दिव्य योग

योगाभ्यास हेतु स्वनिर्देशिका

 

 

 

 

 

 

संकलनकर्ता

स्वामी धर्मनिष्ठानन्द

 

 

 

 

 

 

 

 

प्रकाशक

द डिवाइन लाइफ सोसायटी

पत्रालय : शिवानन्दनगर-२४९१९२

जिला : टिहरी गढ़वाल, उत्तराखण्ड (हिमालय), भारत

www.sivanandaonline.org, www.dlshq.org

 

 

प्रथम संस्करण : २०१९

(१,००० प्रतियाँ)

 

 

 

 

 

 

 

© द डिवाइन लाइफ ट्रस्ट सोसायटी

 

 

 

 

 

 

HO HO 17

 

 

 

 

 

PRICE: 90/-

 

'द डिवाइन लाइफ सोसायटी, शिवानन्दनगर' के लिए स्वामी पद्मनाभानन्द द्वारा

प्रकाशित तथा उन्हीं के द्वारा 'योग-वेदान्त फारेस्ट एकाडेमी प्रेस,

पत्रालय : शिवानन्दनगर, जिला : टिहरी गढ़वाल, उत्तराखण्ड,

पिन : २४९१९२' में मुद्रित ।

For online orders and Catalogue visit : dlsbooks.org

 

 

 

प्रकाशकीय

 

योगाभ्यास के महत्त्व को उजागर करते हुए गुरुदेव श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज कहते हैं, "प्रतिदिन मात्र 15 मिनट के लिए निरन्तर योगाभ्यास सभी को पूर्ण रूप से स्वस्थ रख सकता है।"

 

पाठकों को अपने घर में ही योगाभ्यास करने योग्य बनाने हेतु हम मुख्यालय आश्रम के योग प्रशिक्षक श्री स्वामी धर्मनिष्ठानन्द जी द्वारा संकलित 'दिव्य योग-योगाभ्यास हेतु स्वनिर्देशिका' पुस्तिका प्रकाशित कर रहे हैं।

 

मूल रूप से यह पुस्तिका अखिल भारतीय सेवा तथा अन्य केन्द्रीय सेवाओं के प्रशिक्षणार्थियों के लिए है जो लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय अकादमी मसूरी में योग प्रशिक्षण ले रहे हैं। मुख्यालय आश्रम लगभग अर्द्ध - शताब्दी से आई.ए.एस. अधिकारियों को योग प्रशिक्षण देने में अपनी महत्वपूर्ण सेवाएँ दे रहा है।

 

परम पूज्य श्री स्वामी चिदानन्द जी महाराज का आशीर्वाद प्राप्त 'दिव्य योग- योगाभ्यास हेतु स्वनिर्देशिका' पुस्तिका में आसनों, प्राणायाम, मुद्राओं, बन्धों के सम्बन्ध में सचित्र व्यावहारिक एवं मूल्यवान निर्देशन किया गया है। हमें आशा है कि यह पुस्तिका उन सभी लोगों के लिए अत्यन्त लाभप्रद सिद्ध होगी जो स्वस्थ रहना चाहते हैं परन्तु बाहर खेले जाने वाले खेलों और व्यायाम के लिए समय नहीं निकाल पाते हैं।

 

द डिवाइन लाइफ सोसायटी

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

विषय-सूची

 

प्रकाशकीय. 3

योग - संक्षिप्त परिचय. 6

यौगिक अभ्यास के लाभ. 7

स्वस्थ रहने हेतु ऊर्जा एवं बलवर्द्धक तकनीकें.. 9

ऊर्जावर्द्धक तकनीकें भाग 10

ऊर्जावर्द्धक तकनीकें भाग 2. 23

नेत्र योग. 32

ताड़ासन (खड़े होकर किए जाने वाले आसनों हेतु प्रारम्भिक स्थिति) 36

सूर्य नमस्कार. 41

शवासन (मृत शरीर की भाँति) 49

सुपाईन वर्ग (पीठ के बल लेटकर करने वाले आसन) 53

प्रौन वर्ग (पेट के बल लेटकर करने वाले आसन) 59

बैठ कर करने वाले अभ्यास. 65

प्राण और प्राणायाम. 75

बन्ध और मुद्राएँ. 93

विश्व-प्रार्थना.. 100

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

प्रार्थनाएँ

 

प्रारम्भिक प्रार्थना

 

ॐ सहनाववतु। सहनौ भुनक्तु। सहवीर्य करवावहै।

तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ।।

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।।

 

हे ईश्वर आप हम गुरु-शिष्य दोनों की रक्षा करें, हम दोनों का समुचित पालन-पोषण करें, हम दोनों साथ - साथ ज्ञानार्जन हेतु पुरुषार्थ करें, हमारी अर्जित विद्या तेजपूर्ण हो तथा हमारे भीतर कभी परस्पर द्वेष न हो।

त्रिविध ताप की निवृत्ति हो।

 

समापन प्रार्थना

 

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते।

पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।।

 

यह सच्चिदानन्द परब्रह्म परिपूर्ण है। यह जगत् भी पूर्ण है क्योंकि यह उस पूर्ण परब्रह्म से ही उत्पन्न हुआ है। उस पूर्ण परब्रह्म से पूर्ण जगत् के निकलने के बाद भी ब्रह्म अपने आप में परिपूर्ण रहता है। त्रिविध ताप की निवृत्ति हो।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

योग - संक्षिप्त परिचय

योग एक पूर्ण विज्ञान है। यह आत्म-संस्करण की सम्पूर्ण एवं व्यावहारिक पद्धति है। यह मन, इंद्रियों और शरीर का अनुशासन है। इससे मानसिक एकाग्रता, नैतिक सम्पूर्णता एवं उत्कृष्टता तथा आध्यात्मिक शान्ति पाने में सहायता मिलती है। यह शान्ति एवं आनन्द प्राप्ति की मुख्य कुंजी है।

 

योग 6 घंटे के लिए टांगों को एक दूसरे पर रखने, हृदय की धड़कनों को रोक पाने अथवा अपने आपको सप्ताह या महीने तक के लिए मिट्टी में दबा लेने का नाम नहीं है, ये तो मात्र शारीरिक क्रियाएँ हैं। वास्तविक योग ईश्वर के साथ जुड़ कर उच्चतम दिव्य ज्ञान की प्राप्ति है। योग शब्द संस्कृत शब्द 'युज्' से बना है जिसका अर्थ जुड़ना है। योग ऐसा विज्ञान है जो हमें आत्मा को परमात्मा से जोड़ने तथा व्यक्तिगत इच्छा को वैश्विक इच्छा में मिलाने की शिक्षा देता है।

 

योग, अभ्यासकर्ता की निम्न प्रकृति को परिवर्तित कर उसे दिव्य गौरव और सर्वोच्चता प्रदान करता है। यह उसे ऊर्जा, बल, जीवन-शक्ति, दीर्घायु और उच्च स्वास्थ्य प्रदान करता है। व्यक्ति में सुरक्षा, नव स्फूर्ति, विश्वास और आत्म निर्भरता की भावना जाग्रत करता है। इससे निराश को आशा, दुःखी को आनन्द, निःशक्त को शक्ति और अज्ञानी को ज्ञान मिलता है। योगो भवति दुःखहा - योग से सभी प्रकार के कष्ट- पीड़ा का नाश होता है।

 

योग साधना से व्यक्ति बहुत कम समय में प्रभावी काम कर सकता है। मन से प्रलोभन एवं विक्षोभकारी तत्त्वों को समाप्त कर जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सफलता प्राप्त कर सकता है। योगः कर्मसु कौशलम् -कर्म में कुशलता योग है। योग से शरीर, मन और आत्मा में संतुलन स्थापित होता है। महर्षि पतञ्जलि का कथन है-योगः चित्तवृतिनिरोधः- सभी प्रकार की चित्तवृतियों की समाप्ति योग है। योग साधना से आप शरीर में समाहित सभी सूक्ष्म शक्तियों पर नियंत्रण पाकर प्रकृति को वश में कर सकते हैं। आप अपनी अन्तर्निहित क्षमताओं को प्रकट कर सकते हैं तथा शारीरिक, मानसिक, अलौकिक और दिव्य शक्तियों का विकास कर सकते हैं। इससे प्रकृति के सम्पूर्ण रहस्य आपके समक्ष अनावृत हो जाते हैं। आप भगवान् की दिव्य महिमा एवं शाश्वत प्रकाश में जीवन व्यतीत कर सकते हैं।

योगेन चित्तस्य पदेन वाचा मलं शरीरस्य च वैद्यकेन।

योऽपाकरोत् प्रवरं मुनीनां पतञ्जलिं प्रांजलिरानतोऽस्मि ।।

मुनियों में श्रेष्ठ, महर्षि पतञ्जलि को मेरा करबद्ध नमन है जिन्होंने योग के माध्यम से मन की अपवित्रता को समाप्त किया, आयुर्वेद से शरीर की तथा व्याकरण से वाणी की अपवित्रता को समाप्त कर दिया।

यौगिक अभ्यास के लाभ

 

धर्मार्थ - काम - मोक्षाणां आरोग्यमूलमूत्तमम्

 

धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्राप्ति के लिए आरोग्यमय जीवन पूर्व अनिवार्यता है। यही कारण है कि स्वास्थ्य को सर्वोत्कृष्ट सम्पत्ति माना जाता है। अच्छे स्वास्थ्य के लिए, मांसपेशियों को विकसित करने के अनेकों आधुनिक शारीरिक उपाय बताए गए हैं। शरीर को साधने वाला यात्रिक क्रियाओं तथा व्यायाम से इनका विकास करता है। इस प्रकार के व्यायाम में मांसपेशियों का तीव्र चलन होता है जिससे हृदय और फेफड़े तीव्रता से सक्रिय हो जाते हैं और इन क्रियाओं को करने वाला शीघ्रता से थक जाता है। इससे मानसिक तनाव, भय और उद्वेग उत्पन्न होता है। कुछ व्यायाम ऐसे हैं जिनसे केवल छाती एवं भुजाओं का विकास होता है और परिणामस्वरूप शरीर का एकांगी विकास होता है।

 

यौगिक व्यायाम से शरीर की सभी मांसपेशियों, आन्तरिक अंगों, शारीरिक ढांचे और स्नायुओं का समन्वित विकास होता है। कुछ तीव्र क्रियाएँ न होने के कारण ऊर्जा का हास नहीं होता है। अंगों का चलन धीरे-धीरे और तालबद्ध होने से ऊर्जा बचाने में अत्यधिक सहायता मिलती है।

 

कुछ महत्त्वपूर्ण आसनों तथा एक-दो प्राणायाम क्रियाओं से शरीर के तीनों महत्त्वपूर्ण अंग अर्थात् हृदय, फेफड़े और प्रमस्तिष्कमेरुदण्डीय प्रणाली सहित मस्तिष्क स्वस्थ रखे जा सकते हैं। ये यौगिक क्रियाएँ रोगनिवारक तथा आरोग्यप्रद होती हैं। सारांशतः कहा जा सकता है। कि इनके द्वारा प्राकृतिक स्वास्थ्य को बनाए रखते हुए शरीर पर आघात करने वाले रोगों से बचा जा सकता है।

 

महत्त्वपूर्ण निर्देश -

 

1. आसन, प्रातः या सांयकाल खाली पेट ही करें।

2. भोजन और योगाभ्यास के बीच तीन से चार घंटे का अन्तराल रखें।

3. तह लगे कम्बल या योग चटाई का प्रयोग करें।

4. प्रार्थना के भाव में अभ्यास करें।

5. किसी प्रकार के झटके, तीव्र क्रिया से बचें और क्रियाओं को प्राकृतिक रूप से चलने वाली श्वास के साथ जोड़ें।

6. अभ्यास के लिए ट्रैक सूट या खुले पहनावे से सहजता होती vec 51

7. योगाभ्यास के समय ऐनक, घड़ी या आभूषण आदि न पहनें, वे क्षतिग्रस्त हो सकते हैं या आपको आघात पहुँचा सकते हैं।

8. प्रतियोगी भावना न रखें, अपनी सीमा का ध्यान रखें। तनाव से बचें।

9. आसन करने का स्थान ऐसा हो जहाँ खुली और ताजी हवा मिले। शीत वाले क्षेत्र में अभ्यास बन्द कमरे में हो सकता है।

10. समतल भूमि एवं खुले वायुदार स्थान पर अभ्यास किया जा सकता है।

11. महिलाओं को गर्भावस्था और माहवारी के दौरान योगाभ्यास नहीं करना चाहिए।

12. यदि अभ्यास के समय कुछ नकारात्मक लगे, तो अभ्यास न करें और सामान्य श्वास प्रक्रिया के साथ विश्राम करें।

13. योगाभ्यास के बाद स्नान और भोजन आदि के मध्य आधे घंटे का अन्तराल रखें।

14. यदि आप शीघ्र ही योगासनों का लाभ लेना चाहते हैं, तो नियमितता अति महत्त्वपूर्ण है।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

स्वस्थ रहने हेतु ऊर्जा एवं बलवर्द्धक तकनीकें

 

ऊर्जावर्द्धक तकनीकें

 

यह बहुत सरल क्रम है। यह चाहे सरल, सहज या सुविधाजनक क्रम है, परन्तु इसकी कभी अनदेखी नहीं होनी चाहिए। इससे वे रूकावटें दूर होती हैं जो शरीर और मन में ऊर्जा के निर्बाध प्रवाह में बाधा पहुँचाती हैं। बैठने-खड़े होने के अनुचित ढंग से, शारीरिक, मानसिक अथवा भावनात्मक समस्याओं या असंतुलित जीवन शैली के कारण ऊर्जा का मुक्त प्रवाह बाधित होता है जिससे शरीर में कठोरता आती है, मांसपेशियों में तनाव बढ़ता है तथा उचित रक्त प्रवाह में कमी आती है। यदि बाधा बहुत अवधि तक चले तो शरीर का कोई अंग अथवा जोड़ सही काम नहीं कर पाता और रोगग्रस्त हो जाता है।

 

इस क्रम में दी गयी क्रियाओं के नियमित अभ्यास से शरीर के ऊर्जा प्रवाह में बाधा दूर होती है जिससे संपूर्ण स्वास्थ्य को बढ़ावा मिलता है और पूरे शरीर में ऊर्जा प्रवाह नियमित और स्थिर हो जाता है।

 

कुछ लोग इसे 'पवनमुक्तासन क्रम' कहते हैं। पवन शब्द का अर्थ है 'वायु' अथवा 'प्राण', मुक्त का अर्थ छोड़ना और आसन का अर्थ है मुद्रा। इसलिए पवनमुक्तासन क्रम का अर्थ है - उन आसनों का समूह जो मन और शरीर में मुक्त ऊर्जा प्रवाह को बाधित करने वाली रुकावटों को दूर करता है। पहला भाग (एंटी रुमैटिक सीरीज) सभी अंग के जोड़ो से सम्बन्धित है। इन अभ्यासों से जोड़ो की अकड़न तथा पूरे शरीर के ऊर्जा प्रवाह में बाधाएँ दूर होती हैं। इससे शरीर में ऊर्जा का निर्वाध प्रवाह होता है तथा शरीर में लचीलापन और कोमलता आती है।

 

क्रम का दूसरा भाग (पाचन और पेट) पेट या उदर क्षेत्र से सम्बन्धित है। यह पेट की समस्याओं को दूर करने के लिए और पाचन क्रिया को बढ़ावा देने के लिए है। यह मोटापा दूर करने में मदद करता है। कब्ज और गैस से छुटकारा दिलाता है और जठराग्नि तीव्र करता है।

 

 

 

 

 

ऊर्जावर्द्धक तकनीकें भाग

 

भाग - 1 (एंटी रुमैटिक)

 

इस आसन समूह का सम्बन्ध शरीर के जोड़ों की अकड़न दूर करने से है। यह गठिया, हड्डी रोग, उच्च रक्तचाप, हृदय रोग और अन्य ऐसे रोगों में अत्यधिक लाभदायक है जिनमें तीव्र व्यायाम से बचने की सलाह दी जाती है। विशेष रूप से इसका लाभ जोड़ों से और शरीर के बाह्य अंगों से ऊर्जा प्रवाह की बाधा हटाने में होता है। यह मानसिक और प्राणिक शरीर पर भी प्रभाव डालता है।

 

जागरूकता

 

इसका तीन तरह से अभ्यास हो सकता है:

 

1. शारीरिक क्रियाओं के प्रति जागरूकता

2. समन्वित श्वास क्रिया के प्रति जागरूकता (शारीरिक गतिविधियाँ श्वास क्रिया के साथ जुड़ी हों)

3. शरीर में प्राण की गति के प्रति जागरूकता (प्राण का अनुभव शरीर में संवेदना के आभास से होता है जिसे व्यक्ति अभ्यास के समय अनुभव कर सकता है।)

 

सामयिक विश्राम

 

आसन करने के दौरान किसी भी समय आपको थकान लगे तो शवासन में कुछ देर के लिए विश्राम लेना जरूरी है।

 

अभ्यास सम्बन्धी निर्देश

 

श्वास विधि के रूप में उज्जायी प्राणायाम करने से अधिक लाभ होता है। इससे नाड़ी तन्त्र में बहने वाली प्राण ऊर्जा में प्रभावी संतुलन उत्पन्न होता है।

 

 

 

 

प्रारम्भिक स्थिति

 

 

पैरों को बाहर की ओर फैला कर बैठें। हथेलियों को पीठ के पीछे भूमि पर रखें। भुजाएँ सीधी रखें। पीठ, गर्दन और सिर सीधे हों। विश्रामपूर्वक बैठें, आंखे मूंद लें और पूरे शरीर को सहज अवस्था में रखें।

 

1. पादांगुली नमन

 

 

ऊपर दर्शायी गयी स्थिति में बैठें। ध्यान को पैर के अंगूठों में केन्द्रित करें। धीरे - धीरे उन्हें आगे पीछे मोड़े। हर बार की स्थिति में कुछ सैकण्ड रूकें । इस अभ्यास को 10 बार दोहरायें।

 

2. गुल्फ नमन

अब ध्यान टखनों पर केन्द्रित करें। टखने के जोड़ पर इन्हें आगे पीछे मोड़ें। 5 से 10 बार ऐसा करें।

 

 

 

3. गुल्फ चक्र

 

 

1.     दोनों पैरों को जरा सा खोलकर सीधा रखते हुए एक साथ 10 बार घड़ी की सुईयों की सीधी

और 10 बार विपरीत दिशा में घुमायें।

 

2.     दोनों पैरों को जोड़ें और 10 बार घड़ी की सुईयों की दिशा में सीधे, 10 बार विपरीत दिशा में

घुमायें।

4. गुल्फ घूर्णन

 

दायें घुटने को मोड़ें, पैर को बायीं जांघ पर रखें। टखने के जोड़ को जरा बाहर की ओर रखें। बायें हाथ से पैर के अंगूठे को पकड़ें। टखने के जोड़ पर ध्यान केन्द्रित करें और 5 से 10 बार घड़ी की सुईयों की दिशा में और फिर विपरीत दिशा में घुमायें। इसी क्रिया को बायें टखने के जोड़ के साथ करें।

 

5. जानुफलक आकर्षण

 

प्रारम्भिक स्थिति में बैठें। घुटने के चारों ओर की मांसपेशियों का संकुचन करते हुए घुटने की कपाली (केप) को जांघ की ओर खींचे। 3 से 5 सैकण्ड रखींच कर रखें। खिंचाव छोड़ कर घुटने को सामान्य स्थिति में लौटने दें। इस क्रिया को 5 बार करें।

 

6. जानुनमन

 

 

दायें घुटने को मोड़ें। अपनी अंगुलियों को दायीं जांघ के नीचे आपस में जकड़ लें। पैर के अंगूठों को आगे की ओर रखते हुए, घुटने की कपाली (केप) को खींचते हुए टांग सीधी करें। एड़ी भूमि पर न लगे। अब पैर के अंगूठों को ऊपर की दिशा में रखते हुए दायें टखने एवं दायें घुटने को मोड़ें ताकि जांघ छाती के निकट हो और एड़ी नितम्ब के निकट हो। सिर और मेरुदण्ड सीधे रहे। यह एक आवृत्ति है। 5 से 10 बार दोहरायें। बायीं टांग से यही क्रिया करें और फिर दोनों टांगों के साथ करें। यह कठिन अभ्यास है। ऐसे व्यक्ति न करें जिन्हें पीठ या पेट की समस्या, अथवा उच्च रक्तचाप या हृदय रोग हो।

 

 

 

 

