ध्यानयोग
‘DHYANA YOGA'
का हिन्दी अनुवाद
लेखक
श्री स्वामी शिवानन्द
MEDITATE LOVE REALIZE SERVE THE DIVINE LIFE SOCIETY
अनुवादक
स्वामी रामराज्यम्
प्रकाशक
द डिवाइन लाइफ सोसायटी
पत्रालय : शिवानन्दनगर- २४९१९२
जिला : टिहरी-गढ़वाल, उत्तराखण्ड (हिमालय), भारत
www.sivanandaonline.org, www.dishq.org
प्रथम हिन्दी संस्करण : १९८७
द्वितीय हिन्दी संस्करण १९९६
तृतीय हिन्दी संस्करण : २००६
चतुर्थ हिन्दी संस्करण : २०१०
पंचम हिन्दी संस्करण : २०१५
षष्ठ हिन्दी संस्करण : २०१८
(१,००० प्रतियाँ)
© द डिवाइन लाइफ ट्रस्ट सोसायटी
ISBN 81-7052-064-9
HS 31
PRICE: ₹130/-
'द डिवाइन लाइफ सोसायटी, शिवानन्दनगर' के लिए स्वामी पद्मनाभानन्द द्वारा प्रकाशित तथा उन्हीं के द्वारा 'योग-वेदान्त फारेस्ट एकाडेमी प्रेस, पो. शिवानन्दनगर- २४९१९२, जिला टिहरी गढ़वाल, 'उत्तराखण्ड' में मुद्रित ।
For online orders and Catalogue visit: disbooks.org
इस पुस्तक का चतुर्थ संस्करण पाठकों के हाथों में सौंपते हुए हमें बहुत प्रसन्नता हो रही है। मूल अँगरेजी पुस्तक 'DHYANA YOGA' के समान यह अनुवाद भी अति लोकप्रिय रहा है। इसकी लोकप्रियता का प्रमुख कारण है इसमें उल्लिखित ध्यान-सम्बन्धी निर्देशों की व्यावहारिकता । पूज्य श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज ने इन निर्देशों को ध्यान के व्यक्तिगत अनुभवों की कसौटी पर जाँचा-परखा है। ये निर्देश व्यावहारिक तो हैं ही, साथ ही ये ध्यानाभ्यास के सम्पूर्ण विषय-क्षेत्र को भी प्रस्तुत करते हैं।
इस पुस्तक में स्थान-स्थान पर ध्यानाभ्यास की सफलता के चरमोत्कर्ष का उल्लेख किया गया है। आशा है, सत्यान्वेषी सुधी पाठक इस चरमोत्कर्ष के बिन्दु तक पहुँचने की ललक से भर कर ध्यानाभ्यास में रत हो जायेंगे। इस पुस्तक के प्रकाशन की सार्थकता इसी में है।
- द डिवाइन लाइफ सोसायटी
अनुवाद - कार्य में अनुवादक के मौलिक विचारों का कोई विशेष योगदान नहीं होता। वह मूल-भावों को आत्मसात् करता हुआ आगे बढ़ता है तथा यथासम्भव इस ढंग से प्रस्तुत करता है कि अनुवाद मूल की ही तरह लगे।
इस दृष्टि से मेरे पास अपनी बात कहने को कुछ भी नहीं है। हाँ, इतना अवश्य कहूँगा कि इस असाधारण पुस्तक से सम्बद्ध रह कर जिन गहराइयों में प्रवेश करने का अवसर मुझे प्राप्त हुआ है, उससे मैं गौरवान्वित हुआ हूँ।
ध्यान के रहस्यों का उद्घाटन लेखक परम पूज्य श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज ने निःसंकोच हो कर किया है। इस कारण ध्यान के जो रहस्य कन्दराओं की कारा में बन्द रहते, वे परम तत्त्व के अन्वेषी साधकों की झोली में आ पड़े हैं।
प्रवाह की दृष्टि से कहीं-कहीं विचारों का क्रम परिवर्तित कर दिया गया है। मूल पुस्तक की पुनरावृत्तियों को ज्यों-का-त्यों रखा गया है; क्योंकि वे मुख्य-मुख्य विचारों पर जोर देने में सहायक सिद्ध हुई हैं।
अँगरेजी ग्रन्थ के मूल भावों का अवगाहन करते समय मैं चिन्तन-मनन के जिन स्तरों पर पहुँचा हूँ, उन स्तरों पर पाठक पहुँच कर मेरी तरह अनुभूति कर सकें—यह मेरा प्रयास आद्योपान्त रहा है।
- अनुवादक
तैल-धारा के सतत प्रवाह के सदृश किसी एक ही विचार के प्रवाह को बनाये रखना ही ध्यान है। ध्यान दो प्रकार का होता है—मूर्त और अमूर्त। किसी चित्र या मूर्त पदार्थ पर ध्यान करना मूर्त ध्यान है। किसी अमूर्त विचार या धैर्य-जैसे किसी गुण पर ध्यान करना अमूर्त ध्यान है। प्रारम्भ में साधक को मूर्त ध्यान का अभ्यास करना चाहिए। कुछ साधकों के लिए मूर्त ध्यान की अपेक्षा अमूर्त ध्यान करना अधिक सरल होता है।
साधकों को प्रत्याहार और धारणा में सुस्थित होने के बाद ही ध्यान का प्रारम्भ करना चाहिए। यदि इन्द्रियाँ उछल-कूद मचा रही हों, मन किसी बिन्दु पर टिक नहीं पा रहा हो, तो दीर्घ काल तक अभ्यास करने पर भी सफलतापूर्वक ध्यान नहीं किया जा सकता। साधना-पथ पर क्रम से धीरे-धीरे आगे बढ़ना चाहिए। ध्येय पर मन को टिकाने का प्रयास करते हुए उसे (मन को) बार-बार भटकने से रोकना चाहिए। भटकने की इसकी प्रकृति पर नियन्त्रण प्राप्त करना आवश्यक है। मन 'अनावश्यक कामनाओं को हटा देना चाहिए। कामना-रहित व्यक्ति ही शान्त हो कर ध्यान का अभ्यास कर सकता है। ध्यान के अभ्यास की दो महत्त्वपूर्ण पूर्वापेक्षाएँ हैं—सात्त्विक हलका आहार तथा ब्रह्मचर्य पालन ।
चेतना दो प्रकार की होती है—संकेन्द्रित चेतना तथा औपान्तिक (marginal) चेतना । जब आप त्रिकुटी पर ध्यान करते हैं, उस समय संकेन्द्रित चेतना क्रियाशील रहती है। ध्यान करते समय शरीर पर बैठी हुई मक्खी को जब आप हाथ उठा कर भगाते हैं, तब उस समय मक्खी के प्रति आपकी सजगता औपान्तिक चेतना है। क्षण मात्र के लिए भी अग्नि के सम्पर्क में आया हुआ बीज कभी अंकुरित नहीं हो सकता, भले ही उसे उर्वरा भूमि में बो दिया जाये। इसी प्रकार कुछ देर के लिए ध्यान में रत जो मन अस्थिर होने के कारण ऐन्द्रिय पदार्थों की तरफ दौड़ने लगता है, उससे योग-साधना में सफलता प्राप्त नहीं की जा सकती।
प्रारम्भिक अभ्यासियों को प्रतिदिन वेदान्त के कुछ महत्त्वपूर्ण कथनों का स्मरण करना चाहिए। प्रवाहित होने वाली विचार-तरंग को प्रोत्साहित करें। तब मन चोर की तरह लुकता - छिपता फिरेगा और अन्त में काबू में आ जायेगा।
योगवासिष्ठ के अनुसार, “नये अभ्यासी के लिए उचित होगा कि वह अपने मन के आधे भाग को सुख-भोग के पदार्थों से, एक चौथाई भाग को दर्शनशास्त्र तथा शेष एव चौथाई भाग को गुरु-भक्ति से परिपूर्ण कर ले। जब कुछ अभ्यास हो जाये तब आधे भाग को गुरु भक्ति से, एक चौथाई भाग को सुख भोग के पदार्थों से तथा शेष भाग क दर्शनशास्त्र के अर्थ-बोध से भर लेना चाहिए। साधना में निपुणता प्राप्त करने के पश्चात उसे प्रतिदिन अपने मन के आधे भाग को दर्शनशास्त्र के ज्ञान तथा परम त्याग से और शेष आधे भाग को ध्यान तथा गुरु-भक्ति से परिपूरित कर लेना चाहिए।” अन्ततः आप प्रतिक्षण ध्यान में रहने की स्थिति में पहुँच जायेंगे। सच्चिदानन्द ब्रह्म का सतत ध्यान करें तथा जीते-जी परम निष्कल्मष पद प्राप्त कर लें।
हे स्नेह और करुणा के आराध्य देव !
