शाश्वत सन्देश

 

Eternal Messages का हिन्दी भाषान्तर

 

 

 

 

लेखक

श्री स्वामी चिदानन्द जी

 

 

 

 

 

 

 

संकलनकर्ता

श्री स्वामी विमलानन्द

 

 

 

 

अनुवादक

श्री स्वामी रामराज्यम्

 

 

 

 

प्रकाशक

डिवाइन लाइफ सोसायटी

पत्रालय : शिवानन्दनगर-२४९१९२

जिला : टिहरी गढ़वाल, उत्तराखण्ड (हिमालय), भारत

www.sivanandaonline.org, www.dlshq.org

प्रथम हिन्दी संस्करण-१९९१

द्वितीय हिन्दी संस्करण-२००७

तृतीय हिन्दी संस्करण-२०१६

(१००० प्रतियाँ)

 

 

 

 

 

 

 

© डिवाइन लाइफ ट्रस्ट सोसायटी

 

 

 

 

 

HC 39

 

 

 

 

 

PRICE: 55/-

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

' डिवाइन लाइफ सोसायटी, शिवानन्दनगर' के लिए

स्वामी पद्मनाभानन्द द्वारा प्रकाशित तथा उन्हीं के द्वारा 'योग-वेदान्त फारेस्ट

एकाडेमी प्रेस, पो. शिवानन्दनगर-२४९१९२,

जिला : टिहरी-गढ़वाल, उत्तराखण्ड' में मुद्रित।

For online orders and Catalogue visit: dlsbooks.org

 

 

प्रकाशकीय

 

'शाश्वत सन्देश' हमारे परमाध्यक्ष परम पूज्य श्री स्वामी चिदानन्द जी महाराज द्वारा समय-समय पर साधकों को पत्रों द्वारा दिये गये बहुमूल्य परामर्शों तथा सन्देशों का संकलन है। मूल परामर्श-सन्देश अँगरेजी में हैं तथा ‘Eternal Messages' शीर्षक के अन्तर्गत प्रकाशित किये जा चुके हैं। मूल सामग्री का संकलन परम पूज्य स्वामी जी के वैयक्तिक सहायक तथा सचिव श्री स्वामी विमलानन्द जी ने किया था।

 

हिन्दी भाषा-भाषी पाठकों के लिए जीवन-निर्माण करने वाली प्रेरणाप्रद सामग्री उपलब्ध कराने की आवश्यकता का अनुभव हम करते रहे हैं। आशा है, यह पुस्तक इस आवश्यकता की पूर्ति करेगी तथा सुहृद् पाठक इसका स्वागत करेंगे।

 

- डिवाइन लाइफ सोसायटी

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

विषय-सूची

 

 

 

प्रकाशकीय. 3

. दिव्य जीवन. 5

. जप तथा भगवद्-स्मरण.. 22

. अध्यात्म-पथ की बाधाएँ. 34

. गृहस्थों के लिए परामर्श. 51

. साधना.. 55

परिशिष्ट . 63

परिशिष्ट . 65

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

. दिव्य जीवन

 

उदात्त जीवन का सारतत्त्व है-ईश्वरोपासना, परोपकार तथा सदाचार। इन तीनों की कभी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। सदैव इनका अभ्यास करना चाहिए। ये ही आपकी वास्तविक कमायी हैं। भले ही किसी के पास कम धन हो; परन्तु यदि उसके पास यह कमायी है, तो उसे सर्वाधिक धनी व्यक्ति माना जाना चाहिए। इसी कमायी को अर्जित करना चाहिए। सामान्य सांसारिक कार्य- कलाप करते हुए दिव्य जीवन व्यतीत करने से आप इस कमायी को अर्जित कर सकते हैं। तब आपका आन्तरिक जीवन समृद्ध हो जायेगा तथा आप शान्ति और आनन्द का अनुभव करेंगे।

 

स्वभावतः सभी मानव एक-समान हैं, एक ही आत्मा सबमें निवास करती है। मानव शरीर, मन तथा आत्मा का त्रिक है। उसकी चेतना पर मन तथा पदार्थ आवरण डाल देते हैं। इसी कारण वह अपने दिव्य स्वभाव का साक्षात्कार नहीं कर पाता। अपनी दिव्यता का साक्षात्कार करना मानव-जीवन का परमोद्देश्य है।

 

मानव एक -शरीर आत्मा है। वह तत्त्वतः एक आध्यात्मिक सत्ता है। उसका आन्तरिक सारतत्त्व उसकी दिव्यात्मा है। आत्मा का साक्षात्कार करके मानव को सुरक्षा, स्वतन्त्रता, अमरता तथा शाश्वत परमानन्द के उपहार प्राप्त होते हैं। इन्हें प्राप्त करने हेतु साधनामय दिव्य जीवन व्यतीत करना चाहिए।

 

मानव में आध्यात्मिक जीवन व्यतीत करने के प्रति आन्तरिक आवेग का होना तथा परम तत्त्व के निकट पहुँचने तथा उसके साथ संलाप करने की इच्छा उत्पन्न होना भगवद्-कृपा की अभिव्यक्ति है।

 

शान्ति एक दिव्य गुण है। यह आत्मा का स्वभाव है। केवल शुद्ध हृदय में ही यह गुण पाया जाता है। वास्तविक आन्तरिक शान्ति बाह्य परिस्थितियों से अप्रभावित रहती है। प्रत्येक स्थान पर भगवान् की उपस्थिति का अनुभव करके आप निर्भय बन सकते हैं तथा असीम शान्ति और परमानन्द प्राप्त कर सकते हैं।

 

जीवन का परम लक्ष्य ईश्वर-साक्षात्कार है। इसी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए जीवन व्यतीत करना चाहिए। केवल यही लक्ष्य प्राप्त करने योग्य है। नित्य-प्रति ईश्वर से प्रार्थना करें। सत्य वचन बोलें। किसी से घृणा करें। बड़ों का आदर करें। दूसरों की सहायता करें। सादा और पवित्र जीवन व्यतीत करें। यही दिव्य जीवन है। दिव्य जीवन व्यतीत करने से मानव-जीवन पूर्ण बनता है।

 

मानव-जन्म अपनी सीमाओं, बन्धनों, दुःखों, कष्टों तथा पीड़ाओं से मुक्ति प्राप्त करने तथा दिव्य परम तत्त्व के साथ तादात्म्य की अवस्था में असीम आनन्द, परम शान्ति, दिव्य दीप्ति और ज्ञानमयी चेतना का अनुभव करने का एक दुर्लभ अवसर है। यही हमारे जीवन का लक्ष्य है। इस लक्ष्य को इसी जन्म में प्राप्त करें।

 

क्रियाशील प्रेम ही भलाई है। भला बनना एक अच्छी बात है। भलाई एक सर्वश्रेष्ठ सद्गुण है। भलाई का प्रत्येक कार्य शाश्वत जीवन का बीज है। भलाई करने से जीवन धन्य होता है तथा वह सफल और समृद्ध बनता है। भला बनना मानवोचित है। भला बनना दिव्यता है।

 

सरल तथा पवित्र जीवन व्यतीत करें। प्रातः तथा सन्ध्या समय कुछ घण्टे स्वाध्याय के लिए नियत कर लें। दोनों समय कम-से-कम आधे घण्टे तक प्रार्थना तथा भजन किया करें। किसी भी परिस्थिति में सत्य बोलना छोड़ें। दूसरों की सहायता करें। भला बनें; भला करें। कण-कण में ईश्वर की उपस्थिति का अनुभव करें। 'उनकी' महिमा का गान करें।

 

इससे अधिक श्रेष्ठ बात और क्या होगी कि हम प्रत्येक जीव में जीवन्त दिव्य उपस्थिति के साक्षी बनें तथा दूसरों को भी इस तथ्य के प्रति जागरूक बनायें!

 

जो ईश्वर में पूर्ण विश्वास रखता है, उसी के हृदय में ईश्वर निवास करते हैं। जो अपने मनश्चक्षुओं के सामने से ईश्वर की मूर्ति कभी नहीं हटाता, उसी से ईश्वर प्रेम करते हैं।

 

ईश्वर के निकट रहें, दैनिक कार्य-कलाप करते हुए भी उनके निकट रहें। पवित्र भगवन्नाम का जप करने, ईश्वर की दिव्य उपस्थिति के प्रति जागरूक रहने तथा ईश्वर का सतत स्मरण करने से जीवन दिव्य बनता है। तब विक्षेपों के बीच भी शान्ति का अनुभव होता है; चित्त-विक्षेप की दशा में भी सन्तुलन बना रहता है, प्रतीयमान दुःखों के बीच भी प्रसन्नता प्राप्त होती है, मृत्यु की परिस्थितियों में रहते हुए भी अमरता उपलब्ध होती है तथा अपूर्णता के बीच भी पूर्णता का अनुभव होता है। जो ईश्वर की सन्तानें हैं, वे ही इस रहस्य को जानती हैं; अन्य लोग इसे नहीं समझ सकते बुद्धिमानी इसी में है कि इस रहस्य को समझ कर हम चुप हो जायें। जिन्हें इस रहस्य को जानना होगा, उनके समक्ष यह रहस्य स्वतः ही प्रकट हो जायेगा।

 

आध्यात्मिकता का अर्थ है-अपने दिव्य आदर्श के अनुरूप अपना विकास करना। आध्यात्मिकता मानवता से भगवत्ता की दिशा में रूपान्तरण है। अभ्यास, साधना और वैराग्य से यह रूपान्तरण सम्भव हो पाता है।

 

सत्यवादी तथा पवित्र बनें। क्रोध का परित्याग करें। सबमें शिव-तत्त्व का दर्शन करें। किसी भी जीव से द्वेष रखें। वैश्व-प्रेम तथा समदृष्टि की भावना रखें। समस्त संसार ईश्वर की अभि- व्यक्ति है।

 

ईश्वर अन्तर्यामी हैं। वे ही शरीर, मन तथा इन्द्रियों को कर्म करने के लिए प्रेरित करते हैं। 'उनके' हाथों के उपकरण बन जायें। अपने कर्मों के बदले दूसरों से प्रशंसा प्राप्त करने की आशा रखें। कर्मों को कर्तव्य समझ कर करें। उन्हें तथा उनके फल को ईश्वर को अर्पित कर दें। आप कर्म-बन्धन से मुक्त हो जायेंगे। आपका हृदय पवित्र हो जायेगा।

 

ईश्वर के साथ मौन वार्तालाप करते हुए नित्य-प्रति कुछ समय व्यतीत करें। 'उनके' दिव्य गुणों-असीम करुणा, दया और प्रेम का चिन्तन करें, गहन भक्ति-भाव से उनसे प्रार्थना करें। अपने समस्त दैनिक कार्यों में उनका मार्ग-दर्शन प्राप्त करने का प्रयास करें। तब 'वह' शीघ्र ही आपके सखा बन जायेंगे।

 

नित्य-प्रति ईश्वर से प्रार्थना करें। आध्यात्मिक ग्रन्थों का स्वाध्याय करें। इन ग्रन्थों से आपको सद्-प्रेरणाएँ प्राप्त होंगी। ऐसी पुस्तकों का ही स्वाध्याय करें, जिनसे आपको सकारात्मक विचार प्राप्त होते हों। प्रत्येक स्थान पर ईश्वर की उपस्थिति का अनुभव करें। इस तथ्य को सदैव स्मरण रखें- आप ईश्वर में हैं; 'वह' आप में हैं।

 

शान्त हो जायें। दैवी इच्छा के अनुकूल बनें। चिन्ताओं से मुक्त रहें। अपने हृदय के अन्तरतम प्रदेश में प्रवेश करके शान्ति के सागर में निमज्जन करें।

 

इसकी चिन्ता करें कि अन्य व्यक्ति किस प्रकार जीवन व्यतीत करते हैं। सरल तथा पवित्र जीवन व्यतीत करें। अपनी आवश्यकताओं को कम करें। अपने आवश्यक व्यय में कटौती करें। प्रारम्भ में आप कठिनाई का अनुभव कर सकते हैं; परन्तु अन्ततः आपको प्रसन्नता प्राप्त होगी। सत्य का सदैव पालन करें। चाहे जैसी भी परिस्थितियाँ हों, ईश्वर आपकी रक्षा करेंगे।

 

ईश्वर की उपस्थिति का अनुभव सदा-सर्वदा करें। इस बात का स्मरण रखें कि ईश्वर करुणामय हैं। 'उनकी' करुणा असीम है। 'वह' कामधेनु के समान हैं- आप जो कुछ 'उनसे' माँगेंगे, वह आपको प्राप्त होगा। 'उनमें' गहन आस्था रखें। नियमित रूप से पूजा-प्रार्थना करके इस आस्था को अर्जित करें। कार्यालय, दुकान आदि में कार्य करते हुए भी ईश्वर की उपस्थिति का अनुभव करें।

 

रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द, महात्मा गान्धी, स्वामी शिवानन्द तथा अन्य सन्तों के जीवन-चरित्र पढ़ें। उनसे आपको जीवन के सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा प्राप्त होगी। प्रत्येक ऐसी वस्तु का त्याग करें, जो सत्य की विरोधी हो।

 

प्रत्येक व्यक्ति के अन्दर ईश्वर छिपे बैठे हैं। सन्तों ने उस आवरण को उतार फेंका, जो ईश्वर को छिपाये रहता है।

 

समग्र अस्तित्व का सारतत्त्व है-क्रम-विकास अथवा जीवन के उच्चतर मूल्यों का अविरत साक्षात्कार प्रार्थना, सेवा, भक्ति तथा ध्यान के माध्यम से आप उच्चतर जीवन व्यतीत करने की क्षमता प्राप्त करेंगे। इन्द्रिय-विषयों में कोई आनन्द नहीं है। केवल आत्मा में ही शाश्वत परमानन्द है। अतः अध्यात्म-पथ पर चलें, पवित्रता का अभ्यास करें, श्रेष्ठता को विकसित करें, दानशील बनें तथा दिव्यता को प्राप्त करें।

 

दिव्य जीवन व्यतीत करें। दिव्य जीवन आपके नित्य-शुद्ध तथा दिव्य स्वरूप की अभिज्ञता का जीवन है। यह वह जीवन है, जहाँ पता चलता है कि आप नाशवान् भौतिक शरीर नहीं हैं; अतः आप जीवन-तत्त्व से भी उच्चतर हैं। तत्त्वतः आप दिव्य हैं। सदाचारपूर्ण तथा सरल जीवन व्यतीत करके इस तथ्य का बोध प्राप्त करें।

 

सदाचारी व्यक्ति ही अपने अन्तःकरण के उपकरण का उपयोग कर सकता है। केवल ऐसा व्यक्ति ही अपनी अन्तरात्मा का स्वर स्पष्टतः सुन सकता है; अतः अपने में सद्गुणों का विकास करके सद्गुणी बनें।

 

भला व्यक्ति सदैव सुखी रहता है। उसके अन्दर दिव्यता का वास होता है। यथासम्भव भलाई करें; पूरे उत्साह, प्रेम के साथ भलाई करें।

 

दिव्य प्रेम संसार की महत्तम शक्ति है। सच्ची भक्ति से ही भगवद्-कृपा प्राप्त होती है। परमानन्द प्राप्त करने का साधन भक्ति ही है। अपनी प्रत्येक वस्तु-विचार, कर्म और इच्छाएँ ईश्वर को अर्पित कर देना ही सर्वश्रेष्ठ भक्ति है। यदि आप ऐसा कर सकें, तो आपको 'उनके' साथ अपने तादात्म्य की अन्तर्दृष्टि प्राप्त हो जायेगी।

 

यदि आप अपने जीवन में सर्वोत्तम विचारों, शुद्ध भावनाओं, श्रेष्ठ उद्देश्यों, मधुर वाणी तथा पवित्र कार्यों को स्थान दे सकें, तो यह (आपका जीवन) आपके लिए अति-आनन्ददायक सिद्ध होगा। इसे भक्तिपूर्ण उपासना के सुगन्धित फूलों से अलंकृत करें। तब आपके जीवन में प्रसन्नता, शान्ति तथा सन्तोष व्याप्त हो जायेंगे।

 

सदाचार जीवन में सुगन्धि फैलाता है। भक्ति जीवन को मधुर बनाती है। उपासना तथा सेवा जीवन के सारतत्त्व हैं। ईश्वर आपको ये सब उपलब्ध करायें! आपका जीवन माधुर्य, सौन्दर्य तथा परमानन्द से परिपूरित हो जाये !

 

ईश्वर में आस्था होना जीवन की श्रेष्ठ उपलब्धि है। इसके समक्ष कोई बाधा नहीं टिक पाती। अपने पड़ोसी से प्रेम करना ईश्वर से प्रेम करना है। ईश्वर सबमें निवास करते हैं।

 

हमारे हृदयों में वैश्व प्रेम का स्रोत प्रवाहित हो! वैश्व प्रेम में ही चिरस्थायी प्रसन्नता वास करती है। वास्तविक दिव्य दृष्टि शाश्वत तथा वैश्व होती है। यह सिद्धान्तों, मतों, सम्प्रदायों, रीति-रिवाजों तथा धर्मों से परे है।

 

आप दूसरों की सेवा करके उन्हें उन्नत बनाने में जितनी ही अधिक ऊर्जा व्यय करते हैं, उतनी ही अधिक दिव्य ऊर्जा आपकी ओर प्रवाहित होती है।

 

सकारात्मक ढंग से चिन्तन करें। जैसे आपके विचार होंगे, उसी के अनुरूप आपके व्यक्तित्व का निर्माण होगा। अपने जीवन में जिन पदार्थों को ले कर आप अपना विकास करना चाहते हैं, उन पर चिन्तन-मनन करते रहें। यह चिन्तन आपके आध्यात्मिक जीवन के दैनिक कार्य-कलापों का अंग बन जाना चाहिए।

 

अमर ईश्वर की खोज करें। शाश्वत परमानन्द प्राप्त करने के लिए लालायित रहें। परम यथार्थता का साक्षात्कार करने का प्रयत्न करें। जो प्रयत्न करता है, वही पाता है।

 

सेवा-भाव, प्रेम और भगवद्-भक्ति से परिपूरित जीवन ही वास्तविक जीवन है। इस जीवन के द्वार आपके लिए सर्वदा खुले हुए हैं। प्रार्थना, प्रेम, सेवा, मधुर वाणी तथा परोपकारिता के कार्यों में रत रहते हुए इस जीवन को व्यतीत करें।

 

अपने आध्यात्मिक जीवन को पुनः जीवन्त बनायें। दिव्यता को प्राप्त करने को लालायित हो जायें। इस सम्बन्ध में किसी प्रकार की निष्क्रियता सहन करें। आपको इसी जीवन में ईश्वर का अनुभव करना है। यदि आप अपेक्षित प्रयास करने के लिए तैयार हों, तो यह असम्भव नहीं है। अध्यवसाय करें। अभी से प्रयास करें। अपने दिवसों को ईश्वर-चिन्तन, ईश्वर-स्मरण तथा ईश्वर की जीवन्त विद्यमानता से सम्बन्धित विचारों से परिपूरित करें।

 

परम तत्त्व से संयुक्त शाश्वत जीवन ही योग है। योग के क्षेत्र में रखा गया प्रत्येक कदम एक नवीन जीवन तथा आनन्द प्रदान करता है। आप जितनी ही इस क्षेत्र में उन्नति करते जायेंगे, आपकी पवित्रता, शान्ति, दिव्यता, सामंजस्य, शक्ति तथा प्रसन्नता में उतनी ही वृद्धि होगी।

 

भगवान् के सम्मुख अपने को पवित्रता, आस्था, भक्ति तथा सम्पूर्ण आत्म-समर्पण की भावनाओं सहित उद्घाटित कर दें। तब आपके ऊपर भागवती कृपा का अवतरण होगा।

 

भगवन्मय जीवन व्यतीत करें तथा दिव्य स्वभाव (जो आपकी वास्तविक तथा अनिवार्य सत्ता है) का विकिरण करें। ईश्वर के निकट-सम्पर्क में रहें। यही आन्तरिक आध्यात्मिक जीवन का रहस्य है। यही जीवन की धन्यता का भी रहस्य है।

 

दिव्य जीवन यापन तथा ईश्वर-प्राप्ति के आदर्श का प्रकाश सदैव आपके सम्मुख चमकता रहे। ईश्वर में पूर्णता प्राप्त करने के लिए जीवन व्यतीत करें। भगवद्-कृपा सदैव आपके ऊपर रहे!

 

सद्-उद्देश्य तथा सम्यक् अभीप्सा उच्चतर जीवन के अवलम्ब हैं। आध्यात्मिक अभीप्सा का दीप सदैव आपके हृदय में प्रज्वलित रहना चाहिए। यही वह प्रेरक शक्ति है, जो साधक के जीवन को उन्नत बनाती है। आध्यात्मिक भाव-जो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है-समग्र जीवन तथा जीवन की समग्र प्रवृत्तियों में ओत-प्रोत होना चाहिए। यह भाव आपकी सामान्य गतिविधियों को आध्यात्मिकता में रूपान्तरित करने तथा आपके जीवन के कर्मों को कर्मयोग का रूप देने की क्षमता रखता है। इस भाव द्वारा होने वाले रूपान्तरण से आन्तरिक तथा बाह्य जीवन में सामंजस्य की स्थिति लायी जा सकती है।

 

जीवों को उनके क्रम-विकास करने में सहायता प्रदान करना सर्वश्रेष्ठ सेवा है। वस्तुतः उन्हें ईश्वर ही सहायता प्रदान करते हैं; हम कर्ता नहीं हैं, परन्तु ईश्वर को अपनी सेवा का उपयोग करने देना महान् सौभाग्य की बात है।

 

आध्यात्मिक पथ पर उन्नति की गति धीमी होती है। महीने-दो-महीने में उन्नति करने की आशा नहीं रखनी चाहिए। इसके लिए आपको वर्षों तक संघर्ष करना होगा-तब कहीं आप थोड़ी उन्नति कर सकेंगे। अतः अपने समस्त कर्म पूजा-भाव से करें। मन ईश्वर को सौंप दें तथा अपने हाथ कर्मों को। आप कहीं भी जायें, आप कुछ भी करें-समस्त स्थानों तथा सबमें ईश्वर की उपस्थिति का अनुभव करें। यह आपके दैनिक आध्यात्मिक जीवन का अंग बन जाना चाहिए।

 

ईश्वर के हाथों में एक उपकरण की तरह बन कर रहने का प्रयास सदैव करें। निमित्त मात्र हो जायें। अपना कर्तव्य करें तथा शेष ईश्वर पर छोड़ दें। आत्म-समर्पण, शरणागति तथा ईश्वरार्पण का यही रहस्य है। इससे भक्ति का मार्ग प्रशस्त होता है। ईश्वर में विश्वास रखें-आप सदैव शाश्वत परमानन्द तथा शान्ति का अनुभव करेंगे।

 

सद्गुरु भगवान् की दिव्य कृपा सदैव आपके ऊपर है। सच्चे शिष्य की वास्तविक अभीप्साएँ गुरु की प्रेम-भरी करुणा से अवश्य ही पूरी होंगी। साधना में सफलता प्राप्त करने की कुंजी नियमितता है। योग-मार्ग के पथिक की उन्नति का रहस्य भी यही है।

 

ईश्वर में गहन आस्था रखें; तभी दिव्यता को प्राप्त करने की प्रबल आकांक्षा आपके हृदय में उत्पन्न होगी। ईश्वर-महिमा, दिव्य जीवन तथा ईश्वर-साक्षात्कार के स्वरूप को स्पष्टतः समझ लें; तभी आप अपना आध्यात्मिक विकास कर पायेंगे।

 

स्वाध्याय करने का सर्वोत्तम समय ब्राह्ममुहूर्त है। प्रातःकाल जल्दी उठें। सरस्वती की पूजा करें तथा स्वाध्याय करें। ब्राह्ममुहूर्त में मन शान्त तथा स्थिर रहता है। उस समय अध्ययन करने से विषय सरलतापूर्वक समझ में जाता है। जब आप स्वाध्याय करें, तब संसार को भूल जायें। पाठों में ही मन लगायें। उन्हें याद करने का यही उपाय है।

 

समस्त प्रकार के भयों से बचें। भय केवल मन में रहता है। दुःसंग का त्याग करें। ब्रह्मचर्य का दृढ़तापूर्वक पालन करें। चलचित्र देखें। उपन्यास पढ़ें। जब तक आप अपना स्वाध्याय समाप्त कर लें, समाचार-पत्र पढ़ें। इस सबसे मन में विक्षेप उत्पन्न होता है।

 

सादा और शुद्ध भोजन ग्रहण करें। आवश्यकता से अधिक काफी या चाय पियें। एक क्षण के भी लिए भगवान् का विस्मरण करें। अपने पाठों के साथ-साथ गीता, महाभारत, रामायण आदि धार्मिक ग्रन्थों का भी स्वाध्याय करें।

 

ईश्वर सर्वव्यापी हैं। आपके हाथ-पैर तथा आपकी श्वासें आपसे जितना निकट हैं, उससे भी अधिक निकट ईश्वर हैं। ऐसा कोई स्थान नहीं है, जहाँ 'वह' हों। प्रत्येक स्थान पर 'उनका' दर्शन करें। 'वह' कण-कण में उपस्थित हैं।

 

जब कभी भी आपके सामने नये विषय उपस्थित हों, तब अपने से प्रश्न करें-क्या यह (विषय) मुझे परम लक्ष्य की ओर ले जा रहा है? अथवा यह मेरे जीवन को पूर्णता की ओर से जाने वाले मेरे विकास में बाधक है? यदि आपको ऐसा प्रतीत हो कि वह आपको ऐन्द्रिय (सांसारिक) जीवन से बाँध रहा है, तो उसे अस्वीकार करें। उसे तभी स्वीकार करें, जब आपको इस बात का विश्वास हो जाये कि वह आपको आपके जीवन के परम लक्ष्य (भगवद्-दर्शन तथा भगवद्-अनुभव) तक पहुँचा देगा।

 

ऐसा अनुभव करें कि समग्र संसार ईश्वर की अभिव्यक्ति है तथा संसार के विभिन्न नाम-रूपों के माध्यम से आप ईश्वर की ही सेवा कर रहे हैं। अपने समस्त कर्मों तथा उनके परिणामों को प्रत्येक दिवस के अन्त में ईश्वर को अर्पित कर दें। कर्मों के साथ तादात्म्य स्थापित करें। तब आपका हृदय शुद्ध हो जायेगा तथा आप दिव्य प्रकाश और दिव्य अनुग्रह प्राप्त करने के लिए अपने को तैयार पायेंगे।

 

जीवन के छोटे-छोटे विषयों को भी ले कर दिव्य जीवन व्यतीत किया जाना चाहिए। यदि आप छोटे-छोटे विषयों में दिव्य जीवन व्यतीत करते हैं, तो बड़े-बड़े विषयों में भी दिव्य जीवन यापन कर सकते हैं। जब तक आप अपने दैनिक जीवन में सावधानी नहीं बरतेंगे तथा जीवन को अपने आदर्शवाद के अनुरूप नहीं ढालेंगे, तब तक आपके इस प्रयास का कोई शुभ परिणाम दृष्टिगोचर नहीं होगा।

 

जिसका मन शान्त है, जो आत्म-निग्रही है तथा जो आत्मा का ध्यान करता है, वह धन्य है।

 

जीवन का परम लक्ष्य ईश्वर-साक्षात्कार है। मानव-जीवन इस लक्ष्य को प्राप्त करने का एक दुर्लभ अवसर है। हम जानते हैं कि हमारे अन्दर दिव्यता को प्रकट करने की समस्त क्षमताएँ विद्यमान हैं। स्वभाव से हम त्रियेक (triune) हैं। हमारे अस्तित्व का वास्तविक तथ्य हमारी तात्त्विक दिव्यता है। दिव्य स्वरूप का सतत चिन्तन-मनन करते हुए, मनसा-वाचा-कर्मणा इसे व्यक्त करते हुए तथा गहन ध्यान के माध्यम से समग्र जीवन को परम तत्त्व की अभिव्यक्ति बनाते हुए हमें इस दिव्य मानव को भगवान् की ओर उत्थित करना है।

 

हमारे गुरुदेव प्रायः कहा करते थे कि जीवन को सुखी बनाने का उपाय दूसरों को सुख देना है। वह इसी आदर्श के लिए जिये तथा इसी के लिए उन्होंने अपने प्राणों का त्याग किया।

 

जब आप शान्त-मौन बैठे हों, तब दिव्यता की फुसफुसाहट सुनें। आस्था की शक्ति को समझें। ईश्वर की सम्पोषित करने वाली कृपा का अनुभव करें। अपने हृदय में प्रेम या भक्ति का मन्दिर निर्मित करें। मनोहर शान्ति के क्षेत्र में प्रवेश करें। लोकातीत जीवन का आनन्द लें। अन्तर्मुखी बनें। आत्मा में विलीन हो जायें। आत्मा को जानें। आत्मा ही बन जायें। मुक्त हो कर प्रसन्नतापूर्वक विचरण करें।

 

अन्यों की प्रेरणा तथा सहायता का स्रोत बनना तथा आध्यात्मिक स्पन्दनों, विचारों, भावनाओं एवं शक्ति के प्रसारण का केन्द्र बनना एक सौभाग्य है, जो आपके समान भाग्यशाली व्यक्तियों को ही मिलता है। इस दिशा में ईश्वर की कृपा आपका मार्ग-दर्शन करेगी। दे कर, त्याग करके, कठिन श्रम करके तथा तनावों का सामना करके ही हम विकसित होते हैं।... हमारे पास सभी प्रकार के संसाधन हैंबस, हमें अपनी आन्तरिक शक्ति का प्रयोग करना प्रारम्भ कर देना चाहिए। हम जितना भी उन्हें प्रयोग में लायेंगे, उतनी ही उनमें वृद्धि होगी। असीम पूर्णता की ओर बढ़ते हुए आपके पगों को ईश्वर का मार्ग-दर्शन प्राप्त हो!