7. जानु घूर्णन

 

प्रारम्भिक स्थिति में बैठें। दर्शाए की भाँति दायीं टांग को घुटने पर मोड़ें। अपने हाथों को दायीं जांघ के नीचे रखे तथा अंगुलियों को भींच लें या कोहनियों को पकड़ कर बाजू एक दूसरे के ऊपर लेकर जायें। दायां पैर भूमि से ऊपर उठायें। टांग के निचले हिस्से को घुटने पर बड़े दायरे में गोलाकार घुमायें। शरीर का ऊपरी भाग और गर्दन पूरी तरह स्थिर रहें। अब बायीं टांग से पूरी प्रक्रिया दोहरायें। 5 से 10 बार घड़ी की सुईयों की सीधो और फिर विपरीत दिशा में घुमायें। इस आसन से जोड़ों में ऊर्जा का संचार से उन्हें नवजीवन प्राप्त होता है।

 

 

8. अर्द्ध तितली

 

प्रारम्भिक स्थिति में बैठें। दायें पैर को मोड़ क बायीं जांघ के मूल में रखें। दायें हाथ को दायें घुटन पर रख लें। बायें हाथ से दायें पैर के अंगूठे क पकड़ें। अब श्वास को बाहर छोड़ते हुए धीरे धीरे दाखे घुटने को छाती की ओर ऊपर लेकर जायें। श्वासक भरते हुए धीरे धीरे घुटने को नीचे की ओर

ले जाकर अपने घुटने से भूमि को छूने का प्रयास करें। गर्दन को हिलने नहीं दें। 5 से 10 बार क्रिया को दोहरायें। इसके बाद बायें पैर से अभ्यास को दोहरायें।

9. श्रोणी चक्र

 

 

क्रम संख्या 8 की भाति प्रारम्भिक स्थिति में रहें। अब दायें घुटने को गोलाकार घुमायें और बड़े से बड़ा चक्र बनाने का प्रयास करें। घड़ी की सुई की दिशा में और विपरीत दिशा में 5 से 10 बार प्रयास करें। इसी क्रिया को बायें घुटने से 5 से 10 बार दोहरायें।

10. पूर्ण तितली

 

 

प्रारम्भिक स्थिति में बैठें। घुटनों को मोड़ कर पांवों की तलियों को एक साथ जोड़ें। एड़ियों को जहां तक संभव हो नितम्बों की तरफ ले जायें। दोनों हाथों की अंगुलियों से पांवों को पकड़ें। धीरे धीरे घुटनों को नीचे ऊपर करें। नीचे की तरफ घुटनों को भूमि से लगाने का प्रयास करें। इसके लिए अधिक शक्ति न लगायें।

 

11. मेरुदण्डीय व्यायाम

सहजता से बैठें। अपने हाथों को आगे की ओर तानें। हथेलियाँ नीचे की ओर हों। श्वास बाहर छोड़ें तथा पीठ को पीछे की ओर तथा सिर को आगे की तरफ नीचे झुकायें। आपकी ठोढ़ी, कंठकूप को छू रही हो। श्वास लेते हुए मुट्ठियाँ भींच कर छाती के दोनों ओर लेकर आयें। कोहनियों को पीछे जाने दें, अपने सिर को पीछे की ओर नीचे ले जायें। मेरुदण्ड के अगले भाग में खिंचाव का अनुभव करें। इसे 5 से 10 बार दोहरायें।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

11क) मेरुदण्डीय व्यायाम

 

 

सहजता से बैठें। अपनी बायीं ओर मुडें। अपनी बायीं भुजा का अग्रभाग भूमि पर रखें, हथेलियाँ नीचे की ओर हों। सिर को बायीं ओर झुकायें। श्वास भरते हुए दायें हाथ को सीधा ऊपर ले जायें। श्वास बाहर छोड़े और अपना दायां हाथ सिर पर फैला लें। यह अन्तिम स्थिति होगी। 15 गिनने तक सामान्य श्वास लेते हुए इसी स्थिति में रहें। मेरुदण्ड पर ध्यान केन्द्रित करें। आप अनुभव करेंगे कि मेरुदण्ड का दायां भाग अधिक खिंचाव में है। अब पुनः सीधे बैठें तथा दूसरी ओर से दोहरायें।

 

11 रव). मेरुदण्डीय व्यायाम

 

पद्मासन या किसी अन्य सहज स्थिति में बैठें। अब अपने दायें हाथ को बायें घुटने की ओर ले जायें। बायां हाथ पीछे ले जाये। मेरुदण्ड को सीधा रखते हुए, श्वास छोड़ते हुए बायीं ओर मुड़ें। सामान्य श्वास लेते हुए 15 गिनने तक इसी स्थिति में रहें। ध्यान मेरुदण्ड पर रहे। अब पुनः सीधे बैठें तथा फिर दूसरी ओर दोहरायें।

 

12. मुष्टिका बन्धन

 

 

सहजता से बैठें। हाथों को कन्धों के स्तर तक शरीर के सामने की ओर फैलायें । श्वास छोड़ें तथा हाथ खोलकर अंगुलियों को अधिकतम स्तर तक अलग करें। श्वास भरें और अंगुलियां जोड़ कर हाच के अंगूठे को अन्दर रखकर मुठ्ठी कस लें। 5 से 10 बार दोहरायें। विश्रामावस्था में अंगुलियों में प्राण ऊर्जा के प्रवाह को अनुभव करें।

 

13. मणिबन्ध नमन

 

 

सहज स्थिति में बैठें। हाथों को कन्धों के स्तर तक सामने की ओर फैलायें। हथेलियाँ नीचे की ओर हों। श्वास छोड़ते हुए कलाईयों को नीचे की ओर मोड़ें, अंगुलियों को नीचे की दिशा में रखें। श्वास भरें और अंगुलियों को ऊपर की ओर करते हुए कलाईयों को ऊपर की ओर मोड़ें। इसी क्रिया को 5 से 10 बार दोहरायें।

 

 

14. मणिबन्ध चक्र

 

 

सहजता से बैठें। दायें हाथ को सामने की ओर फैलायें। अंगूठे को बीच में रख कर मुट्ठी कसे । कलाई को घड़ी की सुईयों की दिशा में और विपरीत दिशा में घुमायें। 5 से 10 बार दोहरायें। फिर दूसरे हाथ से यही प्रक्रिया दोहरायें। एक ही समय पर दोनों हाथों से इस प्रक्रिया को दोहराया जा सकता है।

 

15. कोहनी नमन

 

 

सहज स्थिति में बैठें। हथेलियों को ऊपर की ओर रखते हुए सामने की ओर हाथ फैलायें। श्वास छोड़ते हुए कोहनियाँ मोड़ें। हथेलियों को कन्धों पर लेकर जायें। श्वास भरें, हाथों को सीधा करें । 5 से 10 बार दोहरायें। फिर हाथों को दोनों ओर ले जायें। अभ्यास को 5 से 10 बार दोहरायें।

 

16. स्कन्ध चक्र

 

सहज अवस्था में बैठें। सामने की ओर हाथ फैलायें। कोहनी पर उन्हें मोड़े और हथेलियों को कन्धों पर टिकायें। दोनों कोहनियों को जोड़े। श्वास को भीतर लेते हुए कोहनियों को ऊपर की ओर ले जायें। श्वास छोड़ते हुए कोहनियों को नीचे, पीठ तक लाकर पुनः सामने की ओर कोहनियां जोड़ें। यह एक आवृत्ति है। इसी को आगे से पीछे और पीछे से आगे 5 से 10 बार दोहरायें।

 

 

 

17. ग्रीवा संचालन (गर्दन आगे - पीछे झुकाना)

 

 

घुटनों पर हाथ रखकर सहज अवस्था में बैठें। आँखें बन्द कर लें। श्वास छोड़ते हुए धीरे धीरे सिर को आगे झुका कर ठोड़ी को कंठकूप तक लाने का प्रयास करें। श्वास भरते हुए सिर को जहां तक हो सके, सहजता से पीछे लेकर जायें। तनाव न लें। गर्दन के आगे और पीछे की ओर मांसपेशियों में खिंचाव तथा गर्दन की कशेरुकाओं में शिथिलता अनुभव करें। इस प्रक्रिया को 5 से 10 बार दोहरायें।

 

1. ग्रीवा संचालन (गर्दन दायें - बायें झुकाना)

 

सुविधाजनक स्थिति में बैठें। आंखे बन्द कर लें। गर्दन को दायीं ओर झुकायें। श्वास छोडते हुए दायें कान को, कन्धे को ऊपर उठाए बिना दायें कन्धे तक लेकर जायें। श्वास भरते हुए सिर को सीधा करें। उसके बाद श्वास छोड़ते हुए सिर को बायीं ओर झुकायें और बायें कान को बायें कन्धे के निकट लाने का प्रयास करें। यह एक आवृत्ति है। दोनों ओर इसे 5 से 10 बार दोहरायें।

 

 

2. ग्रीवा संचालन (गर्दन दायें - बायें मोड़ना)

 

 

सिर ऊपर की ओर करें, आंखे बन्द कर लें। श्वास छोड़ते हुए धीरे धीरे सिर को दायीं ओर घुमायें ताकि ठोड़ी कन्धे की समानान्तर रेखा में रहे। श्वास भरते हुए प्रारम्भिक स्थिति में लौट आयें। श्वास छोड़ते हुए धीरे धीरे सिर को बायीं ओर ले जाते हुए दूसरी तरफ दोहरायें। यह एक आवृत्ति होगी। इसे 5 से 10 बार दोहरायें।

 

3. ग्रीवा संचालन (गर्दन घुमाना)

 

आंखे बन्द कर प्रारम्भिक अवस्था में रहें। सिर को धीरे धीरे सहजतापूर्वक नीचे, फिर दायें, पीछे तथा बायें ले जाते हुए गोलाकार घुमायें। गर्दन के चारों ओर परिवर्तित होते खिंचाव तथा गर्दन की मांसपेशियों एवं जोड़ों के शिथिल होने को अनुभव करें। घड़ी की सुईयों की दिशा तथा विपरीत दिशा में 5 से 10 बार दोहरायें। तनावमुक्त रहें। जब सिर को आगे की ओर झुकायें तो श्वास छोड़ें और पीछे की ओर झुकाते समय श्वास भीतर लें।

 

 

 

सीमाएँ :

उच्च रक्तचाप, निम्न रक्तचाप तथा सरवाईकल स्पोडिलाईटस से पीड़ित लोगों को ये यौगिक अभ्यास नहीं करने चाहिए।

 

लाभ:

 

शरीर के विविध अंगों को जोड़ने वाली सभी शिराएँ गर्दन से गुजरती हैं। इसलिए गर्दन की और कन्धों की मांसपेशियाँ तनावपूर्ण, विशेष कर डैस्क पर दीर्घावधि तक काम करने से तनाव में रहती हैं। इन अभ्यासों से सिर, गर्दन और कन्धों के क्षेत्र में तनाव, भारीपन, अकड़न आदि दूर हो जाते हैं।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

ऊर्जावर्द्धक तकनीकें भाग 2

 

पाचन/पेट सम्बन्धी क्रियाएँ

 

इस आसन समूह का सम्बन्ध विशेष रूप से पाचन पद्धति को सुदृढ़ बनाना है। ऐसे लोग जिन्हें अपच है, कब्ज रहती है, अम्लपित्त की समस्या है, अत्यधिक वायु का प्रकोप रहता है, भूख कम लगती है, मधुमेह रोग से ग्रस्त हैं, प्रजनन अंगो की समस्या है अथवा स्फीत शिरा रोग है, उनके लिए यह आसन समूह अत्यधिक लाभप्रद है। इससे पेट के आसपास के क्षेत्र में ऊर्जा प्रवाह की बाधा भी दूर हो जाती है।

 

जागरूकता

 

अभ्यास के दौरान

 

1. शरीर की क्रिया 2. श्वास क्रिया 3. मानसिक गणना 4. पेट के भीतरी अंगों पर दबाव 5. मांसपेशियों के खिंचाव के प्रति जागरूक रहना आवश्यक है।

 

सीमाएँ

 

उच्च रक्तचाप, गंभीर हृदय रोग, पीठ के दर्द की समस्या जैसे साइटिका, स्लिप डिस्क से पीड़ित व्यक्तियों को ये आसन नहीं करने चाहिए। पेट की शल्य क्रिया के तुरन्त बाद भी इन्हें नहीं किया जाना चाहिए।

 

अभ्यास सम्बन्धी निर्देश

 

अभ्यास शुरू करने से पहले, शवासन में विश्रामपूर्वक लेटें और प्रत्येक आसन के बाद शवासन में विश्राम करें। एक मिनट या 30 सैकण्ड का विश्राम पर्याप्त होगा अथवा तब तक विश्राम करें जब तक श्वास क्रिया सामान्य नहीं हो जाती है। अपनी शारीरिक स्थिति को ध्यान में रखें और तनाव न लें।

 

 

प्रारम्भिक स्थिति

 

ये सभी आसन मेरुदण्ड के आधार पर अर्थात् पीठ के बल सीधे लेटकर दोनों पैर एक साथ सीधे रखकर किए जाते हैं। भुजाएँ शरीर के दोनों ओर सीधी रखें। हथेलियाँ भूमि पर लगी हो। सिर, गर्दन और रीढ़ की हड्डी तीनों सीधी रेखा में हों।

 

अभ्यास 1

 

उत्तानपाद आसन

 

 

प्रारम्भिक स्थिति में लेट जायें। श्वास भरते हुए दायीं टांग को ऊपर उठायें। टांग को सीधा रखें परन्तु पैर शिथिल छोड़ें। बायीं टांग भूमि को स्पर्श करती हुई सीधी रहे। मन में गणना करते हुए 3 से 5 सैकण्ड तक इसी स्थिति में रहें। श्वास सामान्य रहे। श्वास धीरे धीरे बाहर छोड़ते हुए टांग को नीचे भूमि पर ले आयें। यह एक आवृत्ति पूरी हुई। अब प्रत्येक टांग से बारी बारी पाँच बार करें। फिर दोनों टांगे जोड़ कर प्रक्रिया को दोहरायें। टांगों को सीधे रखते हुए भूमि से धीरे धीरे ऊपर लेकर जायें और लौटे।

 

लाभ

 

इससे पेट की मांसपेशियाँ, पाचन पद्धति, पीठ का निचला भाग, श्रोणी क्षेत्र की मांसपेशियाँ सुदृढ़ बनती हैं।

 

अभ्यास 2

 

चक्रपादासन

 

 

प्रारम्भिक स्थिति में लेट जायें। दायें पैर को भूमि से 5 सेंटीमीटर ऊपर उठायें जबकि घुटने सीधे रहें। पैर को घड़ी की सुईयों की दिशा में और विपरीत दिशा में यथासम्भव बड़ा गोल बनाते हुए घुमायें। क्रिया 5 से 10 बार करें। पैर घुमाते समय एड़ी भूमि से न लगे। बायें पैर से इसे दोहरायें। तनावमुक्त रहें। पेट तक गहरा श्वास लेते हुए तब तक प्रारम्भिक स्थिति में विश्राम करें जब तक कि श्वास प्रक्रिया सामान्य न हो जाये। अब दोनों पैर जोड़कर इसे घड़ी की सुईयों की दिशा में और विपरीत दिशा में 5 से 10 बार दोहरायें।

लाभ

 

कूल्हे के जोड़ सुदृढ़ होते हैं, मोटापा दूर होता है। पेट और मेरूदण्ड की मांसपेशियाँ स्वस्थ रहती हैं।

 

अभ्यास 3

सुप्त पवनमुक्तासन

 

 

प्रारम्भिक स्थिति में लेट जायें। हाथों को सिर के ऊपर की ओर ले जायें। श्वास भरते हुए पूरे शरीर को तानें। दायें घुटने को मोड़ें और जांघ को छाती तक लायें। अंगुलियों को आपस में जकड़ लें और हाथों को दायें घुटने के नीचे ले आयें। बायें पैर को भूमि पर सीधा रहने दें। श्वास छोड़े और सिर तथा कन्धों को भूमि से ऊपर उठायें और श्वास बाहर रोकते हुए नाक से दायें घुटने को छूने का प्रयास करें। अब धीरे धीरे श्वास भरें। पैर को शिथिल छोड़ें और हाथों को सिर के ऊपर से फैलाते हुए प्रारम्भिक स्थिति में लौटें। इस क्रिया को प्रत्येक पैर के साथ 5 से 10 बार दोहरायें। अब दोनों पैरों को आपस में जोड़कर घुटनों पर मोड़ें और 5 से 10 बार प्रक्रिया को दोहरायें।

लाभ

इससे वायु, गैस और कब्ज से छुटकारा मिलता है। श्रोणी क्षेत्र की मांसपेशियों और प्रजनन अंगों की मालिश हो जाती है। यह क्रिया मासिक धर्म की समस्याओं, वन्धयत्व, नपुंसकत्ता आदि को दूर करने में अत्यन्त लाभदायक सिद्ध होती है।

 

 

अभ्यास 4

पादसंचालनासन

 

 

प्रारम्भिक स्थिति में लेटें। दायें पैर को ऊपर उठायें। घुटने को मोड़ कर जांघ को छाती की ओर लायें। पैर को उठाकर पूरी तरह सीधा रखें, फिर आगे की ओर इसे नीचे लायें। घुटना मोड़ कर इसे वापिस छाती की ओर लाकर साईकिल चलाने के क्रम को पूरा करें। इस दौरान एड़ी भूमि से नहीं लगनी चाहिए। इसे आगे की दिशा में 5 से 10 बार दोहरायें और इसके बाद इसी क्रिया को विपरीत दिशा में 10 बार दोहरायें। इसी अभ्यास को बायें पैर के साथ करें। फिर दोनों पैर जोड़कर इस क्रिया को दोहरायें। इसके बाद साईकिल चलाने के रूप में दोनों पैरों द्वारा बारी बारी से इस क्रिया को करें। आगे और पीछे की तरफ इस अभ्यास को 5 से 10 बार दोहरायें। तनाव न लें।

 

लाभ

 

यह अभ्यास कूल्हे और घुटने के जोड़ों के लिए लाभकारी है और इससे पेट की तथा पीठ के निचले भाग की मांसपेशियाँ मजबूत बनती हैं।

 

 

 

 

 

अभ्‍यास 5

संदोलन (रॉकिंग एंड रोलिंग)

 

 

 

पीठ के बल सीधा लेटें। दोनों टांगों को घुटनों पर मोड़ें और घुटनों को अपनी छाती की ओर लायें। दोनों हाथों की अंगुलियों को आपस में जकड़ लें और घुटनों के नीचे की ओर ले आयें और जोड़ लें। यह शुरू की स्थिति है। 5 से 10 बार शरीर को एक से दूसरी तरफ इस प्रकार ले जायें जिससे कि टागे भूमि को छू सकें। अब पीठ पर इसी स्थिति में रहें। मेरुदण्ड को आधार बनाकर पूरे शरीर को आगे पीछे झुलायें और आगे की ओर लाते समय पैरों पर चौकड़ी मारने की स्थिति में बैठने का प्रयास करें।

 

लाभ

 

इस आसन से पीठ, कूल्हे और शरीर के निचले भाग की भी मालिश हो जाती है। यदि यह अभ्यास प्रातःकाल बिस्तर से उठने के बाद सर्वप्रथम किया जाये तो यह बहुत उपयोगी सिद्ध होता है।

अभ्यास 6

 

सुप्त उदराकर्षणासन

 

भारम्भिक स्थिति में लेटें। घुटनों को मोड़ कर दोनों पैरों की तलियों को नितम्बों के निकट भूमि पर रखें। पूरे अभ्यास के दौरान घुटनों और पैरों को इकट्ठे ही रखें। दोनों हाथों की अंगुलियों को आपस में जकड़ लें और हथेलियों को सिर के नीचे रखें। श्वास छोड़ते हुए धीरे धीरे अपने घुटनों को दायीं ओर भूमि पर नीचे ले आयें। साथ ही साथ सिर और गर्दन को घुटनों की दिशा से विपरीत दिशा में घुमायें। इससे पूरे मेरुदण्ड में खिंचाव आएगा। श्वास भरते हुए शुरू वाली स्थिति में आयें। पूरा समय कन्धे और कोहनियाँ भूमि पर रहें। एक चरण पूरा करने के लिए बायीं तरफ से दोहरायें। पाँच चरण पूरे करें।

 

 

 

अभ्यास 7

 

शव उदराकर्षण (यूनिवर्सल स्पाईनल ट्विस्ट)

 

 