तुम्हें नमस्कार है, नमस्कार है।
तुम सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान् और सर्वज्ञ हो।
तुम सच्चिदानन्दघन हो ।
तुम सबके अन्तर्वासी हो ।
हमें उदारता, समदर्शिता और मन का समत्व प्रदान करो।
श्रद्धा, भक्ति और प्रज्ञा से कृतार्थ करो ।
हमें आध्यात्मिक अन्तःशक्ति का वर दो,
जिससे हम वासनाओं का दमन कर मनोजय को प्राप्त हों।
हम अहंकार, काम, लोभ, घृणा, क्रोध और द्वेष से रहित हों।
हमारा हृदय दिव्य गुणों से परिपूरित करो।
हम सब नाम-रूपों में तुम्हारा दर्शन करें।
तुम्हारी अर्चना के ही रूप में इन नाम-रूपों की सेवा करें।
सदा तुम्हारा ही स्मरण करें।
सदा तुम्हारी ही महिमा का गान करें।
तुम्हारा ही कलिकल्मषहारी नाम हमारे अधर-पुट पर हो।
सदा हम तुममें ही निवास करें।
-स्वामी शिवानन्द
एकाग्रता का अर्थ है मन को किसी विशेष पदार्थ पर टिकाना। उस पदार्थ के ज्ञान का निर्बाध प्रवाह ध्यान है। दूसरे शब्दों में, एकाग्रता के विषय के नियमित चिन्तन-प्रवाह को ध्यान कहते हैं। एकाग्रता के बाद ध्यान की स्थिति आती है। एकाग्रता ध्यान में विलय हो जाती है। ध्यान से मन के द्वार खुलते हैं और तब अन्तर्प्रज्ञा तथा अन्य अनेक क्षमताएँ प्रकाश में आती हैं। ध्यान से किसी भी वस्तु की प्राप्ति हो सकती है। ध्यान की स्थिति में सांसारिक विचार खो जाते हैं। अष्टांगयोग के अन्तर्गत योग का सप्तम अंग ध्यान है।
ध्यान तथा अन्य आध्यात्मिक विधियों के अभ्यास के लिए एक अलग कक्ष होना चाहिए। उसे भगवान् का मन्दिर ही मानें। किसी को उस कक्ष में न जानें दें। पवित्रता और श्रद्धा से परिपूर्ण मन से कमरे में प्रवेश करें। ईर्ष्या, कामुकता, लोभ तथा क्रोध के विचारों को कक्ष की चहारदीवारी के अन्दर फटकने न दें। सांसारिक विषयों पर चिन्तन या बातचीत न करें। कारण यह है कि कोई भी शब्द जो बोला जाता है, कोई भी विचार जो मन में आता है, कोई भी कार्य जो किया जाता है, वह नष्ट नहीं होता। वह कक्ष के चारों ओर के आकाश के सूक्ष्म संस्तरों पर प्रतिबिम्बित होता है और निश्चित रूप से मन को प्रभावित करता है।
ध्यान के कक्ष को महान् सन्तों, पैगम्बरों तथा सद्गुरुओं के प्रेरक चित्रों से सुसज्जित करें। कक्ष में किसी प्रमुख स्थान पर अपने इष्टदेवता-ईसामसीह, कृष्ण, शंकर, देवी आदि का चित्र रखें। यह चित्र पूर्व या उत्तर दिशा की ओर हो। इष्टदेवता के सामने अपना आसन बिछा लें। हाथ, पैर, मुँह आदि धो लेने के पश्चात् ही कक्ष में प्रवेश करें। प्रवेश करने के तुरन्त बाद कर्पूर या सुगन्धित अगरबत्ती जलायें। इष्टदेवता के सम्मुख आसन पर बैठ जायें। अपने निकट ही भगवद्गीता, उपनिषद्, वेदान्तसूत्र, रामायण-जैसे सद्ग्रन्थ रख लें। भगवन्नाम का उच्चारण करें या भजन गायें। इसके बाद एकाग्रता या ध्यान का अभ्यास करें।
ध्यान के लिए प्रत्येक दृष्टि से आदर्श स्थान ढूँढ पाना कठिन है। हर स्थान में अच्छाइयाँ और बुराइयाँ होती हैं। अतः दूसरे स्थानों की तुलना में जो स्थान आपको सर्वाधिक उपयुक्त लगे, उसी का चयन कर लें। एक बार स्थान का चयन करने के बाद उसे दोबारा कभी न बदलें। कठिनाई उपस्थित होने पर भी न बदलें। कठिनाइयों का सामना करें। भारत में ऋषिकेश, हरिद्वार, उत्तरकाशी, बदरीनारायण, गंगोत्तरी, वृन्दावन, वाराणसी, नासिक तथा अयोध्या ध्यान के लिए सर्वोत्तम स्थान हैं।
ध्यान के लिए सर्वोत्तम समय निःसन्देह ब्राह्ममुहूर्त (प्रातः काल चार से छह बजे के बीच का समय है)। यह वह समय होता है जब नींद पूरी हो जाने के बाद मन बिलकुल शान्त हो जाता है तथा अपेक्षाकृत अधिक पवित्र रहता है। उस समय यह कोरे कागज की तरह होता है। इसी तरह के मन को मनचाहे ढंग से बदला जा सकता है। इस समय वातावरण भी शुद्ध और सात्त्विक रहता है।
प्रारम्भ में आप दो बार ध्यान कर सकते हैं—प्रातः ४ से ५ बजे तक तथा सायंकाल ७ से ८ बजे तक। जैसे-जैसे अभ्यास होता जाये, अपने विवेक का प्रयोग करते हुए आप अभ्यास करने की अवधि धीरे-धीरे बढ़ा सकते हैं। साथ ही दिन में तीसरी बार भी (पूर्वाह्न १० या ११ बजे के बीच) ध्यान के लिए बैठ सकते हैं।
किसी सुविधाजनक आसन में ध्यान के लिए बैठ जायें। शिर, गरदन और धड़ को सीधा रखें। आँखें बन्द कर लें। अब नासिकाग्र, भ्रूमध्य-बिन्दु, हृदय-कमल या शिर के सबसे ऊपरी भाग पर मन को एकाग्र करें। एकाग्रता-बिन्दुओं पर अभ्यास करने के बाद जिस एक बिन्दु पर मन को एकाग्र करना सर्वाधिक अनुकूल लगे, उसका चयन कर लें। मान लें कि आपने हृदय-कमल के एकाग्रता-बिन्दु का चयन किया है। अब आपको हृदय-कमल के अतिरिक्त अन्य किसी एकाग्रता - बिन्दु की बात नहीं सोचनी चाहिए । जब ऐसा होगा, तभी आध्यात्मिक विकास की गति तेज होगी।
ध्यान दो प्रकार का होता है—सगुण ध्यान और निर्गुण ध्यान। कृष्ण, शिव, भगवान् राम, ईसामसीह आदि का ध्यान करना सगुण ध्यान है। यह ईश्वर का उसके गुणों तथा रूप-सहित ध्यान करना है। सगुण ध्यान करते समय सम्बन्धित ईश्वर के नाम का जप भी किया जाता है। आत्म-तत्त्व पर ध्यान निर्गुण ध्यान कहलाता है। वेदान्ती साधक निर्गुण ध्यान करते हैं। 'ॐ', 'सोऽहम्', 'शिवोऽहम्', 'अहं ब्रह्मास्मि' और 'तत् त्वम् असि' पर ध्यान करना निर्गुण ध्यान है।
