
धारणा और ध्यान
CONCENTRATION AND MEDITATION
का हिन्दी अनुवाद
लेखक
श्री स्वामी शिवानन्द सरस्वती
MEDITATE REALIZE LOVE
THE DIVINE LIFE SOCIETY
अनुवादिका
शिवानन्द राधिका अशोक
प्रकाशक
द डिवाइन लाइफ सोसायटी
पत्रालय शिवानन्दनगर – २४९१९२
जिला टिहरी गढ़वाल, उत्तराखण्ड (हिमालय), भारत
www.sivanandaonline.org, www.disha.org
प्रथम हिन्दी संस्करण: २००८
द्वितीय हिन्दी संस्करण : २०११
तृतीय हिन्दी संस्करण २०१५
चतुर्थ हिन्दी संस्करण : २०२१
(१,००० प्रतियाँ)
© द डिवाइन लाइफ ट्रस्ट सोसायटी
HS 7
PRICE : ₹210/-
'द डिवाइन लाइफ सोसायटी, शिवानन्दनगर' के लिए स्वामी पद्मनाभानन्द द्वारा
प्रकाशित तथा उन्हीं के द्वारा 'योग-वेदान्त फारेस्ट एकाडेमी प्रेस,
पो. शिवानन्दनगर – २४९ १९२, जिला टिहरी गढ़वाल, उत्तराखण्ड' में मुद्रित ।
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ॐ
उन योगियों तथा भक्तों
को
समर्पित
जो धारणा तथा ध्यान द्वारा
जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु प्रयासरत है ।
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धारणा एवं ध्यान सिद्धि हेतु राज मार्ग है। धारणा ध्यान हेतु प्रेरित करती है। मन को शरीर के बाहर अथवा भीतर किसी एक बिन्दु पर केन्द्रित करके, उसे वहाँ कुछ देर के लिए स्थिर कीजिए। यह धारणा है। आपको इसका नित्य अभ्यास करना चाहिए। पहले उत्तम आचरण के अभ्यास द्वारा अपने मन को स्थिर कीजिए, तत्पश्चात् धारणा का अभ्यास कीजिए। मन की शुद्धता के बिना धारणा का कोई लाभ नहीं है। कुछ तान्त्रिक ऐसे हैं जिनकी धारणा तो होती है, लेकिन उनका चरित्र अच्छा नहीं होता। यही कारण है कि वे आध्यात्मिक मार्ग में किसी प्रकार की प्रगति नहीं कर पाते।
वह जिसका आसन स्थिर है तथा जिसने प्राणायाम के निरन्तर अभ्यास द्वारा अपनी नाड़ियों तथा कोशों को शुद्ध कर लिया है, वह अच्छी धारणा कर सकता है।
यदि आप सभी विचलनों को दूर हटा दें, तो धारणा तीव्र होगी। एक नैष्ठिक ब्रह्मचारी, जिसने अपनी शक्ति का संरक्षण किया है, उसकी धारणा अपूर्व होगी।
कुछ मूर्ख अधैर्यवान् साधक बिना किसी प्रारम्भिक नैतिक प्रशिक्षण के एकदम धारणा करने लग जाते हैं। यह भयंकर भूल है। नैतिक पूर्णता सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है।
आप आध्यात्मिक ऊर्जा के सातों चक्रों में से किसी एक पर आन्तरिक रूप से धारणा कर सकते हैं। अवधान धारणा में प्रमुख भूमिका निभाता है। जिसने अपनी अवधान की शक्ति का विकास कर लिया है, उसकी धारणा अच्छी होती है। वह मनुष्य जो वासना तथा सभी प्रकार की काल्पनिक कामनाओं से पूर्ण है, वह किसी भी वस्तु अथवा विषय पर कठिनाई से एक सेकेंड तक ही धारणा कर सकेगा। उसका मन बूढ़े बन्दर की भाँति इधर से उधर कूदता रहता है।
एक वैज्ञानिक अपने मन को एकाग्र करता है तथा कई नये आविष्कार करता है। धारणा के द्वारा वह अपने स्थूल मन की पर्तें खोलता है और मन के उच्च लोकों में गहरे उतर जाता है तथा गहन ज्ञान प्राप्त करता है। वह अपने मन की समस्त शक्तियों को एक जगह केन्द्रित करके उन्हें उन पदार्थों पर फेंकता है, जिनका वह विश्लेषण कर रहा है तथा उनके रहस्यों को खोज लेता है।
वह जिसे प्रत्याहार (इन्द्रियों को विषयों से वापस खींचना) का ज्ञान है, उसकी अच्छी धारणा होती है। आध्यात्मिक मार्ग में आपको शनैः-शनैः एक-एक कदम आगे बढ़ना होगा। धारणा का अभ्यास प्रारम्भ करने के लिए अच्छे आचरण, आसन, प्राणायाम एवं प्रत्याहार की नींव रखिए। धारणा एवं ध्यान का भवन तभी सफलतापूर्वक खड़ा होगा।
आपको धारणा के विषय को उसकी अनुपस्थिति में भी स्पष्ट रूप से देख सकते योग्य होना चाहिए। एक क्षण में ही उसका मानसिक चित्र आपकी आँखों के सामने आ जाना चाहिए। यदि आपकी धारणा अच्छी होगी, तो आप ऐसा बिना किसी कठिनाई के कर सकेंगे।
प्रारम्भ में आप घड़ी की टिकटिक, मोमबत्ती की ली अथवा अन्य किसी विषय पर, जो आपके मन को अच्छा लगे, धारणा का अभ्यास कर सकते हैं। मन के अवलम्बन के लिए किसी विषय के बिना धारणा सम्भव नहीं है। कोई भी विषय, जो मन को रुचिकर लगे, उस पर मन को स्थिर किया जा सकता है। प्रारम्भ में मन को जो नापसन्द हो, ऐसे विषय पर उसे एकाग्र करना बड़ा ही कठिन है।
जो धारणा का अभ्यास करते हैं, वे शीघ्र उन्नति करते हैं। वे किसी भी कार्य को वैज्ञानिक ढंग से, बिना किसी गलती के तथा पूर्ण दक्षता से कर सकते है। जिस कार्य को अन्य छह घण्टों में करते हैं, उसे धारणा का अभ्यासी आधे घण्टे में कर सकता है। धारणा उमड़ते हुए आवेगों को शान्त करती है, शुद्ध करती है। यह विचार शक्ति को दृढ करती है तथा विचारों को स्पष्ट करती है। यह मनुष्य की भौतिक प्रगति में सहायता करती है। धारणा करने वाला अपने कार्य एवं व्यापार को अच्छे ढंग से सम्पन्न करता है। जो पहले धुंधला तथा अनिश्चित था, वह धारणा के अभ्यास से स्पष्ट और सुनिश्चित हो जाता है। जो पहले कठिन था, वह अब सरल हो जाता है और जो जटिल तथा भ्रमित करने वाला था, वह सरल एवं मन की पकड़ में हो जाता है। आप धारणा से सब कुछ प्राप्त कर सकते हैं। जो नियमित धारणा करते हैं, उनके लिए कुछ भी असम्भव नहीं है। यदि कोई भूखा अथवा किसी जटिल रोग से ग्रसित हो, तो उसके लिए धारणा करना कठिन है। धारणा का अभ्यास करने वाले की मानसिक दृष्टि एकदम स्पष्ट होती है।
मोक्ष प्राप्ति के लिए ध्यान ही एकमात्र श्रेष्ठ मार्ग है। ध्यान सभी दर्दों, कष्टों, त्रिताप तथा पंच क्लेशों को नष्ट कर देता है। ध्यान समदृष्टि प्रदान करता है। ध्यान एक हवाई जहाज के समान है, जो परमानन्द एवं स्थायी शान्ति के धाम की ओर बढ़ने में सहायक होता है। यह एक अद्भुत सीढ़ी है, जो पृथ्वी और स्वर्गलोक को जोड़ती है। तथा साधक को ब्रह्म के अमर धाम को ले कर जाती है।
ध्यान ईश्वर अथवा आत्मा के एक ही विचार का तैलधारावत् प्रवाह है। ध्यान धारणा का अनुगामी होता है।
प्रातः काल ब्राह्ममुहूर्त में ४ से ६ बजे तक ध्यान का अभ्यास करें। यह ध्यान हेतु सर्वश्रेष्ठ समय है।
पद्मासन अथवा सुखासन में बैठे सिर, गर्दन और धड़ एकसीध में होने चाहिए। त्रिकुटी, भूमध्य-स्थान अथवा हृदय पर ध्यान करें। नेत्रों को बन्द रखें।
ध्यान दो प्रकार का होता है—सगुण और निर्गुण। सगुण ध्यान में योगाभ्यासी भगवान् कृष्ण, राम, सीता, विष्णु, शिव, गायत्री अथवा देवी के रूप का ध्यान करता है। निर्गुण ध्यान में वह अपनी आत्मा पर ध्यान करता है।
चतुर्भुज भगवान् हरि के चित्र को अपने सामने रखिए। पाँच मिनट तक इसे स्थिर दृष्टि से देखें, तत्पश्चात् नेत्र बन्द कर लें और चित्र को नेत्रों को बन्द किये हुए ही देखने का प्रयास करें। मन को भगवान् के अंगों पर ले कर जायें। मानसिक रूप से पहले उनके चरणों को देखिए; फिर पैरों को, उसके बाद पीताम्बर को, तत्पश्चात् वक्षस्थल के कौस्तुभ मणि जड़ित स्वर्ण हार को देखें, उसके बाद उनके मकराकृति कुण्डलों को, फिर मुख मण्डल को, उसके बाद मुकुट को, उसके बाद दायें हाथ में चक्र को, उसके बाद बायें हाथ में कमल को, फिर पैरों को, उसके बाद ऊपरी बायें हाथ में शंख को, तत्पश्चात् निचले बायें हाथ में गदा को देखें। इसके बाद पूरी विधि को पुनः दोहरायें । मन में 'हरि ॐ' अथवा 'ॐ नमो नारायणाय' का जप करें। भगवान् के सर्वज्ञता, सर्वव्यापकता, पवित्रता आदि गुणों के बारे में चिन्तन करें।
ॐ तथा इसके अर्थ का भाव सहित ध्यान करें। यह निर्गुण ध्यान है। मानसिक रूप से ॐ का जप करें। स्वयं को आत्मा के साथ जोड़ें। अनुभव करें— “मैं सर्वव्यापक आत्मा हूँ। मैं सत्-चित्-आनन्द ब्रह्म हूँ। मैं तीनों कालों का तथा मन के सभी रूपान्तरों का मौन साक्षी हूँ। मैं शुद्ध चेतना हूँ। मैं शरीर, मन, प्राण तथा इन्द्रियों से पृथक् हूँ। मैं स्वप्रकाश्य ज्योतिस्वरूप हूँ। मैं अमर परम आत्मा हूँ।”
यदि आपमें सन्तोष, उत्साह, धैर्य, मन की अविचल स्थिति, मधुर वाणी, मन की एकाग्रता, हल्का शरीर, निर्भयता, निष्काम्यता, सांसारिक वस्तुओं के प्रति अरुचि है, तो जानें कि आप आध्यात्मिक मार्ग में प्रगति कर रहे हैं तथा आप ईश्वर के सन्निकट हैं।
हे प्रेम! एक ऐसा स्थान है जहाँ आपको किसी प्रकार की ध्वनि नहीं सुनायी देगी, न आपको कोई रंग दिखायी देगा। वह स्थान है परम धाम या परम अनामय स्थान (दर्द रहित स्थान)। यह शान्ति और आनन्द का अमर धाम है। यहाँ शारीरिक चेतना नहीं रहती। यहाँ मन विश्राम प्राप्त करता है। सभी कामनाएँ तथा तीव्र अभिलाषाएँ जाती है। यहाँ इन्द्रियाँ शान्त रहती है, बुद्धि कार्य करना बन्द कर देती है। यहाँ कोई नहीं होता। क्या आप गहन ध्यान द्वारा इस शान्ति स्थल की खोज करेंगे? यहाँ परम शान्ति का साम्राज्य है। प्राचीन काल में ऋषियों ने एकान्त में मन को विलीन करके ही इस स्थान को प्राप्त किया था। यहाँ ब्रह्म स्वप्रकाश्य ज्योति में ज्योतित होता है।
शरीर को भूल जायें। अपने आस-पास सभी कुछ भूल जायें। भूलना सबसे बड़ी साधना है। यह ध्यान में बड़ी सहायक है। इसके द्वारा भगवान् के निकट पहुँचने में सरलता होती है। ईश्वर को स्मरण करने से आप सब कुछ भूल सकेंगे। मन को विषय-वस्तुओं से वापस खींच कर और इसे अपनी हृदय गुहा में प्रकाशित हो रहे ईश्वर के चरणों में लगा कर आध्यात्मिक आनन्द का अनुभव करें। गहन शान्त ध्यान के अभ्यास द्वारा अपने भीतर गहरे उतर कर लीन हो जायें। गहरे गोते लगायें। सत्-चित्-आनन्द के सागर में उन्मुक्तता से तैरें। आनन्द की दिव्य सरिता में हैं। स्रोत का दोहन करें। देवी चेतना के स्रोत की ओर सीधे आगे बढ़ें और अमृत पान करें। दैवी आलिंगन को अनुभव करें और दैवी समाधि का आनन्द लें। अब यहाँ मैं आपको छोड़ दूंगा। अब आपने अमरत्व एवं निर्भयता की स्थिति को प्राप्त कर लिया है। हे प्रेम! भयभीत न हों, देदीप्यमान हों, उनका प्रकाश आ गया है।
जितना अधिक आप ध्यान करेंगे, उतना ही अधिक आपको वह आन्तरिक जीवन प्राप्त होगा, जहाँ मन तथा इन्द्रियाँ कार्य नहीं करती है।
आप मूल स्रोत आत्मा के अत्यन्त निकट होंगे। आप आनन्द एवं शान्ति की लहरों का आनन्द लेंगे।
समस्त विषय-वस्तुओं के प्रति आपको कोई आकर्षण नहीं रहेगा। यह जगत् आपके सामने दीर्घ स्वप्न जैसा दृष्टिगोचर होगा। निरन्तर गहन ध्यान द्वारा आपके भीतर ज्ञान का सुप्रभात होगा।
आप पूर्ण ज्ञानी हो जायेंगे। अब अज्ञानता का आवरण नष्ट हो गया है। आपके समस्त कोशों का भेदन हो गया है। आपके भीतर से देहाध्यास नष्ट हो जायेगा। आप 'तत् त्वं असि' महावाक्य के महत्त्व को पहचान लेंगे। सभी भेद, उपाधियाँ तथा गुण अदृश्य हो जायेंगे। आप सर्वत्र आनन्द, प्रकाश तथा ज्ञान से पूर्ण अनन्त आत्मा के दर्शन करेंगे। यह वास्तव में एक दुर्लभ अनुभव होगा। अर्जुन की भाँति भय से न करें। यहाँ पर इन्द्रियाँ नहीं है। यहाँ शुद्ध चेतना मात्र है।
हे प्रेम! आप आत्मा हैं। आप यह नश्वर शरीर नहीं है। इस घृणित शरीर के प्रति मोह त्याग दें। भविष्य में कभी भी यह न कहे "मेरा शरीर" कहें- "यह उपकरण" अब सूर्यास्त होने को है, सूर्य अपनी सभी किरणों को भीतर समेट रहा है। अब ध्यान हेतु बैठ जायें। अपने भीतर की त्रिवेणी में गहरे गोते लगायें। मन की सभी किरणों को एकत्र करें और आन्तरिक हृदय गुहा में गहरे लीन हो जायें। सभी प्रकार के भय, उत्तरदायित्वों, चिन्ताओं, आकुलताओं को त्याग दें। एकान्त के सागर में विश्राम करें । अनन्त शान्ति का आनन्द लें। आपका पुराना शरीर अब चला गया है। सभी सीमाएँ अदृश्य हो गयी हैं। यदि कामनाएँ और पुरानी अभिलाषाएँ पुनः फुफकारने का प्रयत्न करें, तो उन्हें विवेक की लाठी और वैराग्य की तलवार से नष्ट कर दें।
जब तक आप ब्रह्म-स्थिति को न प्राप्त कर लें, इन दोनों को सदा अपने पास रखें। ॐ सत् चित् आनन्द है। ॐ अनन्त है। ॐ का ध्यान करें।
ॐ ॐ ॐ की गर्जना करें। ॐ ही सुनें। ॐ का स्वाद लें। ॐ का दर्शन करें। ॐ का पान करें। ॐ आपका नाम है। यही ॐ आपका नाम है। यही ॐ आपका पथ-प्रदर्शन करे! ॐ ॐ ॐ ॐ शान्तिः।
-स्वामी शिवानन्द
ॐ
॥ शिवध्यानम् ॥
शान्तं पद्मासनस्थं शशधरमुकुटं पंचवक्त्रं त्रिनेत्रं
शूलं वज्रं च खड्गं परशुमभयदं दक्षिणांगे वहन्तम् ।
नागं पाशं च घण्टां डमरुकसहितां चांकुशं वामभागे
नानालंकारदीप्तं स्फटिकमणिनिभं पार्वतीशं नमामि ॥
मैं पंचमुखी श्री शिव जी को प्रणाम करता हूँ जो पार्वती जी के स्वामी हैं, जो अनेक प्रकार के आभूषण धारण किये हैं, जो स्फटिक मणि के समान दीप्तिमान हैं, जो पद्मासन में स्थित हैं, चन्द्रमा जिनका मुकुट है, जिनके तीन नेत्र हैं, जो दाहिनी ओर त्रिशूल, वज्र, खड्ग एवं बार्थी ओर नागपाश, घण्टा, डमरु तथा अंकुश धारण किये हैं। जो अपने भक्तों की सभी भयों से रक्षा करते हैं।
ॐ
।। शंकराचार्यध्यानम् ।।
पद्मासीनं प्रशान्तं यमनिरतमनंगारितुल्यप्रभावं
फाले भस्मांकिताभं स्मितरुचिरमुखांभोजमिन्दीवराक्षम्म् ।
कम्बुग्रीवं कराभ्यामविहतविलसत्पुस्तकं ज्ञानमुद्रां
वन्दयै गीर्वाणमुख्यैर्नतजनवरदं भावये शंकरार्यम् ।
मैं श्री शंकराचार्य जी का ध्यान करता हूँ, जो पद्मासन में ज्ञानमुद्रा में बैठे हैं, जो शान्त हैं, जो यम-नियम आदि सद्गुणों से युक्त हैं, जिनकी कीर्ति भगवान् शंकर के समान है, जिनके मस्तक पर भस्म अंकित है, जिनका मुख खिले कमल के समान है, जिनके नेत्र कमल की पंखुड़ी के समान हैं, जो हाथों में वेद लिये हुए हैं, जिनकी आराधना महत् बुद्धि सम्पन्न जन करते हैं तथा जो अपने भक्तों की समस्त कामनाओं को पूर्ण करते हैं।
ॐ
॥ ओंकारध्यानम् ॥
ओंकारं निगमैकवेद्यमनिशं वेदान्ततत्त्वास्पदं
चोत्पत्तिस्थितिनाशहेतुममलं विश्वस्य विश्वात्मकम् ।
विश्वत्राणपरायणं श्रुतिशतैः सम्प्रोच्यमानं विभुं
सत्यज्ञानमनन्तमूर्तिममलं शुद्धात्मकं तं भजे ॥
मैं नित्य-शुद्ध, सर्वव्यापक, प्रणव, ओंकार का सदैव ध्यान करता हूँ, जिसे विभिन्न श्रुतियों में वेदान्त का स्रोत एवं आधार कहा गया है, जिसे इस विश्व की सृष्टि, अस्तित्व तथा विलय का कारण कहा जाता है, जो इस विश्व की आत्मा है तथा जो सत्य, ज्ञान और अनन्तता है।
ॐ
।। दत्तात्रेयध्यानम् ।।
मालाकमण्डलुधरः करपद्मयुग्मे
मध्यस्थपाणियुगले डमरुत्रिशूलम् ।
अध्यस्थ ऊर्ध्वकरयोः शुभशंखचक्रे
वन्दे तमत्रितनयं भुजषट्कयुक्तम् ॥
मैं अत्रि-पुत्र दत्तात्रेय का ध्यान करता हूँ, जिनके छह हाथ हैं, जिनके नीचे के दोनों हाथों में माला और कमण्डल, मध्य के दोनों हाथों में डमरु और त्रिशूल तथा ऊपरी दोनों हाथों में शंख और चक्र हैं।
ॐ
॥ गणेशध्यानम् ॥
गजाननं भूतगणादिसेवितं
कपित्थजम्बूफलसारभक्षणम् ।
उमासुतं शोकविनाशकारणं
नमामि विघ्नेश्वरपादपंकजम् ॥
मैं उमा-पुत्र श्री गणेश के चरण-कमलों में नमन करता हूँ, जो सभी दुःखों का नाश करते हैं, भूत गण तथा देव जिनकी सेवा करते हैं तथा जो जम्बू और कपित्थ फल के सार को ग्रहण करते हैं।
ॐ
॥ सुब्रह्मण्यध्यानम्॥
षडाननं कुंकुमरक्तवर्णं
महामतिं दिव्यमयूरवाहनम् ।
रुद्रस्य सुनूं सुरसैन्यनाथं
गुहं सदाहं शरणं प्रपद्ये ॥
मैं षडानन भगवान् गुह के चरणों का सदा ध्यान करता हूँ, जो कुंकुम के समान रक्त वर्ण के तथा जो अनन्त ज्ञान हैं, जिनका वाहन दिव्य मयूर है, जो देवों की सेना के नायक हैं।
ॐ
।। सरस्वतीध्यानम् ।।
या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता
या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना।
या ब्रह्माच्युतशंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा ।।
वे देवी सरस्वती मेरी रक्षा करें जो शुभ्र वर्ण की हैं, हिम के समान श्वेत कुन्दों के पुष्पों को धारण करती हैं, शुभ्र वस्त्र धारण करती हैं, श्रेष्ठ पवित्र वीणा लिये हुए श्वेत कमल पर विराजित हैं, ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश जिनकी आराधना करते हैं तथा जो जड़ता और आलस्य को दूर करने वाली हैं।
ॐ
॥ महालक्ष्मीध्यानम् ।
वन्दे पद्मकरां प्रसन्नवदनां सौभाग्यदां भाग्यदां
हस्ताभ्यामभयप्रदां मणिगणैर्नानाविधैर्भूषिताम् ।
भक्ताभीष्टफलप्रदां हरिहरब्रह्मादिभिस्सेवितां
पार्श्वे पंकजशंखपद्मनिधिभिर्युक्तां सदा शक्तिभिः ॥
मैं श्री लक्ष्मी देवी का ध्यान करता हूँ, जो हाथों में कमल लिये हैं, प्रसन्न मुख हैं, सौभाग्य को देने वाली हैं, जो दोनों हाथों से अभय प्रदान करती हैं, जो अनेक मणियों से सुशोभित हैं, जो अपने भक्तों को अभीष्ट फल प्रदान करती हैं, ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश जिनकी आराधना करते हैं, शक्तियाँ जिनके आस-पास रहती हैं और जो शंख, पद्म तथा महापद्मा निधि से युक्त हैं।
ॐ
॥ कृष्णध्यानम् ॥
वंशीविभूषितकरान्नवनीरदाभात्
पीताम्बरादरुणबिम्बफलाधरोष्ठात् ।
पूर्णेन्दुसुन्दरमुखादरविन्दनेत्रात्
कृष्णात्परं किमपि तत्त्वमहं न जाने ।।
मैं कमलनयन वंशीधर कृष्ण, जो काले मेघ के समान वर्ण वाले हैं, जिनके ऑट लाल बिम्ब फल की भाँति हैं, जिनका मुख पूर्ण चन्द्र की भाँति प्रकाशित हो रहा है, के. सिवा अन्य किसी को नहीं जानता।
ॐ
॥ रामध्यानम् ।।
ध्यायेदाजानुबाहुं धृतशरधनुषं बद्धपद्मासनस्थं
पीतं वासो वसानं नवकमलदलस्पर्धिनेत्रं प्रसन्नम् ।
वामांकारूढसीतामुखकमलमिलल्लोचनं नीरदाभं
नानालंकारदीप्तं दधतमुरुजटामण्डलं रामचन्द्रम् ।
श्री रामचन्द्र जी का ध्यान करो, जो आजानुबाहु हैं, जो पद्मासन में बैठे हैं, पोत वस्त्र धारण किये हैं, जिनके नेत्र नव-प्रस्फुटित कमल की पंखुड़ी की भाँति हैं, जिनकी चाल अत्यन्त सुन्दर है, जिनकी बायीं ओर सीता जी विराजमान हैं, जिनका वर्ण मेघ के समान श्याम है, जिन्होंने अनेक आभूषण धारण किये हैं तथा जिनके शीश पर विशाल जटा सुशोभित है।
ॐ
॥ गायत्रीध्यानम् ॥
मुक्ताविद्रुमहेमनीलधवलच्छायैर्मुखैस्तीक्षणै-
युक्तामिन्दुनिबद्धरत्नमुकुटां तत्त्वात्मवर्णात्मिकाम् ।
गायत्री वरदाभयांकुशकशां शुभ्रं कपालं गदां
शंखं चक्रमथारविन्दयुगलं हस्तैर्वहन्तीं भजे ॥
मैं श्री गायत्री माता का ध्यान करता हूँ, जिनका मुख मोतियों, मूँगे, स्वर्ण, नीले एवं श्वेत रत्नों से सुशोभित है, जिनका मुकुट मोतियों और चन्द्रमा से अलंकृत है, जो सभी वेदों के सार को व्यक्त करती हैं, जो उस पवित्र सत्य की मूर्ति हैं, जो अपने दोनों हाथों से वरदान तथा अभय प्रदान करती है तथा जो अपने हाथों में अंकुश, चाबुक, खप्पर, गदा, शंख, चक्र तथा दो श्वेत कमल लिये हैं।
ॐ
॥ सूर्यध्यानम् ॥
भास्वद्रत्नाढ्यमौलिः स्फुरदधररुचा रंजितश्चारुकेशो
भास्वान्यो दिव्यतेजाः करकमलयुतः स्वर्णवर्णः प्रभाभिः ।
विश्वाकाशावकाशग्रहपतिशिखरे भाति यश्चोदयाद्रौ
सर्वानन्दप्रदाता हरिहरनमितः पातु मां विश्वचक्षुः ॥
जो जगत् के नेत्र हैं, जो समस्त आनन्द के दाता हैं, जो भगवान् हरि, शिव एवं देवों द्वारा पूजित हैं, जो ऊँचे पहाड़ों में चमकते हैं, जो रत्न जड़ित मुकुट के साथ देदीप्यमान हैं, जो ग्रहों के देव हैं, जिन्होंने इस सम्पूर्ण जगत् को व्याप्त किया है, जो अपने ओठों तथा सुन्दर केशों की दीप्ति के साथ प्रकाशित हैं तथा दिव्य तेज से युक्त हैं, वे सूर्यदेव मेरी रक्षा करें।
विषय-सूची
४. अन्तर्मुख एवं बहिर्मुख वृत्तियाँ
६. मन की घुमन्तु प्रवृत्ति को कम करें
३. जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में धारणा
४. ब्राह्ममुहूर्त - -ध्यान हेतु सर्वश्रेष्ठ समय
१३. ध्यानाभ्यास के लिए योग्यताएँ
३. नेत्र बन्द कर मानसिक चित्रण करना
६. सगुण तथा निर्गुण ध्यान की तुलना
११. पुराने कुसंस्कारों का दबाव
२५. पूर्वाग्रह, असहिष्णुता और हठधर्मिता
बीस महत्त्वपूर्ण आध्यात्मिक नियम
धारणा और ध्यान
"देशबन्धश्चित धारणा "मन को किसी बाह्य विषय अथवा आन्तरिक बिन्दु पर एकाग्र करना धारणा है। एक बार एक संस्कृत के विद्वान कबीर के पास गये और उनसे प्रश्न किया "कबीर, अभी आप क्या कर रहे हैं?" कबीर ने उत्तर दिया पण्डित जी, मैं मन को सांसारिक विषयों से वापस खींच कर भगवान् के चरण कमलों पर एकाग्र कर रहा हूँ।" इसे धारणा कहते हैं। उत्तम आचरण, आसन-प्राणायाम तथा विषय-वस्तुओं से प्रत्याहार धारणा में शीघ्र सफलता प्राप्ति को सरल बनाते हैं। धारणा योग की सीढ़ी का छठवाँ पायदान है। मन जिस पर टिक सके, ऐसी किसी वस्तु के बिना धारणा नहीं हो सकती। एक निश्चित उद्देश्य, रुचि, एकाग्रता धारणा में सफलता लाते हैं।
इन्द्रियाँ आपको बाहर खींच लाती है और आपके मन की शान्ति को भंग कर देती हैं। यदि आपका मन बैचैन है, तो आप किसी प्रकार की प्रगति नहीं कर सकते हैं। जब अभ्यास के द्वारा मन की किरणें एकत्रित हो जाती हैं, तो मन एकाग्र हो जाता है और आपको मन के भीतर से आनन्द प्राप्त होता है। विचारों और आवेगों को शान्त करें।
आपके भीतर धैर्य, दृढ़ संकल्प तथा अथक दृढ़ता होनी चाहिए। आपको अपने अभ्यास में बड़ा ही नियमित होना चाहिए, अन्यथा आलस्य और विपरीत बल आपको लक्ष्य से दूर ले के चले जायेंगे। एक उत्तम प्रशिक्षित मन को संकल्प के अनुसार किसी भी विषय पर, चाहे वह बाहरी हो या आन्तरिक, सभी विचारों के निषेध के लिए एकाग्र किया जा सकता है।
प्रत्येक व्यक्ति के पास कुछ विषयों पर धारणा हेतु क्षमता होती है। लेकिन आध्यात्मिक प्रगति के लिए धारणा का अत्यन्त उच्च स्तर तक विकास हो जाना चाहिए। उत्तम धारणा वाले व्यक्ति की अर्जन क्षमता अच्छी होती है तथा वह कम समय में अधिक कार्य कर सकता है। धारणा करते समय मस्तिष्क पर किसी प्रकार का तनाव नहीं होना चाहिए। आपको मन के साथ संघर्ष नहीं करना चाहिए।
एक पुरुष जिसका मन वासनाओं तथा विभिन्न प्रकार की काल्पनिक कामनाओ से पूर्ण है, वह मन को किसी विषय पर एक पल के लिए भी कठिनाई से ही एकाग्र कर सकेगा। ब्रह्मचर्य का पालन, प्राणायाम के अभ्यास, आवश्यकताओं तथा गतिविधियों में कमी, विषय-वस्तुओं का त्याग, एकान्त का सेवन, मौनव्रत, इन्द्रियों पर संयम करने तथा कामवासना, लोभ, क्रोध का उन्मूलन करना, अनावश्यक लोगों से मिलने-जुलने से बचना, समाचारपत्र- पठन और सिनेमा देखने का त्याग उपर्युक्त बताये गये नियमों के पालन से धारणा-शक्ति में वृद्धि होती है।
