ज्ञान गंगा

 

लेखक

श्री स्वामी शिवानन्द सरस्वती

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

प्रकाशक

 

डिवाइन लाइफ सोसायटी

पत्रालय : शिवानन्दनगर-२४९ १९२

जिला : टिहरी गढ़वाल, उत्तराखण्ड (हिमालय), भारत

www.sivanandaonline.org, www.dlshq.org

 

 

 

 

 

 

 

 

प्रथम संस्करण-२००६

चतुर्थ संस्करण - २०२३

(२००० प्रतियाँ)

 

© डिवाइन लाइफ ट्रस्ट सोसायटी

 

परम श्रद्धेय गुरुदेव श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज के

 पुण्यतिथि आराधना दिवस की ६०वीं वर्षगाँठ के

पावन अवसर के उपलक्ष्य में प्रकाशित

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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' डिवाइन लाइफ सोसायटी, शिवानन्दनगर' के लिए

स्वामी पद्मनाभानन्द द्वारा प्रकाशित तथा उन्हीं के द्वारा

'योग-वेदान्त फारेस्ट एकाडेमी प्रेस,

पो. शिवानन्दनगर, जिला टिहरी-गढ़वाल, उत्तराखण्ड,

पिन २४९ १९२' में मुद्रित।

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ज्ञान गंगा की लहरें

 

सेवा करो, स्नेह करो, देते रहो, शुद्ध रहो, ध्यान करो,

अनुभव का संकलन करो, अच्छे रहो,

अच्छा करो, उदार बनो, कारुणिक बनो,

मैं कौन हूँ जानने की चेष्टा करो, अपने स्वयं को समझो

और स्वतन्त्र रहो। तुम यह शरीर नहीं हो,

तुम यह मस्तिष्क नहीं हो, तुम स्वयं अमरत्व हो।

 

-स्वामी शिवानन्द

 

 

 

 

 

 

 

 

ज्ञान गंगा की लहरें

 

. छह आधारभूत क्रमशः शब्द हैं जिन्हें आप सबको स्मरण रखना चाहिए-

 

सेवा करो, स्नेह करो, देते रहो, शुद्ध रहो, ध्यान करो तथा अनुभव का संकलन करो। यह शब्द वस्तुतः

सभी धर्मों के पावन ग्रन्थों के मूल तत्त्व हैं।

 

. ईश्वर अथवा प्रकृति के नियमों को जानना तो अच्छा है ही, परन्तु इतना ही पर्याप्त नहीं है। तुम्हें उन्हें जीवन में उतारने की भी कला आनी चाहिए।

 

. जो तुम्हारे पास में है उसे प्रयोग में लाओ और जो तुम्हारे पास है वह विकसित होता रहेगा।

 

. प्रत्येक समस्या के साथ उसका निदान भी पैदा होता है। इसलिए समस्याओं के उठने पर अधीर मत हो।

 

. समस्यायें जीवन और विचार शक्ति के लिए स्वाद उत्पन्न करती हैं, समस्यायें आपके लिए वरदान हैं। समस्या साहसिक कार्यों के लिए चुनौती के रूप में आती हैं।

 

. धक्का, उत्पीड़न और व्यथा से मानव को जो शिक्षायें प्राप्त होती हैं वह किसी और साधन से नहीं।

 

. असफलता को और भी उद्योगशील होने की प्रेरणा के रूप में स्वीकार करो तथा निर्भय हो कर शान्ति और दृढ़ता के साथ अपने मार्ग पर बढ़ते जाओ, आपको अत्यधिक सफलता मिलेगी।

 

. स्थूरण से शान्ति, स्थिरता और सहनशीलता सीखो

 

. मानव वह जन्तु है जो आशा करता है, आशा ही मानव की आकांक्षा अथवा लालसा रही है, आशा ही उसे कार्यरत, प्रयत्नरत्, आकांक्षारत् और प्रार्थनारत् रखती है।

 