दहकती हुई अग्नि में लोहे की एक शलाका डाल दें। थोड़ी देर में लोहा आग की तरह लाल हो जायेगा। अब इसे आग से निकाल लें। थोड़ी देर में लाल रंग विलीन हो जायेगा। यदि आप चाहें कि इसका लाल रंग बना रहे, तब इसे सदैव आग में ही रखना होगा। इसी प्रकार यदि आप चाहते हैं कि मन ब्रह्मज्ञान की अग्नि से आवेशित रहे, तो इसे अनवरत और गहन ध्यान की सहायता से इस अग्नि के सम्पर्क में रखना होगा। दूसरे शब्दों में आपको ब्रह्म-चेतना का प्रवाह सतत बनाये रखना होगा।
ध्यान सर्वाधिक प्रभावोत्पादक मानसिक तथा तन्त्रिका प्रभावी टानिक है। ध्यान की पवित्र स्फुरणाएँ शरीर की प्रत्येक कोशिका में व्याप्त उन विभिन्न रोगों से मुक्ति दिलाती हैं, जो मानव शरीर को विरासत में मिले हैं। जो साधक नियमित रूप से ध्यान करते हैं, उन्हें दवाओं पर धन खर्च नहीं करना पड़ता। ध्यान करते समय जो शक्तिशाली शामक तरंगें उत्पन्न होती हैं, वे मन, स्नायुओं, कोशिकाओं और विभिन्न अंगों पर बहुत अनुकूल प्रभाव डालती हैं। ईश्वर के चरण-कमलों से दैवी ऊर्जा तैलधारा-सदृश प्रवाहित हो कर ध्यान के अभ्यासी तक पहुँचने लगती है।
यदि आप आधा घण्टे तक ध्यान करें, तो इसके प्रभाव से प्राप्त शान्ति और आध्यात्मिक शक्ति से आप एक सप्ताह तक अपने दैनिक जीवन की समस्याओं से जूझ सकेंगे। ऐसा हितकारी प्रभाव होता है ध्यान का! दैनिक जीवन में आप विचित्र स्वभावों वाले तरह-तरह के लोगों के सम्पर्क में आते हैं। उनके साथ निर्वाह करने हेतु आप ध्यान के द्वारा अपेक्षित शक्ति और शान्ति प्राप्त करें तथा सब प्रकार की चिन्ताओं से जायें । मुक्त हो
बुद्धिमान् व्यक्ति सतत ध्यान की तेज धार वाली तलवार से अहं की ग्रन्थि काट डालते हैं। इसके बाद वे आत्मज्ञान, आत्म-साक्षात्कार या पूर्ण बोध को प्राप्त करते हैं। उनके कर्म-बन्धन कट जाते हैं। अतः सतत ध्यानमग्न रहें। परमानन्द प्राप्त करने का यही सर्वोत्तम उपाय है। साधना के प्रारम्भ में लक्ष्य से मन इधर-उधर भागेगा और इस कारण निराशा हो सकती है। थकान भी महसूस हो सकती है। बाद में मन एक बिन्दु पर टिकने लगेगा। तब आप परमानन्द के सागर में समा जायेंगे।
नियमित ध्यान करने से अन्तर्प्रज्ञा का उदय होता है तथा मन शान्त और स्थिर हो जाता है। भाव-विभोर हो कर आह्लादित मन से साधक परम पुरुष के सम्पर्क में आता है। ध्यानयोग के मार्ग पर नियमित चलने से सभी प्रकार के भ्रम और सन्देह स्वयं समाप्त हो जाते हैं। फिर योग-निसेनी के अगले डण्डे पर पैर रखने के रास्ते की जानकारी आपको सहज ही मिलने लगती है। एक रहस्यमय आन्तरिक वाणी आपका मार्ग-निर्देशन करने लगती है। साधक गण! आप इस वाणी को ध्यानपूर्वक सुनें।
जब आपको आध्यात्मिक बोध की दमक दिखायी पड़े, भयभीत न हो जायें। यह असीम आनन्द का एक नया अनुभव होगा। पीछे नहीं लौटें। ध्यान का अभ्यास करना बन्द न करें। अभी तो सत्य की एक झलक मात्र देखने को मिली है। यह चरम सत्य थोड़े ही है। अभी तो आप एक नये आधार-स्थल पर खड़े हैं। यहाँ से ऊपर चढ़ने का प्रयत्न करें और सभी प्रलोभनों का संवरण करते हुए भूमा (असीम) के लक्ष्य तक पहुँच जायें। तब आप अनश्वरता के अमृत का पान करेंगे। यही चरमावस्था है। अब आप शाश्वत विश्राम की स्थिति में होंगे। अब आपको और अधिक ध्यान करने की आवश्यकता नहीं होगी। यही आपका चरम लक्ष्य है।
आपके अन्दर अनन्त प्रसुप्त शक्तियाँ और अव्यक्त क्षमताएँ हैं। इसका ज्ञान आपको नहीं है। ध्यान के अभ्यास द्वारा इन प्रसुप्त शक्तियों-क्षमताओं को जाग्रत करें। आप अपनी इच्छा-शक्ति को विकसित करें तथा मन और इन्द्रियों को अपने नियन्त्रण में रखें। अपने को शुद्ध रखते हुए ध्यान का नियमित अभ्यास करें। तभी आप महामानव या ईश- मानव बन सकेंगे।
सिद्धि की तरह की कोई वस्तु नहीं हुआ करती। साधारण व्यक्ति उच्च आध्यात्मिक तथ्यों से अपरिचित रहता है। वह विस्मृति में ही डूबा रहता है। उच्च अनुभवातीत ज्ञान के द्वार उसके लिए बन्द रहते हैं। इसीलिए वह किसी भी असाधारण घटना को सिद्धि समझने लगता है। परन्तु योगी, जो योग के आलोक में सब-कुछ देख-समझ चुका होता है, सिद्धियों के अस्तित्व को मान्यता नहीं देता। गाँव वाला पहली बार हवाई जहाज देखता है, तब आश्चर्य में डूब जाता है। उसी प्रकार सांसारिक व्यक्ति जब पहली बार कोई असाधारण दृश्य देखता है, तब हक्का-बक्का रह जाता है।
प्रत्येक मानव में विभिन्न प्रकार की क्षमताएँ निहित हैं। वह ज्ञान और शक्ति का बारूदखाना है। जैसे-जैसे उसका क्रम विकास होता जाता है, उसकी शक्तियाँ, क्षमताएँ और गुण प्रकट होते जाते हैं। अब वह अपने वातावरण को परिवर्तित कर सकता है तथा दूसरों को प्रभावित कर सकता है। वह दूसरों के मन को अपने वश में कर सकता है। वह बाह्य तथा आन्तरिक प्रकृति पर विजय प्राप्त कर सकता है। वह अति-चेतना की स्थिति में पहुँच सकता है। कल्पना करें कि किसी अँधेरे कमरे में किसी पात्र के अन्दर जलता हुआ एक दीपक रखा हुआ है। यदि वह पात्र टूट जाये (अर्थात् अविद्या का नाश हो जाये तथा परिणाम-स्वरूप शरीर के साथ तादात्म्य समाप्त हो जाये; आप शरीर की चेतना से ऊपर उठ जायें), तो आपको हर स्थान पर आत्मा का परम प्रकाश दृष्टिगोचर होने लगेगा।