प्रारम्भिक स्थिति में लेटें । कन्धे के स्तर तक दोनों भुजाओं को दोनों तरफ फैलायें। घुटने पर दायीं टांग को मोड़ें और दायें पैर को बायें घुटने पर टिका लें। बायें हाथ को दायें घुटने पर टिका लें। श्वास छोड़ते हुए दायें घुटने को बायीं ओर लायें और चेहरा दायीं ओर घुमा लें। श्वास भरते हुए शुरू की स्थिति में आयें। अब बायीं टांग को घुटने पर मोड़ें और बायें पैर को दायें घुटने पर टिकायें। दायां हाथ बायें घुटने पर टिकने दें। श्वास छोड़ते हुए बायें घुटने को दायीं ओर लायें, चेहरा दूसरी ओर घुमायें। यह एक चरण है। पाँच चरण पूरे करें।

 

 

 

अभ्यास 8

 

गत्यात्मक मेरु वक्रासन (डायनामिक स्पाईनल ट्विस्ट)

 

 

भूमि पर दोनों पैर बाहर की ओर फैलाकर बैठें। दोनों पैरों को यथासम्भव एक दूसरे से दूर रखें। घुटनों को मुड़ने न दें। भुजाओं को कन्धे के स्तर तक दोनों ओर फैलायें। भुजाओं को सीधा रखते हुए बायीं ओर मुड़ें और अपने दायें हाथ को, बायें पैर की ओर नीचे ले आयें। बायें सीधे हाथ की ओर पीछे देखें। फिर दूसरी दिशा में मुड़े और बायां हाथ, दायें पैर की ओर नीचे लेकर जायें। दृष्टि पिछली तरफ फैले हुए दायें हाथ पर हो । यह एक चरण पूरा हुआ। इस प्रकार पाँच चरण पूरे करें। इससे पीठ की अकड़न दूर होती है ।

 

अभ्यास 9

चक्की चलाना

पैर बाहर की ओर फैलाकर बैठें। दोनों पैरों को जोड़ लें। दोनों हाथों की अंगुलियों को आपस में जकड़ लें और दोनों भुजाओं को छाती के सामने की ओर फैला लें। भुजाओं को पूरे अभ्यास के दौरान सीधा रखें। इन्हें कोहनियों पर मोड़ें नहीं। जहाँ तक सम्भव हो, आगे की ओर झुकें। गेहूँ पीसने की पत्थर की चक्की की क्रिया को ध्यान में रखें। हाथ और पैर सीधे रखते हुए शरीर को कमर पर घुमायें। श्वास छोड़ते हुए आगे की ओर आयें तथा पिछली ओर जाते समय श्वास भरें। दोनों ओ बारी बारी से घड़ी की सुईयों की दिशा और विपरीत दिशा में घुमायें। (5 बार)। अब पैरों को ब यथासम्भव दूर रखकर यही प्रक्रिया दोनों ओर 5-5 बार करें।

 

 

अभ्यास 10

 

नौकासन

 

 

प्रारम्भिक स्थिति में लेट जायें। हथेलियों को नीचे की ओर रखते हुए अपने हाथों को जांघों के निकट ले आयें। गहरी श्वास भरें। श्वास रोकें, पैरों, भुजाओं, कन्धों और सिर को भूमि से ऊपर उठायें। कन्धे और पैर भूमि से एक फुट से ज्यादा ऊँचे न हों। नितम्बों को आधार बनाकर शरीर को संतुलन में लायें और मेरुदण्ड को सीधा रखें। भुजाओं को एक ही स्तर पर और पैर के अंगूठों की रेखा में बनाए रखें। हथेलियों को नीचे की ओर रखते हुए हाथों को खुला रखें। पैर के अंगूठों की तरफ देखते रहें। कुछ पल तक इसी स्थिति में रूके रहें। श्वास छोड़ें और प्रारम्भिक स्थिति में आ जायें। पूरे शरीर को विश्राम की स्थिति में लायें। यह एक चरण पूरा होता है। प्रक्रिया को 5 से 10 बार दोहरायें।

नेत्र योग

 

बहुत से लोग दृष्टि में सुधार के लिए ऐनक अथवा कांटेक्ट लेंस का प्रयोग करते हैं। ऐनक से दृष्टि सुधार तो नहीं होता है अपितु इसके अधिक प्रयोग से आँखो की समस्यायें बढ़ जाती है और अधिक शक्ति वाले लैंस का प्रयोग जरूरी हो जाता है।

 

दृष्टि - दुर्बलता के लिए उत्तरदायी तत्त्व :

 

1. कृत्रिम और खराब रोशनी

2. दीर्घावधि तक टी.वी., वीडियो देखना

3. असंतुलित आहार और कुपोषण

4. अध्ययन और दीर्घावधि तक कार्यालय में काम से माँसपेशियों का अक्षम होना

5. मानसिक और भावनात्मक तनाव

6. आयु का बढ़ना और शरीर में विषैले तत्त्व एकत्रित होना

 

आधुनिक समाज में हम देखते हैं कि बड़ी संख्या में बच्चों को ऐनकें लग गई हैं। केवल लैंस लगाने की सलाह दे देने से डाक्टरों का कार्य समाप्त नहीं हो जाता है अपितु सर्वोच्च महत्वपूर्ण बात यह है कि डाक्टर रोगी को आँखों के व्यायाम और विश्राम, संतुलित आहार, उपयुक्त रूप से आँखों को झपकाना, मानसिक एकाग्रता और खेल कूद गतिविधियों में सम्मिलित होने सम्बन्धी सलाह भी दें। आँखों के लिए योगाभ्यास करने, उन्हें विश्राम देने से नेत्रज्योति बढ़ती है और आँखों का तनाव दूर होता है।

 

नेत्रयोग कई प्रकार से सहायक होता है :-

 

1. सिर दर्द, आँखों में दर्द तथा भारीपन आदि से मुक्ति के लिए

2. नेत्रज्योति बढ़ाने के लिए

3. नेत्रज्योति को अधिक बिगड़ने से बचाने के लिए

4. आँखों की मांसपेशियों और नाड़ियों की शक्ति बढ़ाने के लिए ताकि नेत्रगोलकों का स्वरूप यथावत् बना रहे।

5. रक्त संचार में सुधार करके आँखों की संक्रमण प्रतिरोधी शक्ति बढ़ाने के लिए

6. ऐसी दृष्टि में सुधार हेतु जिसे ऐनक या कांटैक्ट लैंस के प्रयोग से ठीक नहीं किया ज सकता।

 

तैयारी

 

अभ्यास शुरू करने से कुछ समय पूर्व आँखों में शीतल जल के छींटे लगाना अच्छा रहता है। आँखों को धोने के लिए आँखों को साफ करने वाला कप भी प्रयोग में लाया जा सकता है। इस प्रकार की स्थिति में त्रिफला मिला जल अधिक प्रभावी होता है।

 

अभ्यास सम्बन्धी निर्देश

 

दिए गए तरीके से एक के बाद दूसरी आँख से अभ्यास करना चाहिए। प्रातःकाल या सांय काल में अभ्यास किया जाये। अभ्यास करते समय ऐनक का प्रयोग न करें।

 

अत्यधिक महत्वपूर्ण यह है कि अभ्यास करते समय पूरी तरह विश्राम की मुद्रा में रहें। तनाव न रखें अन्यथा आँखों की थकान बढ़ जाएगी। चेहरे की मांसपेशियाँ, भौहे तथा पलकें पूर्ण विश्वामावस्था में रहें। प्रत्येक अभ्यास के पश्चात् आँखे झपकायें। हथेलियों को आपस में रगड़ कर आँखों को इनसे ढक लें और फिर हल्का हल्का मलें। अन्त में आँखों को हल्के हल्के झपकाते हुए धीरे - धीरे खोलें और अगले अभ्यास के लिए तैयार हो जायें।

 

प्रथम अभ्यास

लम्बवत् क्रिया

 

 

सहजता से बैठें। पीठ, गर्दन तथा सिर सीधी रेखा में रहे। पाँच बार आँखों की पुतलियों को नीचे ऊपर घुमायें। फिर क्रमशः आँखों को झपकायें, हथेलियों से ढके और आँखों को हल्का हल्का मलें।

दूसरा अभ्यास

 

समवत् क्रिया

 

 

ध्यान की स्थिति में बैठें। सहज रहें। कन्धे के स्तर पर भुजाओं को दोनों तरफ फैलायें। हाथ सीधे रखें, हाथों के अंगूठे ऊपर की तरफ रहें। आँखों की पुतलियों को समवत् दिशा में दूर तक लेकर जायें अर्थात् दायें अंगूठे से बायें अंगूठे और फिर बायें से दायें तक लेकर जायें, आँखें नहीं मूदें। 5 बार दोहरायें। फिर क्रमशः आँखें झपकायें, हथलियों से ढके और हल्का हल्का मलें।

 

तीसरा अभ्यास

 

तिर्यक क्रिया

 

सहज बैठें। आँखों की पुतलियों को तिरछा घुमायें। दायें से शुरू करके पाँच बार दायीं तरफ ऊपर, बायीं तरफ नीचे लेकर जायें। फिर बायीं तरफ ऊपर, दायीं तरफ नीचे लाते हुए पाँच बार घुमायें और उसके बाद क्रमशः आँखों को अपकें, हथेलियों से ढकें और हल्का हल्का मलें।

 

 

 

चौथा अभ्यास

गोलाकार घुमाना

 

 

पहले अभ्यास की भाँति सहज स्थिति में बैठें। चिन्मुद्रा में बायें हाथ को बायें घुटने पर रखें। दायीं मुठ्ठी दायें घुटने पर रखें। अंगूठे को ऊपर की ओर रखें। दायें अंगूठे के शिखर पर देखें और अब दायें अंगूठे को बायीं ओर, फिर गोलाकार रूप में ऊपर लेकर जायें। दृष्टि को दायें घुमायें और अन्त में शुरू की स्थिति में आ जायें, इससे एक चरण पूरा हो जाएगा। अभ्यास के दौरान न तो आँखे मूदे, न झपकने दें। तीन से पाँच चरणों में घड़ी की सुईयों की दिशा में घुमायें। फिर बायें हाथ के अंगूठे पर नजर रखें और तीन से पाँच चरणों में घड़ी की सुईयों की विपरीत दिशा में घुमायें। अन्त में क्रमशः आँखे झपकायें, हथेलियों से ढके और मलें। तनाव मुक्त रहें और अभ्यास में सहजता बनाए रखें।

ताड़ासन (खड़े होकर किए जाने वाले आसनों हेतु प्रारम्भिक स्थिति)

 

 

छाती को ऊपर उठाते हुए सीधे खड़े हों। दोनों पैरों को आपस में जोड़ें। हाथों को जांघों के दोनों तरफ रखें और हथेलियाँ जांघों के साथ टिकायें। धीरे धीरे आँखों को मूंद लें। आगे की ओर झूलते हुए शरीर के भार को पैरों के अंगूठों पर अनुभव करें। झूल कर अब भार को एड़ियों पर अनुभव करें। दोनों तरफ झूलते हुए शरीर के भार को पांव के दायें और बायें कोने पर लायें। फिर पैर के केन्द्र पर इस भार को अनुभव करें। सीधे खड़े हो जायें। शरीर को हल्का अनुभव करें और कुछ भी न सोचें। बिना प्रतिरोध किए बाहर की आवाजें सुनें और इनके कारण या प्रकार पर बिल्कुल ध्यान न दें। अनासक्त साक्षी का भाव रखते हुए सभी आवाजें सुनें। मन की शान्ति का अनुभव करें और प्रकृति से एकाकार हो जायें।

 

लाभ

इससे शरीर हल्का अनुभव होगा, मन शान्त हो जाएगा।

 

 

 

अर्धकटिचक्रासन

 

 

1. ताड़ासन में खड़े हों। आशिक श्वास भरते हुए धीरे धीरे दायीं भुजा को कन्धे के स्तर तक उठाकर ले जायें। अपनी हथेलियों को ऊपर की तरफ रखें।

 

2. पूर्ण श्वास भरते हुए अपने हाथ को सिर के समीप ले जायें। इससे दायीं भुजा कान का स्पर्श करेगी।

 

3. श्वास छोड़ते हुए धीरे धीरे बायें मुड़ें और बायें हाथ को बायें पैर पर खिसकने दें। सामान्य श्वास लें। ऐसा लगे कि दायां भाग अधिक खिंचा हो और बायां भाग दबा हुआ तथा विश्राम में हो। धीरे धीरे क्रमशः प्रारम्भिक स्थिति में लौटें। विश्राम करने के बाद इसी अभ्यास को दूसरी तरफ दोहरायें। यह स्व - सम्पूरक आसन है।

 

अवधि

5 से 10 सामान्य श्वास के साथ दोनों तरफ रूकें। 2 से 3 बार दोहरायें।

सीमाएँ

ऐसे लोगों को यह आसन नहीं करना चाहिए जिन्हें पीठ का तीव्र दर्द हो या लम्बर स्पोन्डिलाइटिस की समस्या हो।

लाभ

मेरुदण्ड में लचीलापन आता है। कूल्हे के जोड़ खुलते हैं। कमर के पास माँस एकत्रित नहीं होता है। इससे पीठ का दर्द एवं कब्ज का उपचार होता है। फ्लैट फुट के लिए भी लाभकारी है।

ध्यान रखें

आगे की ओर तथा पीछे की ओर न झुकें। सिर को किसी ओर भी मुड़ने न दें तथा अपनी कोहनी, कलाई और घुटने को न मोड़ें।

त्रिकोणासन

 

 

1. ताड़ासन में खड़े होकर पैरों को फैलायें। उनमें एक से डेढ मीटर की दूरी रखें।

2. कन्धे के स्तर तक अपने हाथों को फैलायें। उन्हें भूमि के समानान्तर रखें। हथेलियाँ नीचे की तरफ हों।

3. अपने दायें पैर को दायीं ओर घुमायें।

4. श्वास छोड़ें, गर्दन को दायें झुकायें और दायीं हथेली को दायें पैर या टखने पर रख लें।

5. बिना मोड़े बायें हाथ को सिर के ऊपर की ओर लायें। हथेली नीचे की तरफ हो। श्वास-प्रश्वास सामान्य हो, ध्यान रीढ़ की हड्डी पर केन्द्रित रहे, धीरे धीरे ताड़ासन में लौटें। दूसरी तरफ यही प्रक्रिया दोहरायें। यह स्व- सम्पूरक आसन है।

अवधिः

पहले वाले आसन के समान अवधि

सीमाएँ:

पीठ के तीव्र दर्द, लम्बर स्पोन्डिलाइटिस, उच्च रक्तचाप और हृदय रोग से पीड़ित इस आसन को न करें।

लाभ :

इससे टांगों, भुजाओं, कूल्हों की अकड़न दूर होती है। टांगों में कोई विकार हो तो दूर होता है। पीठ का दर्द, गर्दन की अकड़न से राहत मिलती है। वक्षस्थल का विकास होता है। मेरुदण्ड की लचक बढ़ती है।

ध्यान रखें

घुटने न मुडें। शरीर आगे पीछे की ओर नहीं झुके। सिर भी आगे की ओर न झूले और शरीर का भार किसी भी एक पैर पर न हो।

 

परिवृत्त त्रिकोणासन

 

 

1. ताड़ासन में खड़े होकर दोनों पैरों में मध्यम दूरी रखते हुए फैलायें।

2. कन्धे के स्तर तक अपने हाथों को फैलायें। उन्हें भूमि के समानान्तर रखें। हथेलियाँ नीचे क तरफ हों।

3. शरीर के ऊपरी भाग अर्थात् धड़ को दायीं तरफ मोड़ें।

4. आगे की ओर झुक कर अपने बायें हाथ को दायें पैर तक लायें। चेहरे को ऊपर की ओर घुमात हुए सीधे दायें हाथ पर देखें। अन्तिम स्थिति में सामान्य श्वास लेते हुए कुछ देर रूकें। मेरुदण् पर ध्यान केन्द्रित करें। क्रमशः प्रारम्भिक स्थिति में लौटें। कुछ देर विश्राम की मुद्रा में रहें। इस प्रक्रिया को दूसरी ओर भी दोहरायें।

अवधि

3 से 5 सामान्य श्वास के साथ दोनों तरफ रूकें। प्रत्येक तरफ 2-3 बार करें।

सीमाएँ

हृदय रोग एवं लम्बैगो पीड़ितों को यह अभ्यास नहीं करना चाहिए।

पार्श्वकोणासन

 

 

1. ताड़ासन में खड़े होकर पैरों को फैलायें। उनमें एक से डेढ मीटर की दूरी रखें।

2. दायें पैर को दायीं ओर मोड़ें।

3. दायें घुटने को मोड़ते हुए दायीं जांघ को भूमि के समानान्तर रखें। दायीं हथेली को पैर के पास भूमि पर टिका लें। इस तरह से शरीर का दायां हिस्सा दायीं जांघ के निकट आ जाएगा।

4. बायें हाथ को उठाकर सिर के ऊपर से बायें कान के साथ लगायें। भुजाओं को सीधा रखें और बायीं हथेली को देखें। सामान्य श्वास प्रक्रिया में रूकें। मूलाधार चक्र पर ध्यान केन्द्रित करें। क्रमशः प्रारम्भिक स्थिति में लौटें। इसी क्रिया को दूसरी ओर दोहरायें। यह स्व-सम्पूरक आसन है।

अवधिः

3 से 5 सामान्य श्वास के साथ दोनों तरफ रूकें। प्रत्येक तरफ 2-3 बार करें।

सीमाएँ:

 

हृदय समस्या, पीठ दर्द, उच्च रक्तचाप और साइटिका से पीड़ित इस आसन को न करें।

लाभः

इससे भुजाओं के अग्र भाग, द्विशिरपेशी (बाइसैप्स), त्रिशिरपेशी (ट्राईसैप्स), टखने, पिंडलियाँ, घुटने, कलाईयों, कन्धे के जोड़ सदृढ़ होते हैं। जांघों में खिंचाव आने से उन्हें विश्राम मिलता है। छाती चौड़ी होती है। मधुमेह और कब्ज के उपचार में अत्यधिक उपयोगी है।

ध्यान रखें:

एक ओर मुड़ते समय, आगे की ओर न झुके। आपके शरीर का भार आपके हाथ के ऊपर नहीं पड़ना चाहिए।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

सूर्य नमस्कार

 

स्वास्थ्य, सौंदर्य और ऊर्जा के देवता के रूप में भगवान् सूर्य की पूजा की जाती है। सूर्य नमस्कार शारीरिक, मानसिक और नैतिक विकास की वैज्ञानिक पद्धति है। सूर्य नमस्कार से पूर्व अभ्यासकर्ता प्रायः प्रार्थना के साथ भगवान् सूर्य का आशीर्वाद मांगते हैं। सूर्य नमस्कार आसनों और श्वास प्रक्रिया का उत्तम समन्वय है जिससे आसन और प्राणायाम के अभ्यास के लिए तैयारी हो जाती है। श्वासों के तालमेल के साथ इन 12 विविध आसनों से शरीर लचीला होता है और फेफड़े प्राणायाम के लिए तैयार हो जाते हैं। सूर्य नमस्कार करते समय प्रत्येक आसन के साथ मंत्रोच्चारण करना होता है और मन को विविध आन्तरिक केन्द्रों पर एकाग्र करना होता है। इस प्रकार सूर्य नमस्कार मानव व्यक्तित्व के शारीरिक, प्राणिक, मानसिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक सभी स्तरों को छू लेता है। सूर्य की ओर मुँह करके इसे प्रातः अथवा सांयकाल किया जा सकता है। उन लोगों के लिए यह ि वरदान है जिनके शरीर में जकड़न है। इससे पेट की चर्बी कम होती है। ऊर्जा स्त्रोत खुलते हैं। पूरे शरीर में ऊर्जा का मुक्त संचार होता है जिससे शरीर में लचीलापन अथवा नमनीयता आती है।

 

सूर्य प्रार्थना

 

ॐ सूर्य सुन्दरलोकनाथममृतं वेदान्तसारं शिवम्।

ज्ञानं ब्रह्ममयं सुरेशममलं लोकैकचित्तं स्वयम् ।

इन्द्रादित्यनराधिपं सुरगुरुं त्रैलोक्यचूडामणिम् ।

ब्रह्माविष्णुशिवस्वरुपहृदयं वन्दे सदा भास्करम्।।

अर्थ

 