१०. हिमालय की ध्वनि भारतीय ऋषियों की ध्वनि है, जो असंख्य प्राणियों को प्रेरणा, आह्लाद, शक्ति और शान्ति प्रदान करती रहेगी।

 

११. हिमालय के एकान्त में कुछ ऐसा तत्त्व है जो बड़े विशाल नगरों को वृहत् बीथियों से कहीं अधिक प्रिय और उन्नत है।

 

१२. एकान्त उच्च दैवी विचारों को प्रदान करता है।

 

१३. प्रकाश एक लाख छियासी हजार मील प्रतिपल से भी अधिक गति से दौड़ता है। सूर्य का प्रकाश पृथ्वी तक पहुँचने में लगभग साढ़े आठ मिनट लेता है। सूर्य और पृथ्वी के मध्य का अन्तर लगभग नौ सौ बीस लाख मील है। निकटतम तारिका से हम सब तक प्रकाश पहुँचने में लगभग तीन वर्ष लग जाता है, ध्रुव तारे से पृथ्वी तक प्रकाश पहुँचने में तीन वर्ष लगते हैं। अतएव हे मानव देश और काल के आश्चर्यों पर मनन करो। इस प्रकार उस रचयिता को पहचानने की तथा अनुभव ग्राह्य करने की चेष्टा करो जो महानतम आश्चर्य अथवा आश्चर्य का भी वास्तविक आश्चर्य है।

 

१४. जब तक जीवित हो सीखने की ही आकांक्षा रखो, सदैव विद्यार्थी ही बने रहो।

 

१५. भावुक व्यक्ति भावना पर ही जीता और मरता है, अतः भावना को बुद्धि तत्त्व से नियन्त्रित रखो।

 

१६. अपनी धारणा के अनुसार कार्य करने का साहस रखो।

 

१७. सुख की अवधि में प्रसन्न एव प्रफुल्ल रहना सर्वथा सुलभ है, किन्तु दुःखद परिस्थितियों में जो व्यक्ति प्रसन्न रहता है वही बधाई और सराहना का पात्र होता है।

 

१८. थोड़ा अध्ययन अधिक चिन्तन, थोड़ा बोलना और अधिक सुनना ही बुद्धिमत्ता के मार्ग पर चलना है। आप अपने विगत के उत्तराधिकारी हैं।

 

१९. ईश्वर ने आपको इस उद्देश्य से दो कर्ण, दो नेत्र तथा एक जिह्वा दी है कि आप बोलने की अपेक्षा श्रवण और अवलोकन अधिक करें।

 

२०. आप अपने विगत की सन्तान हैं तथा अपने भविष्य के जनक हैं।

 

२१. ज्ञान को उपासना से तथा विज्ञान को आध्यात्मिकता से सायुज्य होना चाहिए।

 

२२. जहाँ उत्साह, सरलता तथा विश्वास की दृढ़ता है वहाँ सभी सहायता और सफलता निश्चित ही मिलती है।

 

२३. साधन और साध्य अविभाज्य हैं।

 

२४. पुरुषार्थ ही मूल्य है, धर्म नैतिक मूल्य है, मोक्ष उच्चतम आध्यात्मिक मूल्य है, अर्थ भौतिक मूल्य है, काम वैयक्तिक सुखवादी अथवा मनोवैज्ञानिक मूल्य है।

 

२५. सही क्षण पर सही विचार ग्रहण करो।

 

२६. चार व्यक्ति ईश्वर को अपनी जेब में रखता है और सरिय प्राणी अपने हृदय में।

 

२७. जितने प्राणी हैं उतने ही मत हैं, अत: अपनी धारणा चनाओ।

 

२८. प्रत्येक व्यक्ति को उसके स्वभाव, उसकी क्षमता तथा उसकी विचार पद्धति के अनुसार ही उपयुक्त वस्तु दो।

 

२९. अपने कान सबको दो किन्तु अपनी वाणी कुछ को ही।

 

