वस्थ होगा। थकान को दूर करने की आपकी शारीरिक और मानसिक योग्यता पर ही आपकी नींद की अवधि निर्भर करती है। अगर आपकी नींद पूरी नहीं होगी, तो आप काम दक्षतापूर्वक नहीं कर सकेंगे। नींद की मात्रा आयु, स्वभाव और श्रम के ऊपर निर्भर करती है। एक पुरानी कहावत के अनुसार पुरुष के लिए ६ घण्टे, स्त्री के लिए ७ घण्टे और मूर्ख के लिए ८ घण्टे की नींद आवश्यक होती है। एक बच्चे के लिए १० घण्टे की नींद आवश्यक होती है। साठ वर्ष के वृद्ध व्यक्ति के लिए ६ घण्टे की नींद पर्याप्त है। वे प्रौढ़ व्यक्ति जो भारी कार्य करते हैं, वे आठ घण्टे सो सकते हैं। चिकित्सक और मनोवैज्ञानिक आजकल निद्रा के प्रश्न पर बहुत ध्यान दे रहे हैं।
प्रत्येक के लिए ६ घण्टे की नींद पर्याप्त है। १० बजे रात को सोने जायें और ४ बजे प्रातः उठ जायें। “जल्दी सोना और जल्दी जागना मनुष्य को स्वस्थ, समृद्ध और बुद्धिमान् बनाता है।” नेपोलियन बोनापार्ट मात्र चार घण्टे की नींद में विश्वास रखता था। बहुत अधिक सोने से मनुष्य आलसी और सुस्त हो जाता है। जो आवश्यक है, वह है निद्रा का स्तर। यदि आप एक या दो घण्टे स्वप्न-रहित गहरी नींद सो लें, तो आप पूर्ण विश्रान्त हो जायेंगे । घण्टों बिस्तर में लेटे रह कर करवटें बदलते रहने से 1 कोई लाभ नहीं होगा। बहुत अधिक सोने से पूर्वकालिक क्षय और मस्तिष्क की शक्ति क्षीण होती है।
देर रात को न सोयें। जब आप सोयें, अपने सोने के कमरे की सारी खिड़कियाँ और दरवाजे खोल दें। नींद समय आप जितनी अधिक प्राणवायु भीतर लेंगे, अगले दिन आप उतनी अधिक विश्रान्ति का अनुभव करेंगे। नींद लाने हेतु किसी औषधि का प्रयोग न करें। यदि आपको स्वाभाविक रूप से नींद न आती हो, शान्त मन से १५ मिनट खुली हवा में घूमने चले जायें; फिर सोने जायें। आपको निश्चय ही विश्रान्तिदायक निद्रा आयेगी।
रात्रि में पाचन अंग शान्तिपूर्वक और निर्बाध रूप से कार्य करते हैं; इसलिए रात के समय आपको हलका भोजन ग्रहण करना चाहिए, चाय या तेज काफी नहीं लेनी चाहिए। बायीं करवट लेट कर सोना चाहिए। यह आमाशय को रिक्त करने में सहायक है। इससे सूर्य नाड़ी या पिंगला नाड़ी चलने लगती है। प्रतिदिन एक निश्चित समय पर सोने जायें। ढीले और हलके कपड़े पहनें। भारी कम्बल न ओढ़ें।
जब आप सोने जायें, अपने मन तथा शरीर को शिथिल रखें। कुछ प्रार्थना या गीता और उपनिषद् के पवित्र श्लोक पढ़ें। दस मिनट तक माला फेरें तथा ईश्वर और कुछ दिव्य गुणों का ध्यान करें। हवाई किले न बनायें। अभी योजनाएँ न बनायें, कल्पनाएँ न करें। यदि आपके मन में किसी के प्रति बुरा अनुभव या दुर्भावना है, तो उसे भूल जायें। मात्र सुखदायक और स्वच्छ विचार रखें।