 

सद्-कार्यों से प्रसन्नता प्राप्त होती है तथा बुरे कार्यों से पीड़ा। कर्म सदैव फलीभूत होते हैं। कर्म के बिना कर्म-फल का कोई अस्तित्व नहीं होता। भगवद्-दर्शन प्राप्त करने का साधन है-धार्मिकता। इससे समस्त वस्तुओं की प्राप्ति हो सकती है।

 

आप धन्य हैं। ईश्वर ने आपको यह दुर्लभ अवसर प्रदान किया है। भक्तों की सत्संगति आपको ईश्वर की ओर ले जायेगी। इस सत्संगति में रहने से आपका आसुरी स्वभाव दिव्य स्वभाव में रूपान्तरित हो जायेगा। अतः सन्तों और भक्तों की सत्संगति में रहने का प्रयत्न सदैव करते रहना चाहिए।

 

दिव्य जीवन के मार्ग का पथिक बनने की अपनी श्रेष्ठ अभीप्सा के कारण आप अत्यन्त सौभाग्यशाली हैं। ईश्वर दया और करुणा के सागर हैं। जो व्यक्ति 'उनसे' सुरक्षा की याचना करते हैं, 'उनके' ऊपर 'वह' अवश्य अपनी कृपा की वर्षा करते हैं। 'उन' पर विश्वास रखें। चिन्ताकुल हों। समस्त परिस्थितियों tilde 4 अपने को 'उनके' श्रीचरणों में समर्पित कर दें। प्रतिक्षण यह अनुभव करें कि 'वह' आपकी देख-भाल कर रहे हैं।

 

हमारे पूज्य गुरुदेव कहा करते थे कि अध्यापन का व्यवसाय सर्वश्रेष्ठ तथा सर्वोत्तम है। इस व्यवसाय में रत व्यक्तियों को इस बात के अवसर प्राप्त होते हैं कि वे नवयुवक साधकों के जीवन को ढाल सकें तथा उन्हें आध्यात्मिक आदर्शों की ओर उन्मुख कर सकें। अतः आस्था तथा उत्साह के साथ इस व्यवसाय में रत हो कर विद्यार्थियों के माध्यम से ईश्वर की सेवा करें। अपने पुनीत कर्तव्य का पालन करने हेतु पूरी तैयारी करने के लिए पूज्य गुरुदेव के ग्रन्थों का भली प्रकार अध्ययन करें। इससे आपके विद्यार्थियों का जीवन उन्नत होगा।

 

धार्मिक पुस्तकों के स्वाध्याय के साथ-साथ घर पर दैनिक सत्संग का आयोजन करें। कोई ऐसा सुविधाजनक समय चुन लें, जब परिवार के सब लोग एकत्र हो सकते हों। ऐसे समय में भगवन्नाम का गान करें तथा ईश्वर के साथ संलाप करें।

 

धार्मिक ग्रन्थों का नियमित स्वाध्याय, प्रार्थना, पूजा तथा ध्यान ईश्वर तक पहुँचने में सहायक सिद्ध होते हैं। सरल तथा पवित्र जीवन व्यतीत करें। सबमें भगवद्-दर्शन करें। हाथ से कर्म करें तथा मन से ईश्वर का स्मरण करें। यही सफल जीवन का रहस्य है।

 

पूज्य गुरुदेव के इस गीत को स्मरण रखें तथा इसमें निहित विचारों को जीवन में उतारने का प्रयत्न करें -

 

दिन का प्रारम्भ ईश्वर से करें।

दिन का समापन ईश्वर से करें।

समग्र दिवस को ईश्वर से परिपूरित कर दें।

समग्र दिवस ईश्वर के सान्निध्य में व्यतीत करें।

 

प्रतिदिन ईश्वर से प्रार्थना करें। सेवा, पूजा, जप, ध्यान तथा मनन में ही दिन व्यतीत करें। सप्ताह में एक बार एकान्त-वास करें तथा आत्म-परिपृच्छा करें। आप त्वरित गति से अपना आध्यात्मिक क्रम-विकास करेंगे।

 

आत्मार्पण का फल है भागवती कृपा इस कृपा की कुछ बूँदों से ही आपको परमानन्द का सागर उपलब्ध हो जायेगा।

 

अमर आत्मा का ज्ञान प्राप्त करना तथा परम शाश्वत तत्त्व से अभिन्न हो जाना ही जीवन का लक्ष्य है।

 

जीवन का परम लक्ष्य ईश्वर-साक्षात्कार है। इस लक्ष्य को प्राप्त करना हमारी दिव्य नियति है। इस नियति को प्राप्त करने हेतु मानव-जीवन एक दुर्लभ अवसर है। दिव्य चेतना (जो दुःख, पीड़ा तथा अपूर्णता से परे परमानन्द का अनुभव है) को प्राप्त करना आपका जन्मसिद्ध अधिकार है तथा आपके भौतिक जीवन का प्रमुख लक्ष्य है। निःस्वार्थ सेवा के क्षेत्र में कूद पड़ें। इससे आपका स्वभाव शुद्ध बनेगा, आपकी भक्ति-भावना का विकास होगा तथा आपको भगवद्-दर्शन प्राप्त होगा।

 

भक्ति, धैर्य तथा भागवती कृपा की समझ प्राप्त करने के लिए ईश्वर से प्रार्थना करें। आप जितना ही अधिक दूसरों को प्रसन्नता देंगे, उतनी ही अधिक प्रसन्नता आप प्राप्त करेंगे, जीवन में प्रसन्नता का उदय हो, इसके लिए स्वभाव का परिष्कृत होना तथा व्यक्तित्व का शुद्ध होना अनिवार्य है। इस प्रकार प्रसन्नता निःस्वार्थता का फल है। अपने सेवा-कार्य और साधना करते रहें।

 

गहन आस्था रखें, तभी आपके हृदय में दिव्यता को प्राप्त करने की अभीप्सा का उदय होगा। ईश्वर के स्वभाव तथा महिमा एवं दिव्य जीवन तथा ईश्वर-साक्षात्कार के स्वरूप को भली प्रकार समझ लेना चाहिए, तभी आप ईश्वर के प्रति अपने को समर्पित कर पायेंगे।

 

ईश्वर आपके समस्त कार्यों तथा गतियों के परम लक्ष्य हैं। ईश्वर को खोजें। 'उनका' साक्षात्कार करें। तभी आप पूर्ण तथा स्वतन्त्र बन सकेंगे।

 

जीवन के सर्वोच्च आदर्श क्या होने चाहिए, इस विषय में श्री हनुमान् के व्यक्तित्व से हमें बहुत कुछ सीखने को मिलता है। ब्रह्मचर्य का निष्ठापूर्वक पालन, शक्ति का विकास तथा इस शक्ति को सेवा के रूप में ईश्वरार्पण-इन तीनों के प्रतीक वह हैं। योद्धा तथा नायक होते हुए भी वह सदा अपने स्वामी के सेवक बने रहे। उन्होंने मानवीय ऊर्जा को दिव्योपासना हेतु अर्पित कर दिया। इस ऊर्जा का उदात्तीकरण ही यहाँ प्रमुख विषय है। यह गत्यात्मक सेवा में रूपान्तरित हो जाती है। यही ब्रह्मचर्य है। ऐसे थे हनुमान् महावीर! यही है सात्त्विक यौगिक कर्म पर आधारित भक्ति, ध्यान और ज्ञान यही जीवन आत्मज्ञान के द्वार खोलता है, जैसे हनुमान् राम से सदा अभिन्न थे।

 

भक्ति-भाव से भगवन्नाम लें। भगवान् की उपस्थिति का अनुभव करें। प्रत्येक रूप में 'उनका' दर्शन करें। ऐसा कोई स्थान नहीं है जहाँ 'वह' हों। 'वह' सर्वत्र हैं। आध्यात्मिक साहित्य का अध्ययन करें। ज्ञानी पुरुषों का सत्संग करें। नियमित रूप से प्रार्थना करें।

 

संसार के समस्त नाम-रूपों में ईश्वर निवास करते हैं। 'वह' सर्वव्यापी हैं। इस तथ्य को स्वीकार कर लेने तथा इसका अनुभव करने से सेवा पूजा में रूपान्तरित हो जाती है; क्योंकि तब आप मानव में ईश्वर की उपस्थिति का अनुभव करने लगते हैं। आपके हृदय में एक नवीन भाव उदित हो जाता है। आप एक ऐसे दृश्य के द्रष्टा बन जाते हैं, जिसकी वस्तुएँ जो कुछ देर पहले लौकिक थीं, अब सचमुच अलौकिक हो गयी होती हैं। इस आध्यात्मिक पुट से सेवा पवित्र बन जाती है और इस प्रकार आपका जीवन परम तत्त्व की वैश्व अभिव्यक्ति की सतत उपासना-प्रक्रिया में रूपान्तरित हो जाता है। पूज्य गुरुदेव ने भक्तों तथा साधकों से 'सर्वं विष्णुमयं जगत्' सूत्र को सदा स्मरण रखने तथा उसे अनुभव करने को कहा था।

 

अवकाश के दिनों को आध्यात्मिक ढंग से व्यतीत करना चाहिए। जीवन का लक्ष्य ईश्वर को प्राप्त करना है। विवेकी पुरुष अपने समस्त समय का सदुपयोग इसी लक्ष्य को प्राप्त करने के साधन के रूप में करता है। अवकाश के दिन पूजा, भजन और सत्संग करने के लिए होते हैं। ईश्वर की ओर इस प्रकार गतिमान होता हुआ विवेकी पुरुष शान्ति और परमानन्द की लहलहाती फसल काटता है।

 

शरीर, नाम तथा रूप मात्र उपकरण हैं। इस संसार के कर्ता केवल ईश्वर हैं। सृष्टि के कण-कण में इसका स्पष्ट अनुभव करें। जागें और अपने अज्ञान से मुक्त हो जायें। केवल ईश्वर समस्त कर्मों के कर्ता हैं। इसका अनुभव करें, तदनुरूप ही व्यवहार करें तथा इसके साथ एकात्म हो जायें।

 

वास्तविक आध्यात्मिक गुरु ही आध्यात्मिकता में सहायता कर सकता है। ऐसा गुरु सामान्य जन के स्तर पर उतर कर उसे क्रमिक गति से उच्चतर लक्ष्य की ओर ले जा सकता है। वह साधक को आध्यात्मिक मार्ग के कण्टकों तथा गर्तों के प्रति भी सचेत कर सकता है। ईश्वर-साक्षात्कार के परम लक्ष्य की प्राप्ति के विषय में भी वह मार्ग-दर्शन दे सकता है। यदि साधक अपनी साधना में एकनिष्ठ है, तो ईश्वर उसके पास उचित समय पर उपयुक्त गुरु अवश्य भेजेंगे।

 

ईश्वर की सत्ता है। 'उनके' बिना किसी की भी सत्ता सम्भव नहीं है। समग्र संसार ईश्वर के ही अन्दर है। ईश्वर ही इस सृष्टि के सर्जक, संचालक तथा शासक हैं। आपके जीवन के रूप में 'उनकी' सत्ता है। साधना तथा उच्चतर आध्यात्मिक ज्ञान के क्षेत्रों में ऊँची उड़ानें भरें तथा जीवन, प्रेम तथा प्रसन्नता के प्रदायक ईश्वर का साक्षात्कार करें।

 

जिस प्रकार सरिताएँ सागर की ओर प्रवाहित होती हैं, उसी प्रकार आप भी अनश्वर परमानन्द के सागर परम तत्त्व की ओर प्रवहमान हों।

 

आध्यात्मिक कार्य भव्य है। आध्यात्मिक जीवन भव्य है। जो-कुछ भी आध्यात्मिक है, वह भव्य है।

 

जीवन को आध्यात्मिकता द्वारा संचालित होना चाहिए। प्रत्येक स्थिति में हमारे कार्य आध्यात्मिक परिप्रेक्ष्य, धर्म, सत्य, अहिंसा तथा ब्रह्मचर्य द्वारा निर्दिष्ट हों।

 

भगवान् श्री राम के रूप में इस धरती पर पथभ्रष्ट मानवता का मार्ग-निर्देशन करने के एकमात्र उद्देश्य से ही अवतरित हुए। 'उन्होंने' एक ऐसी लीला की जिसमें जीवन के सभी मोड़ मानव को सदा के लिए हृदयस्पर्शी तथा आत्म-प्रेरक पथ-प्रदर्शन प्रदान करते हैं।

 

रामायण की शिक्षाओं का दैनिक जीवन में बहुत महत्त्व है। जीवन की कोई भी परिस्थिति या समस्या ऐसी नहीं है, जिसका समाधान इतिहास-ग्रन्थों (रामायण तथा महाभारत) में पाया जाता हो।

 

पुराण रोचक कथाओं के संकल्प मात्र नहीं हैं। उनमें जीवन्त आध्यात्मिक सत्य निहित हैं। जो व्यक्ति पुराण के पात्रों के समान ही अपने जीवन का निर्माण करना चाहते हैं, वे वास्तव में आध्यात्मिक नायक बन जायेंगे।

 

सन्तों की संगति आपको शीघ्र ही ईश्वर की ओर ले चलेगी। सन्त आपको अपनी ही तरह का बना लेंगे। वे आपकी अपवित्रता समाप्त करके आपको पवित्र बना देंगे। ईश्वर का सतत स्मरण करने में उनका संग आपके लिए सहायक सिद्ध होगा। शान्त हो जायें। भगवद्-इच्छा के अनुकूल बनें। समस्त चिन्ताओं से मुक्त हो जायें।

 

प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में शाश्वत परमानन्द का परम धाम, प्रसन्नता का चिरस्थायी स्रोत, अमृत का भण्डार तथा दिव्य केन्द्र है। उदात्त तथा दिव्य विचारों को प्रश्रय दें। आपकी परिस्थितियाँ तथा वातावरण सदैव आपके लिए अनुकूल रहेंगे।

 

श्रद्धा तर्क से बढ़ कर है। केवल श्रद्धा से ही परमानन्द तथा परम धाम के द्वार खुल जाते हैं। अविचल श्रद्धा रखें तथा चिरस्थायी शान्ति के असीमित क्षेत्र में प्रवेश करें।

 

योग जीवन का विज्ञान है। यह जीवन को पूर्णता प्रदान करता है। ईश्वर शाश्वत हैं। अतः हमारे जीवन का प्रत्येक क्षण 'उन्हीं' से परिपूरित है। योग हमें बताता है कि किस प्रकार हम ईश्वर से सम्पर्क स्थापित करके अपने जीवन को 'उनके' प्रकाश और शक्ति एवं परमानन्द और शान्ति से परिपूरित कर सकते हैं।

 

अमर आत्मा की खोज करें। शाश्वत परमानन्द प्राप्त करने की अभीप्सा रखें। परम यथार्थता को उपलब्ध होने का प्रयास करें। जो प्रयास करता है, वही प्राप्त करता है।

 

वास्तविक सहानुभूति हृदय में सीधे प्रवेश करती है। प्रेम में सब-कुछ समाहित है। प्रेम हृदय को विकसित तथा शुद्ध करता है। प्रेम तथा दया के द्वारा अपने विचारों को पवित्र बनायें।

 

वास्तविक शान्ति प्रेम तथा समझ से ही प्राप्त होती है। मानव मानव से प्रेम करे। राष्ट्र राष्ट्र को समझें। प्रत्येक व्यक्ति आत्म-त्याग तथा निःस्वार्थ सेवा की भावना से ओत-प्रोत हो। जब व्यक्ति को यह अनुभूति करायी जायेगी कि खोये हुए स्वर्ग के राज्य को दोबारा प्राप्त करने हेतु वह अपनी इन्द्रियों, मन तथा अहंमन्यता से आन्तरिक युद्ध करने में रत एक आध्यात्मिक सैनिक है, तब ये गुण स्वतः ही प्रकट होंगे। अज्ञान एक साधारण शत्रु है। अहंमन्यता एक सर्वगत शत्रु है। कामुकता, क्रोध और लोभ निकृष्टतम शत्रु हैं। स्वार्थ एक शक्तिशाली शत्रु है।

 

इन विकट शत्रुओं का सामना करने के लिए हृदय में पवित्रता, उदात्तता, दानशीलता, प्रेम तथा सेवा-भाव का विकास करें। इस बात का स्मरण रखें कि ईश्वर ने संसार की सृष्टि एक पाठशाला के रूप में की है। इस पाठशाला में आप इन सद्गुणों का पाठ पढ़ते हैं तथा इन्हें अपने जीवन में उतारते हैं। आपके पड़ोसी को ईश्वर ने इसीलिए बनाया है ताकि आप उसे अपना प्रेम दे सकें, उसकी सेवा कर सकें तथा इस प्रकार अपनी दिव्यता का विकास कर सकें। आपको अपनी सेवा का अवसर देने हेतु (ताकि इस प्रकार आप अपना क्रम-विकास कर सकें) निर्धनों तथा रोगियों के रूपों में ईश्वर ही आता है। अतः सबकी सेवा करें, सबको प्रेम करें। इस प्रकार आप अपने निम्नतर पशु-स्वभाव पर विजय प्राप्त कर लेंगे।

 

प्रेम, ब्रह्मचर्य, करुणा, अहिंसा, प्रार्थना तथा ध्यान द्वारा अपने विचारों को पवित्र करें। दुर्गुणों का त्याग करें। सद्गुणों को अर्जित करें। सत्य के मार्ग से विचलित हों। आपको शाश्वत परमानन्द तथा शान्ति की प्राप्ति होगी। ईश्वर की कृपा आपके ऊपर बनी रहे !

 

आत्मा आपका मित्र, मार्गदर्शक तथा परामर्शदाता है। वह अपनी शान्त तथा मन्द अन्तःकरण की वाणी द्वारा आपका मार्ग-निर्देशन करता है। निम्नतर मन आपका शत्रु है। यह आपको संसार-चक्र से बाँधे रखता है।

 

ईश्वर का प्रेम मुक्तिदायक है। इससे शाश्वत परमानन्द तथा अमरता की प्राप्ति होती है। यह भक्ति ही है जो आपके और परम जगदीश के बीच शाश्वत एकता के सम्बन्ध स्थापित करती है।

 

प्रतिदिन भगवान् से प्रार्थना करें। जिन भक्तों के हृदय शुद्ध तथा भक्ति-भावना से परिपूरित हैं, 'वह' उन्हीं के पीछे-पीछे भागते हैं। आप 'उनकी' उपेक्षा भी करें, तब भी 'वह' आपसे प्रेम करेंगे। सोचें, यदि आप आस्था तथा भक्ति से 'उनकी' ओर उन्मुख हो जायें, तो आपको 'उनका' कितना अधिक प्रेम प्राप्त होगा ! 'उनका' प्रेम विशालतम पर्वतों से भी अधिक विशाल तथा गहनतम सागर से भी अधिक गहन है।

 

शुद्ध तथा सादा भोजन ब्रह्मचर्य का पालन करने में सहायक होता है। उपन्यास पढ़ें। मिताहारी बनें। शीतल जल से स्नान करें। चल-चित्र देखें। महिलाओं की ओर देखें। जब उनकी ओर देखने की आवश्यकता पड़े, तब यह सोचें कि वह जगन्माता की अभिव्यक्ति हैं।

 

सच्ची तथा निष्कपट भक्ति, अन्यों के प्रति प्रेम तथा निःस्वार्थ सेवा से परिपूरित जीवन, असीम धन्यता से परिपूर्ण जीवन है। केवल इसी प्रकार के (दिव्य) जीवन में सफलता सर्वाधिक सुनिश्चित होती है।

 

मानव के जीवन की वास्तविक पूर्णता इसमें नहीं है कि उसकी क्या-क्या उपलब्धियाँ हैं, वरन् इसमें है कि वह क्या 'बनता' है और क्या 'करता' है। सफलता 'बनने' और 'करने' में ही है। पवित्रतम 'होना' तथा सर्वश्रेष्ठ 'करना' ही सर्वोत्तम सफलता है। यह पूर्णता-प्राप्त्यर्थ सम्यक् कर्म है। दिव्य जीवन में भगवद्-दर्शन तथा शाश्वत परमानन्द प्राप्त होता है।

 

व्यक्त अथवा अव्यक्त एकता की अनुभूति सम्पूर्ण सत्ता में करना मानव-जीवन का लक्ष्य है। यह एकता पहले से ही है। अपने अज्ञान के कारण हमने इसका विस्मरण कर दिया है। प्रार्थना; विचार, ध्यान तथा मनन से इस 'एकता' को प्राप्त किया जा सकता है।

 

सम्पूर्ण हृदय, मन तथा आत्मा से ईश्वर को पूरा-पूरा तथा गहन प्रेम दें। आप 'उनमें' पूर्णतः लीन हो जायेंगे।

 

आध्यात्मिक साधना जीवन तथा जीवन के सामान्य सन्दर्भ में अलग-थलग कार्यों का समूह नहीं है। योग, वेदान्त, दिव्य जीवन तथा साधना का वास्तविक अर्थ यह है कि जीवन दिव्य आदर्श की ओर प्रवहमान है। योग आपके जीवन का अंग नहीं है; यह आपका आध्यात्मीकृत जीवन ही है। इस अध्यात्मीकरण का सारतत्त्व है-नश्वर नाम-रूपों की कामनाओं से मन को हटा कर अपनी समस्त सम्भाव्य कामनाओं तथा प्रेमभावनाओं को उस शाश्वत परम तत्त्व पर केन्द्रित करना जो हमारे जीवन की जीवन है, हमारा वास्तविक पोषण-स्रोत तथा परम लक्ष्य है। वही (परम तत्त्व) द्वैतवादी भक्तों तथा ईश्वरोपासकों का जनक तथा जननी है। 'उसके' साथ अपनी एकता के उदात्त अनुभव को प्राप्त करने के लिए जीवन व्यतीत करना, 'उसका' अखण्ड स्मरण रखना, समस्त नाम-रूपों से अव्यक्त सारतत्त्व के रूप में प्रत्येक क्षण 'उसकी' चिरस्थायी उपस्थिति के प्रति जागरूक रहना तथा अपने को 'उसका' सेवक या सन्तान या 'उसके' अस्तित्व का एक अनिवार्य अंग माननायह है योग, यह है वेदान्त।

 

अपने जीवन और कर्मों में पूजा का भाव बनाये रखें। जीवन की समस्त गतिविधियाँ ईश्वर को समर्पित कर दें। जीवन को निःस्वार्थ सेवा से परिपूरित तथा नियमित रूप से प्रातः और सायंकाल किये जाने वाले गुह्य मनन तथा अन्तरावलोकन से सीमाबद्ध कर दें। आन्तरिक रूप से अपने कर्मों के मूक साक्षी बने रहें। अपने समस्त कार्यों को भगवान् को समर्पित करते हुए सम्पन्न करें। यही व्यावहारिक वेदान्त है। कर्म बन्धनकारी नहीं हैं; वरन् उनके साथ हमारी आन्तरिक चेतना के सम्बन्ध बन्धनकारी हैं। आत्म-जागरूकता का अभ्यास करने से यह सम्बन्ध स्थापित नहीं होने पाता। ऐसी स्थिति में भी आपके द्वारा कर्म होते रहते हैं; परन्तु वे आपको बन्धन में नहीं डाल पाते तथा आप अपनी आत्मा में संस्थित रहते हैं। आत्मा में इस प्रकार संस्थित होना परम तत्त्व की खोज तथा उसके मार्ग का एक गुप्त सारतत्त्व है। समस्त आध्यात्मिक साधनाओं का उद्देश्य आत्मा में संस्थित रहना है। शरीर तथा इसकी गतिविधियों से हमारा क्या सम्बन्ध है? कर्म हमारी आन्तरिक सत्ता अथवा अप्रकट महत्ता को कैसे स्पर्श या प्रभावित कर सकते हैं? आप शरीर हैं, मन हैं और इन्द्रिय-आप हैं अमर आत्मन् क्षण-क्षण, पग-पग पर दिव्य प्रकाश आपके हाथ-पैरों का मार्ग-निर्देशन करे! आप परम धन्यभागी बनें।

 

एक आदर्श शान्तिपूर्ण जीवन व्यतीत करें। शान्ति एक दिव्य सद्गुण है। यह आत्मा का एक गुण है। यह शुद्ध हृदय को परिपूरित करती है। निरन्तर नाम-स्मरण तथा प्रार्थना करते रहने से शान्ति प्राप्त होती है। अनुभव करें-"मैं कुछ नहीं हूँ, मेरे पास कुछ भी नहीं है; भगवद्-कृपा के बिना मैं कुछ भी नहीं कर सकता; 'आप' ही सब-कुछ हैं; मैं 'आपका' हूँ; सब-कुछ 'आपका' है।' ईश्वर में आस्था रखें। आप दिव्यता से परिपूरित हो उठेंगे।

 

स्थूल मन के पृष्ठ भाग में एक सूक्ष्म मन भी है जो बीज-रूप में विद्यमान है। मनन, प्रार्थना तथा जप द्वारा सूक्ष्म मन का विकास होता है। इसके प्रस्फुटन के साथ ही एक नया दृश्य दृष्टिगोचर होने लगता है।

 

आत्मपरक जीवन ही वास्तविक जीवन है। यदि आप दैहिक जीवन पर ही निर्भर रहेंगे, तो आप पिछड़ जायेंगे। ईश्वर-चिन्तन शरीर, मन तथा आत्मा को प्रफुल्लित कर देता है। भगवन्नाम नाड़ियों को शान्त करता है तथा भगवद्-प्रेम शान्ति और प्रसन्नता प्रदान करता है। ईश्वर का ज्ञान कर्म-बन्धनों को समाप्त कर देता है।

 

यदि साधक गम्भीर तथा निश्छल है, तो ईश्वर उसकी सहायता अवश्य करेंगे। बस, उसे पूर्णतः ईश्वर के प्रति समर्पित हो जाना चाहिए। उसे अनुभव करना चाहिए कि वह ईश्वर के हाथों में एक उपकरण मात्र है। ऐसे साधक को अध्यात्म-मार्ग में सफलता मिलनी निश्चित है।

 