३०. जीवन आन्तरिक परतों का खुलना है। जीवन आपको अपनी अभिव्यक्ति और विकास की सामग्री प्रस्तुत करता है।

 

३९. ईश्वर को अपने जीवन का ध्रुव तारा बनाओ। अपनी सारी वैयक्तिक आकांक्षाओं का परित्याग करो तथा उसे ही प्राप्त करने का प्रयास करो।

 

३२. जो सुखकर लगता है वह उच्चतम प्रसन्नता का मार्ग नहीं बन सकता।

 

३३. सुख की आकांक्षा मानव में सन्निहित है क्योंकि मानव मूलतः स्वयंमेव प्रसन्नता है।

 

३४. मानव सरल जीवन से सन्तुष्ट नहीं रहता। वह महत्त्वाकांक्षी, प्रतिस्पर्धी और ईर्ष्यालु है।

 

३५. मानव शीघ्र ही अपनी प्राप्त वस्तु से थक जाता है और जो अप्राप्त है उसके लिए आकांक्षी रहता है।

 

३६. धन शक्ति जो मानव में उच्चता का भाव लाती है वह मूर्खता पूर्ण ढंग से तुच्छ है।

 

३७. मानव का वास्तविक स्वभाव दैवी है। अतः मानव जीवन का यही लक्ष्य है कि उस ईश्वरत्व का प्रस्फुटन और अभिव्यक्त करें।

 

३८. जिस सृष्टा ने आपको जगत् में भेजा है, उसी के लिए जीओ और उसी को समझो।

 

३९. त्याग ही मोक्ष अथवा मुक्ति के द्वार को मुक्त करता है।

 

४०. त्याग का जीवन प्रारम्भ में अनेक असुविधायें देता है किन्तु दीर्घ यात्रा के अन्त पर इसके द्वारा मानव अमरत्व तथा स्थायी आनन्द की प्राप्ति करता है।

 

४१. मन में किसी प्रकार की आकांक्षा रखना ईश्वर की अनुरूपता है और जितनी कम-से-कम कामना उठती है उतना ही आप ईश्वर से नैकट्य प्राप्त करते हैं।

 

४२. आप उस ईश्वर की सन्तान हैं जो समस्त संसार का सम्राट है। अतः धन, ख्याति और सम्मान को प्राप्त करने की चेष्टा से क्या आप अपने को लज्जित नहीं करते हैं? क्या आप अब बुद्धिमत्ता, सत्यता और पूर्णत्व के लिए चेष्टा नहीं करेंगे?

 

४३. भोजन से तात्पर्य यह नहीं है कि हम क्या खाते हैं, वरन् हम अपनी इन्द्रियों द्वारा क्या एकत्रित करते हैं। सर्वत्र ईश्वर को देखने की कला सीखो, यही नेत्रों का वास्तविक आहार है।

 

४४. मस्तिष्क की शुद्धता आहार की शुद्धता पर निर्भर करती है।

 

४५. विचार स्वातन्त्रय रखो तथा अपने को पक्षपातपूर्ण निर्णय की दासता से मुक्त करो क्योंकि यह बुद्धि को कुंठित करती है और विचारों को मन्द करती है।

 

४६. जब मस्तिष्क पूर्णतया शान्त होता है और किसी प्रकार की कामना, प्रेरणा, किसी प्रकार की तृष्णा, आकांक्षा अथवा विचार नहीं होता है और किसी प्रकार की विवशता अथवा आशा नहीं रहती है तब हमारे अभ्यन्तर में उच्च आत्मा का प्रकाश उठता है। यही आनन्द दी अनुभूति है।

 

४७. सन्तों की ही भाँति जीवनयापन करो। यही एकमात्र मार्ग मस्तिष्क तथा अपने तुच्छ स्वरूप पर विजय प्राप्त करने का है और जब तक आप मस्तिष्क पर विजय प्राप्त नहीं कर लेते हैं तब तक कोई भी निश्चय और स्थायी विजय सम्भव नहीं है।