संसार के कष्टों, दुःखों से मुक्ति के लिए एकमात्र मार्ग धारणा है। इसके अभ्यासी का स्वास्थ्य उत्तम तथा उसे मानसिक दृष्टि से उत्साहित रहना चाहिए। धारणा का अभ्यासी सूक्ष्म अन्तर्दृष्टि प्राप्त कर सकता है। वह किसी भी कार्य को बड़ी कुशलता से सम्पन्न कर सकता है। धारणा आवेगों को शान्त करती है। विचार-शक्ति को दृढ़ बनाइए और विचारों को स्पष्ट कीजिए। यम तथा नियम के द्वारा मन को शुद्ध कीजिए। शुद्धता के बिना धारणा का कोई उपयोग नहीं है।
किसी मन्त्र का जप तथा प्राणायाम मन को स्थिर करेगा। विक्षेपों का उन्मूलन कीजिए और धारणा-शक्ति में वृद्धि कीजिए। धारणा तभी की जा सकती है, जब मन सभी प्रकार के विक्षेपों से मुक्त हो। किसी भी उस विषय पर जिसे मन पसन्द करता हो या जो आपको अच्छा लगे, उस पर धारणा करें। प्रारम्भ में मन को स्थूल विषयों पर धारणा द्वारा प्रशिक्षित करना चाहिए और बाद में आप सूक्ष्म विषयों तथा निर्गुण विचारों पर सफलतापूर्वक धारणा कर सकेंगे। अभ्यास में नियमितता सर्वाधिक आवश्यक है।
स्थूल रूप : दीवार पर एक काला बिन्दु, मोमबत्ती की लौ, चमकता हुआ तारा, चन्द्रमा ॐ का चित्र, भगवान् शिव, राम, कृष्ण, देवी अथवा अपने इश्देवता के चित्र को अपने सामने रख कर खुली आँखों से ध्यान करें।
सूक्ष्म रूप: अपने इष्टदेवता के चित्र के सामने बैठ जायें और आँखें बन्द कर लें। अपने इह्देवता का मानसिक चित्र अपनी दोनों भौहों के मध्य अथवा अपने हृदय में रखें। मूलाधार, अनाहत, आज्ञा अथवा अन्य किसी आन्तरिक चक्र पर धारणा करें। दैवी गुणों जैसे प्रेम, करुणा अथवा अन्य किसी निर्गुण विचार पर धारणा करें।
हृदय-कमल (अनाहत चक्र) अथवा भूमध्य अथवा त्रिकुटी (दोनों भौहों के मध्य स्थान) अथवा नासिकाग्र पर धारणा करें। नेत्रों को बन्द रखें।
मन का स्थान आज्ञा चक्र है। यदि आप त्रिकुटी पर धारणा करेंगे, तो मन सरलता से एकाग्र हो जायेगा।
भक्तों को हृदय पर धारणा करनी चाहिए योगियों तथा वेदान्तियों को आज्ञा चक्र पर धारणा करनी चाहिए।
मन का अन्य स्थान है सहस्रार ( सिर का शीर्ष स्थान)। कुछ वेदान्ती यहाँ पर धारणा करते हैं। कुछ योगी नासिकाग्र पर भी धारणा करते हैं (नासिकाग्र दृष्टि)।
धारणा के एक केन्द्र पर दृढ़तापूर्वक अभ्यास करते रहें। इसे हठपूर्वक पकड़े रहें। यदि आप हृदय पर धारणा करते हैं, तो सदा इसी पर करते रहें, इसे कभी न बदलें। यदि आप आस्थावान् है, तो आपके गुरु धारणा हेतु केन्द्र का चुनाव करेंगे। यदि आप आत्म-निर्भर व्यक्ति हैं, तो आप स्वयं ही केन्द्र का चुनाव कर सकते हैं।
भ्रूमध्य-दृष्टि अर्थात् दोनों भौंहों के मध्य दृष्टि को केन्द्रित करना। यह आज्ञा चक्र का क्षेत्र है। अपने ध्यान के कमरे में पद्मासन अथवा सिद्धासन में बैठ कर एक मिनट तक धारणा करें। इस समय को शनैः-शनैः आधा घण्टे तक बढ़ायें। इसमें बल-प्रयोग न करें। यह योग की क्रिया विक्षेप अथवा मन के भटकाव को रोकती है तथा धारणा का विकास करती है। भगवान् श्री कृष्ण ने गीता के पाँचवें अध्याय के २७ वें श्लोक में इस क्रिया-विधि को निर्दिष्ट किया है: “स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे ध्रुवो: "बाह्य सम्पर्कों को दूर करके दृष्टि को भ्रूमध्य में केन्द्रित करें। इसे भ्रूमध्य-दृष्टि भी कहते हैं; क्योंकि नेत्र भ्रूमध्य की ओर केन्द्रित किये जाते हैं। आप इसके सिवा नासिकाग्र दृष्टि का भी चुनाव कर सकते हैं। -
नासिकाग्र दृष्टि में दृष्टि को नासिका के अग्र भाग पर केन्द्रित करते हैं। जब आप सड़क पर भ्रमण कर रहे हों, तब भी नासिकाग्र दृष्टि रखें। भगवान् कृष्ण ने गीता के छठवें अध्याय के श्लोक १३ में इसका वर्णन इस प्रकार किया है "सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रम्” – चारों तरफ न देखते हुए, मात्र नासिका के अग्रभाग पर एकटक स्थिर दृष्टि से देखें यह अभ्यास मन को स्थिर करता है तथा धारणा-शक्ति का विकास करता है।
एक राजयोगी त्रिकुटी पर धारणा करता है। यह आज्ञा चक्र का स्थान है। यह भूमध्य में है। यह जाग्रत अवस्था में मन का स्थान है। यदि आप इस स्थान पर धारणा करें, तो आप सरलता से मन को नियन्त्रित कर सकते हैं। यहाँ पर धारणा करने से अत्यन्त शीघ्र ही, यहाँ तक कि एक दिन के अभ्यास से ही कुछ लोगों को प्रकाश दिखायी देने लगता है। वे अभ्यासी जो विराट् पर ध्यान करना चाहते हैं तथा जगत् की सहायता करना चाहते हैं, उन्हें अपने ध्यान हेतु इस स्थान का चुनाव करना चाहिए। एक भक्त को हृदय पर जो कि भावना तथा अनुभव का स्थान है, ध्यान करना चाहिए। जो हृदय पर ध्यान करते हैं, उन्हें महानू आनन्द की प्राप्ति होती है। जो आनन्द प्राप्त करना चाहते हैं, उन्हें हृदय पर ध्यान करना चाहिए।
एक हठयोगी अपना मन सुषुम्ना नाड़ी जो कि मेरुरज्जु का मध्य मार्ग है तथा किसी विशेष चक्र जैसे मूलाधार, मणिपूर अथवा आज्ञा चक्र पर एकाग्र करता है। कुछ योगी निम्न चक्रों की उपेक्षा करते हैं। वे अपने मन को आज्ञा चक्र पर ही एकाग्र करते हैं। उनका सिद्धान्त यह है कि वे आज्ञा चक्र पर नियन्त्रण के द्वारा सभी निम्न चक्रों पर स्वयं ही नियन्त्रण कर सकेंगे। जब आप किसी चक्र पर धारणा करते हैं, तो प्रारम्भ में मन तथा उस चक्र के मध्य तन्तु जैसा सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। इसके पश्चात् योगी सुषुम्ना के साथ-साथ एक-एक चक्र ऊपर चढ़ता चला जाता है। यह उत्थान धैर्यपूर्वक प्रयत्न द्वारा शनैः-शनैः होता है । सुषुम्ना के प्रवेश द्वार में हलचल होने से अत्यधिक आनन्द की प्राप्ति होती है। तब आप मदमस्त हो जाते हैं। आप संसार को पूर्णतः विस्मृत कर देंगे। । सुषुम्ना के द्वार में स्पन्दन होने पर कुलकुण्डलिनी शक्ति सुषुम्ना में प्रवेश करने का प्रयत्न करती है और अन्तर में महान् वैराग्य आ जाता है। आप पूर्ण निर्भय हो जाते हैं। आपको अनेक दृश्य दिखायी देते हैं। आप श्रेष्ठ अन्तर्ज्योतियों के साक्षी बनते हैं। इसे उन्मनी अवस्था कहते हैं। विभिन्न चक्रों पर नियन्त्रण द्वारा आपको अनेक प्रकार के आनन्द तथा विभिन्न ज्ञान प्राप्त होते हैं— जैसे यदि आपने मूलाधार पर विजय प्राप्त कर ली है, तो आपने भूमण्डल पर स्वयं ही विजय प्राप्त कर ली है। यदि आपने मणिपूर चक्र पर विजय प्राप्त कर ली है, तो आपने अग्नि पर स्वयं ही विजय पा ली है, अब अभि आपको नहीं जला सकती। पंच धारणा आपको पंच तत्त्वों पर विजय में सहायक सिद्ध होगी। इनको किसी दक्ष योगी के निर्देशन में सीखें ।
मन को किसी एक विचार पर केन्द्रित करना धारणा कहलाती है। धारणा में मन शान्त एवं स्थिर हो जाता है। इसमें मन की विभिन्न किरणें एकत्रित करके ध्यान के विषय पर एकाग्र की जाती हैं। मन लक्ष्य पर केन्द्रित हो जाता है। यहाँ मन का किसी प्रकार का विचलन नहीं होगा। एक विचार मन को आपूरित कर लेता है। इसमें मन की समस्त ऊर्जाएं एक विचार पर केन्द्रित हो जाती हैं। इन्द्रियाँ शान्त हो जाती हैं तथा वे कार्य नहीं करतीं। जब धारणा गहन होती है, तो शरीर तथा वातावरण के प्रति कोई चेतना नहीं रहती। जिसकी अच्छी धारणा होती है, वह पलक झपकते ही, बन्द आँखें किये हुए स्पष्ट रूप से ईश्वर का चित्र देख सकता है।
मनोराज्य (हवाई किले बनाना) को धारणा नहीं कहते। यह मन का हवा में उड़ान भरना है। इसे धारणा अथवा ध्यान समझने की गलती न करें। मन की इस आदत को आत्म-निरीक्षण तथा आत्म-विश्लेषण द्वारा रोकें।
यदि आप अपने मन को किसी बिन्दु पर १२ सेकेंड तक केन्द्रित करते हैं, तो यह धारणा है। ऐसी १२ धारणाएँ मिल कर एक ध्यान होंगी— १२X१२=१४४ सेकेंड | १२ ऐसे ध्यान २५ मिनट २८ सेकेंड एक समाधि होंगे। वह कूर्मपुराण के अनुसार है। भगवान् के चित्र पर भी धारणा को किया जा सकता है।
धारणा तथा प्राणायाम दोनों ही एक-दूसरे पर निर्भर हैं। यदि आप प्राणायाम का अभ्यास करेंगे, तो आपको धारणा प्राप्त होगी। सामान्य रूप से प्राणायाम का अभ्यास धारणा के बाद किया जाता है। अलग-अलग प्रकृति के अनुसार भिन्न-भिन्न अभ्यास हैं। कुछ लोगों को पहले प्राणायाम का अभ्यास करना सरल पड़ता है, जब कि अन्य को पहले धारणा करना सरल पड़ता है।
जब धारणा गहन हो जाती है, तो आपको बड़े ही आनन्द तथा आध्यात्मिक उन्माद का अनुभव होगा। आप अपने शरीर तथा चारों ओर के वातावरण आदि सबको भूल जायेंगे। सभी प्राण ऊपर सिर की ओर ले जाये जायेंगे ।
प्राणायाम रजोगुण तथा तमोगुण के उस आवरण को हटाता है, जिसने सत्त्व को आवृत कर रखा है। यह नाड़ियों को शुद्ध करता है। यह मन को दृढ़ एवं स्थिर बनाता है, जिससे वह धारणा हेतु तैयार हो जाता है। प्राणायाम से मन की अशुद्धियाँ उसी प्रकार दूर हो जाती हैं, जैसे स्वर्ण को गलाने पर उसकी अशुद्धियाँ दूर हो जाती हैं।
जब आप अत्यन्त रुचि के साथ किसी पुस्तक को पढ़ते हैं, तो आपको अपना लेकर जोरर-जोर से चिल्ला रहे व्यक्ति की आवाज भी नहीं सुनायी देती। यहाँ तक कि आप अपने सामने खड़े व्यक्ति को भी नहीं देख पाते, अपने पास रखे पुष्पों की सुगन्ध का भी आपको अनुभव नहीं होता। इसे ही धारणा कहते हैं। यहाँ मन एक वस्तु पर दृढ़ता से एकाग्र है। जब आप आत्मा अथवा ईश्वर का चिन्तन करे, तो धारणा ऐसी ही होनी चाहिए। मन को सांसारिक विषय पर केन्द्रित करना बड़ा ही सरल है; क्योंकि मन आदत के कारण स्वाभाविक रूप से इसमें रुचि लेता है। मस्तिष्क में इसकी लीक कटी हुई है। आपको नित्य ही भगवान् अथवा स्वयं के भीतर स्थित आत्मा पर ध्यान के अभ्यास हेतु मन को प्रशिक्षित करना होगा। फिर मन बाह्य विषयों की ओर नहीं जायेगा, क्योंकि इसे धारणा के अभ्यास से अत्यधिक आनन्द प्राप्त होगा।
एक स्वर्णकार एक दस कैरेट स्वर्ण को शुद्ध स्वर्ण में बदलने के लिए इसमें अम्ल मिला कर इसे घरिया में कई बार जलाता है। इसी प्रकार आपको धारणा द्वारा अपने गुरु के निर्देशों तथा उपनिषदों के वाक्यों पर चिन्तन अथवा ध्यान अथवा जप अथवा मानसिक जप द्वारा अपने विषयी मन को शुद्ध करना होगा।
प्रारम्भिक अभ्यासियों को ध्यान में झटकों का अनुभव होता है। सिर पैरो हाथों वक्ष अथवा भुजाओं में झटके लग सकते हैं। भीरु लोग अनावश्यक ही इनसे घबरा जाते हैं। इसमें घबराने की कोई बात नहीं है। वास्तव में ध्यान मस्तिष्क की कोशिकाओं, नाड़ियों आदि में परिवर्तन लाता है। इसमें पुरानी कोशिकाएँ, नयाँ शक्तिशाली कोशिकाओं द्वारा स्थानान्तरित की जाती हैं। वे सत्त्व से आपूरित हो जाती है। सात्विक विचार तरंगों के लिए नयी लीकों का, नये मार्गों का निर्माण मस्तिष्क तथा मन में होता है, इसी कारण मांसपेशियाँ थोड़ी उत्तेजित हो जाती हैं। साहसी बनें। साधक के लिए साहस एक महत्त्वपूर्ण गुण एवं योग्यता है। इस सद्गुण का अर्जन कीजिए।
सही आसन में बैठें। नेत्रों को बन्द कर लें। कल्पना करें कि सर्वत्र ईश्वर के सिवा और कुछ भी नहीं है।
जैसा कि आप सभी जानते ही हैं कि बीजगणित को समझने के लिए अंकगणित का प्रारम्भिक ज्ञान आवश्यक है, संस्कृत के काव्य तथा वेदान्त के ग्रन्थ लघु सिद्धान्त कौमुदी और तर्क संग्रह के प्रारम्भिक ज्ञान के बिना नहीं समझे जा सकते। इसी प्रकार निर्गुण निराकार ब्रह्म पर ध्यान प्रारम्भ में स्थूल प्रतीक के बिना सम्भव नहीं है। दृश्य एवं ज्ञात के द्वारा अदृश्य एवं अज्ञात तक पहुँचने का प्रयास करें।
जितना अधिक आप ईश्वर में मन को एकाग्र करेंगे। आपका मन उतनी ही शक्ति अर्जित करेगा। अधिक धारणा अर्थात् अधिक ऊर्जा। धारणा प्रेम अथवा अनन्तता के साम्राज्य के आन्तरिक प्रकोष्ठों को खोलती है। धारणा ज्ञान के कोष को खोलने की एकमात्र चाबी है।
धारणा करें। ध्यान करें। गहन चिन्तन-शक्ति का विकास करें। अनेक जटिल बिन्दु तब एकदम स्पष्ट हो जायेंगे। आपको अपने भीतर से ही उत्तर एवं हल प्राप्त होंगे।
अपने ज्ञान एवं साक्षात्कार की पुष्टि हेतु शुकदेव जी को राजा जनक के पास जाना पड़ा था। राजा जनक ने अपने दरबार में उनकी परीक्षा ली थी। उन्होंने शुकदेव का ध्यान भटकाने के लिए अपने महल के चारों ओर नृत्य एवं संगीत की सभाएँ आयोजित की और शुकदेव को हाथ में एक दूध से भरा हुआ प्याला ले कर महल के तीन चक्कर लगाने के लिए कहा, लेकिन प्याले से दूध की एक भी बूँद नहीं गिरनी चाहिए थी। शुकदेव जी तो अपनी आत्मा में पूर्ण स्थित थे, इसलिए वे परीक्षा में पूर्ण सफल रहे। कोई भी उनके मन को विचलित नहीं कर सकता था।
धारणा का अभ्यास धीरे-धीरे स्थिरतापूर्वक करें। इसके अभ्यास से आप नरश्रेष्ठ बन जायेंगे।
आपको प्रारम्भ में मन को उसी तरह बहलाना होगा, जिस प्रकार बच्चे को बहलाते हैं। मन भी एक अज्ञानी बच्चे की तरह है। मन से कहें- "अरे मन, तुम मिथ्या निरर्थक नाशवान् वस्तुओं के पीछे क्यों भागते हो? तुम्हें इसमें अनेक कष्ट होंगे। भगवान् कृष्ण की ओर देखो, जो सर्वाधिक सौन्दर्यशाली हैं। इससे तुम्हें नित्य आनन्द की प्राप्ति होगी। तुम संसार के प्रेम गीतों को सुनने के लिए क्यों भागते हो? भगवान् के भजन सुनो। आत्मा को झंकृत करने वाले कीर्तनों को सुनो। तुम्हारा उत्थान होगा।" इस प्रकार मन धीरे-धीरे अपनी पुरानी बुरी आदत को छोड़ देगा और स्वयं भगवान् के चरणों में एकाग्र हो जायेगा। जब यह रजोगुण एवं तमोगुण से मुक्त हो जायेगा, तो यह आपका पथ-प्रदर्शन करेगा। तब यह आपका गुरु होगा।
जैसे ही आप ध्यान के लिए बैठें, ॐ का तीन से छह बार उच्चारण करें। यह आपके मन से सभी सांसारिक विचारों को दूर करेगा तथा विक्षेपों को दूर हटायेगा। इसके बाद मानसिक रूप से ॐ का जप करें।
सभी अन्य संवेदनात्मक अनुभवों एवं विचारों की उपेक्षा करें। मन के भीतर परस्पर सम्बन्धी कार्यों से उत्पन्न जटिलताओं को रोकें। मन को एक ही विचार पर लगायें ।मन की अन्य सभी गतिविधियों को बन्द कर दें। अब सम्पूर्ण मन एक ही विचार से परिपूर्ण होगा । जिस प्रकार एक ही विचार अथवा एक ही कार्य की पुनरावृत्ति से उस विचार अथवा कार्य में दक्षता आती है, उसी प्रकार एक ही क्रिया अथवा विचार की पुनरावृत्ति से विचारों के एकीकरण, धारणा तथा ध्यान में दक्षता आती है।
प्रारंभ में मन को एक ही विचार पर लगाना अत्यन्त कठिन होगा। विचारों की संख्या में कमी करें। एक ही विषय पर विचार करने का प्रयत्न करें। यदि आप गुलाब के बारे में विचार कर रहे हो, तो मात्र गुलाब से ही सम्बन्धित सभी विचार होने चाहिए। आप संसार के विभिन्न भागों में उगने वाले विभिन्न प्रकार के गुलाबों के बारे में सोच सकते है। निर्मित होने वाली विभिन्न चीजों के बारे में भी विचार कर सकते हैं। मन की निरुद्देश्य रूप से इधर-उधर भटकने की अवस्था को रोकें। गुलाब के बारे में विचार करें, तो निर्थक रूप से आने वाले अन्य विचारों को न रखें । धीरे-धीरे आप मन को मात्र एक ही विचार पर केन्द्रित कर सकेंगे। आपको नित्य ही मन पर संयम करना होगा। विचार-नियन्त्रण हेतु सदैव जागरूक रहना आवश्यक है।" |
कामनाओं तथा आवश्यकताओं में कमी, एक या दो घण्टे नित्य मौन एक एकान्त कमरे में एक या दो घण्टे रहने, प्राणायाम के अभ्यास, प्रार्थना, नित्य ध्यान की बैठकों में वृद्धि तथा विचार आदि के द्वारा धारणा में वृद्धि होती है।
आपको सदैव उत्साहपूर्ण तथा शान्तिपूर्ण रहने का प्रयत्न करना चाहिए, तभी आपको मन की धारणा प्राप्त होगी। बराबर वालों के साथ मैत्री, छोटों तथा दुखी करें के प्रति करुणा, गुणी और वरिष्ठ जनों के प्रति मुदिता तथा पापी एवं दुर्जनों के प्रति उपेक्षा के भाव का अभ्यास करने से प्रसन्नता एवं शान्ति उत्पन्न होती है तथा घृणा और ईर्ष्या का नाश होता है।
विचारों की संख्या में कमी से धारणा में वृद्धि होती है। विचारों की संख्या में कमी करना निश्चय ही पहाड़ पर चढ़ने के समान दुष्कर प्रतीत होगा। प्रारम्भ में यह आपको बहुत थका देगा, यह कार्य अरुचिकर भी अनुभव होगा; लेकिन बाद में आपको आनन्द भी देगा, क्योंकि विचारों में कमी से आपको मन की प्रचुर शक्ति तथा आन्तरिक शान्ति प्राप्त होगी। धैर्य, अध्यवसाय, जागरूकता और दृढ संकल्प से सुसज्जित हो कर आप विचारों को सन्तरे अथवा नीबू की भाँति आसानी से कुचल सकेंगे।
इनको कुचलने के बाद इन्हें उखाड़ फेंकना आपके लिए अधिक सरल होगा। इन्हें कुचलना अथवा दबाना मात्र पर्याप्त नहीं होगा। इससे पुनः विचारों का पुनर्जीवन होगा। इन्हें उसी प्रकार पूर्णतया उखाड़ फेंकना चाहिए, जिस प्रकार हिलते हुए दाँत को जड़ से उखाड़ दिया जाता है। मौन धारण, प्राणायाम के अभ्यास, आत्म-संयम, कठोर साधना तथा मानसिक रूप से अधिक निरासक्ति के भाव के अर्जन के द्वारा धारणा का विकास किया जा सकता है।
जाग्रत एवं स्वप्नावस्था के मध्य की सन्धि पर धारणा का अभ्यास एवं इस सन्धि-काल को बढ़ाना दोनों ही कठिन है। रात्रि के समय शान्त कमरे में बैठें और सावधानीपूर्वक मन को देखें। आप सन्धि की स्थिति को प्राप्त करने योग्य हो जायेंगे। तीन माह तक नियमित अभ्यास करें। आपको सफलता मिलेगी।
अपनी गतिविधियों में कमी करें। आपको और अधिक धारणा एवं आन्तरिक जीवन प्राप्त होगा।
यदि आपको कमरे के भीतर मन को एकाग्र करने में कठिनाई का अनुभव हो, तो बाहर आ जायें, खुले स्थान पर, छत पर, नदी के किनारे अथवा बगीचे के शान्त कोने में बैठ जायें। आपकी धारणा अच्छी होगी।
जैसे ही आप टार्च का बटन दबाते हैं, पलक झपकते ही प्रकाश चमकता है। इसी प्रकार योगी धारणा करके आज्ञा चक्र (दोनों भौंहों के मध्य स्थान पर) का बटन दबाता है और तत्काल दैवी प्रकाश चमकता है।
अन्तर्मुख- वृत्ति
आपको अन्तर्मुख-वृत्ति मात्र तभी प्राप्त हो सकती है, जब आपने मन को बाहर ले जाने वाली समस्त शक्तियों को नष्ट कर दिया हो। सत्त्व में वृद्धि के कारण मन की ऊर्जा को भीतर की ओर खींचना अन्तर्मुख-वृत्ति है।
आपको योग की क्रिया प्रत्याहार के द्वारा मन को अन्तरावलोकन करने अर्थात् इसको स्वयं की ओर भीतर की ओर मोड़ने की क्रिया को सीखना चाहिए। जिनको इस क्रिया का ज्ञान होता है, वे ही शान्ति से पूर्ण होते हैं तथा मात्र वे ही प्रसन्न रहते हैं। मन में अब किसी प्रकार का विध्वंस नहीं होता। मन अब स्वयं बाहर नहीं निकल सकता ! इसे अब हृदय-गुहा में रखा जा सकता है। त्याग और वैराग्य (कामनाओं, विषयों तथा अहंकार के त्याग) द्वारा आपको मन को भूखा रखना चाहिए।
जब मन की बाहर जाने वाली वृत्तियाँ रोक ली जाती है, जब मन हृदय में ही रुका रहता है, जब इसका पूरा ध्यान स्वयं ही मात्र इसी की ओर ही मुड़ जाता है, तो इस अवस्था को अन्तर्मुख-वृत्ति कहते हैं। जब साधक को यह अन्तर्मुख-वृत्ति प्राप्त हो जाती है, तो वह अधिक साधना कर सकता है। वैराग्य तथा अन्तरावलोकन इस मानसिक अवस्था की प्राप्ति में बड़े ही सहायक होते हैं।
बहिर्मुख वृत्ति
रजोगुण के कारण मन के बाहर की ओर जाने वाली वृत्ति को बहिर्मुख-वृत्ति कहते हैं। पुरानी आदत के प्रभाव से कान और नेत्र तुरन्त बाहर से आती हुई ध्वनि की ओर जाते हैं। विषय और कामनाएँ बाहर की ओर जाने वाली शक्तियाँ है। एक राजसिक मनुष्य अन्तर्मुख-वृत्ति वाले अन्तर आध्यात्मिक जीवन का स्वप्न भी नहीं देख सकता । वह अन्तरावलोकन हेतु पूर्ण अयोग्य है।
जब दृष्टि बाहर की ओर जाती है, तो बदलते हुए परिदृश्य मन को आपूरित कर लेते हैं। मन की बाहर जाने वाली ऊर्जाएं कार्य करने लगती हैं।
जब आप इस विचार पर पूर्ण स्थापित हो जाते हैं कि जगत् असत्य है, तो विक्षेष (जो कि नाम और रूपों के कारण है) तथा संकल्पों का स्फुरण धीरे-धीरे नष्ट होता है। इस सूत्र को निरन्तर दोहरायें : “ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या – ब्रह्म एकमात्र सत्य है, जगत् मिथ्या है। जीव ब्रह्म के साथ एक है।” इससे आपको प्रचुर शक्ति और मन की शान्ति प्राप्त होगी।
धारणा का अभ्यास मन के रूपान्तरणों को रोकने के लिए किया जाता है।
मन को एक रूप अथवा विषय पर लम्बे समय तक स्थिर रखना एकाग्रता है।
क्षिप्त, मूढ, विक्षेप, एकाग्र तथा निरुद्ध—ये पाँच यौगिक भूमिकाएँ हैं। चित्त अथवा मन पाँच विभिन्न रूपों में प्रकट होता है। क्षिप्त अवस्था में मन की किरणें विभिन्न विषयों पर फैली हुई रहती हैं। यह बेचैन रहता है तथा एक विषय से दूसरे विषय पर कूदता रहता है। मूढ अवस्था में मन सुस्त और भुलक्कड़ होता है। विक्षिप्त अवस्था मन का एकत्रीकरण है, यह यदा-कदा स्थिर रहता है और कभी-कभी यह विभ्रान्त रहता है। धारणा के अभ्यास से मन स्वयं ही एकाग्र होने के लिए यत्नशील होता है। एकाग्र अवस्था में यह केन्द्रित होता है। तब मन में मात्र एक ही विचार उपस्थित होता है। निरुद्ध अवस्था में मन नियन्त्रण में होता है।
मन के भीतर बहिर्गामी एवं विषयाश्रित शक्तियाँ हैं। ये इसे बहिर्मुख वृत्ति की ओर ले जाती है। मन विषयों की ओर खींचता है। निरन्तर साधना (आध्यात्मिक साधना से मन को बहिर्गामी होने से रोका जाता है। इसे ब्रह्म की ओर इसके वास्तविक गृह की ओर मोड़ा जाना चाहिए।
मानव मन की शक्ति की कोई सीमा नहीं है। जितना अधिक यह केन्द्रित होगा, उतनी ही अधिक देर तक यह एक बिन्दु पर एकाग्र होने की शक्ति एकत्र करेगा। विभिन्न विषयों पर बिखरी मन की किरणों को एकत्रित करके मन को ईश्वर पर केन्द्रित करने के लिए ही आपका जन्म हुआ है। यह आपका महत्त्वपूर्ण कर्तव्य है। आप अपना कर्तव्य भूल गये है। आप परिवार, बच्चों, धन, शक्ति, पद, नाम तथा प्रसिद्धि के प्रति मोह के कारण अपना कर्तव्य भुला बैठे हैं।
मन की तुलना पारे के साथ की जाती है, क्योंकि इसकी किरणें विभिन्न विषयों पर बिखरी रहती हैं। इसकी तुलना बन्दर के साथ की जाती है, क्योंकि यह एक विषय से दूसरे विषय पर कूदता रहता है। इसकी तुलना भ्रमण करती हुई वायु से की जाती है, क्योंकि यह चंचल है। मन की कामुक प्रचण्डता के कारण इसकी तुलना कामुक क्रोधोन्मत्त हाथी से की जाती है।
मन को बड़ी चिड़िया भी कहते हैं; क्योंकि यह एक विषय से दूसरे विषय पर उसी तरह कूदता रहता है, जिस तरह चिड़िया एक डाली से दूसरी डाली पर फुदकती रहती है। मन को कैसे एकाग्र किया जाये और फिर मन की अन्तरतम गुहाओं की खोज कैसे की जाये, राजयोग इसकी शिक्षा देता है।
धारणा विषय-वासनाओं की विरोधी हैं, आवेश और चिन्ताओं के लिए. आनन्द है। यह व्याकुलता में स्थिर चिन्तन देती है। आलस्य एवं जड़ता के स्थान पर व्यावहारिक चिन्तन प्रदान करती है। बुरी भावनाओं के स्थान पर परमानन्द प्रदान करती है।