यदि पानी से भरा हुआ घड़ा नदी के अन्दर हो और घड़ा फूट जाये, तो क्या होगा ? घड़े का पानी और नदी का पानी एक हो जायेगा। उसी प्रकार आत्मा का ध्यान करने से शरीर का घड़ा फूट जाता है। तब जीवात्मा परमात्मा से मिल कर एक हो जाता है।
जिस प्रकार लालटेन के अन्दर प्रकाश होता रहता उसी प्रकार आपके हृदय-दीप में भी अनन्त काल से दिव्य प्रकाश हो रहा है। आँखें बन्द करें। इस दिव्य प्रकाश में विलीन हो जायें। हृदय की गहराइयों में उतर कर दिव्य प्रकाश पर मन को एकाग्र करें और फिर ईश्वर की अग्नि-शिखा के साथ एकाकार हो जायें।
यदि दीप की बत्ती छोटी हो, तो रोशनी भी कम होगी। बत्ती बड़ी होगी, तो प्रकाश भी प्रखर होगा। उसी प्रकार यदि जीव (जीवात्मा) शुद्ध है और यदि उसके द्वारा ध्यान का अभ्यास किया जा रहा है, तो आत्मा की अभिव्यक्ति बड़ी सशक्त होगी। उसमें से एक प्रखर प्रकाश का विकिरण होगा। यदि जीव अशुद्ध और अपुनरुज्जीवित (unregenerate) है, तो वह जले हुए कोयले की तरह बन कर रह जायेगा। दिये की बत्ती जितनी बड़ी होती है, उतना ही अधिक प्रकाश होता है, इसी प्रकार जीव जितना अधिक शुद्ध होगा, उतनी ही उसकी अभिव्यक्ति सशक्त होगी।
चुम्बक यदि शक्तिशाली होगा, तो वह दूर रखे हुए लोहे को भी आकर्षित कर लेगा। उसी प्रकार यदि योगी उच्च कोटि का साधक है, तो सम्पर्क में आने वाले व्यक्तियों पर अधिक प्रभाव डालेगा। वह सुदूर स्थानों में रहने वाले व्यक्तियों पर भी अपना अधिक प्रभाव डालेगा।
ध्यान की अग्नि में सारे अवगुण जल कर नष्ट हो जाते हैं। तब एकाएक आत्मज्ञान (दिव्य प्रज्ञा) प्रकट होता है। इससे मुक्ति का द्वार खुलता है।
ध्यान करते समय इस बात के प्रति सजग रहें कि आप कितनी अवधि तक सांसारिक चिन्तन से मुक्त रह पाते हैं। अपने मन पर कड़ी निगाह रखें। यदि यह अवधि बीस मिनट है, तो इसे बढ़ाने का प्रयत्न करें। बार-बार मन को ब्रह्म के चिन्तन से परिपूरित करें।
ध्यान करते समय आँखों पर जोर न डालें। मन के साथ लड़ाई भी न करें। तनावमुक्त हो कर ध्यान करें। दिव्य विचारों को सहज रूप से प्रवाहित होने दें। अपने लक्ष्य (ध्यान के एकाग्रता - बिन्दु) के बारे में स्थिरता और गम्भीरता से विचार करें। अनपेक्षित विचारों को जबरदस्ती न भगायें। मन में उदात, सात्त्विक विचारों को आने दें। बुरे विचार स्वतः ही चले जायेंगे।
यदि ध्यान करते समय मन पर बहुत जोर पड़ता हो, तो थोड़े दिनों के लिए ध्यान करने का समय प्रत्येक बैठक में कम कर दें। बहुत गहन ध्यान न करें। सामान्य स्थिति वापस आ जाने पर ध्यान करने का समय दोबारा बढ़ा दें। पूरे साधना-काल में अपनी सहज बुद्धि का उपयोग करते रहें। मैं हमेशा निम्नांकित बात पर जोर देता हूँ :
"एक सहस्र वर्ष तक एक पैर पर खड़े हो कर किया जाने वाला तप ध्यानयोग के सोलहवें अंश की भी बराबरी नहीं कर सकता" (पैंगल उपनिषद्) ।
जो साधक चार-पाँच घण्टों तक लगातार ध्यान करते हैं, वे पैर थक जाने पर बीच में ध्यान का आसन एक बार बदल सकते हैं। कभी-कभी पैरों या जाँघों के किसी भाग में रक्त एकत्रित हो जाता है और कष्ट देने लगता है। दो घण्टे के बाद आप आसन बदल दें या पैरों को पूरा फैला कर किसी दीवाल या तकिये का सहारा ले लें। मेरुदण्ड सीधा रखें। यह एक सुविधाजनक आसन है। एक दूसरा उपाय यह है कि दो कुरसियाँ पास-पास रख लें। एक कुरसी पर बैठें और दूसरी कुरसी पर पैर फैला कर रखें।
प्रतिदिन वैराग्य, ध्यान और सात्त्विक गुणों (धैर्य, दृढ़ता, करुणा, प्रेम, क्षमा आदि) में वृद्धि करें। वैराग्य और ये गुण ध्यान के अभ्यास में सहायक सिद्ध होते हैं। ध्यान से सात्त्विक गुणों में वृद्धि होती है।
ध्यान करने से मन-मस्तिष्क तथा स्नायु प्रणाली में परिवर्तन आता है। नयी स्नायु- धाराएँ, नवीन प्रदोलन (vibrations), नयी कोशिकाएँ तथा नये मार्ग निर्मित होने लगते हैं। मन और स्नायु प्रणाली का नये सिरे से प्रत्यारोपण हो जाता है। नया मन, नया हृदय, नयी अनुभूतियाँ, नयी भावनाएँ, नयी चिन्तन-प्रणाली, नयी कार्य-प्रणाली तथा दूसरों के प्रति नयी दृष्टि (सब ईश्वर की ही अभिव्यक्ति हैं)—ये हैं ध्यान के सुखद परिणाम |
ध्यान करते समय भाव-समाधि या हर्षोन्माद की स्थिति आ सकती है। यह स्थिति पाँच प्रकार की होती है— अल्पमात्रिक, क्षणिक, आप्लावनकारी, वाहक तथा सर्वव्यापी । अल्पमात्रिक स्थिति रोमांच या रोमहर्षण की स्थिति होती है। इसमें त्वचा हंस 1 की त्वचा के समान हो जाती है। क्षणिक स्थिति क्षण-क्षण में कौंधने वाली बिजली के समान है। आप्लावनकारी स्थिति लहरों के समान है जो लगातार तट पर टकराती रहती है। शरीर रूपी तट पर हर्षोन्माद की लहरें अवतरित होती हैं और टकराती हैं। यह स्थिति बड़ी बलवती होती है। यह शरीर को धरती' उठा कर हवा में छोड़ देती है। सर्वव्यापी स्थिति में शरीर सम्पूर्ण रूप से आवेशित हो जाता है और फूले हुए गुब्बारे की तरह उड़ने लगता है।