मैं सदैव विश्व गुरू, वेदान्त के परिचायक सुंदर सूर्य की वन्दना करता हूँ जो अमर हैं, पावन हैं, ज्ञानस्वरूप हैं, देवताओं के ईश्वर हैं, ब्रह्मरूप हैं, समस्त विश्व का चित्त हैं, इन्द्र, मनुष्यों एवं देवताओं के स्वामी हैं, त्रिलोकचूडामणि हैं तथा ब्रह्मा, विष्णु और शिव के हृदयस्वरूप हैं।

 

प्रथम स्थिति (नमस्कार आसन)

सीधे खड़े हों, हथेलियों को जोड़कर छाती के सामने लायें। आपके अंगूठे छाती के केन्द्र का स्पर्श करें। दोनों भौहों के बीच के स्थान अर्थात् आज्ञा चक्र पर ध्यान केन्द्रित करें।

 

मन्त्र - ॐ मित्राय नमः - उन ईश्वर को प्रणाम जो सबके प्रति स्नेहशील हैं।

 

दूसरी स्थिति (हस्त उत्तानासन)

 

 

श्वास भरते हुए हाथों को सिर के ऊपर ले जायें। धीरे धीरे पीछे की ओर मुड़ें। गले के केन्द्रीय भाग अर्थात् विशुद्धि चक्र पर ध्यान केन्द्रित करें।

 

मन्त्र - ॐ रवये नमः - उन ईश्वर को प्रणाम जो परिवर्तन के कारण हैं।

 

 

 

 

तीसरी स्थिति (पादहस्तासन)

 

श्वास बाहर छोड़ें। टांगों को सीधा रखते हुए आगे की ओर झुकें। हाथों को भूमि पर पैरों के पास रखें। अपने सिर को यथासम्भव घुटनों तक लेकर आयें। नाभि - केन्द्र अर्थात् मणिपुर चक्र पर ध्यान केन्द्रित करें। मन्त्र - ॐ सूर्याय नमः - उन ईश्वर को प्रणाम जो सक्रियता प्रदान करते हैं।

 

 

 

चौथी स्थिति (एकपाद प्रसारणासन)

 

 

दायीं टांग को सीधा करके पीछे की ओर फैलायें। अपने दायें घुटने को भूमि पर टिका लें। श्वास भरें, सामने देखें। रीढ़ की हड्डी के मूल अर्थात् स्वाधिष्ठान चक्र पर ध्यान केन्द्रित करें ।

मन्त्र - ॐ भानवे नमः - उन ईश्वर को प्रणाम जो प्रकाश विकरित करते हैं।

पाँचवी स्थिति (द्विपाद प्रसारणासन)

 

 

अपनी बायीं टांग को पीछे की ओर ले जायें तथा इसे दायीं टांग के साथ रखें। श्वास को भीतर रोक कर रखें। अपना ध्यान हृदय-केन्द्र अर्थात् अनाहत चक्र पर केन्द्रित करें। झुकते हुए जहाज की भाँति शरीर को सीधा रखें।

 

मंत्र - ॐ खगाय नमः उन ईश्वर को प्रणाम जो नभ में विचरण करते हैं।

 

छठी स्थिति (अष्टांग नमस्कारासन)

 

 

अपने घुटनों, छाती, मस्तक / ठोड़ी को नीचे झुकाते हुए उनसे भूमि का स्पर्श करें। कूल्हों को थोड़ा ऊपर उठा लें। श्वास छोडें और सामान्य श्वास प्रक्रिया में आयें। पूरे शरीर के प्रति जागरूक रहें।

 

मन्त्र - ॐ पूष्णे नमः उन ईश्वर को प्रणाम जो सभी का पोषण करते हैं।

 

 

केवल महिलाओं के लिए परिवर्तन शशांकासन (अर्द्धचन्द्र स्थिति):

घुटनों को भूमि पर टिकायें। पीछे जाते हुए कूल्हों को एड़ियों पर ले आयें। अपने हाथों को सिर के ऊपर से भूमि पर टिकायें। माथा भूमि पर टिका रहे। श्वास छोड़े और सामान्य श्वास स्थिति में आ जायें।

 

 

सातवीं स्थिति (पूर्ण भुजंगासन)

 

अपने शरीर के निचले भाग को कमर तक भूमि पर रखें। ऊपरी भाग को उठायें और पीछे की ओर मोड़े। ऊपर की ओर देखें और भुजाओं को सीधा बनाए रखें। श्वास भरें। मूलाधार चक्र पर ध्यान केन्द्रित करें।

 

मन्त्र - ॐ हिरण्यगर्भाय नमः - उन ईश्वर को प्रणाम जिनमें सब कुछ समाया है।

 

 

 

 

आठवीं स्थिति (पर्वतासन)

 

 

श्वास बाहर छोड़ें। धीरे धीरे अपने कूल्हों को ऊपर उठायें। आपके पैरों की एड़ियाँ और तलियाँ भूमि पर लगी रहें। भुजाओं के बीच सिर को नीचे झुकायें। मस्तक के शीर्ष भाग अर्थात् सहस्त्रार चक्र पर ध्यान केन्द्रित करें।

मन्त्र - ॐ मरीचये नमः उन ईश्वर को प्रणाम जो रश्मियों से सम्पन्न हैं।

 

नवीं स्थिति (अश्वसंचालनासन)

 

 

श्वास भरें। घुटनों को मोड़ते हुए दायीं टांग को आगे की ओर ले आयें। अपने दायें पैर को दोनों हथेलियों के बीच ले आयें। बायें घुटने को भूमि पर टिकने दें। ऊपर की तरफ देखें। मेरुदण्ड के मूल अर्थात् स्वाधिष्ठान चक्र पर ध्यान केन्द्रित करें।

मन्त्र - ॐ आदित्याय नमः-उन ईश्वर को प्रणाम जो अदिति के पुत्र हैं।

 

10वीं, 11वीं और 12वीं स्थिति बिल्कुल क्रमशः तीसरी, दूसरी और पहली स्थिति के समान ही है।

 

 

 

दसवीं स्थिति (पादहस्तासन)

 

 

नाभि - केन्द्र अर्थात् मणिपुर चक्र पर ध्यान केन्द्रित करें।

मन्त्र - ॐ सवित्रे नमः - उन ईश्वर को प्रणाम जो सबके जनक हैं।

 

ग्याहरवीं स्थिति (हस्तउत्तानासन)

 

 

अपने गले के केन्द्र अर्थात् विशुद्धि चक्र पर ध्यान केन्द्रित करें।

 

मन्त्र-ॐ अर्काय नमः उन ईश्वर को प्रणाम जो पूजा-अर्चना के योग्य हैं।

 

 

 

 

 

 

बारहवीं स्थिति (नमस्कार आसन)

 

अपना ध्यान दोनों भौंहों के मध्य अर्थात् आज्ञा चक्र पर केन्द्रित करें। मन्त्र - ॐ भास्कराय नमः उन ईश्वर को प्रणाम जो कान्तिप्रदाता है।

अवधिः

अभ्यास को न्यूनतम 2 से 12 चक्रों तक करना चाहिए। अपनी क्षमता के अनुसार अधिक बार भी कर सकते हैं। पीठ के बल लेट जायें। शरीर और मन को उस समय तक शिथिल छोड़ दें जब तक श्वास सामान्य स्थिति नहीं पा लेती है। शवासन में विश्राम करना अच्छा होगा।

 

टिप्पणी :

कुछ विचारधाराएँ इस पारम्परिक अभ्यास को स्वीकार नहीं करती है। इसलिए आप कुछ परिवर्तन पायेंगे, परन्तु आप भ्रमित न हों। किसी भी ऐसी विचारधारा का अनुकरण कर लें जो आपके लिए उपयुक्त लगती हो।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

शवासन (मृत शरीर की भाँति)

 

पीठ के बल सीधा लेटें। पैरों में कुछ दूरी रखें। हाथ जंघाओं के साथ हों। हथेलियाँ ऊपर की ओर हों। धीरे धीरे आँखें मूंद लें।

 

अब आप अपने पूरे शरीर को विश्राम देने जा रहे हैं। इस स्थिति में शरीर के सारे दबाव, तनाव, थकान पूरी तरह दूर किये जाने हैं। शवासन में आसन एवं ध्यान का समन्वय होता है। इससे शरीर और मन दोनों को विश्राम प्राप्त होता है। मांसपेशियों के सभी व्यायामों में शवासन का अत्यधिक महत्व है।

 

विश्राम के तीन चरण होते हैं। पहले चरण में आपको अपनी चेतना को शरीर के अंगों में घुमाना होता है, इससे आपको पूर्ण शारीरिक विश्राम प्राप्त होगा। फिर दूसरे चरण में आपको मानसिक विश्राम के लिए स्वाभाविक श्वास प्रक्रिया के प्रति जागरूक रहना है। जब तक आप अपने आनन्दस्वरूप आत्म तत्त्व का अनुभव नहीं कर लेते हैं, आप सम्पूर्ण विश्राम नहीं प्राप्त कर सकते हैं। तीसरे चरण में आपको शरीर, मन एवं इन्द्रियों के परे जाकर अपने वास्तविक आध्यात्मिक स्वरूप से तादात्म्य करना होगा जिससे आप परमानन्द प्राप्त कर सकेंगे।

 

चेतना को पांव के अंगूठों तक लाइए, फिर उन्हें धीरे धीरे हिलायें, शिथिल छोड़े। मानसिक रूप से शरीर के उस भाग से सम्बन्ध त्याग दें और आत्मनिर्देश दें कि मन अंगूठों के विचार से रहित हो गया है। अनुभव करें कि सभी अंगूठे विश्राम में हैं।

 

तलवों पर ध्यान दें, विश्राम दें। फिर अपनी जागरूकता को एड़ियों पर लायें। अनुभव करें कि आपकी टांगों का भार एड़ियों पर टिक गया है। भार से छुटकारा पाकर विश्राम करें। टखने के जोड़ शिथिल करें, उन्हें विश्राम दें और धीरे धीरे ध्यान को पिंडलियों पर केन्द्रित करें, विश्राम दें। ऐसा अनुभव करें कि पिंडलियों तक दोनों टांगे पूरी तरह विश्राम की स्थिति में हैं।

 

घुटनों की कपाली (कैप्स) को स्वीचें, छोड़ें, विश्राम करें और घुटनों के जोड़ों को शिथिल छोड़ दें। अनुभव करें कि घुटनों तक टांगे पूरी तरह विश्राम की स्थिति में हैं। अब आपकी जांघों की भारी मांसपेशियों का भार आपके कूल्हे, उसकी भारी मांसपेशियों और हड्डियों पर टिका है। कमर एवं कूल्हों को विश्राम दें। सुनिश्चित करें कि जब भी आप शरीर के किसी भाग को विश्राम देते हैं तो शरीर के उस भाग पर आपका अधिक नियंत्रण न हो। अब शरीर के निचले सभी अंग बिना हिले हुले भूमि पर हैं जैसे उनमें प्राण ही न हो। अब मेरुदण्ड के विभिन्न भागों पर ध्यान केन्द्रित करें। अनुभव करें कि शरीर का पूरा भार उन्हीं पर टिका है। गर्दन तक सभी हड्डियों को एक एक करके शिथिल छोड़ दें। अब मेरुदण्ड के चारों ओर सभी मांसपेशियाँ और स्नायु विश्राम में हैं। पीठ की मांसपेशियों पर ध्यान दें। पीठ के निचले, मध्य और ऊपर के भाग को भी शिथिल करें और इस तरह से पूरा पृष्ठ भाग विश्राम की अवस्था में होगा। धीरे धीरे अपना ध्यान पेट पर केन्द्रित करें। स्वाभाविक श्वास प्रक्रिया से पेट में होने वाले संकुचन-प्रसारण को अनुभव करें। पेट की मांसपेशियों को विश्राम दें। पेट के अंगों जैसे गुर्दे, तिल्ली, पैन्क्रियास, आँते, लीवर आदि पर ध्यान दें और उन्हें पूर्ण विश्राम दें। इसके बाद छाती के भाग पर ध्यान ले आयें और अनुभव करें कि छाती का सारा भार छाती की हड्डियों के पिंजर पर टिका है। इन हड्डियों और छाती को शिथिल छोड़ कर विश्राम दें। हृदय की धड़कन को अनुभव करें। सामान्य श्वास के साथ होने वाली फेफड़ों की लयात्मक गति का अनुभव करें। पूर्ण विश्राम के कारण छाती के क्षेत्र में हल्कापन अनुभव करें।

 

अब अपने शरीर का भार कन्धों के पिछली ओर अनुभव करें। कन्धों को विश्राम दे। अब विश्वाम की दिशा आपके हाथों की ओर अनुभव करें। भुजाओं, भुजाओं के बाइसैप्स, ट्राईसैप्स एवं कोहनियों को शिथिल छोड़ें। भुजाओं के निचले भाग, कलाईयों, हथेलियों और हाथ की अंगुलियों को विश्राम दें। दोनों हाथ विश्राम में हैं।

 

अब अपनी चेतना को गर्दन पर केन्द्रित करें। आपके सिर का सारा भार गर्दन पर टिक गया है। अब अपने सिर को दोनों ओर धीरे धीरे घुमायें। सहज स्थिति में रहें। गर्दन को विश्राम दें। ठोड़ी को शिथिल छोड़ दें। होठों को थोड़ा सा खोल लें। इन्हें शिथिल रखें। दांतों की दोनों पक्तियों के बीच थोड़ा अंतर रखकर विश्राम करें। अपनी जिह्वा को शिथिल छोड़ कर विश्राम दें। मुस्करा दें, गालों को शिथिल रखें। दोनों नासाछिद्रों से स्वाभाविक श्वास लें और विश्राम दें।

 

अब अपना ध्यान आँखों पर लायें। धीरे धीरे अपनी आँखे खोलते हुए छत्त की ओर देखें। फिर आँत्वों को मूंद लें और आँखों की पुतलियों को विश्राम दें। भौहे एवं पलकें विश्राम में हों और आँखों के क्षेत्र को पूरा विश्राम मिले। अब दोनों भौंहो के बीच के स्थान पर ध्यान केन्द्रित करें। मस्तक को शिषित रखें। विचारमुक्त रहें। कानों पर ध्यान लायें और बिना प्रतिरोध किए बाहर की आवाजों को सुने। इन ध्वनियों के कारण और प्रकार के बारे में ध्यान न दें। कानों को विश्राम दें। अन्ततः कपाल और मस्तिष्क विश्राम में आयेंगे। अब पांव से सिर तक पूरा शरीर विश्राम में है और शरीर का पूरे का पूरा भार पृथ्वी पर है। पूरे शरीर में विश्राम का अनुभव करें।

 

अब स्वाभाविक श्वास क्रिया पर ध्यान केन्द्रित करें। बिना कोई प्रयास किए इसे सहज ही सामान्य होने दें। अब श्वास की गति, अवधि, तापमान को अनुभव करें, इसकी सघनता, मात्रा और स्वतः निकलती ध्वनि का अनुभव करें। स्वाभाविक श्वास के प्रति जागरूक रहें। ऐसा करने से कुछ ही क्षणों में मन शान्त हो जाएगा।

 

प्रत्येक श्वास के साथ अनुभव करें कि शरीर हल्के से और हल्का होता जा रहा है। अंत में इतना शल्का लगेगा जैसे कपास के टुकड़े की तरह उड़ रहा हो। आपका शरीर सूर्य, चन्द्रमा, सितारों की तरह, आसमान में उड़ता सा प्रतीत होगा। अब कोई तनाव, दबाव, परेशानी नहीं है। अब कुछ भी नकारात्मक नहीं है। शान्ति एवं आनन्द है।

 

अन्ततः गहरे मौन में प्रवेश करके अपने आनन्दस्वरूप आत्मा से तादात्म्य स्थापित करिए। जब आात्मा का परमात्मा से मिलन होता है, पूर्ण आनन्द प्राप्त होता है। तदा द्रष्टु स्वरूपे अवस्थानम्। इसी अवस्था में रहिए। यही आपकी वास्तविक अवस्था है।

 

धीरे धीरे पुनः स्वाभाविक श्वास प्रक्रिया पर ध्यान केन्द्रित करें। शरीर में प्रवेश करती प्रत्येक श्वास को, ब्रह्माण्ड से आ रही पूर्ण प्राण ऊर्जा मानें, जो शरीर के अंगों को जीवनदान दे रही है और शरीर से बाहर जाती प्रत्येक श्वास के साथ अनुभव करें कि शरीर की सभी अशुद्धियाँ बाहर निकलती जा रही हैं।

 

ऐसा अनुभव करें कि श्वास भरते समय आक्सीजन शरीर की कोशिकाओं में प्रवेश करके उन्हें नवजीवन प्रदान कर रही है और श्वास बाहर छोड़ने के साथ सभी नकारात्मक, आसुरी शक्त्तियाँ तथा विषैले तत्त्व शरीर से बाहर निकल रहे हैं। धीरे धीरे आपका शरीर पवित्र होता जा रहा है। धीरे धीरे मन को अपने आसपास के परिवेश से जोड़ने का प्रयास करें। एक बार पुनः अपने ध्यान को पांव के अंगूठों, अंगुलियों, सिर पर केन्द्रित करें और उन्हें धीरे धीरे हिलायें। पूरे शरीर के प्रति जागरूक हो। दोनों पैरों को जोड़ें। अपने हाथों को सिर के उपर से फैलायें। गहरी श्वास लें। पूरे शरीर को फैलायें। शरीर को दायें घुमाने के बाद, पुनः पीठ के बल ले आयें। बायें ओर से दोहरायें। उठने के लिए हाथों का सहारा लें। किसी भी स्थिति में बैठ जायें। "हरि ॐ तत्सत्" और इसी के साथ शवासन का अभ्यास पूरा होता है।

लाभ

इस आसन से सम्पूर्ण शरीर और मन को विश्वाम मिलता है। सोने से पूर्व, आसनों के अभ्यास से पहले और बाद में, विशेषकर सूर्य नमस्कार जैसे गतिशील अभ्यास के बाद, तथा जब भी शारीरिक-मानसिक थकान लगे तो शवासन का अभ्यास करना चाहिए। जब शरीर को विश्राम मिलता है, मन की जागरूकता बढ़ जाती है। इससे प्रत्याहार विकसित होता है।

 

अभ्यास सम्बन्धी निर्देश

कोशिश करें कि अभ्यास के दौरान शरीर को न हिलायें क्योंकि जरा भी हिलने से मांसपेशियाँ सिकुड़ सकती हैं। श्वास भरते और छोड़ते समय अपनी इच्छानुसार किसी मंत्र का उच्चारण करते रहे। अधिकाधिक लाभ हेतु दिन भर की थकान के बाद या सोने से पूर्व अभ्यास करें। हृदय-रोग और उच्च रक्तचाप से पीड़ित व्यक्तियों के लिए अति लाभदायक है।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

सुपाईन वर्ग (पीठ के बल लेटकर करने वाले आसन)

 

प्रारम्भिक स्थिति :

 

 

पीठ के बल सीधे लेट जायें। अपने दोनों पैरों को एक साथ रखें। हाथों को शरीर के निकट रखें और हथेलियों को नीचे की ओर रखें।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

सर्वांगासनः

 

1. दोनों पैरों को भूमि से 45 डिग्री पर ऊपर उठायें।

2. धीरे धीरे इन्हें 90 डिग्री तक उठाते जायें।

3. कूल्हों को ऊपर उठायें, हाथों से पीठ को सहारा दें और पैरों को सिर के ऊपर से भूमि के समानान्तर रखें।

4. अब पूरे शरीर को सीधा करें। पैर भूमि पर लम्बवत् हों। जब आप अन्तिम स्थिति में आयें, अपनी ठोड़ी को गले से सटा लें।

अवधिः

सामान्य श्वास के साथ इसी स्थिति में रहें। गले के केन्द्र पर ध्यान केन्द्रित करें। शुरू में कुछ सैकण्ड के लिए सहजता से रहें। धीरे धीरे समयावधि बढ़ाते जायें। अभ्यास करने के कुछ ही दिनों के बाद 3 से 5 मिनट तक रूकें।

सीमाएँ:

उच्च रक्तचाप, सर्वाईकल, लम्बर स्पोडिलाईटस, हृदय रोग एवं कब्ज से पीड़ित व्यक्तियों को यह आसन नहीं करना चाहिए।

लाभ

इससे थाईराइड और पैरा थाईराइड ग्रंथियाँ स्वस्थ रहती हैं और इसके परिणामस्वरूप चयापचय क्रिया में सुधार होता है। इससे अजीर्ण, कब्ज और मासिक धर्म के व्यवधान दूर होते हैं। इससे स्फीत शिरा, पाईल्ज, हर्निया के उपचार में सहायता मिलती है। स्मरण शक्ति, एकाग्रता बढ़ती है।