जब तक स्थिर अभ्यास के द्वारा विचार पूरी तरह नष्ट नहीं हो जाते, तब तक उसे अपने मन को एक समय में एक ही सत्य पर केन्द्रित करना होगा। इस प्रकार निरन्तर अभ्यास करने से मन को एक बिन्दु पर एकाग्र होने की क्षमता प्राप्त होगी और तत्क्षण विचारों की सेना समाप्त हो जायेगी।
मन के इस विचलन तथा विभिन्न अन्य विघ्नों, जो कि मन की एकाग्रता के मार्ग में खड़े हैं, को दूर करने के लिए धारणा का अभ्यास ही एकमात्र उपाय है।
मन प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से किसी सुखकर अथवा रुचिकर विषय से संयुक्त रहता है। एक उदाहरण देखिए जब आप गुलमर्ग, सोनमर्ग, चश्मेशाही और अनन्तनाग के सुन्दर दृश्यों का आनन्द ले रहे होते हैं, उसी समय यदि आपको अपने एकमात्र पुत्र के असामयिक निधन का समाचार मिलता है, तो आपका मन एकदम से व्यथित हो जाता है। अब आपको सुन्दर दृश्यावलि में कोई रुचि नहीं रह जाती। यहाँ अवधान का उच्चाटन हो गया है। अब आपके मन में निराशा है। ये धारणा और एकाग्रता ही है, जो आपको दृश्य देखने में आनन्द प्रदान करती हैं।
ध्यान बिन्दु उपनिषद् में लिखा है-"आत्मा को मथनी का निचला भाग तथा प्रणव को मथनी का ऊपरी भाग बना कर व्यक्ति को मन्थन (जिसे ध्यान कहते हैं) के अभ्यास द्वारा एकान्त में ईश्वर का दर्शन करना चाहिए।"
अपने सामने भगवान् ईसामसीह का चित्र रखें। ध्यान के अपने प्रिय आसन में बैठ जायें। चित्र के ऊपर सहज रूप से तब तक धारणा करें, जब तक आपके नेत्रों से अश्रु न बहने लगे। अपने मन को उनके वक्षस्थल के ऊपर क्रास, लम्बे बालों, सुन्दर दाढ़ी, गोल नेत्रों तथा अन्य अंगों और उनके सिर के चारों ओर निकल रहे आध्यात्मिक आभामण्डल के ऊपर घुमायें। उनके दैवी गुणों जैसे प्रेम, उदारता, करुणा और धैर्य के बारे में विचार करें।
मन को बाह्य वस्तुओं पर एकाग्र करना सरल होता है। मन की बाहर की ओर जाने की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है। कामना भावोत्तेजक मन का एक प्रकार है। इसके पास मन को बहिर्मुखी करने की शक्ति है।
मन को आत्मा पर लगायें। इसे सर्वव्यापक शुद्ध बुद्धि और स्वज्योति पर केन्द्रित करें। ब्रह्म में दृढ़ रहें। तब आप ब्रह्मस्थ (ब्रह्म में स्थित) हो जायेंगे।
मन की धारणा का अभ्यास करें। मन को एक विचार, एक विषय पर केन्द्रित करे मन जब अपने लक्ष्य से दूर भागे, तो इसे बार-बार वापस खींचें और लक्ष्य पर पुनः केन्द्रित करें। मन को विचारों के सैकड़ों रूप न निर्मित करने दें। आत्म-निरीक्षण करें और मन को सावधानीपूर्वक देखें। अकेले रहें। संगति से बचें। अधिक लोगों के साथ घुलें मिलें नहीं। यह महत्त्वपूर्ण है। मन को व्यर्थ के विचारों, व्यर्थ चिन्ताओं, व्यर्थ कल्पनाओं, व्यर्थ भय तथा व्यर्थ पूर्वानुमानों में अपनी ऊर्जा व्यर्थ न गँवाने दें। निरन्तर अभ्यास द्वारा अपने मन को किसी विचार के एक रूप पर आधे घण्टे तक केन्द्रित करें। मन को स्वयं ही एक आकार का होने देने का प्रयास करें और निरन्तर अभ्यास के द्वारा इसे उसी आकार का बनाये रखने का प्रयास करें।
अपने मन को एकाग्र करने का प्रयास करते समय आप देखेंगे कि इस समय आपको स्वयं ही अपने मन में प्रतिबिम्ब बनाने की आवश्यकता का अनुभव होगा, लेकिन आप इसकी सहायता नहीं कर सकते।
ध्यान के समय मन के साथ संघर्ष न करें। यह एक भयंकर भूल है। कई नवाभ्यासी यह भयंकर गलती करते हैं। यही कारण है कि वे शीघ्र थक जाते हैं। उनका सिर दर्द करने लगता है अथवा ध्यान के समय मेरुरज्जु में मूत्रण केन्द्र में उत्तेजना होने के कारण, उन्हें अति शीघ्र मूत्र त्याग हेतु उठना पड़ता है। पद्मासन, सिद्धासन, सुखासन अथवा स्वस्तिक आसन में आराम से बैठ जायें। सिर, गर्दन और वक्ष को एक सीधी रेखा में रखें। मांसपेशियों, नाड़ियों तथा मस्तिष्क को शिथिल करें। विषयी मन को शान्त करें। नेत्र बन्द करें। प्रातः काल ४ बजे (ब्राह्ममुहूर्त में) जागें। मन के साथ संघर्ष न करें। इसे शान्त और शिथिल रखें।
मन को कुशलतापूर्वक प्रशिक्षित करने से आप इस पर नियन्त्रण प्राप्त कर सकते हैं। आप जैसा चाहें, इससे वैसा कार्य करवा सकते हैं तथा यदि आप चाहें, तो इसे उसकी शक्तियाँ प्रयोग करने के लिए विवश कर सकते हैं।
उच्च योगियों में आप कह नहीं सकते कि कहाँ प्रत्याहार समाप्त होता है और धारणा प्रारम्भ होती है, कहाँ धारणा समाप्त होती है और ध्यान प्रारम्भ होता है तथा कहाँ ध्यान समाप्त होता है और समाधि प्रारम्भ होती है। जिस क्षण वे आसन में बैठते हैं, सभी क्रियाएँ विद्युत् गति से स्वयं ही सम्पादित होने लगती हैं और वे अपनी इच्छा से समाधि में प्रविष्ट हो जाते हैं। नवाभ्यासियों में सर्वप्रथम प्रत्याहार स्थान लेता है। इसके बाद धारणा प्रारम्भ होती है। तत्पश्चात् धीरे से ध्यान आता है। समाधि प्रारम्भ होने के पहले उनके मन अधैर्यवान हो जाते हैं तथा वे थक जाते हैं और उनका पतन हो जाता है। निरन्तर प्रबल साधना हल्के किन्तु पौष्टिक आहार के साथ करने से साधना में आशाजनक सफलता प्राप्त होती है।
जिस प्रकार एक कुशल तीरन्दाज एक चिड़िया का शिकार करने के लिए इस बात का ध्यान रखता है कि वह किस ओर आगे बढ़ेगा, कैसे अपना धनुष उठायेगा किस प्रकार कमान खींचेगा और किस समय चिड़िया के ऊपर तीर छोड़ेगा अर्थात इस स्थिति में खड़े रह कर, इस प्रकार धनुष पकड़ कर, इस प्रकार कमान खींच कर, बाण को छोड़ कर, मैं चिड़िया को बींधूंगा।' और इसके बाद वह कभी भी इन स्थितियों को बनाने में और लक्ष्य को वेधने में असफल नहीं होता। इसी प्रकार साधक को भी इन स्थितियों का ध्यान रखना चाहिए जैसे 'इस प्रकार का भोजन ले कर, इस गुरु का अनुकरण करके, इस समय मैं ध्यान और समाधि प्राप्त करूँगा।'
एक चतुर रसोई बनाने वाला अपने मालिक की सेवा करने के लिए, उस भोजन का ध्यान रखता है, जो उसके मालिक को रुचिकर लगता है और इस प्रकार सेवा करने से उसे लाभ प्राप्त होता है। इसी प्रकार साधक को भी ध्यान और समाधि की प्राप्ति तथा उनके आनन्द को बार-बार प्राप्त करने के लिए कई बातों का ध्यान रखना चाहिए, जैसे पोषण आदि।
हठयोगी अपनी श्वास को प्राणायाम द्वारा नियन्त्रित करके अपने मन को एक करने का प्रयास करता है, जब कि राजयोगी चित्तवृत्तिनिरोध (अर्थात् मन को विषयों को विभिन्न आकारों को ग्रहण करने से रोकना) के द्वारा अपने मन को एकाग्र करने का प्रयास करता है। वह श्वास के नियन्त्रण की चिन्ता भी नहीं करता; लेकिन जब उसका मन नियन्त्रित हो जाता है, तो उसकी श्वास स्वयं ही नियन्त्रित हो जाती है। हठयोग राजयोग की ही एक शाखा है।
सांसारिक सुख सुख का उपभोग करने की इच्छा को तीव्र करते हैं। इसी कारण सांसारिक व्यक्तियों के मन अत्यधिक बेचैन होते हैं। उनके मन में किंचित् भी सन्तोष तथा मानसिक शान्ति नहीं होती। चाहे आप कितने भी सुख इसके लिए संग्रहित करके रखें, मन कभी सन्तुष्ट नहीं होगा। जितना अधिक आप सुखों का उपभोग करेंगे, उतना ही अधिक यह उनकी माँग करता है। इसीलिए लोग अपने मनों के कारण ही अत्यधिक परेशान रहते हैं। वे अपने मनों से थक चुके हैं, अतः इन परेशानियों को दूर करने के लिए ऋषियों ने विचार किया कि मन को सभी विषय-सुखों से वंचित रखा जाना चाहिए जब मन एकाग्र अथवा नष्ट कर दिया जायेगा, तो यह व्यक्ति को आगे सुखों की खोज हेतु कचोटेगा नहीं और सभी कष्ट एवं परेशानियाँ सदा के लिए ही दूर हो जायेंगी और उसे सच्ची शान्ति प्राप्त होगी।
सांसारिक व्यक्तियों में मन की किरणें छितरी रहती हैं। उनमें मन की ऊर्जा का विभिन्न दिशाओं में अपव्यय होता है। धारणा के लिए इन बिखरी हुई किरणों को वैराग्य और अभ्यास के द्वारा एकत्र करना चाहिए और फिर मन को ईश्वर की ओर मोड़ा जाना चाहिए।
मन की शक्तियाँ प्रकाश की किरणों की तरह होती है। ये विभिन्न विषयों की ओर खिंचती हैं। आपको इनको वैराग्य और अभ्यास के द्वारा, त्याग और तपस्या के द्वारा एकत्र करना चाहिए और फिर इस अक्षय ऊर्जा के साथ ईश्वर अथवा ब्रह्म की ओर साहस के साथ आगे बढ़ना चाहिए। जब मानसिक किरणें एकाग्र की जाती हैं, तो ज्ञान आता है।
रजोगुण और तमोगुण जो सत्त्व को आवृत किये हैं, उनका उन्मूलन प्राणायाम, जप, , विचार और भक्ति के द्वारा करें। तब मन धारणा हेतु तैयार हो जायेगा।
जब आप सदैव उत्साहित रहें, जब आपका मन सन्तुलित और एकाग्र हो, तो जानें कि आप योग में प्रगति कर रहे हैं।
एक वैज्ञानिक अपने मन को एकाग्र करता है और अनेक वस्तुओं का आविष्कार करता है। धारणा के द्वारा वह स्थूल मन की पर्तों को अनावृत करता है और मन के उच्च क्षेत्रों में गहरे तक प्रविष्ट हो जाता है और ज्ञान प्राप्त करता है। वह मन की सभी शक्तियों को एकत्रित करके उन्हें उन पदार्थों पर डालता है, जिनका वह विश्लेषण कर रहा है। इस प्रकार वह उनके रहस्यों को खोज निकालता है।
जिसने मन का कुशलतापूर्वक उपयोग करना सीख लिया है, सम्पूर्ण प्रकृति उसके नियन्त्रण में होती है।
जब आप अपने किसी प्रिय मित्र को छह वर्ष पश्चात् देखते हैं, तो जो आनन्द आपको प्राप्त होता है, वह आपको उस व्यक्ति से नहीं प्राप्त होता, वरन् स्वयं अपने भीतर से प्राप्त होता है। मन उस समय एकाग्र हो जाता है और आप स्वयं अपने भीतर स्थित आत्मा से आनन्द प्राप्त करते हैं।
जब मन की किरणें विपरीत विषयों पर बिखरी हुई रहती हैं, तो आपको दुःख प्राप्त होता है। जब अभ्यास के द्वारा ये किरणें एकत्रित हो जाती हैं, तो मन एकाग्र हो जाता है और आपको अपने भीतर से आनन्द प्राप्त होता है।
जब मन का विकास होता है, तो आप पास अथवा दूर स्थित, जीवित अथवा मृत अन्य लोगों के साथ सजगतापूर्वक सम्पर्क में आते हैं।
जब मन में विश्वास होता है, तो जिस विषय को आप समझना चाहते है उस पर सरलता से एकाग्र हो जाता है और वह जल्दी से समझ में आ जाता है।
यदि आपको अपने मन को हृदय, त्रिकुटी अथवा सिर के शीर्ष पर एकाग्र करने में कठिनाई का अनुभव हो, तो आप किसी बाह्य विषय पर धारणा कर सकते हैं। आप नीले आसमान, सूर्य के प्रकाश, सर्वव्यापक वायु अथवा आकाश, सूर्य, चन्द्र अथवा तारों पर भी धारणा कर सकते हैं।
यदि आपको सिर में दर्द होने लगे, तो आप शरीर के बाहर किसी विषय पर धारणा करने लगें।
यदि आपको आँखों को ऊपर करके त्रिकुटी पर धारणा करने से सिर में दर्द होने लगे, तो तुरन्त अभ्यास बन्द कर दें। हृदय पर धारणा करें।
मन शब्दों तथा उनके अर्थ के बारे में विचार करता है, जब कि अन्य समय में यह विषयों के बारे में विचार करता है। जब आप मन की एकाग्रता चाहते हैं, तो आपको यह प्रयत्न करना होगा कि मन विषयों तथा शब्दों और उनके अर्थ के बारे में विचार नहीं करे।
मेडिकल के कुछ विद्यार्थी प्रवेश लेने के कुछ समय बाद ही घावों की पीब साफ करने तथा मृत शरीर के प्रति घृणा के कारण पढ़ायी बीच में ही छोड़ कर चले जाते हैं। यह एक भयंकर भूल है। प्रारम्भ में यह घृणित अनुभव होता है; किन्तु रोग विज्ञान, औषधियों, शल्य क्रिया, रुग्ण अंगों की संरचना तथा जीवाणु विज्ञान के अध्ययन के बाद अन्तिम वर्ष के पाठ्यक्रम में रुचिकर लगने लगता है। अनेक आध्यात्मिक साधक मन की धारणा का अभ्यास कुछ समय के पश्चात् छोड़ देते हैं, क्योंकि उन्हें वह अभ्यास कठिन प्रतीत होता है। वे भी चिकित्सा विज्ञान के विद्यार्थियों की तरह ही गलती करते हैं। अभ्यास के प्रारम्भ में जब आप शारीरिक चेतना से मुक्त होने हेतु संघर्ष करते रहते हैं, तो यह अरुचिकर तथा कष्टप्रद प्रतीत होगा। यह एक शारीरिक दंगल होगा। मन में अनेक आवेग और संकल्प होंगे। अभ्यास के तृतीय वर्ष में मन शान्त, शुद्ध और दृढ़ बन जायेगा। आपको अत्यधिक आनन्द प्राप्त होगा। ध्यान से प्राप्त आनन्द से तुलना की जाये, तो संसार के समस्त सुख कुछ भी नहीं हैं। किसी भी मूल्य पर अभ्यास न छोड़ें। आगे बढ़ें। अध्यवसाय करें। धैर्य, उत्साह और साहस रखें। अन्ततः आप आगे बढ़ेंगे। कभी निराश न हो। गहन आत्म-निरीक्षण द्वारा उन रुकावटों को ढूंढ निकालें, जो आपके ध्यान में रोड़े की भाँति कार्य करती है और धैर्यपूर्वक प्रयत्न करके उन्हें एक-एक करके दूर करें। नये संकल्पों तथा वासनाओं को जन्म न लेने दें। विवेक, विचार और ध्यान द्वारा उन्हें कलिकावस्था में ही नष्ट कर दें।
इन्द्रियों पर नियन्त्रण तथा मन की धारणा में मनुष्य का कर्तव्य निहित है।
एक तीर बनाने वाला व्यक्ति अपने कार्य में व्यस्त था। वह अपने कार्य में इतना तल्लीन था कि उसे उसकी दूकान के सामने से निकल रही राजा की सवारी का भी पता ही न चला। जब आप अपना ध्यान ईश्वर की ओर लगायें, तो आपकी एकाग्रता भी ऐसी ही होनी चाहिए। आपके मन में एकमात्र ईश्वर का ही विचार होना चाहिए। इसमें कोई सन्देह नहीं कि मन की सम्पूर्ण एकाग्रता प्राप्त करने में कुछ समय लगेगा। आपको मन की एकाग्रता प्राप्त करने हेतु बहुत संघर्ष करना पड़ेगा। श्री दत्तात्रेय महाराज ने इस तीर बनाने वाले को अपना गुरु माना था।
यहाँ तक कि यदि ध्यान के अभ्यास के समय भी मन बाहर भागे, तो भी चिन्ता न करें। इसे भागते रहने दें। धीरे से इसे अपने लक्ष्य (केन्द्र) की ओर लाने का प्रयत्न करें। बार-बार अभ्यास करने से अन्त में यह आपके हृदय में, आपके हृदय की अन्तर्वासी आत्मा जो कि जीवन का अन्तिम लक्ष्य है, पर केन्द्रित हो जायेगा। प्रारम्भ में मन शायद ८० बार भागेगा। ६ माह पश्चात् शायद यह ७० बार भागेगा। एक वर्ष पश्चात् यह ५० बार भागेगा। २ वर्ष पश्चात् शायद यह ३० बार भागेगा। ५ वर्षों के बाद यह पूर्णतः दैवी चेतना में स्थित हो जायेगा। इसके पश्चात् यदि आप अपना पूरा प्रयास इसे बाहर लाने के लिए करें, तो भी यह बाहर नहीं भागेगा, उस बिगड़े हुए बैल की तरह, जिसको दूसरों के खेत चरने की आदत थी और अब अपने ही खेत में ताजे चने और बिनौले खाने लगता है।
मन की किरणों को एकत्रित कीजिए। जब आपका कपड़ा किसी झाड़ी में उलझ जाता है, तो आप जिस प्रकार उसमें से धीरे-धीरे एक-एक करके काँटे निकालते हैं. उसी प्रकार आपको अनेक वर्षों से विषय वस्तुओं पर फैली हुई मन की किरणों को सावधानी और प्रयत्नपूर्वक पुनः एकत्रित करना होगा।
आपकी पीठ पर दर्द तथा सूजन होने पर भी रात्रि में जब आप सोये रहते हैं, तो आपको किसी प्रकार के दर्द का अनुभव नहीं होता। मात्र तभी आपको दर्द का अनुभव होता है, जब मन नाड़ियों तथा विचार द्वारा रोगी अंग से संयुक्त रहता है। यदि आप मन को रोगी अंग से सजगतापूर्वक हटा कर ईश्वर अथवा किसी अन्य आकर्षक विषय पर केन्द्रित करें, तो आपको पूर्णतः जाग्रत अवस्था में भी किसी प्रकार के दर्द का अनुभव नहीं होगा। यदि आपमें दृढ़ इच्छा शक्ति तथा तितिक्षा (सहन-शक्ति) होती है, तो भी आपको किसी प्रकार के दर्द का अनुभव नहीं होता। किसी प्रकार के दर्द अथवा कष्ट का निरन्तर चिन्तन करते रहने के द्वारा आप अपने दर्द अथवा रोग में वृद्धि ही करते हैं।
१. मनुष्य के द्वारा किसी भी चाहे गये लक्ष्य की प्राप्ति हेतु किये जाने वाले सभी संघर्षों तथा प्रयत्नों में, वास्तव में उसे सहायता हेतु किसी बाहरी शक्ति को खोजने की आवश्यकता नहीं होती है। मनुष्य के स्वयं के भीतर बृहत् संसाधन एवं अन्तर्निष्ठ शक्तियाँ निहित हैं, जिनका कि अभी तक दोहन नहीं किया गया है अथवा वे अभी तक मात्र आंशिक रूप से प्रयोग में लायी गयी हैं।
२. ऐसा इसलिए है, क्योंकि उसने अपनी क्षमताओं को सैकड़ों विभिन्न वस्तुओं पर बिखरा रखा है और इसी कारण इतनी महान् अन्तर्निष्ठ शक्तियों के होते हुए भी वह किसी महान् लक्ष्य को नहीं प्राप्त कर पाता है। यदि वह बुद्धिमत्तापूर्वक उनका नियमन करे और उनका प्रयोग करे, तो शीघ्र और ठोस परिणाम प्राप्त होंगे।
३. शक्तियों के बुद्धिमत्तापूर्वक तथा सफलतापूर्वक उपयोग के लिए मनुष्य को स्वयं के निर्देशन के लिए किसी प्रकार की नयी विधियों की खोज हेतु प्रतीक्षा करने की आवश्यकता नहीं है। सृष्टि के आरम्भ के समय से ही मनुष्य को जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सहायता हेतु प्रकृति में स्वयं ही प्रचुर मात्रा में प्रेरणाप्रद उदाहरण और शिक्षाएँ है। अवलोकन हमें बताता है कि प्रकृति में प्रत्येक बल को जब स्वच्छन्द रूप से विस्तृत क्षेत्र में प्रवाहित होने दिया जाता है, तो यह सीमित निकास तुलना में कम शक्ति से प्रवाहित होता है।
४. फैली हुई किरणों का एकत्रीकरण तथा इस बल को एक दिये हुए बिन्दु – किसी विषय, विचार अथवा क्रिया पर लाना ही धारणा है।
५. शक्ति की धारणा के द्वारा उत्पन्न बल के बारे में नीचे उदाहरण दिये जा रहे हैं.
● (१) जब नदी विस्तृत स्थान पर बहती है, तो इसका बहाव धीमा रहता है; लेकिन जब इसे एक नहर में से बहाया जाता है, तो यह आश्चर्यजनक रूप से तीव्र गति से बहती है।
● (२) एक भारी बोगी जिसमें टनों वजन रहता है, वह इंजन के बायलर में एकत्रित भाप की शक्ति के द्वारा ले जायी जाती है।
● (३) एक अत्यन्त सामान्य उदाहरण---जब पानी उबलने लगता है, तो भाप से तपेली का ढक्कन हिलने लगता है और गिर जाता है।
● (४) सूर्य की किरणें जो सामान्य गर्म रहती हैं, वे किसी लेंस द्वारा केन्द्रीभूत करने पर अचानक इतनी अधिक गर्म हो जाती है कि वे वस्तुओं को जला देती है। एक सरल और सामान्य क्रिया-जब कोई इस नियम का अनजाने ही प्रयोग करता है—देखने में आती है, जब कोई अपने से कुछ दूर स्थित व्यक्ति को आवाज देना चाहता है, तो वह अपने दोनों हाथों को मुँह के पास ला कर आवाज देता है।
६. यह नियम जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में समान रूप से प्रयोग में आता है। शल्य चिकित्सक को ऑपरेशन करने के लिए अत्यधिक एकाग्रता और सावधानी की आवश्यकता होती है। गहन तल्लीनता किसी टेक्नीशियन के लिए सर्वाधिक आवश्यक है। इंजीनियर, आर्किटेक्ट तथा एक कुशल चित्रकार को चित्र बनाने में अथवा योजना बनाने में त्रुटि रहित होना सर्वाधिक आवश्यक है, अतः यहाँ भी एकाग्रता होना प्रथम आवश्यकता है। एक स्विस घड़ी निर्माता को भी घड़ी तथा विभिन्न प्रकार के वैज्ञानिक उपकरण के छोटे-छोटे पुर्जे बनाने के लिए इसी प्रकार की एकाग्रता की आवश्यकता होती है। ऐसा ही प्रत्येक कला और विद्या में है।
७. आध्यात्मिक क्षेत्र में, जहाँ उसे आन्तरिक शक्तियों के साथ व्यवहार करना होता है, साधक को विशेष रूप से धारणा की आवश्यकता होती है। मन की शक्तियाँ जो कि सदैव बिखरी रहती हैं, वे धारणा में बाधक बनती हैं। यह दोलनात्मक प्रवृत्ति मन तत्त्व का स्वाभाविक लक्षण है। मन के भटकाव को रोकने अथवा कम करने की विभिन्न विधियों में से दृष्टि और श्रव्य का माध्यम प्रमुख है; क्योंकि ये दोनों ही मन को स्थिर करने तथा ध्यान खींचने में कुशल हैं। ऐसा हम एक सम्मोहन करने वाले के विषय में देखते हैं। वह जिसे सम्मोहित करता है, उसे स्वयं (सम्मोहनकर्ता) की आँखों में एकटक देखने के लिए तथा उसके निर्देशों का पालन करने के लिए कहता है। अन्य उदाहरण, जब माँ अपने बच्चे को गोद में ले कर लोरी सुनाती है। एक स्कूल का शिक्षक जब कोई महत्त्वपूर्ण बात पर बच्चों का ध्यान खींचना चाहता है, तो वह कहता है- " अब सारे बच्चे इधर देखेंगे।" वह सोचता है कि इससे वह उनकी दृष्टि को स्वयं पर केन्द्रित करके उनका ध्यान पढ़ायी में एकाग्र कर सकेगा।
इसी प्रकार आध्यात्मिक क्षेत्र में धारणा के विकास की विधियों में यह बिन्दु पर या ॐ पर या किसी मन्त्र अथवा किसी देवता के चित्र पर त्राटक (किसी वस्तु को अपलक देखना) का रूप ले लेती है। अन्य लोगों में यह कार्य किसी मन्त्र के जप अथवा किसी प्रकार के कीर्तन द्वारा किया जाता है। इन साधनों के द्वारा मन शनैः-शनै: अन्तर्मुखी और केन्द्रित होता है। जैसे-जैसे यह स्थिति गहन होती जाती है, व्यक्ति शनैः-शनै अपने आस-पास के वातावरण के प्रति अचेतन होता जाता है। यह धारणा अब निरन्तर चलती रहती है, तो यह ध्यान की स्थिति को प्रेरित करती है, जहाँ व्यक्ति अपने शरीर को भी भूल जाता है।
ध्यान जब दृढ़ और पूर्णकालीन हो जाता है, तो इसके द्वारा समाधि (जो कि आत्म चेतना की अन्तिम स्थिति है) अथवा आत्म-साक्षात्कार का अनुभव होता है।
धारणा का अभ्यास प्रारम्भ करने के पूर्व आपको अचेतन मस्तिष्क और इसके कार्यों के बारे में जानना आवश्यक है।
जब चित्त वर्ष में होता है और किसी विशेष बिन्दु पर केन्द्रित होता है, तो वह धारा कहलाती है। आपके अवचेतन मन का अधिकांश भाग दमित अनुभवों का पुंज का है। इसे धारणा के साधन द्वारा चेतन मन की सतह पर लाया जाता है।
यह मनोवैज्ञानिक तथ्य स्वीकार कर लिया जा चुका है कि वह मनोवैज्ञानिक क्रिया-विधि जिसके द्वारा आप ज्ञान प्राप्त करते हैं, चेतना के धरातल पर समाप्त नहीं होती है; बल्कि वह अवचेतन मन तक भी जाती है। यदि आपको अवचेतन मन से वार्तालाप करने की विधि ज्ञात हो तथा यदि आपको अपने दास अथवा किसी पुराने प्रिय मित्र की भाँति इससे कार्य करवाने की कला और विद्या का ज्ञान हो, तो सम्पूर्ण ज्ञान आपका होगा। बस, इसके लिए अभ्यास की आवश्यकता है और अभ्यास आपको इस कला में निपुण बनाता है।
जब कभी आप अध्यात्मविद्या, विज्ञान अथवा दर्शन शास्त्र की किसी पहेली को सुलझाने में असमर्थ रहते हैं, तो आप पूर्ण विश्वास के साथ अपने अवचेतन मन को अपने लिए थोड़ा कार्य करने के लिए कहें, आपको सही हल निश्चित ही प्राप्त होगा अपने अवचेतन मन को इस प्रकार आदेश दें- "मुझे इस पहेली अथवा समस्या का हल कल सुबह अति शीघ्र चाहिए है, कृपया इसे अति शीघ्र कर दो।" आपका आदेश एकदम स्पष्ट होना चाहिए तथा इसके बारे में आपको किंचित् भी सन्देह नहीं होना चाहिए। आपको अपने प्रश्न का उत्तर अगली सुबह निश्चित ही प्राप्त हो जायेगा। लेकिन कभी-कभी आपका मन व्यस्त रहता है, इसलिए आपको कुछ दिनों की प्रतीक्षा भी करनी पड़ सकती है। तब आपको निश्चित समय पर अपना आदेश नियमित रूप से दोहराना पड़ेगा।
वह सब जो आपने स्वाभाविक रूप से प्राप्त किया है, जो आप पिछले असंख्य जन्मों में ले कर आये हैं, वह सब जो आपने इस जीवन अथवा पिछले जीवन में देखा-सुना, जिस आनन्द का अनुभव किया, जिसे चखा, पढ़ा अथवा जाना है, वह आपके अवचेतन मन में छिपा हुआ है। आप धारणा में तथा अपने अवचेतन मन को आदेश देने में निपुणता क्यों नहीं प्राप्त करते और इस सम्पूर्ण ज्ञान का मुक्तहस्त से उपयोग क्यों नहीं करते?