सारी रात जागते रहना रात्रि जागरण कहलाता है। यदि आप वैकुण्ठ एकादशी, शिवरात्रि, गोकुल अष्टमी, भगवान् कृष्ण के जन्म-दिवस (जन्माष्टमी) पर रात्रि जागरण करेंगे, तो आपको अगणित लाभ होंगे। आप प्रत्येक एकादशी पर भी जागरण कर सकते हैं। पूर्णोपवास निद्रा के नियन्त्रण में भी सहायक हैं। निद्रा के नियन्त्रण हेतु चाय आवश्यक नहीं है। यदि आप बाह्य औषधि पर निर्भर रहेंगे, तो आप आध्यात्मिक लाभ प्राप्त नहीं कर सकेंगे।
आपका आधा जीवन निद्रा में व्यर्थ नष्ट हो जाता है । वे आध्यात्मिक साधक जो कठोर साधना करना चाहते हैं, उन्हें अपनी निद्रा की अवधि में धीरे-धीरे कमी करनी चाहिए। वे ध्यान के द्वारा यथार्थ विश्राम प्राप्त कर सकते हैं। प्रथम तीन माह तक उन्हें अपनी नींद की अवधि आधा घण्टे कम करनी चाहिए। रात को १०.३० बजे सोने के लिए जायें और प्रातः चार बजे उठें। ४ घण्टे की नींद पर्याप्त है। आपको दिन में नहीं सोना चाहिए। एक समय के बाद आप अर्जुन और लक्ष्मण की भाँति गुडाकेश (नींद को जीतने वाले) बन जायेंगे और योगियों की भाँति सर्वानन्दमयी, जाग्रत निद्रा निर्विकल्प समाधि में विश्राम करेंगे।
जीवात्मा या कूटस्थ ब्रह्म का चिन्तन और मन का चिन्तन —दोनों ही अभिन्न रूप से एक-दूसरे से जुड़े हैं। मानव-प्राणी में मन की वृत्तियों के निर्माण के बाद उसे जीवात्मा नाम दिया गया है। वृत्तियों के निर्माण के पूर्व कोई जीव नहीं होता। मन वृत्तियों से ढका, घिरा हुआ और पूरित है। वासना के बल से जीव और मन इन्द्रिय-विषयों में घूमता रहता है। बिना मन के कोई जीव नहीं होता।
निद्रा में जीव मन के साथ प्रकृति अथवा कारण शरीर में विश्राम करता है। विक्षेप-शक्ति जो कि बहुत से मानसिक उद्वेलनों का कारण है. वह निद्रा की अवधि में जीव के भीतर कार्य नहीं करती। किन्तु मन अभी भी आवरण या अज्ञानता से ढका रहता है। वह शान्त रहता है; क्योंकि तब विक्षेप-बल का अभाव रहता है, इस समय उसे इधर-उधर नहीं घसीटा जाता। कारण शरीर ही आनन्दमय कोष है। इस कारण जीव निद्रा में आनन्द का उपभोग करता है। वह आनन्दमय पुरुष है। वह प्रज्ञा है। यह एक प्रकार का दृष्टिकोण है।
नींद के समय मन अन्य विषयों पर विचार नहीं करता। मन पहले हृदय नाड़ी में, फिर हृदयावरण में, फिर आन्तरिक हृदय में प्रवेश करके अन्त में मुख्य प्राण में विश्राम करता है। जीवात्मा हृदयाकाश में प्रवेश करके कूटस्थ ब्रह्म में विश्राम करता है। वह स्वयं ब्रह्म में, आनन्द में लीन हो जाता है। वह ब्रह्म में अपने सच्चिदानन्दस्वरूप में डुबकी लगा कर उसी प्रकार आनन्दित होता है जैसे तीर्थयात्री पवित्र प्रयाग में डुबकी लगा कर प्रसन्न होते हैं। यह दूसरे प्रकार का दृष्टिकोण है।