ध्यान रखें

 

टांगे और पैर एक साथ रखें। टांगों को घुटनों पर मोड़े नहीं। किसी भी ओर झुके नहीं। अपने कूल्हों को पीछे की ओर ना मोड़ें। कोहनियों को शरीर के निकट रखें।

 

मत्स्यासन

 

 

1. प्रारम्भिक स्थिति में पीठ के बल लेटें। दायीं टांग को घुटने पर मोड़े और दायें पांव को बायीं जांघ पर रखें ।

2. बायीं टांग को घुटने पर मोड़ें और बायें पांव को दायीं जांघ पर रखें।

3. अपनी कोहनियों के सहारे पीठ को ऊपर उठायें, पीठ को अधिकतम सीमा तक मोड़ें और सिर के ऊपरी भाग को भूमि पर टिकायें।

4. तर्जनी अंगुली से पैरों के बड़े अंगूठों को पकड़े।

 

वैकल्पिक अभ्यासः

 

यदि ऐसा करना कठिन लगे तो मत्स्यासन का सरल अभ्यास करें। टांगों को भूमि पर सीधे रखते हुए पीठ को धनुषाकार बनायें और सिर के ऊपरी भाग को भूमि पर टिका दें। सामान्य श्वास लें और सिर के ऊपरी भाग / गले/मेरुदण्ड के मूल पर ध्यान केन्द्रित करें।

 

अवधिः

सर्वांगासन के न्यूनतम एक तिहाई समय तक अर्थात् एक से दो मिनट तक रूके रहें।

 

सीमाएँ:

हृदय रोग, पेप्टिक अल्सर, हर्निया, पीठ दर्द की गंभीर समस्या से पीड़ित व्यक्ति एवं गर्भवती महिलायें इस अभ्यास को करने से बचें।

 

लाभ

सर्वांगासन की सहायक विधि होने के कारण, सर्वागासन के लाभों में वृद्धि होती है। कार्यालय में भारी काम के बाद स्फूर्ति मिलती है। मधुमेह, दमा रोग, खांसी, जुकाम आदि के उपचार में लाभकारी है। मस्तिष्क में स्थित पिट्यूट्री और पीनियल ग्रंथियाँ स्वस्थ होती हैं। यह आसन सवेगों, भावनाओं एवं तनाव को नियन्त्रित करता है। यदि टांगों को एक दूसरे के ऊपर रख कर आसन किया जाए तो निचले अंगों द्वारा प्राणिक ऊर्जा का बहिर्गमन रुकता है।

 

ध्यान दें

शरीर पूरी तरह भूमि पर सीधा नहीं रहे। नितम्ब ऊपर न करें। घुटने भूमि पर लगें। सिर का ऊपरी भाग भूमि पर रहे, पिछला भाग नहीं। बड़े अंगूठों को पकड़ते हुए व्यक्ति धीरे धीरे कोहनियों को नीचे की ओर मोड़ सकता है।

 

हलासन

 

 

1. पीठ के बल प्रारम्भिक स्थिति में लेट जायें। आशिक रूप से श्वास भरते हुए दोनों पैर 45 डिग्री तक उठायें।

2. पूरी श्वास भरते हुए पैरों को 90 डिग्री तक ऊपर उठायें।

3. नितम्बों को भूमि से ऊपर उठायें। सिर के ऊपर पैरों को भूमि के समानान्तर रखें, श्वास छोड़ें। 4. अन्तिम स्थिति में आयें। सिर के ऊपर से पाँव के अंगूठों को भूमि पर टिकायें। हाथ सीधे रखें, हथेलियाँ नीचे की ओर हों। हाथों को सिर के ऊपर से फैलाकर भूमि पर टिकाया जा सकता है। सामान्य श्वास के साथ रूके रहें। नाभि पर ध्यान केन्द्रित करें। 2

 

अवधि

5 से 15 श्वास लेने तक सहजता से रूके रहें।

 

सीमाएँ

रक्तचाप, स्पोडिलाईटस, दीर्घावधि कब्ज, साइटिका, स्लिप डिस्क वाले रोगी इस अभ्यास से बचें।

 

लाभ

इससे पीठ और गर्दन में संतुलन आता है। नाड़ियों में नव स्फूर्ति का संचार होता है। थाइराईड और एड्रीनल ग्रथियों के लिए प्रभावी है। अनुसवेदी नाड़ी तन्त्र में सुधार करता है। पूरे क्षेत्र मे रक्त संचार को बढ़ाता है। अजीर्ण और कब्ज़ के रोग का उपचार होता है। सम्पूर्ण शारीरिक - मानसिक प्रणाली को सक्रिय करता है, उष्णता देता है, हल्का करता है। यह दमा रोग, ब्रोंकाइटिस, मूत्र मार्ग की समस्याओं और मासिक धर्म की समस्याओं के निवारण में भी सहायक है।

 

ध्यान रखें

टांगों को सीधा रखें, घुटनों पर मोड़ें नहीं। नितम्ब एक ओर न ब्रुके। हाथ सीधे रखें। ठोड़ी कठकूप से सटी रहे।

 

चक्रासन

 

 

 

1. पीठ के बल प्रारम्भिक स्थिति में लेट जायें। टांगों को घुटनों पर मोड़ कर अपनी एड़ियों को नितम्बों के निकट ले आयें। पैरों के बीच में थोड़ा अंतर बनाए रखें।

2. हाथों को सिर के ऊपर से ले जाकर कोहनियों पर मोड़ें। हथेलियाँ गर्दन के पास हों, अंगुलियाँ शरीर की ओर संकेत करें।

3. नितम्बों को भूमि से ऊपर उठायें।

4. भुजाओं को सीधा करें। सिर और कन्धों को ऊपर उठाते हुए सिर को भुजाओं के बीच लटकने दें। पीठ को ऊपर की ओर उठायें। मेरुदण्ड और मणिपुर चक्र पर ध्यान केन्द्रित करें।

 

अवधि

5 से लेकर 15 श्वास-प्रश्वास तक सहजता से रूके रहें।

 

सीमाएँ

उच्च रक्तचाप, हृदय रोग, दुर्बल कलाईयों और भुजाओं वालो तथा गर्भवती महिलाओं को यह आसन नहीं करना चाहिए।

 

लाभ

यह नाड़ी तंत्र, पाचन तंत्र, श्वसन तंत्र, हृदय की शिराओं एवं अन्तःस्त्रवी ग्रन्थियों के लिए लाभकारी है। हारमोन्ज को प्रभावित करके अनेक स्त्री रोगों से छुटकारा दिलाता है। श्वास नली को साफ करता है। शरीर में ताजगी और स्फूर्ति का संचार करता है।

 

ध्यान रखें

शरीर को धनुष की कमान की तरह अधिकाधिक मोड़ें। एड़ियों को भूमि से ऊपर न उठायें। अन्तिम स्थिति पाने के लिए न तो तनाव में रहें, न ही अधिक परिश्रम करें। अपने चेहरे और कन्धों को शिथिल रखें।

 

 

 

 

 

 

 

 

प्रौन वर्ग (पेट के बल लेटकर करने वाले आसन)

 

 

पेट के बल लेट जायें, टांगे और पांव के अंगूठे जोड़ें। अंगूठे पीछे की ओर हों। हाथ, सिर के सामने की ओर फैलायें और हथेलियाँ नीचे की ओर हों। सिर भूमि पर लगा हो।

 

भुजंगासन

 

1. कोहनियों को मोड़कर हथेलियो को कन्धों के नीचे टिका लें। अंगुलियाँ आगे की ओर हों। कोहनियों को शरीर के निकट रखें।

 

2. श्वास भीतर भरते हुए मेरुदण्ड की एक एक कशेरुका को ऊपर उठायें। हाथों पर कोई दबाव नहीं आना चाहिए। पेट के निचले भाग पर हल्के दबाव को अनुभव करें। श्वास छोड़ें और भूमि पर आ जायें।

 

अवधिः

10 से 15 श्वास-प्रश्वास के साथ सहजता से रूके रहें। पेट के निचले भाग अथवा मेरुदण्ड के मूल पर ध्यान केन्द्रित करें। दो से तीन बार दोहरायें।

प्रकारान्तर

हाथों को भूमि से हटायें। पीछे लेकर जायें, अपनी अंगुलियों को आपस में जकड़ लें। सिर और शरीर के ऊपरी भाग को ऊपर उठाकर पीछे की ओर मोड़ें। ऊपर की ओर देखें। स्वाधिष्ठान चक्र पर या मेरुदण्ड के मूल पर ध्यान केन्द्रित करके रखें। श्वास छोड़ते हुए भूमि पर आ जायें।

 

सीमाएँ

पेप्टिक अल्सर, हर्निया, आँतों की तपेदिक या अधिक बढ़े हुए थायराईड वाले रोगियों को यह आसन नहीं करना चाहिए।

 

लाभ

यह साइटिका, स्लिपडिस्क, पीठ के दर्द के लिए अति लाभकारी है। मेरुदण्ड को स्वस्थ रखता है। गर्भाशय और अण्डाशय को सही रखता है तथा मासिक धर्म एवं अन्य स्त्री रोगों के उपचार में सहायक होता है। पेट के सभी भागों के लिए लाभकारी है।

 

ध्यान रखें

हथेलियों पर कोई दबाव नहीं आना चाहिए। गर्दन, भुजाओं के ऊपरी भाग और कोहनियों को एक साथ रहना चाहिए। सिर को आगे की ओर न झुकने दें। कन्धों को सिकुड़ने न दें तथा पेट ऊपर नहीं उठायें। हाथों को सीधा नहीं करें। पैरों को जोड़कर रखें।

 

शलभासन

 

 

1. पेट के बल लेट जायें और प्रारम्भिक स्थिति में आयें। पैरों को एक साथ रखें। पांव के अंगूठे पीछे की ओर हों।

 

2. अपने हाथों को जांघों के नीचे रखें। कोहनियों को मोड़े नहीं, उन्हें सीधा रखें।

 

3. अपनी ठोड़ी को भूमि पर टिकायें। श्वास अंदर भरते हुए, पीठ की मांसपेशियों को जरा अकड़ायें। घुटनों पर मोड़े बिना ही दोनों पैरों को एक साथ ध्यान पीठ की ऊपरी मांसपेशियों पर ऊपर उठायें। श्वास को कुछ क्षण भीतर रोक कर रखें। केन्द्रित करें। श्वास छोड़ते हुए शरीर को शिथिल छोड़ दें।

 

अवधि

मात्र कुछ सैकण्ड के लिए रूकें और इसे | 2 - 3 बार दोहरायें।

 

सीमाएँ

कमजोर दिल, उच्च रक्तचाप, पेप्टिक अल्सर, हर्निया, आँतों की तपेदिक वालों को यह आसन नहीं करना चाहिए।

 

लाभ

अनुसवेदी तंत्र को स्वस्थ रखता है। पीठ के निचले भाग तथा श्रोणी क्षेत्र को सुदृढ़ बनाता है। साइटिका, स्लिप डिस्क, तेज पीठ दर्द की समस्या के समाधान में सहायक है। यकृत और पेट के अंगों के कार्य में संतुलन बैठाता है। भूख बढ़ाता है और छाती के क्षेत्र से अनावश्यक चर्बी को कम करता है।

 

ध्यान रखें

ठोड़ी भूमि से ऊपर न उठने दें। टांगे, घुटनों पर मुड़ें नहीं। नाक या माथे को भूमि पर न टिकायें और न ही पैरों को अलग अलग करें।

 

 

 

 

 

 

 

धनुरासन

 

 

1. भूमि पर पेट के बल लेट कर प्रारम्भिक स्थिति में आयें।

 

2. पैरों को घुटनों पर मोड़ें। हाथों को पीछे की ओर लायें। दायें टखने को दायें हाथ से और बायें टखने को बायें हाथ से पकड़ें।

 

3. घुटनों के बीच थोड़ा अंतर रखें। श्वास भरते हुए घुटनों, जांघों, छाती और सिर को ऊपर उठायें। पैरों को खींच कर पीठ को धनुषाकार में मोड़ें। ऊपर की ओर देखें।

 

अवधि

अन्तिम स्थिति में 3 से 5 श्वास-प्रश्वास के साथ सहजता से रूकें। अनुभव करें कि पूरे शरीर का भार पेट पर टिका है। मणिपुर चक्र पर ध्यान केन्द्रित करें। श्वास छोड़ते हुए शरीर को शिथिल छोड़ दें। 2 - 3 बार इसे दोहरायें।

 

सीमाएँ

दुर्बल हृदय, उच्च रक्तचाप, हर्निया, कोलाइटिस, पेप्टिक अल्सर, आँतों के अल्सर के रोगियों को यह आसन नहीं करना चाहिए।

 

लाभ

इससे लीवर, पेट के अंगों और मांसपेशियों की मालिश होती है। पैन्क्रियास और एड्रीनल ग्रथियों को ठीक करता है तथा उनसे निकलने वाले रस को संतुलित करता है। अजीर्ण, दीर्घावधि कब्ज, यकृतमन्दता को दूर करता है।

 

मधुमेह, आंतों के रोग, मासिक धर्म के विकारों और सर्वाईकल स्पोडिलाईटस के योग द्वारा उपचार में उपयोगी है। मेरुदण्ड के अस्थितन्तुओं, मांसपेशियों और स्नायुओं में खिंचाव उत्पन्न कर उनकी अकड़न दूर करता है।

 

ध्यान रखें

कोहनियाँ मुड़नी नहीं चाहिए। पीठ को स्वींचने के स्थान पर इसे धनुष की कमान का रूप दें। सिर ऊँचा हो, आगे झुका न हो। शरीर को किसी भी एक ओर झुकने न दें।

 

मकरासन

 

 

भूमि पर पेट के बल लेट जायें। अपने सिर को भुजाओं पर टिकायें। हथेलियाँ, कन्धों या कोहनियों (जहाँ भी आपको सहज लगता हो) पर टिकी होनी चाहिए। धीरे धीरे पैरों को अलग करें। पैर के अंगूठे बाहर की ओर हों और एड़ियां केन्द्र की ओर। सभी जोड़ों और मांसपेशियों को शिथिल छोड़ें। श्वास सामान्य होने तक शरीर और मन को विश्राम दें।

 

प्रकारान्तर

 

सिर एवं कन्धों को ऊपर उठायें और ठोड़ी को हथेलियों पर टिकायें। इस दौरान कोहनियाँ भूमि पर टिकी हों। मेरुदण्ड को कमान की तरह मोड़ने के लिए दोनों कोहनियां इकट्ठी रखें। अपनी सुविधा के लिए और गर्दन पर दबाव कम करने के लिए कोहनियों को अलग अलग रखा जा सकता है। इस मकरासन में दो बिन्दुओं पर प्रभाव पड़ता है। ये हैं- गर्दन और पीठ का निचला भाग। सभी जोड़ों, मांसपेशियों और स्नायुओं आदि को विश्राम में लायें। मन को सभी विचारों से मुक्त रखें और स्वाभाविक श्वास-प्रश्वास के प्रति जागरूक रहें।

 

अवधि

अपनी इच्छानुसार 2 से 5 मिनट तक इसी स्थिति में रहा जा सकता है।

 

लाभ

साइटिका, स्लिप डिस्क, पीठ के निचले हिस्से में दर्द अथवा मेरुदण्ड के किसी भी विकार के उपचार में लाभकारी है। मेरूदण्ड के सभी स्नायुओं को पूर्ण विश्राम मिलता है। दमा अथवा फेफड़ों के रोग वाले लोगों को श्वास-प्रश्वास के प्रति जागरूकता के साथ यह अभ्यास रोज करना चाहिए। पेट के बल सभी अभ्यासों के दौरान या बाद में इसी स्थिति में विश्राम करना चाहिए।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

बैठ कर करने वाले अभ्यास

 

प्रारम्भिक स्थिति

 

पैरों को बाहर की ओर फैला कर सीधा बैठ जायें। अपनी एड़ियों और पाँव के अंगूठों को इकट्ठे रखें। हथेलियाँ भूमि पर नितम्बों के पास रहें। शरीर को स्थिर रखें।

 

पश्चिमोत्तानासन

 

1. प्रारम्भिक स्थिति में बैठें।

2. श्वास भरते हुए दोनों हाथों को सिर के ऊपर ले जायें। बाइसेप्स कानों के पास आ जायें।

3. श्वास छोड़ते हुए पुच्छास्थि (टेलबोन) से आगे की ओर झुकें और हाथों को पैरों के ऊपर से भूमि के समानान्तर रखें।

4. तर्जनी अंगुलियों से पैरों के बड़े अंगूठों को पकड़ें अथवा हाथों से टखनों को पकड़ें। पेट की मांसपेशियों को अंदर की ओर सिकोड़ें तथा अपना सिर घुटनों तक लायें।

 

अवधि

शुरू में कुछ क्षणों के लिए रूकें। उड्डीयान बन्ध में कुशल सामान्य श्वास प्रक्रिया के साथ इसे अधिक समय तक कर सकते हैं। मेरुदण्ड और मांसपेशियों में खिंचाव अनुभव करें।

 

सीमाएँ

साइटिका, स्लिप डिस्क, तीव्र पीठ दर्द वाले यह अभ्यास न करें।

 

लाभ

इससे मेरुदण्ड के स्नायुओं और मांसपेशियों में खिंचाव से रक्त और ऊर्जा प्रवाह मुक्त रूप से होता है। अतः मेरुदण्ड में लचक आती है। मासिक धर्म, यकृतमन्दता, मधुमेह, गुर्दो की समस्याओं, ब्रोंकाइटिस आदि के योग द्वारा उपचार में सहायता मिलती है।

 

ध्यान रखें

पीठ को सीधा रखें, झुकने न दें। पैरों को सीधा फैलायें। इन्हें घुटनों पर मोड़ें नहीं। पाँवों को जोड़ कर रखें। कोहनियों को किसी ओर मोड़ने के स्थान पर नीचे की ओर मोड़ें।

 

कोणासन

 

 

1. प्रारम्भिक स्थिति में बैठें। हथेलियों को पीछे की ओर भूमि पर रखें। भुजाओं को सीधा फैलायें। अंगुलियाँ पीछे की ओर संकेत करें।

2. सिर को पीछे झुकायें और कन्धों की अस्थियों को निकट लायें।

3. कूल्हों को यथासम्भव ऊपर लायें और पैरों को भूमि पर सीधा रखें। पैरों को जोड़े, घुटने सीधे रखें, तलुवे भूमि पर लगे।

 

अवधि

कुछ क्षण तक इस स्थिति में रहें, इसके बाद प्रारम्भिक स्थिति में विश्राम करें।

 

सीमाएँ

कमजोर कलाईयों और भुजाओं वाले इसे न करें।

 

लाभ

इससे पश्चिमोत्तानासन के लाभ बढ़ जाते हैं क्योंकि यह उसके विपरीत स्थिति है। इससे शरीर तथा मेरुदण्ड को आगे की ओर खिंचाव मिलता है। भुजाओं को शक्ति मिलती है। हाथों और पैरों में ऊर्जा का मुक्त प्रवाह होता है।

 

ध्यान रखें

सिर को नीचे की ओर लटकायें। ऊँचा मत उठायें। घुटनों पर मोड़े बिना पैरों को सीधा रखें। दोनों एड़ियाँ और उनके तलवे भूमि पर लगने चाहिए।

 

वक्रासन

 

 

1. प्रारम्भिक स्थिति में बैठें।

 

2. घुटने पर दायें पैर को मोड़ें और दायें पाँव को बायें घुटने के पास रखें।

 

3. श्वास भरें और अपने बायीं भुजा को सिर के पास ऊपर की ओर फैलायें।

 

4. श्वास छोड़ते हुए धड़ को दायें घुमायें और बायें हाथ से दायें पाँव को पकड़ें। दायें घुटने को बायीं भुजा के नीचे रखें। दायें हाथ को थोड़ा पीछे रखें। चेहरा दायीं ओर रहे। सामान्य श्वास प्रक्रिया के साथ इसी स्थिति में रहें और मेरुदण्ड पर ध्यान केन्द्रित करें।

 

अवधि

5 से 10 सामान्य श्वास के साथ रूके रहें। फिर विश्राम करें। दूसरी ओर इसी प्रक्रिया को दोहरायें। यह स्व- सम्पूरक प्रक्रिया है।

 

सीमाएँ

साइटिका समस्या, तीव्र पीठ दर्द और हर्निया के रोगियों को यह अभ्यास नहीं करना चाहिए।

 