जैसा कि आपको पूर्व में बताया गया है कि आपका अवचेतन मन आपका विश्वसनीय दास है। कभी-कभी आपने देखा होगा कि जब आप रात्रि में सोते समय विचार करते हैं कि मुझे रेल पकड़ने अथवा ध्यानाभ्यास के लिए कल सुबह ४ बजे जागना है, तो यह आपका अवचेतन मन है जो आपको सही समय पर जगा देता है। चाहे आप गहरी नींद में सोये हों, आपका अवचेतन मन सदा कार्य करता रहता है। यह क्षण-भर को भी नहीं सोता। यह उस समय तथ्यों की छानबीन करता है, उनको जमाता है, उनका विश्लेषण करता है और तुलना करता है तथा आपके आदेश का पालन करता है।
प्रत्येक कार्य, सुख अथवा दुःख और वास्तव में सभी अनुभव आपके अवचेतन मन के कैमरे की प्लेट पर रह जाते हैं, यही सूक्ष्म संस्कार हैं जो आपके पुनर्जन्म, सुख और दुःखों के अनुभव और पुनः मृत्यु के कारण है। इस जन्म में किसी कर्म की पुनरावृत्ति आपकी स्मृति को प्रेरित करती है। लेकिन उच्च योगी में पूर्व जन्म की स्मृति भी बनी रहती है। वह अपने भीतर गहरे डूब जाता है और पिछले जन्म के संस्कारों के वास्तविक सम्पर्क में आता है। अपने योग-चक्षु से वह उन्हें प्रत्यक्ष देखता है। योग संयम (धारणा, ध्यान तथा समाधि का एक साथ एक ही समय पर अभ्यास) का अभ्यास करने से योगी को पूर्व जन्मों का पूर्ण ज्ञान प्राप्त होता है। अन्यों के संस्कारों पर संयम करने से अन्यों के पूर्व जन्मों का ज्ञान प्राप्त हो जाता है। धारणा की शक्तियाँ अद्भुत हैं।
मन आत्मा की शक्ति से जन्मा है, क्योंकि ईश्वर मन के द्वारा ही स्वयं को नाम और रूपों के विश्व के रूप में प्रकट करते हैं। मन और कुछ नहीं, विचारों और आदतों का पुंज है। जिस प्रकार 'मैं' का विचार सभी विचारों का मूल है, मन वह विचार 'मैं' है।
जाग्रत अवस्था में मन का स्थान मस्तिष्क है। स्वप्नावस्था में इसका स्थान प्रमस्तिष्क है तथा सुषुप्ति में इसका स्थान हृदय है। सभी विषय जो आप देखते हैं, वे रूपों अथवा पदार्थ के रूप में मन ही है। मन ही सृष्टि करता है, मन ही नाश करता है। उच्च विकसित मन निम्न मनों को प्रभावित करता है। दूरस्थ व्यक्ति के मन की बात जान लेना, मन को पढ़ना, सम्मोहन, दूरस्थ उपचार तथा अन्य इसी प्रकार की विद्याएँ इस तथ्य का प्रमाण है। निस्सन्देह मन इस पृथ्वी पर सबसे बड़ी शक्ति है। मन का नियन्त्रण सभी शक्तियाँ प्रदान करता है।
जिस प्रकार व्यायाम करते हैं. टेनिस क्रिकेट खेलते हैं, उसी प्रकार सात्विक भोजन ग्रहण करना, निर्दोष प्रकृति का सृजन, विचारों में परिवर्तन, श्रेष्ठ, उत्कृष्ट और पवित्र विचारों द्वारा मन का शिथिलीकरण तथा प्रसन्न रहने की आदत का विकास करने के द्वारा आपको मानसिक स्वास्थ्य बनाये रखने का प्रयास करना चाहिए।
मन की प्रकृति ऐसी है कि वह जिस पर भी प्रबलता से विचार करता है, वैसा हो बन जाता है। इसलिए आप किसी अन्य व्यक्ति के दुर्गुणों अथवा दोषों के बारे में विचार करते हैं, तो उस समय के लिए आपका मन उन दुर्गुणी अथवा दोषों से आवेशित हो जाता है। जो इस मनोवैज्ञानिक नियम को जानता है, वह कभी भी अन्यों की निन्दा नहीं करता और न ही वह अन्यों के चरित्र में दोष निकालता है। वह सदा दूसरों की प्रशंसा करता है। वह उनमें मात्र अच्छाई का ही दर्शन करता है। धारणा, योग तथा आध्यात्मिकता में प्रगति का यही उपाय है।
मन भारतीय तर्क शास्त्र के अनुसार आणविक है, राजयोग दर्शन के अनुसार यह सर्वव्यापक है, वेदान्त के अनुसार यह शरीर के समान आकार का है।
गहन निद्रा अकर्मण्यता की स्थिति नहीं है। इस अवस्था में कारण शरीर तेजी से कार्य करता है। संयुक्त चेतना प्रज्ञा भी इस समय उपस्थित रहती हैं। इस अवस्था में जीव परमात्मा के निकट सम्पर्क में रहता है। जिस प्रकार किसी स्त्री के मुख पर मलमल का झीना-सा घूँघट होने के कारण उसके पति को उसका मुख नहीं दिखायी देता, ठीक उसी प्रकार अज्ञानता का झीना-सा आवरण जीवात्मा को परमात्मा से अलग करता है। वेदान्ती इस अवस्था का गहन अध्ययन करते हैं। इसका गहन दार्शनिक महत्त्व है। यह आत्मा के अन्वेषण हेतु आधार प्रदान करती है। इस अवस्था में आप जगन्माता राजराजेश्वरी जो दैनिक जीवन में आगामी संघर्षों का सामना करने के लिए आपको शान्ति, नवीन मानसिक शक्ति अथवा शारीरिक बल प्रदान करती हैं, उनकी गोद में विश्राम करते हैं। गहन निद्रा में कृपालु माँ के अतुलनीय प्रेम तथा दया के बिना इस भूमण्डल पर (यहाँ अनेक कष्ट, रोग, उत्तरदायित्व, व्याकुलताएँ प्रतिक्षण आपको अपार कष्ट और पीड़ा दे रहे हैं) आपका जीवन असम्भव हो जाता। यदि आप एक रात भी गहरी नींद नहीं सो पाते हैं, तो आप कितना कष्ट,, विषाद, हताशा अथवा दुःख अनुभव करते हैं। कभी जब आप रात के समय सिनेमा का आनन्द लेने गये होंगे और ३ या ४ घण्टे की नींद खराब हो गयी होगी, तो ऐसा आपने कई बार अनुभव किया होगा।
ज्ञानदेव, भर्तृहरि तथा पतंजलि के समान महान योगी अक्सर मानसिक सम्प्रेषण (मन के द्वारा अन्यों के विचार पढ़ने की विधि) तथा विचारों के सम्प्रेषण द्वारा दूरस्थ व्यक्तियों को सन्देश भेजते थे और ग्रहण करते थे, इसे प्रथम टेलीग्राफ अथवा दूरसंचार सेवा माना जाता है। विचार अन्तरिक्ष में अद्भुत गति से जाते हैं। विचारों में गति होती है। इनमें भार, आकार, रूप तथा रंग होता है। इनमें अद्भुत शक्ति है।
यह संसार क्या है? यह हिरण्यगर्भ अथवा ईश्वर के विचार रूपों के भौतिकीकरण के सिवा कुछ नहीं है। जिस प्रकार विज्ञान में ऊष्मा, प्रकाश तथा विद्युत् की लहरें हैं, उसी प्रकार योग में विचारों की लहरें हैं। प्रत्येक को अनजाने ही विचारों की लहरों का कम या अधिक अनुभव होता ही है। यदि आपको विचारों के स्पन्दनों की किंचित् भी समझ हो, यदि आप विचारों के नियन्त्रण की विधि जानते हों, यदि आप स्पष्ट, सुलझे हुए शक्तिशाली विचारों के निर्माण द्वारा लाभदायक विचारों को दूरस्थ व्यक्तियों तक सम्प्रेषित करने की विधि जानते हैं, तो आप इस विचार शक्ति को हजार गुना अधिक प्रभावशाली ढंग से प्रयोग कर सकते हैं। विचारों के द्वारा अद्भुत कार्य भी होते हैं। एक गलत विचार बन्धन में डालता है और एक सही विचार मुक्ति प्रदान करता है। इसलिए सही ढंग से सोचें और मोक्ष प्राप्त करें।
प्रिय बच्चो! मन की शक्तियों को समझ कर उनका साक्षात्कार करके अपने भीतर की शक्तियों को अनावृत करें। अपने नेत्र बन्द करें और सहजतापूर्वक धारणा करें। आप दूरस्थ विषयों को देख सकेंगे, दूरस्थ ध्वनियों को सुन सकेंगे, इस संसार ही नहीं वरन् अन्य ग्रहों को भी सन्देश भेज सकेंगे, अपने से हजारों मील दूर स्थित लोगों का उपचार कर सकेंगे तथा सुदूर स्थित जगहों पर तत्काल पहुँच सकेंगे। मन की शक्ति में विश्वास रखें। रुचि, अवधान, संकल्प-शक्ति, आस्था तथा धारणा से इच्छित फल प्राप्त होंगे। स्मरण रखें, मन का जन्म आत्मा की माया अर्थात् उसकी मोहिनी-शक्ति के द्वारा हुआ है।
ब्रह्माण्डीय दैवी मन विश्व का मन है। यह सम्पूर्ण वैयक्तिक मनों का योग है । ब्रह्माण्डीय मन हिरण्यगर्भ अथवा ईश्वर का मन है। मनुष्य का मन ब्रह्माण्डीय मन एक अंश मात्र हैं। अपने क्षुद्र मन को वैश्विक मन में विलीन करने और सर्वज्ञता प्राप्त करने तथा दैवी चेतना का अनुभव करना सीखें।
मन को सदा सन्तुलित रखें। यह सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। निस्सन्देह अभ्यास करना अत्यन्त कठिन है, लेकिन यदि आप धारणा में आगे बढ़ना चाहते हैं तो आपको इसका अभ्यास करना ही होगा। सुख और दुःख में, गर्मी और सर्दी में, प्रशंसा और आलोचना में, आदर और अनादर में मन को सन्तुलित करना सच्चा ज्ञान है। इसके लिए अत्यधिक प्रयत्न की आवश्यकता है। यदि आप यह करने में सफल हो गये, तो आप संसार में सर्वाधिक शक्तिशाली व्यक्ति बन जायेंगे। आप श्रद्धा करने योग्य होंगे। चाहे आप चिथड़ों में लिपटे हों, चाहे आपके पास खाने के लिए कुछ भी न हो तो भी आप दुनियाँ में सबसे धनवान् व्यक्ति होंगे। चाहे आप शारीरिक रूप से दुर्बल हों, परन्तु आप सर्वाधिक शक्तिशाली व्यक्ति होंगे। सांसारिक व्यक्ति तुच्छ वस्तुओं के लिए अपने मन का सन्तुलन खो देते हैं। वे शीघ्र उत्तेजित हो जाते हैं और अपना सन्तुलन खो बैठते हैं। जब कोई अपना सन्तुलन खो देता है, तो ऊर्जा नष्ट होती है। जो मन के सन्तुलन का विकास करना चाहते हैं, उन्हें विवेक का विकास करना ब्रह्मचर्य और धारणा का अभ्यास करना चाहिए। जो अपने वीर्य का नाश करते हैं शीघ्र उत्तेजित हो जाते हैं। मन का नियन्त्रण तथा धारणा का अभ्यास अत्यन्त कठिन है सन्त तायुमानवार ने मन के नियन्त्रण पर अत्यन्त सुन्दर कविता लिखी है, उसका अनुवाद नीचे दिया जा रहा है :
आप एक पागल हाथी को नियन्त्रित कर सकते हैं।
आप भालू अथवा बाघ के मुख को बन्द कर सकते हैं।
आप शेर पर सवारी कर सकते हैं।
आप कोबरा नाग के साथ खेल सकते हैं।
रसायन विद्या द्वारा आप आजीविका कमा सकते हैं।
आप देवताओं को अनुचर बना सकते हैं।
आप चिरयुवा रह सकते हैं।
आप जल पर चल सकते हैं।
आप अग्नि के भीतर जीवित रह सकते हैं।
आप घर बैठे-बैठे ही सभी सिद्धियाँ प्राप्त कर सकते हैं।
लेकिन मन को नियन्त्रित करना तथा
इसके द्वारा शान्ति प्राप्त करना अत्यन्त दुर्लभ और कठिन है।
इन्द्रियाँ आपकी सच्ची शत्रु हैं। वे आपको बाहर खींच ले जाती है तथा आपकी मन की शान्ति को भंग कर देती हैं। उनका साथ न दें। उनको वश में करें। उन्हें रोकें। जिस प्रकार आप युद्ध क्षेत्र में शत्रुओं को पराजित करते हैं, उसी प्रकार इन्हें भी पराजित करें। यह कोई एक दिन में होने वाला काम नहीं है। इसके लिए दीर्घ काल तक धैर्यपूर्वक साधना की आवश्यकता है। इन्द्रियों पर नियन्त्रण ही वास्तव में मन पर नियन्त्रण हैं। सभी दस इन्द्रियों पर नियन्त्रण किया जाना चाहिए। उनको भूखा रख कर मार डालें। जो वे चाहती हैं, उन्हें वह कदापि न प्रदान करें। तब वे आपके आदेशों का सरलता से पालन करेंगी। सभी सांसारिक व्यक्ति हालाँकि वे पढ़े-लिखे हैं, उनके पास प्रचुर सम्पदा तथा न्यायिक और अधिशासी क्षमताएँ है, अपनी इन्द्रियों के दास होते हैं। उदाहरण के लिए यदि आप मांस भक्षण के आदी हैं, तो मांस भक्षण छह माह के लिए पूर्णतया त्यागने के लिए आपको इसी क्षण से जिह्वा पर नियन्त्रण करना प्रारम्भ कर देना चाहिए। तब आप ६ माह बाद मांस भक्षण पूर्णतया त्याग सकेंगे। आपको निरन्तर ऐसा अनुभव होगा कि आपने इस सर्वाधिक कष्ट देने वाली इन्द्रिय पर विजय प्राप्त कर ली है, जो कुछ समय पूर्व आपसे विद्रोह करती थी।
सावधान, जागरूक और चौकन्ने तथा सतर्क बनें। अपने मन तथा उसके रूपान्तरों को देखें। प्रभु ईसामसीह कहते हैं- "देखो और प्रार्थना करो।" मन को देखना अन्तरावलोकन कहलाता है। करोड़ों में से एक व्यक्ति ही इस लाभदायक और आत्मोत्थानकारी अभ्यास को करता है। लोग सांसारिकता में निमग्र रहते हैं। वे पागलों की भाँति धन और स्त्री के पीछे भागते रहते हैं। उनके पास ईश्वर तथा उच्च आध्यात्मिक बातों के बारे में विचार करने का समय ही नहीं होता है। सूर्योदय होते ही मन पुनः अपनी खाने पीने, आनन्द उपभोग आदि की पुरानी ऐन्द्रिक लीकों की ओर दौड़ने लगता है। दिन बीत जाता है और इसी प्रकार सम्पूर्ण जीवन व्यतीत हो जाता है। न तो उनका नैतिक विकास होता है, न ही आध्यात्मिक विकास। जो नित्य अन्तरावलोकन करते हैं, वे अपने दोष ढूँढ़ सकते हैं तथा उन्हें अनुकूल विधियों द्वारा दूर कर सकते हैं और धीरे-धीरे मन पर पूर्ण नियन्त्रण प्राप्त कर सकते हैं। वे अपनी मानसिक कार्यशाला के भीतर काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार को प्रवेश नहीं करने देते हैं। वे निरन्तर ध्यान का अभ्यास कर सकते हैं। नित्य आत्म-विश्लेषण तथा आत्म-निरीक्षण अन्य अनिवार्य अभ्यास है। इनको करने के द्वारा ही मात्र आप अपने दोषों को दूर कर सकेंगे और धारणा में शीघ्र आगे बढ़ सकेंगे। एक माली क्या करता है? वह नवजात पौधों को सावधानीपूर्वक देखता है, उनकी खतपतवार को नित्य हटाता है, उनके चारों ओर मजबूत बाड़ लगा देता है और नित्य सही समय पर उनको पानी देता है तथा इसी कारण उनकी अच्छी वृद्धि होती है और शीघ्र फल आते हैं। इसी प्रकार आपको अन्तरावलोकन तथा आत्म-विश्लेषण द्वारा अपने दोष ढूँढने चाहिए और अनुकूल विधियों द्वारा उनको निकाल फेंकना चाहिए। यदि एक विधि असफल हो जाये, तो आपको अन्य विधि अपनानी चाहिए। इस अभ्यास हेतु धैर्य, अध्यवसाय, जोंक भाँति दृढता, लौह सकल्प, सूक्ष्म बुद्धि तथा साहस की आवश्यकता है। लेकिन इससे प्राप्त होने वाला पुरस्कार अनमोल होगा। यह पुरस्कार अमरत्व परम शांति और अनन्त आनन्द है।
आपको मन को शान्त रखने का प्रयत्न करना चाहिए। आपको अपनी योग की सीढ़ी पर प्रत्येक क्षण मन को शान्त बनाये रखने का प्रयत्न करना चाहिए । यदि आपका मन बेचैन है, तो आप धारणा में किचित् भी प्रगति नहीं कर सकेंगे। इसलिए प्रथम और सर्वाधिक आवश्यक बात है कि आप सभी साधनों द्वारा मन की निश्चलता को प्राप्त करें। प्रातः काल शान्त ध्यान, कामनाओं का त्याग, अनुकूल आहार, इन्द्रियों का संयम तथा नित्य प्रति कम से कम एक घण्टे का मौन —ये सभी मन में शान्ति लायेंगे। सभी प्रकार के व्यर्थ के विचार, जंगली कल्पनाएँ, गलत भावनाएँ, उत्तरदायित्व, चिन्ताएँ, आकुलताएँ, भ्रामक विचार तथा सभी प्रकार के काल्पनिक भय ज्ञानाग्नि के द्वारा दूर किये जाने चाहिए। इनके उन्मूलन के पश्चात् ही आप शान्त मन प्राप्त करने की आशा कर सकते है। योग की नींव तभी अच्छी प्रकार से तथा वास्तव में डाली जायेगी,जब कि साधक में निश्चलता उच्चतम स्तर की होगी। मात्र एक शान्त मन सत्य को ग्रहण कर सकता है, ईश्वर के दर्शन कर सकता है और दैवी प्रकाश को ग्रहण कर सकता है। यदि आपका मन शान्त होगा, तो आध्यात्मिक अनुभव स्थायी होंगे, अन्यथा वे आयेंगे और चले जायेंगे।
जैसे ही उन प्रातःकाल जागे, ईश्वर से प्रार्थना करें, उनके नाम का जप करें ४ से ६ बजे तक उन पर ध्यान करें। तत्पश्चात् निश्चय करें "आज मैं ब्रह्मचर्य का पालन करुँगा । आज मैं सत्य बोलूंगा। आज मैं किसी को आहत नहीं करूंगा। आज मैं अपने मन का संतुलन नहीं बिगड़ने दूंगा।" अपने मन को देखें। अपने संकल्प पर दृढ़रहें । आप निश्चय ही उस दिन सफल होंगे। तत्पश्चात् इस संकल्प को एक सप्ताह तक दोहरायें। इससे आपको शक्ति प्राप्त होगी। आपकी संकल्प-शक्ति का विकास होगा। तत्पश्चात् इस संकल्प को एक माह तक निरन्तर चलने दें। यहाँ तक कि यदि आपसे प्रारम्भ में भूल भी हो जाये, तो भी आपको अनावश्यक रूप से चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है। भूलें आपकी सर्वश्रेष्ठ शिक्षक हैं। आप वही भूल दोबारा नहीं करेंगे। यदि आप सच्चे और लगनशील हैं, तो ईश्वर आपके ऊपर अपनी कृपा-वृष्टि अवश्य करेंगे। ईश्वर आपको दैनिक जीवन के संग्राम में आने वाली कठिनाइयों में और परेशानियों का सामना करने हेतु शक्ति प्रदान करेंगे।
जिसने अपने मन को नियन्त्रित कर लिया है, वही वास्तव में स्वतन्त्र और प्रसन्न है। शारीरिक स्वतन्त्रता किसी प्रकार की स्वतन्त्रता नहीं है। यदि आप उबलते आवेगों तथा भावनाओं में आसानी से बह जायेंगे, यदि आप चित्तवृत्तियों तथा प्रलोभनों के फेर में होंगे, तो आप वास्तव में कैसे प्रसन्न रहेंगे। प्रिय बच्चे! आप बिना पतवार की नौका के समान होंगे। आप बृहत् समुद्र के बीच तिनके की भाँति इधर से उधर धकेले जाते रहेंगे। आप ५ मिनट के लिए हँसते हैं और ५ घण्टे तक रोते हैं। जब आप मन के आवेगों के बहाव में होंगे, तो पत्नी, पुत्र, मित्र, धन और शक्ति आपके लिए क्या कर सकते हैं? वह ही सच्चा नायक है, जिसने अपने मन को नियन्त्रित कर लिया है। एक कहावत है- "मन जीता, तो जग जीता।" मन पर विजय ही सच्ची विजय है। यही सच्ची स्वतन्त्रता है। कठोर संयम और स्व- आरोपित प्रतिबन्धों के द्वारा सभी कामनाएँ, विचार, आवेग, लोभ तथा वासनाएँ दूर हो जायेंगी। मात्र तभी आप मन को दासता से मुक्त हो सकेंगे। आपको मन को थोड़ा भी ढीला नहीं छोड़ना चाहिए। मन एक शरारती बच्चा है। इसे कठोर प्रयत्नों द्वारा वश में करें। पूर्ण योगी बनें। धन आपको मुक्ति नहीं दे सकता। मुक्ति ऐसी वस्तु नहीं है, जिसे बाजार में खरीदा जा सके। यह एक दुर्लभ, गुप्त खजाना है, जिसकी रखवाली पाँच फनों वाला नाग करता है। जब तक आप इस नाग को मार नहीं डालेंगे अथवा इसे पालतू नहीं बना लेंगे, आप इस खजाने को नहीं प्राप्त कर सकेंगे। यह खजाना है आध्यात्मिक सम्पत्ति, यही मुक्ति है, यही आनन्द है। नाग है आपका मन। इसके पाँच फन हैं आपकी पाँचों इन्द्रियाँ, जिनके द्वारा मन रूपी नाग कुफकारता है।
राजसिक मन सदैव नयी वस्तुओं की माँग करता है। इसे विभिन्नता चाहिए। इसे एकरसता से अरुचि है। इसे स्थान में परिवर्तन, आहार में परिवर्तन संक्षेप में कहें तो प्रत्येक चीज़ में परिवर्तन चाहिए। लेकिन आपको इसे एक चीज़ से चिपके रहने का प्रशिक्षण देना होगा। आपको एकरसता की शिकायत नहीं करनी चाहिए। आपमें धैर्य, दृढ़ संकल्प और अथक प्रयत्न की आवश्यकता है। तभी आप योग में आगे बढ़ सकेंगे। जो सदैव नयी चीज की माँग करता है, वह योग के लिए पूर्ण अयोग्य है। आपको एक स्थान, एक आध्यात्मिक गुरु, एक विधि, योग के किसी एक प्रकार पर टिके रहना होगा। यह सकारात्मक सफलता का मार्ग है।
आपके भीतर ईश्वर-साक्षात्कार की प्रबल और सच्ची प्यास होनी चाहिए । तब सभी बाधाएँ दूर हो जायेगी। तब आपके लिए धारणा एकदम सरल होगी। मात्र उत्सुकतावश थोड़े समय के लिए भावनात्मक आवेगों अथवा सिद्धि प्राप्ति की आकांक्षा से वास्तविक परिणाम नहीं प्राप्त होंगे।
यदि आप असावधान है, यदि आप धारणा में अनियमित है, यदि आपका वैराग्य क्षीण हो गया है. यदि आप आलस्यवश कुछ दिनों के लिए अभ्यास छोड़ते. हैं, तो विरोधी बल आपको योग के मार्ग से दूर ले जायेंगे। आप असहाय हो जायेंग आपको वास्तविक ऊंचाई तक पहुँचना कठिन होगा। इसलिए धाराणा में नियमित रहें।
सदा उत्साहित और प्रसन्न रहे। हताशा और निराशा से दूर रहें । हताशा से बढ़ कर संक्रामक और कुछ नहीं है। हताश और निराश व्यक्ति मात्र अप्रिय और विकृत स्पन्दन ही चारों ओर फैलाते हैं। वे आनन्द, शान्ति और प्रेम का विकिरण कर ही नहीं सकते। इसलिए यदि आप हताश और निराश हो, तो अपने कमरे से कभी बाहर न आये, ऐसा न हो कि आप अपने चारों ओर संक्रमण फैला दें। अन्यों के लिए वरदान बन कर ही मात्र जिये। आनन्द, शान्ति और प्रेम का विकिरण करें। हताशा आपके अस्तित्व को खा जाती है और आपका विनाश कर देती है। यह वास्तव में प्लेग के समान मारक है। असफलता, गम्भीर अजीर्ण अथवा गर्म बहस, गलत विचारों अथवा गलत भावनाओं के कारण हताशा प्रकट होती है।
स्वयं को इस नकारात्मक भावना से दूर करें तथा स्वयं को परमात्मा के साथ एक कर लें। तब कोई भी बाह्य प्रभाव आपको प्रभावित नहीं कर सकेगा। आप अभेद्य होंगे। जिस भगवान के नाम का कीर्तन, प्रार्थना, ॐ का नाद, प्राणायाम, खुली वायु मे तेजी से भ्रमण विपरीत गुणों के बारे में विचार जैसे आनन्द के भाव आदि पर विचार के द्वारा हताशा और निराशा की भावना को तत्क्षण दूर भगा दें। सभी स्थितियों में प्रसन्न रहने तथा अपने चारों ओर मात्र आनन्द विकिरित करने का प्रयत्न करें।
मेरे बच्चे तुम रोते क्यों हो? अपनी आँखों पर से पट्टी हटा दो और अब देखो आपके चारों ओर मात्र सत्य ही है। सभी मात्र प्रकाश और आनन्द हैं। अज्ञानता के अन्धकार ने आपकी आँखों को धुंधला कर दिया है। तत्क्षण इस अन्धकार को हटा दें। धारणा के नियमित अभ्यास द्वारा ज्ञान के अन्त: चक्षु का विकास कर नया चश्मा पहनें।
विचार ही एकमात्र कर्म का निर्धारण नहीं करते। कुछ बुद्धिमान पुरुष है, जो किसी वस्तु के समर्थन और विपक्ष में विचार करते हैं; लेकिन जब समय आता है, तो वे प्रलोभनों द्वारा प्रलोभित हो जाते हैं। वे गलत कार्य करते हैं और बाद में पश्चात्ताप करते हैं। यह वह भाव है, जो वास्तव में कर्म करने हेतु प्रेरित करता है। कुछ मनोवैज्ञानिक परिकल्पना पर दबाव डालते हैं और कहते हैं कि वास्तव में परिकल्पना ही है, जो कि कर्मों का निर्धारण करती है। वे अपने दृष्टिकोण के समर्थन में निम्न उदाहरण देते हैं मान लीजिए कि २० फुट ऊँचे दो खम्भों के ऊपर एक फुट चौड़ा पटिया रखा हुआ है। जब आप इस पर चलना प्रारम्भ करते हैं, तो आप कल्पना करते हैं कि आप नीचे गिर जायेंगे और आप वास्तव में नीचे गिर जाते हैं; किन्तु जब यही पटिया भूमि पर रखा होगा, तो आप उस पर चल पायेंगे। कल्पना कीजिए कि आप एक सँकरी गली में से एक साइकिल पर सवार हो कर जा रहे हैं। आपको मार्ग में एक बहुत बड़ा पत्थर दिखायी देता है। आप कल्पना करते हैं कि आपकी साइकिल पत्थर से टकरा जायेगी और सच में आप साइकिल उस पत्थर की ओर दौड़ा देते हैं। अर्थात् यह परिकल्पना ही है जो कर्मों का निर्धारण करती है। कुछ अन्य मनोवैज्ञानिक हैं, जो कहते हैं- "यह इच्छा शक्ति है जो कर्मों का निर्धारण करती है। इच्छा-शक्ति कुछ भी कर सकती है। इच्छा-शक्ति आत्मा की शक्ति है। " वेदान्ती इस बाद वाली धारणा को मानते हैं।
अब हम धारणा के विषय पर वापस आ जाते हैं। विचारों के रूपों द्वारा मन में जो लहरें निर्मित होती हैं, उन्हें वृत्तियाँ कहते हैं। इन लहरों को स्थिर करना अथवा रोकना चाहिए। तभी आप आत्म-साक्षात्कार कर सकेंगे। अच्छी तरह प्रशिक्षित मन अपने संकल्प के अनुसार शरीर के बाहर अथवा भीतर किसी भी विषय पर एकाग्र किया जा सकता है। धारणा का अभ्यास प्रारम्भ में थोड़ा अरुचिकर प्रतीत होता है, लेकिन कुछ समय पश्चात् यह अत्यधिक आनन्द प्रदान करता है, किन्तु इसके लिए धैर्य तथा अध्यवसाय और नियमितता आवश्यक है। हिन्दू शास्त्रों में मन की तुलना झील अथवा सागर से की गयी है। मन से उत्पन्न होने वाली लहरों की तुलना समुद्र की लहरों से की गयी है। जब समुद्र की सतह की सभी लहरें पूर्णतः शान्त हो जायें और स्थिर हो जायें, उस समय ही आप समुद्र के पानी में अपनी परछाई स्पष्ट रूप से देख सकते हैं। इसलिए आप आत्मा का, उस ज्योतियों की ज्योति का साक्षात्कार मात्र तभी कर सकते हैं, जब कि मन रूपी झील में सभी विचार लहरें स्थिर हो जायें।
यदि आप धारणा के अभ्यास में रुचि लें, यदि आपका एक निश्चित उद्देश्य हो तो धारणा के अभ्यास में आपकी प्रशंसनीय प्रगति होगी। नवाभ्यासियों की अभ्यास में बड़ी रुचि रहती है, किन्तु जब उनको कुछ अनुभव जैसे चमकीला प्रकाश दिखाद देना, दैवी नाद सुनायी देना, विशेष सुगन्धि का अनुभव होना आदि अनुभव होते है, तो स्वयं को एक पूर्ण योगी समझने लगते हैं।
कुछ लोग मात्र सुखकर अथवा रुचिकर विषयों पर ही धारणा कर सकते हैं। यदि वे अरुचिकर विषयों में भी रुचि उत्पन्न कर सकें, तो वे अरुचिकर वस्तुओं पर भी तो मन एकाग्र हो जाता है और आपको भीतर से आनन्द प्राप्त होता है। यदि ध्यान और धारणा से प्राप्त होने वाले आनन्द से तुलना की जाये, तो समस्त संसार के सुख कुछ भी नहीं है। किसी भी मूल्य पर धारणा का अभ्यास न छोड़े। आगे बढ़े। धैर्य, अध्यवसाय उत्साह, हठ तथा प्रयास जारी रखें। आप निश्चय ही आगे बढ़ेंगे। निराश न हो। श्री शंकराचार्य जी ने अपनी छान्दोग्य उपनिषद् की व्याख्या में लिखा है- "मनुष्य का कर्तव्य है कि वह अपनी इन्द्रियों पर नियन्त्रण करे और मन की धारणा करे (अध्याय ७-२१-१)। गम्भीर अन्तरावलोकन द्वारा उन विभिन्न बाधाओं को ढूंढ निकालें, जो आपकी धारणा में बाधक है और उन्हें प्रयत्न द्वारा एक-एक करके दूर करें। नये विचारों (संकल्पों) और कामनाओं (वासनाओं) को जन्म न लेने दें। विवेक, जिज्ञासा, धारणा तथा ध्यान द्वारा उन्हें कलिकावस्था में ही नष्ट कर दें।
प्रत्येक व्यक्ति जब कोई पुस्तक पढ़ता है या टेनिस खेलता है अथवा किसी भी प्रकार का कार्य करता है, तो एक विशेष सीमा तक धारणा करता ही है। लेकिन आध्यात्मिक उद्देश्य के लिए धारणा का अत्यधिक उच्च स्तर तक विकसित होना आवश्यक है। मन एक बेलगाम बन्दर के समान है। इसके पास एक समय में एक ही विषय पर ध्यान देने की शक्ति है, लेकिन यह अत्यन्त शीघ्रता से तथा अद्भुत गति से एक विषय से दूसरे विषय पर जा सकता है। वास्तव में कुछ ने देखा कि यह एक समय में कई बातों को ग्रहण कर सकता है। लेकिन पश्चिम तथा पूर्व के कुछ श्रेष्ठ दार्शनिकों और मनीषियों ने पाया कि एक विचार वाला सिद्धान्त अधिक सही है। ऐसा ही कई व्यक्तियों को स्वयं के अनुभव से भी ज्ञात हुआ है। मन सदैव बेचैन रहता है। यह रजोगुण तथा वासनाओं के कारण होता है। भौतिक विषयों में सफलता हेतु अवधान अनिवार्य है। एक व्यक्ति जिसके पास प्रशंसनीय स्तर का अवधान है, उसके पास अपेक्षाकृत अधिक अर्जन-क्षमता होती है तथा वह कम समय में अधिक कार्य कर सकता है। मुझे यह कहने की आवश्यकता ही नहीं है कि योग के विद्यार्थी को उसके धारणा में प्रयत्न का फल अवश्य ही प्राप्त होगा ?