आत्म-विश्वास रखें। निर्भीक तथा प्रफुल्ल रहें। मन को शान्त तथा सन्तुलित रखें। कर्म के लिए कर्म करें। आप अपने सभी कर्मों में सफलता अवश्य प्राप्त करेंगे।

 

मानव का परम लक्ष्य उसी की सत्ता में निवास करने वाली दिव्यता का साक्षात्कार करना है। यह साक्षात्कार परमानन्द, शान्ति तथा शाश्वत जीवन है। त्याग, भक्ति तथा ध्यान द्वारा यह साक्षात्कार प्राप्त करें। आपके अन्दर उपस्थित दिव्य पूर्णता को प्रकट करने में ही जीवन की सार्थकता है।

 

स्वयं का अध्ययन करें। इस अध्ययन में अपने स्वभाव का एक ऐसा स्पष्ट चित्र उभारने का प्रयास करें, जिसमें गुण और दुर्गुण-दोनों ही दिखायी पड़ें। समस्त दुर्गुणों को इस चित्र से हटा दें। ईश्वर से निरन्तर प्रार्थना करें। सादा जीवन व्यतीत करें। सभी परिस्थितियों में सत्य बोलें। ईश्वर आपका मार्ग-निर्देशन करेंगे।

 

मानव-जन्म अति-दुर्लभ है। पृथ्वी-लोक पर कर हमें एक आदर्श जीवन व्यतीत करने का प्रयत्न करना चाहिए। जीवन का लक्ष्य ईश्वर का साक्षात्कार करना है। इस आदर्श को अपने सम्मुख रखें। इसे प्राप्त करने हेतु प्रयास करें। नियमित रूप से थोड़ा जप तथा ध्यान किया करें।

 

धैर्य खोयें। कोई भी प्रयत्न व्यर्थ नहीं जाता। गहन आस्था का भाव रखें। ईश्वर में पूर्ण आस्था रखें। 'उनका' नाम ही आपका एकमात्र आश्रय तथा आधार है। आस्था दुःखों का शमन करती है। आस्था सृजन करती है। आस्था से असम्भव कार्य भी सम्पन्न हो जाते हैं। आस्था पहाड़ों तक को हिला देती है। पवित्रता, प्रबोधन, एकीकरण, पूर्णता तथा मुक्ति-अध्यात्म-पथ की विभिन्न अवस्थाएँ हैं।

 

पवित्र अभीप्सा रखें। शुचिता का विकास करें। गम्भीरता- पूर्वक ध्यान करें। उदात्त तथा दिव्य विचारों का स्वागत करें। आप दिव्य जीवन व्यतीत करने लगेंगे।

 

पवित्र तथा सादा जीवन व्यतीत करें। मन की पवित्रता तथा जीवन की सादगी पर ही दिव्य जीवन आधारित है। सदैव भगवन्नाम लिया करें। जहाँ-कहीं भी आप जायें, भगवान् की दिव्य उपस्थिति का अनुभव करें। भगवान् सर्वत्र हैं। कोई ऐसा स्थान नहीं है, जहाँ 'वह' हों।

 

राग-द्वेष तथा आकर्षण-विकर्षण से मुक्त जीवन व्यतीत करें। यही दिव्य जीवन है।

 

संसार की सर्वश्रेष्ठ रोग निवारक शक्ति है प्रेम। ईश्वर के प्रति प्रेम का वास्तविक अर्थ है मानवता के प्रति प्रेम।

 

धर्म में चरित्र के उन्नतकारी बाह्य कार्य-कलाप, विचार तथा मानसिक अभ्यास समाहित रहते हैं। धर्म का उद्गम ईश्वर है। वह आपको ईश्वर की ओर ले चलता है।

निःस्वार्थ सेवा, कृपा, करुणा, मैत्री-भाव, उपयोगिता, सूझ-बूझ, सहिष्णुता तथा सद्भाव प्रेम ही हैं। अतः प्रेम को विकसित करें। सबसे मित्रवत् व्यवहार करें।

 

शान्त हो जायें। ईश्वरेच्छा के अनुकूल बनें। चिन्ताओं से मुक्त हो जायें। अपने अन्तरतम की गहराइयों में उतरें तथा शान्ति के सागर में गोता लगायें।

 

प्रतिदिन ईश्वर का स्मरण करें। अपने दैनिक कार्य-कलाप पूजा के पश्चात् प्रारम्भ करें। सादा तथा पवित्र जीवन व्यतीत करें। निर्धनों की सहायता करें। सन्तों की सत्संगति में रहें। यही दिव्य जीवन है।

 

ईश्वर की उपस्थिति में निवास करें। अपने सारे कार्य ईश्वर की पूजा समझ कर करें। तब आपके कार्य आपके लिए बन्धनकारी नहीं बन पायेंगे।

 

सच्ची आध्यात्मिक अभीप्सा, सेवा की उदात्त भावना, नियमित प्रार्थना और प्रेरक दार्शनिक तथा धार्मिक साहित्य का अध्ययन-इन सबके परिणाम शुभ होते हैं।

 

संसार में रहें; परन्तु संसार के हो कर रहें। संसार में उसी प्रकार रहें, जिस प्रकार कमल-पत्र जल में रहता है। जल में रहते हुए भी कमल-पत्र जल से प्रभावित नहीं होता। इसी प्रकार आपको इस संसार में रहना चाहिए और इसी जीवन में पूर्णता प्राप्त कर लेनी चाहिए।

 

ईश्वर में सदा निवास करें। इस संसार में खोजने योग्य तत्त्व केवल ईश्वर है। 'उन्हीं' को खोजें। केवल 'उन्हीं' में सुख तथा आनन्द केन्द्रित हैं। अतः ईश्वर को प्राप्त करें।

 

अपने समस्त कर्म ईश्वर को अर्पित कर दें। 'उनके' प्रति समर्पित हो जायें। आपको शीघ्र ही दिव्य प्रसन्नता तथा परमानन्द का अनुभव होगा।

 

सन्तों के जीवन-वृत्तान्तों का अध्ययन करें। आपको तुरन्त प्रेरणा प्राप्त होगी। उनके वचनों को स्मरण रखें। आप तत्काल ही प्रोन्नत होंगे। उनके चरण-चिह्नों पर चलें। आपको शान्ति तथा शाश्वत परमानन्द प्राप्त होंगे।

 

प्रेम, ब्रह्मचर्य, करुणा, अहिंसा, प्रार्थना तथा ध्यान से अपने विचारों को पवित्र करें। आपको जीवन में सफलता प्राप्त होगी।

 

सबके प्रति दयालु बनें। इन्द्रियों पर विश्वास करें। इन दोनों को चरितार्थ करना ही आपको पूर्ण मानव बनाने के लिए पर्याप्त है।

 

मानवता की सेवा ईश्वर की सेवा है। श्री स्वामी विवेकानन्द, पूज्य गुरुदेव श्री स्वामी शिवानन्द जी तथा अन्य आधुनिक सन्तों द्वारा प्रतिपादित यह एक नया धर्म है। महात्मा गान्धी ने इसी धर्म की शिक्षा दी थी। ईश्वर तथा केवल ईश्वर ही समस्त नाम-रूपों को धारण करते हैं। 'वही' भिक्षुक के वेश में आते हैं।वही' रोगी तथा दुःखी व्यक्तियों का रूप धारण कर लेते हैं।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

. जप तथा भगवद्-स्मरण

 

सदैव भगवान् का स्मरण रखें। जहाँ-कहीं भी आप जायें, उनकी उपस्थिति का अनुभव करें; क्योंकि 'वह' प्रत्येक स्थान पर हैं। कोई ऐसा स्थान नहीं है, जहाँ 'वह' हों। 'वह' आपकी श्वासों से भी अधिक निकट हैं। प्रत्येक रूप में 'उनका' दर्शन करें। 'उनके' श्रीचरणों की शरण में जायें। 'वह' आपकी रक्षा तथा मार्ग-निर्देशन करेंगे।

           

भगवान् का सतत स्मरण करने से आपको अनन्त प्रसन्नता तथा परम शान्ति की प्राप्ति होगी। आपकी प्रत्येक गति 'उनसे' की गयी एक जीवन्त प्रार्थना बन जाये। आप जिन-जिन विचारों को निष्ठा तथा दृढ़ता से अपनाते हैं, उन्हीं के सदृश आप अपना विकास करते हैं। उन आदर्शों का चिन्तन करें, जिनके अनुरूप आप विकसित होना चाहते हैं। यह आपके दैनिक आध्यात्मिक जीवन का एक अंग है।

 

भगवान् में पूर्ण आस्था रखें। 'उनका' नाम आपका एकमात्र आश्रय, गति तथा अवलम्ब है। आपका पवित्र हृदय ही 'उनका' मन्दिर है। अपने हृदय को पवित्र रखें तथा श्रेष्ठ कर्म करें।

 

भगवन्नाम-जप आपकी वास्तविक सम्पत्ति है। प्रत्येक अन्य वस्तु क्षणभंगुर है। बँगले, बैंक में जमा किया धन, कारें, बाग-बगीचे आदि आपकी वास्तविक सम्पत्ति नहीं हैं। इनसे आपको मानसिक शान्ति नहीं प्राप्त हो सकती। केवल भगवान् से ही आपको शान्ति तथा परमानन्द प्राप्त हो सकते हैं। सदैव स्मरण रखेंयो वै भूमा तत्सुखम्।"

 

जप, कीर्तन तथा प्रार्थना करें। दूसरों की भावनाओं को ठेस पहुँचायें। आपके विचार उदात्त तथा दिव्य होने चाहिए। प्रत्येक दिवस का प्रारम्भ तथा अन्त भगवद्-स्मरण से करें। दिन-भर के कार्य-कलापों को भगवद्-स्मरण के रंग में रंग डालें। अपने दिवस मानसिक रूप से भगवान् के साथ रहते हुए व्यतीत करें।

 

भगवन्नाम-जप आपकी वास्तविक सम्पत्ति है। जप, कीर्तन, प्रार्थना तथा ध्यान से निश्चय ही आपको अपने मन और हृदय पवित्र करने में सहायता प्राप्त होगी।

 

उसी मन्त्र का जप करें, जिसे आपका हृदय सबसे अधिक पसन्द करे। वही मन्त्र उपयुक्त मन्त्र है, जिसका जप करने से आपको प्रसन्नता तथा शान्ति प्राप्त हों। एक ही मन्त्र का जप करें-मन्त्र को बार-बार बदलें नहीं।

 

सदैव भगवन्नाम का जप करें। भगवान् प्रत्येक स्थान में हैं। 'वह' आपमें तथा आप 'उनमें' हैं। कोई ऐसा स्थान नहीं है, जहाँ 'वह' हों। आपके हाथ-पैर आपके जितना निकट हैं, 'वह' आपसे उससे भी अधिक निकट हैं। नियमित रूप से जप, पूजा तथा ध्यानाभ्यास करके आप भगवान् को प्राप्त हों।

 

भगवन्नाम का जप सदैव करते रहें। यह जप निरन्तर करते रहने से आपको आनन्द तथा सुख-शान्ति की प्राप्ति होगी।

 

सरल तथा पवित्र जीवन व्यतीत करें। प्रार्थना तथा ध्यान करने हेतु समय निश्चित कर लें। मधुर बोलें। मितभाषी बनें। दूसरों की सहायता करें। किसी भी कीमत पर सत्य ही बोलें। अपने कर्तव्यों का नियमित रूप से पालन करें। प्रत्येक क्षण भगवान् का स्मरण करें। यह दिव्य जीवन का सार है।

 

अपने जीवन को सरल तथा पवित्र बनायें। पवित्र भगवन्नाम सदैव आपके ओंठों पर हो भगवान् की उपस्थिति का अनुभव प्रत्येक स्थान पर करें। भगवान् आपमें तथा आप 'उनमें' हैं-इसे भूलें। अतएव, किसी से घृणा करें। सबसे प्रेम करें।

 

आप जहाँ-कहीं भी जायें, भगवान् की उपस्थिति को अनुभव करने का अभ्यास करें। आप जैसे-जैसे प्रार्थना-ध्यान के अभ्यास में प्रगति करते जायेंगे, वैसे-वैसे इस तथ्य का अनुभव आपको होता जायेगा कि आप भगवान् में तथा 'वह' आपमें हैं।

 

प्रातःकाल जप प्रारम्भ करने से पूर्व भली प्रकार अपने चेहरे तथा हाथों को धो लें अथवा यदि आप शीतल जल से स्नान करने के आदी हों, तो स्नान कर लें। जप करने हेतु कोई निश्चित स्थान चुन लें। नित्य-प्रति उसी स्थान पर जप करें, जहाँ आप नियमित रूप से जप करते हैं। जप करने का स्थान परिवर्तित करें। सरल जीवन व्यतीत करें। मिताहारी बनें। मितभाषी बनें। भले बनें तथा भलाई करें। किसी से घृणा करें। दूसरों की सहायता करें। नित्य-प्रति भगवान् से प्रार्थना करें। सदाचारपूर्ण जीवन व्यतीत करें। सत्यनिष्ठ बन कर अपने कार्य-कलाप करें। नियमित रूप से ध्यान करें। अविनाशी ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त करें। प्रज्ञा तथा शान्ति प्राप्त करने का अन्य कोई मार्ग नहीं है।

 

परमात्मा के विषय में निरन्तर चिन्तन करें। पवित्र भगवन्नाम सदैव आपके ओंठों पर हो धर्मग्रन्थों का नियमित स्वाध्याय, 'मैं कौन हूँ' की परिपृच्छा तथा विवेक-ये तीन आपको निश्चय ही भगवान् की ओर ले जायेंगे।

 

जप करते रहें। जहाँ-कहीं भी आपका मन भटक कर पहुँच जाये, वहीं भगवान् की उपस्थिति का अनुभव करें। मन को यह समझायें कि कोई ऐसा स्थान शेष नहीं है, जहाँ 'वह' हों। कण-कण में भगवान् हैं। निरन्तर मन का निरीक्षण करें। इसे थोड़ी देर तक भटकने दें। तब इसे अपने इष्ट-विषय पर वापस लाने का प्रयास करें। उच्च स्वर से भगवन्नाम का उच्चारण करने से एकाग्रता को विकसित करने में सहायता मिलती है। यदि आप स्वयं पुस्तकें नहीं पढ़ सकते, तो घर में किसी अन्य व्यक्ति से अनुरोध करें कि वह प्रतिदिन कुछ निश्चित समय तक आध्यात्मिक साहित्य पढ़ कर आपको सुना दिया करे।

 

असीम परम तत्त्व के साथ समस्वरित रहते हुए जीवन व्यतीत करें। अपनी अन्तरात्मा में आनन्द का अनुभव करें। यही जीवन का महान् घोष है। पवित्र भगवन्नाम का सदैव स्मरण रखें।

 

आप प्रतिदिन प्रातः तथा सायं भगवान् शिव के नाम का गायन कर सकते हैं। शिव सर्वव्यापक हैं। 'वह' आपमें तथा आप 'उनमें' हैं। प्रत्येक स्थान में 'उनकी' उपस्थिति का अनुभव करें।

 

अपने मन को भगवद्-चिन्तन का, अपने हृदय को पवित्रता का तथा अपने हाथों को निःस्वार्थ कर्म का भोजन दें। एकाग्र-चित्त हो कर भगवान् के स्मरण में लीन रहें।

 

अपने जीवन का कोई आदर्श चुन लें और इसके लिए प्रयास करें। मानव-जीवन का सर्वोच्च आदर्श है- पूर्णता की उपलब्धि। यह पूर्णता सुख-शान्ति से परिपूरित है। नियमित रूप से प्रार्थना-ध्यान करने से सुख-शान्ति को प्राप्त किया जा सकता है। अतः प्रार्थना-ध्यान करने हेतु दिन के कुछ घण्टे निश्चित कर लें। अपने दैनिक कार्य-कलापों का प्रारम्भ तथा समापन प्रार्थना से करें। सतत भगवद्-स्मरण करके भगवान् की उपस्थिति को अनुभव करने का अभ्यास करें।

 

भगवान् का पवित्र नाम सदैव आपके ओंठों पर हो। प्रत्येक रूप में भगवान् का दर्शन करें। प्रत्येक के साथ सदय तथा सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करें। सरल तथा पवित्र जीवन व्यतीत करें। यही दिव्य जीवन है।

 

आप जहाँ-कहीं भी हों, जिस किसी भी कार्य में संलग्न हों-सदा-सर्वदा भगवान् की उपस्थिति का अनुभव करें। भगवन्नाम को अपना मुख्य आश्रय मानें, भगवद्-स्मरण आपके लिए वैसा ही स्वाभाविक हो, जैसा कि नासिका के लिए श्वास होता है। भगवान् समस्त पदार्थों में अन्तर्निवास करते हैं। परिवर्तनशील नाम-रूपों के बीच 'वह' सदैव विद्यमान रहने वाली सत्ता हैं।

 

शरीर, मन तथा आत्मा का सुसंगत विकास ही आपको उस भव्य भूमिका का निर्वाह करने की क्षमता प्रदान करेगा, जिसके लिए आपने जन्म लिया है। आपको आत्म-साक्षात्कार हो सकता है। सदैव पवित्र भगवन्नाम का उच्चारण करते रहें। ईश्वर- साक्षात्कार के लिए एकमात्र सरल साधना-मार्ग हैअखण्ड नाम-स्मरण।

 

दैनिक जप तथा प्रार्थना के लिए कुछ समय निश्चित कर लें। भगवान् का सदैव स्मरण रखें।उनका' पवित्र नाम सदैव आपके ओंठों पर हो। भगवान् हमसे हमारे हाथ-पैरों से भी अधिक निकट हैं। वह हमारे श्वासों से भी अधिक निकट हैं। 'वह' सर्वत्र हैं। 'वह' आपमें तथा आप 'उनमें ' हैं। प्रत्येक स्थान में 'उनका' दर्शन करें।

 

पूरे हृदय, मन तथा आत्मा से भगवान् को पूरा-पूरा तथा गहन प्रेम दें। तब आप 'उनमें' पूर्णतः अन्तर्लीन हो जायेंगे।

 

भगवान् का अनन्य चिन्तन करें। जप के अपरिमित लाभों का वर्णन कौन कर सकता है ! जप ईश्वर-साक्षात्कार के मार्ग पर अन्धे साधक के हाथ की लाठी है। जप एक दिव्य पारसमणि है, जो जापक को दिव्य बना देती है। मात्र जप करके इसी जीवन में ईश्वर-साक्षात्कार किया जा सकता है।

 

भगवान् से नित्य-प्रति प्रार्थना करें। भगवान् का पवित्र नाम सदैव आपके ओंठों पर हो प्रत्येक दिवस के अन्त में अपने सारे कार्य भगवान् को अर्पित कर दिया करें। जहाँ-कहीं भी आप जायें, 'उनकी' उपस्थिति का अनुभव करें।

 

जीवन बहुमूल्य है; अतः उपयोगी कार्यों के सम्पादन में ही जीवन व्यतीत करें। दैनिक प्रार्थना-पूजा के लिए दिन का कुछ समय निश्चित कर लें। जहाँ-कहीं भी आप जायें, भगवान् की उपस्थिति का अनुभव करें; क्योंकि 'वह' प्रत्येक स्थान में हैं। 'वह' हमारे श्वासों तथा हाथ-पैरों से भी अधिक निकट है। 'वह' आपमें तथा आप 'उनमें' हैं। सदैव उन्हीं में निवास करें।

 

दिवस का प्रारम्भ प्रार्थना तथा भगवन्नाम-जप से करें। ऐसा करने से पूर्व थोड़ा व्यायाम कर लें तथा गहरी श्वास लें। प्रत्येक समय तथा प्रत्येक स्थान पर भगवान् का स्मरण करें। आपको योगी बनने की आवश्यकता नहीं है; परन्तु आपको एक आदर्श पुरुष अवश्य बनना चाहिए। आपके व्यक्तित्व को महान् गुणों के प्रकाश से ज्योतित होना चाहिए। आपके हृदय तथा मन पर सद्गुणों का अधिकार होना चाहिए। निर्भीक बनें। साहसी बनें। सदैव प्रफुल्ल रहें। आपका आन्तरिक जीवन सेवा, पूजा तथा ध्यान से निर्मित होना चाहिए। सदैव 'विचार' करें।

 

जहाँ-कहीं भी आप जायें, भगवान् की उपस्थिति का अनुभव करें; क्योंकि 'वह' प्रत्येक स्थान में हैं। ऐसा कोई स्थान नहीं, जहाँ 'वह' नहीं हैं। 'वह' आपमें तथा आप 'उनमें' हैं। 'वह' आपके सम्बन्धियों तथा मित्रों से भी अधिक निकट हैं। 'उन्हीं' में निवास करें। भगवद्-प्रेम से जीवन आह्लादित, परमानन्दमय तथा धन्य हो जाता है।

 

सरल तथा पवित्र जीवन में ही यथार्थ सुख-शान्ति निहित है। भगवद्-प्रेम आपको एक दिव्य सत्ता में रूपान्तरित कर देगा। भगवान् का गुणगान करके, भगवन्नाम का कीर्तन करके तथा भगवद्-गुणों का श्रवण करके भगवान् के प्रति अपने वास्तविक प्रेम का विकास करें।

 

सरल तथा पवित्र जीवन व्यतीत करें। अपने प्रार्थना, जप तथा स्वाध्याय में नियमित रहें। एक क्षण के लिए भी भगवान् का विस्मरण करें। भगवान् को यथाशक्ति दृढ़तापूर्वक पकड़े रहें। केवल 'उन्हीं' में आप वास्तविक सुख प्राप्त कर सकेंगे।

 

सदैव भगवान् का स्मरण रखें। 'उनका' पवित्र नाम सदैव आपके ओंठों पर हो 'उनके' चिन्तन में लीन रहें। अपना मन 'उन्हें' तथा अपने हाथ कर्मों को सौंप दें। भले बनें। भलाई करें। किसी से घृणा करें। सबको प्यार करें। यही दिव्य जीवन है।

 

भगवान् में ही संस्थित हो कर जियें। केवल भगवद्-प्रेम ही आपको वास्तविक सुख प्रदान कर सकता है। केवल भगवान् ही सत् हैं, शेष सब-कुछ असत् है; अतः सांसारिक पदार्थों से अपने को असम्बद्ध करके भगवान् से जुड़ जायें। पवित्र भगवन्नाम का जप करते रहें। अपने समस्त कार्य-कलाप भगवान् की पूजा समझ कर करें।

 

जीवन भगवान् (जो हमारे अस्तित्व के शाश्वत स्रोत हैं) की दिशा में की जाने वाली एक पवित्र तथा आनन्दप्रद गति है। हमारा जीवन दिव्य सारतत्त्व के साथ हमारे सतत आध्यात्मिक सम्बन्ध की एक अभिव्यक्ति है। भगवन्नाम जप तथा भगवान् का स्नेहिल स्मरण इस आन्तरिक सम्बन्ध को पुनः स्थापित करने का मर्म है। जो-कुछ भी आप करें, उसे भगवान् को समर्पित कर दें। अपना जीवन ही 'उन्हें' समर्पित कर दें। परमानन्द प्राप्त करने एवं निर्भय, मुक्त तथा धन्य होने की यही एक कुंजी है।

 

पूर्णतः सजग रहते हुए अपने कर्तव्यों का पालन करें। सम्यक् आध्यात्मिक भाव से सम्पन्न प्रत्येक कार्य पूजा तथा योग बन जाता है। जब आपका शरीर विभिन्न कार्यों को सम्पन्न करने में संलग्न हो, तब आपकी जिह्वा को पवित्र '' का मूक उच्चारण करते रहना चाहिए। प्रत्येक प्रातः तथा सायं ब्रह्मार्पण या कृष्णार्पण द्वारा अपने सारे कार्य भगवान् को अर्पित कर दें।

 

प्रार्थना-काल में आप भगवान् के निकट पहुँच जाते हैं। भक्ति से साधकों में आध्यात्मिक चेतना विकसित होती है। भगवन्नाम- जप से भक्ति की अमूल्य निधि प्राप्त होती है। भगवान् का स्नेहिल स्मरण भक्ति को परिपक्व बनाता है और आपको भगवान् के समक्ष उपस्थित कर देता है। भगवद्-दर्शन प्राप्त करने के लिए ही जीवन व्यतीत करें।

 

यदि ध्यान करने के लिए आपके पास अधिक समय हो, तब भी आप दिन-भर-कुछ भी करते समय-भगवन्नाम का जप करते रह सकते हैं। भगवद्-कृपा प्राप्त करने हेतु यह एक प्रभावकारी साधना है। भगवन्नाम अत्यन्त प्रभावशाली है। भगवन्नाम-जप के साथ-साथ भगवद्-इच्छा के प्रति पूर्ण समर्पण भी होना चाहिए-यह बोध रखते हुए कि जो कुछ भी हो रहा है, 'उनकी' इच्छा से और हमारे कल्याण के लिए हो रहा है। सम्पूर्ण भगवद्-अर्पण की इस आन्तरिक भावना से निरन्तर शान्ति और परमानन्द निःसृत होते हैं।

 

इन तीन बातों को अवश्य ही करें-

 

()        सत्य, शुचिता, निःस्वार्थता, दयालुता तथा (स्वभाव की) सरलता के सद्गुणों को अर्जित करें।

अपने क्रोध पर नियन्त्रण रखें। घृणा तथा अन्य दुर्भावनाओं का परित्याग करें।

 

()        प्रत्येक समय भगवान् का स्मरण रखें तथा उनके पवित्र नाम का निरन्तर जप करते रहें।

 

()        अपने सारे कर्म भगवान् को अर्पित कर दें। किसी भी कर्म को सांसारिक समझें। जो कुछ भी आप

करें, उसे पवित्र समझें तथा पग-पग पर उसे भगवान् को अर्पित कर दें। आपका प्रत्येक दिवस पूजामय बन जाये। अपनी पवित्र भावनाओं को विकसित करें; परन्तु उन पर अपने विवेक का नियन्त्रण बनाये रखें। बुद्धिमत्तापूर्वक विवेक करें।

 

प्रार्थना द्वारा भगवान् की उपस्थिति को अनुभव करने की अनवरत आकांक्षा रखें। भगवन्नाम का जप करें। नाम-जप द्वारा 'उनका' स्मरण करना तथा 'उनसे' उद्भूत शान्ति, परमानन्द तथा प्रकाश का चिन्तन करना 'उनके' सम्पर्क में आने तथा उनकी निकटतम तथा सुखद उपस्थिति में निवास करने के अमोघ उपाय हैं। बस, जिस वस्तु की आवश्यकता है, वह है-प्रभु-मिलन की अखण्ड आकांक्षा से परिपूरित तथा प्रेम से पूर्ण एक हृदय। ऐसे हृदय की प्रेम-पुकार का उत्तर भगवान् अवश्य देते हैं; क्योंकि 'वह' पूर्णतः दयालु तथा करुणामय हैं। धैर्य तथा शान्ति रखें। 'वह' आपकी पुकार का उत्तर देंगे ही।

 

दैनिक तथा सतत ध्यान करने के साथ-साथ आप साक्षात्कार प्राप्त सन्त-महात्माओं द्वारा लिखित प्रेरणाप्रद पुस्तकों का स्वाध्याय भी कर सकते हैं। इससे आपकी (प्रभु-मिलन की) आकांक्षा गहन बनी रहेगी और आपको प्रेरणा प्राप्त होती रहेगी। आप हमारे परम पूज्य गुरुदेव श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज की पुस्तकों का स्वाध्याय करें। उन पुस्तकों का प्रत्येक शब्द शक्ति का पुंज है तथा आपको रूपान्तरित कर देने एवं भगवान् की ओर ले जाने की क्षमता से परिपूरित है।

 

मन की शुद्धता निःस्वार्थ सेवा, प्रार्थना तथा उपासना से अर्जित की जाती है। भगवन्नाम का सतत स्मरण करते रहें।

 