 

४८. अपने विचारों की देखरेख करो, अपने विचारों को नियन्त्रित करो, अपने विचारों के साक्षी बनो, अपने विचारों से ऊपर उठो और उस शुद्ध चेतना में रहो। जहाँ किसी प्रकार का विचार नहीं रहता है।

 

४९. आप अमर आत्मन् हैं इसी की अनुभूति करो और स्वतन्त्र हो।

 

५०. ज्ञान गंगा में डुबकी लगा कर शुद्ध हो जाओ।

 

५१. आपके भीतर ज्ञान गंगा का एक सतत स्रोत स्थल है। इसे स्वतन्त्र गति से बहने दो जिससे कि यह सारे संसार का पोषण कर सके।

 

५२. प्रत्यक्ष ज्ञान ही आत्मा की दृष्टि है। प्रत्यक्ष ज्ञान ही तत्कालिक ज्ञान है जो मध्यस्थ के ज्ञान का विरोधी है।

 

५९. वही सच्चे अर्थों में महान् व्यक्ति है जो अपने लिए नहीं वरन् दूसरों के लिए जीता है।

 

६०. सबसे अधिक ईश्वर से प्यार करो यही दैवी जीवन है।

 

६१. आप यहाँ पर केवल न्यासधारी हैं, ईश्वर ही स्वामी है।

 

६२. ईश्वर के साथ एकत्व स्थापित करके एक दैवी जीवन व्यतीत करो।

 

६३. समन्व्य के साथ रहना सीखो, दैवी जीवन के पथ पर चलो। मानव नियति के निर्माण में विचारधारा मौलिक कारक है।

 

६४. आप जो विगत में रह चुके हैं वही आपके वर्तमान का निर्धारण करता है।

 

६५. पृथ्वी की भाँति विनम्र रहो, आकाश की भाँति विशाल तथा सूर्य की भाँति सहानुभूतज्ञ रहो।

 

६६. ईश्वर की आपका शरणस्थल और दुर्ग है। वही आपके जीवन की शक्ति है।

 

६७. आपके विचार, आपकी अनुभूतियाँ तथा ईश्वर के सम्मुख आपका आत्मसमर्पण ही आपके जीवन के विकास का निर्धारण करता है।

 

६८. स्नेह के लिए जीओ, सेवा के लिए जीओ, प्रार्थना के लिए जीओ तथा ईश्वर का ध्यान और उसकी प्राप्ति के लिए जीओ।

 

६९, ईश्वर की अनुभूति का प्रथम पग सभी स्वार्थी आकांक्षाओं का परित्याग है।

 

७०. मानव के कामुक पक्ष की मृत्यु के उपरान्त ही दैवी पक्ष जीवित होता।

 

७१. आकाक्षायें चित्त की एकाग्रता की विरोधक हैं। वास्तविक एकाग्रचित्तता तब तक नहीं प्राप्त हो सकती जब तक मानव का मस्तिष्क आकांक्षाओं से भरा हुआ है।

 

७२. क्रोध, लोलुपता, ईर्ष्या और कामुकता सभी आकांक्षाओं के ही स्वरूप हैं।

 

७३. जब स्नेह होता है, तभी शान्ति और प्रसन्नता आती हैं।

 

७४. मानव और उद्वेग केवल इन्द्रीजन्य ज्ञान है। उन्हें स्नेह कभी भी नहीं कहा जा सकता।

 

७५. पृथ्वी की सारी शक्तियों में स्नेह महानतम हैं।

 

७६. विश्व प्रेम सभी धर्मों का सार है।

 

७७. स्नेह ही ईश्वर है। पृथ्वी पर स्नेह सबसे बड़ी शक्ति है। स्नेह कभी कुछ माँगता नहीं, यह सदैव दान ही करता है। स्नेह सदैव पीड़ायें झेलता है, स्नेह कभी भी अमर्ष नहीं दिखाता, स्नेह कभी खेद प्रकट नहीं करता, स्नेह कभी सौदा नहीं करता।