जब आप कोई पुस्तक पढ़ें, तो अपना पूरा मन हाथ में लिये गये विषय पर लगायें। मन को किसी भी बाह्य विषय को देखने अथवा किसी भी ध्वनि को सुनने न दें। मन की बिखरी हुई किरणों को एकत्रित कीजिए। अवधान की शक्ति का विकास कीजिए। अवधान जैसा कि मैंने प्रारम्भ में भी कहा है कि इसकी धारणा में कोई अप्रत्यक्ष भूमिका नहीं है, वरन् धारणा वास्तव में अवधान के विस्तृत क्षेत्र को छोटा करना है। यह प्रशिक्षित संकल्प शक्ति का एक प्रतीक है। एक दृढ व्यक्तित्व के स्वामी पुरुष की धारणा उत्तम होती है।
उन कार्यों पर अवधान का अभ्यास करें, जिनको करने में आपको उनकी अप्रियता के कारण संकोच का अनुभव होता है। अरुचिकर विषयों तथा विचारों पर रुचि लेने का प्रयत्न करें। उनको अपने मन के सामने रखें। धीरे-धीरे रुचि प्रकट होगी। अनेक मानसिक दुर्बलताएँ नष्ट हो जायेंगी। मन दृढ और अधिक दृढतर होता जायेगा। वह शक्ति जहाँ कोई भी चीज मन पर आघात करती है, वह सामान्यतया उस अनुपात में होता है, जिस स्तर का अवधान इस पर डाला जाता है। इसके अतिरिक्त ध्यान स्मरण शक्ति की महान कला है और अकर्मण्य लोगों की स्मरण शक्ति दुर्बल होती है।
जब आप ताश अथवा शतरंज खेलते हैं, तो आपकी अच्छी धारणा होती है, लेकिन तब आपके मन में शुद्ध एवं दैवी विचार नहीं होते। इस समय मन तत्त्व एक अवांछनीय प्रकृति के होते हैं। जब आपका मन अशुद्ध विचारों से भरा होगा, तो आप दैवी रोमांच, भावोत्कर्ष तथा मन के उत्थान का अनुभव नहीं कर पायेंगे। प्रत्येक विषय का अपना मानसिक संयोजन होता है। आपको मन को उत्कृष्ट तथा आध्यात्मिक विचारों से भरना चाहिए, तभी सभी सांसारिक विचारों से आपके मन का शुद्धिकरण हो सकेगा। श्री कृष्ण, भगवान् बुद्ध अथवा प्रभु ईसामसीह का चित्र उत्कृष्ट आत्मोत्थानकारी विचारों से संयुक्त रहता है, जब कि शतरंज, ताश, द्यूत कपट आदि से संयुक्त रहते है।
छाया - त्राटक से दृश्य अथवा अदृश्य विषयों की प्राप्ति होती है। इसके अभ्यास से मनुष्य निस्सन्देह शुद्ध बन जाता है। छाया उन सभी प्रश्नों के उत्तर देती है, जो आप जानना चाहते हैं। वह योगाभ्यासी जो अपनी छाया को आकाश में देखने में सक्षम होता है। वह जान सकता है कि उसके हाथ में लिये गये कार्यों में उसे सफलता मिलेगी या नहीं। जिन योगियों ने धारणा के लाभों का साक्षात्कार किया है, उन्होंने कहा है-"सूर्य के प्रकाश में अपनी छाया को अपलक देखिए, चाहे आपको यह एक ही क्षण के लिए आकाश में दिखायी दे। उस समय आप ईश्वर को तत्क्षण आकाश में देख लेते हैं।" जो नित्य इस आकाश में अपनी छाया को देखता है, वह दीर्घायु प्राप्त करता है। उसकी कभी भी अकाल मृत्यु नहीं होती। जब छाया पूर्णतः स्पष्ट रूप से दिखायी दे, तो योगाभ्यासी को विजय और सफलता मिलती है। वह प्राणों पर विजय प्राप्त कर लेता है। और सर्वत्र विचरण कर सकता है। यह अभ्यास अत्यन्त सरल है। व्यक्ति को इस अभ्यास में अत्यन्त शीघ्र सफलता प्राप्त होती है। कुछ लोगों को एक या दो सप्ताह में ही परिणाम होने लगते हैं। अब सूर्योदय हो, तो इस प्रकार खड़े हो कि आपकी छाया भूमि पर पड़े और आप इसे बिना किसी कठिनाई के देख सके। तत्पश्चात् आप कुछ देर तक अपनी गर्दन पर अपलक दृष्टि जमायें । इसके बाद आकाश की ओर देखें। यदि आप आकाश में अपनी छाया का पूर्ण प्रतिबिम्ब देख पाते हैं, तो यह अत्यन्त शुभ है। यह आपके प्रश्नों के उत्तर देगी। यदि आपको छाया न दिखायी दे तो तब तक अभ्यास करते रहे, जब तक आप इसे देख न लें। आप इसका अभ्यास चांदनी रात में भी कर सकते हैं।
कुछ लोग जब उनके शरीर का कोई अंग किसी रोग से पीड़ित होता है, तो वे अत्यधिक दर्द अथवा कष्ट का अनुभव करते हैं। इसका कारण ढूँढ़ना अधिक कठिन नहीं है। वास्तव में वे सदैव रोग के बारे में विचार करते रहते हैं और शरीर के रोग प्रभावित अंग से किस प्रकार मन को दूर ले जा कर किसी अन्य विषय पर कैसे लगाया जाये, इसकी विधि नहीं जानते। कुछ लोग अन्यों की तुलना में कम दर्द का अनुभव करते हैं। ऐसे लोगों को मन को रोग के स्थान से किस प्रकार हटाया जाये, इसका ज्ञान होता है। जब भी आपके शरीर में दर्द का अनुभव हो, तो अपने इष्टदेवता पर धारणा करें अथवा किसी दार्शनिक पुस्तक का अध्ययन करें। दर्द समाप्त हो जायेगा।
धारणा स्थिर मानसिक क्रिया-विधि है। इसके लिए मन को भीतर की ओर मोड़ने की आवश्यकता है। यह पेशीय गतिविधि नहीं है। इसमें मस्तिष्क पर कोई अनावश्यक तनाव नहीं पड़ना चाहिए। आपको मन के साथ संघर्ष नहीं करना चाहिए।
एक आरामदायक आसन में बैठ जाये। शरीर की सभी मांसपेशियों को शिथिल कर दें। शरीर में किसी भी प्रकार की पेशीय, भावनात्मक, नाड़ीय अथवा मानसिक कार्य शक्तियाँ नहीं होनी चाहिए। मन को स्थिर करें। उमड़ते हुए विचारों को शान्त करें। आवेगों को शान्त करें] विचारों की क्रिया पर रोक लगा दें। अवांछनीय विचारों पर ध्यान न दें। मन को सुझाव दें- ''मैं कोई चिन्ता नहीं करता, चाहे वे हों या नहीं।" अर्थात् निरपेक्ष रहें। मानसिक कार्यशाला के भीतर अवांछनीय विचार शीघ्र शान्त हो जायेंगे कोई परेशानी नहीं देंगे। यह मानसिक संयम का रहस्य है। धारणा में विकास धीरे-धीरे परिलक्षित होगा। किसी भी मूल्य पर विचलित न हों। अपने अभ्यास में नियमित रहें। एक दिन के लिए भी अभ्यास न छोड़ें। प्रभु यीशु कहते हैं-"स्वयं को रिक्त कर दो और मैं तुम्हें भर दूँगा।" जब आपको धारणा की कुछ शक्ति प्राप्त हो जायेगी, तभी आप इन विचारों को रिक्त करने की क्रिया विधि को कर सकेंगे। स्वयं को सदैव सकारात्मक स्थिति में रखें। जब आप किसी कार्य के अंश पर धारणा करना चाहें, तो इसे अत्यन्त ध्यान से करें। आप अपने समस्त संकल्पों तथा कल्पनाओं का भी प्रयोग कर सकते हैं। कल्पना धारणा में सहायता भी करती है।
अत्यधिक शारीरिक श्रम, अत्यधिक वार्तालाप, अत्यधिक भोजन, स्त्रियों तथा अनावश्यक लोगों से अत्यधिक घुलना-मिलना-धारणा का अभ्यास करने वालों को उपर्युक्त सभी बार्तो को त्याग देना चाहिए। आप जो भी कार्य करें, पूर्ण एकाग्रता के साथ करें। काम को पूरा होने से पहले बीच में कभी भी न छोड़ें।
ब्रह्मचर्य, प्राणायाम, आवश्यकताओं तथा गतिविधियों में कमी, विषयों का त्याग, एकान्त-वास, मौन, इन्द्रियों का संयम, काम और लोभ का उन्मूलन तथा क्रोध पर नियन्त्रण करें। अवांछनीय लोगों की संगत, समाचारपत्र पठन एवं सिनेमा देखना छोड़ दें। ऐसा करने से धारणा की शक्ति में वृद्धि होती है।
यदि धारणा के समय आपका मन भागता है, तो भी आप चिन्ता न करें, इसे भागने दें। इसे धीरे से धारणा के विषय पर वापस ले कर आयें। प्रारम्भ में शायद यह ५० बार भागेगा दो वर्ष के अभ्यास के पश्चात् यह संख्या घट कर २० हो जायेगी, अगले तीन वर्षों के निरन्तर एवं दृढ़तापूर्ण अभ्यास के पश्चात् यह संख्या घट कर शून्य हो जायेगी। मन तब दैवी चेतना पर पूर्णतया केन्द्रित हो जायेगा। तब आप यदि इसे बाहर खींचना भी चाहेंगे, तो भी यह बाहर नहीं आयेगा। जिन्होंने मन के ऊपर पूर्ण स्वामित्व प्राप्त किया है, यह उनका व्यक्तिगत अनुभव है।
अर्जुन का ध्यान अद्भुत था। उसने द्रोणाचार्य जी से धनुर्विद्या सीखी थी। एक बार की घटना है। नीचे एक जल से भरा बर्तन रख कर उसके ठीक ऊपर एक खम्भे से बाँध कर एक मृत चिड़िया को इस प्रकार लटकाया गया कि उसका प्रतिबिम्ब जल के बर्तन में पड़े और इस समय अर्जुन को अपनी धनुर्विद्या को सिद्ध करने के लिए कहा गया। उसे इस चिड़िया के प्रतिबिम्ब को जल में देख कर असली चिड़िया की दाहिनी आँख पर निशाना लगाना था, अर्जुन ने उसका प्रतिबिम्ब देखा और चिड़िया की आँख पर निशाना लगाया। इस कला का बहुत कम लोगों को ज्ञान था।
नेपोलियन का भी ध्यान अद्भुत था। ऐसा कहा जाता है कि उसका अपने विचारों पर पूर्ण नियन्त्रण था। वह अपने मस्तिष्क के कोष्ठक में से एक विचार को खींच सकता था और उसी एक विचार पर जितनी देर तक वह चाहता, लीन रहता तथा फिर उसे वापस मस्तिष्क के कोष्ठक में वापस पहुँचा सकता था। उसके पास एक विशिष्ट मस्तिष्क था, जिसमें विशिष्ट कोष्ठक थे।
जब आप बड़ी रुचि से कोई पुस्तक पढ़ते हैं, तो आप अपना नाम ले कर पुकारने वाले व्यक्ति की आवाज भी नहीं सुन पाते। आपको अपने पास मेज पर रखे हुए फूलों के गुलदाने में से आती हुई सुगन्धि का भी अनुभव नहीं होता। यही धारणा है। यह चित्त की एकाग्रता है। मन इसमें मात्र एक ही वस्तु पर केन्द्रित रहता है। जब आप ईश्वर अथवा आत्मा के बारे में विचार करते हैं, तो आपके ध्यान की भी ऐसी ही गहराई और तीव्रता होनी चाहिए) सांसारिक वस्तुओं पर मन की धारणा करना सरल है, क्योंकि आदत के कारण मन स्वाभाविक रूप से उनमें अत्यधिक रुचि लेता है। मस्तिष्क में स्वयं ही लीकें कटी हुई हैं। आपको मन को बार-बार ईश्वर पर लगा कर नयी लीकें काटनी होंगी। कुछ समय पश्चात् मन बाह्य विषयों की ओर नहीं भागेगा, क्योंकि इसे भीतर ही आनन्द का अनुभव होने लगेगा।
कुछ पश्चिमी मनोवैज्ञानिकों ने देखा - "वह मन जो निरुद्देश्य रूप से इधर-उधर भटकता है, मात्र धारणा के अभ्यास से एक सीमित घेरे में घूमने योग्य बनाया जा सकता है। इसे एक बिन्दु मात्र पर टिकाया नहीं जा सकता। यदि यह एक बिन्दु पर लगाया जा सकता, तो वहाँ मन का निरोध हो जाता। तब मन की मृत्यु हो जाती है। जब वहाँ मन का निरोध होगा, तो कुछ भी प्राप्त नहीं होगा।" लेकिन यह सही नहीं है। मन का पूर्ण नियन्त्रण सभी प्राप्त होगा, जब सभी विचारों की समस्त लहरों का सम्पूर्ण उन्मूलन हो जायेगा।। योगी इस मन की एकाग्रचित्तता के द्वारा अद्भुत कार्य करते हैं। योगी को मन की एकाग्रचित्तता के द्वारा उत्पन्न सर्वत्र प्रवेश करने वाले तीव्र प्रकाश की सहायता से आत्मा के छुपे खजाने का ज्ञान हो जाता है। एकाग्रता प्राप्त करने के पश्चात् पूर्ण निरोध अवस्था प्राप्त करनी चाहिए। इस अवस्था में सभी रूपान्तर पूर्णतया शान्त हो जायेंगे। मन बिलकुल रिक्त हो जायेगा। तत्पश्चात् योगी स्वयं को उस परम पुरुष अथवा आत्मा (जिसके द्वारा मन स्वयं अपना प्रकाश लेता है) से एक कर रिक्त मन को भी नष्ट करता है। तब वह सर्वज्ञता अथवा कैवल्य प्राप्त करता है। ये विषय हमारे पश्चिमी मनोवैज्ञानिकों के लिए ग्रीक अथवा लैटिन भाषा के समान हैं। वे अज्ञानता में घिरे हुए हैं। उनको इस सम्पूर्ण जगत् के साक्षी पुरुष का कोई विचार ही नहीं होता है।
मनुष्य एक जटिल सामाजिक प्राणी है। वह एक जैविक प्राणी भी है और इसी कारण उसे किसी विशेष शरीर विज्ञान के कार्यों जैसे रक्त का परिसंचरण, पाचन, श्वसन, उत्सर्जन द्वारा निश्चित रूप से पहचाना जाता है। वह किन्हीं विशेष मनोवैज्ञानिक कार्यों जैसे विचार करना, देखना, स्मरण शक्ति, कल्पना आदि द्वारा निश्चित रूप से पहचाना जाता है। वह विचार करता है, स्वाद लेता है, सूंघता है, अनुभव करता है। दार्शनिक रूप से कहा जाता है कि वह ईश्वर का प्रतिबिम्ब ही नहीं, वरन् स्वयं ईश्वर है। उसने निषिद्ध वृक्ष के फल को चख कर अपनी दैवी गरिमा खो दी है। मन के संयम तथा धारणा के अभ्यास द्वारा वह अपनी दिव्यता पुनः प्राप्त कर सकता है।
प्रश्न : व्यक्ति को किस पर धारणा करनी चाहिए?
उत्तर : प्रारम्भ में किसी स्थूल रूप, भगवान् कृष्ण के मुरलीधर स्वरूप अथवा भगवान् विष्णु के चतुर्भुज स्वरूप जिसमें वे अपने चारों हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण किये हुए हैं।
प्रश्न: एक व्यक्ति ने मुझे बताया कि मैं दर्पण में अपने प्रतिबिम्ब के भ्रूमध्य-स्थान पर त्राटक करूँ। क्या मैं ऐसा कर सकता हूँ?
उत्तर : हाँ, आप ऐसा कर सकते हैं। यह धारणा का एक तरीका है। लेकिन एक विधि से चिपके रहें। जैसे यदि भगवान् राम के चित्र पर धारणा करते हैं, तो मात्र इसी पर करते रहें। यदि आप उनके दैवी रूप पर धारणा करेंगे तथा उनके गुणों पर ध्यान करेंगे, तो आपकी आध्यात्मिक प्रगति होगी।
प्रश्न : लोग शालग्राम पर धारणा क्यों करते हैं?
उत्तर : क्योंकि इसमें धारणा को सरलतापूर्वक प्रेरित करने की शक्ति है।
प्रश्न: मैं त्रिकुटी, ॐ तथा ध्वनि के ऊपर त्राटक करता हूँ। क्या मैं अपनी धारणा सही कर रहा हूँ?
उत्तर: आप सही हैं। ॐ के साथ-साथ पवित्रता, सत्, चित्, आनन्द पूर्णता आदि के विचार भी संयुक्त कर दें। अनुभव करें कि आप सर्वव्यापक चेतना है। इस प्रकार का भाव आवश्यक है।
प्रश्न: मन की गहन धारणा के लिए मैं क्या कर सकता हूँ?
उत्तर: मानसिक वैराग्य का विकास कीजिए अभ्यास के समय में वृद्धि लोगों के साथ न मिले तीन घण्टे का मौन रखें । रात्रि में दूध और फल लें। मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि आपके मन की धारणा होगी।
प्रश्न : शिष्य को प्रोत्साहन की आवश्यकता होती है। अक्सर वह अपने गुरु के सम्पर्क में रहना चाहता है। यही कारण है कि मैं आपको सदा परेशान करता रहता। क्या मैं अब यह जान सकता हूँ कि धारणा की शक्ति कैसे बढ़ सकती है?
उत्तर : आप अक्सर मुझे पत्र लिख सकते हैं। परेशानियाँ मन से सम्बद्ध होती है। वह आत्मा जो मन से परे होती है, जो उसमें स्थित रहते हैं, उनके लिए सदैव शान्ति रहती है। जो आत्मा में निवास करते हैं, उन्हें परेशानियाँ, कठिनाइयाँ तथा दुःख स्पर्श ही नहीं कर सकते। अपनी आवश्यकताओं तथा कामनाओं को कम करना, नित्य दो घण्टे मौन रखना, नित्य एकान्त कमरे में एक या दो घण्टे अकेले रहना, प्राणायाम का अभ्यास प्रार्थना सध्या तथा रात्रि में ध्यान की बैठकों में वृद्धि तथा विचार आदि करने से धारणा में वृद्धि होती है।
प्रश्न: जप से भी धारणा प्राप्त होती है?
उत्तर: हाँ। मानसिक जप करें।
प्रश्न : जब मैं त्रिकुटी पर धारणा करना चाहता हूँ, तो थोड़ा सिरदर्द होता है। क्या इसका कोई उपचार है?
उत्तर : मन के साथ संघर्ष न करें। जब आप धारणा करें, हिंसात्मक प्रयास न करें। सभी नाड़ियों, पेशियों तथा मस्तिष्क को शिथिल कर दे। सहज रूप से हल्की धारणा करें। इससे अनावश्यक तनाव तथा उसके कारण होने वाला सिरदर्द दूर हो जायेगा।
प्रश्न: अभी भी मन भटकता है और प्रकाश दुर्बल है। धारणा के प्रयास कभी-कभी सफल रहते हैं, लेकिन अक्सर ये निराशा में समाप्त होते हैं। मन का शुद्धिकरण सरल नहीं है। इस हेतु आप क्या सुझाव देते हैं?
उत्तर: आपका वैराग्य प्रबल नहीं है। वैराग्य का विकास करें। प्रबल साधना करें। ध्यान के समय को तीन घण्टे तक बढ़ायें। अपनी गतिविधियाँ कम करें। ऋषिकेश अथवा उत्तरकाशी में तीन माह के एकान्त वास के लिए जायें। पूरे तीन माह तक मौन धारण करें। आपको अद्भुत धारणा और ध्यान प्राप्त होगा।
प्रश्न: वह योगी जो अपने शिष्य के ऊपर शक्ति संचार करता है, अपने शिष्य को सभी प्रकार की साधनाएँ त्यागने के लिए क्यों कहता है ?
उत्तर: उसके भीतर प्रबल आस्था का विकास करने तथा मार्ग में स्थिरता और योग के एक रूप में एकाग्रचित्तता अथवा सम्पूर्ण मन के विकास करने के लिए)
प्रश्न: मैं नित्य दो घण्टे जप करता हूँ तथा आधे घण्टे तक प्राणायाम करता हूँ। क्या मुझे दो अथवा तीन वर्षों में एकाग्रता तथा तन्मयता प्राप्त होगी?