दिव्य जीवन के आदर्श के प्रति अपनी निष्ठा को अटल बनाये रखें। प्रतिदिन सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय अवश्य करें-भले ही अल्पकाल के लिए करें। पूजा की भावना बनाये रख कर अपने सामान्य व्यावसायिक कार्यों का अध्यात्मीकरण करें। सदैव प्रसन्न रहें। जिन प्राणियों पर विधाता की कृपा कम है, उनके प्रति दयालु तथा दानशील बनें। सदैव भगवन्नाम का उच्चारण करते रहें। सत्य के निर्भीक दूत तथा भगवान् के विनम्र सेवक बनें।

 

भगवद्-स्मरण ही जीवन है। भगवान् का विस्मरण ही मृत्यु है। भगवान् में श्रद्धा तथा 'उनके' प्रति भक्ति इस संसार का सर्वाधिक मूल्यवान् कोष है। भक्ति-विहीन जीवन नीरस, निस्सार तथा निरर्थक है। भगवन्नाम से महान् कोई कोष नहीं है। धर्म या चरित्र से बड़ी कोई सम्पत्ति नहीं है। धर्म आपको भगवान् की ओर ले चलता है और केवल भगवान् में ही आपको वास्तविक सुख, शान्ति तथा परमानन्द प्राप्त होते हैं। सुख पाने के लिए आपको भगवान् को प्राप्त करना होगा। इसके अतिरिक्त कोई अन्य उपाय नहीं है। यही एकमात्र उपाय है, यही सत्य है।

 

जो व्यक्ति आपके मन की धारा को भगवान् की ओर मोड़ दे, वह आपका परम शुभ-चिन्तक है। जो व्यक्ति आपमें धर्मानुराग उत्पन्न कर दे, वह आपका सच्चा मित्र है। प्रवचन तथा सत्संग मानव के लिए प्रेरणा के स्रोत हैं तथा उसे ईश्वरोन्मुख कर देते हैं। सचमुच, यह मानवता की एक महान् सेवा है।

 

प्रार्थना तथा भगवन्नाम-जप के लिए प्रतिदिन प्रातः तथा सायं कुछ समय नियत कर लें। भगवद्-चिन्तन से ही दिवस का प्रारम्भ करें। समूचे दिवस को भगवद्-चिन्तन से परिपूरित कर दें। सोते समय भी भगवद्-चिन्तन करें।

 

सदैव भगवान् के चिन्तन में लीन रहें, क्योंकि 'वह' सर्वत्र हैं। कोई ऐसा स्थान नहीं है, जहाँ 'वह' हों। 'वह' आपमें तथा आप 'उनमें' हैं। नियमित पूजा-प्रार्थना करके इस तथ्य का अनुभव प्राप्त करें।

 

आपके जीवन का एकमात्र लक्ष्य भगवद्-प्राप्ति है। इसके अतिरिक्त अन्य सब निरर्थक तथा मूल्यहीन है। अतएव सरल, पवित्र तथा श्रेष्ठ जीवन व्यतीत करके परम तत्त्व को प्राप्त करें। भगवान् का नाम सदैव लेते रहें। 'उनका' पवित्र नाम सदैव आपके ओंठों पर हो। जब आस्थापूर्वक भगवान् का नाम लिया जाता है, तब वह आपको आनन्द तथा धन्यता प्रदान करता है।

 

प्रत्येक नव-वर्ष का प्रारम्भ भगवान् की उपस्थिति का कण-कण में अनुभव करके करें। भगवान् से निरन्तर प्रार्थना करते रहें। ऐसा अनुभव करें कि 'वह' आपके अपने ही हैं। अन्तर्मुखी बन कर अन्दर की ओर देखें तथा परमानन्द का अनुभव करें।

 

अपने दैनिक ध्यान में नियमित रहें। प्रातः तथा सायं कम- से-कम आधा-आधा घण्टे तक ध्यान करें। सदैव भगवान् का स्मरण करते रहें। 'उनका' पवित्र नाम सदैव आपके ओंठों पर हो

 

आपके लिए मेरा परामर्श यह है- दिव्य जीवन व्यतीत करें। प्रतिदिन जप करें। प्रत्येक दिवस प्रातः तथा सायं भगवन्नाम का कीर्तन करें। नियमित रूप से प्रातःकाल व्यायाम, आसन आदि करें। सत्यवादी बनें। गुरु जनों की सेवा करें। गीता तथा रामायण का स्वाध्याय करें। अपने अन्दर भक्ति का विकास करें। यही दिव्य जीवन है। ऐसा ही श्रेष्ठ जीवन व्यतीत करें। आप भगवान् का साक्षात्कार करेंगे।

 

कीर्तन मन तथा हृदय को शुद्ध करता है। कीर्तन करते समय सांसारिक विचारों का लोप हो जाता है। इस कलियुग में भगवन्नाम समस्त सांसारिक रोगों की औषधि है। दोगुनी शक्ति तथा उत्साह से अपनी साधना को जारी रखें।

 

आप अपने इष्टदेव का मन्त्र जपते रहें। आप भक्तियोग के साथ राजयोग को जोड़ सकते हैं। अपने पवित्र मन्त्र का जप करने के साथ-साथ आप उसे एक पृथक् लेखन-पुस्तिका में भी लिखें। मन्त्र-लेखन को लिखित जप कहा जाता है। प्रतिदिन आधा घण्टे तक मन्त्र-लेखन करें। मन्त्र लिखते समय मौन रहें। प्रतिदिन ब्राह्ममुहूर्त में दो घण्टे तक आध्यात्मिक साधना करें। प्रारम्भ में आसनों तथा सरल प्राणायामों का अभ्यास करें। दैनिक अभ्यास के लिए साधना के कार्यक्रम की एक रूपरेखा बना लें।

 

भगवन्नाम में असीम शक्ति है। वर्तमान समय में मानव को आक्रान्त करने वाले कष्टों का समाधान भगवन्नाम-जप ही है।

 

आप सरल तथा पवित्र हैं। सद्गुणों का अर्जन करने हेतु आपको श्रम करना होगा। श्रेष्ठ बनें। बालकों के समान सरल बनें। ईमानदार तथा सत्यवादी बनें। प्रतिदिन प्रातः तथा सायं भगवान् से प्रार्थना करना भूलें। प्रतिदिन जप करें तथा आधा घण्टे तक मौन धारण करें। आप दिव्य जीवन व्यतीत करने लगेंगे।

 

भगवन्नाम के प्रति श्रद्धा तथा गहन आस्था रखें तर्क से भगवन्नाम की महिमा स्थापित नहीं की जा सकती; परन्तु आस्था, भक्ति तथा अखण्ड जप से भगवन्नाम ही महिमा को अनुभव अवश्य किया जा सकता है।

 

सदैव भगवन्नाम का जप करें। जहाँ-कहीं भी आप जायें, भगवान् की उपस्थिति का अनुभव करें। 'वहआपमें तथा आप 'उनमें' हैं। आपके समस्त कार्य-कलाप भगवान् से की गयी एक अखण्ड प्रार्थना बन जायें।

 

अपने समस्त कार्य-कलाप भगवान् को अर्पित कर दें अथवा उन्हें पूजा-भाव से करें। प्रत्येक समय मानसिक रूप से भगवन्नाम-जप करते रहें। भगवान् की कृपा प्राप्त करने हेतु 'उनका' स्मरण तथा पूजन प्रभावकारी साधन हैं। आपका व्यवसाय चाहे जो हो, आप चाहे जहाँ जायें या यात्रा करें, सदैव भगवान् का स्मरण करते रहें तथा अपने कार्यों को पूजा-भाव से 'उन्हें' अर्पित करके करें। आप शीघ्र ही 'उनकी' कृपा प्राप्त करेंगे।

 

प्रतिक्षण भगवान् के प्रति जागरूक रहते हुए जियें। सन्तों का सत्संग करें। सत्संग आपको प्रेरणा प्रदान करेगा तथा आपका मन उत्तम विचारों से परिपूरित हो जायेगा। सन्त आपको भगवान् से सम्पर्क स्थापित करने में सहायता प्रदान करते हैं। इस संसार में प्राप्त करने योग्य एकमात्र भगवान् ही हैं। अतः 'उनके' दिव्य नाम का आश्रय कभी छोड़ें।

 

भगवान् को प्राप्त करने का सरलतम उपाय 'उन्हें' सदैव स्मरण रखना है। 'उन्हें' स्मरण रख कर आप 'उनके' प्रति अपने प्रेम को विकसित करते हैं। 'उनका' चिन्तन करके आप 'उनकी' कृपा को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। 'उनकी' कृपा प्राप्त होने पर मानव के रूप में जन्म लेने के उद्देश्य की पूर्ति हो जाती है।

 

सदैव पवित्र भगवन्नाम का जप करते रहें। भगवन्नाम एक ऐसी प्रभावकारी आध्यात्मिक शक्ति है, जो उन सभी अवरोधों का सामना करके उन्हें नष्ट कर सकती है, जो साधक के ध्यान तथा प्रार्थना के आन्तरिक पथ पर बाधा उत्पन्न करते हैं। भगवन्नाम में गहन आस्था रख कर उसका निरन्तर जप करके ही उसकी शक्ति का अनुभव किया जा सकता है। सम्यक् भाव रख कर ही भगवन्नाम की शक्ति को जाग्रत किया जा सकता है।

 

राम-नाम में असीम शक्ति है। यह समस्त रोगों की औषधि है। अतः भगवान् का पवित्र नाम सदैव आपके ओंठों पर रहे।

 

दिन में प्रत्येक समय भगवान् शिव (अथवा अपने इष्टदेव) का नाम जपते रहें। भगवन्नाम का जप किसी निश्चित समय पर ही किया जाये-ऐसा कोई प्रतिबन्ध नहीं है। साधक के लिए उसके जीवन का प्रत्येक क्षण बहुमूल्य है। अतः (प्रातःकालीन तथा सायंकालीन जप के अतिरिक्त) सदैव भगवान् शिव (अथवा अपने इष्टदेव) का चिन्तन करते रहें। अपने सारे कार्य-कलाप करते हुए भी आप भगवन्नाम का जप मानसिक रूप से करते रह सकते हैं।

 

भगवन्नाम जीवन की समस्त विपत्तियों का असन्दिग्ध प्रतिकार है। यह केवल शारीरिक कष्टों को दूर करता है, वरन् भवरोगों को भी नष्ट कर देता है। अतएव आस्थापूर्वक तथा भक्ति-भाव से भगवन्नाम लेते रहें। दिव्य नाम का आश्रय छोड़ें। भगवन्नाम बहुत बड़ी शान्ति तथा सान्त्वना है।

 

वस्तुतः जीवन अल्पकालिक है। शरीर नश्वर है तथा मृत्यु अवश्यम्भावी है। भगवान् एक महान् तथा शाश्वत सत्ता हैं। मानव जो जीते-जी उस शाश्वत सत्ता का अन्वेषण कर लेना चाहिए। यही जीवन है, यही जीवन का प्रमुख उद्देश्य है।

 

जिस समय शरीर दैनिक कार्य-कलापों को सम्पन्न करने में लगा हुआ हो, उस समय भी आपकी आन्तर सत्ता को शाश्वत सत्ता का चिन्तन करते रहना चाहिए। प्रत्येक क्षण भगवान् का स्मरण बना रहे! सदैव आपकी जिह्वा भगवन्नाम का उच्चारण करती रहे। आपके दैनिक कर्म भक्ति-भाव से किये गये समर्पण का रूप ले लें। दिव्य उपस्थिति अभी और यहीं है। प्रत्येक नाम-रूप से भगवान् का प्रकाश दृश्यमान् हो रहा है। इस जागरूकता के साथ व्यतीत किया गया जीवन धन्यता, प्रसन्नता तथा शान्ति प्रदान करता है।

 

भगवान् राम (या अपने इष्टदेव) का पवित्र नाम सदैव आपके ओंठों पर रहें। एक क्षण के लिए भी भगवान् का विस्मरण करें। अपना मन भगवान् को सौंप दें तथा अपने हाथ कर्मों को।

 

गहन आस्था में मूलबद्ध हो जायें। भगवान् को अपने जीवन का केन्द्र-बिन्दु बना लें। प्रार्थना से शक्ति प्राप्त करें। भगवन्नाम आपका आश्रय है। प्रातःकाल तथा रात्रि में भगवन्नाम का उच्चारण ऊँचे स्वर से करें। आपका आवास भगवन्नाम की ध्वनि से भर उठे! आप शान्ति, समृद्धि तथा धन्यता को प्राप्त हों!

 

सरल तथा पवित्र जीवन व्यतीत करें। नित्य-प्रति भगवान् से प्रार्थना करें। ऐसा कोई स्थान नहीं है, जहाँ भगवान् हों। 'वह' सर्वत्र हैं। 'वह' सर्वव्यापक हैं। प्रत्येक स्थान पर उनका दर्शन करें।

 

सदैव यह अनुभव करें कि आपकी समग्र सत्ता की प्रत्येक गति उस दिव्यता से की गयी आपकी जीवन्त प्रार्थना तथा उसे अर्पित आपकी श्रद्धा है, जो आपकी सत्ता के अन्तरतम केन्द्र में निवास करती है। भगवान् अन्तरात्मा हैं। 'वह' एक दिव्य प्रकाश के रूप में हमारे अन्दर देदीप्यमान हैं। आप एक क्षण के लिए भी 'उनसे' दूर नहीं हैं। 'वह' सदैव आपके साथ हैं। यही सत्य है। जप इस सत्य के प्रति जागरूकता को बनाये रखने का एक उपाय है।

 

भगवान् की उपस्थिति का अनुभव सदैव करें, 'उनका' स्मरण सदैव करें तथा 'उनका' नाम प्रत्येक समय लेते रहें। मानव की सेवा करें तथा भगवान् की पूजा करें। भगवन्नाम के उच्चार से आपका आवास भर उठे !

 

जब आप जप करें, तब मन्त्र पर मन को एकाग्र करें। मन्त्र का उच्चारण स्पष्टतः करें। जब आपका मन अशान्त हो, तब मन्त्र का उच्चारण कुछ ऊँचे स्वर से इस प्रकार करें कि केवल आप उसे सुन सकें। जब आपका मन शान्त हो, तब आप मन्त्र का मानसिक उच्चारण कर सकते हैं। जप के लिए एक स्थान निश्चित कर लें तथा एक पृथक् आसन का प्रबन्ध कर लें। जप-स्थान साफ-सुथरा रखें तथा नित्य-प्रति उसी स्थान पर जप करें।

 

नियमित अभ्यास से भगवान् का अखण्ड स्मरण सम्भव हो जाता है। आप जहाँ-कहीं भी जायें, 'उनकी' उपस्थिति का अनुभव करें। अपने दैनिक कार्यों में 'उनकी' उपस्थिति का अनुभव करें। प्रत्येक समय भगवान् को स्मरण रखने का प्रयास जागरूकतापूर्वक करें। अपने दैनिक कार्यों के साथ मानसिक स्तर पर भगवन्नाम को जोड़ दें। उठते-बैठते, चलते-खाते-कोई भी कार्य करते समय भगवन्नाम लेते रहें।

 

अनुभव करें कि भगवान् अन्तर्यामी हैं तथा आपके मन, शरीर और इन्द्रियों का परिचालन करते हैं। यह भी अनुभव करें-मैं 'उनके' हाथों में मात्र एक उपकरण हूँ तथा एकमात्र कर्ता 'वह' ही हैं। भगवद्-चिन्तन में सदैव लीन रहें। भगवान् का पवित्र नाम अनवरत लेते रहें।

 

मन्त्र-लेखन के लिए एक सजिल्द लेखन-पुस्तिका रखें। इस लेखन-पुस्तिका को अपने पूजा-गृह में रखें। मन्त्र लिखते समय मौन रहें तथा मन में सांसारिक विचारों को आने दें। मन्त्र-लेखन भावपूर्वक करें।

 

आप जहाँ-कहीं भी जायें, भगवान् की उपस्थिति का अनुभव करें; क्योंकि 'वह' प्रत्येक स्थान पर हैं। ऐसा कोई स्थान नहीं है, जहाँ 'वह' हों। 'वह' आपमें तथा आप 'उनमें' हैं। नियमित रूप से जप तथा ध्यान करके इस तथ्य का अनुभव करें।

 

सरल तथा पवित्र जीवन व्यतीत करें। सदैव भगवान् का स्मरण रखें। प्रार्थना तथा जप के लिए समय निश्चित कर लें, गुरु जनों का आदर करें। अतिथियों का स्वागत-सत्कार करें। पड़ोसियों की सेवा करें। एक आदर्श जीवन व्यतीत करें। दूसरों के लिए एक आदर्श बनें।

 

आप केवल भगवान् में ही शाश्वत सुख-शान्ति प्राप्त कर सकते हैं। 'उन' पर भरोसा करें। 6/(3 + 17) आस्था रखें। 'वह' आपको पूर्ण सुख-शान्ति प्रदान करेंगे। सरल तथा पवित्र जीवन व्यतीत करें। ध्यान-जप के लिए समय निश्चित कर लें। भगवान् का पवित्र नाम अनवरत लेते रहें। आप जहाँ-कहीं भी जायें, 'उनकी' सर्वव्यापी उपस्थिति का अनुभव करें। 'वह' आपके हाथ-पैरों से भी अधिक निकट हैं। 'वह' आपके श्वासों से भी अधिक निकट हैं।

 

सदैव भगवान् का नाम लेते रहें। भगवन्नाम जीवन की समस्त विपत्तियों को दूर कर देता है। इस पवित्र नाम में गहन आस्था रखें। भगवान् तथा उनका नाम एक ही हैं। दोनों में कोई अन्तर नहीं है। भगवान् की उपस्थिति का अनुभव सर्वत्र करें।

 

अपने कार्यों को भगवान् की पूजा समझते हुए करें। अपने कार्य-स्थल पर भगवान् की उपस्थिति का अनुभव करें। आत्म- विश्वास रखें। समस्त प्राणियों के प्रति दयालु रहें। कठोर वचन कभी बोलें। अपने वरिष्ठ अधिकारियों का सम्मान करें। अपने अधीनस्थ कर्मचारियों पर सन्देह करें। भगवान् की कृपा आप पर बनी रहे!

 

दैनिक जप-ध्यान के लिए समय निश्चित कर लें। कीर्तन करें। भगवान् की पूजा करें। मन भगवान् को तथा हाथ अपने कार्यों को सौंप दें।

 

प्रत्येक प्राणी में तथा अपने अन्दर भगवान् का दर्शन करें। सर्वत्र 'उनकी' उपस्थिति का अनुभव करें। आप असीम परमानन्द, शक्ति तथा अनिर्वचनीय आनन्द का अनुभव करेंगे।

 

एक क्षण के लिए भी भगवान् का विस्मरण करें। भगवान् शक्ति के स्रोत हैं। भगवान् का स्मरण शक्ति तथा जीवन है।

 

भगवान् का जो नाम आपको अत्यन्त प्रिय हो, उसका जप सदैव करते रहें। अभी से जप करना प्रारम्भ कर दें। भगवान् से प्रेम तथा 'उनमें' गहन आस्था के भाव विकसित करें। 'उनकी' कृपा प्राप्त करने के लिए लालायित रहें। नियमित रूप से जप तथा ध्यान करने से दिव्य ज्योति अधिकाधिक द्युतिमान् होती जाती है।

 

भगवान् आपके अन्दर हैं। 'वह' समस्त प्राणियों के हृदयों में विराजमान हैं। जो-कुछ भी आप देखते, सुनते, स्पर्श करते या अनुभव करते 'वह' सब भगवान् ही हैं। जो दूसरों को सुख देने के लिए आतुर रहता है, वह स्वयं सुखी हो जाता है। यथाशक्ति दुःखियों के दुःख दूर करें।

 

भगवन्नाम का जप करते रहें। 'उनका' पवित्र नाम सदैव आपके ओंठों पर रहे। केवल भगवान् ही सत् हैं। इस जीवन का उद्देश्य 'उन्हें' ही उपलब्ध करना है। अतः सरल तथा पवित्र जीवन व्यतीत करें तथा इस उद्देश्य की पूर्ति करें।

 

शाश्वत परमानन्द प्राप्त करने की आकांक्षा रखें। परम तत्त्व का साक्षात्कार करने का प्रयास करें। प्रत्येक स्थान पर भगवान् के दर्शन करें।

 

भगवान् सर्वत्र उपस्थिति हैं-इस भावना को आत्मसात करने का सतत अभ्यास करें। प्रात:काल भगवान् का नाम लेते हुए शय्या छोड़ें। दिन-भर अपने सारे कार्य-कलाप करते हुए 'उन्हें' याद रखें। शयन करते समय भी 'उनका' नाम आपके ओंठों पर हो। भगवान् का ऐसा सतत स्मरण आपको पूर्ण शान्ति तथा सुख प्रदान करेगा

 

गम्भीरतापूर्वक जप का श्रीगणेश करें तथा एक महान् जपयोगी बन जायें। भगवन्नाम का आश्रय कभी छोड़ें। भगवन्नाम का सतत जप करने का अभ्यास इस कलियुग में एक महत्तम योग है। अतः भगवान् का अनन्य चिन्तन करने की आदत डालें। इससे आप 'उन' तक सुरक्षित पहुँच जायेंगे।

 

आत्म-साक्षात्कार की एक अत्यन्त प्रभावी विधि है- भगवद्-भक्ति। अतः जप, प्रार्थना, कीर्तन, रामायण-भागवत आदि के स्वाध्याय तथा साधु-सेवा द्वारा भगवद्-भक्ति को पोषित करें।

 

जप करते समय यदि इष्टदेव के रूप का मानस-दर्शन हो, तो चिन्ता करें। जब आपकी जप-साधना उन्नत हो जायेगी, तब ऐसा होने लगेगा।

 

अपने इष्टदेव के चित्र के समक्ष बैठें। कुछ देर तक चित्र को निर्निमेष देखते रहें, फिर आँखें बन्द कर लें। मन में इष्टदेव का रूप ले आयें। इसका बार-बार अभ्यास करें। आपको सफलता मिलेगी। सांसारिक विचारों से मन को हटा लें। एकाग्रता तथा अवधान का विकास करें। धैर्य रखें। सात्त्विक भोजन ग्रहण करें। प्रार्थना करें। नियमित रूप से जप करें। इन सबसे आपको अध्यात्म-मार्ग पर आगे बढ़ने में सहायता प्राप्त होगी।

 

 

 

 

 

 

 

. अध्यात्म-पथ की बाधाएँ

 

प्रत्येक समस्या के साथ उसका समाधान भी उत्पन्न हो जाता है। अतः जब समस्याएँ उत्पन्न हों, तब भयभीत हों। भगवान् को अपने जीवन का मार्ग-दर्शक बना लें। व्यक्तिगत कामनाओं को पराभूत करें तथा केवल भगवान् को प्राप्त करने की आकांक्षा रखें। प्रीतिकर वस्तुएँ अनिवार्यतः हमें परम सुख की ओर नहीं ले जातीं। जो भगवान् आपको इस संसार में ले आये हैं, 'उन्हें' ही जानने के लिए तथा 'उन्हीं' के लिए जियें। अपने जीवन के प्रत्येक क्षण का सदुपयोग करें। जैसा आप सोचते हैं, वैसा आप बनते हैं। भगवान् सबसे बड़ी सम्पत्ति हैं। परमानन्द आपके अन्दर ही है।

 

निःसन्देह योग-पथ दुर्गम है। इस पथ पर चलते हुए अनेक प्रकार की मन की प्रकृतियों के सम्पर्क में आना पड़ता है। बहुधा योग के विद्यार्थियों को निराशाओं, असफलताओं तथा बाधाओं का सामना करना पड़ता है। निष्ठावान् साधक इन सबके पीछे भगवान् की अदृश्य लीला का दर्शन करता है और इन्हें अपने अपूर्ण स्वभाव को पूर्ण बनाने का एक अवसर मानता है। अतः ऐसे समस्त तथाकथित अवरोध अपनी प्रकृति पर विजय प्राप्त करने के अवसर में रूपान्तरित कर दिये जाते हैं। इसके लिए धैर्य की आवश्यकता है।

 

यह हमारा कर्तव्य है कि हम सभी से प्रेम करें-उनसे भी जो हमें निराश करते रहते हैं। जो प्रेम मुक्तहस्त से नहीं लुटाया जाता, वह वास्तविक दिव्य प्रेम नहीं है। वास्तविक दिव्य प्रेम के माध्यम से आप अन्यों का हृदय परिवर्तित कर सकते हैं। शुद्ध प्रेम अन्ततः सदैव विजयी होता है। यह प्रेम प्रदान करने वाले व्यक्ति तथा अन्यों के-सभी के हृदयों को रूपान्तरित कर देता है।

 

अपनी आध्यात्मिक उन्नति के विषय में कभी भयभीत हों। पग-पग पर आपकी आस्था तथा भक्ति आपकी सहायता करेंगी। निष्ठावान् शिष्य को सदा गुरु-कृपा का मार्ग-निर्देशन प्राप्त होता रहता है। भगवान् की उपस्थिति के प्रति सदैव जागरूक रहें। आपका दैनिक जीवन भगवद्-स्मरण की एक अखण्ड धारा बन जाये। प्रत्येक रूप में तथा उसके माध्यम से भगवान् के दर्शन करें। हृदय में 'उनके' प्रति पूजा-भाव बनाये रखें। भगवन्नाम एक अमोघ शक्ति तथा आधार है।

 

यह सांसारिक जीवन दुःखपूर्ण है। पीड़ा एक अप्रत्यक्ष कृपा-दान है। पीड़ा से मन भगवान् की ओर उन्मुख हो जाता है, 'जिनमें' ही शाश्वत सुख तथा शान्ति का वास है। भगवान् का अखण्ड स्मरण सांसारिक दुःखों को दूर करता है तथा व्यक्ति को परमानन्द से परिपूरित कर देता है।

 

साधना-काल में साधक को विभिन्न प्रकार के अनुभव होते हैं। ये अनुभव आध्यात्मिक जीवन के अभिन्न अंग हैं। कभी साधक को अपने आध्यात्मिक जीवन से प्रसन्नता प्राप्त होती है, तो कभी उसे इस जीवन में कोई रुचि नहीं रह जाती। साधक को प्रसन्नता-अप्रसन्नता से ऊपर उठ जाना चाहिए। इनसे उसका मन क्यों विक्षुब्ध हो? ये तो आती-जाती रहती हैं।

 

तत्त्वतः आप दिव्य हैं। शान्ति आपका वास्तविक स्वभाव है। कोई भी व्यक्ति, कोई भी वस्तु आपको विक्षुब्ध नहीं कर सकती। बाह्य वातावरण आपको प्रभावित नहीं कर सकता।

 

भगवान् से मन-ही-मन प्रार्थना करें। एकान्त में अपने से गम्भीरतापूर्वक प्रश्न करें - 'मैं कौन हूँ?' अपने मन को आदेश दें कि वह निरन्तर भगवान् के चिन्तन में लीन रहे। चिन्तन तथा ध्यान का नियमित अभ्यास करने से आपको शान्ति तथा सुख प्राप्त होंगे। सदैव सकारात्मक चिन्तन करें। आप निष्ठापूर्वक तथा दीर्घकाल तक जिस प्रकार का चिन्तन करते हैं, आप उसी के अनुसार विकसित होते हैं। उन आदर्शों का चिन्तन करें, जिनके अनुरूप आप विकसित होना चाहते हैं।

 

यह शरीर प्रारब्ध का परिणाम है। लौकिक जीवन व्यतीत करने हेतु हमने इस शरीर रूपी सतत परिवर्तनशील तथा अविश्वसनीय साधन को अपनाया है। आप वह महान् आत्मा हैं, जो कान्तिमय तथा देदीप्यमान है तथा जो अपनी शान्ति, परमानन्द तथा पूर्णता के अपरिवर्तनीय रूपों में सदैव निवास करती है। यह एक दिव्य स्फुलिंग है। यह अपने स्रोत, आधार तथा अन्तिम गन्तव्य श्रीहरि से निःसृत होने वाली दीप्ति की एक किरण है। शरीर आपकी वास्तविक आत्मा नहीं है। यह एक वाहन है। यह एक क्लेशकर बन्धन है। यह एक वरदान भी है; क्योंकि इसकी सहायता से आप भगवान् की उपासना कर सकते हैं, भगवन्नाम-जप कर सकते हैं तथा 'उनकी' दिव्य सत्ता का ध्यान कर सकते हैं। परन्तु, शरीर से पृथक् आप शुद्ध आत्म-सत्ता की अपनी आद्य तथा देदीप्यमान अवस्था में निवास करते हैं। आप नित्य, निर्मल, शाश्वत तथा अमर सच्चिदानन्द-स्वरूप हैं। सत्य की इस चेतना में मूलबद्ध हो जाना भगवान् नारायण को अतीव प्रसन्नता प्रदान करने वाली एक उपासना है।