 

७८. स्नेह और सच्ची प्रसन्नता केवल समानता की ही जलवायु में विकसित होती हैं।

 

७९. ईश्वर मानव की स्नेह क्षमता पर ही निर्णय देता है।

 

८०. ईश्वर के प्रति स्नेह ही मानवीय स्नेह का आधार है, और यदि ऐसा नहीं है तो इसकी आधारशिला लुढ़कने वाली है।

 

८१. सभी में अपनी ही आत्मा की अनुभूति करो। मानवता के प्रति स्नेह की यही सच्ची आधारशिला है।

 

८२. सभी जीवन दैवी है और सभी स्नेह मूलत: दैवी स्नेह है।

 

८३. संसार ही ईश्वर है, संसार एक बड़ा परिवार है। ईश्वर हम सबका पिता है और हम सभी बन्धु हैं।

 

८४. इस निश्चित धारणा के साथ कि सभी में एक ही आत्मा का निवास है, सभी अवसरों पर मनुष्यों और अवमनुष्य की निःस्वार्थ सेवायें करते रहो।

 

८५. ईश्वर में आस्था रखो और उचित कदम उठाओ।

 

८६. जो कुछ भी होता है हमारी अच्छाई के लिए ही है, इस विश्वास के साथ काम करो कि ईश्वर के सभी आदेशों को पूरा किया जायेगा।

 

८७. किसी भी पीड़ित हृदय को आह्वाद दो। आपका यह कृत्य सैकड़ों मन्दिरों की रचना से अधिक मूल्य का होगा।

 

८८. आत्म चेतन के साथ किया गया कोई भी कृत्य स्थायी होता है, क्योंकि आत्मा का स्वभाव ही अमरत्व है।

 

८९. सदैव अपने मौलिक दैवी स्वभाव का स्मरण करते रहो तथा इस संसार में समर्पण और निरपेक्ष भाव से कार्य करते रहो।

 

९०. यह संसार ईश्वर के स्थायी नियमों से शासित है। कार्य और कारण का सिद्धान्त ही पूर्वीय जगत् में कर्म सिद्धान्त कहलता है।

 

९१. संसार में ईश्वर का नियम कार्यशील है, और यही विधान मानव की समीक्षा और अन्तरचेतना में है।

 

९२. यदि विधि का शासन नहीं है, तो स्वतन्त्रता का भी कोई विधान नहीं है।

 

९३. सभी योनियों में उस अखण्ड एकता की अनुभूति करो, किसी को अस्पृश्य समझो, सभी का आलिंगन करो।

 

९४. इस तथ्य की अनुभूति करो कि प्रत्येक वस्तु प्रत्येक दूसरी वस्तु से सम्बन्धित है और प्रत्येक जीवन प्रत्येक दूसरे जीवन से संलग्न है।

 

९५. घृणा का स्नेह से, क्रूरता का उदारता से और अमर्ष का क्षमा से उत्तर दो।

 

९६. पक्षपातपूर्ण निर्णय और असहिष्णुता की हत्या करो, सभी धर्म संस्थापकों और धर्मों का सम्मान करो, अत्यधिक सहिष्णु बनो।

 

९७. हिंसा का परित्याग करो, करुणा, उदारता और स्नेह का व्यवहार दो।

 

९८. मानव के स्वभाव का रूपान्तरण करो। भ्रातृत्व का निर्माण करो, प्रकृति के नियमों का अन्वेषण करो तथा तुलनात्मक धर्म का अध्ययन करो।

 

९९. यदि आप इस संसार में शान्ति चाहते हैं तो अविश्वास, अहमन्यता तथा सन्देह के बाँधों को तोड़ो।

 

१००. सेवा करो, स्नेह करो, ध्यान करो तथा अनुभव करो।