उत्तर: हाँ। यदि आप अपनी साधना में शुद्ध और गम्भीर होंगे, तो अवश्य ही आपको सफलता मिलेगी।
आपके भीतर धारणा के प्रति अच्छी रुचि होनी चाहिए। मात्र तभी आपका सम्पूर्ण अवधान उस विषय की ओर निर्दिष्ट होगा, जिस पर आप धारणा करना चाहते हैं। जब तक अभ्यासी द्वारा प्रशंसनीय स्तर की रुचि तथा अवधान नहीं प्रदर्शित किया जायेगा, तब तक किसी प्रकार की सच्ची धारणा नहीं हो सकती। इसलिए इन दोनों शब्दों का क्या अर्थ है, आपको यह जानना आवश्यक है।
अवधान मन को स्थिर करने का प्रयास है। यह चुने हुए विषय पर चेतना को केन्द्रित करना है। अवधान के द्वारा आप अपनी मानसिक क्षमताओं तथा योग्यताओं का विकास कर सकते हैं। जहाँ अवधान होगा, वहाँ धारणा भी होगी। अवधान का अर्जन धीरे-धीरे करना चाहिए। यह कोई विशेष विधि नहीं है। यह इसके एक पहलू में सम्पूर्ण मानसिक क्रिया विधि है।
देखने में सदैव अवधान सम्मिलित है। देखना अर्थात् अवधान करना। अवधान के द्वारा आपको विषयों का स्पष्ट ज्ञान प्राप्त होता है। जिस विषय की ओर अवधान निर्दिष्ट होता है, उसी के ऊपर सम्पूर्ण ऊर्जा केन्द्रित होती है और आपको उसकी पूर्ण और सम्पूर्ण सूचना प्राप्त होती है। अवधान में मन की बिखरी हुई समस्त किरणें एकत्रित होती है। अवधान में प्रयास अथवा संघर्ष होता है। अवधान के द्वारा किसी भी वस्तु का गहन प्रभाव पड़ता है। यदि आपका अवधान अच्छा है, तो आप हाथ में लिये गये कार्य को बहुत अच्छी तरह से कर सकेंगे। एक अवधान सम्पन्न व्यक्ति की स्मरण शक्ति बहुत अच्छी होती है। वह बहुत ही जागरूक और सावधान होता है। वह नम्र और सतर्क होता है।
अवधान धारणा में बहुत बड़ी भूमिका निभाता है। यह संकल्प का आधार है। जब अन्तरावलोकन के उद्देश्य से इसे अन्तर जगत् की ओर उचित प्रकार से निर्देशित किया जाता है, तो यह मन को विश्लेषित करता है और आपके लिए अनेक चौकाने बाले तथ्यों को प्रकाशित करता है।
अवधान चेतना का केन्द्रीकरण है। अवधान धारणा में एक सजग भूमिका निभाता है। यह प्रशिक्षित संकल्प का एक प्रतीक है। यह दृढ़ मानसिकता के व्यक्तियों में पाया जाता है। यह एक दुर्लभ योग्यता है। ब्रह्मचर्य इस शक्ति का अद्भुत ढंग से विकास करता है। वह योगी जिसके पास यह गुण होता है, वह अपने मन को किसी भी अरुचिकर विषय पर भी बहुत देर तक एकाग्र कर सकता है। मन जिस विषय को पसन्द करता हो, उस पर इसे एकाग्र करना सरल है। दृढ़ अभ्यास के द्वारा अवधान का अर्जन और विकास सम्भव है। सभी महान् व्यक्ति अवधान के द्वारा ही ऊपर उठे ।
आप जिस समय जो कार्य कर रहे हों, अपना पूरा अवधान उसी कार्य में लगायें। उन अरुचिकर कार्यों में अपना अवधान लगायें, जिनको करने में आपको उनकी अप्रियता के कारण संकोच होता था। अरुचिकर विषयों तथा विचारों में रुचि लें। उन्हें अपने मन के सामने रखें। धीरे-धीरे रुचि प्रकट होगी। अनेक मानसिक दुर्बलताएँ नष्ट हो जायेंगी। मन दृढ़ और दृढ़तर होता जायेगा।
वह बल जिसके द्वारा कोई भी वस्तु मन पर आघात करती है, उस स्तर पर निर्भर करता है जिस स्तर का अवधान उस पर डाला जा रहा है। स्मरण की महान् कला अवधान है। अकर्मण्य व्यक्तियों की स्मरण शक्ति दुर्बल होती है।
मानव-मन के पास एक समय में एक ही विषय पर ध्यान देने की शक्ति है, हालाँकि यह अत्यन्त शीघ्रता से इतनी अद्भुत गति से एक विषय से दूसरे विषय पर जा सकता है कि वास्तव में कुछ ने देखा कि यह एक समय में कई बातों को ग्रहण कर सकता हैं। लेकिन पश्चिम तथा पूर्व के कुछ श्रेष्ठ दार्शनिकों और मनीषियों ने पाया कि एक विचार वाला सिद्धान्त अधिक सही है। यह व्यक्तियों के अनुभव से भी सहमत है।
यदि आप मानसिक कार्यों अथवा गतिविधियों का सावधानीपूर्वक अन्वेषण करें, किसी एक विधि को अवधान नहीं कहा जा सकता है। अवधान को एक अलग कार्य की भाँति अलग करना सम्भव है। आप किसी बात को ग्रहण करते हैं, इसलिए उसके प्रति चैतन्य रहते हैं।
चेतना की प्रत्येक स्थिति से अवधान संयुक्त है और यह चेतना के प्रत्येक क्षेत्र में उपस्थित है। एक सजग विद्यार्थी आध्यात्मिक पथ में श्रुतियों का प्रभावशाली ढंग से श्रवण कर सकता है। सेना का अधिकारी कहता है सावधान! और सैनिक अपनी बन्दूक ले कर अपने शत्रुओं पर आक्रमण हेतु तैयार हो जाता है। मात्र एक सतर्क सैनिक ही अपना निशाना लगा सकता है। अवधान के बिना कोई व्यक्ति भौतिक अथवा आध्यात्मिक उद्देश्य में सफलता प्राप्त नहीं कर सकता है।
ऐसे कई योगी हैं जो आठ या दस अथवा सौ कार्य एक साथ कर सकते हैं। यह कोई आश्चर्य नहीं है। इसका सम्पूर्ण रहस्य इस बात में सन्निहित है कि उन्होंने अपने अवधान का प्रशंसनीय स्तर तक विकास कर लिया है। जगत् के सभी महान् व्यक्तियों में यह योग्यता विभिन्न स्तर तक विकसित होती है।
अवधान दो प्रकार का होता है—बाह्य अवधान और अन्तर अवधान। जब अवधान बाह्य विषय की ओर निर्दिष्ट होता है, तो इसे बाह्य अवधान कहते हैं। जब इसे मन के भीतर मानसिक विचारों और विषयों पर निर्देशित किया जाता है, तो यह अन्तर अवधान कहलाता है।
अवधान अन्य दो प्रकार का भी होता है। ऐच्छिक अवधान और अनैच्छिक अवधान। जब संकल्प करके प्रयास द्वारा अवधान कुछ बाह्य विषयों की ओर निर्दिष्ट किया जाता है, तो यह ऐच्छिक अवधान कहलाता है। जब आप इसकी अथवा उसकी ओर ध्यान देने की इच्छा व्यक्त करते हैं, तो यह ऐच्छिक अवधान कहलाता है। इसमें मनुष्य समझता है कि वह क्यों देखता है तथा इसमें कुछ निश्चित लक्ष्य या उद्देश्य सम्मिलित होता है। ऐच्छिक अवधान हेतु प्रयत्न, संकल्प, निर्णय तथा थोड़ा मानसिक प्रशिक्षण आवश्यक है। अभ्यास तथा अध्यवसाय द्वारा इसमें वृद्धि की जा सकती है। अवधान के अभ्यास से प्राप्त होने वाले लाभ अगण्य हैं। अनैच्छिक अवधान अत्यन्त सामान्य है। इस हेतु किसी अभ्यास की आवश्यकता नहीं है। इसमें इच्छा का कोई प्रयत्न नहीं होता, यह विषय का सौन्दर्य अथवा आकर्षण देख कर प्रेरित होता है। इस अवधान में व्यक्ति बिना यह जाने कि क्यों और किसी निर्देश के अनुभव के बिना देखते हैं। छोटे बच्चों में अनैच्छिक अवधान की शक्ति बड़े लोगों की तुलना में बहुत अधिक होती है।
यदि एक व्यक्ति का ध्यान नहीं है, तो वह एकाग्र नहीं होता। यदि वह किसी बात पर ध्यान देता है, तो ऐसा कहा जाता है कि वह एकाग्र है। उद्देश्य, आशा, अपेक्षा, कामना, विश्वास, आकांक्षा, ज्ञान, लक्ष्य तथा आवश्यकताएँ अवधान हेतु निर्णायक होती हैं। आपको सावधानीपूर्वक अवधान के स्तर, अवधि, सीमा, रूपों, उतार-चढ़ाव तथा विचलनों को देखना चाहिए।
यदि कोई विषय अत्यधिक सुखदायक है, तो वहाँ गहन अवधान होता है। आपको रुचि उत्पन्न करनी होगी। तभी विषय पर अवधान होगा। यदि अवधान कम हो जाये, तो अपना अवधान किसी अन्य सुखकर विषय पर ले जायें। धैर्यपूर्वक प्रशिक्षण के द्वारा आप रुचि उत्पन्न करके मन को किसी अरुचिपूर्ण विषय की ओर भी निर्दिष्ट कर सकते हैं। तभी आपका संकल्प दृढ़ होगा।
यदि आप ध्यान से देखें, तो आप देखेंगे कि आपका ध्यान भिन्न-भिन्न समय पर भिन्न-भिन्न विषय पर जाता है। यह कभी एक विषय पर होता है, कभी दूसरे पर। जब भौतिक स्थितियाँ स्थिर होती हैं, तो इसे अवधान का विचलनीकरण कहते हैं। अवधान परिवर्तित हो रहा है। विषय स्वयं परिवर्तित होते रहते हैं; लेकिन इनका अवधान करने वाले व्यक्ति में कोई परिवर्तन नहीं होता। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि मन को अधिक लम्बे समय तक अवधान करने हेतु प्रशिक्षण नहीं दिया गया है। यह एकरसता से ऊब जाता है और किसी सुखकर विषय की ओर भागना चाहता है। आप कह सकते है कि मैं एक ही बात पर ध्यान दे सकता हूँ। लेकिन आप कुछ समय बाद देखेंगे कि हालाँकि आप बहुत अधिक प्रयत्न कर रहे हैं, लेकिन फिर भी यह अचानक किसी अन्य विषय को देखने लगता है। यह अवधान का विचलन है।
रुचि अवधान में वृद्धि करती है। मन को किसी अरुचिकर विषय पर लगाना कठिन है। जब कोई व्याख्याता पढ़ाता है और विषय अव्यावहारिक और तात्त्विक है, तो कई लोग चुपचाप कक्ष को छोड़ कर चले जाते हैं; क्योंकि वे उस विषय को नहीं ग्रहण कर पाते जो रुचिकर नहीं है। लेकिन वही व्याख्याता यदि गाना गाता है और अच्छी कहानी सुनाता है, तो सभी लोग उसकी बात बड़ी रुचि के साथ सुनते हैं। वहाँ पूर्ण शान्ति होती है। व्याख्याताओं को सुनने वालों की रुचि का ज्ञान होना चाहिए। उन्हें बात करने में बल तथा उदाहरणों का प्रयोग करना चाहिए। उन्हें देखना चाहिए कि श्रोता गण दत्त-चित्त हैं अथवा नहीं। उन्हें विषय को थोड़ा बदलना चाहिए और कुछ नयी कहानियाँ सुनानी चाहिए और अनुकूल उदाहरण लाना चाहिए। उन्हें श्रोताओं की आँखों में सीधे देखना चाहिए। यदि कोई सफल व्याख्याता बनना चाहता है और श्रोताओं को एकाग्र बनाना चाहता है, तो उसे कई बातें जाननी आवश्यक हैं।
नेपोलियन, ग्लेडस्टोन, अर्जुन तथा ज्ञानदेव - सभी में अद्भुत एकाग्रता की शक्ति थी। वे अपने मन को किसी भी विषय पर एकाग्र कर सकते थे। सभी वैज्ञानिकों तथा दार्शनिकों में भी प्रशंसनीय स्तर का अवधान होता है। उन्होंने धैर्यपूर्वक नियमित और क्रमबद्ध अभ्यास द्वारा इसे अर्जित किया है। एक न्यायाधीश एवं सर्जन को उनके व्यवसाय में मात्र तभी अत्यधिक सफलता प्राप्त होगी, जब कि उनमें अवधान की शक्ति उच्च स्तर की हो।
यदि आप कोई भी कार्य करें, तो उसमें लीन हो जायें। स्वयं को भूल आत्मा को डुबा दें। मात्र कार्य में ही ध्यान दें। सभी अन्य विचारों को रोक दें। जब आप एक कार्य करें, तो अन्य किसी कार्य के बारे में विचार न करें। जब आप एक पुस्तक पढ़ रहे हों, तो अन्य किसी पुस्तक के बारे में विचार न करें। अपने मन को उस तीर बनाने वाले की भाँति वहाँ लगायें, जिसे अपने चारों ओर की किसी बात का ध्यान ही नहीं था। प्रसिद्ध वैज्ञानिक अपने प्रयोगों में तथा शोधों में इतने व्यस्त और एकाग्र रहते हैं कि उन्हें दो दिन तक भोजन लेने का भी ध्यान नहीं रहता है। एक बार की बात है। एक वैज्ञानिक अपने कार्य में बहुत व्यस्त था। उसकी पत्नी जो कि किसी अन्य शहर में रहती थी, उसके ऊपर कोई संकट आ गया। वह दौड़ती हुई प्रयोगशाला में आयी, उसकी आँखों में आँसू थे। बड़े आश्चर्य की बात हुई! वह वैज्ञानिक थोड़ा भी विचलित नहीं हुआ। वह अपने कार्य में इतना तल्लीन था कि वह यह भी भूल गया कि वह उसकी अपनी पत्नी है। उसने कहा मैडम आप थोड़ी देर तक और रोयें। मुझे आपके आँसुओं का विश्लेषण कर लेने दें।
एक बार एक सम्भ्रान्त व्यक्ति ने श्री इशाक न्यूटन को रात्रि भोजन के लिए बुलाया। न्यूटन तैयार हो कर अपने मेजबान के घर गये और उसके हॉल में बैठ गये। वह व्यक्ति न्यूटन के बारे में सब कुछ भूल गया, उसने अपना रात्रि का भोजन किया और सो गया। न्यूटन तो विज्ञान के किसी प्रयोग के बारे में विचार के बारे में सोचते हुए इतना तल्लीन थे कि उन्हें इस रात्रि-भोजन के बारे में ध्यान ही न रहा। वे अपनी कुर्सी पर एक मूर्तिवत् बैठे रहे। अगली सुबह मेजबान ने न्यूटन को अपने मेहमानखाने में देखा, तो उसे ध्यान आया कि उसने न्यूटन को रात्रि भोजन पर आमन्त्रित किया था। उसे अपने भुलक्कड़पने पर दुःख हुआ और उसने न्यूटन से अत्यन्त दुःखी स्वर में क्षमा माँगी। न्यूटन की एकाग्रता की शक्ति कितनी अद्भुत थी! सभी मेधावी लोगों में यह शक्ति अनन्त स्तर तक होती है।
प्रोफेसर जेम्स के अनुसार हम चीजों की ओर इसलिए ध्यान देते हैं, क्योंकि वे बड़ी रुचिकर होती हैं। लेकिन प्रोफेसर पिल्सबेरी की यह धारणा है कि चीजें इसलिए रुचिकर लगती हैं, क्योंकि हम उन पर इसलिए ध्यान देते हैं, क्योंकि हम उन पर ध्यान देना पसन्द करते हैं। जब वे रुचिकर नहीं होतीं, तो हम उन पर ध्यान नहीं देते।
निरन्तर अभ्यास तथा एकाग्रता के नये-नये प्रयत्नों के द्वारा जब आप उसके स्वामी बन जाते हैं तथा उसके अर्थ और उसके परिणामों के बारे में जानने लगते हैं, तो कोई भी विषय जो कि प्रारम्भ में शुष्क तथा अरुचिकर लगता है, वही बाद में रुचिपूर्ण लगने लगता है। उस विषय पर आपके अवधान की धारणा शक्ति दृढ़ हो जायेगी।
जब आपके ऊपर कोई भी दुर्भाग्य आ पड़ता है अथवा आपको असफलता के कारणों की खोज हेतु पुरानी किसी बात का स्मरण करना होता है, तो आपके मन पर इसका इतना अधिक प्रभाव रहता है कि आप किसी भी तरह से इसके बारे में विचार करने से रुक नहीं पाते। एक लेख लिखना है अथवा एक पुस्तक पूरी होने वाली है, तो काम चालू रहता है, चाहे आपकी नींद का नुकसान हो, फिर भी आप स्वयं को इससे अलग करने में असमर्थ रहते हैं। अवधान स्वैच्छिक रूप से चेतना के सम्पूर्ण क्षेत्र पर पूर्ण आधिपत्य कर लेता है।
यदि आपके पास धारणा की अच्छी शक्ति हो, तो कोई भी बात जो मन ग्रहण करता है, वह गहरा प्रभाव डालती है। एक अवधान सम्पन्न व्यक्ति ही मात्र अपनी संकल्प शक्ति का विकास कर सकता है। अवधान, प्रयास तथा रुचि का मिश्रण आश्चर्यजनक कार्य कर सकता है। इसमें कोई सन्देह नहीं है। एक साधारण बुद्धि सम्पन्न व्यक्ति जिसका अवधान अत्यधिक विकसित हो, वह उन उच्च बुद्धि सम्पन्न व्यक्तियों की तुलना में अधिक कार्य कर सकता है, जिनकी एकाग्रता की शक्ति कम विकसित है। किसी भी कार्य में असफलता का मूल कारण है अवधान की कमी। यदि एक समय में एक ही कार्य पर ध्यान दिया जाये, तो आपको उस विषय का तथा उसके विभिन्न रूपों का पूर्ण ज्ञान प्राप्त होगा। संसार के सामान्य अप्रशिक्षित व्यक्ति सामान्यतया एक समय में कई बातों को ग्रहण करते हैं। वे अपनी मानसिक कार्यशाला के द्वार के भीतर कई चीजों को प्रवेश करने देते हैं और यही कारण है कि उनका मन धुंधला अथवा मलिन होता है। उनमें विचारों की स्पष्टता नहीं होती है। वे विश्लेषण और संश्लेषण नहीं कर सकते। वे भ्रमित रहते हैं। वे अपने विचारों को स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त नहीं कर सकते हैं। जब कि एक संयमित व्यक्ति किसी भी विषय पर जितनी देर तक चाहे ध्यान दे सकता है। वह किसी भी एक विषय अथवा वस्तु के बारे में पूर्ण एवं विस्तृत जानकारी प्राप्त कर सकता है, तत्पश्चात् वह किसी अन्य विषय को कर सकता है। अवधान किसी भी योगी की महत्त्वपूर्ण योग्यता है।
आप एक ही समय में दो विभिन्न विषयों पर ध्यान नहीं दे सकते हैं। मन एक समय में दो विषयों पर ध्यान नहीं दे सकता है। चूँकि यह इतनी अद्भुत गति से आगे-पीछे जाता है कि आपको लगता है कि मन एक ही समय में कई विषयों पर ध्यान दे सकता है। आप एक समय में मात्र देख अथवा सुन सकते हैं। आप एक ही समय में देख और सुन नहीं सकते। लेकिन यह नियम विकसित योगी के ऊपर लागू नहीं होता। एक उच्च योगी एक ही समय में कई कार्य कर सकता है; क्योंकि उसका संकल्प दैवी संकल्प जो कि सर्वशक्तिमान् है, उससे पृथक् नहीं रहता।
मन को शरीर के भीतर अथवा बाहर किसी विषय पर केन्द्रित करें। कुछ देर वहीं स्थिर रहें। यह धारणा है। आपको इसका नित्य अभ्यास करना चाहिए।
सबसे पहले उत्तम चरित्र के अभ्यास द्वारा मन को शुद्ध कीजिए, तत्पश्चात् धारणा का अभ्यास प्रारम्भ कीजिए। मन की शुद्धता के बिना धारणा के अभ्यास से कोई लाभ प्राप्त नहीं होगा। कुछ ऐसे तान्त्रिक हैं, जिनकी धारणा तो अच्छी होती है, किन्तु उनका चरित्र अच्छा नहीं होता। यही कारण है कि उनका आध्यात्मिक जीवन में किंचित् भी विकास नहीं होता।
जिसका आसन स्थिर है तथा जिसने श्वास पर नियन्त्रण द्वारा अपनी नाड़ियों तथा कोशों को शुद्ध कर लिया है, वह सरलता से धारणा कर लेता है। यदि आप सभी विचलनों को हटा दें, तो आपकी धारणा प्रबल होगी। एक सच्चा ब्रह्मचारी जिसने वीर्य का संरक्षण किया है, उसकी धारणा अद्भुत होती है।
कुछ अधैर्यवान् साधक बिना किसी नैतिक प्रशिक्षण के सीधे धारणा का अभ्यास करने लगते हैं। यह भयंकर भूल है। नैतिक पूर्णता सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है।
आप आध्यात्मिक ऊर्जा के सातों केन्द्रों में से किसी एक पर धारणा कर सकते हैं। अवधान धारणा में बड़ी ही महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जिसने अवधान की शक्ति का विकास कर लिया है, उसकी धारणा अच्छी होती है। वह व्यक्ति जो वासनाओं एवं काल्पनिक कामनाओं से पूर्ण है, वह किसी भी विषय अथवा वस्तु पर मुश्किल से एक सेकेंड तक ही धारणा कर सकता है। उसका मन एक बूढ़े बन्दर की भाँति कूदता रहता है।
वह जिसने प्रत्याहार (इन्द्रियों को विषयों से वापस खींचना) प्राप्त कर लिया है, उसकी धारणा अच्छी होती है। आपको आध्यात्मिक पथ में एक-एक कदम, एक-एक अवस्था करके आगे बढ़ना होगा। अभ्यास प्रारम्भ करने के लिए उत्तम चरित्र, आसनों, प्राणायाम और प्रत्याहार की नींव डालें। तभी धारणा और ध्यान का भव्य भवन सफलतापूर्वक खड़ा होगा।
आपको धारणा के विषय को उसकी अनुपस्थिति में भी देखने की क्षमता होनी चाहिए। इसका मानसिक चित्र एक क्षण में ही आपके सामने आ जाना चाहिए। यदि आपकी धारणा होगी, तो आप यह कार्य बिना किसी कठिनाई के कर सकेंगे। अभ्यास के प्रारम्भ में आप घड़ी की टिक-टिक या मोमबत्ती की लौ अथवा अन्य किसी भी सुखकर विषय पर जो मन को अच्छा लगे, धारणा कर सकते हैं। यह स्थूल धारणा है।
मन को विश्राम लेने के स्थान के बिना धारणा सम्भव ही नहीं। प्रारम्भ में मन किसी भी उस विषय पर एकाग्र किया जा सकता है, जो सुखकर हो। इसे प्रारम्भ में किसी भी ऐसे विषय पर एकाग्र करना सम्भव नहीं, जिसे मन पसन्द न करता हो। पद्मासन में बैठ जायें। दृष्टि को नासिका के अग्र भाग पर टिकायें। इसे नासिकाग्र दृष्टि कहते हैं। किसी प्रकार का हिंसात्मक प्रयास न करें। नासिका के अग्र भाग पर सहजता से देखते रहें। प्रारम्भ में मात्र एक मिनट तक अभ्यास करें। धीरे-धीरे इस समय को आधा घण्टे अथवा इससे अधिक बढ़ायें। यह अभ्यास मन को स्थिर करता है। यह धारणा-शक्ति का विकास करता है। जब आप पैदल चलते हैं, तो भी इस अभ्यास को कर सकते हैं। पद्मासन में बैठ जायें और मन को दोनों भौहों के बीच में एकाग्र करने का प्रयत्न करें। इसे आधा मिनट तक सहज रूप से करें। फिर इसका समय शनैः-शनैः आधा घण्टे अथवा और अधिक बढ़ायें। अभ्यास में तनिक भी हिंसात्मकता नहीं होनी चाहिए। यह अभ्यास मन का विचलन दूर करता है और धारणा का विकास करता है। इसे भ्रूमध्य-दृष्टि कहते हैं। आप अपनी रुचि, स्वभाव एवं क्षमता के अनुसार नासिकाग्र-दृष्टि अथवा भ्रूमध्य-दृष्टि का चुनाव कर सैकते हैं।
यदि आप अपनी धारणा-शक्ति में वृद्धि करना चाहते हैं, तो आपको अपनी सांसारिक गतिविधियाँ कम करनी होंगी। आपको प्रतिदिन दो घण्टे अथवा अधिक देर तक मौन का पालन करना होगा।
तब तक धारणा का अभ्यास करें, जब तक मन धारणा के विषय पर स्थिर न हो जाये। जब मन धारणा के विषय से भागे, इसे पुनः वापस ले आयें।
जब धारणा गहन और प्रबल होगी, अन्य इन्द्रियाँ कार्य नहीं कर सकेंगी। जो नित्य तीन घण्टे तक धारणा का अभ्यास करता है, उसके पास अद्भुत सिद्धियाँ होती हैं। उसके पास दृढ़ संकल्प-शक्ति होती है।
धारणा आध्यात्मिक पथ के प्रारम्भिक अभ्यासियों के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण योग्यता है। धारणा आध्यात्मिक पथ में ही नहीं, वरन् जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आवश्यक है। धारणा के बिना मनुष्य जीवन में असफल रहता है।
आध्यात्मिक अर्थ में धारणा का अर्थ है-चित्त की एकाग्रता अर्थात् किसी इष्टदेवता अथवा देवी के ऊपर मन को स्थिर करना। धारणा की प्राप्ति के लिए आपको संसार के सभी निरर्थक विचारों को दूर हटाना होगा। आपको सांसारिक प्रवृत्ति की सभी आधारभूत कामनाओं से पूर्णतः मुक्त होना होगा। आपको उनके स्थान पर दैवी विचारों को प्रतिस्थापित करना होगा।
धारणा के बाद ध्यान आता है। ध्यान के बाद समाधि आती है। निर्विकल्प समाधि जो सभी प्रकार के द्वैत विचारों से मुक्त होती है, उसके पश्चात् जीवन्मुक्त स्थिति आती है। जीवन्मुक्त स्थिति जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति की ओर प्रेरित करती है। इसलिए जो साधक आध्यात्मिक पथ का अवलम्बन करना चाहते हों, उनके लिए धारणा सर्वप्रथम आवश्यकता है।
प्रत्येक छोटे से कार्य हेतु धारणा एवं सम्पूर्ण हृदय से एकाग्रता की माँग होती है। यदि आप किसी सुई के छेद में धागा डालना चाहते हैं, तो आपको धागे से निकले हुए सभी छोटे-छोटे तन्तुओं को हटा कर इसे एक तन्तु बनाना पड़ेगा और बड़ी ही सावधानीपूर्वक स्थिर चित्त विचार से धागे को छेद में डालना होगा।
जब आप किसी पहाड़ पर चढ़ना चाहते हैं अथवा ढाल पर उतरना चाहते हैं, तो आपको बड़ा ही सावधान रहना चाहिए अन्यथा आप फिसल जायेंगे और गहरी खाई में गिर जायेंगे। यदि आप साइकिल पर सवारी करते समय अपने मित्र से बातें कर रहे हैं, तो कोई कार आपको पीछे से धक्का मार सकती है। यदि आपका ध्यान सड़क पर चलते समय नहीं होगा, तो आप किसी पत्थर से टकरा जायेंगे और गिर पड़ेंगे। एक असावधान नाई अपने ग्राहक की नाक काट देगा। एक असावधान धोबी अपने मालिक के कपड़े जला देगा। ध्यान के न होने पर एक सुस्त जिज्ञासु अपना सिर दीवार में मार देगा और भूमि पर चारों खाने चित्त गिर पड़ेगा। इसलिए आपको अवधान का विकास करना चाहिए। अवधान धारणा की ओर ले जाता है।
अपने मन को हाथ में लिये गये कार्य पर लगायें। अपना सम्पूर्ण हृदय और आत्मा कार्य पर लगायें। चाहे यह केले का छिलका छीलने अथवा नीबू निचोड़ने जैसा साधारण कार्य ही क्यों न हो। किसी भी कार्य को बेतरतीब ढंग से न करें। कभी भी जल्दबाजी में भोजन न करें। अपने सभी कामों में शान्त और धैर्यवान् रहें। कभी भी किसी कार्य में जल्दबाजी न करें। शान्ति तथा एकाग्रता के बिना कोई भी कार्य सफलतापूर्वक सम्पन्न नहीं होता। जिन्होंने सफलता प्राप्त की और महान् बने, उन सभी में यह गुण अनिवार्य रूप से उपस्थित था।
यदि आप अपने सभी कार्य पूर्ण अवधान और एकाग्रता के साथ करेंगे, तो आप अपने प्रत्येक प्रयास में सफल होंगे। जब आप प्रार्थना एवं ध्यान हेतु बैठें, तो कभी भी अपने ऑफिस के काम के बारे में न सोचें। जब आप ऑफिस में काम कर रहे हों, तो अपने बच्चे के बारे में जो घर पर बीमार है अथवा घर के किसी अन्य कार्यों के बारे में विचार न करें। जब आप स्नान करें, तो खेल के बारे में विचार न करें। जब आप भोजन करें, तो ऑफिस में जो कार्य शेष है, उसके बारे में विचार न करें। आपको स्वयं को हाथ में लिये गये कार्य को पूर्ण एकाग्रता से करने का प्रशिक्षण देना होगा। आप सरलतापूर्वक अपनी स्मरण शक्ति तथा संकल्प शक्ति का विकास कर सकते हैं। धारणा विजय के द्वार को खोलने की चाबी है। यदि एक साधारण व्यक्ति किसी काम को करने में एक घण्टा लगाता है, तो अच्छी धारणा वाला व्यक्ति उसी काम को पहले वाले की तुलना में अधिक कुशलता से और आधे घण्टे में ही पूरा कर लेगा। आप इसके (धारणा के अभ्यास) द्वारा महान् बन जायेंगे ।
आपको मन के शिथिलीकरण की विद्या का ज्ञान होना चाहिए। आपको मन से अन्य विचारों को बाहर निकालने की विधि का ज्ञान होना चाहिए। आपको इस समय मात्र विश्राम के बारे में ही सोचना चाहिए। आपको स्वयं को मृत समझना चाहिए। ईश्वर के नाम का जप कीजिए और उनके गुणों के आनन्द स्वरूप का विचार कीजिए। आपको निद्रा के समय स्वप्न नहीं आना चाहिए। तब आपको अच्छी नींद आयेगी और आप अत्यन्त सरलता से ताजा हो जायेंगे। यदि आप दो घण्टे भी सो लेंगे, तो भी आप ताजा अनुभव करेंगे।
यह कहना बड़ा ही कठिन है कि कहाँ से धारणा समाप्त होती है और कहाँ से ध्यान प्रारम्भ होता है। ध्यान धारणा का अनुकरण करता है। सर्वप्रथम यम-नियम के अभ्यास द्वारा मन को शुद्ध कीजिए। तत्पश्चात् धारणा का अभ्यास प्रारम्भ कीजिए। बिना शुद्धता के धारणा निरर्थक है।