लाभ

इससे एड्रीनल ग्रंथियों, गुर्दा और आँतो की मालिश होती है, कब्ज दूर होती है। प्रारम्भिक स्तर क साइटिका का दर्द समाप्त होता है। यह अभ्यास पाचन क्रिया को प्रभावित करता है। कमर क आसपास अनावश्यक चर्बी हटाता है।

 

ध्यान रखें

टांग घुटने पर मुड़े नहीं। मेरुदण्ड को सीधा रखते हुए अधिकाधिक मोड़ने का प्रयास करें।

 

अर्द्धमत्सयेन्द्रासन

 

1. टांगों को बाहर की ओर फैलाते हुए प्रारम्भिक स्थिति में बैठें। दायीं टांग को घुटने पर मोड़ें और इसे बायीं टांग के ऊपर से ले जायें। दायें पांव को बायें घुटने के निकट तक ले जायें।

2. बायें घुटने को मोड़ कर बायीं एड़ी को मूलाधार पर टिका लें।

3. श्वास बाहर छोड़ें और मेरुदण्ड को सीधा रखते हुए धड़ को थोड़ा दायें घुमायें। आपका दायां घुटना बायें भुजा के नीचे रहे और दायें पांव को बायें हाथ से पकड़ लें।

 

 

4. दायें हाथ को कमर की बायीं ओर पीछे ले आयें। चेहरा दायें घुमायें और इस दौरान गर्दन दायें कन्धे के ऊपर की ओर हो।

 

अवधि

5 से 10 बार सामान्य श्वास के साथ रूके रहें। इस दौरान रीढ़ की हड्डी पर ध्यान केन्द्रित करें। फिर विश्राम करें और इसे दूसरी ओर दोहरायें। स्व-सम्पूरक प्रक्रिया है।

 

सीमाएँ

गर्भवती महिलायें यह आसन न करें। पेप्टिक अल्सर, हर्निया, बढ़े हुए थायराईड वाले लोग, विशेषज्ञ की निगरानी में इस आसन को कर सकते हैं।

 

लाभ

मेरुदण्ड को लचीला बनाता है। पेट के आसपास अनावश्यक चर्बी घटती है। पेट के अंग ठीक होते हैं, साइटिका और स्लिप डिस्क की पहली अवस्था में लाभ होता है। मधुमेह के यौगिक प्रबन्धन में उपयोगी है। यह एड्रीनलीन एवं पित्त के स्राव को नियन्त्रित करता है। साइनस, ब्रोंकाइटिस, कब्ज, आँतों के रोग, मासिक धर्म की समस्या, मूत्र मार्ग की समस्या, सर्वाईकल स्पोडिलाइटस के उपचार में उपयोगी है। इसका सहजता से अभ्यास हो सकता है।

 

ध्यान रखें

नितम्ब भूमि से ऊपर न उठें। शरीर किसी एक ओर न झुके, कन्धे नीचे न आयें। घुमाते समय रीढ़ की हड्डी सीधी रखें।

 

उष्ट्रासन

 

1. प्रारम्भिक स्थिति में बैठें। दायीं टांग को घुटने पर मोड़ें और दायें तलवे को दायें नितम्ब के नीचे रखें। बायीं टांग को घुटने पर मोड़ें और बायें तलवे को बायें नितम्ब के नीचे रख कर वज्रासन में बैठें।

 

2. घुटनों पर खड़े हो जायें और कोहनियों को मोड़ते हुए हाथों से पीठ को सहारा दें।

 

3. धीरे धीरे पीछे की ओर मुड़ें और दायीं हथेली को दायीं एड़ी पर तथा बायीं हथेली को बायीं एड़ी पर टिका लें। सिर को, पीठ की तरफ नीचे लटका लें और अपने कूल्हों को आगे की ओर धकेलें।

 

अवधि

10 बार सामान्य श्वास प्रक्रिया के साथ आसन में रहें। मेरुदण्ड पर ध्यान केन्द्रित करें।

 

सीमाएँ

हृदयरोगी और हर्निया के रोगी यह अभ्यास न करें।

 

लाभ

इस अभ्यास से मेरुदण्ड में लचक आती है। रक्त प्रवाह मुक्त रूप से मस्तिष्क तक होता है। पेट के लिए लाभकारी है। पीठ दर्द, श्वास समस्या, हड्डी रोग, लबैगो और साइटिका के समाधान में सहायक है। अभ्यासकर्ता सक्रिय और सजग बनता है।

 

ध्यान रखें

जांघों को कमर तक सीधा रखें। दोनों घुटनों को एक साथ जोड़ कर रखें। भुजाओं को सीधा फैलायें। यदि कठिन लगे तो घुटनों के बीच थोड़ा अंतर भी रख सकते हैं। सिर को सीधा ऊपर न उठायें, इसे पीछे की ओर लटकने दें।

 

मार्जारासन

 

वज्रासन में बैठें। हथेलियों में अंतर रखते हुए इन्हें भूमि पर टिकायें और कन्धों के समानान्तर ही रखें। हथेलियों और घुटनों के बीच का अंतर लगभग कन्धे और कूल्हे के समान अथवा धड़ की लम्बाई के बराबर रहे। घुटनों के बीच का अंतर कमर की चौड़ाई जितना रहे। शरीर के ऊपरी क्षेत्र में मांसपेशियों को शिथिल छोड़ें और पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव में नीचे आने दें। साथ ही साथ यथासम्भव गर्दन और सिर को पीछे की ओर ले जायें। यह पहला भाग है। मार्जरासन के अंतिम भाग के लिए पीठ को इस प्रकार मोड़े कि यह कमान का रूप ले लें। गर्दन को शिथिल छोड़ें, सिर को नीचे लटकायें। सामान्य श्वास प्रक्रिया में दोनों भागों को दोहरायें।

 

अवधि

दोनों प्रक्रियाओं को करने से एक चरण होगा। हर रोज पाँच से 10 चरणों में इस अभ्यास को करें।

 

लाभ

मेरुदण्ड में लचीलापन आता है। कठिन परिश्रम के कारण पीठ और गर्दन में होने वाली पीड़ा में राहत मिलती है। पीठ और गर्दन की मांसपेशियाँ स्वस्थ होती हैं, आलस्य दूर होता है और मन में स्फूर्ति का संचार होता है।

 

ध्यान रखें

जांचें और भुजाएँ भूमि पर लम्बवत् हों। ऊपर बताई हुई दूरी पर अवश्य ध्यान दें।

 

 

 

 

त्रिपादमार्जासन

 

 

मार्जरासन की अन्तिम स्थिति में आयें और पीठ को सीधा रखें। दायें पैर और सिर को पीठ के स्तर पर रखें। धीरे धीरे गर्दन को मोड़ें ताकि पीठ अवतल आकार में आ जाए। यही त्रिपाद मार्जरासन की अन्तिम स्थिति है। बायें पैर से इस प्रक्रिया को दोहरायें।

 

सीमाएँ:

मार्जरासन की भाँति ही।

 

लाभः

मेरुदण्ड लचीला और स्वस्थ रहता है। शरीर के ऊपरी अंगों की स्थिति में स्वास्थ्यवर्धक सुधार होता है। पीठ और गर्दन के दर्द में आराम मिलता है। मेरुदण्ड के निचले भाग और सर्वाईकल समस्याओं के उपचार में सहायक है।

 

ध्यान रखेंः

पैर को बहुत ऊपर मत उठायें। इसे कमर के समानान्तर बनाए रखें।

 

सिंहासन

 

1. वज्रासन में बैठें, घुटनों के बीच अंतर रखें। हो सके तो सूर्य की ओर मुख रखें।

 

2. अपनी हथेलियों को, घुटनों के बीच में भूमि पर टिकायें और अंगुलियाँ पैरों की ओर हों। भुजाओं पर शरीर को टिकाते हुए आगे की ओर झुकें। पीठ को मोड़े और धीरे धीरे सिर को पीछे की ओर झुकायें। इससे पीठ में तनिक खिंचाव अनुभव करें।

 

3. आंखे खुली रखें और शांभवी मुद्रा में दोनों भौंहों के बीच के स्थान पर देखें। पूरे शरीर को विश्राम दें। नाक से धीरे धीरे गहरी श्वास भरें। मुँह खोलें, जीभ को ठोड़ी की तरफ निकालें। आह की आवाज निकालते हुए श्वास बाहर छोड़ें। मुँह बन्द करके श्वास भरे, एक चरण पूरा होगा।

 

अवधि

5 से 10 चरणों तक इस अभ्यास को दोहरायें।

 

सीमाएँ

घुटनों में तीव्र पीड़ा होने पर वज्रासन नहीं करें। गले के दर्द में भी इस अभ्यास से बचें।

 

लाभ

गले, नाक, कान, आंख और मुँह के रोगों के उपचार के लिए अत्यधिक लाभदायक है। यह छाती एवं डायाफ्राम क्षेत्र से तनाव दूर करता है। हकलाने वाले, अन्तर्मुखी एवं अधीर व्यक्तियों के लिए लाभदायक है। इससे आवाज में निखार आता है।

 

ध्यान रखें

भुजाओं को कोहनियों पर न मोड़ें। अंगुलियाँ भीतर की ओर पांवों की तरफ हों। सिर सीधा न रखें, थोड़ा पीछे की ओर झुकायें। जीभ को सामने नहीं, नीचे की ओर बाहर निकालें।

 

शशांकासन :

 

वज्रासन में सीधा बैठें। आँखें मूंद लें, श्वास भरते हुए भुजाओं को सिर के ऊपर की ओर उठायें। श्वास बाहर छोड़ते हुए कूल्हों से आगे की ओर झुकें । भुजाएँ, हथेलियाँ, मस्तक, भूमि पर टिके हों। भुजाओं को खुला रखें, कोहनियों को भूमि पर टिकने दें। श्वास छोड़ते हुए कुछ क्षण इसी स्थिति में रहें और फिर श्वास भरते हुए भुजाओं और गर्दन को उठाकर प्रारम्भिक स्थिति में आ जायें। अभ्यास को तीन चार बार दोहरायें।

 

सीमाएँ

उच्च रक्तचाप, स्लिप डिस्क, मेरुदण्ड के निचले भाग की समस्या तथा चक्कर आने की दशा में यह अभ्यास नहीं करना चाहिए।

 

लाभ

इससे पुरुषों - स्त्रियों के प्रजनन अंगों को ठीक किया जा सकता हैं। नियमित रूप से करने पर कब्ज से छुटकारा पाया जा सकता है। यदि इसकी अन्तिम स्थिति में उज्जायी प्राणायाम किया जाए तो क्रोध समाप्त होता है, मन शान्त हो जाता है।

 

प्रकारान्तर

मुट्ठियाँ बनाकर इन्हें पेट के निचले भाग पर रखें और श्वास छोड़ते हुए अन्तिम स्थिति में आयें। पेट के आन्तरिक अंगों की मालिश हो जाती है जिससे पाचन क्रिया में सुधार होता है।

 

ध्यान रखें

कूल्हों को एड़ियों से ऊपर न उठने दें। माथा भूमि पर लगायें, सिर का ऊपरी भाग नहीं। भुजाओं को कोहनियों तक नीचे लाकर भूमि पर टिकने दें।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

प्राण और प्राणायाम

 

 

प्राण एक सम्पूर्ण शक्ति है। यह सभी जगह विद्यमान है। यद्यपि यह श्वास प्रक्रिया में प्रयुक्त वायु से सम्बन्धित है तथापि यह वायु या आक्सीजन से अधिक सूक्ष्म है। "जो प्राण को जानता है वह वेदों का ज्ञानी है" श्रुतियों का यह कथन है। वेदान्त सूत्रों का कथन है, "श्वास ब्रह्म है" प्राणं ब्रह्मः विजानियात्' । यदि हम कोशितकी उपनिषद् और छान्दोग्य उपनिषद् के उपाख्यानों को पढ़ें जहाँ पर सभी इद्रियाँ, मन- प्राण अपनी अपनी सर्वोच्चता के लिए संघर्ष करते हैं तो हमें ज्ञात होगा कि उनमें से सर्वोच्च प्राण ही है। यह प्राण- स्पन्दन ही है जिससे मन में विचार उत्पन्न होते हैं। देखना, सुनना, बोलना, सूंघना, अनुभव करना, जानना, संकल्प करना आदि प्राण की सहायता से ही संभव है। इसीलिए धर्मग्रन्थों का कथन है, 'प्राण ही ब्रह्म है।'

 

प्राणायाम

 

'तस्मिन्सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणायामः' आसन सिद्धि के पश्चात् पूरक (श्वास को भीतर लेना) एवं रेचक (श्वास को बाहर छोड़ना) पर नियन्त्रण प्राणायाम है। पतञ्जलि के योग सूत्रों में प्राणायाम की यही परिभाषा है। यह राजयोग का चौथा अंग है। प्राणायाम से सभी प्रकार के रोग दूर होते हैं, स्वास्थ्य में सुधार होता है, पाचन क्रिया सुधरती है, स्नायुओं को नवजीवन मिलता है, जठराग्नि तीव्र होती है, रजस् जाता है, आलस्य समाप्त होता है, शरीर हल्का और स्वस्थ होता है, मन में स्फूर्ति आती है, कुंडलिनी जाग्रत होती है। प्राणायाम करने वाले को भूख अच्छी लगती है। वह सदैव प्रसन्नचित्त रहता है । उसका शरीर सुन्दर बनता है, वह शक्ति, ऊर्जा, उत्साह, साहस, स्फूर्ति एवं एकाग्रता से सम्पन्न हो जाता है।

 

प्राणायाम के तीन पक्ष

 

प्राणायाम के लिए श्वास प्रक्रिया के तीन पहलू होते हैं। ये हैं:-

 

1. पूरक अर्थात् श्वास को भीतर लेना

2. रेचक अर्थात् श्वास को बाहर छोड़ना

3. कुम्भक अर्थात् श्वास रोकना - इसके आगे फिर दो अंग हैं

क) अन्तः कुम्भक

ख) बाह्य कुम्भक

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

प्राणिक शरीर

 

 

योगदर्शन के अनुसार मानव शरीर पाँच कोशों से बना हैं :

क) शारीरिक कोश अर्थात् अन्नमय कोश

ख) प्राणमय कोश

ग) मनोमय कोश

घ) विज्ञानमय कोश

ड़) आनन्दमय कोश

प्राणायाम प्रक्रिया मुख्यतः प्राणमय कोश पर आधारित है। यह कोश पाँच प्राणों से बना है जिन्हें पंचप्राण अर्थात् प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान कहा जाता है।

 

उदान

उदान का स्थान है कंठ है तथा इसका कार्य भोजन निगलना है। यह जीव को नींद में ले जाता है। मृत्यु के समय यह सूक्ष्म शरीर को स्थूल शरीर से पृथक् करता है।

 

प्राण

यह ब्रह्माण्डीय प्राण नहीं, यह प्राणमय कोश का एक ऐसा भाग है जो लेरिनिक्स एवं डायाफ्राम के बीच के क्षेत्र पर नियंत्रण रखता है। प्राण का केन्द्र हृदय है और इसका कार्य श्वास प्रक्रिया को चलाना है।

 

समान

इसका स्थान नाभि क्षेत्र है और पाचन क्रिया मुख्य कार्य है।

 

अपान

इसका स्थान नाभि के नीचे गुदास्थान है। इसका मुख्य कार्य शरीर से व्यर्थ पदार्थ निकालना है।

 

व्यान

यह पूरे शरीर में व्याप्त है। रक्त संचार इसका मुख्य कार्य है।

 

इन पाँचों प्राणों के साथ पाँच उपप्राण हैं-

नाग, कूर्म, क्रिकर, देवदत्त और धनञ्जय। नाग डकार एवं हिचकी लेने, कूर्म आँखें खोलने और आँखें झपकाने, क्रिकर भूख-प्यास लगाने तथा छींकने-खांसने, देवदत्त निद्रा लाने, उबासी लेने और धनञ्जय मृत्यु के बाद शरीर को समाप्त करने का कार्य करता है।

 

श्वास प्रक्रिया के कुछ अन्य बिन्दु

 

सामान्यतः प्रति मिनट हम 15 बार श्वास लेते हैं अर्थात् प्रतिदिन हम 21600 बार श्वास लेते हैं। हमारा जीवन कुछ और नहीं, मात्र श्वासों की गणना है। बाहर छोड़ने वाली श्वास की मात्रा अधिक होती है। श्वास भरने वाली मात्रा कम होती है। इसलिए प्रत्येक श्वास के साथ प्रतिक्षण जीवनावधि कम होती जाती है। उचित रूप में श्वास लेने के अभ्यास द्वारा जीवनावधि कम होने को रोका जा सकता है। एक हाथी एक मिनट में 7 श्वास लेता है और उत्तम स्वास्थ्य के साथ सौ वर्षों तक जीवित रह सकता है। कछुआ एक मिनट में 5 श्वास लेता है और उसकी जीवनावधि 500 वर्ष तक हो सकती है। इस तरह से यदि हम श्वास प्रक्रिया को ठीक कर लें और गहरी श्वास लेने को अपनी आदत बना लें, तो हम भी स्वस्थ शरीर और स्वस्थ मन के साथ दीर्घावधि तक जीवन व्यतीत कर सकते हैं।

 

श्वास हमारे शरीर और सूक्ष्म मन के बीच पुल का काम करता है। श्वास का नियंत्रण मन का नियंत्रण है। यौगिक श्वास विधियों को अपनाकर मन पर नियंत्रण पाना सरल है। सर्वव्यापी चेतना से प्राण शक्ति कार्य करती है और प्राण के माध्यम से ही हमारा मन और स्नायु आदि कार्य करते हैं। माँ के गर्भ में ही अन्य इद्रियों के अस्तित्व में आने से पूर्व प्राणशक्ति काम करने लगती है और मृत्यु तक काम करती रहती है। इसीलिए प्राण शक्ति को सबसे प्राचीन और सर्वोत्तम माना जाता है। प्राण, मन, नाड़ियाँ और शरीर अन्तर्सम्बन्धित हैं। कहा जाता है कि जो प्राण को जानते हैं, उन्हें ब्रह्म का ज्ञान है। प्राण के सोपान से ही व्यक्ति शरीर और मन से परे जाकर सर्वोच्च समाधि स्थिति तक पहुँचता है।

 

विविध भागों में श्वास प्रक्रिया

 

प्राणायाम की तैयारी के लिए यह श्वास प्रक्रिया अभ्यास है। इससे मुख्यतः श्वास पद्धति में सुधार होता है और फेफड़ों की क्षमता बढ़ती है। इसके तीन भाग हैं :

 

1. पेट आधारित श्वास प्रक्रिया : इस अभ्यास को बैठकर या लेट कर किया जा सकता है। अगर लेट कर प्रक्रिया करनी हो तो सहजता से पीठ के बल लेट जायें। पूर्ण रूप से श्वास बाहर छोड़ दें। फिर धीरे धीरे श्वास भरें। पूरी क्षमता से श्वास भरें। इसे पूरक कहते हैं। पेट पर ही ध्यान केन्द्रित करें। अनुभव करें कि लगातार पेट ऊपर की ओर आ रहा हो। पल भर रोकें (कुम्भक)। फिर श्वास छोड़ें (रेचक)। श्वास छोड़ते समय अनुभव करें कि पेट धीरे धीरे लगातार अंदर की ओर जा रहा हो। एक सैकण्ड के लिए रोक कर रखें (कुम्भक)। इस श्वास प्रक्रिया को दोहरायें। पूरी प्रक्रिया में झटके न लगने दें। यह निरन्तर, सहज और विश्रामपूर्वक हो।

 

2. छाती से श्वास प्रक्रियाः इस भाग में श्वास अन्दर लेना व छोड़ना दोनों केवल छाती के प्रसारण एवं संकुचन द्वारा किए जाते हैं। वायु नासाछिद्रों से धीरे धीरे तथा निरन्तर गुजरती रहती है। डायाफ्राम श्वास प्रक्रिया के दौरान पेट के बाहर आने पर नियंत्रण रखता है।

 

3. क्लैवीकुलर /अपर लोबल श्वास प्रक्रियाः डायाफ्राम पर नियंत्रण रखते हुए छाती से श्वास लेना शुरू करें और प्रयास से कुछ अधिक वायु लें। वायु को शक्तिपूर्वक फेफड़ों के ऊपरी भाग तक लाया जाता है और इससे ऊपरी कक्ष सक्रिय हो जाते हैं। अस्थमा के दौरे के समय यह क्लैवीकुलर श्वास प्रक्रिया स्पष्ट रुप से दिखाई देती है।

 