 

पूर्णतः आत्म-विश्वासी बनें। मन से समस्त भयों को निकाल फेंकें। मन वंचक है। यह समस्त दुःखों का मूल है। भय स्वयं ही एक प्रमुख रोग है। इसे मन से निष्कासित कर दें। सदैव मुस्कराते रहें। प्रसन्नता तथा परमानन्द ही आपके वास्तविक स्वरूप हैं। आप अपने को मन से भिन्न मानें। मन से ऊपर उठें। अपनी वास्तविक आध्यात्मिक प्रकृति पर बल देते हुए मन के आधिपत्य को हटा दें। आप अविनश्वर आत्मा हैं।

 

यदि आप धैर्यपूर्वक अपने जीवन तथा इसकी परिस्थितियों के विषय में सोचें, तो आपको पता चलेगा कि आपकी परिस्थितियाँ उन लोगों की अपेक्षा कहीं अधिक अच्छी और सुविधापूर्ण हैं, जिन्हें कि भगवान् ने आपके चतुर्दिक् के सहस्रों व्यक्तियों को प्रदान किया है। अपनी वर्तमान कठिनाइयों से मुक्त होने के सर्वोत्तम उपाय हैं-भगवान् में आस्था रखना, अधिक अध्यवसाय तथा अधिक श्रम करना और भगवान् से सदैव यह प्रार्थना करना कि 'वह' आपकी क्षमताओं का अधिकाधिक उपयोग करें तथा जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु आपके लिए अधिक मात्रा में साधन उपलब्ध करायें। मुझे पूरा विश्वास है कि भगवान् आपको प्रसन्नता, धैर्य तथा शान्ति (जो साधकों के सद्गुण हैं) की मनोदशा में अपनी कठिनाइयों का सामना करने की क्षमता प्रदान करेंगे; साथ ही, आपको आर्थिक समस्याओं से भी मुक्ति दिलायेंगे।

 

प्रसन्न-चित्त रहें। नियति-जिसके माध्यम से दयालु परमात्मा आप सबसे परिचित होते हैं-आपके अध्यवसाय, परिश्रम, प्रार्थनाओं तथा दृढ़ इच्छा-शक्ति के अनुकूल परिस्थितियाँ निर्मित करेगी तथा शीघ्र ही आपको अपनी दुर्दशा से मुक्ति प्राप्त करने का मार्ग दिखायेगी। कृपया अपने-अपने घरों में सत्संग आयोजित करें। कीर्तन, भजन, प्रार्थनाएँ महान् आध्यात्मिक सम्पत्ति हैं, जो आपको भौतिक धन भी प्रदान करते हैं।

 

संसार से कभी भी भयभीत हों। जब आपकी जिह्वा पर भगवान् हों तथा हृदय में श्री गुरुदेव हों, तब संसार आपका क्या बिगाड़ सकता है! यदि आप अपने भोजन के सम्बन्ध में सावधान हैं, तो आपके स्वास्थ्य में सुधार होगा। उष्ण पेय लें। कड़ी चाय आदि का भी सेवन करें। तले हुए खाद्य-पदार्थ, लाल मिर्च तथा काली मिर्च से भी बचें। दूध को थोड़ी-थोड़ी मात्रा में कई बार पियें। उद्विग्न हों। उतावली करें। मन को चिन्ताओं से मुक्त रखें।

 

सदैव प्रसन्न-चित्त तथा प्रफुल्ल रहें। प्रत्येक परिस्थिति में मुस्करायें। दिन में कई बार हँसें। आत्मा आनन्द है, आप परमानन्द हैं-इसे अनुभव करें तथा अपने व्यवहार में व्यक्त करें।

 

जीवन में उतार-चढ़ाव आयेंगे। जीवन में कभी मुस्कराहटें बिखरेंगी, कभी आँसू बहेंगे; परन्तु कभी भी भगवान् में अपना विश्वास खोयें। सदैव इस दृढ़ विश्वास के साथ साधना-पथ पर बढ़ते जायें कि भगवान् कठिनाइयों के माध्यम से आपको अपने ही आकार में ढाल देना चाहते हैं। सम्पूर्ण हृदय से तथा उत्साहपूर्वक प्रार्थना करें। सब-कुछ भगवान् के भरोसे छोड़ दें। 'वह' वही करेंगे, जो आपके लिए कल्याणकारी होगा।

 

आध्यात्मिक जीवन नियन्त्रित मन की सहायता से दिव्यता में संस्थित हो कर व्यतीत किया गया जीवन है। अध्यात्म-पथ पर चलने के लिए दीर्घकालीन दृढ़ता तथा महान् धैर्य की आवश्यकता होती है। आप अपने मन में जिन विचारों को उत्पन्न करते तथा अपने दैनिक जीवन में जिन बिम्बों को निर्मित करते हैं, उनसे ही आपके वर्तमान तथा भावी जीवन का निर्माण होता है। अतः क्रोधादि पर नियन्त्रण प्राप्त करने में मिली असफलताओं के विषय में सोचें। अतीत को उसके गर्त में दबा रहने दें। वर्तमान में ही रह कर कार्य करें। अतः अतीत का चिन्तन करके दिव्य विचारों को प्रश्रय दें। आपका यह सोचना कि आप अगले माह ब्रह्मचर्य का पालन करने में सफल हो जायेंगे, आपको उसके अनुवर्ती माह में भी ब्रह्मचर्य-पालन में सफलता प्रदान करेगा।

 

भगवान् सर्वत्र हैं। 'उनकी' उपस्थिति का अनुभव प्रत्येक स्थान पर करें। 'उनकी' आँखें सब-कुछ देख लेती हैं। 'उनके' हाथ सबकी रक्षा करते हैं। 'उनमें ' आस्था रखें। 'उनके' मधुर नाम की शरण में जायें। आपको निराश होने की तथा किसी भी वस्तु से भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है।

 

भगवान् दया के अवतार हैं। 'वह' हमारी सँभाल करने तथा हमारी कठिनाइयों और बाधाओं को दूर करने के लिए तत्पर हैं। हम निःसंकोच उनकी कृपा की याचना करें और उन्हें अपना प्रिय सखा बना लें।

 

अपनी वर्तमान कठिनाई से मुक्त होने का एकमात्र उपाय आत्म-नियन्त्रण है। प्रथम कार्य आपको यह करना है कि महिलाओं के प्रति अपना दृष्टिकोण बदल दें। अपनी धर्मपत्नी के अतिरिक्त प्रत्येक महिला को माँ भगवती का ही रूप समझें। संसार जैसा प्रतीत होता है, वैसा नहीं है। यह जो वस्तुतः है, वही है। एक स्त्री में क्या है? उसमें क्या सौन्दर्य है? वह केवल मांस और रुधिर का पिंजरा है। उसमें वस्तुतः कोई सौन्दर्य नहीं है। आपकी अपनी कल्पना के कारण वह सुन्दर दीखती है। माया इतनी शक्तिशालिनी है कि वह सत्य को भी आवृत कर देती है। महात्मा गान्धी की पुस्तकों का अध्ययन करें। परम पूज्य गुरुदेव की पुस्तक 'ब्रह्मचर्य- साधना' का भी अध्ययन करें।

 

पवित्रता अर्जित करके आप अपने नकारात्मक विचारों पर नियन्त्रण प्राप्त करते हैं। भगवान् से नियमित प्रार्थना, रामायण, महाभारत, श्रीमद्भगवद्गीता आदि ग्रन्थों का स्वाध्याय तथा सन्तों का सत्संग मन को पवित्र बनाने में अत्यधिक सहायक सिद्ध होते हैं।

 

जीवन के उतार-चढ़ाव, कठिनाइयाँ-विपत्तियाँ संसार की सामान्य बातें हैं। सभी को कभी--कभी इनका सामना करना पड़ता है। इनसे बचने का कोई उपाय नहीं है। पुराणों में ऐसे व्यक्तियों का वर्णन है, जिन्हें अनेक कठिनाइयों का सामना करना ये पड़ा-यथा हरिश्चन्द्र, नल, धर्मराज

 

कठिनाइयों का निर्भीकतापूर्वक सामना करें। प्रत्येक अवरोध आपको शक्ति प्रदान करेगा। प्रत्येक असफलता सफलता का एक सोपान है। आपको भगवान् ने जिस परिस्थिति में भी डाल रखा है, - आप उससे सन्तुष्ट रहें। भगवान् में आस्था रखें। 'उनसे' प्रार्थना करें  कि 'वह' आपको कठिनाइयों का धैर्यपूर्वक सामना करने की शक्ति = प्रदान करें। भगवान् के प्रति पूर्णतः समर्पित हो जायें-इससे - आपको परम सुख प्राप्त होगा। भगवान् जानते हैं कि आपके लिए क्या सर्वाधिक उपयुक्त होगा। 'उनमें' गहन आस्था रखें। 'वह' आपकी रक्षा करेंगे तथा आपका मार्ग-दर्शन करेंगे। 'वह' समग्र ब्रह्माण्ड के आधार हैं।

 

कीर्तन भी समान रूप से महत्त्वपूर्ण है। भगवान् की दृष्टि में आपके स्वर तथा संगीत का नहीं; वरन् आपके हृदय, आपके समर्पण तथा आपकी नियमितता का महत्त्व है। भगवान् की महिमा का गायन तथा भगवन्नाम-कीर्तन करें। इससे आप अल्प काल में ही आनन्द से परिपूरित हो जायेंगे तथा आपके जीवन की समस्त नीरसता तथा चिन्ताएँ दूर हो जायेंगी।

 

प्रिय आत्मस्वरूप, चिन्ताओं तथा भयों के समक्ष घुटने टेकें। प्रसन्न रहें तथा भगवान् में आस्था रखें। आप जो भी करेंगे, उससे सम्बन्धित मार्ग-दर्शन आपको 'उनसे' प्राप्त होगा। यह स्वीकार करते हुए कि भगवान् की इच्छा से सब-कुछ घटित होता है, 'उनके' प्रति अपने को समर्पित कर दें।

 

नित्य-प्रति धार्मिक ग्रन्थों का स्वाध्याय अवश्य करें तथा उनमें निहित सत्यों पर विचार करें। भगवान् से मूक-संलाप करने में कुछ समय व्यतीत करें। जब आपके पास अवकाश हो, तब दिन के समय भी 'उनका' चिन्तन करें। एक बालक के समान भगवान् से उनका मार्ग-दर्शन प्राप्त करने की प्रार्थना करें। आप 'उनमें' जितनी ही अधिक आस्था रखेंगे, उतना ही आपको यह अनुभव होगा कि 'उनके' दिव्य हस्त आपका मार्ग-दर्शन कर रहे हैं। आपको आनन्द तथा असीम मानसिक शान्ति प्राप्त होगी।

रोग केवल इस नश्वर भौतिक शरीर को ही प्रभावित करते हैं। आपका वास्तविक 'मैं' समस्त रोगों तथा सांसारिक कष्टों से परे है। आपका वास्तविक स्वभाव दिव्य है। नियमित रूप से ध्यान, चिन्तन तथा सम्यक् विचार करके इस तथ्य का ज्ञान प्राप्त करें।

 

अध्यात्म-पथ पर माँग तथा पूर्ति का नियम लागू होता है। यदि भगवद्-प्राप्ति की सतत आकांक्षा तथा भगवद्-स्मरण के रूप मैं 'माँग' विद्यमान है, तो मार्ग-निर्देशन, सुरक्षा तथा शान्ति के रूप में 'पूर्ति' को प्रकट होना ही होगा। भगवान्, जो करुणा और प्रेम के सागर हैं, अपनी सन्तानों का स्वागत करने हेतु अपनी भुजाएँ फैलाये हुए हैं; अतः अब हम उन्हीं की ओर उन्मुख हों।

 

रोग-मुक्ति भगवान् की दिव्य शक्ति की अभिव्यक्ति है। भगवान् ही सबसे महान् चिकित्सक हैं-शारीरिक रोगों के ही नहीं, मन और आत्मा के अधिक गम्भीर रोगों के भी। पवित्रता, शुद्ध प्रेम तथा करुणा से सम्पन्न होने की आकांक्षा रखें। तब दिव्य शक्ति स्वतः ही आपके माध्यम से प्रवाहित होगी तथा समस्त प्राणियों को सान्त्वना प्रदान करेगी।

 

अनवरत रूप से भगवान् से प्रार्थना करें। सम्पूर्ण हृदय से भगवान् के प्रति समर्पित हो जायें। जो सच्चे हृदय से प्रार्थना करता है, भगवान् उसी की ओर दौड़ पड़ते हैं। अपने हृदय को पवित्र रखें। आपके मन और वाणी में कोई विरोध हो। अपने को 'उनके' भरोसे छोड़ दें।

 

भगवान् आपकी प्रार्थनाएँ सुनेंगे। यदि आपकी प्रार्थनाएँ अनसुनी रह जायें, तो भी प्रतीक्षा करें। भगवान् पूर्ण रूप से दयालु हैं। 'वह' अवश्य आपकी प्रार्थनाओं पर ध्यान देंगे; परन्तु प्रार्थनाएँ आपके हृदय से उद्भूत होनी चाहिए (मात्र ओंठों से नहीं) तभी 'वह' आपकी देख-भाल करेंगे।

 

सदैव भगवान् का नाम लें। भगवन्नाम आपकी शक्ति है। भगवान् हमारे माता-पिता हैं, 'उन्हीं' की शरण में जायें।

 

जीवन-पथ की कठिनाइयाँ हमारी शक्ति की परीक्षा लेने के लिए आती हैं। अतः हमें उनका स्वागत करना चाहिए तथा भगवान् और उनके पवित्र नाम में आस्था रखते हुए हमें उन्हें पार कर लेना चाहिए। अतः भगवन्नाम का आश्रय लें तथा प्रसन्नतापूर्वक सन्देह रहित हो कर भगवान् के प्रति अपने को समर्पित कर दें।

 

प्रतिदिन सायंकाल अपने गृह में सत्संग के कार्यक्रम आयोजित करें तथा भगवन्नाम-कीर्तन करें। 'उनके' प्रति समर्पित हो कर 'उनसे' सहायता की याचना करें। 'वह' आपकी समस्त कठिनाइयाँ दूर करेंगे तथा आपके जीवन को आनन्द, शान्ति और समृद्धि से परिपूरित कर देंगे। दिन के समय पवित्र नाम का जप करते हुए 'उनका' स्मरण करें। नाम-स्मरण करने से आपको 'उनकी' कृपा प्राप्त होगी तथा 'वह' आपकी रक्षा करेंगे। 'वह' जानते हैं कि हमारा कल्याण किस प्रकार होगा। अतएव 'उनमें' आस्था रखें तथा शान्ति को प्राप्त हों।

 

सरल तथा पवित्र जीवन व्यतीत करें। नियमित रूप से दैनिक प्रार्थना करें। प्रतिदिन थोड़ा शारीरिक व्यायाम (आसन आदि) करें। कुसंग का त्याग करें। नकारात्मक विचारों को प्रश्रय दें। अवांछित विचारों को मन में प्रवेश करने दें। स्वस्थ आदतें विकसित करें। सादा तथा पुष्टिकर भोजन ग्रहण करें। भगवान् से प्रार्थना करें कि 'वह' आपको आध्यात्मिक जीवन व्यतीत करने की शक्ति प्रदान करें।

 

धीर पुरुष बनें। साहसी बनें। निराश हों। अपनी इच्छा-शक्ति को सृदृढ़ बनायें। परम पूज्य गुरुदेव द्वारा लिखित 'मानसिक शक्ति' और 'जीवन में सफलता के रहस्य तथा भगवत्- साक्षात्कार' नामक पुस्तकों का अध्ययन करें। इससे आपको अत्यधिक लाभ होगा। ब्राह्ममुहूर्त में चार बजे उठ जायें। स्नान करें। हाथ-पैर-चेहरा आदि धो लें। चेहरे पर ठण्ढे पानी के छींटे मारें। भगवान् का नाम लें। उनकी स्तुति में कुछ भजन गायें। भगवान् से प्रार्थना करें। तब 'उनके' दिव्य सद्गुणों का स्मरण करें तथा उन पर चिन्तन करें। अपने अतीत को भूल जायें। अपनी दुर्बलताओं को विस्मृत कर दें। आप अब एक आध्यात्मिक व्यक्तित्व हैं। सदैव आध्यात्मिक साहित्य का अध्ययन करने, भगवन्नाम का स्मरण करने तथा कुछ--कुछ कल्याणकारी और उपयोगी कार्य करते रहने में अपने को व्यस्त रखें। कभी प्रमाद करें। ऐन्द्रिय-सुखों का उपभोग करने में जीवन को नष्ट करें। मित्रों का संग करें। स्त्रियों के प्रति पराशक्ति की भावना रखें।

 

भगवान् की करुणा पर सन्देह करें। 'वह' दयालु हैं। 'उनकी' शरण में जायें। 'उनसे' प्रार्थना करें। इससे आपको शान्ति प्राप्त होगी।

 

जो व्यक्ति श्री हनुमान् जी के भक्त हैं, वे ' श्री हनुमते नमः' मन्त्र की १०८ मालाओं का जप प्रतिदिन किया करें। इससे मन शान्त होगा। जब आप अपने कार्य-कलापों में व्यस्त हों, तब भी भगवान् का स्मरण करें। भगवान् की पूजा समझ कर अपने कर्तव्यों का पालन करें। अपने समस्त कार्य भगवान् को समर्पित कर दें। 'उनमें' आस्था रखें। स्मरण रखें, यह परिस्थिति भी समाप्त हो जायेगी।

 

आप मानव हैं। पुरुषोचित व्यवहार करें। निर्भीक तथा साहसी बनें। जीवन को समझने का प्रयास करें। परम पूज्य गुरुदेव के ग्रन्थों का स्वाध्याय करें। प्रसन्नता के लिए अन्यों पर निर्भर रहें। आत्म-नियन्त्रण, आत्म-निर्भरता, निःस्वार्थ सेवा तथा आदर्श जीवन-यापन में ही प्रसन्नता निहित है। अपने अतीत को भूल जायें। नवीन आदर्शों तथा नूतन विचारों में अपने जीवन को ढालें। एक वीर नायक बनें। इस प्रकार आपको प्रसन्नता प्राप्त होगी।

 

कठिनाइयों का समाधान आपके हाथों में ही है। निराशा स्वयं एक बाधा है। अतः धैर्य रखें तथा अपने विकास के नये पथों की खोज करें।

 

मन के समान आस्था भी डाँवाडोल होती है। जो व्यक्ति साधनाभ्यास में उन्नति कर चुके हैं, उनकी भी आस्था की परीक्षा ली जाती है। आस्था को बनाये रखने तथा उसे विकसित करने का एक उत्तम उपाय साधु-सन्तों द्वारा विरचित पुस्तकों तथा अन्य धार्मिक दार्शनिक साहित्य का स्वाध्याय है।

 

जप के पर्याप्त अभ्यास तथा (जप द्वारा) मन के शुद्ध हो जाने के पश्चात् ही जप सहज तथा सरस बनता है; तब वह यान्त्रिक तथा उबाऊ नहीं रह जाता। भावना को विकसित किया जाना चाहिए। मन्त्र के इष्टदेवता के पास अनेक विधियों से जाया जाता है। जप करते समय यदि नीरसता का अनुभव हो, तब कीर्तन या ऊँचे स्वर से नामोच्चारण करने से मन को उत्साह प्राप्त होता है। जप को उत्साह से तथा रुचिपूर्वक करना चाहिए। संसार तथा सांसारिक सुख की असारता का स्मरण रखें तथा उन आशीर्वादों का विस्मरण करें, जो भगवान् के सम्पर्क में आने अथवा उनका साक्षात्कार प्राप्त करने के फलस्वरूप आपको प्राप्त होंगे। अपनी दृष्टि के समक्ष अपने इष्टदेवता का एक अत्यन्त मनोहारी चित्र (या मूर्ति) रखें। यह चित्र (या मूर्ति) ऐसा होना चाहिए, जिसमें आपकी अभिरुचि अधिकाधिक जाग्रत हो सके, जो आपको पूर्णतः अपनी ओर आकर्षित कर सकता हो तथा जिससे आपके हृदय की सर्वोच्च भावनाएँ तीव्र होती हों। यह अत्यन्त मोहक होना चाहिए और नेत्र बन्द करने के पश्चात् भी इसका बिम्ब आपकी मानसिक दृष्टि के समक्ष उभरना चाहिए। आपको इसका बोध होना चाहिए कि वह प्रत्येक स्थान पर है, वह सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान् और सर्वज्ञ है, वह आपसे वार्तालाप करता है तथा आपको देख कर मुस्कराता भी है। आपके इष्टदेव तथा विशेषकर भगवान् शिव के कुछ कल्याण-गुण ये हैं-सौभाग्य, शान्ति, आनन्दमयता तथा अनश्वरता (मृत्यु तथा अज्ञान पर विजय) कृपया द्रुत गति से अपना क्रम-विकास करें।

 

इस बात का सदैव ध्यान रखें कि आप कभी भी अकेले नहीं हैं। भगवान् सदैव आपके साथ हैं। 'वह' आपके अन्तर्यामी हैं; अतः अपने अन्दर 'उनकी' उपस्थिति का अनुभव करें तथा अपने समस्त कार्य-कलाप आत्म-समर्पण के भाव से सम्पन्न करें। यह दिव्य जीवन है।

 

आपकी आत्मा शुद्ध है। साहस रखें। धीरज खोयें। भगवान् आपकी रक्षा करेंगे। अतीत को भूल जायें। भगवान् से प्रार्थना करें। 'वह' आपको शक्ति प्रदान करेंगे। यदि 'वह' आपकी रक्षा करना चाहते हैं, तो कोई भी आपका अहित नहीं कर सकता। 'वह' अपने भक्तों की रक्षा करते हैं; अतः 'उनके' प्रति अपने को समर्पित कर दें। 'उनकी' दया प्राप्त करने हेतु 'उनसे' प्रार्थना करें।

 

आप भगवान् को अत्यन्त प्रिय हैं। जो 'उन्हें' प्रिय हैं; उन्हें कभी उनके लिए ही कष्ट उठाना पड़ता है। भक्तों को शक्ति तथा पूर्णता प्रदान करने के उद्देश्य से भगवान् कभी-कभी उन्हें कठिन परिस्थितियों में डाल देते हैं। किसी से घृणा करें। जो आपका अहित करते हैं, उन्हें सम्यक् ढंग से सोचने-समझने की शक्ति प्राप्त हो-इसके लिए भगवान् से प्रार्थना करें। भगवद्-प्राप्ति हेतु अपने जीवन को अर्पित करने वाला प्रत्येक साधक यही मार्ग अपनाता है।

 

आत्मस्वरूप ! दुःख जीवन से अभिन्न है। हममें से प्रत्येक को कभी--कभी इसका सामना करना पड़ता है। दुःख हमें शक्ति प्रदान करने के लिए ही आता है। अध्यात्म-मार्ग पर बढ़ने हेतु दुःख अनुकूल परिस्थितियाँ निर्मित करता है; अतः निर्भय हो कर दुःखों का सामना करें। दुःख अप्रत्यक्ष कृपा-दान है। स्वयं प्रभु यीशु को अनेक दुःखों का सामना करना पड़ा। भक्तों को आध्यात्मिक शक्ति प्रदान करने के उद्देश्य से भगवान् कभी-कभी उनके लिए कठिन परिस्थितियाँ उत्पन्न कर देते हैं। जब तक हम 'उनकी' ओर बढ़ेंगे नहीं, तब तक हम 'उनकी' कार्य-विधियों को नहीं समझ सकते अतः दुःख में ही नहीं, प्रत्येक समय साधक को भगवान् का स्मरण रखना चाहिए। उसे सदैव भगवान् की उपस्थिति का अनुभव करने का अभ्यास करते रहना चाहिए। उसे भगवान् की सर्वव्यापिता का अनुभव करना चाहिए। अपने समस्त कर्तव्यों का पालन भगवान् की पूजा करने की भावना से करें तथा प्रत्येक दिवस की समाप्ति पर उन्हें भगवान् को अर्पित कर दें।

 

प्रत्येक परिस्थिति का सामना धैर्यपूर्वक करें। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में दुःख तथा संकट सामान्य घटनाएँ हैं। जीवन पुष्पों की शय्या नहीं है। कष्टकर परिस्थितियाँ मानव को शक्ति प्रदान करती हैं। मुस्कराते हुए इन परिस्थितियों के प्रति साक्षी-भाव विकसित करें।

 

समस्त स्थितियों का एक अचूक उपचार है-प्रार्थना। मोक्ष के क्लान्तिकर मार्ग पर प्रार्थना एक विश्वसनीय साथी है। प्रार्थना करके आप भगवान् के निकट पहुँचते हैं एवं अपने तात्त्विक अनश्वर तथा आनन्दमय स्वरूप और दिव्य चेतना की अनुभूति प्राप्त करते हैं।

 

भगवान् सर्वव्यापी हैं। प्रत्येक स्थान पर उनकी उपस्थिति का अनुभव करें। 'उनके' नेत्र सब-कुछ देख लेते हैं। 'उनके' हाथ सबकी रक्षा कर सकते हैं। 'उन' पर भरोसा रखें। 'उनके' मधुर नाम की शरण में जायें। आपको किसी भी परिस्थिति में निराश अथवा भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है।

 

भगवान् के प्रति जागरूकता बनाये रखते हुए जीवन व्यतीत करें। जहाँ-कहीं भी आप जायें, उनकी उपस्थिति का अनुभव करें। 'वह' दयालु तथा करुणामय हैं। 'उनकी' करुणा का दर्शन करें। 'वह' सदैव आपके प्रति सद्भावना रखते हैं। 'उनका' दिव्य नाम सदैव आपके अधरों पर रहे।

 

इस क्षणभंगुर संसार में जो कुछ हो रहा है, उसके प्रति साक्षी-भाव रखें। अन्दर से अपना विकास करें। अपनी गहराइयों में आप अविक्षुब्ध शान्ति का रूप हैं। हमारा तात्त्विक स्वभाव सच्चिदानन्द है। इस तथ्य का विस्मरण करें। परम पूज्य गुरुदेव ने अपने गीतों तथा अन्य रचनाओं के माध्यम से बार-बार इसी का स्मरण कराया है। अन्तर्थित रहें। प्रत्येक परिस्थिति क्षण-स्थायी है। शान्ति पुनः स्थापित होगी।

 

भगवान् की कार्य-विधियाँ रहस्यमयी हैं। 'वह' लेते हैं और देते भी। यह संसार 'उनकी' लीला है। इस लीला को साक्षी बन कर देखें। इस संसार में कुछ भी स्थायी नहीं है। केवल भगवान् ही सत् हैं। अपनी समस्त क्षमताओं का उपयोग करते हुए मात्र 'उन्हीं' में निष्ठा रखें। 'उनकी' शरण में जाने से शान्ति तथा प्रसन्नता की प्राप्ति होती है।

 

सदैव भगवान् का स्मरण रखें। जहाँ-कहीं भी आप जायें, 'उनकी' उपस्थिति का अनुभव करें; क्योंकि वह सर्वव्यापी हैं। ऐसा कोई स्थान नहीं है, जहाँ 'वह' हों।

 

भगवान् की कार्य-विधि को समझ पाना बहुत कठिन है। मानवता के लिए जो कल्याणकारी है, उसका 'उन्हें' पता है। हमें केवल 'उनकी' लीला को देखते रहना है।

 

भगवान् तथा गुरुदेव की शरण में जायें। निरन्तर प्रार्थना करके जो भगवद्-कृपा प्राप्त कर लेता है, उसका कभी अहित नहीं होता। अतः भगवान् तथा गुरुदेव से निरन्तर प्रार्थना करें। भगवान् का पवित्र नाम सदैव आपके अधरों पर रहे। एक क्षण के लिए भी 'उनका' विस्मरण करें। भगवान् न्यायी हैं। भागवत विधान न्याय-संगत होता है। जो साधक इस तथ्य में विश्वास करता है, वह संकट की घड़ियों में भी अनुद्विग्न रहता है।

 

मात्र भगवन्नाम जीवन की समस्त विपत्तियों से बचने का एक अमोघ उपाय है। अतः सदैव भगवन्नाम का उच्चारण करते रहें। आप जहाँ-कहीं भी जायें, वहाँ भगवान् की उपस्थिति का अनुभव करें; क्योंकि 'वह' सर्वव्यापी हैं। 'उनकी' शरण में जायें। 'वह' सदैव आपके प्रति सद्भावना रखते हैं।

 

शरीर-चेतना से ऊपर उठें। इस तथ्य को स्पष्टतः अनुभव करें कि आप अनन्त तथा परम आत्मा हैं। काम या लोभ आपको किस प्रकार प्रभावित कर सकते हैं?