मन की स्थिरता धारणा है। यदि आप विचलनों के सभी कारणों का उन्मूलन कर दें, तो आपकी धारणा-शक्ति में वृद्धि हो जायेगी। एक सच्चा ब्रह्मचारी जिसने अपने वीर्य का संरक्षण किया है, उसकी धारणा शक्तिशाली होगी। धारणा में अवधान महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जिसने अवधान की शक्ति का विकास कर लिया है, उसकी धारणा अच्छी होती है। आपको धारणा के विषय को उसकी अनुपस्थिति में भी स्पष्ट रूप से देख सकना चाहिए। एक ही क्षण में उसका मानसिक चित्र आपके सामने आ जाना चाहिए। यदि आपको धारणा का अच्छा अभ्यास हो, तो आप इसे बिना किसी कठिनाई के कर सकेंगे। वह जिसने विभिन्न विषयों से इन्द्रियों को वापस खींच कर प्रत्याहार में सफलता प्राप्त कर ली है, उसकी धारणा अच्छी होती आपको आध्यात्मिक पथ में चरण दर चरण एक अवस्था से दूसरी अवस्था तक बढ़ना होगा। अभ्यास प्रारम्भ करने के लिए यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार की नींव डालें। धारणा, ध्यान, समाधि का भव्य भवन तभी सफलतापूर्वक खड़ा होगा।
आसन बहिरंग साधना है। ध्यान अन्तरंग साधना है। जब ध्यान और समाधि के साथ तुलना की जाये, तो धारणा भी बहिरंग साधना है। वह जिसका आसन स्थिर है, जिसने प्राणायाम द्वारा योग-नाड़ियों तथा प्राणमय कोश का शुद्धिकरण कर लिया हो, वह सरलतापूर्वक धारणा कर सकता है। आप आन्तरिक रूप से आध्यात्मिक ऊर्जा के सातों चक्रों (मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर चक्र, अनाहत चक्र, विशुद्ध चक्र, आज्ञा चक्र तथा सहस्रार) में से कोई एक, नासिकाग्र, जिह्वा की नोंक अथवा बाह्य रूप से किसी देवता जैसे हरि, हर, कृष्ण अथवा देवी के चित्र पर धारणा कर सकते हैं। आप घड़ी की टिक-टिक ध्वनि, मोमबत्ती की लौ, दीवाल पर कोई काला बिन्दु, पेंसिल, गुलाब का फूल अथवा किसी सुखकर विषय पर भी धारणा कर सकते हैं। यह स्थूल धारणा है। मन के विश्राम हेतु किसी वस्तु के बिना धारणा सम्भव ही नहीं है। मन को किसी भी सुखकर विषय जैसे चमेली का फूल, आम, सन्तरा अथवा प्रिय मित्र पर सरलता से स्थिर किया जा सकता है। प्रारम्भ में मन को किसी ऐसे विषय पर एकाग्र करना कठिन है जिसे यह नापसन्द करता हो जैसे मल, कोबरा, शत्रु, कुरूप चेहरा आदि। धारणा का अभ्यास तब तक करें, जब तक कि मन धारणा के विषय पर अच्छी तरह स्थापित हो जाये। जब मन धारणा के विषय से दूर भागे, तो इसे पुनः धारणा के विषय पर वापस खींच कर ले आये। गीता में भगवान् कृष्ण कहते हैं— “यतो यतो निश्चरति मनश्चंचलमस्थिरम् । ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ॥” जब-जब घुमन्तु तथा अस्थिर मन भागे, तब-तब इसे वश में करके आत्मा के नियन्त्रण में ले कर आयें।
यदि आप अपनी धारणा-शक्ति में वृद्धि करना चाहते हैं, तो आपको अपनी सांसारिक गतिविधियाँ कम करनी होंगी (व्यवहार-क्षय)। आपको नित्य दो घण्टे का मौन भी रखना होगा। एक व्यक्ति जिसका मन वासनाओं तथा काल्पनिक इच्छाओं से परिपूर्ण है, वह मन को किसी भी विषय पर कठिनाई से एक क्षण के लिए ही एकाग्र कर सकेगा। उसका मन एक गुब्बारे की भाँति कूदता रहता है। अपनी श्वास का नियमन तथा नियन्त्रण करें। इन्द्रियों को वश में करें और मन को किसी सुखकर विषय पर केन्द्रित करें। धारणा के विषय के साथ पवित्रता तथा शुद्धता के विचारों को संयुक्त करें।
आप भ्रूमध्य (अथवा त्रिकुटी) पर धारणा कर सकते हैं। आप अपने दाहिने कान से सुनायी पड़ने वाली अनाहत ध्वनियों पर धारणा कर सकते हैं। आप ॐ के चित्र पर धारणा कर सकते हैं। मुरली हाथ में लिये भगवान् कृष्ण, तथा शंख, चक्र, गदा और पद्म हाथों में लिये हुए भगवान् विष्णु का चित्र धारणा हेतु बहुत अच्छे हैं। आप अपने गुरु अथवा किसी सन्त के चित्र पर धारणा कर सकते हैं। वेदान्ती मन को आत्मा पर एकाग्र करते हैं। यह उनकी धारणा है।
धारणा अष्टांगयोग अथवा पतंजलि महर्षि के राजयोग की छठवीं अवस्था या अंग है। धारणा में आपके मन की झील में मात्र एक ही वृत्ति या लहर होगी तथा मन मात्र एक ही विषय का रूप ग्रहण करेगा। मन के सभी अन्य कार्य रुक जायेंगे। जो व्यक्ति आधे घण्टे या एक घण्टे के लिए भी सच्चा ध्यान करता है, उसके पास अद्भुत सिद्धियाँ होती हैं। उसकी संकल्प-शक्ति बड़ी ही प्रबल होती है।
जब हठयोगी अपने मन को षट चक्रों पर एकाग्र करते हैं, तो वे अपने मन को उनसे सम्बन्धित अधिष्ठाता देवता जैसे गणेश, ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, ईश्वर, सदाशिव पर भी एकाग्र करते हैं। प्राणायाम द्वारा श्वास को नियन्त्रित करके, इन्द्रियों को प्रत्याहार द्वारा वश में करें, तत्पश्चात् मन को सगुण अथवा निर्गुण ब्रह्म पर केन्द्रित करें। हठयोग के अनुसार वह योगी जो कुम्भक के द्वारा अपनी श्वास को बीस मिनट तक रोक सकता है, उसकी धारणा बहुत अच्छी होती है। प्राणायाम मन को स्थिर करता है, मन के विक्षेप दूर करता है और धारणा-शक्ति में वृद्धि करता है। जो जिह्वा की निचली झिल्ली को काटने के द्वारा इसे लम्बी करके, इसे जिह्वा के ऊपर स्थित छिद्र में प्रविष्ट करा के ऊपर ले जा कर खेचरी मुद्रा का अभ्यास करता है, उसकी धारणा अच्छी होती है।
जो धारणा का अभ्यास करते हैं, वे शीघ्र विकास करते हैं। वे किसी भी कार्य को वैज्ञानिक रूप से सटीक ढंग से तथा अत्यन्त दक्षतापूर्वक कर सकते हैं। जो कार्य अन्य लोग छह घण्टे में करते हैं, वही कार्य धारणा सम्पन्न व्यक्ति आधे घण्टे में कर सकता है।
जिसे अन्य छह घण्टे में पढ़ते हैं, उसे ही अच्छी धारणा से सम्पन्न व्यक्ति आधे घण्टे में पढ़ सकता है। धारणा उमड़ते विचारों को शान्त करती है, शुद्ध करती है, विचार-शक्ति को बल प्रदान करती है तथा विचारों को स्पष्ट करती है। धारणा भौतिक समृद्धि में भी सहायता करती है। धारणा सम्पन्न व्यक्ति अपने कार्यालय अथवा व्यवसाय-गृह में भी अच्छा कार्य करता है। इसके पूर्व जो भी धुंधला तथा अस्पष्ट था, वह अब स्पष्ट और निश्चित हो जाता है। जो पहले कठिन था, वह अब सरल हो जाता है और जो पहले जटिल, भ्रमित करने वाला था, वह अब सरलता से समझ में आने लगता है। आप धारणा के द्वारा सब कुछ प्राप्त कर सकते हैं। जो नित्य धारणा का अभ्यास करता है, उसके लिए कुछ भी असम्भव नहीं है। जब कोई भूखा हो अथवा किसी जटिल रोग से पीड़ित हो, तो उसके लिए धारणा का अभ्यास करना बहुत कठिन है। जो धारणा का अभ्यास करता है, उसका स्वास्थ्य अच्छा रहता है और उसकी मानसिक दृष्टि अत्यन्त स्पष्ट होती है।
एक शान्त कमरे में पद्मासन में बैठ जायें। अपनी आँखें बन्द कर लें। जब आप एक सेब फल पर धारणा करते हैं, तो क्या होता है, देखें। आप इसके रंग, आकार, इसके विभिन्न भागों जैसे छिलके, गूदा, बीज आदि के बारे में विचार करते हैं। आप उन स्थानों के बारे में विचार कर सकते हैं, जहाँ से यह आया होता है। आप इसके अम्लीय अथवा मधुर स्वाद के बारे में तथा पाचन-तन्त्र और रक्त पर इसके प्रभावों के बारे में विचार कर सकते हैं। संयोजन के सिद्धान्त के अनुसार, किसी अन्य फल के विचार भी प्रवेश करने का प्रयास करेंगे। मन कुछ अन्य बाह्य विचारों का भी आनन्द लेना चाहेगा। यह आश्चर्य भी कर सकता है। यह किसी मित्र से शाम ४ बजे रेलवे स्टेशन पर मिलने के बारे में विचार कर सकता है। यह एक तौलिया अथवा चाय के डिब्बे अथवा बिस्किट खरीदने के बारे में विचार कर सकता है। यह किसी अनहोनी के बारे में विचार कर सकता है, जो कि पिछले दिनों घटी हो। आपको विचारों की एक निश्चित रेखा पर विचार करने का प्रयास करना है। विचार की रेखा के बीच कोई अन्तराल नहीं होना चाहिए। आपको उन विचारों को भीतर प्रवेश नहीं करने देना चाहिए, जो विषय से सम्बन्धित नहीं । आपको इस दिशा में सफलता प्राप्ति हेतु कड़ा संघर्ष करना होगा। मन पुरानी लीकों की ओर भागने तथा अपने पुराने जाने-पहचाने रास्ते पर जाने का पूरा प्रयत्न करेगा। आपका यह प्रयास चढ़ाई चढ़ने जैसा होगा। जब आपको धारणा में कुछ सफलता मिलेगी, तो आपको आनन्द का अनुभव होगा। जिस प्रकार गुरुत्वाकर्षण का नियम तथा संयोजन का नियम आदि भूमण्डल पर कार्य करते हैं, उसी प्रकार विचारों के निश्चित नियम जैसे निरन्तरता का नियम आदि मानसिक धरातल अथवा विचार-जगत् में कार्य करते हैं।
जो धारणा का अभ्यास करते हैं, उन्हें इन नियमों को अच्छी तरह समझना चाहिए। जब मन किसी विषय के बारे में सोचता है, तो यह इसके भागों के बारे में, इसके गुणों के बारे में भी विचार करता है। जब यह इसके कारण के बारे में विचार करता है, तो इसके प्रभाव के बारे में भी विचार करता है।
यदि आप भगवद्गीता, रामायण अथवा भागवत के ११ वें स्कन्ध को एकाग्रता के साथ कई बार पढ़ें, तो आपको प्रत्येक बार नये विचार प्राप्त होंगे। धारणा के द्वारा आपको सूक्ष्म अन्तर्दृष्टि प्राप्त होगी, मानसिक चेतना के धरातल पर सूक्ष्म गुप्त अर्थ प्रकट होंगे। आप दार्शनिक महत्त्व की आन्तरिक गहराइयों को समझ सकेंगे। जब आप किसी विषय पर धारणा करें, तो मन से संघर्ष न करें। शरीर अथवा मन में यदि कहीं भी तनाव हो, तो उसे हटा दें। विषय के बारे में निरन्तर सहजता से विचार करें। मन को इधर-उधर न भागने दें।
यदि आवेग आपको धारणा के समय बाधा डालें, तो उन पर ध्यान न दें। वे शीघ्र चले जायेंगे। यदि आप उन्हें दूर करने का प्रयास करेंगे, तो आप अपनी संकल्प शक्ति को आहत करेंगे। निरपेक्ष व्यवहार रखें। वेदान्ती इस सूत्र का प्रयोग करते हैं- मैं परवाह नहीं करता। बाहर जाओ। मैं साक्षी हूँ (सभी मानसिक रूपान्तरों का साक्षी)।" आवेगों को दूर भगाने के लिए भक्त प्रार्थना करते हैं और भगवान् के पास से सहायता आती है।
धारणा में मन को विभिन्न विषयों स्थूल और सूक्ष्म तथा विभिन्न आकारों मध्यम और बड़े हेतु प्रशिक्षित कीजिए। थोड़े समय में धारणा की दृढ़ आदत बन जायेगी। जिस क्षण आप ध्यान हेतु बैठेंगे, उसी क्षण मन सरलता से तैयार हो जायेगा। जब आप किसी पुस्तक का अध्ययन करें, तो उसे पूर्ण एकाग्रता से पढ़ें। जल्दी-जल्दी पृष्ठ उलटने का कोई लाभ नहीं है। गीता का एक पृष्ठ पढ़ें, उसके बाद पुस्तक को बन्द कर दें। जो आपने पढ़ा है, उस पर धारणा करें। महाभारत, उपनिषद् तथा भागवत में उसके समानान्तर वाक्य ढूँढ़ें। इनकी तुलना करें और इनमें अन्तर करें।
एक नवाभ्यासी के लिए धारणा का अभ्यास प्रारम्भ में अरुचिकर और थका देने वाला होता है। उसे मन और मस्तिष्क में नयी लीकें काटनी पड़ती हैं। कुछ माह पश्चात् उसे धारणा में रुचि हो जाती है। उसे एक नये प्रकार के आनन्द का अनुभव होता है। वह आनन्द है— धारणा का आनन्द। यदि वह एक दिन के लिए भी इस नये प्रकार के आनन्द को नहीं प्राप्त कर पाता, तो उसे बेचैनी का अनुभव होता है।
संसार के दुःखों एवं कष्टों से मुक्ति प्राप्त करने का एकमात्र उपाय धारणा है। आपका एकमात्र कर्तव्य है धारणा का अभ्यास करना। आपने इस शरीर को धारणा के अभ्यास तथा इस अभ्यास के द्वारा आत्मा के साक्षात्कार हेतु धारण किया है। दान, राजसूय यज्ञ आदि की यदि धारणा के साथ तुलना की जाये, तो ये उसके सामने कुछ भी नहीं हैं। ये खिलौने मात्र हैं।
वैराग्य, प्रत्याहार और धारणा के अभ्यास से चंचल मन की बिखरी हुई किरणें धीरे-धीरे एकत्रित हो जाती हैं। स्थिर अभ्यास से यह एकाग्रचित्त हो जाता है। वह योगी कितना प्रसन्न और दृढ़ है, जिसका चित्त एकाग्र है। वह पलक झपकने के भीतर ही ढेर सारा काम कर सकता है।
जो धारणा का अभ्यास कभी करते हैं और कभी बन्द कर देते हैं, उनका मन कभी-कभी ही स्थिर होता है। कभी-कभी मन भ्रमण करने लगता है और उस समय यह प्रयोग हेतु एकदम निरुपयोगी होता है। आपका मन ऐसा होना चाहिए कि वह सदैव गम्भीरतापूर्वक आपके आदेशों का पालन करे और किसी भी समय आपके दिये गये आदेशों को यथासम्भव अच्छी तरह पूरा करके लाये। राजयोग का स्थिर और क्रमबद्ध अभ्यास मन को अत्यन्त आज्ञापालक तथा विश्वसनीय बनाता है।
मन की पाँच स्थितियाँ अथवा योग-भूमिकाएँ हैं जैसे क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र, निरुद्ध। धारणा के धीरे-धीरे एवं पूर्ण नियमित अभ्यास से चंचल मन की बिखरी हुई किरणें एकत्रित हो जाती हैं। यह एकाग्र हो जाता है और स्वाभाविक रूप से यह वश में आ जाता है। यह उचित नियन्त्रण में आ जाता है।
यदि साधक जो उपयुक्त नहीं है उसका अनुकरण करता है, तो उसकी प्रगति कठिनाई से तथा अवरुद्ध होती है। जो सही पथ का चुनाव करता है, उसकी प्रगति सरलता से होती है एवं उसे शीघ्र अन्तर्दृष्टि प्राप्त होती है। जिसके पूर्व-जन्म के आध्यात्मिक संस्कार नहीं है, उसकी प्रगति कष्टप्रद होती है। जिसके आध्यात्मिक संस्कार हैं, उसकी प्रगति सरलता से होती है। जिसका स्वभाव दुष्ट है और जिसकी नियन्त्रण- क्षमता दुर्बल है, उसकी प्रगति कष्टप्रद एवं बाधित होगी; लेकिन जिसकी संयम की क्षमता अच्छी है, उसकी प्रगति शीघ्र होगी तथा उसे शीघ्र अन्तर्दृष्टि प्राप्त होगी। जो अज्ञानता से घिरा हुआ है, उसकी अन्तर्दृष्टि बाधित होगी और जो ऐसा नहीं होगा, उसे अन्तर्दृष्टि शीघ्र प्राप्त होगी।
● १. अपने मित्र से कुछ ताश के पत्ते दिखाने के लिए कहें। देखने के तुरन्त पश्चात् आपने जो भी पत्ते देखे हैं, उनके बारे में, उनके नाम तथा संख्या, जैसे हुक्म का बादशाह, ईंट का दहला, चिड़ी की बेगम, पान का जोकर आदि बतायें।
● २. किसी पुस्तक के दो-तीन पृष्ठ पढ़िए, इसके बाद पुस्तक को बन्द कर दें। अब जो आपने पढ़ा है, उस पर विचार करें। सभी अन्य विचारों की उपेक्षा कर दें। सावधानीपूर्वक अपने ध्यान को केन्द्रित करें। मन को संयोजन, वर्गीकरण, समूहीकरण एवं तुलना करने दें। आपको अब विषय का बहुत-सा ज्ञान और सूचना प्राप्त होगी। असावधानीपूर्वक पन्ने उलटने से कोई लाभ नहीं है। ऐसे कई विद्यार्थी हैं, जो किसी पुस्तक को कुछ घण्टों में ही पढ़ लेते हैं; लेकिन जब आप उनसे पुस्तक के कुछ महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं के बारे में जानना चाहेंगे, तो वे निरुत्तर हो जायेंगे। यदि आप हाथ में लिये गये विषय को सावधानीपूर्वक पढ़ेंगे, तो आपको स्पष्ट और दृढ़ अनुभव प्राप्त होंगे। यदि ये अनुभव गहरे और दृढ़ होंगे, तो आपकी स्मरण शक्ति अच्छी होगी ।
● ३. घड़ी से एक फुट दूर अपने प्रिय ध्यान के आसन में बैठ जाइए। घड़ी की टिक-टिक की ध्वनि पर धारणा करें। जब-जब मन भागे, बार-बार इस ध्वनि सुनने का प्रयास करें। जरा देखिए, मन कितनी देर तक ध्वनि पर निरन्तर दृढ़ रहता है।
● ४. पुनः अपने प्रिय आसन में बैठ जायें। अपनी आँखें बन्द कर लें। अपने कानों को अँगूठों से अथवा मोम या रुई से बन्द कर लें। अनाहूत ध्वनियों को सुनने का प्रयास करें। आपको विभिन्न प्रकार की ध्वनियाँ जैसे बाँसुरी, तूफान, शंख, घण्टियों की ध्वनि, मधुमक्खी के भिनभिनाने की ध्वनि आदि सुनायी देगी। सबसे पहले स्थूल ध्वनि को सुनने का प्रयास करें। एक ही प्रकार की ध्वनि सुनने का प्रयास करें। यदि मन भागे, तो आप इसे स्थूल से सूक्ष्म की ओर अथवा सूक्ष्म से स्थूल की ओर स्थानान्तरित कर सकते हैं। सामान्यतया आप दाहिने कान से ध्वनि सुन सकेंगे। कभी-कभी आपको बायें कान से ध्वनि सुनायी देगी। लेकिन किसी एक कान की ध्वनि से चिपके रहने का प्रयास करें। आपको चित्त की एकाग्रता प्राप्त होगी। यह मन को पकड़ने का सरल तरीका है; क्योंकि मन मधुर ध्वनि के द्वारा उसी प्रकार मोहित हो जाता है, जिस प्रकार सर्प सँपेरे की बीन पर मोहित हो जाता है।
● ५. अपने सामने जलती हुई मोमबत्ती रखें और इसकी लौ पर धारणा करने का प्रयास करें। जब आप ऐसा करते हुए थक जायें, तो अपनी आँखें बन्द कर लें और ज्योति को देखने का प्रयास करें। ऐसा आधे मिनट तक करें और धीरे से इस समय को अपनी रुचि, स्वभाव तथा क्षमता के अनुसार पाँच से दस मिनट तक बढ़ायें। जब आप गहन ध्यान में होंगे, तो आपको ऋषियों तथा देवताओं के दर्शन होंगे।
● ६. लेट कर चन्द्रमा पर धारणा करें। जब भी मन भागे, तो इसे बार-बार चन्द्रमा की ओर ले कर आयें। यह धारणा भावुक प्रकृति वाले व्यक्तियों में बड़ी ही उपयोगी है।
● ७. उपर्युक्त प्रकार से आप अपने सिर पर चमक रहे अरबों सितारों में से किसी एक सितारे पर धारणा कर सकते हैं।
● ८. आप एक नदी के किनारे बैठ जायें, जहाँ इसकी 'ॐ' की भाँति ध्वनि सुनायी दे रही हो। इस ध्वनि पर जब तक आप चाहें, धारणा करें। यह अत्यन्त उत्साहजनक और प्रेरक होती है।
● ९. खुली हवा में लेट जायें और ऊपर नीले विस्तृत आकाश पर धारणा करें। आपका मन तत्क्षण उन्नत हो जायेगा। आपका आत्मोत्थान होगा। नीला आकाश आपको आत्मा की अनन्त प्रकृति का स्मरण करायेगा।
● १०. एक आरामदायक आसन में बैठ जायें और अनेक सद्गुणों जैसे करुणा, सहिष्णुता आदि में से किसी एक पर धारणा करें। जितनी देर तक सम्भव हो, इस गुण में लीन होने का प्रयास करें।
नवाभ्यासी के लिए धारणा का विषय प्रारम्भ में बड़ा ही उबाऊ और थका देने वाला होता है। लेकिन यह संसार में सर्वाधिक रुचिकर और लाभदायक विद्या है। जब कोई धारणा में आगे बढ़ता है और उसका सच्चा विकास होता है, अथवा जब उसे कुछ लाभ प्राप्त होते हैं, तो वह अभ्यास नहीं छोड़ सकता। तब वह धारणा के अभ्यास के बिना एक दिन भी नहीं रह सकता। यदि वह किसी दिन अभ्यास नहीं कर पाता है, तो वह बेचैन हो जाता है। धारणा परमानन्द, आन्तरिक आध्यात्मिक शक्ति, सच्चा सन्तोष तथा अनन्त आन्तरिक शान्ति प्रदान करती है। धारणा से प्रचुर ज्ञान, गहन अन्तर्दृष्टि, अन्तःप्रेरणा तथा ईश्वर से मिलन प्राप्त होता है। यह तीनों लोकों में अद्भुत विद्या है। मैं इसके लाभों का पूर्णतया वर्णन करने में असमर्थ हूँ।
कुर्सी पर धारणा का अर्थ है—कुर्सी के विभिन्न भागों के बारे में विचार करना, उस विशेष लकड़ी के बारे में विचार करना जिससे यह निर्मित है— जैसे देवदार, शीशम आदि, इसकी कार्य-क्षमता, इसकी मजबूती, इसका मूल्य तथा यह पीठ, हार्थो आदि को जो आराम प्रदान करती है, उसके स्तर आदि के बारे में विस्तृत विचार करना।
इसके भाग अलग किये जा सकते हैं अथवा नहीं, यह आधुनिक ढंग से निर्मित है तथा दीमक से सुरक्षित है या नहीं, इसे सुरक्षित बनाने के लिए कौन-सी पालिश या वार्निश का उपयोग किया गया है आदि के बारे में विचार ।जब आप कुर्सी पर धारणा करेंगे, तो आपके मन में इस प्रकार के विचार आयेंगे। मन सामान्य रूप से निरुद्देश्य रूप से जंगली पशु की भाँति भटकता रहता है। यह एक विषय के बारे में विचार करता है और एक ही सेकेंड के भीतर यह उसे छोड़ कर एक बन्दर की तरह दूसरे विषय की ओर चला जाता है, तत्पश्चात् तीसरे विषय की ओर चला जाता है और यह क्रम इसी प्रकार चलता रहता है। यह एक बिन्दु पर टिका ही नहीं रह सकता।
जब विचार एक निश्चित लीक में मात्र एक ही विषय पर ही तैलधारावत् चले, तो यह धारणा है। जिज्ञासु को जब-जब उसका मन बाहर भागे, तो उसे वापस खींचना चाहिए और उसे उसी लीक में एक ही विचार की रेखा में एक ही विषय और एक ही धारणा पर रखना चाहिए। यह आध्यात्मिक साधना है। यह धारणा और ध्यान है। यह समाधि अथवा परम चेतनावस्था, चतुर्थ स्थिति या तुरीयावस्था में परिणित हो जाती है।
धारणा में महत्त्वपूर्ण है प्रारम्भ में मन की गतिविधियों को एक छोटे चक्र में समेट कर उसे पुनः विषय के उसी बिन्दु पर लाना। यही मुख्य लक्ष्य है। एक समय आयेगा, जब यह एक बिन्दु पर टिका रहेगा। यह आपकी निरन्तर और दीर्घकालीन साधना का परिणाम होगा। यह अवस्था आने पर प्राप्त होने वाला आनन्द अवर्णनीय होगा जब आप एक कुर्सी पर धारणा करेंगे, तो मात्र कुर्सी से सम्बन्धित सभी विचारों को लायें और उन विचारों में डूब जायें। अन्य विचारों को मन के भीतर प्रवेश न करने दें। इस समय विचारों की एक ही रेखा होनी चाहिए। इसमें एक पात्र से दूसरे पात्र में तेल के निरन्तर प्रवाह की भाँति (तैलधारावत् प्रवाह) अथवा चर्च के घण्टे की निरन्तर आती आवाज की तरह विचारों की एक निरन्तरता होनी चाहिए। इस समय एक विषय से सम्बन्धित अनेक विचार हो सकते हैं। आप एक विषय से सम्बन्धित विचारों की संख्या को कम कर सकते हैं और एक विषय से सम्बन्धित एक विचार पर आ सकते हैं। जब यह एक विचार भी मृत हो जायेगा, तो आप परम चेतना या समाधि अवस्था प्राप्त कर सकते हैं। जब एक ही विचार होता है, तो इसे सविकल्प समाधि कहते हैं, जो कि निम्न अवस्था है। जब यह एक विचार भी मृत हो जाता है, जब वहाँ एक विचार भी नहीं रहता, तो मन रिक्त बन जाता है। तब वहाँ मानसिक भाव-शून्यता होती है। यह पतंजलि महर्षि के राजयोग दर्शन में निर्विचार अवस्था है। आपको इस रिक्त वृत्ति से भी ऊपर उठना है और स्वयं को परम पुरुष अथवा ब्रह्म जो कि मन का मौन साक्षी है तथा जो मन को शक्ति एवं प्रकाश प्रदान करता है, के साथ एक करना है। मात्र तभी आप जीवन के परम लक्ष्य तक पहुँचेंगे।
जब आप कुर्सी पर धारणा करें, तो विभिन्न विषयों के अन्य विचारों को प्रवेश न करने दें। घुमक्कड़ मन को बार-बार विषय पर जो कि कुर्सी है, वापस ले कर आयें। जब आप गुलाब का ध्यान करें, तो मात्र गुलाब के बारे में ही विचार करें। जब आप किसी पुस्तक के बारे में सोचें, तो वह सब सोचें जो कि पुस्तक से सम्बन्धित है, इससे बाहर का कुछ न सोचें। जब आप रेडियो अथवा टीवी के बारे में विचार करें, तो मात्र रेडियो और टीवी के बारे में ही विचार करें। हाथ में लिये गये विषय से सम्बन्धित सभी बातों को खाली कर दें। आप मन के प्रिय किसी भी विषय को ले सकते हैं। धीरे से आप रुचि उत्पन्न करके ऐसा विषय जो मन को अप्रिय हो, उसे भी ले सकते हैं। आपको सदा इस सूत्र को स्मरण रखना चाहिए- "एक समय में एक काम और अच्छी प्रकार से किया गया। यह बहुत अच्छा नियम है। ऐसा कई लोगों ने बताया है।" जब आप कोई भी काम हाथ में लें, अपना सम्पूर्ण हृदय, पूर्ण मन और आत्मा इसमें लगायें। इसे पूर्ण एकाग्रता के साथ करें। जो अन्य छह घण्टों में कर सकते होंगे, वह आप आधे घण्टे में सहज ही और व्यवस्थित तथा क्रमबद्ध ढंग से कर सकेंगे। यह योग की क्रिया है। आप एक पूर्ण योगी बन जायेंगे । यहाँ तक कि जब आप अध्ययन करें, तो भी विषय को पूर्ण एकाग्रता के साथ पढ़ें। मन को भटकने न दें। आपको सभी बाह्य ध्वनियों को सुनना बन्द करना होगा। दृष्टि को एक बिन्दु पर टिकायें। आँखों को इधर-उधर न घूमने दें। जब आप एक विषय का अध्ययन करें, तो रेडियो या मिठाई अथवा मित्र के बारे में न सोचें। आपके लिए उस समय के लिए सम्पूर्ण जगत् मृत हो जाना चाहिए। धारणा की प्रकृति ऐसी होनी चाहिए। कुछ स्थिर और निरन्तर अभ्यास के पश्चात् आप ऐसा कर सकेंगे। परेशान न हों। हताश न हों। कुछ समय लग सकता है। शान्तिपूर्वक और धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करें। रोम एक दिन में नहीं बना। एक दिन के लिए भी अभ्यास न छोड़ें, चाहे आप बीमार ही क्यों न हों। आपकी असफलता में आपकी सफलता और आपकी दुर्बलता में आपकी शक्ति सन्निहित है। आगे बढ़ें। कमर कस लें। साहसी बनें। कोई हताशा नहीं । साहस के साथ आगे बढ़ें। उत्साहित रहें। ज्योतिर्मय भविष्य आपकी प्रतीक्षा कर रहा है। अभ्यास करें। अनुभव करें। आनन्द लें। एक योगी अथवा महान् व्यक्तित्व बनें। मैं आपको ऐसा बनाऊँगा। मेरा अनुकरण करें। लगनशील एवं गम्भीर बनें। उठिए ! जाग जाइए। आपकी ज्योति आ गयी है। हे प्रकाश और अमरता के मेरे पुत्र, ब्राह्ममुहूर्त हो गया है, प्रातः के ३.३० बज गये हैं। यह आत्मा, स्मृति, संकल्प पर धारणा करने तथा मन को पकड़ने का समय है। वीरासन में बैठ जायें और कठोर साधना प्रारम्भ कर दें। आपको सफलता और कीर्ति प्राप्त हों! मैं आपको यहीं छोड़ता हूँ। मैं आपको यहाँ छोड़ दूँगा। मन के बुलबुले को ब्रह्मज्ञान के सागर में विलीन कर दें। परमानन्द का उपभोग करें।