यह एक सामान्य प्रश्न है कि सोते समय कौन-सा सिद्धान्त कार्य करता है जो आत्मा या जाग्रत जीव में इसका स्मरण छोड़ देता है कि उसने गहरी नींद का आनन्द उठाया। इसका सादा-सा उत्तर यह है कि यह वह अज्ञात आत्मा है जिसे कूटस्थ कहते हैं।
यह विरोध इस आधार पर किया जा सकता है कि वहाँ परस्पर मिथ्या धर्म (परस्पर अध्यास) होता है। कूटस्थ जो जीव के साथ अवर्णनीय रूप से मिश्रित है, फिर भी उससे भिन्न है, वह जीव की आन्तरिक आत्मा है और इसी कारण जीवात्मा जो स्रष्टा के साथ एक होना चाहता है, उसके अनुभव जीव को स्मरण रखने हेतु प्रेरित करते हैं।
यहाँ भी विरोध हो सकता है कि जीवात्मा अथवा कूटस्थ द्वारा निद्रा के आनन्द का स्मरण जीव के निद्रा के आनन्द की स्मृति का कारण नहीं हो सकता। इसमें यह कहना ज्यादा न्यायोचित होगा कि यह स्मरण उस साक्षी के कारण रहता है जो कि जाग्रत, स्वप्न और निद्रा तीनों में उपस्थित रहता है।
जैसे ही आप नींद से जागते हैं, आप कहते हैं— 'मैं पिछली रात बहुत अच्छी नींद सोया, मैंने इसका हृदय से आनन्द उठाया वहाँ बड़ी ठण्ढी हवा थी।' यहाँ कौन-सा सिद्धान्त है जो कह रहा है कि मुझे अच्छी नींद आयी ? और इसका दूसरा कौन-सा सिद्धान्त है जो कहता है कि 'मैं कुछ नहीं जानता।' एक ही विचारधारा के लोगों का उत्तर होगा –“अविद्या वृत्ति कहती है, मैं कुछ नहीं जानता।” शारीरिक उपनिषद् के अनुसार, "जाग्रति वह स्थिति हैं जिसमें चौदह अंग कार्य करते हैं—पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच ज्ञानेन्द्रिय और चार आन्तरिक अंग । स्वप्न वह स्थिति है जो चारों आन्तरिक अंगों से सम्बद्ध है । सुषुप्ति वह स्थिति है जहाँ मात्र चित्त ही अंग होता है। तुरीयावस्था वह स्थिति है, जहाँ मात्र जीव होता है।" यह इस सिद्धान्त की सूक्ष्म क्रियाविधि है जिससे कि गहन निद्रा में सभी संस्कार भी सुप्त हो जाते हैं। इसलिए चित्त ही वह मूल है जो गहन निद्रा के आनन्द का स्मरण रखता है। गहन निद्रा के सुखों की स्मृति ज्ञान का श्रेय मूल तत्त्व चित्त को जाता है जो गहन निद्रा में सदा कार्य करता है। यह तीसरा दृष्टिकोण हुआ ।
निद्रा का अर्थ है समस्त अंगों द्वारा विश्राम । निद्रा प्रकृति का स्वास्थ्यवर्धक कारक है। यह थके हुए मस्तिष्क, नाड़ियों और शरीर को प्रचुर ऊर्जा और विश्राम प्रदान करती है। निद्रा नाड़ी -बल का नवीन संग्रह करके नष्ट हुई कोशिकाओं की पुनः क्षति पूर्ति करती है। नींद स्वयं ऊर्जा का निर्माण करने वाली है तथा शक्ति जन्म देती है। जब आप सोये होते. हैं, तब भी आपका मूल तत्त्व सदा जाग्रत रहता है। वह तीनों अवस्थाओं जाग्रत, स्वप्न और गहन निद्रा का मूक साक्षी है। वह प्रत्येक वस्तु का स्रोत, कारण, आश्रय और अवलम्ब है। वह देवताओं का स्वामी है। वह सबकी आत्मा है। मन निद्रा में उसमें विश्राम करके शक्ति, नवीन ऊर्जा और शान्ति प्राप्त करता है।