 

साधक के लिए राम-नाम एक महान् शक्ति है। राम-नाम दिव्य ऊर्जा से परिपूरित है। राम-नाम का जप करते रहें और भगवद्-कृपा प्राप्त करें। दिव्य नाम से आपको बाधाओं पर विजय प्राप्त करने हेतु अपरिमित आन्तरिक शक्ति प्राप्त होगी।

 

ऐन्द्रिय अनुभवों से दृढ़तापूर्वक मुँह मोड़ लें। आप अपने स्वामी हैं। ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसे आप कर सकते हों। इसी क्षण दृढ़ निश्चय कर लें- और आप एक नये मानव बन जायें। शैतान नाम की कोई वस्तु नहीं है। इस प्रकार के विचार रखें। कल्पना-लोक में विचरण करें। सक्रिय रोचक कार्यों में अपने को व्यस्त कर दें। मन को भी सदैव व्यस्त रखें। मैं आपको अपने आध्यात्मिक द्विचार सम्प्रेषित कर रहा हूँ। तैयार हो जायें तथा भगवान् की ओर आगे बढ़ें। सम्यक् सिद्धान्तों का परित्याग करें। भगवान् आप पर कृपा करें!

 

निराश हों। साहसी बनें। वीर बनें। निर्भीक बनें। सभी प्रकार की परिस्थितियाँ अस्थायी हैं। दुःख और विपत्तियाँ हमारे जीवन के अंग हैं। उनसे आप पूर्ण बनते हैं। चिन्तित हों। चिन्ता ही मन और शरीर को दुर्बल बनाती है। चिन्ता करके आप चिन्ताओं को नहीं मिटा सकते। कोई उपाय सोचें। प्रकृति के नियमों पर ध्यान दें। उनका उल्लंघन करें।

 

आत्मस्वरूप ! भगवान् दयालु तथा करुणामय हैं। अपने भक्तों को दृढ़ता प्रदान करने के उद्देश्य से कभी-कभी 'वह' उन्हें कठिन परिस्थितियों में डाल देते हैं। अतएव निराश हों। शान्त तथा अविक्षुब्ध रहें। अपने तात्त्विक स्वरूप को जानें। आपका तात्त्विक स्वरूप शान्तिमय तथा सच्चिदानन्दमय है। इस विचार का बोध प्राप्त करें तथा इसमें तल्लीन हो जायें।

 

आत्मस्वरूप! किसी प्रकार की चिन्ता करें। कौन-कौन सी बातें आपको अशान्त बनाती हैं? दुःख, विषाद तथा निराशा का प्रभाव आपके शरीर और इन्द्रियों तक ही सीमित है। ये आपकी आत्मा को प्रभावित नहीं कर सकते। कोई भी परिस्थिति आपको प्रभावित नहीं कर सकती; ही आपको उद्विग्न बना सकती है। आपका तात्त्विक स्वरूप दिव्य तथा आनन्दमय है। आप सच्चिदानन्द हैं। अपने इस स्वरूप को समझें। जीवन का सामना करें। साहसी तथा वीर बनें।

 

सदैव प्रफुल्लित तथा आनन्दित रहें। उदासी तथा निराशा से दूर रहें। श्रद्धापूर्वक भगवान् से प्रार्थना तथा उनकी उपासना करें।

 

सदैव रचनात्मक दृष्टिकोण अपनायें। सकारात्मक दिव्य विचारों को प्रश्रय दे कर नकारात्मक विचारों को पराभूत करें। आपके अन्दर अपार शक्ति है। मुस्कराते हुए कठिनाइयों का सामना करें। कभी निराश हों। सदैव मुस्करायें-हँसें तथा प्रसन्नता से नाचें-कूदें। सदैव भगवान् का स्मरण रखें। 'उनका' पवित्र नाम सदैव आपके अधरों पर रहे। 'उनकी' शरण में जायें। 'वह' सदैव आपके प्रति सद्भावना रखते हैं।

 

अपने आन्तरिक स्वरूप को जान लें। अपने अन्तस् में आप एक ऐसी शान्ति हैं, जिसे कोई क्षुब्ध नहीं कर सकता। यही आपका आन्तरिक स्वभाव है। इसी स्वभाव में संस्थित रहें। बाह्य संसार के कार्य-कलापों को साक्षी-भाव से देखें। दर्शक की तरह एक ओर खड़े हो कर भगवान् की लीला देखें। विक्षुब्ध हों। कठिन परिस्थितियाँ जिस प्रकार आयी हैं, उसी प्रकार चली जायेंगी-उनका कोई भी चिह्न अवशेष रहेगा।

 

भगवान् दयालु हैं। जीवन में जो कुछ भी घटित होता है, वह व्यक्ति के कल्याण के लिए है। भगवान् की कृपा अवश्य प्राप्त होती है; परन्तु उसके लिए प्रतीक्षा करनी पड़ती है। हम 'उन्हें' नहीं समझ सकते। 'वह' हमारी समझ से परे हैं।

 

धर्मग्रन्थों का नियमित स्वाध्याय, 'मैं कौन हूँ' की सम्यक् परिपृच्छा तथा निरन्तर प्रार्थना-ध्यान-इनकी सहायता से आप निःसन्देह भगवान् तक पहुँचेंगे। आप सदा-सर्वदा भगवान् में निवास करें!

 

वीर बनें। साहसी बनें। धैर्य खोयें। भगवान् आपकी रक्षा करेंगे। कठिन परिस्थितियाँ कभी--कभी अवश्य आती हैं। यह जीवन है। जीवन दुःखों से परिपूर्ण है। संसार का यही स्वरूप है। जीवन में उतार-चढ़ाव आया करते हैं। परिस्थितियाँ क्षण-स्थायी हैं। भगवान् की शरण में जायें। 'वह' भली-भाँति जानते हैं कि आपका कल्याण किसमें है। अपना सारा बोझ 'उन' पर डाल दें। 'वह' आपकी समस्त कठिनाइयों को दूर करके आपको शान्ति और प्रसन्नता प्रदान करेंगे।

 

महाभारत का तथा सावित्री, दमयन्ती और द्रौपदी की कथाओं का स्वाध्याय करें। उन्हें भी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। भगवन्नाम का जप करें। जहाँ-कहीं भी जायें, भगवान् की उपस्थिति का अनुभव करें। एक क्षण के लिए भीउनकाविस्मरण करें।

 

सदैव स्मरण रखें कि तत्त्वतः आप सच्चिदानन्द-स्वरूप हैं। आप यह शरीर तथा परिवर्तनशील मन नहीं हैं। आप हैं आनन्दमय- सच्चिदानन्दमय आत्मा! आप सदा अपने स्वरूप की लहरों में निमज्जित रहें। सचमुच आप 'वह' हैं। भगवान् की कृपा आप पर रहे!

 

दूसरों के अनुकूल बनें (adapt), उनके साथ समायोजन करें (adjust) तथा उनके अनुरूप बनें (accommodate) प्रत्येक वस्तु को ईश्वरीय इच्छा मानें। सूफी सन्त राबिया (जो एक जर्मीदार की सेविका थीं) की जीवनी पढ़ें। सन्तों के जीवन से प्रेरणा प्राप्त करें। आपके आन्तरिक तथा बाह्य जीवन दिव्य जीवन के बिन्दु पर कर एक हो जायें।

 

केवल भगवान् ही सत् हैं। यह संसार असत् है। इस धरती की प्रत्येक वस्तु नश्वर है। भगवान् की ही एकमात्र सत्ता है। अतः केवल भगवान् का ही अन्वेषण करें। प्रतिदिन 'उनसे' प्रार्थना करें। उनकी उपासना करें। सदैव भगवन्नाम लेते रहें।

 

निराश हों। साहस रखें। यह जीवन है। इस संसार में कोई भी व्यक्ति मुक्त नहीं है। हममें से प्रत्येक को कभी--कभी दुःख उठाना ही पड़ेगा। दुःख हमारे जीवन का अनिवार्य अंग है। इससे कोई बच नहीं सकता। विशेषकर भगवद्-भक्तों को बहुत दुःख उठाने पड़ते हैं। उनके दुःखों की तुलना में हमारे दुःख कुछ भी नहीं हैं। निर्भीकता से उन दुःखों का सामना करें। उनसे ऊपर उठें। वे आपको शक्ति प्रदान करेंगे। वे आपके लिए अप्रत्यक्ष कृपा- दान हैं।

 

आपका तात्त्विक स्वरूप आनन्दमय है। इस स्वरूप में संस्थित रहें। आप सर्वथा अस्पृष्ट रहेंगे। जन्म-मरण-रोग शरीर के ही लिए हैं, आत्मा के लिए नहीं। शरीर आता-जाता है। सम्यक् विचार द्वारा शरीर की चेतना से ऊपर उठें। शरीर अनित्य है। एक दिन आपको इस शरीर का परित्याग करना ही होगा, तो फिर इसके लिए चिन्ता क्यों करें ?

 

यदि हम आत्मा के अमर तथा अनश्वर स्वरूप की शक्ति का अनुभव कर सकें, तो हम अवश्य ही शरीर तथा इसकी सीमाओं को भूल सकेंगे। जैसे-जैसे हम अपनी गहराइयों में संस्थित होते जाते हैं, वैसे-वैसे हम अधिक शान्ति तथा परमानन्द का अनुभव करने लगते हैं।

 

दुःख मन को शुद्ध बनाता है तथा उसकी धारा को भगवान् की ओर मोड़ देता है। दुःख से इच्छा-शक्ति में दृढ़ता आती है, हृदय कोमल बनता है तथा सहिष्णुता की क्षमता उत्पन्न होती है। सदैव भगवद्-चिन्तन में मूलबद्ध रहें। निरन्तर भगवान् का स्मरण करते रहें। दृढ़तापूर्वक 'उन्हें' पकड़े रहें। 'उनकी' करुणा का चिन्तन करें। 'वह' दयालु तथा प्रेममय हैं। 'वह' करुणासिन्धु हैं। 'उनकी' दया अनन्त है। 'वह' सदैव आपके प्रति सद्भावना रखते हैं। जो साधक अपने को 'उन्हें' समर्पित कर देते हैं, वे सब प्रकार के भयों से मुक्त हो जाते हैं। अन्त में वे सुख-शान्ति तथा आनन्द को उपलब्ध होते हैं।

 

केवल भगवान् ही सत् हैं। यह संसार असत् है। इस धरती की प्रत्येक वस्तु नश्वर है। भगवान् की ही एकमात्र सत्ता है। अतः केवल भगवान् का ही अन्वेषण करें। प्रतिदिन 'उनसे' प्रार्थना करें, 'उनकी' उपासना करें। सदैव भगवन्नाम लेते रहें।

 

मानव-जीवन का उद्देश्य दुःखों का परिहार करके शाश्वत आनन्द को प्राप्त करना है। जन्म तथा दुःख अपृथक्करणीय हैं। यदि आप दुःख, वेदना तथा विषाद का परिहार करना चाहते हैं, तो आपको पुनर्जन्म का परिहार करना होगा। पुनर्जन्म का परिहार करने का एकमात्र साधन ब्रह्मज्ञान है।

 

भगवान् इन्द्रियों की पहुँच से परे हैं। यदि आप इन्द्रियों तथा इन्द्रिय-विषयों से अपना प्रत्याहार कर लें, तो आप भगवान् का साक्षात्कार कर सकते हैं।

 

आपको परम पूज्य गुरुदेव की आध्यात्मिक शक्तियों का प्रकाश प्राप्त है। आपके हृदय में भगवान् निवास करते हैं। 'वह' सदैव आपका आध्यात्मिक कल्याण चाहते हैं। दुःखी हों। अपने समस्त कार्य-कलापों को भगवद्-प्रार्थना का रूप दे दें। भगवान् की उपस्थिति का भाव आपको 'उनके' आनन्दमय आलिंगन में बद्ध कर दे।

 

आप शान्ति-स्वरूप हैं। आपका आन्तरिक स्वरूप शान्ति है। अक्षुब्ध रहें। आप चिरस्थायी शान्ति का आस्वादन करेंगे। समस्त वस्तुएँ परिवर्तनशील हैं; परन्तु आप अपरिवर्तनशील शान्ति हैं। शान्ति ही आपका नाम है। यह शान्ति चिरस्थायी है। यह शान्ति-जो आप ही हैं- आपके प्रत्येक विचार को आप्लावित करके आपके शरीर के प्रत्येक रोमकूप में व्याप्त हो जाये!

 

अनावश्यक चिन्ता तथा खीज से आपकी विषम परिस्थितियों की तीव्रता समाप्त नहीं हो जाती। विगत कर्मों की प्रतिक्रियाओं को भोगना ही पड़ेगा। दुःखदायी परिस्थितियों में किंचित् प्रसन्नता रखने से जीवन का बोझा हलका हो जाता है।

 

जो-कुछ जैसा हो रहा है-उसके पीछे एक ईश्वरीय उद्देश्य है। समस्त सांसारिक विपत्तियों पर आप विजय प्राप्त करें।

 

साधनाभ्यास के लिए आवश्यक परिश्रम करते जायें। विपत्तियों, कठिनाइयों तथा निराशाजनक परिस्थितियों में भगवान् में अपनी आस्था डिगने दें। जब आप अपने को पूर्णतः असहाय समझने लगते हैं, तब आपको अपने अन्दर से ही आशा और सहायता प्राप्त होती है।

 

गुरु और इष्ट दो नहींएक हैं। गुरु इष्ट की ओर संकेत करता है और उसी में विलीन हो जाता है। चिन्तित हों। निराशा के अन्धकार में भी अपनी आस्था को दृढ़ बनाये रखें। पूर्णतः असहाय बन जायें। तब आपके अन्दर से ही आशा की किरणें फूटती दिखलायी पड़ेंगी।

 

जीवन सुख और दुःख का मिश्रण है। विपत्तियों और संकटों को झेलने से आप अधिकाधिक दृढ़निश्चयी बनते हैं। अटल रहें। कृतसंकल्प रहें। दृढ़निश्चयी बनें। लौह संकल्पवान् बनें।

 

सचमुच, जीवन का विधान ऐसा ही हैं। अस्तित्व में प्रवेश करना तथा अस्तित्व का त्याग करना - इन दो से धरती पर व्यतीत किया जाने वाला जीवन निर्मित होता है। मृत्यु जीवन का प्रतिषेध नहीं, वरन् उसकी पूर्णता तथा निष्पत्ति है। जीव को आगे बढ़ते रहना है। समस्त सृष्ट प्राणियों की नियति उनका अन्त्य विघटन है। इसीलिए उन्हें असत् कहा जाता है। केवल शाश्वत तत्त्व ही सत् है। इसका अर्थ यह नहीं है कि सृष्ट वस्तुओं की सत्ता नहीं होती। इसका अर्थ यह है कि वे वस्तुएँ स्थायी नहीं होतीं। वे शीघ्र ही समाप्त हो जाती हैं। शाश्वत तत्त्व का अन्वेषण करना ही बुद्धिमानी है। इसी तत्त्व (जिसे हम भगवान्, परमात्मा, परब्रह्म, आत्मा, पुरुष, सच्चिदानन्द आदि नामों से पुकारते हैं) का अन्वेषण करने के लिए हमें जीवन प्राप्त हुआ है। जीवन की पूर्ति इसी में है कि इसी जीवन में शाश्वत तत्त्व का अनुभव या साक्षात्कार हो जाये। इसी परम अनुभव से शान्ति, परमानन्द तथा अनश्वरता उत्पन्न होते हैं।

 

आस्था का विकास क्रमशः होता है। ईश्वर-साक्षात्कार के पश्चात् ही आस्था पूर्णतः विकसित हो पाती है। इस विषय को ले कर चिन्तित हों। आपकी आस्था का जैसा भी विकास हुआ है-उसी आस्था के सहारे आगे बढ़ चलें। आध्यात्मिक जीवन का अभ्यास करने से आस्था विकसित होती है। शंकाएँ या प्रश्न कभी-कभी उभरते ही हैं। कोई भी इन शंकाओं-प्रश्नों से मुक्त नहीं है। बस, इतना जान लें कि भगवान् की सत्ता है; केवल वही एक अपरिवर्तनशील सत्ता हैं। समस्त वस्तुएँ (जिनमें प्रश्नों को उठाने तथा अन्वेषण करने वाला वर्तमान व्यक्तित्व भी सम्मिलित है) परिवर्तनशील हैं। सार-रूप में, आपका तात्त्विक स्वरूप एक अपरिवर्तनशील तथा शाश्वत सत्ता है।

 

ईश्वरीय इच्छा के समक्ष आत्म-समर्पण कर दें। इस विशाल विश्व की लीलाओं के सूत्रधार भगवान् ही हैं। हम 'उनके' उपकरण मात्र हैं। हमारे नियन्त्रण में कुछ भी नहीं है। बस, हम एक कार्य कर सकते हैं- भगवान् से प्रार्थना करने का कार्य। जो प्रार्थना सच्चे हृदय से निकलती है, उसे 'वह' अवश्य सुनते हैं। अतः 'उनसे' प्रार्थना करें और 'उनकी' कृपा की याचना करें। भगवान् करुणा-सागर हैं। 'वह' सदैव अपने भक्तों की देख-भाल करते हैं। 'उनमें' पूरी आस्था रखें। 'वह' जो-कुछ करते हैं, भक्तों के कल्याणार्थ करते हैं। 'उनके' हाथों में हम पूर्णतः सुरक्षित हैं।

 

अपने भविष्य के विषय में कभी चिन्तित हों। अपने समस्त कार्य-कलाप भगवान् को समर्पित कर दें। इस समर्पण में किसी प्रकार की शर्त नहीं होनी चाहिए। इसका शुभ परिणाम यह होगा कि विपत्तियाँ सदा-सदा के लिए आपसे बहुत पीछे छूट जायेंगी। यह योग की एक सरलतम विधि है। आप प्रार्थना द्वारा आत्मानन्द प्राप्त करें !

 

प्रिय आत्मस्वरूप! निराश हों। शारीरिक कष्ट आते-जाते रहते हैं। वे कर्म-अघनाशक होते हैं। शारीरिक कष्ट हो, तब भी यह अनुभव करना चाहिए कि आप स्वस्थ हो रहे हैं। सकारात्मक विचारों को प्रश्रय देने से आप शीघ्र ही स्वास्थ्य-लाभ करेंगे।

 

प्रत्येक परिस्थिति में भगवद्-इच्छा के समक्ष आत्म-समर्पण कर देने से मन तुरन्त शान्त हो जाता है। अतः निरन्तर भगवान् का स्मरण करें और यह अनुभव करें कि प्रत्येक घटना 'उनकी' इच्छा से घटित हो रही है। भगवान् दया और करुणा के सागर हैं। 'वह' सदैव अपने भक्तों का कल्याण करते हैं; भले ही भक्त गण चतुर्दिक् की घटनाओं में छिपे 'उनके' अदृश्य हाथों को देख पायें।

 

नियमित रूप से आध्यात्मिक साहित्य का स्वाध्याय करें। परम पूज्य गुरुदेव की पुस्तकें प्रेरणा की स्रोत हैं। वे अध्यात्म-पथ पर आपका मार्ग-दर्शन करेंगी। उनसे आपकी अधिकांश शंकाओं का निवारण भी होगा।

 

अपने अन्दर दिव्य सत्ता का अनुभव करें और 'उससे' प्रकाश, प्रसन्नता तथा शक्ति प्राप्त करते रहें। भगवान् सदैव आपके साथ हैं। 'वह' आपके अन्तर्वासी जनक, मार्ग-दर्शक तथा मित्र हैं। जब तक 'वह' आपके पास हैं, तब तक आपको किसी वस्तु का अभाव नहीं हो सकता। अपनी समस्त चिन्ताओं का त्याग कर दें तथा शान्ति और प्रसन्नता से अपना काम-काज करते रहें। भगवान् में भरोसा रखें तथा 'उनमें' संस्थित हो जायें।

 

भगवान् की इस धरती पर हम 'उनकी' इच्छा को ही गतिशील हुआ पाते हैं। इन परिस्थितियों में हमारे लिए 'उनकी' क्या इच्छा है-इसे जानने के लिए हमें 'उनसे' प्रार्थना करनी चाहिए। अन्ततः हम यह देखेंगे कि भगवद्-इच्छा बलीयसी है।

 

विगत जन्मों के कर्मों से ही मानव-शरीर बनता है। इस शरीर की परिवर्तित होती हुई विभिन्न दशाएँ कर्मों को भोगने की अनिवार्य प्रक्रियाएँ हैं। इन परिवर्तनशील प्रक्रियाओं से अन्तर्यामी आत्मा सदैव अप्रभावित रहती है। आप सदा शरीर-मन की परिवर्तित होती हुए दशाओं के निर्विकारी साक्षी बने रहते हैं। इस सत्य को जान लें। अपने तात्त्विक स्वरूप पर अपने को आधारित करें। अतीत, वर्तमान तथा भविष्य में सदा ही आप तेजस्वी अन्तरात्मा हैं। निर्भीकतापूर्वक परम तत्त्व के प्रति निष्ठा रखें। प्रत्येक परिस्थिति में मुस्कराते रहें। दैनिक जीवन में इस वेदान्त को व्यवहार में लायें।

 

शरीर में ही आयु-जन्य परिवर्तन आते हैं, यही स्वस्थ और अस्वस्थ होता है; परन्तु आप हैं अपरिवर्ती कूटस्थ आत्मा शान्ति और आनन्द आपके स्वरूप हैं। इस आन्तरिक जागरूकता में सदैव संस्थित रहें। सांसारिक अनुभव अस्थायी तथा क्षणिक हैं। ये आपकी अखण्ड आन्तरिक आत्मानुभूति को प्रभावित नहीं कर सकते। भगवान् की उपस्थिति में जियें।

 

प्रिय आत्मन् ! द्वैतानुभवों से ही यह सांसारिक जीवन निर्मित होता है। शरीर धारण करने के बाद हमें इन अनुभवों को धैर्यपूर्वक भोगना ही पड़ेगा। इन अनुभवों से बुद्धि परिपक्व बनती है। ये अनुभव अपरिहार्य भी हैं। श्रीमद्भगवद्गीता का द्वितीय अध्याय पढ़ें। तब आपको सत्य का पता चलेगा।

 

भूलोक कर्मभूमि है अर्थात् यह लोक विगत कर्मों को भोगने हेतु है। इस लोक में जीवात्मा अनुभवों को प्राप्त करने के लिए तथा परम मोक्ष की ओर उन्मुख अपने क्रम-विकास को प्रगत करने हेतु जन्म लेता है। जब तक यह प्रक्रिया पूर्ण नहीं हो जाती, तब तक जीवात्माओं को विभिन्न शरीर धारण करके बार-बार आना पड़ता है। किसी का भी किसी अन्य से कोई आधारभूत सम्बन्ध नहीं है। जिस प्रकार लट्ठे नदी में बहते-बहते कभी-कभी एक-दूसरे के निकट जाते हैं; इसी प्रकार भौतिक सम्बन्धों से सम्बद्ध जीवात्माएँ भी एक-दूसरे के निकट जाती हैं। जिस प्रकार लडे एक-दूसरे के निकट आने के पश्चात् फिर अलग-अलग हो जाते हैं तथा विभिन्न दिशाओं में बहने लगते हैं, उसी प्रकार समय आने पर जीवात्माएँ भी पृथक् पृथक् हो कर यात्रा करने लगती हैं। यह एक अवश्यम्भावी सत्य है। हमें इस तथ्य को स्वीकार करना होगा। परन्तु, जीवन का अवसान नहीं होता। इसमें पार्थक्य होता है; परन्तु विनाश नहीं होता। जो इस सत्य को जानता है, वह शान्ति को प्राप्त होता है। उसका हृदय कभी दुःखी नहीं होता; क्योंकि वह जानता है कि इन समस्त विभिन्न प्रक्रियाओं से ही जीवन निर्मित होता है। जिसे हम मृत्यु कहते हैं, वह जीवन की महान् योजना का उसी प्रकार एक अंग है, जिस प्रकार इस रूप में स्वीकृत कोई अन्य प्रक्रिया। इस ब्रह्माण्डीय रंगमंच (जिसे संसार कहा जाता है) पर घटित होने वाली घटनाओं के पीछे तथा वैश्व जीवन (प्रत्येक व्यक्ति जिसका एक अंग है) के इस प्रस्फुटन की पृष्ठभूमि में एक गहन कारण तथा प्रच्छन्न अनिवार्यता है।

 

भगवान् के दिव्य नाम को अपना सर्वस्व बना लें। आपकी जिह्वा पर भगवन्नाम सदैव उपस्थित रहे। इस युग में भगवन्नाम एक महान् शक्ति तथा सान्त्वना है। भगवन्नाम आपके लिए समस्त प्रकार की समस्याओं तथा कठिनाइयों के बीच से सुरक्षित तथा अक्षत निकल आने में सहायक सिद्ध होगा। भगवन्नाम में तल्लीन हो जाना वास्तविक शान्ति का अनुभव प्राप्त करना है।

 

भगवान् में पूर्ण आस्था रखें। 'वह' जो-कुछ भी आपके लिए करते हैं; वही आपके लिए सर्वोत्तम है। 'वह' आपके लिए वही करेंगे, जो आपके लिए कल्याणकारी होगा।

 

निराश हों। भगवान् में आस्था रखें। समस्त कठिनाइयाँ तथा विपत्तियाँ समाप्त हो जायेंगी। ये जीवन की अंग हैं। ये आपको शक्ति प्रदान करने के लिए आती हैं। निर्भीकतापूर्वक इनका सामना करें। यद्यपि पाण्डव श्रीकृष्ण के प्रेमपात्र थे तथा वे उनके अत्यन्त निकट भी थे; परन्तु उन्हें (पाण्डवों को) अनगिनत विपत्तियों का सामना करना पड़ा। भक्तों की ही आस्था और सत्यशीलता की परीक्षा ली जाती है। भगवान् की शरण में जायें। 'वह' आपकी देख-भाल करेंगे।

 

जो आपको हानि पहुँचायें, उन्हें प्रेम करें। कदापि उनकी निन्दा करें। उन्हें पता ही नहीं है कि वे क्या कर रहे हैं। वे अज्ञानी हैं। भगवान् से प्रार्थना करें कि 'वह' उन्हें बुद्धि दें। जो आपसे घृणा करें, उन्हें प्रेम करें। जब भी वे आपसे मिलें, उनसे मुस्कराते हुए वार्तालाप करें। उन्हें यह बात जान लेने दें कि आपके मन में उनके प्रति कोई नकारात्मक भावना नहीं है। आप देखेंगे कि उनका हृदय धीरे-धीरे परिवर्तित हो जायेगा।

 

सदैव भगवन्नाम लेते रहें। भगवन्नाम ही जीवन की समस्त विपत्तियों की रामबाण औषधि है। ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जिसका भगवन्नाम-जप से प्रतिकार किया जा सकता हो भगवान् दयालु तथा करुणामय हैं। उनकी दया असीम है।

 

बहुत सवेरे उठें और तेजी से टहलें। टहल कर सूर्योदय से पूर्व ही वापस लौट आयें। थोड़ी देर बाद ठण्डे पानी से स्नान करें। इसके बाद सर्वांगासन, हलासन, पश्चिमोत्तानासन आदि आसन १०-१५ मिनट तक करें। प्रत्येक आसन को चार-पाँच बार दोहरायें। तत्पश्चात् मिनट तक प्राणायाम करें। भगवान् से प्रार्थना करें कि 'वह' आपको शक्ति प्रदान करें। निरन्तर भगवन्नाम लेते रहें। इससे आपको शक्ति प्राप्त होगी। सायंकाल भी आसन- प्राणायाम का अभ्यास करें। खुली ताजी हवा में सन्ध्या-समय भी टहलना भूलें।

 

रोग केवल नश्वर भौतिक शरीर को ही प्रभावित करता है। आपका वास्तविक 'मैं' रोगों से परे है। यह 'मैं' समस्त सांसारिक क्लेशों से परे है। आपका तात्त्विक स्वरूप दिव्य है। नियमित ध्यान, मनन तथा सम्यक् विचार से इस तथ्य को जानें।

 

प्रार्थनामय भाव में रहें। 'जो' आपके हृदय-मन्दिर में विराजमान हैं, 'उन्हीं' का अन्वेषण करें। 'उनसे' मार्ग-निर्देशन प्राप्त करें।

 

भगवान् में सदैव आस्था तथा विश्वास रखें। सदैव यह अनुभव करें कि 'वही' आपके माध्यम से कार्य और वार्तालाप कर रहे हैं। तब आपके लिए चिन्तित और भयभीत होने का कोई कारण नहीं रह जायेगा। धीरे-धीरे आप निर्भीक तथा निःसंकोच रूप से वार्तालाप करने लगेंगे। अनुभव करें कि सबकी सेवा करके आप भगवान् की ही सेवा कर रहे हैं। कुछ भी बोलने से पहले भगवान् का स्मरण करें तथा आश्वस्त हो जायें कि 'वह' आपका मार्ग- दर्शन करेंगे।

 

भगवान् सर्वव्यापी हैं। प्रत्येक स्थान पर 'उनकी' उपस्थिति का अनुभव करें। 'उनके' नेत्र सब-कुछ देख लेते हैं। 'उनके' हाथों में प्रत्येक की रक्षा करने की क्षमता है। 'उनमें' आस्था रखें। 'उनके' मधुर नाम की शरण में जायें। आपको निराश होने की आवश्यकता नहीं है। भलाई आपका आदर्श तथा लक्ष्य बने! आप सब भले बनें और ईश्वरत्व को प्राप्त हों!