"योगी साधक को चाहिए कि उसे जो कुछ भी दिखायी पड़े, उसे वह आत्मा ही माने। अपने कानों से सुनायी पड़ने वाला शब्द, अपनी नाक से सूँघी जाने वाली गन्ध, अपनी जिह्वा से मिलने वाला रस तथा अपनी त्वचा से मिलने वाली स्पर्शानुभूति – ये सब उसकी दृष्टि में आत्मा के ही स्वरूप होने चाहिए। इस प्रकार योगी को प्रयत्न करके प्रतिदिन एक याम (अर्थात् तीन घण्टे तक अपनी ज्ञानेन्द्रियों को सन्तुष्ट करना चाहिए। तब योगी साधक को विभिन्न प्रकार की शक्तियाँ प्राप्त होती हैं, यथा— अतीन्द्रिय दृष्टि, अतीन्द्रिय श्रवण, क्षण-भर में ही अपने को सुदूर क्षेत्रों में ले जाने की क्षमता, मनचाहा रूप धारण करने की क्षमता, वाक्-शक्ति, अन्तर्धान हो जाने की क्षमता तथा लोहे से सोना बना देने की क्षमता” (योगतत्त्वोपनिषद्) ।
एक निपुण धनुर्धर लक्ष्य पर निशाना साधते समय इस तथ्य के प्रति पूर्ण रूप से जागरूक रहता है कि उसके पैर एक विशेष स्थिति में रहेंगे। वह एक विशेष प्रकार से तीर-कमान पकड़ता है। वह यह भी जानता है कि लक्ष्य-भेद में सफलता प्राप्त करने के लिए ये बातें अति-आवश्यक हैं। उसी प्रकार साधक भी इसके प्रति जागरूक रहता है कि ध्यान और समाधि की स्थिति में पहुँचने हेतु उसे विशेष प्रकार का भोजन करना होगा, विशेष प्रकार के लोगों की संगति में रहना होगा, विशेष प्रकार के वातावरण में रहना होगा तथा विशेष प्रकार की जीवन-पद्धति का अनुसरण करना होगा।
जिस प्रकार एक समझदार रसोइया अपने स्वामी की भोजन सम्बन्धी रुचि का ध्यान रखते हुए तदनुकूल भोजन तैयार करता है और स्वामी के अनुग्रह का लाभ प्राप्त करता है, उसी प्रकार साधक भी ध्यान और समाधि के लिए आवश्यक परिस्थितियों (जैसे पोषण आदि) के प्रति जागरूक रहता है और उनके अनुकूल आचरण करके बार- बार हर्षोन्माद का लाभ प्राप्त करता है।
ब्रह्म का साक्षात्कार करने के लिए सदाचारपूर्ण जीवन व्यतीत करना ही पर्याप्त नहीं है; मन की एकाग्रता भी अत्यावश्यक है। सदाचारपूर्ण जीवन ध्यान और एकाग्रता का उपयुक्त उपकरण बनने के लिए मन को मात्र तैयार करता है। एकाग्रता और ध्यान ही अन्ततः साधक को आत्म-साक्षात्कार या ब्रह्म-साक्षात्कार के लक्ष्य तक पहुँचाते हैं।
"योगी को भय, क्रोध, आलस्य, अति-निद्रा, अति जागरण, अति भोजन तथा अति-उपवास से बचना चाहिए। यदि वह प्रतिदिन इन नियमों का पालन करे, तो निःसन्देह तीन महीने की अवधि में उसमें आध्यात्मिक प्रज्ञा का उदय होगा, चार महीने में वह देव-दर्शन करने लगेगा, पाँच महीने के अन्दर वह ब्रह्मनिष्ठ बन जायेगा और छह महीने की अवधि में वह सचमुच कैवल्य की स्थिति प्राप्त कर लेगा" (अमृतनाद उपनिषद्) ।
ध्यान की स्थिति में कभी-कभी कुछ दृश्य दिखायी पड़ते हैं। इनमें कुछ दृश्य मात्र आपके विचार के मूर्त रूप ही होते हैं, तथा कुछ वास्तविक (दिव्य) दृश्य होते हैं। ध्यान करते समय मस्तिष्क में नये आध्यात्मिक खाँचे निर्मित होते हैं और उन्हीं खाँचों के मार्ग से मन की ऊर्ध्वगामी यात्रा प्रारम्भ होती है। एकाग्रता और ध्यान का अभ्यास करते समय मन को विविध ढंगों से प्रशिक्षित करना होगा। तभी स्थूल मन सूक्ष्म मन में रूपान्तरित हो जायेगा ।
ध्यान के अभ्यास के प्रारम्भिक चरण में मस्तक में लाल, सफेद, नीला, हरा तथा लाल-हरा मिश्रित रंग दिखायी पड़ते हैं। ये पंचतत्त्वों के प्रकाश हैं। प्रत्येक तत्त्व के लिए एक विशिष्ट रंग निर्धारित रहता है। पृथ्वी तत्त्व के लिए पीला, जल-तत्त्व के लिए सफेद, अग्नि-तत्त्व के लिए लाल, वायु-तत्त्व के लिए हरा तथा आकाश-तत्त्व के लिए नीला रंग है। इसलिए ध्यान में ये रंग पंचतत्त्वों के कारण ही दिखलायी पड़ते हैं।
ध्यान करते समय कभी-कभी मस्तक के सामने बड़े आकार का चमकता हुआ सूर्य, चन्द्रमा या बिजली दिखायी पड़ती है। इन पर ध्यान न दें। इनके आकर्षण से बचें। इनके मूल स्रोतों के सम्पर्क में आने के लिए ध्यान की गहराई में जायें।
कभी-कभी ध्यान में देवताओं, नित्य-सिद्धों और अमर पुरुषों के दर्शन होते हैं। उन्हें समुचित आदर देते हुए उनका स्वागत करें। उनके सामने नमन करें। उनसे सत्परामर्श प्राप्त करें। उनसे भय न रखें। वे आपको प्रोत्साहन देने तथा आध्यात्मिक सहायता करने के लिए ही प्रकट होते हैं।
"अपने शरीर को नीचे की अरणि तथा प्राण को ऊपर की अरणि बना कर ध्यानाभ्यास-रूपी मन्थन-क्रिया के द्वारा काष्ठ में व्याप्त हुई अग्नि की भाँति सबके भीतर व्याप्त परमात्मा का साक्षात्कार करें" (ध्यानबिन्दु उपनिषद्) ।
साधकों की सुविधा के लिए नीचे ध्यान के कुछ अभ्यास दिये जा रहे हैं:
(१)