काम के समय चाहे पैर विश्राम कर रहे हों, नाड़ियों को काम करना होता है। उन्हें इस कारण शिथिलीकरण की आवश्यकता होती है। शिथिलीकरण स्वास्थ्य हेतु आवश्यक है। नींद हमें यह शिथिलीकरण प्रदान करती है। नींद से पूर्ण शिथिलीकरण होता है।
नवजात शिशु सोता ही रहता है। कुछ दिनों तक बच्चा दिन में मात्र दो घण्टे ही जागता है। पाँच वर्ष की आयु तक बच्चा ८ से १० घण्टे तक सोता है। एक पूर्ण वयस्क पुरुष को ६ घण्टे की नींद की आवश्यकता होती है। स्त्री के लिए ७ घण्टे की नींद पर्याप्त है। किशोर वय के बच्चे के लिए ७ से ८ घण्टे की नींद पर्याप्त रहती है। नींद में स्वप्न दिखायी दें या नींद बाधित हो, तो पूर्ण शिथिलीकरण नहीं प्राप्त होता । चालीस वर्ष की आयु के पश्चात् नींद कम हो जाती है।
ऐसे कई मनुष्यों के उदाहरण हैं जो बहुत कम सोने के बाद भी उन लोगों की तुलना में अधिक स्वस्थ और फुर्तीले हैं जो अधिक सोते हैं। स्केलिज़र जो एक महान् फ्रेंच विद्वान् थे तथा शेक्सपियर के समकालीन थे, तीन घण्टे सोते थे। वेलिंग्टन और सर हेनरी थॉम्पसन प्रसिद्ध चिकित्सक थे और अस्सी वर्ष की आयु तक जीवित रहे। दोनों ने ही यह जाना कि चार घण्टे की नींद पर्याप्त होती है। इसी प्रकार एडीसन भी ३० तक तीन घण्टे ही सोते थे।
नींद विश्राम हेतु आवश्यक है; अतः इसके लिए कड़े नियमों से नहीं चला जा सकता। यह अधिकतर मनुष्य की थकान दूर करने की शारीरिक और मानसिक योग्यता पर निर्भर करती है। नींद व्यक्ति की प्रकृति, किये गये कार्य की मात्रा तथा उसके प्रकार पर निर्भर करती है। जो पूर्ण वयस्क हैं, उन्हें स्वयं ही अपने लिए आवश्यक नींद का निर्णय लेना चाहिए। "शीघ्र सोना और शीघ्र जागना मनुष्य को स्वस्थ, समृद्ध और बुद्धिमान् बनाता है।" इस बुद्धिमत्तापूर्ण उक्ति से दृढ़तापूर्वक लगे रहिए।
सोते समय सिर पूर्व में रखें। उत्तर की ओर सिर करके कभी न सोयें। आप अपना सिर पश्चिम की ओर करके भी सो सकते हैं। सोते समय मुँह न ढाँकें ।
दिन के समय नहीं सोना चाहिए। विशेषकर भोजन के बाद सोने से अपच और यकृत रोग हो सकते हैं।
खुले स्थान में सोने की आदत बहुत ही लाभदायक है। यदि आप सारी मांसपेशियों, मस्तिष्क और नाड़ियों को शिथिल कर सकें, तो आपको बिस्तर में लेटते ही तत्क्षण नींद आ जायेगी।
आपको यदि इस क्रिया का भली-भाँति ज्ञान है, तो आप काम करते भी विश्राम ले सकते हैं। जब बहुत से लोग बातें कर रहे हों, हँस रहे हों, हुए बैण्ड बज रहे हों, तो आप आरामकुर्सी पर बैठे-बैठे ही झपकी ले सकते हैं। कुछ क्षणों के शिथिलीकरण से आपके भीतर बहुत-सी ऊर्जा संग्रहित हो जायेगी। जो मानसिक रूप से शान्त है, वह किसी समय भी विश्राम कर सकता है, नींद ले सकता है। ज