 

भगवान् में पूर्ण आस्था रखें। 'उनसे' प्रार्थना करें। 'वह' करुणा-सागर हैं। प्रत्येक घटना 'उनकी' ही इच्छा से घटित होती है। केवल 'वह' ही हमारे वास्तविक रक्षक तथा उद्धारक हैं। 'वह' सदैव अपने भक्तों की देख-भाल करते हैं।

 

अपना मन सदा-सर्वदा भगवान् के सम्पर्क में रखें। तब मन की भ्रष्टता समाप्त हो जायेगी। जप तथा ध्यान का अभ्यास प्रतिदिन करें। जितना ही अधिक आप भगवद्-चिन्तन करेंगे, आपका जीवन उतना ही अधिक हितकर बनेगा।

 

समर्पण की भावना से साधनाभ्यास करें। विकास करने के लिए संघर्ष करना ही होगा। संघर्ष का सामना करने से कतरायें नहीं। हतप्रभ बनें। भगवान् आपके वास्तविक सहायक हैं। पूरे उत्साह से अध्यात्म-पथ पर अग्रसर हों। क्षुब्ध हों।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

. गृहस्थों के लिए परामर्श

 

आपका गृह भगवान् का आवास है। आप सब, जो भगवान् का स्मरण करते हैं, धन्य हैं। वह गृह धन्य है, जहाँ भगवान् की प्रतिष्ठा करके उनकी पूजा-उपासना की जाती है।

 

आप सब भगवान् को अपने-अपने घरों की केन्द्रीभूत सत्ता मानें तथा अपने कार्य-स्थलों (दुकान आदि) में उन्हें अपना साथी। समय पंख लगा कर उड़ा चला जा रहा है। नाम-रूप नष्ट होते जा रहे हैं। जो व्यक्ति जागरूक नहीं हैं, वे अपना मूल्यवान् जीवन बिना कुछ उपलब्ध किये नष्ट कर देते हैं। यह आवश्यक है कि हम प्रत्येक दिवस जागरूक तथा उत्साही बने रहें। हम अपने भौतिक जीवन के अन्तिम दिवस का स्वागत प्रफुल्ल हृदय से मुस्कराते हुए करें। हमारी समग्र सत्ता शान्ति से परिपूरित होनी चाहिए। भगवान् का विस्मरण एक क्षण के लिए भी हो। आपके ओष्ठ अहर्निश भगवन्नाम का जप करते रहें।

 

वास्तविक शान्ति तथा यथार्थ आन्तरिक प्रकाश का मार्ग है-सन्तों के उपदेशों का पालन करना सन्त जन हमें सरल, करुणामय एवं सन्तोष प्रदान करने वाला जीवन व्यतीत करने तथा अपनी कामनाओं को कम करने का उपदेश देते हैं। उदात्त विचार तथा चिन्तन एवं निष्कपट आदतें पारलौकिक जीवन में धन्यता तथा प्रसन्नता प्राप्त करने की कुंजी हैं। अपने क्रोध, लोभ तथा ऐन्द्रिय अभिरुचि पर नियन्त्रण रखें। शुचिता तथा उदारता के गुणों का विकास करें। प्रत्येक क्षण भगवद्-स्मरण करें। अपने गृह को भगवान् का पवित्र आवास मानें। सांसारिक वार्तालापों में संलग्न हो कर समय नष्ट करें। सदैव प्रफुल्ल रहें। अपनी सन्तानों को भी इसी प्रकार जीवन व्यतीत करने का प्रशिक्षण दें। आपका यह प्रशिक्षण आपकी सन्तानों को दिया गया सर्वाधिक मूल्यवान् उपहार है। आप अपने जीवन को एक ऐसा आदर्श उदाहरण बना लें, जिसका अनुकरण आपकी सन्तानें करें। तब आपका गृह स्वर्ग बन जायेगा।

 

आप सद्गुणों से परिपूरित धर्ममय तथा आदर्श जीवन व्यतीत करें। आपके जीवन के प्रमुख तत्त्व हैं-दानशीलता, निर्धनों तथा रोगियों की सेवा, गुरु जनों तथा अतिथियों का सम्मान और पड़ोसियों के प्रति प्रेम। आप नित्य-प्रति भगवान् की पूजा करें। सुख तथा प्रसन्नता के रूप में अपना अंशदान समाज को दें। शुद्ध तथा सरल जीवन व्यतीत करें। ऐसे जीवन से आपको सफलता तथा प्रसन्नता प्राप्त होगी।

 

इस बात को भली प्रकार समझ लें कि पारिवारिक जीवन मात्र एक सांसारिक साझेदारी नहीं है। इसे आध्यात्मिक साझेदारी में रूपान्तरित हो जाना चाहिए। ऐसे पारिवारिक जीवन में पति-पत्नी-दोनों को भगवत्-तत्त्व का अन्वेषण करना चाहिए। आपका गृह एक साधना-मन्दिर है। दैनिक प्रार्थना, पूजा तथा हरिनाम-संकीर्तन द्वारा गृह को भगवान् का मन्दिर बना दें। ऐसा गृह वास्तव में वैकुण्ठ है। धर्म की मर्यादा बनाये रखने तथा अपने दैनिक जीवन के माध्यम से भगवान् को गौरवान्वित करने हेतु शुद्धता तथा सत्यता से परिपूर्ण जीवन व्यतीत करें।

 

जीवन-यापन में सदैव सरलता को महत्त्व दें। फैशन तथा उच्छृंखलता से बचें। फैशन शान्ति तथा प्रसन्नता का शत्रु है। पति-पत्नी-दोनों मिल कर भारतीय संस्कृति की वास्तविक आत्मा को प्रकट करें। पत्नियाँ अपने को सावित्री तथा सीता के समान पतिव्रता नारियों के रूप में विकसित करें। पति मर्यादा- पुरुषोत्तम श्रीराम के समान एकपत्नीव्रत पालन करने का महान् संकल्प लें। उन सबका जीवन पवित्रता तथा सद्गुणों के प्रकाश से चमक उठे। पति-पत्नी श्रद्धापूर्वक तथा पूर्ण निष्ठा के साथ एक-दूसरे को प्रेम करें। विवाह पवित्र है। गृह पवित्र है। पत्नियाँ अपने गुरु जनों, अतिथियों, विद्वानों तथा साधु-सन्तों की सेवा करें। पति-पत्नी दोनों निर्धनों की धर्मानुकूल सहायता करें।

 

आपका गृह भगवान् का पवित्र मन्दिर बने। वहाँ भगवन्नाम के उच्चार की ध्वनि सुनायी पड़ती रहे। वहाँ पवित्र धर्मग्रन्थों का स्वाध्याय अथवा पाठ होता रहे। वहाँ अवश्यमेव नित्य-प्रति पूजा की जाये। अगरबत्ती, आरती आदि की शुद्धकारी सुगन्धि से पूरा गृह पवित्र हो उठे। ऐसा ही जीवन और ऐसा ही घर हो, तो दम्पति क़ो समृद्धि, उन्नति, सफलता और प्रसन्नता प्राप्त होते हैं।

भगवान् में आस्था रखें और सदैव उनका स्मरण करें। अपने क्रम सम्यक् विधि से करें। सत्यता और भलाई के मार्ग पर चलें। सदैव स्मरण रखें कि आपमें और आपके चारों ओर भगवान् उपस्थित हैं। वे आपके अन्दर निवास करते हैं। जीवन व्यतीत करने का अर्थ है-प्रतिदिन ईश्वरोन्मुख गति भगवान् आपको आशीर्वाद प्रदान करें!

 

भगवान् के लिए जीवन व्यतीत करें; भगवान् में ही संस्थित हो कर जियें। अपने समस्त कर्म पूजा-भाव से करें। धर्म पर आधारित कर्म ही करें। प्रत्येक कर्तव्य पुनीत है। कर्तव्यपरायणता सर्वोच्च ईश्वरोपासना है। आप सेवा, दान, पूजा, जप, स्वाध्याय तथा भगवान् का सतत स्मरण करते हुए धर्ममय तथा सदाचार-युक्त जीवन व्यतीत करें।

 

भगवान् के बिना जीवन वास्तविक मृत्यु है। यदि जीवन में भगवान् का अभाव रहा, तो समग्र संसार की सम्पत्ति का स्वामित्व मिल जाने पर भी वास्तविक सुख प्राप्त करने की आशा नहीं की जा सकती। वह गृह सचमुच वैकुण्ठ है जहाँ शान्ति रहती है, धर्मग्रन्थों का स्वाध्याय किया जाता है, भगवन्नाम का कीर्तन होता है और परिवार के सदस्य मेल-मिलाप से रहते हैं। नित्य-प्रति भगवन्नाम का कीर्तन करके आप अपने गृह को वैकुण्ठ में परिवर्तित कर दें।

 

ईश्वरार्पण वास्तविक शान्ति तथा सान्त्वना का स्रोत है। सन्तोष वास्तविक धन है। आप भगवान् के इस दिव्य धन को प्राप्त करने का प्रयास करें। आप सद्गुणों से युक्त, भक्ति से परिपूर्ण, निःस्वार्थ परोपकारिता तथा कर्तव्यपरायणता का धर्ममय एवं श्रेष्ठ जीवन व्यतीत करें। आपका गृह भगवान् का आवास तथा आध्यात्मिक क्रम-विकास का स्थल बन जाये। पति-पत्नी इस बात को समझें कि सद्गुणों की पूर्णता तथा ईश्वर-साक्षात्कार की ओर बढ़ते समय वे एक आध्यात्मिक साझेदारी (आध्यात्मिक संसर्ग) से परस्पर सम्बद्ध हैं। एकपत्नीव्रत तथा पातिव्रत्य के आदर्श उनके पारस्परिक सम्बन्धों तथा गृहस्थ-जीवन को संचालित करें।

 

पति-पत्नी दोनों ही सद्गुणों से परिपूरित धर्ममय जीवन व्यतीत करें। अन्यों को प्रसन्नता देने से ही वास्तविक प्रसन्नता प्राप्त होती है। सेवा, प्रार्थना तथा पूजा से अलंकृत आदर्श जीवन व्यतीत करते हुए वे समाज के सामने एक आदर्श प्रस्तुत करें। वे निर्धनों तथा रोगियों की सेवा करें। यही एक गृहस्थ का आदर्श जीवन है।

 

विवाह का महत्त्व सार्वलौकिक होता है। यह मानव की मूल-प्रवृत्तियों पर नियन्त्रण रखता है और उन्हें आध्यात्मिक बना देता है। गृहस्थाश्रम में ही व्यक्ति अपने आन्तरिक व्यक्तित्व को प्रशिक्षित करना और अपने चरित्र का निर्माण करना सीखते हैं। स्त्री-पुरुष के इसी (पूर्णतः) नैतिक तथा आध्यात्मिक मिलन की आधारशिला पर सम्पूर्ण समाज का ढाँचा निर्मित होता है। विवाह उच्चतर जीवन की मात्र एक तैयारी है-इस तथ्य को कभी नहीं भूलना चाहिए। पति-पत्नी अपने को एकमेव परमात्मा की सन्तानें समझें, जिन्हें दैवी इच्छा द्वारा उसके दिव्य लक्ष्य की पूर्ति हेतु साथ-साथ जीवन व्यतीत करने के लिए परस्पर निकट लाया गया है। परमात्मा से संस्वरित होने तथा दिव्य इच्छा को व्यक्तिक इच्छा के माध्यम से प्रवाहित होने देने हेतु पति-पत्नी का यही सम्यक् आदर्श होना चाहिए।

 

प्रसन्नता प्राप्त करने की कुंजी है-भगवान् का सतत स्मरण तथा पर-कल्याण। दूसरों को प्रसन्नता प्रदान करके प्रसन्नता का अनुभव करें। गुरु जनों का आदर, अतिथि-सत्कार, धर्माचरण, पड़ोसियों के प्रति प्रेम तथा परोपकार गृहस्थाश्रम-धर्म के सारभूत तत्त्व हैं।

 

गुरु जनों की सेवा, पड़ोसियों के प्रति प्रेम, दानशीलता, सरल जीवन, सत्यवादिता, मन-विचारों की पवित्रता-यह है गृहस्थाश्रम का नीतिशास्त्र पति-पत्नी इन सिद्धान्तों का पालन करें। जब उत्साहपूर्वक इनका पालन किया जाता है, तब परिवार में धन्यता तथा शाश्वत आनन्द का वास होता है।

 

गृहस्थ-जीवन सर्वश्रेष्ठ जीवन है; क्योंकि इसी जीवन में सेवा, सहिष्णुता, सूझ-बूझ, दानशीलता तथा प्रेम के आदर्शों को चरितार्थ किया जा सकता है। ईश्वर की ओर ले जाने वाले मार्ग पर आगे बढ़ने हेतु पति-पत्नी दैनिक साधना (उपासना, प्रार्थना, स्वाध्याय आदि) में परस्पर सहयोग देते हुए एक-दूसरे को सहायता प्रदान करें।

 

जब पति-पत्नी दोनों ही आस्था, भक्ति तथा प्रेम सहित अपने हृदयों को भगवान् की ओर उन्मुख कर देते हैं, तब उनकी शान्ति और प्रसन्नता का कोई पारावार नहीं रहता। तब निश्चित ही, उनका गृह पृथ्वी पर वैकुण्ठ के समान हो जाता है तथा मानव- जाति के लिए एक उत्तम आदर्श बन जाता है। परिवार में बालकों को भी सत्य, आज्ञाकारिता, अध्ययन तथा दैनिक प्रार्थना के मार्ग पर चलने हेतु प्रशिक्षित किया जाना चाहिए। परिवार में प्रतिदिन कुछ समय के लिए भजन-कीर्तन के कार्यक्रम आयोजित करने से गृह दिव्य आध्यात्मिक स्पन्दनों से आपूरित हो जाता है।

 

पति-पत्नी सदैव विवाह की आध्यात्मिक आधारशिला का स्मरण रखें। विवाह सामाजिक साझेदारी ही नहीं है; श्रेष्ठ जीवन- यापन तथा ईश्वर-साक्षात्कार करने हेतु यह एक पवित्र सहबन्ध भी है। गृहस्थ-आवास देवालयों के समान ही पवित्र होना चाहिए। संक्षिप्त पूजा-उपासना को गृहस्थों के दैनिक जीवन का एक अनिवार्य विषय बन जाना चाहिए। सम्पूर्ण गृह भगवन्नाम-स्मरण से व्याप्त तथा पवित्र हो जाना चाहिए।

 

पति-पत्नी राम तथा सीता के समान जीवन व्यतीत करें। सद्गुण-सम्पन्न धर्ममय जीवन व्यतीत करते हुए वे अन्य गृहस्थों के लिए एक उदाहरण बन जायें। वे सरल तथा पवित्र जीवन व्यतीत करें। माता-माता तथा अतिथियों की सेवा, सत्यवादिता, साधु- संन्यासियों को भिक्षा-दान, आदर्श विधियों से सन्तानों का पालन-पोषण, पर-सहायता के लिए आतुरता, दानशीलता तथा भगवद्-भक्ति-ये हैं गृहस्थ-जीवन की आधारशिलाएँ।

 

पति-पत्नी अपने आवास को उपासना का स्थल समझें। वे अपने जीवन को धर्म का परिपालन करने, भलाई करने तथा ईश्वर-साक्षात्कार के महान् लक्ष्य की ओर अग्रसर होते रहने के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए एक साझेदारी समझें।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

. साधना

 

अपने गम्भीर आध्यात्मिक प्रयास तब तक जारी रखें, जब तक भगवद् दर्शन हो जाये। गहन आन्तरिक साधना को अपने जीवन का मूल-स्वर बना लें। दिव्य चेतना के सतत स्मरण तथा भगवान् की निरन्तर उपस्थिति की भावना को अपने जीवन का आधार बनायें।

 

नियमित रूप तथा व्यवस्थित ढंग से की जाने वाली साधना जीवन की आन्तरिक शान्ति तथा प्रसन्नता की जननी है।

 

केवल भगवान् की ही सत्ता है। यह संसार अस्थायी है। जीवन का महत् उद्देश्य है- पूर्णता की प्राप्ति अर्थात् भगवद्- साक्षात्कार। इस धरती-लोक पर बटोही की तरह जीवन व्यतीत करते हुए इस महान् लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु प्रयास करें। प्रार्थना, उपासना तथा ध्यान द्वारा आप इस लक्ष्य की ओर अग्रसर होंगे।

 

भगवद्-कृपा सदैव आप पर है। 'उनकी' कृपा के बिना आप साधना में किंचित् भी सफलता प्राप्त नहीं कर सकते। साधनाभ्यास के लिए मात्र संघर्ष करना भी 'उनकी' कृपा ही है। आपके अन्तःकरण द्वारा प्रकटित मात्र इस बात का बोध भी कि 'आप नियमित रूप से साधनाभ्यास नहीं कर रहे हैं', भगवद्-कृपा का ही परिणाम है।

 

भगवान् तथा गुरुदेव की उपस्थिति को सदैव अनुभव करें। एक दिन के लिए भी साधनाभ्यास करना बन्द करें। दिन समाप्त होने पर अपने समस्त दैनिक कार्यों को भगवान् को समर्पित कर दें। प्रतिदिन निश्चित समय पर प्रार्थना, उपासना तथा ध्यान करें।

 

साधनाभ्यास करने से आप सदा-सर्वदा के लिए प्रसन्न, एकाग्रचित्त, सन्तुलित, शान्त, आवेगहीन, निर्भय, साहसी, दयालु, अक्रोधी, कामना रहित तथा 'मैं-मेरे' की भावना से मुक्त हो जाते हैं। नियमित रूप से, मन लगा कर तथा भावपूर्वक साधनाभ्यास करने से आन्तरिक जीवन समृद्ध बनता है, आत्मविश्लेषी आन्तरिक दृष्टि प्राप्त होती है तथा समस्त परिस्थितियों में मन अनुद्विग्न रहता है। इस जीवन की एकमात्र सम्पत्ति साधना ही है।

 

हम इस धरती-लोक पर भगवत्साक्षात्कार करने आये हैं। यह साक्षात्कार करने हेतु हमें प्रत्येक सम्भव प्रयास करना चाहिए। प्रतिदिन निश्चित समय पर हमें प्रार्थना, जप तथा ध्यान करने चाहिए।

 

भगवान् प्रकाश हैं। 'वह' शाश्वत जीवन हैं। 'वह' प्रेम हैं। 4/95' एकमात्र सत्य हैं। एकमात्र 'उनकी' ही सत्ता है। 'उनके' अतिरिक्त शेष सब असत्य है। यह संसार एक अयथार्थ बाह्य दिखावा है। 'उन्हें' सम्पूर्ण हृदय से प्यार करें। 'वह' आपके परम मित्र हैं।

 

साधना एक क्रमिक प्रक्रिया है। अन्यों के लिए भलाई करना तथा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रेम, करुणा, सत्यवादिता, अहिंसा तथा शुचिता के गुणों को अर्जित करने का अभ्यास करना धर्म है। भगवान् के साथ ऐक्य स्थापित करने का उपाय है-मित्र-भाव, बा दयालुता, प्रेम, सहानुभूति तथा करुणा से संसार को परिपूरित कर देना। अनन्त सत्ता के अनुरूप जीवन व्यतीत करें।

 

साधना का उद्देश्य है-मन को प्रशिक्षित करना। स्फुरित तथा अशान्त होना मन का स्वभाव ही है। साधना एक क्रमिक प्रक्रिया है। ध्यान करने के लिए बैठने से पूर्व कुछ स्तोत्रों, प्रार्थनाओं तथा मन्त्रों का पाठ करें। इसके बाद जप तथा ध्यान प्रारम्भ करें।

 

जब कभी प्रातःकाल उठने में कठिनाई हो, तब चिन्तित हों। कभी आपको ऐसा प्रतीत होगा कि ध्यान बहुत सहजतापूर्वक हो रहा है, कभी आपको ध्यान करने के लिए प्रयास करना पड़ेगा। ऐसी परिस्थितियाँ धीरे-धीरे समाप्त हो जायेंगी। ध्यानाभ्यास जारी रखें। दैनिक ध्यान का अभ्यास दृढ़तापूर्वक तथा कम-से-कम दो-तीन घण्टे तक करें। इससे आपका ध्यान सहज तथा स्थिर हो जायेगा।

 

मानव को भगवान् या गुरु की कृपा प्राप्त है। इस कृपा के फलस्वरूप वह साधना में नियमित तथा स्थायी रूप से उन्नति कर सकता है। प्रातःकाल जल्दी उठने, आसन-व्यायाम, कीर्तन, जप, प्राणायाम करने तथा गीता आदि सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय करने में उसका नियमित होना निश्चय ही प्रशंसनीय है। उसे अपने ध्यानाभ्यास को व्यवस्थित तथा नियमित बनाये रखना चाहिए तथा अपने लक्ष्य तक पहुँचने के लिए निरन्तर प्रयास करते रहना चाहिए। ध्यान आध्यात्मिक दैनन्दिनी के अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों में से एक है। ध्यान ईश्वरीय राज्य का द्वार खोलने की सर्वकुंजी है।

 

विषय-पदार्थों की कामना समाप्त करने के रूप में मन का नियन्त्रण मोक्ष प्राप्त करने तथा परम तत्त्व का साक्षात्कार करने की एक अत्यन्त प्रभावी विधि है।

 

निरन्तर भगवान् से प्रार्थना करते रहें। 'उनके' प्रति सम्पूर्ण हृदय से समर्पित हो जायें। जो निश्छल हृदय से प्रार्थना करता है, उसकी ओर भगवान् दौड़े आते हैं। यह एक सत्य है। जो सोचें, वही बोलें। 'उनके' संरक्षण में अपने को समर्पित कर दें।

 

एक दिन के लिए भी ध्यानाभ्यास में अनियमित हों। निश्चित समय पर तथा नियमित रूप से ध्यान करने से आश्चर्यजनक परिणाम दृष्टिगोचर होते हैं। ध्यान करते समय मन से समस्त सांसारिक विचार बहिष्कृत कर दिये जाते हैं। मन दिव्य विचारों से परिपूरित हो जाता है। अतः एक दिन का भी क्रम-भंग किये बिना ध्यान का अभ्यास करते रहें।

 

नियमित ढंग तथा व्यवस्थित रूप से साधना करने से सफलता अवश्य ही प्राप्त होती है; अतः एक दिन के लिए भी ध्यान-जप करना बन्द करें।

 

प्रत्येक परिस्थिति में सत्य बोलें। सम्यक् आचरण करें तथा अवांछनीय व्यक्तियों से मेल-जोल रखें। अन्यों के द्वारा अपने साथ किये गये अन्याय को तुरन्त भूल जायें।

 

समस्त सांसारिक पदार्थ नश्वर हैं; परन्तु ईश्वर एक ऐसी निर्विकार सत्ता है, जिसका कभी तिरोभाव नहीं होता, क्योंकि वह अनादि तथा अनन्त है। धरती पर व्यतीत किये जाने वाले जीवन की अनिश्चितताओं के बीच एक तथ्य निश्चित है-हमारा तिरोभाव होगा। हम धरती-लोक पर स्थायी रूप से निवास करने के लिए नहीं आये हैं। जन्म के पूर्व तथा मृत्यु के पश्चात् भी जो महान् तत्त्व बचा रहता है-अर्थात् जीवन-उसके अन्तर्गत यह सांसारिक जीवन मात्र एक क्षण-भंगुर घटना है। सांसारिक जीवन ईश्वर तथा विराट् चेतना के साथ जीवात्मा के शाश्वत ऐक्य का सचेतन बोध प्राप्त करने का एक महान् अवसर है। व्यवस्थित रूप से साधनाभ्यास करने से इस ऐक्य की उपलब्धि होती है। आप नियमित रूप से ध्यान तथा चिन्तन करें तथा परम तत्त्व के साथ ऐक्य स्थापित करें।

 

गम्भीरतापूर्वक साधना करने से इसके परिणाम शीघ्र ही दृष्टिगोचर होने लगते हैं। भगवान् के चरण-कमलों को दृढ़तापूर्वक पकड़े रहें। 'उनका' सतत स्मरण करें। सांसारिक विचारों में लीन रह कर अपना समय नष्ट करें। बहिर्गामी मन को नियन्त्रित करने के लिए संघर्ष करें तथा उसे भगवान् पर एकाग्र करें।

 

मानव अपने प्रयास से ही कोई उपलब्धि नहीं कर सकता। उसे केवल एक ही कार्य करना है- भगवान् से प्रार्थना करना तथा अनवरत प्रार्थना करना। इस प्रकार वह अपनी अहंमन्यता से मुक्त हो सकता है तथा इस बात का सतत स्मरण रख सकता है कि केवल भगवान् ही सत्य हैं अर्थात् एकमात्र 'वह' ही सत् हैं। केवल तभी वह अन्धकार तथा अज्ञान के चंगुल से छूट सकता है।

 

आध्यात्मिकता का अर्थ है-अपने दिव्य आदर्श के अनुरूप विकसित होना। यह मानवता से दिव्यता में आपके स्वभाव का रूपान्तरण है। अभ्यास, साधना तथा वैराग्य- जिसका पर्यवसान अन्तःत्याग में होता है-की सहायता से ऐसा हो पाता है।