अपने सामने भगवान् ईसामसीह का चित्र रखें। ध्यान के किसी सुविधाजनक आसन में बैठें। चित्र को टकटकी लगा कर तब तक देखें, जब तक आँखों से आँसू न गिरने लगें। क्रास, उनके वक्ष, लम्बे बालों, सुन्दर दिखने वाली दाढ़ी, गोल-गोल आँखों, शरीर के विभिन्न अंगों और आध्यात्मिक प्रभा मण्डल पर अपना ध्यान (एक-एक करके) ले जायें। उनके व्यक्तित्व के विभिन्न सद्गुणों-प्रेम, उदारता, करुणा तथा सहिष्णुता का चिन्तन करें। उनके जीवन के विभिन्न रोचक पक्षों, उनके चमत्कारों तथा उनकी असामान्य शक्तियों के बारे में सोचें। अब आँखें बन्द कर लें और चित्र का मानस-दर्शन करें। इस अभ्यास को बार-बार दोहरायें।
(२)
भगवान् हरि का चित्र अपने सामने रखें। ध्यान के किसी आसन में बैठें। चित्र पर तब तक त्राटक का अभ्यास करें, जब तक आँसू न गिरने लगें। फिर उनके चरण-कमलों, पैरों, पीले रेशमी वस्त्रों, वक्ष पर पड़े हुए हीरक जटित सोने के हार, कौस्तुभ मणि, कर्ण-फूलों, चेहरे, मुकुट, ऊपरी दाहिने हाथ के चक्र, ऊपरी बायें हाथ के शंख, निचले दाहिने हाथ की गदा तथा निचले बायें हाथ के कमल के फूल पर एक-एक करके ध्यान ले जायें । आँखें बन्द करके चित्र का मानस-दर्शन करें। इस अभ्यास को कई बार दोहरायें।
(३)
हाथों में वंशी लिये हुए भगवान् कृष्ण का चित्र अपने सामने रखें। ध्यान के किसी आसन में बैठें। तब तक उस चित्र को अपलक निहारते रहें, जब तक आँखों से आँसू न आने लगें। नूपुरों से सुसज्जित उनके चरणों, उनके पीत वस्त्रों, गले के आभूषणों, कौस्तुभ मणि के हार, रंग-बिरंगे फूलों से बनी लम्बी माला, कर्ण-कुण्डलों, बहुमूल्य रत्नों वाले मुकुट, लम्बे, घने काले बालों, चमकती आँखों, माथे पर लगे हुए तिलक, आकर्षक प्रभा मण्डल, बाजूबन्दों, कंगनों से सुसज्जित हाथों और वंशी के बारे में सोचें। अब आँखें बन्द करके चित्र का मानस-दर्शन करें। इस क्रिया को कई बार दोहरायें।
(४)
प्रारम्भिक साधकों के लिए यह ध्यान की एक विधि है। अपने ध्यान कक्ष में वज्रासन लगा कर बैठें। आँखें बन्द कर लें। सूर्य की चमक का ध्यान करें। चन्द्रमा की दीप्ति या तारों की द्युति का ध्यान करें।
(५)
समुद्र की उदारता और असीमता का चिन्तन करें। तब समुद्र की असीम ब्रह्म से तुलना करें। समुद्र की लहरों, फेनों तथा हिमशैलों की भी तुलना ब्रह्म के अनेकानेक नामों से करें। समुद्र के साथ अपना तादात्म्य स्थापित करें। शान्त हो जायें। समुद्र की तरह अपना विस्तार करें।
(६)
यह एक दूसरे प्रकार का ध्यान है। हिमालय का ध्यान करें। गंगोत्तरी के हिमाच्छादित क्षेत्रों से निकलती हुई; ऋषिकेश, हरिद्वार, वाराणसी आदि मुख्य शहरों से प्रवाहित होती हुई तथा अन्त में गंगासागर के निकट बंगाल की खाड़ी में प्रवेश करती हुई गंगा का ध्यान करें। हिमालय, गंगा और सागर—केवल इन तीन का ही चिन्तन करें। पहले गंगोत्तरी के बरफानी स्थानों पर; फिर गंगा और फिर सागर में मन को टिकायें। १० मिनट तक मन को क्रम से इसी तरह घुमाते रहें।
(७)
इस जगत् के नामों और रूपों में एक सर्वव्यापक शक्ति निहित है। इस निराकार शक्ति का ध्यान करें। अन्ततः वह ध्यान परम (Absolute), निर्गुण, निराकार चेतना के साक्षात्कार के रूप में फलीभूत होगा।
(८)
पद्मासन में बैठें। नेत्र बन्द कर लें। केवल निराकार वायु का ध्यान करें। वायु पर ही मन को एकाग्र करें। इसके सर्वव्यापक रूप का चिन्तन करें। इससे एकमात्र जीवन्त सत्य - नाम-रूप-रहित ब्रह्म का—साक्षात्कार प्राप्त करने में सहायता मिलेगी।
(९)
ध्यान के किसी सुविधाजनक आसन में बैठ जायें। नेत्र बन्द कर लें। नामों और रूपों में सन्निहित करोड़ों सूर्यों की आभा के समान परम और असीम दीप्ति का चिन्तन करें। यह निर्गुण ध्यान का एक दूसरा प्रकार है।
(१०)
विस्तृत और नीले आकाश पर मन को एकाग्र करके उसका ध्यान करें। यह भी निर्गुण ध्यान है। पूर्व-वर्णित ध्यान-विधियों से मन ससीम रूपों का चिन्तन करना बन्द कर देगा। जैसे-जैसे इसकी विषय-सामग्री इससे छूटती जायेगी, वह शान्ति के सागर में विलीन होता जायेगा। तब वह सूक्ष्म से सूक्ष्मतर हो जायेगा ।
(११)
अपने सामने 'ॐ' का चित्र रखें। खुली आँखों से तब तक एकटक देखें, जब तक कि आँखों से आँसू न गिरने लगे। 'ॐ' का चिन्तन करें। इस चिन्तन के साथ शाश्वतत्व, असीमता तथा अमरता के विचारों को सम्बद्ध करें। सोचें कि मधुमक्खियों की भिनभिनाहट, कोयल के गीत, संगीत के सातों स्वर-सभी 'ॐ' से निःसृत हुए हैं। 'ॐ' वेदों का सार है। कल्पना करें कि 'ॐ' धनुष है, मन तीर है और ब्रह्म (ईश्वर) लक्ष्य है। बहुत सावधानी से लक्ष्य-भेद करें। जिस प्रकार अन्त में तीर और लक्ष्य एक हो जाते हैं, इसी प्रकार आप और ब्रह्म भी एक हो जायेंगे। 'ॐ' का अनुदात्त स्वराघात (accent) सभी पापों को भस्म कर देता है और उदात्त स्वराघात सभी सिद्धियाँ प्रदान करता है। जो साधक इस 'ॐ' का उच्चारण तथा ध्यान करता है, वह संसार के सभी धर्मग्रन्थों का ध्यान करता है।
(१२)