यौगिक श्वास प्रक्रिया: इन तीनों भागों की समन्वित श्वास प्रक्रिया को यौगिक श्वास प्रक्रिया कहते हैं। जब आप श्वास भीतर भरेंगे, तब क्रमानुसार पहले पेट का फैलाव अनुभव होगा, छाती फूलेगी और फेफड़ों के ऊपरी भाग विस्तृत होंगे और श्वास छोड़ने पर दोनों फेफड़े ऊपर से नीचे अर्थात् हंसली (क्लैवीकल) क्षेत्र से पेट तक विश्रामावस्था में आ जायेंगे। ऐसा चरणबद्ध रूप में होगा। इस यौगिक श्वास प्रक्रिया के अभ्यास से सभी शारीरिक पद्धतियों में समन्वय होगा। यदि मन में वासना, लोभ, क्रोध अथवा ईर्ष्या उत्पन्न होते हैं, तो तुरंत यौगिक श्वास प्रक्रिया शुरू कर दें। यह सब अवश्य ठीक हो जायेंगे। स्वस्थ शरीर और स्वस्थ मन से यौवन बना रहता है।

 

श्वास प्रक्रिया ठीक करने के कुछ उपाय याद रखें :

 

क) सदैव नाक द्वारा श्वास लें, मुँह से नहीं। यदि कुछ व्यवधान है तो रूकावट हटाने के लिए जलनेति या सूत्र नेति का प्रयोग करें।

ख) श्वास प्रक्रिया में अनावश्यक हिलने तथा अस्वाभाविक ध्वनि आदि से बचें।

ग) आत्मनिर्देशन द्वारा श्वास की संपूर्ण प्रक्रिया जैसे गति, दीर्घता, मात्रा, सघनता, तापमान, निरन्तर स्वतः ध्वनि आदि के प्रति जागरूक रहें।

 

नाड़ी शुद्धि के लिए प्राणायाम

 

प्राण नाड़ियों में आसानी से प्रवेश नहीं कर सकता है यदि नाड़ियाँ अशुद्धियों से भरी हों। इसलिए सबसे पहले उनका शुद्धिकरण करना होगा और तभी प्राणायाम का अभ्यास करना होगा। दो प्रक्रियायें अर्थात् समानु और निर्मानु नाड़ियों का शोधन करती हैं। समानु मानसिक प्रक्रिया द्वारा बीज मंत्र के साथ किया जाता है। निर्मानु द्वारा शारीरिक स्वच्छता एवं षट्कर्म सम्पन्न होते हैं।

 

1. किसी भी ध्यान स्थिति में बैठें। वायु के बीजाक्षर यं पर ध्यान करें जो धुएं के रंग का है। बायें नासाछिद्र से श्वास भरते हुए 16 बार मानसिक रूप से बीजाक्षर दोहरायें। यह पूरक है। जब तक आप 64 बार बीजाक्षर न दोहरा लें, तब तक श्वास को रोके रखें। इसे कुम्भक कहते हैं। फिर धीरे-धीरे तब तक दायें नासाछिद्र से श्वास बाहर छोड़ें, जब तक आप बीजाक्षर को 32 बार न दोहरा लें। यह रेचक है।

 

2. नाभि अग्नि तत्त्व का स्थान है। इस तत्त्व पर ध्यान करें। दायें नासाछिद्र से श्वास भरते हुए 16 बार बीजाक्षर रं दोहरायें। जब तक आप 64 बार बीजाक्षर न दोहरा लें, तब तक श्वास को रोके रखें। फिर धीरे - धीरे तब तक बायें नासाछिद्र से श्वास बाहर छोड़ें, जब तक आप बीजाक्षर को 32 बार न दोहरा लें।

 

3. नासिकाग्र पर दृष्टि एकाग्र करें। बायें नासाछिद्र से श्वास भरते हुए 16 बार बीजाक्षर ठं दोहरायें। जब तक आप 64 बार बीजाक्षर न दोहरा लें, तब तक श्वास को रोके रखें। अब कल्पना करें कि चन्द्र से जो अमृत बरसता है, शरीर के सभी अंगों में प्रवाहित होकर उन्हें शुद्ध करता जा रहा है। फिर धीरे - धीरे तब तक दायें नासाछिद्र से श्वास बाहर छोड़ें, जब तक आप पृथ्वी के बीजाक्षर लं को 32 बार न दोहरा लें।

 

पूरक, कुम्भक एवं रेचक इतने उच्च अनुपात में करना अनावश्यक है। अपनी अपनी क्षमता के अनुसार इसका अनुपात निर्धारित करना होगा। 1:4:2 का अनुपात बना कर रखें। कल्पना करें कि ऊपर वर्णित तीन प्रकार के प्राणायाम से नाड़ियों का उपयुक्त शुद्धिकरण हो गया है और प्राण शक्ति शरीर के प्रत्येक भाग में मुक्त रूप से प्रवाहित हो रही है।

 

अभ्यास 1

चन्द्र नाड़ी शोधन: दायें हाथ के अंगूठे से दायें नासाछिद्र को बन्द करके बायीं ओर से श्वास भरें और छोड़ें। सहजता से इसे 12 बार दोहरायें। एक चरण पूरा होगा।

 

सूर्य नाड़ी शोधनः अब दायें हाथ की अनामिका से बायें नासाछिद्र को बन्द करें। दायें नासाछिद्र से सहजतापूर्वक 12 बार श्वास भरें और छोड़ें। यह एक चरण पूरा होगा।

 

अभ्यास के पहले सप्ताह में प्रत्येक ओर से एक चरण करें। दूसरे सप्ताह में दो, तीसरे में तीन बार अभ्यास करें। जब एक चरण पूरा हो, तनिक विश्राम करें। अपनी शक्ति एवं क्षमता के अनुरूप आप चरण संख्या बढ़ा सकते हैं। अभ्यास के समय अस्वाभाविक ध्वनि से बचें।

 

अभ्यास 2

 

 

धीरे धीरे सहजता से दोनों नासाछिद्रों से श्वास भरें। श्वास रोकें नहीं। फिर धीरे धीरे श्वास छोड़ें। 12 बार दोहरायें। एक चक्र पूरा होगा। अपनी क्षमता और सामर्थ्य अनुसार 2 से 3 चरण अभ्यास किया जा सकता है।

 

अभ्यास 3

चन्द्र भेदः दायें हाथ के अंगूठे से दायें नासाछिद्र को बन्द करके बायीं ओर से श्वास भरें और छोड़ें। सहजता से इसे 12 बार दोहरायें।

 

सूर्य भेदः दायें हाथ की अनामिका से बायें नासाछिद्र को बन्द करें। दायें नासाछिद्र से सहजतापूर्वक 12 बार श्वास भरें और छोड़ें। यहाँ आप 1:2 के अनुपात में श्वास भर और छोड़ सकते हैं।

 

अभ्यास 4

 

दोनों नासाछिद्रों से श्वास प्रक्रिया

 

दायें हाथ के अंगूठे से दायें नासाछिद्र को बन्द करके बायीं ओर से धीरे धीरे श्वास भरें, फिर दायें हाथ की अनामिका से बायें नासाछिद्र को बन्द करके दायें नासाछिद्र से धीरे धीरे श्वास छोड़ें। अब दायें नासाछिद्र से श्वास भरें और बायें से श्वास छोड़ें। 1:2 का अनुपात बनाए रखें। एक चरण पूरा होगा। इसे 12 बार दोहरायें।

 

अभ्यास संख्या 5

 

भीतर श्वास रोकना प्रारम्भ करना

 

इस चरण में अन्तःकुम्भक किया जा सकता है। दायें हाथ के अंगूठे से दायें नासाछिद्र को बन्द करके, मन में 5 तक गणना करते हुए बायें नासाछिद्र से श्वास लें। श्वास भरने के बाद, दोनों नासाछिद्रों को बन्द कर, जालन्धर बन्ध के साथ श्वास रोकें। मन में 5 तक गणना करते रहें। फिर बन्ध को छोड़ कर, मन में 5 तक गणना करते हुए दायें नासाछिद्र से श्वास छोड़ें। श्वास छोड़ने के बाद, दायें हाथ की अनामिका से बायें नासाछिद्र को बन्द कर पाँच तक गिनती करते हुए दायें नासाछिद्र से श्वास भरें। पुनः दोनों नासाछिद्रों को बन्द कर, जालन्धर बन्ध के साथ श्वास रोकें। मन में पाँच तक गणना करते रहें। बन्ध को छोड़ें। अब मन में 5 तक गणना करते हुए, बायें नासाछिद्र से श्वास छोड़ें। इस प्रकार 1:1:1 के अनुपात में श्वास रोकने के पहले चरण को पूरा करें।

 

कुछ दिनों के अन्तराल के बाद दूसरे चरण पर आयें और 1:2:2 के अनुपात से करें, तीसरी बार 1:3:2 के अनुपात और अतिम चरण में 1:4:2 का अनुपात रखें। एक चरण में पूरी दक्षता पाने के बाद ही दूसरे चरण और फिर आगे 1:4:2 के अनुपात पर जायें। इसके बाद बाह्यकुम्भक को प्रारम्भ किया जा सकता है।

 

क्रमः आसन, उष्णता अथवा शीतलताप्रदायक प्राणायामों में दक्षता पा लेने के बाद और भ्रामरी तथा उज्जायी प्राणायाम से पहले नाड़ी शोधन प्रक्रिया की जानी चाहिए।

 

लाभ: नाड़ी शोधन से सुनिश्चित होता है कि आक्सीजन की अतिरिक्त आपूर्ति से पूरे शरीर का पोषण हो रहा है, प्रभावी रूप से कार्बन डाई आक्साईड बाहर निकल रही है और रक्त में से विषैले तत्त्व बाहर निकाले जा रहे हैं। मस्तिष्क केन्द्र सक्रिय होकर अपनी पूरी क्षमता से काम करने लगता है। इससे शान्ति, विचार स्पष्टता एवं एकाग्रता बढ़ती है। मानसिक कार्य करने वालों को यह प्राणायाम करना चाहिए। इससे जीवनशक्ति बढ़ती है और प्राण- सन्तुलन से चिन्ता - तनाव का स्तर कम हो जाता है। इससे इडा और पिंगला नाड़ियों के बीच संतुलन उत्पन्न होता है। सुषुम्ना नाड़ी में प्राण प्रवाह होता है जो ध्यान की गहन अवस्था एवं आध्यात्मिक जागरण की ओर ले जाता है।

 

कपालभाति

 

 

'कपाल' संस्कृत का शब्द है - इसका अर्थ है मस्तिष्क। भाति का अर्थ है- चमक। कपालभाति शब्द का अर्थ है ऐसा अभ्यास जो मस्तिष्क अथवा ललाट की कान्ति बढ़ाए। यह हठ योग की षट् क्रियाओं में से एक है।

 

विधिः किसी भी ध्यान स्थिति में बैठें। मेरुदण्ड को सीधा रखें। आंखे बन्द तथा चेहरा सहज और सरल रहे। पूरे शरीर को विश्राम की स्थिति में लायें। अपनी चेतना मस्तिष्क के अग्रिम भाग पर लायें। नासिकाग्र पर ध्यान केन्द्रित करें। दोनों नासाछिद्रों से गहरी श्वास भरें और शक्तिपूर्वक श्वास बाहर छोड़ें।

सीमाएँ: जिन्हें सिर के चकराने, मिर्गी, हर्निया, पेट में अल्सर आदि के रोग हों, उन्हें कपालभाति प्राणायाम नहीं करना चाहिए।

 

लाभः

इस प्राणायाम से नासिका मार्ग अथवा श्वास मार्ग स्वच्छ होता है। श्वास- नलियों की ऐंठन दूर होती है। परिणामस्वरूप धीरे धीरे दमा रोग समाप्त होने लगता है। फेफड़ों को पूरी आक्सीजन मिलने लगती है। तपेदिक का बैक्टीरिया, पनपने के लिए खाली स्थान नहीं पा सकता है। इस अभ्यास से क्षय रोग का उपचार होता है। फेफड़ों का पर्याप्त विकास होता है। कार्बन डाई आक्साईड और अन्य रक्त अशुद्धियाँ बाहर फेंक दी जाती हैं। शरीर की कोशिकाओं और ऊतकों को बड़ी मात्रा में आक्सीजन मिलती है। स्वास्थ्य उत्तम रहता है। हृदय समुचित रूप से काम करने लगता है। रक्त संचार और श्वसन तन्त्र में काफी सीमा तक सुधार हो जाता है। स्नायु तन्त्र संतुलित और सुदृढ़ बनता है। पाचन क्रिया के अंग सही काम करने लगते है।

 

भस्त्रिका प्राणायाम

 

 

संस्कृत शब्द 'भस्त्रिका' का अर्थ है- धौंकनी। जब भी शक्तिपूर्वक वायु को अंदर स्वींचते या बाहर निकालते हैं तो लोहार की धौंकनी जैसी आवाज निकलती है। इसलिए इसका यह नाम पड़ा है। धौंकनी से वायु को आग में डालने से उसकी उष्णता बढ़ जाती है। इसी प्रकार यह प्राणायाम शारीरिक और मानसिक स्तर पर आन्तरिक ऊष्मा बढ़ाने के लिए वायुप्रवाह में वृद्धि करता है।

 

विधिः

किसी भी ध्यान स्थिति में सहजता से बैठें। चिन्मुद्रा में अपने हाथों को घुटनों पर टिका लें। सिर तथा मेरुदण्ड को ऊपर की ओर सीधा रखें। आँखें मूंद कर शरीर को शिथिल छोड़ें। अपना ध्यान पेट अर्थात् मणिपुर चक्र पर केन्द्रित करें। पूरी तरह से श्वास बाहर निकाल दें। प्रारम्भ करें। दोनों नासाछिद्रों से गहरी श्वास भरें और शक्तिपूर्वक श्वास बाहर छोड़ें। तनाव न लें। लौहार की धौंकनी की भाँति 10 से 12 बार शीघ्रता से श्वास भरें और छोड़ें। अभ्यास में कुछ आवाज आएगी। अन्त में गहरी श्वास लें। मूल बन्ध और जालन्धर बन्ध के साथ कुछ क्षण रूकें। अब बन्धमुक्त होकर श्वास बाहर छोड़ें। सामान्य श्वास स्थिति में रहें।

 

भस्त्रिका एक शक्तिप्रदायक प्राणायाम है। यह कपालभाति और उज्जायी का समन्वित रूप है। प्रारम्भ में कपालभाति और उज्जायी प्राणायाम करें, तब आपको भस्त्रिका प्राणायाम सरल लगेगा।

 

लाभ

इस प्राणायाम से गले की सूजन में आराम मिलता है। जठराग्नि बढ़ती है। नाक एवं छाती के रोग दूर होते हैं। दमा और क्षय रोग समाप्त होते हैं। भूख अच्छी लगती है। इससे ब्रह्मा, विष्णु और रूद्र ग्रंथि का भेदन होता है। कुंडलिनी सम्बन्धी ज्ञान प्राप्त होता है और तीव्रता से कुंडलिनी को जागृत किया जा सकता है। वात, पित्त एवं कफ की अधिकता से उत्पन्न समस्त रोग दूर होते हैं। शरीर को ऊष्मा प्राप्त होती है। पर्याप्त मात्रा में नाड़ी शुद्धिकरण होता है और अभ्यासकर्ता स्वस्थ बना रहता है।

 

अभ्यास सम्बन्धी निर्देश

किसी को भी अति नहीं करनी चाहिए। कुछ 6 चरणों तक अभ्यास कर सकते हैं और कुछ लोग अपनी क्षमता के अनुसार 12 तक जा सकते हैं। आप इस प्रकार से यह प्राणायाम कर सकते हैं। अन्त में कुछ परिवर्तन होता है। शीघ्रता से 20 बार श्वास लेने एवं छोड़ने के बाद, दायें नासाछिद्र से श्वास भरें। यथासम्भव श्वास को भीतर रोक कर रखें। सहजता से करें और फिर बायें नासाछिद्र से श्वास छोड़ दें। अब बायें नासाछिद्र से श्वास भरें। पहले की भाँति कुछ पल रोक कर रखें और फिर दायें नासाछिद्र से बाहर निकाल दें।

 

भस्त्रिका प्राणायाम के विविध प्रकार हैं जहाँ श्वास लेने के लिए केवल एक नासाछिद्र का प्रयोग किया जाता है और एक अन्य प्रकार में श्वास भरने और निकालने में बारी बारी से दोनों नासाछिद्रों का प्रयोग होता है।

 

जो लोग दीर्घावधि तक गहनतापूर्वक यह प्राणायाम करने के इच्छुक हों, उन्हें केवल खिचड़ी का सेवन करना चाहिए और प्रातः अभ्यास शुरू करने से पूर्व एनीमा अथवा बस्ति क्रिया करनी चाहिए।

 

सीमाएँ

कपालभाति प्राणायाम वाली ही।

 

 

शीतली प्राणायाम

 

 

विधि

सहज बैठें, पीठ- गर्दन- सिर को सीधा रखें। जिह्वा को होठों से थोड़ा सा बाहर निकालें और नली की भाँति मोड़ लें। इसी जिह्वा नली से श्वास लें। अंत में जिह्वा को सामान्य स्थिति में ले आयें। मुँह बन्द कर लें, नाक से श्वास बाहर निकाल दें। जिह्वा पर बर्फ जैसी शीतलता अनुभव होगी। यह केवल एक चरण है। 10 से 12 चरणों तक या अपनी आवश्यकता क्षमता के अनुसार बढ़ाकर करें।

 

सीमाएँ

निम्न रक्तचाप, श्वास सम्बन्धी विकार जैसे दमा, खांसी, जुकाम, श्लेष्मा की अधिकता से पीड़ित व्यक्तियों को यह प्राणायाम नहीं करना चाहिए। हृदय रोगी कर सकते हैं, लेकिन श्वास को रोकने का प्रयास न करें। इस अभ्यास से निचले ऊर्जा केन्द्रों की सक्रियता कम होती है, इसलिए जो दीर्घावधि से कब्ज रोग से पीड़ित हैं, वे इसे न करें। सामान्यतः इसे सर्दियों में तथा शीत वाले क्षेत्रों में नहीं करना चाहिए।

 

लाभ

यह प्राणायाम शरीर एवं मन को शीतलता प्रदान करता है। रक्त को शुद्ध करता है। क्षुधा - पिपासा शान्त करता है। इससे गुल्म रोग तथा अन्य पुराने रोगों की सूजन, बुरवार, क्षय रोग, अपच, विष तथा सर्पदंश का उपचार होता है। इस प्राणायाम का अभ्यास करने वाले पर सर्प-बिच्छु के काटने का कुप्रभाव नहीं पड़ेगा। शीतली कुम्भक सर्प की श्वास प्रक्रिया के समान है। अभ्यासकर्ता सर्प की भाँति अपनी त्वचा परिवर्तित कर सकता है।

 

 

सीत्कारी प्राणायाम

 

 

विधि

किसी भी ध्यान स्थिति में सहजता से बैठें। मुँह खोलें, जिह्वा को मोड़कर उसके सिरे से तालु का स्पर्श करें। दंतपक्तियाँ जोड़ कर रखें। दाँतो के बीच से धीरे धीरे गहरी श्वास लें। मुँह बन्द कर लें, नाक से श्वास बाहर निकाल दें। यह केवल एक चरण है। 10 से 20 चरणों तक कर सकते हैं।

 

सीमाएँ

शीतली प्राणायाम की भाँति । जिनके दाँत संवेदनशील हैं, कुछ दाँत नहीं है अथवा कृत्रिम दाँत हैं, उन्हें इसके स्थान पर शीतली प्राणायाम करना चाहिए।

 

 

लाभ

इसके लाभ शीतली प्राणायाम के समान हैं। इसका अतिरिक्त लाभ यह है कि अभ्यासकर्ता के दाँत - मसूड़े स्वस्थ और मजबूत रहते हैं। इस प्राणायाम में दक्षता प्राप्त करने से व्यक्ति कामदेव हो सकता है। काम का अर्थ है - इच्छा तथा देव का अर्थ है - स्वामी। इसलिए इस अभ्यास से व्यक्ति इच्छाओं पर नियन्त्रण कर पवित्र हो जाता है।

 

उज्जायी प्राणायाम

 

संस्कृत शब्द 'उज्जायी का अर्थ है - विजेता। इसका मूल 'जि' है जिसका अर्थ है विजय प्राप्त करना। उपसर्ग 'उद्' का अर्थ है-बांधना। इसे मानसिक श्वास प्रक्रिया कहते हैं क्योंकि यह प्राणायाम मन को सूक्ष्म अवस्थाओं में ले जाता है। इसका अभ्यास खेचरी मुद्रा के साथ किया जाता है।