 

आत्मस्वरूप ! इस बात को समझें कि जीवन अत्यन्त मूल्यवान् है। मानव-योनि में जन्म लेना अति कठिन है। हम इस धरती-लोक पर पूर्णता प्राप्त करने के लिए आये हैं। जीवन का लक्ष्य (उद्देश्य) पूर्णता प्राप्त करना है। सम्यक् ढंग से (दिव्यता से परिपूरित) जीवन व्यतीत करने से ऐसा सम्भव हो सकता है। अतः सरल तथा पवित्र जीवन व्यतीत करें। आपका एक नियमित नित्य-क्रम होना चाहिए। प्रतिदिन ध्यान तथा चिन्तन के लिए कुछ घण्टे निश्चित कर लें। प्रत्येक दिन का प्रारम्भ भगवान् से प्रार्थना करके करें। कोई भी कार्य प्रारम्भ करने से पूर्व भगवान् का स्मरण करें। अपने सभी कार्य भगवान् की पूजा समझ कर करें। इस प्रकार का कार्य-सम्पादन आपको संसार के बन्धन में नहीं डालेगा। आप जहाँ-कहीं भी जायें, 'उनकी ' उपस्थिति का अनुभव करें; क्योंकि 'वह' प्रत्येक स्थान पर हैं। 'वह' आपमें तथा आप 'उनमें' हैं।

 

प्रत्येक नये वर्ष के लिए नये संकल्प लें। साधनाभ्यास दोगुने उत्साह के साथ करें। स्वयं अनुसन्धान करके पता लगायें कि अध्यात्म-पथ पर चलते हुए आपने कितनी उन्नति की है। आत्मस्वरूप-विषयक सम्यक् परिपृच्छा, प्रार्थना तथा चिन्तन करने से अध्यात्म-पथ पर चलते हुए आप अवश्य तथा शीघ्र उन्नति करेंगे।

 

मानव-जन्म पाना एक कठिन कार्य है। मानव-जन्म अमूल्य है; अतः समय का पूरा-पूरा सदुपयोग करें। अपने जीवन के लिए योजना बनायें। दैनिक चिन्तन तथा ध्यान के लिए कुछ घण्टे निश्चित कर लें। जो व्यक्ति अपना समय प्रार्थना तथा ध्यान में व्यतीत करता है, वह धन्य है। भगवान् की उपस्थिति का अनुभव प्रत्येक स्थान पर करें। ऐसा कोई स्थान नहीं है, जहाँ 'वह' हों।

 

प्रार्थना शक्ति है। प्रार्थना जीवन है। मनुष्य भोजन के बिना जीवित रह सकता है, परन्तु प्रार्थना के बिना नहीं। प्रार्थना-पूजा प्रतिदिन निश्चित समय पर करें। पूज्य गुरुदेव के ग्रन्थों का स्वाध्याय करें। इससे आपके सन्देह तथा भ्रम दूर होंगे तथा उनसे (ग्रन्थों से) आपको मार्ग-निर्देशन प्राप्त होगा। उनके ग्रन्थ प्रेरणा-स्रोत हैं। वे मन को उन्नत करते हैं। वे मन को उदात्त विचारों से भर देते हैं तथा आपको (परम लक्ष्य की ओर ले जाने वाले) सन्मार्ग पर ला कर खड़ा कर देते हैं।

 

आध्यात्मिक जागरूकता के सागर में तैरें। भगवद्-चेतना की विस्मयकारी नीरवता का आनन्द लें। शाश्वत जीवन की सरिता में कूद पड़ें। दिव्य सौन्दर्य के शाश्वत प्रकाश का दर्शन करें। भगवान् को सदा स्मरण रखें। प्रतिदिन निश्चित समय पर प्रार्थना तथा ध्यान करें।

 

भगवान् की सेवा प्रत्येक प्रकार से की जा सकती है; परन्तु इसके लिए सम्यक् दृष्टिकोण बनाये रखने की आवश्यकता है। जब आप पारिवारिक उत्तरदायित्वों को वहन कर रहे हों, तब ऐसा सोचें कि परिवार के सदस्य भगवान् के ही प्रकटीकरण हैं तथा आप उनके लिए जो कुछ भी करते हैं, वह भगवद्-पूजा ही है।

 

अध्यात्म-पथ पर चलते हुए जो उन्नति होती है, वह धीमी परन्तु स्थिर होती है। यही बात ध्यान के लिए भी सत्य है। एक-दो दिनों में ही ध्यानाभ्यास में सफलता नहीं प्राप्त होती। आपको बार-बार प्रयास करना होगा; तभी ध्यान में सफलता प्राप्त होगी। यदि आप सायंकाल ध्यानाभ्यास करने के लिए समय नहीं निकाल सकते, तो आप प्रातःकाल (अर्थात् कोई भी दैनिक कार्य-कलाप आरम्भ करने के पूर्व) ही यह अभ्यास करना जारी रखें। सकारात्मक ढंग से सोचें। आप जिस प्रकार के विचारों का चिन्तन दृढ़ता से करते हैं, आपका विकास उसी के अनुरूप होता है। अपने उन आदर्शों का चिन्तन करें, जिनके अनुरूप आप अपना विकास करना चाहते हैं। यह आपके दैनिक आध्यात्मिक जीवन का एक अंग है।

 

ध्यान तथा हार्दिक प्रार्थना के माध्यम से भगवान् से संलाप करें। अपने समस्त कष्ट 'उनके' सामने अनावृत्त कर दें। 'वह' आपको आध्यात्मिक शक्ति तथा प्रज्ञा प्रदान करेंगे।

 

अपने दैनिक कार्य-कलाप प्रारम्भ करने के पूर्व (प्रातःकाल) तथा शयन करने के पूर्व (रात्रि में) भगवान् से प्रार्थना करें। अपनी व्यस्त दिनचर्या में से कुछ समय प्रार्थना तथा ध्यान के लिए निकालें। सरल तथा पवित्र जीवन व्यतीत करें। प्रलोभनों के जाल में फँसाने वाले स्थानों से दूर रहें। आध्यात्मिक ग्रन्थों तथा साधु-साध्वियों के जीवन-चरित्रों का अध्ययन करें। गीता, रामायण, बाइबिल, 'इमीटेशन आफ क्राइस्ट' आदि ग्रन्थों का अध्ययन करें। इस प्रकार के अध्ययन से मन पवित्र तथा श्रेष्ठ विचारों से परिपूरित हो जायेगा। आपके भ्रम दूर होंगे तथा आपको मार्ग-निर्देशन प्राप्त होगा।

 

परम तत्त्व पर गहन ध्यान करके मन को पवित्र करें। मौन रखें। सम्यक् विचार द्वारा घृणा, ईर्ष्या तथा अन्य दुर्गुणों को दूर करें तथा दिव्य सकारात्मक गुण अर्जित करें। आप असीम शान्ति तथा प्रसन्नता प्राप्त करेंगे।

 

भगवान् पर आस्था रखें। भगवान् पर निर्भर होने से सुख तथा प्रसन्नता प्राप्त होते हैं। 'वह' कभी आपको मँझधार में नहीं छोड़ेंगे। 'उनमें' गहन आस्था रखें। 'वह' सदैव आपके प्रति सद्भाव रखते हैं। 'वह' दयालु तथा सुहृद हैं। आपके जीवन में जो कुछ भी घटित होता है, वह आपके कल्याण के लिए है। कभी-कभी हम भगवान् के बारे में बिना ठीक से सोचे-समझे निर्णय ले लेते हैं।

 

नित्य-प्रति भगवान् से प्रार्थना करें। ब्राह्ममुहूर्त में प्रार्थना तथा चिन्तन के लिए समय निश्चित कर लें। आप जहाँ-कहीं भी जायें, 'उनकी' उपस्थिति का अनुभव करें।

 

सरल तथा पवित्र जीवन व्यतीत करें। प्रातः-सायं दैनिक प्रार्थना तथा पूजा निश्चित समय पर किया करें। प्रार्थना मानव के पशुत्व को दिव्यता में रूपान्तरित कर देती है। निष्कपट हृदय से की गयी प्रार्थनाएँ जीवन की समस्त समस्याओं का समाधान प्रस्तुत कर देती हैं।

 

नियमित प्रार्थना-पूजा, सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय तथा 'मैं कौन हूँ' की परिपृच्छा-ये निश्चय ही आपको ईश्वर के पास पहुँचा देंगे।

 

आप जो भी कार्य करें, उसे भगवान् की पूजा समझ कर करें। अन्ततः भगवद्-इच्छा ही अभिभावी होती है। आपका भविष्य पहले से ही सुनियोजित तथा सुनिश्चित कर दिया गया है। आप किसी प्रकार का भी जीवन व्यतीत करें, परन्तु भगवान् का विस्मरण कभी करें। घटनाएँ जिन रूपों में आयें, उन्हें उन्हीं रूपों में स्वीकार कर लें। संसार के बीचों-बीच रहते हुए आप साधनाभ्यास कर सकते हैं। सबमें भगवद्-दर्शन करें। भगवान् सर्वव्यापक हैं। ऐसा कोई स्थान नहीं है, जहाँ 'वह' हों।

 

एक-दो दिनों में ही एकाग्रता तथा ध्यान के अभ्यासों में सफलता नहीं प्राप्त होगी। बिना कोई क्रम-भंग किये आप कम- से-कम तीन वर्षों तक अभ्यास करें। तभी आपको कुछ उपलब्धि हो सकेगी। बार-बार प्रयास करें। आप सफल होंगे। यह बात समझ लें कि भगवान् प्रत्येक स्थान पर हैं। ऐसा कोई स्थान नहीं है, जहाँ 'वह' हों। इस विचार को बलपूर्वक मन में स्थापित करें कि भगवान् प्रत्येक स्थान पर तथा प्रत्येक पदार्थ में हैं।

 

ध्यान के लिए बैठने से पूर्व कुछ स्तोत्रों का पाठ करें। इससे आपका मन ध्यान के अनुकूल हो जायेगा तथा आपको ध्यान का अभ्यास करने में सहायता मिलेगी।

 

अपने हृदय को शुद्ध करें तथा ध्यान करें। हृदय के अन्तरतम प्रकोष्ठ के गहरे सागर में पैठें। आपको आत्मा का मुक्ता प्राप्त होगा।

 

नियमित रूप से की जाने वाली साधना, प्रार्थना तथा चिन्तन आपको भगवान् तक पहुँचाते हैं। जहाँ भी आप जायें, 'उनकी' उपस्थिति का अनुभव करें। सब-कुछ 'वही' हैं और सब-कुछ 'उनमें' है। अतः सब प्राणियों को मन-ही-मन प्रणाम करें।

 

भगवान् से नित्य-प्रति प्रार्थना करें। अपनी मानसिक दृष्टि के समक्ष उस आदर्श को सदैव सामने रखें, जिसके अनुरूप आप बनना चाहते हैं-एक दिव्य सत्ता, असीमित शान्ति, धैर्य, क्षमा- शीलता, भलाई, वैश्व प्रेम तथा करुणा के सद्गुणों से विभूषित सत्ता। इस आदर्श के रूप का चिन्तन करें। यह आध्यात्मिक साधना का एक अंग है।

 

आसन-प्राणायाम के अभ्यास, मन्त्र-लेखन तथा जप में नियमित रहने का प्रयास करते रहें। हृदय की निष्कपटता, वाणी की मधुरता तथा सत्यवादिता के गुणों को अर्जित करें। घृणा तथा लोभ के दुर्गुणों को प्रश्रय दे कर अपनी आत्मा का हनन करें। अन्यों के साथ मित्र-भाव से रहें। सद्गुणों का अर्जन करें। अपने को तात्कालिक परिस्थितियों के अनुकूल बनायें एवं उनसे समायोजित करें तथा उनके साथ समझौता करें। समय अत्यन्त मूल्यवान् है। इसका सर्वोत्तम उपयोग करें।

 

नियमित रूप से दैनिक प्रार्थनाएँ करें। साधना में एक भी दिन का क्रम-भंग करें। मानसिक शान्ति प्राप्त करने हेतु साधना का महत्त्व अत्यधिक है। साधना के बिना आप कुछ भी अर्जित नहीं कर सकते। अपने दैनिक कर्तव्यों का पालन नियमित रूप से करें। भगवद्-चिन्तन में तल्लीन हो जायें।

 

निश्छल हृदय से किये गये प्रार्थना, उपासना तथा ध्यान आपको दिव्य तत्त्व की ओर ले जायेंगे।

 

प्रत्येक क्षण उस अनुपम अवसर की अवधि को कम कर देता है, जो कैवल्योपलब्धि हेतु जीव को भगवान् द्वारा प्रदान किया गया है। क्षण जीवन की सरिता में प्रवाहित होते हुए बहुमूल्य पुष्पों के समान है। बहुमूल्य समय का प्रत्येक क्षण-रूपी पुष्प उदात्त पूजा-भावना से भगवान् को अर्पित किया जाना चाहिए। तभी आप अपने जीवन को भव्यतापूर्वक व्यतीत कर सकेंगे। भगवान् के निमित्त समय का सदुपयोग साधना है। आप इसी प्रकार जीवन व्यतीत करें।

 

प्रतिदिन ब्राह्ममुहूर्त में भगवान् से प्रार्थना करें। गहन ध्यान तथा चिन्तन के लिए ब्राह्ममुहूर्त सर्वाधिक उपयुक्त समय है। क्या आप नियमित रूप से ब्राह्ममुहूर्त में उठ जाते हैं? इस बहुमूल्य समय को व्यर्थ नहीं जाने देना चाहिए। इस समय में जो साधना की जाती है, वह शीघ्र ही आपको भगवान् के पास पहुँचा देती है। जहाँ-कहीं भी आप जायें, वहाँ भगवान् की उपस्थिति का अनुभव करें। भगवान् आपमें हैं तथा आप 'उनमें' हैं। नियमित रूप से प्रार्थना- ध्यान करके हमें इस तथ्य को जान लेना चाहिए।

 

भगवान् आप सबको स्वास्थ्य, दीर्घायु, समृद्धि, शान्ति और प्रसन्नता प्रदान करें! यह जीवन भगवान् से प्राप्त एक अमूल्य उपहार है। इस जीवन का उद्देश्य है-धर्म-पालन तथा भगवद्-प्राप्ति आध्यात्मिक साधनाभ्यास करने, भगवान् की पूजा करने तथा परोपकार में रत रहने के लिए ही जीवन होता है। जहाँ-कहीं भी आप रहें, भगवान् के लिए ही जियें भगवान् ही सम्पत्तियों की एकमात्र सम्पत्ति हैं। अन्य समस्त वस्तुएँ बेकार हैं। आप इस संसार में अकेले आये हैं तथा यहाँ से प्रस्थान करते समय कोई भी आपके साथ नहीं जायेगा। जीवन क्षण-भंगुर है। मृत्यु प्रतिक्षण निकट आती जा रही है। अपने आवास को दिव्य जीवन के देवालय में रूपान्तरित कर लें। आपका गृह एक अरण्य अथवा गुहा के समान बन जाये। जप करें तथा भगवान् की पूजा करें। सत्य में संस्थित हो जायें। भगवान् का सदा-सर्वदा स्मरण रखें। अपने समस्त जीवन को पवित्र तथा शुद्ध बना लें तथा यहीं और अभी परम शान्ति को उपलब्ध हो जायें।

 

साधनाभ्यास गम्भीरतापूर्वक करें। साधना के विषय में अति-गम्भीर रहें। साधनाभ्यास करने हेतु सम्यक् प्रयास करें। अध्यात्म-पथ के प्रति प्रेम के अभाव में आप साधना में कोई उन्नति कर पायेंगे। साधना सहज होनी चाहिए। पूरे मन और प्राण से साधनाभ्यास करें।

 

दिव्यता तथा पवित्रता से परिपूरित जीवन व्यतीत करें। नियमित रूप से प्रार्थनाएँ करें। आध्यात्मिक जीवन व्यतीत करें। आध्यात्मिकता का अर्थ है-दिव्य आदर्श के अनुरूप विकास करना। यह अपने मानव-स्वभाव का दिव्यता में रूपान्तरण है। अभ्यास, साधना तथा वैराग्य-जिनका पर्यवसान अन्तःत्याग में होता है-से यह सम्भव हो पाता है।

 

अपने समस्त कार्य-कलापों का अध्यात्मीकरण करें। ऐसा अनुभव करें कि आप भगवान् के हाथों में एक उपकरण मात्र हैं तथा समस्त इन्द्रियाँ 'उनकी' ही हैं। इस सूत्र को दोहरायें-"मैं तेरा हूँ, सब-कुछ तेरा है, तेरी इच्छा पूरी हो।

 

कम सोयें। समय अत्यन्त मूल्यवान् है। सोने में अपना समय नष्ट करें। सक्रिय सेवा द्वारा निद्रा पर नियन्त्रण प्राप्त करें। धार्मिक ग्रन्थों का स्वाध्याय करें। सात्त्विक प्रकृति के व्यक्तियों का संग करें। गुरु जनों की सेवा करें। ये सब आपकी साधना में सहायक सिद्ध होंगे।

 

अपने गम्भीर आध्यात्मिक प्रयास जारी रखें। भगवान् आपको शक्ति प्रदान करेंगे। 'वह' सदैव आपके साथ सद्भाव रखते हैं। वह दयालु तथा करुणामय हैं। वह प्रत्येक के अन्तरतम हृदय की बातें जानते हैं। अपने लक्ष्य को प्रात करने के लिए दृढ़तापूर्वक प्रयास करते रहें।

 

साधनाभ्यास के परिणामस्वरूप आप प्रफुल्ल, अधिक एकाग्र, आनन्दित, सन्तुलित, शान्त, सन्तुष्ट, आनन्दमय, कामना रहित तथा मेरे-पन की भावना से मुक्त हो जायेंगे।

 

अनुभव करें कि समग्र संसार ईश्वर का प्रकटीकरण है तथा विभिन्न नाम-रूपों की सेवा करके आप भगवान् की ही सेवा कर रहे हैं। आप जो भी कर्म करें उन्हें तथा उनके परिणामों को, प्रत्येक दिवस के अन्त में भगवान् को समर्पित कर दें। अपने कर्मों के साथ तादात्म्य स्थापित करें। तब आपका हृदय शुद्ध हो जायेगा तथा आप दिव्य प्रकाश और प्रसाद प्राप्त करने के पात्र बन जायेंगे।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

परिशिष्ट

 

श्री स्वामी चिदानन्द सरस्वती

दिव्य जीवन संघ के वर्तमान परमाध्यक्ष

(संक्षिप्त जीवन-चरित्र)

 

श्री स्वामी चिदानन्द जी अपने पूर्वाश्रम में श्रीधर राव के नाम से ज्ञात थे। उनका जन्म २४ सितम्बर १९१६ को हुआ। उनके पिता का नाम श्रीनिवास राव तथा माता का नाम श्रीमती सरोजिनी था। उनके पिता एक समृद्ध जमींदार थे। वह दक्षिण भारत के कई ग्रामों, बड़े-बड़े भूमि-खण्डों तथा भव्य भवनों के स्वामी थे।

 

स्वामी जी एक मेधावी छात्र थे। प्राथमिक तथा माध्यमिक शिक्षा पूर्ण कर लेने के पश्चात् सन् १९३६ में उन्होंने लोयोला कालेज में प्रवेश लिया। इस विद्यालय के द्वार केवल मेधावी छात्रों के लिए खुले हुए थे। सन् १९३८ में उन्होंने स्नातक-उपाधि प्राप्त की। इस विद्यालय में ईसाइयत का वातावरण था। इस वातावरण में व्यतीत हुआ उनका अध्ययन-काल उनके लिए महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुआ। हिन्दू-संस्कृति के सर्वोत्तम तथा सर्वोत्कृष्ट तत्त्वों के साथ समन्वित हो कर प्रभु यीशु, उनके पट्टशिष्यों तथा अन्य ईसाई सन्तों के जीवनादर्शों ने उनके हृदय में स्थान बना लिया। स्वामी जी के लिए बाइबिल का पाठ उनकी दिनचर्या का मात्र एक अंग नहीं था; बाइबिल उनके लिए जीवन्त ईश्वर ही थी- वेदों, उपनिषदों तथा भगवद्गीता के उपदेशों के समान सजीव तथा वास्तविक। अपने सहज, विशाल दृष्टि-क्षेत्र के कारण वह कृष्ण में ही यीशु का दर्शन ( कि कृष्ण के स्थान पर यीशु का दर्शन) करने लगे। वह जितना विष्णु-भक्त थे, उतना ही यीशु-भक्त भी।

 

कुष्ठियों की सेवा उनका जीवनादर्श बन गयी। अपने आवास के बड़े-बड़े लानों में वह उनके लिए झोपड़ियाँ बनवा देते थे और उन्हें देव-तुल्य समझ कर उनकी सेवा करते थे। कुछ समय तक सद्गुरुदेव श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज के साथ पत्र-व्यवहार के माध्यम से सम्पर्क रख कर वह सन् १९४३ में आश्रम-परिवार में सम्मिलित हो गये।

 

यह स्वाभाविक था कि अन्तेवासी के रूप में उन्होंने सर्व-प्रथम आश्रम के शिवानन्द चैरिटेबल हास्पिटल का कार्यभार सँभाला। उनके हाथ में रोग-हरण की दिव्य-क्षमता उत्पन्न हो गयी। इस कारण रोगियों की भीड़ बढ़ने लगी।

 

आश्रम में उनके आने के बाद जल्दी ही उनकी कुशाग्र बुद्धि का पर्याप्त परिचय मिलने लगा। वह भाषण देने लगे, पत्रिकाओं के लिए लेख लिखने लगे तथा दर्शनार्थियों को उपदेशों से लाभान्वित करने लगे। जब सन् १९४८ में योग-वेदान्त फारेस्ट यूनिवर्सिटी (अब योग-वेदान्त फारेस्ट एकाडेमी) की स्थापना हुई, तब पूज्य गुरुदेव ने उन्हें उसके कुलपति तथा राजयोग के प्राचार्य के रूप में नियुक्त करके उन्हें सर्वथोचित सम्मान प्रदान किया। सन् १९४८ में परम पूज्य श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज ने उन्हें दिव्य जीवन संघ के महासचिव के रूप में मनोनीत किया। अब संस्था का महान् उत्तरदायित्व उनके कन्धों पर पड़ा।

 

गुरुपूर्णिमा-दिवस, १० जुलाई १९४७ को परम पूज्य श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज ने उन्हें संन्यास-परम्परा में दीक्षित किया। इसके बाद से वह 'स्वामी चिदानन्द' कहलाये। इस नाम का अर्थ है-जो सर्वोच्च चेतना तथा परमानन्द में संस्थित हो।

 

गुरुदेव के व्यक्तिगत प्रतिनिधि के रूप में नयी दुनिया (अमरीका) में दिव्य जीवन का सन्देश प्रसारित करने के उद्देश्य से सन् १९५९ के नवम्बर माह में श्री स्वामी चिदानन्द जी वहाँ की यात्रा करने के लिए निकल पड़े। मार्च १९६२ में वह वापस लौटे।

 

अगस्त १९६३ में, पूज्य गुरुदेव की महासमाधि के पश्चात्, वह दिव्य जीवन संघ के परमाध्यक्ष के रूप में चुने गये। इसके बाद वह दिव्य जीवन संघ के सुविस्तृत कार्यक्षेत्र में ही नहीं, वरन् संसार-भर के अगणित जिज्ञासुओं के हृदयों में भी त्याग, सेवा, प्रेम तथा आध्यात्मिक आदर्शवाद की पताका को ऊँचा उठाये रखने के लिए प्रयत्नशील रहे।

 

सन् १९६८ में पूज्य गुरुदेव श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज के शिष्यों तथा भक्तों के अनुरोध पर श्री स्वामी चिदानन्द जी ने संसार के अनेक देशों की दोबारा यात्रा की।

 

श्री स्वामी चिदानन्द जी महाराज प्रारम्भ से ही श्री गुरुदेव के मिशन का कार्य अथक रूप से कर रहे हैं तथा देश-विदेश में दिव्य जीवन का सन्देश पहुँचा रहे हैं। एक उत्कृष्ट संन्यासी के रूप में आध्यात्मिक चुम्बकत्व के गुण के धनी स्वामी जी अनगिनत व्यक्तियों के प्रियपात्र बन गये हैं तथा संसार-भर में दिव्य जीवन के महान् आदर्शों के पुनरुज्जीवन के लिए सभी दिशाओं में कठिन परिश्रम कर रहे हैं।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

परिशिष्ट

 

दिव्य जीवन संघ के लक्ष्य तथा उद्देश्य

 

 

दिव्य जीवन संघ के लक्ष्य तथा उद्देश्य निम्नांकित हैं :

 

. सांस्कृतिक तथा आध्यात्मिक ज्ञान का प्रचार- प्रसार करना

 

() प्राचीन, प्राच्य तथा पाश्चात्य दर्शन और धर्म को आधुनिक वैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुत करने वाली पुस्तकों, पुस्तिकाओं तथा पत्रिकाओं का प्रकाशन और प्रन्यास-मण्डल द्वारा अनुमोदित शर्तों पर उनका वितरण करके;

 

() भगवन्नाम का प्रचार करके; मानव-कल्याण के लिए प्रवचनों तथा आध्यात्मिक सभाओं का आयोजन करके और समय-समय पर सांस्कृतिक-आध्यात्मिक मिलन कार्यक्रमों का आयोजन करके;

 

() नैतिक-आध्यात्मिक साधनाओं के लिए उपयुक्त वातावरण निर्मित करने; वास्तविक संस्कृति का पुनरुत्थान करने तथा पूजा, भक्ति, विवेक, सम्यक् कर्म और उच्चतर ध्यान के माध्यमों से साधकों की आत्मोन्नति करने हेतु योगाभ्यास के प्रशिक्षण-केन्द्र (जहाँ आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा तथा ध्यान की व्यवस्थित शिक्षा दी जा सके) स्थापित करके;

 

() वे सारे कार्य करके जो सामान्य रूप से मानवता के तथा विशेष रूप से भारतवर्ष के नैतिक, आध्यात्मिक तथा सांस्कृतिक उत्थान में सहायक हैं।

 

() शैक्षिक संस्थाओं की स्थापना करना तथा उन्हें संचालित करना (आधुनिक प्रणाली तथा सम्यक् मूलभूत सिद्धान्तों को आधार मानते हुए)

 

अप्रत्यर्पणीय (non-refundable) छात्रवृत्तियाँ देने हेतु; दर्शन एवं तुलनात्मक धर्म की विभिन्न शाखाओं में शोध-कार्य करने के लिए उन्हें सहायता देने हेतु तथा अत्यन्त प्रभावी ढंग से आध्यात्मिक ज्ञान के प्रचार-प्रसार की विधियों में उन्हें प्रशिक्षित करने हेतु

 

. सुपात्र अनाथों तथा निराश्रयों को सहायता प्रदान करना

 

प्रन्यास-मण्डल द्वारा अनुमोदित ढंग से अलग-अलग व्यक्तियों को अथवा किसी विशिष्ट वर्ग के व्यक्तियों के हित में कार्य करके।

 

. चिकित्सा-संस्थाओं की स्थापना करना तथा उन्हें संचालित करना

 

प्रन्यास-मण्डल द्वारा अनुमोदित ढंग से जनसाधारणविशेषकर निर्धन-वर्ग के व्यक्तियोंके लिए रोग-चिकित्सा, औषधि-वितरण तथा शल्य-चिकित्सा आदि का प्रबन्ध करने हेतु चिकित्सा-संस्थानों तथा औषधालयों की स्थापना तथा संचालन से सम्बन्धित प्रबन्ध-भार वहन करके।

 

. समय-समय पर अन्य कार्य करना

 

सामान्यतः संसार-भर में तथा विशेषतः भारतवर्ष में प्रभावी ढंग से नैतिक तथा आध्यात्मिक पुनरुद्धार करने हेतु उपयुक्त कार्यक्रमों का संचालन करके