अपने ध्यान कक्ष में पद्मासन या सिद्धासन लगा कर बैठ जायें। अपनी श्वास के प्रवाह के प्रति जागरूक हो जायें। आपको 'सोऽहम्' की ध्वनि सुनायी पड़ेगी। श्वास लेते समय 'सो' की ध्वनि और श्वास छोड़ते समय 'ह' की ध्वनि । 'सोऽहम्' का अर्थ है—मैं वह हूँ। आपकी श्वास परमात्मा के साथ आपकी अभिन्नता का स्मरण दिला रही है। आप प्रति मिनट १५ बार 'सोऽहम्' का उच्चारण कर रहे हैं। इस प्रकार आप अनजाने में ही प्रतिदिन २१, ६०० बार 'सोऽहम्' का उच्चारण करते हैं। सत्ता, ज्ञान, परमानन्द, परम तत्त्व, पवित्रता, शान्ति, पूर्णता, प्रेम आदि के विचारों को 'सोऽहम्' के साथ जोड़ें। मन्त्र का उच्चारण करते समय शरीर को नकारें और परमात्मा के साथ अभिन्नता को स्वीकार करें।
(१३)
"किसी ऐसे आसन पर बैठ जायें, जो न बहुत ऊँचा हो और न बहुत नीचा। हाथों को अपनी गोद में रख लें। अपने मन को स्थिर रखने के लिए नासिका के अग्रभाग पर अपनी दृष्टि को केन्द्रित करें । प्राण के प्रवाह-पथ (नाड़ियों) को शुद्ध करने हेतु पहले क्रम से पूरक, कुम्भक और रेचक करें। फिर क्रम बदल दें। अर्थात् पहले अँगूठे से दायें नासारन्ध्र को बन्द करके बायें नासारन्ध्र से पूरक करें। फिर अनामिका और कनिष्ठिका के बायें नासारन्ध्र को बन्द करके कुम्भक करें। फिर अँगूठे को हटा कर दायें नासारन्ध्र से श्वास निकाल दें। अब क्रम बदलते हुए दायें नासारन्ध्र से श्वास लें, कुम्भक करें और बायें नासारन्ध्र से श्वास निकाल दें। अपनी इन्द्रियों को नियन्त्रण में रखते हुए इस प्राणायाम का अभ्यास करें।
"हृदय में कमल की डण्डी के पतले सूत्र के समान 'ॐ' का चिन्तन करें। प्राण के द्वारा उसे ऊपर ले जायें और उसमें घण्टानाद के समान स्वर स्थिर करें। इस स्वर का ताँत टूटने न पाये। इस प्रकार प्रतिदिन तीन समय १०-१० बार 'ॐ' के उच्चारण-सहित प्राणायाम का अभ्यास करें। ऐसा करने से एक महीने के अन्दर ही प्राणवायु वश में हो जायेगी। इसके बाद ऐसा चिन्तन करें कि हृदय एक कमल है। वह शरीर के भीतर इस प्रकार स्थिर है कि उसकी डण्डी ऊपर की ओर और मुँह नीचे की ओर है। अब ध्यान करें कि उसका मुख ऊपर की ओर खिल गया है, उसके आठ दल हैं और उसके बीचोंबीच नीले रंग की एक अत्यन्त सुकुमार कर्णिका है। इस कर्णिका में क्रम से सूर्य, चन्द्रमा और अग्नि का न्यास करें तथा अग्नि के अन्दर मेरे (श्री कृष्ण के) एक-एक अंग का ध्यान करें। अपने मन को मेरे एक-एक अंग में लगायें। मन के द्वारा इन्द्रियों को उनके विषयों से खींच लें और मन को बुद्धि की सहायता से मुझमें ही लगा दें। जब सारे शरीर का ध्यान होने लगे, तब मन को खींच कर एक स्थान में स्थिर करें और मेरे अन्य अंगों का चिन्तन करने के बजाय केवल मेरे मुस्कराते हुए मुख का ध्यान करें। जब ऐसा होने लगे, तो मन को वहाँ से हटा कर आकाश में स्थिर करें। इसके बाद आकाश का भी चिन्तन त्याग कर मेरे स्वरूप में आरूढ़ हो जायें और मेरे सिवा किसी भी अन्य वस्तु का चिन्तन न करें। जब मन इस प्रकार स्थिर हो जाता है, तब आप अपने में मुझे और मुझ सर्वात्मा में अपने को अनुभव करने लगेंगे।"
(श्रीमद्भागवत के एकादश स्कन्ध में उद्धव द्वारा पूछे गये प्रश्न के भगवान् कृष्ण प्रदत्त उत्तर का एक अंश)
१. ध्यान- आपका एकमात्र कर्तव्य 17
५. एकाग्रता के व्यावहारिक अभ्यास 27
१६. योगसार उपनिषद् के अनुसार ध्यानयोग 45
१७. वेदान्तसार उपनिषद् के अनुसार ध्यान में बाधाएँ 50
१८. ध्यानयोग का सार-संक्षेप 51
४. धारणा (एकाग्रता) की शक्ति 63
२६. मन समाधि में विगलित हो जाता है 76
२९. सब-कुछ है अखण्ड एकरस स्वरूप 78
३३. जहाँ वाणी की पहुँच नहीं है 80
३५. मैं नीरवता में निवास करता हूँ 81
३७. मेरा शरीर आनन्द से लबालब भरा हुआ है 82
३८. रोग ! तुम्हारा स्वागत है 82
४०. लघु 'मैं' परम दीप्ति से एकाकार हो गया 83
११. सभी आत्माओं में अन्तर्निहित एकत्व का साक्षात्कार करें 93
१६. वेदान्ती ध्यान के लिए सूत्र 94
१८. निर्गुण ध्यान के लिए सूत्र 95
२०. मैं कितना स्वतन्त्र हूँ 96
२३. मैं विज्ञानघन ब्रह्म हूँ 98
२४. मैं स्वतन्त्र ब्रह्म हूँ 98
२६. मैं निरावरण ब्रह्मस्वरूप हूँ 99
३०. मैं चिन्मात्र-स्वरूप हूँ 100
३२. मैं आनन्दघन स्वरूप हूँ 101
३३. -रहित ब्रह्म हूँ मैं माया- 101
३४. मैं निराकार, निर्गुण ब्रह्म हूँ 102
३५. मैं त्रिगुणातीत ब्रह्म हूँ 102
२. ब्राह्ममुहूर्त में ध्यान के लाभ 119
३. सांसारिक विचार तथा ध्यान 119
४. समाधि-अवस्था में प्रवेश 119
५. भगवान् हरि तथा एकाग्रता का पदार्थ 120
९. मन्त्र - साधना के अनुभव 126
११. सहज समाधि तथा निर्विकल्प-समाधि 127
१४. मनन तथा अतिचेतनावस्था का अनुभव 128
१६. प्रज्ञा का दिव्य नेत्र - प्रातिभज्ञान 129
समाधि तथा आध्यात्मिक अनुभव 130
ध्यानयोग
ध्यान आपका एकमात्र कर्तव्य है। आप अपने जीवन के लक्ष्य-ईश्वर- साक्षात्कार — को प्राप्त करें; तभी जीवन सार्थक हो सकेगा। ईश्वर-साक्षात्कार-रूपी मार्ग के कई पड़ाव हैं— शुद्धता, एकाग्रता, चिन्तन, मनन, ध्यान, आध्यात्मिक बोध, तादात्म्य (अभिन्नता), तल्लीनता तथा मोक्ष। सेवा करके अपने को शुद्ध बनायें और फिर एकाग्रता तथा ध्यान के पड़ावों से होते हुए अपने लक्ष्य मोक्ष तक पहुँचें।
ध्यान के लिए समय