 

विधि

मेरुदण्ड को सीधा रखते हुए ध्यान स्थिति में सहजता से बैठें। स्वाभाविक श्वास पर ध्यान दें। कुछ समय बाद अपना ध्यान गले पर केन्द्रित करें। अनुभव करने का प्रयास करें कि आप नासिकाओं से नहीं अपितु गले द्वारा अपनी श्वास ले और छोड़ रहे हैं। ज्यों ज्यों श्वास धीमी और गहरी होने लगे, धीरे धीरे कंठकूप (ग्लोटिस) को सिकोड़ लें ताकि सोते हुए बच्चे के धीमे खर्राटों की आवाज का अनुभव हो। यदि इस अभ्यास को सही ढंग से किया जाए तो अपने आप पेट सिकुड़ता-सा लगेगा। यह बिना प्रयास अपने आप होगा। श्वास भरना और निकालना धीमा, गहरा, लम्बा और नियत्रित हो। श्वास की आवाज भी बहुत ऊँची न हो। केवल अभ्यास करने वाले को ही सुनाई दे, किसी और को नहीं। केवल बहुत समीप बैठे व्यक्ति को ही सुनाई दे।

 

इस अभ्यास में पारंगत होने के पश्चात, खेचरी मुद्रा और बन्धसहित कुम्भक के साथ उज्जायी प्राणायाम किया जा सकता है। यह प्राणायाम बैठ कर, खड़े होकर या लेट कर किसी भी स्थिति में किया जा सकता है।

 

सीमाएँ

हृदय रोगियों को बन्धसहित कुम्भक के साथ यह अभ्यास नहीं करना चाहिए। अन्तर्मुस्खी एवं निराश - हताश व्यक्ति यह अभ्यास नहीं करें।

 

लाभ

इस प्राणायाम को शान्ति प्रदान करने वाले वर्ग में रखा है। शरीर पर इसका ऊष्मा देने वाला प्रभाव भी पढ़ता है। नाड़ी तंत्र शान्त होता है। मन भी सहज और शान्त हो जाता है। मानसिक स्तर पर व्यक्ति विश्राम अनुभव करता है। इससे नींद न आने का रोग दूर करने में सहायता होती है। इसे सोने से पहले शवासन की स्थिति में करना चाहिए। यह उच्च रक्तचाप वाले लोगों के लिए भी उपयोगी है। इससे शरीर की सप्त धातुओं रस, रक्त, मांस, गेद, अस्थि, मज्जा एवं वीर्य के विकारों को दूर किया जा सकता है।

 

सूर्य भेद प्राणायाम

 

सूर्य का सम्बन्ध पिंगला नाड़ी से है। भेद का अर्थ है-बीच से गुजरना अथवा जाग्रत करना। अतः इसका अर्थ है पिंगला नाड़ी के भीतर जाकर उसकी शुद्धि करना।

 

विधि

शरीर को सीधा रखते हुए किसी भी ध्यान की स्थिति में बैठें। चिन्मुद्रा में हाथों को घुटनों पर रखें। आँखें मूंद लें और शरीर को विश्राम अवस्था में ले आयें। प्राणायाम की मुद्रा में आयें और दायें हाथ की अनामिका से बायें नासाछिद्र को बन्द करके दायें नासाछिद्र से धीरे धीरे श्वास लें। फिर दोनों नासाछिद्रों को बन्द करके जालन्धर और मूल बन्ध लगायें। कुछ सैकण्ड के लिए रोके रखें। पहले मूल बन्ध और फिर जालन्धर बन्ध का त्याग करें। सिर को ऊपर उठाते हुए दायें हाथ के अंगूठे से दायें नासाछिद्र को बन्द करके बायीं ओर से धीरे धीरे श्वास छोड़े। यह एक चरण पूरा होगा। अपनी क्षमता के अनुसार बिना किसी तनाव के अभ्यास को 10 या इससे भी अधिक चरणों में दोहरायें।

 

सीमाएँ

हृदय रोग, उच्च रक्तचाप तथा मिर्गी के रोगियों को इस प्राणायाम का अभ्यास करने से बचना चाहिए।

 

लाभ

शरीर को ऊष्मा मिलती है, वात अथवा वायु तत्त्वों का असंतुलन कम होता है। यह पिंगला नाड़ी को सक्रिय करके प्राण शक्ति को जाग्रत करता है। इससे बहिर्मुखता एवं सक्रियता में वृद्धि होने से शारीरिक गतिविधियाँ प्रभावी रूप में सम्पन्न होती हैं और उदासीनता दूर होती है। आलसी लोगों तथा बाह्य जगत् से संवाद - व्यवहार करने में कठिनाई अनुभव करने वालों के लिए लाभप्रद है। यह ध्यान पूर्व का बहुत उत्तम प्राणायाम है जो मन को बहुत ही जागरूक बनाता है। इससे निम्न रक्तचाप, पेट के कीड़ों और वन्धयत्व के उपचार में सहायता मिलती है।

दिव्य योग

 

भ्रामरी प्राणायाम

 

 

भ्रमरी शब्द का अर्थ है मधुमक्खी। इसके अभ्यास में मधुमक्खी के गुंजन की आवाज उत्पन्न होती है। अतः यह नाम रखा गया है।

 

 

विधि

मेरुदण्ड को सीधा रखते हुए ध्यान स्थिति में सहजता से बैठें। कुछ समय के लिए आँखें मूंद कर पूरे शरीर को शिथिल छोड़ दें। पूरे अभ्यास में होंठ हल्के बंद हों और दंतपक्तियाँ एक दूसरे से अलग रहें। इससे मस्तिष्क में ध्वनि स्पन्दन स्पष्ट सुनायी देंगे। अब सुनिश्चित करें कि जबड़े शिथिल हैं। अपने कानों को तर्जनी अंगुलियों से बन्द करें। दोनों भौंहो के बीच ध्यान केन्द्रित करें जहां आज्ञा चक्र विद्यमान है। शरीर को हिलने न दें। नाक से श्वास भरें, मधुमक्खी के गुंजन की आवाज निकालते हुए धीरे धीरे श्वास बाहर छोड़ें। श्वास छोड़ते समय आवाज लगातार समरूप और एक समान रहे। श्वास बाहर छोड़ने की प्रक्रिया के अन्त में गहरी श्वास भरें और इस प्रक्रिया को दोहरायें।

 

सीमाएँ

भ्रामरी प्राणायाम लेट कर नहीं करना चाहिए। जिन लोगों को कानों का संक्रमण हो, उन्हें संक्रमण ठीक हो जाने तक इस प्राणायाम का अभ्यास नहीं करना चाहिए।

 

लाभ

भ्रामरी से मस्तिष्क का तनाव दूर होता है। क्रोध ओर नींद न आने की समस्या से छुटकारा मिलता है। रक्तचाप कम होता है। इससे शरीर की कोशिकाएँ ऊतक शीघ्र स्वस्थ होते हैं, अतः किसी भी शल्य चिकित्सा के पश्चात् इसे करना चाहिए। आवाज में सुधार होता है। गले के रोगों का उपचार होता है।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

बन्ध और मुद्राएँ

 

परिचय :

पिछले अध्यायों में हमने अन्य अभ्यासों के साथ साथ कुछ आसन और प्राणायाम बताए हैं। अब हम मुद्राओं और बन्धों की बात करते हैं। ये मांसपेशियों और स्नायुओं के विविध बन्धनस्वरूप हैं। कुम्भक प्रक्रिया के दौरान इन सुरक्षा विधियों का प्रयोग किया जाता है। हठयोग में बन्ध और मुद्राएँ उन्नत श्रेणी के अभ्यास हैं। इनसे भावनाओं पर नियंत्रण करने तथा मन को स्थिर करने में सहायता प्राप्त होती है।

 

बन्धों के प्रकार

      बन्ध चार प्रकार के हैं - जालन्धर, मूल, उड्डीयान और महाबन्ध। महाबन्ध पहले के तीन बन्धों का समन्वय है। ये तीनों बन्ध शरीर की तीन ग्रंथियों को प्रभावित करते हैं। मूलबन्ध ब्रह्म ग्रथि से सम्बन्धित है। उड्डीयान का सम्बन्ध विष्णु ग्रंथि से है और जालन्धर बन्ध रूद्र ग्रथि से जुड़ा है। ये ग्रथियाँ सुषुम्ना नाड़ी में प्राण के मुक्त प्रवाह को रोकती हैं और इस प्रकार चक्र जागरूकता और कुंडलिनी जागरण में रूकावट डालती है।

 

1. जालन्धर बन्धः

इस बन्ध का प्रयोग, श्वास भरने के बाद अन्तःकुम्भक में श्वास को कंठकूप (ग्लोटिस) से नीचे जाने से रोकने के लिए किया जाता है। धीरे धीरे और गहरी श्वास भरें और श्वास को भीतर रोक लें। ऐसा करते समय सिर को अपने सामने की ओर झुकायें।

ठोड़ी को छाती के साथ दबा लें। भुजाओं को नीचे रखते हुए हाथों से अपने घुटनों को दबाकर रखें, साथ ही कन्धों को ऊपर और सामने की ओर ले जायें। इससे गर्दन पर पड़ा दबाव सघन हो जाएगा। अन्तिम स्थिति में तब तक रूकें, जब तक श्वास को सहजता से रोक सकें। तनाव मत लें। धीरे धीरे बन्ध से मुक्त हों, सिर को ऊपर की तरफ ले जाकर श्वास बाहर छोड़े।

 

2. मूल बन्धः

सिद्धासन में बायीं एड़ी से श्रोणी भाग पर दबाव डालें। दायीं एड़ी को प्रजनन अंग पर लायें। श्वास भीतर लेने के बाद जालन्धर बन्ध लगायें और गुदाभाग एवं मूत्रेन्द्रिय का यथासम्भव संकुचन करें। तनाव मुक्त रहें। यह अन्तिम बन्ध होगा। जब तक अपनी श्वास को रोक सकें, तब तक इसी अवस्था में रहें। धीरे धीरे मूल बन्ध का त्याग करें। जालन्धर बन्ध भी छोड़ें। सिर को ऊपर की ओर उठायें और श्वास बाहर छोड़े ।

 

 

3. उड्डीयान बन्धः

 

संस्कृत में उड्डी का अर्थ है- ऊपर उड़ना। ऐसा कहा जाता है कि जो योगी नियमित रूप से यह अभ्यास करता है, उसके प्राण, सूक्ष्म केन्द्रों के माध्यम से ऊर्ध्व गति करने लगते हैं। इसका महत्त्व श्वास को रोकने में है, इसलिए इसे बन्ध कहते हैं।

 

मुँह से, आवाज के साथ श्वास बाहर निकालें। यथासम्भव फेफड़ों को खाली कर दें। श्वास को बाहर रोक कर रखें। अपनी पेट की मांसपेशियों को अन्दर की ओर तथा ऊपर की ओर सिकोड़ें। पेट का संकुचन करते हुए यथा सम्भव श्वास को बाहर ही रोकें। तनावमुक्त रहें। धीरे धीरे बन्धमुक्त होकर श्वास भरें।

 

4. महाबन्धः

 

 

यह अभ्यास बाह्य कुम्भक में अर्थात् श्वास को बाहर रोक कर किया जाता है। मुँह से शक्तिपूर्वक श्वास छोड़े। श्वास को बाहर ही रोक कर रखें और क्रमशः जालन्धर, उड्डीयान और मूल बन्ध लगायें। बिना तनाव के यथासम्भव अवधि तक बन्ध लगाकर रखें। फिर मूल, उड्डीयान और जालन्धर बन्ध, इसी क्रम में बन्ध हटायें। सिर को ऊपर कर धीरे धीरे श्वास भरें। यह एक चरण पूरा होगा।

 

मुद्राएँ :

मुख्यतः तीन क्षेत्रों में मुद्राओं का प्रयोग होता है:

 

क) नृत्य जहाँ शारीरिक अंगों के चलन से भावनाएँ अभिव्यक्त की जाती हैं

ख) आनुष्ठानिक पूजा - अर्चना विधियों में

ग) हठयोग में, मन की स्थिरता में सहायक रूप में

 

हम अपने आपको हठ योग तक सीमित रखेंगे जिसमें आसन, प्राणायाम, षट् क्रिया, बन्ध और मुद्राएँ सम्मिलित हैं। बहुत से योगग्रन्थ बन्ध और मुद्रा को एक ही इकाई मानते हैं।

 

जो मुद्राएँ हमने योगसत्र में अभ्यास में लाई हैं, वे हैं- अश्विनी मुद्रा, षन्मुखी मुद्रा और योग मुद्रा। अश्विनी मुद्रा शरीर के निचले केन्द्रों में विद्यमान आध्यात्मिक शक्तियों को जगाती है। महिलाओं के लिए गर्भावस्था में अत्यधिक उपयोगी है। इससे मूत्र रोगों को ठीक करने में सहायता मिलती है। विपरीतकरणी आसन में अश्विनी मुद्रा करने से यह गर्भाशय बाहर निकलने के रोग और बवासीर के उपचार में सहायक होती है।

 

षन्मुखी मुद्राः

 

 

यह अगली महत्वपूर्ण मुद्रा है। मन को ध्यान की स्थिति में लाने में यह अति उपयोगी है। यह नेत्र, कर्ण, नासिका एवं त्वचा आदि इन्द्रियों से प्राप्त संवेदनाओं से मन का सम्बन्ध विच्छेद करती है। किसी मन्त्र के साथ श्वास के अन्तर्नाद पर मन एकाग्र करने से ध्यान सुगम हो जाता है। सिरदर्द और तनावग्रस्त लोगों के लिए बहुत उपयोगी मुद्रा है।

 

योग मुद्रा :

 

 

1. प्रारम्भिक स्थिति में आयें और धीरे धीरे पद्मासन / वज्रासन की स्थिति में बैठें।

 

2. हाथ पीछे लाकर एक कलाई को दूसरे हाथ से पकड़ें। श्वास भरें, मेरुदण्ड और गर्दन को ऊपर की ओर उठायें।

 

3. श्वास छोड़ें, आगे झुकें तथा सिर को भूमि पर लगाये। श्वास भरते हुए सिर गर्दन आदि ऊपर उठायें और शुरू वाली स्थिति में लौटें।

 

अवधि

कुछ सैकण्ड के लिए इसी स्थिति में रहें और केवल 2 से 4 बार दोहरायें। ध्यान श्वासों पर और मणिपुर चक्र पर केन्द्रित करें।

 

सीमाएँ

साइटिका, उच्च रक्तचाप, श्रोणी भाग में सूजन और पेट के रोगी इसे न करें।

 

लाभ

मात्र इसी मुद्रा से ही पेट के अंगों की मालिश हो जाती है और अपच तथा कब्ज के रोग दूर किए जा सकते हैं। इससे मेरुदण्ड में खिंचाव उत्पन्न होने से इसके स्नायु स्वस्थ रहते हैं। यह तनाव, क्रोध को दूर करके मन को शान्ति प्रदान करती है।

 

 

ध्यान रखें

नितम्बों को भूमितल से ऊपर न उठने दें। आगे की ओर झुकते समय पीठ को सीधा रखें। हमारे उपयोग में आने वाली गौण मुद्राएँ हैं:

 

चिन्मय मुद्रा, आदि मुद्रा, ब्रह्म मुद्रा और प्राणायाम मुद्रा या विष्णु मुद्रा ।

 

ध्यान

पतञ्जलि ऋषि के योग सूत्रों के अनुसार ध्यान सातवां अंग है। आठवां अंग समाधि है। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार आदि को बहिरंग योग अथवा बाह्य योग कहा जाता है। ध्यान और समाधि को सामान्यतः संयम अथवा अन्तरंग योग कहा जाता है। तत्र चित्त एकाग्रता धारणाः - मन को किसी एक बिन्दु पर कुछ समय के लिए टिका लेने को धारणा अथवा एकाग्रता कहते हैं। इसकी कई विधियाँ हैं जो अन्त में ध्यान तक पहुंचती हैं।

 

तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्:

 

 

किसी एक बिन्दु पर दीर्घावधि तक एकाग्र रहने का नाम ध्यान है। मन ही साधन है जिससे हम ध्यान करते हैं। ध्यान करने की मुख्यतः दो विधियाँ हैं - 1) किसी एक विचार या बिन्दु पर निरन्तर चिन्तन जिसमें अन्य विचारों का त्याग किया जाता है। 2) मन को सभी प्रकार के विचारों से मुक्त रखना। पहली विधि में व्यक्ति को किसी एक विषय पर मन को टिकाना चाहिए अथवा गुरु द्वारा प्राप्त मन्त्र का जप करते रहना चाहिए। जब दीर्घावधि तक निरन्तर अभ्यास से मन्त्र पर भावपूर्ण एकाग्रता प्राप्त होती है तो मन स्वतः ही ध्यान की स्थिति में आ जाता है।

 

दूसरी विधि में व्यक्ति को सहज स्थिति में बैठना चाहिए। आँखें मूंद कर सिर से पैरों तक शरीर को शिथिल छोड़ देना चाहिए। स्वाभाविक रूप से श्वास के प्रति जागरूक रह कर और मन की आंतरिक एवं बाह्य गतिविधियों के साक्षी के रूप में दीर्घावधि तक सतत अभ्यास करने से मन विचारमुक्त हो जाएगा। प्रारम्भ में व्यक्ति को सजग सतर्क रहना चाहिए कि वह निद्रा में न चला जाए। निष्ठा, गम्भीरता, मनसा - वाचा - कर्मणा पवित्रता ध्यानाभ्यास में सफलता प्राप्ति के महत्वपूर्ण घटक हैं।

 

निष्कर्ष

योग का उद्देश्य व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक पक्षों के बीच सुखद समन्वय बिठाना है। इस पुस्तक के पहले पृष्ठों में हमने विश्राम की विधि का बैठने, लेटने, खड़े होने के विभिन्न आसनों में वर्णन किया है जो इनमें सांमजस्य लाती है। योग एक दिन में एक या दो घण्टे अभ्यास की बात नहीं है, यह चौबीसों घंटे की श्रेष्ठ वैज्ञानिक जीवन विधि है। पूरे दिन में आप तीनों में से किसी न किसी एक स्थिति में रहते हैं। इसलिए इनके कुशल प्रबन्धन से वांछनीय सांमजस्य प्राप्त होगा। योगस्थ कुरु कर्माणि योग में स्थित रहकर सभी प्रकार के कर्तव्य-कर्म करने चाहिए। योगः कर्मसु कौशलम् कर्म में कुशलता ही योग है।

 

कौशल से यहां अर्थ है - सर्वोच्च सत्य के साथ एकरूपता। "तस्मात् योगी भवार्जुन" सदैव योगी बने रहें, यह भगवान् श्री कृष्ण का संदेश है। जीवन को योग का रूप दें ताकि जीवन की प्रत्येक गतिविधि में आपको सफलता प्राप्त हो। नियमित अभ्यास से, मानसिक रूप से हर समय जागरूक रह कर तथा बुद्धि एवं कौशल द्वारा आप योगी बन सकते हैं तथा जिस किसी परिस्थिति में आप रह रहे हों, शान्ति और आनन्द का अनुभव कर सकते हैं।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

विश्व-प्रार्थना

 

हे स्नेह और करुणा के आराध्य देव!

तुम्हें नमस्कार है, नमस्कार है।

तुम सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान् और सर्वज्ञ हो।

तुम सच्चिदानन्दधन हो। तुम सबके अन्तर्वासी हो।

 

हमें उदारता, समदर्शिता और मन का समत्व प्रदान करो।

श्रद्धा, भक्ति और प्रज्ञा से कृतार्थ करो।

हमें आध्यात्मिक अन्तःशक्ति का वर दो,

जिससे हम वासनाओं का दमन कर मनोजय को प्राप्त हों।

हम अहंकार, काम, लोभ, घृणा, क्रोध और द्वेष से रहित हों।

हमारा हृदय दिव्य गुणों से परिपूरित करो।

 

हम सब नाम-रूपों में तुम्हारा दर्शन करें।

तुम्हारी अर्चना के ही रूप में इन नाम-रूपों की सेवा करें।

सदा तुम्हारा ही स्मरण करें।

सदा तुम्हारी ही महिमा का गान करें।

तुम्हारा ही कलिकल्मषहारी नाम हमारे अधर-पुट पर हो।

सदा हम तुममें ही निवास करें।

 

-स्वामी शिवानन्द