ब्राह्ममुहूर्त में ब्रह्म-विचार करें। ब्राह्ममुहूर्त में अपने से प्रश्न करें— 'मैं कौन हूँ?' ब्राह्ममुहूर्त में किया गया एक घण्टे का ध्यान दिन के किसी अन्य समय में छह घण्टों तक किये गये ध्यान के बराबर है।
यदि आप प्रातः चार बजे उठ जायें, तो आपको भोर के समय प्रार्थना-ध्यान के लिए पर्याप्त समय मिल जायेगा। आप अपने व्यक्तित्व को सत्त्व से आवेशित कर लेंगे। दैनन्दिन जीवन की समस्याओं से जूझने के लिए आपको पर्याप्त शक्ति मिल जायेगी। ध्यान के लिए प्रातःकाल सर्वाधिक उपयुक्त है। इस समय मन राग-द्वेष से प्रभावित नहीं रहता (जैसे कि अन्य समयों में रहता है)। तब आप ध्यान करके तथा स्तोत्र, भजन- श्लोकों (यथा ‘अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे') का पाठ करके मन को सत्त्व से परिपूरित कर सकते हैं। हमेशा इसी तरह के पवित्र विचारों का चिन्तन करते रहें।
प्रारम्भिक अभ्यासियों को ध्यान का अभ्यास लम्बे समय तक नहीं करना चाहिए। धीरे-धीरे अपना अभ्यास-काल बढ़ाइए, ताकि आप दीर्घ काल तक ध्यान की स्थिति में रहने का लक्ष्य प्राप्त कर सके। अवकाश-प्राप्त व्यक्तियों को ध्यान के लिए अधिक समय देना चाहिए। परन्तु यदि प्रारम्भिक अभ्यासियों को लम्बे समय तक ध्यान का अभ्यास करने को कहा जाये, तो वे घबरा जायेंगे; इसीलिए मैं कहता हूँ- "थोड़ा ध्यान करें।" ऐसा कहने के पीछे मेरा उद्देश्य उन्हें ध्यान के लिए प्रोत्साहित तथा प्रेरित करना है।
ध्यान की विधि
मन प्रतिक्षण धोखा देता रहता है। अतः कम-से-कम अब तो जग जायें और सत्संग, स्वाध्याय तथा ध्यान करते हुए आत्मा के स्वरूप के बारे में निरन्तर अपने से प्रश्न करते रहें और इस प्रकार अपने विवेक को विकसित करें।
'ॐ' का ध्यान करें— “तजपस्तदर्थभावनम् ।" 'ॐ' सच्चिदानन्द है। 'ॐ' असीम है। 'ॐ' स्वतन्त्रता है, पूर्णता है। निर्गुण ब्रह्म के इन दैवी लक्षणों का ध्यान करें।
आत्मा के सत्, चित् और आनन्द (सच्चिदानन्द) स्वरूप का ध्यान करें। यदि आप यह ध्यान न कर सकें तो सूर्य, प्रकाश, सर्वव्यापी आकाश या वायु का ध्यान करें। हृदय में चमकते हुए प्रकाश का, समय-समय पर स्वप्न में दिखायी पड़ने वाले चित्रों का ध्यान करें । सन्त-महात्माओं या अपने गुरु के रूप का ध्यान करें। जो आपके मन को रुचिकर लगे, उसका ध्यान करें। अपने पिता और उनके गुणों का भी ध्यान कर सकते हैं।
कुछ मिनटों तक सामान्य ध्यान का अभ्यास करें। इस अभ्यास से आपको पता चल जायेगा कि वास्तविक शान्ति और परमानन्द आपके अन्दर ही हैं। चित्तवृत्तियों को समेट लें- “प्रत्यगात्मानं ईषत् आवृत्त चक्षुः ।" अपने इष्ट-मन्त्र का बार-बार उच्चारण करें। मन इन्द्रियों के विषयों की ओर न जाये तथा वृत्ति रहित हो। आप परम शान्ति और आनन्द का अनुभव करेंगे। इस ध्यान का नियमित रूप से अभ्यास करें।
"नामरूपं न ते न मे । "
'अहं आत्मा निराकारः सर्वव्यापी स्वभावतः ।'
इन श्लोकों के निहितार्थ का बार-बार मनन करें। इनमें निहित विचार आपको शक्ति प्रदान करेंगे। आप थोड़ा भी मनन करेंगे, तो भी आपको कुछ-न-कुछ शक्ति प्राप्त होगी।
आप पंचतत्त्वों से निर्मित शरीर नहीं हैं। इस बात का स्मरण बार-बार करें। इस पर मनन करें। मनन-ध्यान के द्वारा आपको आत्मा का साक्षात्कार करना है। "आत्मा को अपने स्वरूप का ज्ञान है। आत्मा को प्रत्येक वस्तु का ज्ञान है।" यह आपका वास्तविक स्वरूप है। इस संसार में आत्मा की तरह कोई पदार्थ नहीं है।
ध्यान करें और गायें - "शिवोऽहं शिवोऽहं शिवोऽहं शिवोऽहं सोऽहम् । सच्चिदानन्दस्वरूपोऽहम्।”
शरीर और मन को शुद्ध करने के लिए आसन-प्राणायामों का अभ्यास करें। इनसे रोग भी दूर होंगे तथा एकाग्रता ध्यान के अभ्यास करने में सहायता मिलेगी।
ब्राह्ममुहूर्त में उठ कर ध्यान करें। दिव्य तत्त्व का चिन्तन-मनन करने के लिए यह समय सर्वोत्तम है। इस समय मन शान्त रहता है। यह एक कोरे कागज की तरह होता है। इसको किसी भी तरह रूपान्तरित किया जा सकता है। इस समय सांसारिक राग-द्वेष इसको प्रभावित नहीं कर पाते।
ब्राह्ममुहूर्त में ॐ (दीर्घ प्रणव) का १०-१२ बार उच्चारण कर सकते हैं। इस प्रकार उच्चारण करने से सभी कोशों में सुसंगत प्रदोलन होने लगते हैं।
गहन ध्यान करें। सतत ध्यान करें। प्रारम्भ में लगातार ध्यान करना कठिन जान पड़ेगा; परन्तु अभ्यास करना न छोड़ें। आप असीम आनन्द का अनुभव करेंगे। ध्यान का समय बढ़ाते जायें। धीरे-धीरे आप गहन और सतत ध्यान की स्थिति में पहुँच जायेंगे।
सत्, चित् और आनन्द के अमूर्त गुणों का ध्यान करें। सदैव मन में इनका विचार बनाये रखें। यह विचारों की अमूर्त पृष्ठभूमि है। आप ईश्वर के आकार पर भी ध्यान कर सकते हैं। यही सगुण उपासना है। भगवान् के चित्र का मानस-दर्शन करें। उनके मुख-कमल, चक्र, चरणारविन्दों का एक-एक करके ध्यान करें। मन नहीं भागेगा।
मन को बहिर्गामी नहीं होना चाहिए। अपने अन्तरतम में निवास करने वाले ईश्वर पर मन को स्थिर करने से आप अन्तर्मुखी हो जायेंगे।
आप मन की ज्योतियों का ध्यान कर सकते हैं। स्वप