किसी आन्तरिक अथवा बाह्य विषय अथवा अनाहत ध्वनियों अथवा किसी असम्बद्ध विचार पर तीव्र और पूर्ण एकाग्रता जिसके साथ बाह्य विश्व अथवा इन्द्रियों जगत् से सम्बन्धित प्रत्येक वस्तु से प्रत्याहार भी सम्मिलित हो, धारणा कहलाती है।
साधना हेतु अभ्यास
पद्मासन अथवा सिद्धासन में बैठ जायें। कानों को अँगूठों से बन्द करके योनि मुद्रा का अभ्यास करें। दाहिने कान से आने वाली ध्वनि (वह ध्वनि जो आपको सभी बाह्य ध्वनियों के प्रति बहरा बना देगी) को सुनने का प्रयास करें। सभी बाधाओं पर विजय पा कर आप १५ दिन के भीतर तुरीयावस्था में प्रवेश करेंगे। अभ्यास के प्रारम्भ में आपको अनेक तीव्र ध्वनियाँ सुनायी देंगी। वे धीरे-धीरे तीव्र और अधिक तीव्र होती जायेंगी और अधिकाधिक सूक्ष्मतर सुनायी देंगी। आपको सूक्ष्म से सूक्ष्म ध्वनि को सुनने का प्रयत्न करना है। आप अपना ध्यान सूक्ष्म से स्थूल की ओर परिवर्तित कर सकते हैं, लेकिन आपको अपने मन को उनकी ओर से अन्य विषयों की ओर नहीं मुड़ने देना है।
मन प्रारम्भ में स्वयं ही किसी एक ध्वनि पर दृढ़ता से टिक जाता है और इसमें विलीन हो जाता है। मन बाह्य प्रभावों के प्रति निष्प्रभावी हो जाता है और ध्वनि के साथ उसी प्रकार एक हो जाता है जैसे दूध के साथ पानी और यह चिदाकाश में गहरे लीन हो जाता है। सभी विषयों से निरपेक्ष रह कर तथा वासनाओं पर नियन्त्रण करके आपको निरन्तर अभ्यास के द्वारा अपने ध्यान को उस ध्वनि पर लगाना चाहिए जो मन को नष्ट कर देती है। सभी विचारों को त्याग कर और सभी कर्मों से मुक्त हो कर आपको अपना ध्यान ध्वनि पर एकाग्र करना चाहिए और तब आपका चित्त इसमें लीन होगा। जिस प्रकार जो मधुमक्खी मधु का पान करती है, वह गन्ध की चिन्ता नहीं करती; उसी प्रकार वह चित्त जो सदा ध्वनि में लीन है, वह विषयों की कामना नहीं करता, क्योंकि यह नाद की मधुर गन्ध से बँधा रहता है और इसने अपनी चिपकने वाली प्रकृति को त्याग दिया है । चित्त-सर्प नाद को सुन कर पूर्णतया इसमें लीन हो जाता है और प्रत्येक चीज़ के प्रति अचेतन रह कर स्वयं ही ध्वनि पर केन्द्रित हो जाता है। ध्वनि चित्त रूपी पागल हाथी जो कि विषय-वस्तुओं के सुन्दर बगीचे में घूम रहा है, को नियन्त्रित करने के लिए अंकुश का काम करता है।
यह चित्त-रूपी हिरण को बाँधने के लिए भाले की भाँति काम करता है। यह चित्त-रूपी समुद्र के लिए किनारों का काम करता है। प्रणव से निकलने वाला नाद जो कि ब्रह्म है, वह ज्योति स्वरूप प्रकृति का है, मन इसमें लीन हो जाता है। यह विष्णु भगवान् का परम धाम है। मन का तब तक अस्तित्व है, जब तक नाद हैं; लेकिन इसकी समाप्ति के बाद जो अवस्था होती है, उसे तुरीयावस्था कहते हैं। यह ध्वनि ब्रह्म में विलीन हो जाती है और ध्वनि रहित यह अवस्था परमावस्था है। नाद के ऊपर निरन्तर धारणा के द्वारा मन इसकी कार्मिक प्रवृत्तियों सहित नष्ट हो कर प्रणव के साथ ब्रह्म में लीन हो जाता है। इसके बारे में कोई सन्देह नहीं है। सभी अवस्थाओं और विचारों से मुक्त हो कर आप मृत समान हो जाते हैं। आप मुक्त बन जाते हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं है। शरीर निस्सन्देह एक लकड़ी की भाँति हो जाता है और इसे सर्दी या गर्मी, सुख या दुःख का कोई अनुभव नहीं होता। आध्यात्मिक दृष्टि जब कोई विषय न दिखायी दे, तब भी स्थिर हो जाती है। जब प्रणव बिना किसी प्रयत्न के स्थिर हो जाता है, तब चित्त बिना किसी अवलम्बन के दृढ़ हो जाता है, तब आप ब्रह्म बन जाते हैं (ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति)।
आप गुरु-दीक्षा द्वारा प्रथम नौ ध्वनियों को सुने बिना ही दसवीं ध्वनि सुन सकते हैं। प्रथम अवस्था में शरीर चिन चिनी बनता है, द्वितीय अवस्था में शरीर में भंजन (टूटन अथवा शरीर पर प्रभाव) होता है। तृतीयावस्था में भेदन होता है। चतुर्थ में सिर में कम्पन होता है। पंचम अवस्था में जिह्वा से लार बहने लगती है। षष्ठम अवस्था में अमृत प्राप्त होता है। सप्तम अवस्था में जगत् की गुप्त वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त हो जाता है। अष्टम अवस्था में परावाक् सुनायी देती है। नवम अवस्था में शरीर अभेद्य हो जाता है और दिव्य चक्षु विकसित हो जाते हैं। दशम अवस्था में आप परब्रह्म की अवस्था प्राप्त करते हैं। जब मन नष्ट हो जाता है, जब गुण और पाप नष्ट हो जाते हैं, आप ज्योतिर्मय, शुद्ध, अनन्त, निर्दोष, शुद्ध ब्रह्म की भाँति दमकने लगते हैं।
त्राटक स्थिर दृष्टि से देखना है। दीवार पर काले रंग से ॐ लिख लें। इस चित्र के सामने बैठ जायें। इसको तब तक खुली आँखों से देखें, जब तक कि आँखों से आँसू न बहने लगें। तत्पश्चात् आँखें बन्द कर लें। ॐ को देखने का प्रयास करें। फिर आँखें खोल लें और तब तक एकटक देखते रहें, जब तक आँसू न बहने लगें। इस समयावधि में धीरे-धीरे वृद्धि करें। कई ऐसे अभ्यासी हैं जो एक घण्टे तक त्राटक कर सकते हैं। त्राटक हठयोग की षटक्रियाओं में से एक है। ॐ का चित्र ले आयें, इसे दीवार पर लगा दें। इस पर धारणा करें। यह चित्र बाजार में मिलता है। त्राटक से घुमन्तु मन स्थिर होता है। यह विक्षेप दूर करता है। ॐ पर त्राटक करने के स्थान पर आप दीवार पर एक बड़े काले बिन्दु पर भी त्राटक कर सकते हैं। अथवा आप एक सफेद कागज पर एक बड़ा काला बिन्दु बना लें और इसे दीवार पर चिपका लें। इस बिन्दु पर त्राटक करें। यह योग के विद्यार्थी के लिए अपने मन की धारणा करने के लिए लक्ष्य होगा। त्राटक करते समय दीवार स्वर्णिम रंग की दिखायी देगी।
आप भगवान् के किसी भी चित्र पर जैसे कृष्ण, राम, शिव आदि के चित्र पर अथवा शालग्राम पर त्राटक कर सकते हैं। आप कुर्सी पर बैठ कर अपनी आँखों के सामने दीवार पर चित्र लगा कर उसके ऊपर त्राटक कर सकते हैं। त्राटक धारणा की वर्णमाला का प्रथम अक्षर है। यह योग के विद्यार्थियों के लिए धारणा का प्रथम चरण है। खुली आँखों से त्राटक करने से मन में विषय का चित्र बनता है। त्राटक तथा मानसिक परिकल्पना धारणा में बहुत सहायता करते हैं।
मानसिक पूजा करने से, ईश्वर के गुणों का चिन्तन करने से तथा उनकी लीलाओं का स्मरण करने से भी मन स्थिर होता है।
प्रथम दिन एक मिनट तक त्राटक करें। इसके बाद प्रत्येक सप्ताह धीरे-धीरे समय में वृद्धि करें। आँखों पर जोर न डालें। त्राटक को जितनी देर तक सम्भव हो, आराम से और सहजता से करें। त्राटक करते समय अपने इष्टमन्त्र, हरि ॐ, श्री राम अथवा गायत्री मन्त्र का जप करें। कुछ लोगों की आँखों की रक्त नलिकाएँ दुर्बल होती हैं, इसलिए आँखें लाल हो जाती है। उनको अनावश्यक रूप से चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है। शीघ्र ही आँखों की लाली लुप्त हो जायेगी। त्राटक का अभ्यास छह माह तक करें। इसके पश्चात् आप धारणा और ध्यान की उच्च साधना करें। अपनी साधना को नियमित और क्रमबद्ध रूप से करते रहें। यदि किसी कारण से क्रम टूट जाये, तो अगले दिन उस कमी को पूरा करें। त्राटक अनेक नेत्र रोगों का उन्मूलन करता है और अन्त में सिद्धियाँ प्रदान करता है।
'ध्यानं निर्विषयं मनः " मन की वह स्थिति जहाँ ध्यान में कोई विषय अथवा विषय के विचार नहीं होते।
"तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम् ” – दृष्टि अथवा विचार का निरन्तर प्रवाह ध्यान कहलाता है। जैसे नदी में जल का प्रवाह होता है, उसी प्रकार ध्यान में एक विषय का निरन्तर प्रवाह होता है। इसमें मन में एक ही वृत्ति होती है। वह वृत्ति है एकरूप - वृत्ति - प्रवाह ।
ईश्वरीय चेतना के निरन्तर प्रवाह को बनाये रखना ध्यान है। यह एक वस्तु अथवा ईश्वर अथवा आत्मा का तैलधारावत् निरन्तर प्रवाह है। इसमें सभी सांसारिक विचार मन में आना बन्द हो जाते हैं। मन दैवी विचारों से, दैवी वैभव से, दैवी उपस्थिति से परिपूर्ण अथवा सन्तुष्ट रहता है। ध्यान धारणा के विषय से सम्बन्धित विचारों का नियमित प्रवाह है। ध्यान धारणा का अनुगामी है।
ध्यान योग की सातवीं सीढ़ी है। योगी इसे 'ध्यान' कहते हैं। ज्ञानी इसे 'निदिध्यासन' कहते हैं। भक्त इसे 'भजन' कहते हैं। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि-ये योग के आठ चरण हैं।
प्रभु यीशु कहते हैं- “स्वयं को रिक्त कर दो, मैं तुम्हें भर दूँगा।" यह पतंजलि महर्षि के उस कथन के समान है, वे कहते हैं: “योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः ” – सभी चित्तवृत्तियों का निरोध योग कहलाता है। यह रिक्त करने की क्रिया-विधि निस्सन्देह अत्यन्त कठिन है; लेकिन निरन्तर कठोर अभ्यास से सफलता मिलती है, इसमें कोई सन्देह नहीं है।
अमरता और अनन्त आनन्द की प्राप्ति हेतु ध्यान एकमात्र मार्ग है। ईशावास्य उपनिषद् के तीसरे मन्त्र में लिखा है- "जो धारणा और ध्यान नहीं करते, वे वास्तव में आत्मा को मारने वाले (आत्महनः) हैं। वे जीवित शव के समान और अभागे नीच हैं।"
ज्ञानी अहंकार की ग्रन्थि को निरन्तर ध्यान की तलवार से काट देते हैं। तब मुक्त योगी को अब न तो सन्देह होता है और न ही भ्रम। कर्मों के सभी बन्धन अब कट जाते हैं। इसलिए सदा ध्यान में लगे रहो। यह स्थायी आनन्द के प्रदेश को खोलने की चाबी है।
प्रारम्भ में यह अवश्य ही थका देने वाला और उबाऊ लगेगा, क्योंकि मन धारणा के बिन्दु से प्रति क्षण भागता है। कुछ अभ्यास के बाद में यह केन्द्र में केन्द्रित हो जायेगा और आप दैवी आनन्द में लीन हो जायेंगे।
प्राचीन काल के महान ऋषि गण जैसे याज्ञवल्क्य, उद्दालक आदि ने प्रबल ध्यान के द्वारा आत्मज्ञान प्राप्त किया जो कि परम ऐक्य को सुरक्षित करने हेतु साधन है।
जिस प्रकार आपको शरीर के लिए भोजन की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार आत्मा को प्रार्थना, जप, कीर्तन, ध्यान आदि के रूप में भोजन की आवश्यकता होती है। जिस प्रकार जब आपको सही समय पर भोजन नहीं मिलता, तो आप उत्तेजित हो जाते हैं; उसी प्रकार यदि आप कुछ समय तक प्रार्थना और जप का अभ्यास करेंगे और यदि किसी कारणवश आपने प्रातः काल और सायंकाल प्रार्थना नहीं की, तो आप उत्तेजित हो जायेंगे। आत्मा का भोजन शरीर के भोजन से अधिक आवश्यक है। इसलिए अपनी प्रार्थना, जप और ध्यान नियमित रूप से करें।
जिस प्रकार आप अपने बगीचे में गुलाब, चमेली और लिली आदि के पुष्प लगाते हैं, उसी प्रकार आपको अपने अन्तःकरण के बृहत् बगीचे में शान्तिपूर्ण विचारों, प्रेम, करुणा, दया, शुद्धता आदि के विचारों के पुष्पों को लगाना चाहिए। अन्तरावलोकन के द्वारा आपको मन के बगीचे को जल से सींचना चाहिए तथा ध्यान और उत्कृष्ट चिन्तन के द्वारा निरर्थक, निरुपयोगी, नष्ट करने योग्य विचारों की खरपतवार का उन्मूलन करें।
जब आप अपने आम के वृक्ष के ऊपर बौर देखते हैं, तो आपको यह भली प्रकार ज्ञात हो जाता है कि आपको शीघ्र ही आम प्राप्त होने वाले हैं। इसी प्रकार जब आपके मन में शान्ति आये, तो यह निश्चित मानें कि आपका शीघ्र ही अच्छा ध्यान लगने लगेगा और आपको शीघ्र ही ज्ञान रूपी फल प्राप्त होगा।
जो चीजें एक जैसी होती हैं, वे एक-दूसरे को आकर्षित करती हैं। यह एक महान् सिद्धान्त है। उत्तम विचारों का पोषण करें। ध्यान करें। आप सन्तों, योगियों तथा सिद्धों को आकर्षित करेंगे। आप उनके स्पन्दनों से लाभान्वित होंगे। आपके नवीन आध्यात्मिक स्पन्दन उनको आकर्षित करेंगे।
वह सन्त जिसका मन कामनाओं से मुक्त तथा आत्म-केन्द्रित है, जो अपने आत्म-स्वरूप में स्थित है तथा जिसके पास सभी के प्रति समदृष्टि है, उसे जो आनद प्राप्त होता है, वह देवताओं एवं प्रचुर सम्पदा के स्वामी इन्द्र को भी दुर्लभ है।
आत्म-नियन्त्रण की विद्या को सीखिए। निरन्तर ध्यान के अभ्यास से मन को स्थिर रखिए। अपने मन को ईश्वर में लगाइए। आपको दिव्य जीवन प्राप्त होगा। ज्ञान का प्रकाश ज्योतित होगा। आपके भीतर सभी दैवी गुण का प्रवाह होगा। सभी नकारात्मक प्रवृत्तियाँ नष्ट हो जायेंगी। सभी विरोधी बल अनुकूल हो जायेंगे। आप पूर्ण सामंजस्य, निर्विघ्न आनन्द, आन्तरिक शान्ति का उपभोग करेंगे।
ध्यान मोक्ष की प्राप्ति हेतु एकमात्र सच्चा और राज मार्ग है। ध्यान सभी दुःखों, कष्टों का नाश करता है। ध्यान दुःखों के सभी कारणों का नाश करता है। ध्यान समदृष्टि प्रदान करता है। ध्यान ईश्वर से मिलन के अनुभव को प्रेरित करता है। ध्यान एक गुब्बारा अथवा हवाई जहाज के समान है, जो साधक को अनन्त आनन्द, स्थायी शान्ति और अक्षय आनन्द के लोक में ऊँचे उड़ने में सहायता करता है।
ध्यान देवत्व प्राप्ति हेतु राष्ट्रीय राजमार्ग है, जो साधक को दैवी चेतना के लक्ष्य तक सीधे ले कर जाता है। यह एक रहस्यमय सीढ़ी है, जो योगाभ्यासी को धरती से स्वर्ग तक ले कर जाती है। यह योगियों की दिव्य सीढ़ी है, जो उन्हें असम्प्रज्ञात समाधि की ऊँचाइयों तक उठाती है। यह साधक को अद्वैत निष्ठा की सर्वोच्च मंजिल तक एवं वेदान्तियों की कैवल्य मुक्ति तक ले जाने के लिए चिदाकाश की सीढ़ी है। बिना इसके किंचित् भी आध्यात्मिक प्रगति सम्भव नहीं है। यह वह मार्ग है, जो भक्त को भाव समाधि के दूसरे किनारे तक सरलता से पहुँचाने में तथा प्रेम का मधु और अमरता का अमृत पीने हेतु सहायता करता है।
नियमित ध्यान अन्तर्ज्ञान के द्वार खोलता है, मन को शान्त और स्थिर बनाता है। यह समाधि के अनुभव को जाग्रत करता है तथा योगाभ्यासी को परम पुरुष के स्रोत के सम्पर्क में ले कर आता है। यदि कोई सन्देह रहता है, तो जब आप ध्यान के पथ पर स्थिर चलते हैं, तो वह स्वयं ही स्पष्ट हो जाता है। आपको स्वयं ही आध्यात्मिक सीढ़ी पर अपने पैर रखने के मार्ग का अनुभव होता है। एक रहस्यमय आन्तरिक वाणी आपका निर्देशन करती है। इसे ध्यान से सुनो, हे योगीन्द्र ।
यदि आप घड़ी को रात के समय ध्यान से देखेंगे, तो आप पायेंगे कि यह चौबीसों घण्टे सहज रूप से चलती रहती है। इसी प्रकार यदि आप प्रातः ब्राह्ममुहूर्त में एक अथवा दो घण्टे ध्यान करें, तो आप सारे दिन शान्तिपूर्ण ढंग से कार्य कर सकेंगे। कोई भी बात आपके मन को विचलित नहीं कर सकेगी। आपका सम्पूर्ण शरीर आध्यात्मिक स्पन्दनों अथवा दैवी लहरों से आवेशित हो जायेगा।
ध्यान के समय आपके सन्देहों का स्वयं ही निराकरण हो जायेगा। कुछ लोगों को उनके सन्देहों का निराकरण करने के लिए कुछ देर प्रतीक्षा करनी पड़ती है। कितना भी कोई शिक्षक समझाये, परन्तु कुछ बातें एक ही समय पर समझ में नहीं आतीं। आपको थोड़ा और विकसित होना होगा। जब आप विकसित हो जायेंगे, तो वे सन्देह जो आपको तीन वर्ष पूर्व परेशान करते थे, वे अब स्पष्ट हो जायेंगे।
जब आपको अपेंडिसाइटिस का दर्द होता है अथवा जब आपको बड़ा फोड़ा होता है, तो आपको अत्यधिक दर्द का अनुभव होता है; किन्तु नींद में आपको तनिक भी दर्द का अनुभव नहीं होता। जब आप क्लोरोफार्म सूँघ लेते हैं, तो भी दर्द नहीं होता।
आत्मा आनन्दघन है। यदि आप मन को शरीर और विषयों से खींच लें और इसे निरन्तर ध्यान के द्वारा आत्मा पर केन्द्रित करें, तो सभी दर्द समाप्त हो जायेंगे। ध्यान सभी मानवीय दुःखों को समाप्त करने का एकमात्र मार्ग है। इसके सिवा इनसे मुक्ति के लिए अन्य कोई मार्ग नहीं है।
ध्यान के समय जब मन आत्मा में विश्राम करता है, तो सच्चा विश्राम मिलता है। कार्य का परिवर्तन भी विश्राम प्रदान कर सकता है। बिना किसी काम के आलसी बने रहने और मन को उन्मत्त हाथी की भाँति जंगली की तरह घूमने देने और हवाई किले बनाने से विश्राम नहीं मिलता।
वह व्यक्ति जो ध्यान में अपने मन को एकाग्र नहीं कर सकता है, उसे आत्मज्ञान नहीं प्राप्त हो सकता। अस्थिर मन किसी प्रकार का ध्यान नहीं कर सकता। उसे आत्मज्ञान के प्रति किसी प्रकार का समर्पण अथवा मोक्ष के प्रति कोई ज्वलन्त आकांक्षा नहीं होती। वह जो किसी प्रकार का ध्यान नहीं करता, उसके पास मन की शान्ति नहीं होती। अशान्तिपूर्ण व्यक्ति के लिए खुशी कहाँ हो सकती है?
धीरे से आपको स्वप्न में भी नियन्त्रण का अभ्यास प्रारम्भ करना चाहिए। जब यह मन कुछ गलत करे, तो आपको मन को रोकना चाहिए। जब आप निद्रा में होंगे, तो आपकी सहायता के लिए आयेगा। यह आपकी आध्यात्मिक प्रगति का लक्षण है। स्वप्न को सावधानीपूर्वक देखें।
यह संसार दुःखों और कष्टों परिपूर्ण है। यदि आप इस संसार के दुःखों और कष्टों से मुक्ति पाना चाहते हैं, तो आपको ध्यान का अभ्यास करना चाहिए। ध्यान दिव्यता का पथ है। यह ब्रह्मधाम का राज मार्ग है। यह एक रहस्यमय सीढ़ी है जो धरती से स्वर्ग (वैकुण्ठ, कैलास अथवा ब्रह्मलोक) तक, असत्य से सत्य तक, अन्धकार से प्रकाश तक, दुःख से आनन्द तक, बेचैनी से आनन्द के धाम तक, अज्ञानता से ज्ञान तक, मर्त्यता से अमरता तक पहुँचती है। ध्यान आत्मज्ञान तक ले कर जाता है, जो अनन्त शान्ति और परमानन्द लाता है। ध्यान आपको सम्पूर्ण अनुभव तथा प्रत्यक्ष अन्तर्ज्ञान हेतु तैयार करता है।
सत्य ही ब्रह्म है। सत्य ही आत्मा है। सत्य पूर्ण शुद्ध और सरल है। बिना ध्यान के आप सत्य का साक्षात्कार नहीं कर सकते। शान्त रहें। स्वयं को जानें। उसे जानें। मन को उसमें द्रवीभूत कर दें।
ध्यान के बिना आप आत्मज्ञान नहीं प्राप्त कर सकते। बिना इस सहायता के आप दैवी अवस्था तक विकास नहीं कर सकते। आप मन के जंजाल से स्वयं को मुक्त नहीं कर सकते, अमरता नहीं प्राप्त कर सकते। यदि आप ध्यानाभ्यास नहीं करते हैं, तो आत्मा का परम वैभव एवं सदाबहार सौन्दर्य आपसे छिपा रहेगा। नियमित ध्यान के अभ्यास से आत्मा को ढाँकने वाले आवरण को चीर दीजिए। आत्मा को जिन पाँच कोशों ने ढाँक रखा है, उनको निरन्तर ध्यान से छिन्न-भिन्न कर दीजिए और जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त कीजिए ।
ध्यान की अग्नि दुर्गुणों से होने वाली समस्त हानियों का उन्मूलन करती है। तब अचानक ज्ञान अथवा दैवी ज्ञान आता है, जो सीधे मुक्ति अथवा अन्तिम मोक्ष तक ले कर जाता है।
मन के प्रशिक्षण के अनेक प्रकार हैं, जो मानसिक शक्तियों के विकास के लिए अनिवार्य हैं—जैसे उदाहरण के लिए स्मरण शक्ति का प्रशिक्षण, ध्यान का अर्जन, विवेक, विचार अथवा 'मैं कौन हूँ' की खोज। ध्यान का अभ्यास स्वयं ही स्मृति का. शोधक है। स्मरण-शक्ति में वृद्धि का प्रशिक्षण ध्यान-प्राप्ति में अत्यन्त सहायक है।
ध्यान एक शक्तिशाली शक्तिवर्धक है। यह एक मानसिक तथा नाड़ी शक्तिवर्धक भी है। पवित्र स्पन्दन शरीर की सभी कोशिकाओं में प्रवेश कर जाते हैं और शरीर के रोगों का भी उपचार करते हैं। जो ध्यान करते हैं, उनका डाक्टरों का बिल बचता है। ध्यान के समय उत्पन्न होने वाली शक्तिशाली तथा शान्तिपूर्ण तरंगें मन, नाड़ियों, अंगों तथा कोशिकाओं के ऊपर बड़ा ही अनुकूल प्रभाव डालती हैं। ईश्वर के चरणों से दैवी ऊर्जा तैलधारावत् साधक के विभिन्न अंगों की ओर प्रवाहित होती है।
यदि आप आधा घण्टे तक ध्यान कर सकते हैं, तो ध्यान के बल पर जीवन के संघर्ष में आप शान्तिपूर्वक एवं आध्यात्मिक शक्ति के साथ एक सप्ताह तक कार्य कर सकते हैं। ध्यान का ऐसा लाभदायक प्रभाव है। चूँकि आपको अपने दैनिक जीवन में विशिष्ट प्रकृति वाले विभिन्न मनों के साथ चलना पड़ता है, इसलिए ध्यान से शक्ति और शान्ति प्राप्त कीजिए और तब आपको किसी प्रकार का कष्ट और चिन्ता नहीं होगी।
वह योगी जो नियमित ध्यान करता है, उसका व्यक्तित्व चुम्बकीय और आकर्षक होता है। जो उसके सम्पर्क में आते हैं, उनकी वाणी मधुर और शक्तिशाली भाषण, तेजस्वी नेत्र, चमकदार रंग, बलवान् और स्वस्थ शरीर, उत्तम व्यवहार, सद्गुणों तथा दिव्य प्रकृति से प्रभावित रहते हैं। जिस प्रकार नमक का एक कण जल के बर्तन में गिरने पर सारे जल में घुल कर एक हो जाता है, जिस प्रकार चमेली के फूल की सुगन्ध वायु में सर्वत्र व्याप्त हो जाती है, उसी प्रकार योगी का आध्यात्मिक आभा-मण्डल अन्यों के मन में प्रविष्ट हो जाता है। लोग उससे आनन्द, शान्ति और शक्ति प्राप्त करते हैं। वे उसके भाषणों से प्रभावित होते हैं और उसके सम्पर्कमात्र से ही मन का उत्थान करते हैं।
ध्यान अन्तर्ज्ञान तथा अनेक शक्तियों हेतु मन के द्वार खोलता है।
ध्यान करें ! ध्यान करें! एक क्षण भी न गँवायें। ध्यान जीवन के सभी दुःखों का उन्मूलन कर देगा। यही एकमात्र मार्ग है। ध्यान मन का शत्रु है। यह मनोनाश लाता है।
वह महात्मा जो हिमालय की एकान्त गुहा में ध्यान करता है, वह अपने आध्यात्मिक स्पन्दनों द्वारा इस जगत् की उस साधु की अपेक्षा अधिक सहायता करता है, जो मंच पर ध्यान करना सिखाता है। जिस प्रकार ध्वनि की तरंगें आकाश में चलती हैं, उसी प्रकार एक ध्यान करने वाले की आध्यात्मिक तरंगें बड़ी लम्बी दूरी तक जाती हैं और हजारों लोगों को शान्ति तथा शक्ति प्रदान करती हैं।
जब ध्यानाभ्यासी मन रहित हो जाता है, तो वह सम्पूर्ण जगत् में व्याप्त तथा प्रविष्ट हो जाता है। अज्ञानी लोग यह दोषारोपण करते हैं कि वह साधु जो गुफा में ध्यान करता है, वह स्वार्थी है।
नियमित ध्यान के द्वारा अपने चारों ओर एक दृढ़ किले का तथा चुम्बकीय आभा मण्डल का निर्माण कीजिए, जो माया के सन्देशवाहकों द्वारा भी न भेदा जा सके।
शुद्धता के उपरान्त ईश्वर पर मन की धारणा आपको सच्ची प्रसन्नता और ज्ञान प्रदान करेगी। राग और मोह के द्वारा आप बाह्य विषयों की ओर खींचे जाते हैं। गहरे उतरें। अपने भीतर लीन हो जायें।
ध्यान के समय जब आपका मन अधिक सात्त्विक रहता है, तो आपको अन्तः प्रेरणा होने लगेगी। मन अच्छी कविताओं की रचना करेगा और आप जीवन की समस्त समस्याएँ हल करने लगेंगे। इन सात्त्विक वृत्तियों को भी चूर-चूर कर दें। यह सब मानसिक ऊर्जा का विकिरण है। मात्र आत्मा में ही ऊंचे ही ऊंचे जायें।
आपको दिव्यता का पूर्ण आनन्द मात्र तभी प्राप्त होगा, जब आप गहरे गोते लगायेंगे, जब आप शान्त ध्यान में गहरे लीन हो जायेंगे। जब तक आप प्रभु की दिव्यता के सीमावर्ती प्रदेश पर होंगे, जब तक आप ईश्वर की देहली अथवा द्वार पर होंगे, जब तक आप बाहरी सीमा पर होंगे, आपको परम शान्ति और परम आनन्द नहीं प्राप्त होगा।
ध्यान के समय कुछ दृश्यों में आप स्वयं के विचारों का भौतिकीकरण देखेंगे, जब कि अन्य दृश्य सत्य और तथ्यपरक होंगे।
सच्ची शान्ति और आनन्द मात्र तभी प्रकट होगा, जब वासनाएँ तनु हो जाती हैं और संकल्प नष्ट हो जाते हैं। जब आप मन को भगवान् श्री कृष्ण, शिव अथवा आत्मा पर यदि पाँच मिनट के लिए भी एकाग्र करते हैं, तो सत्त्व गुण मन में प्रवेश कर जाता है। वासनाएँ तनु हो जाती हैं। इन पाँच मिनटों में आप शान्ति और आनन्द का अनुभव करेंगे। आप सूक्ष्म बुद्धि के साथ इस ध्यान के द्वारा प्राप्त आनन्द की क्षणिक विषयी आनन्द से तुलना कर सकते हैं। आप इस ध्यान से प्राप्त आनन्द को विषयी आनन्द से करोड़ों गुना श्रेष्ठ पायेंगे। ध्यान करें और इस आनन्द का अनुभव करें। तभी आप सच्चा मूल्य जानेंगे।
यदि कश्मीर में एक साधक अपने गुरु का उत्तरकाशी में ध्यान करता है, तो उसके तथा गुरु के मध्य एक निश्चित सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। गुरु साधक के विचारों के प्रत्युत्तर में उसे शक्ति, शान्ति और आनन्द विकिरित करता है। वह शक्तिशाली चुम्बकीय तरंगों में स्नान करता है। आध्यात्मिक विद्युत् का प्रवाह गुरु से शिष्य की ओर धीरे-धीरे उसी प्रकार होता रहता है, जिस प्रकार तेल एक बर्तन से दूसरे बर्तन में निरन्तर प्रवाहित होता रहता है। शिष्य अपने गुरु से अपनी आस्था के अनुरूप ग्रहण करता है। जब शिष्य अपने गुरु के ऊपर गम्भीरता से ध्यान करता है, तो गुरु को वास्तव में ऐसा अनुभव होता है कि जैसे उसके शिष्य से निकलने वाली प्रार्थना अथवा उत्कृष्ट विचार की तरंगें उसके हृदय को स्पर्श कर रही हैं। जिसकी सूक्ष्म अन्तर्दृष्टि होती है, वह गुरु और शिष्य के मध्य एक चमकदार प्रकाश की रेखा जो कि चित्त के समुद्र में सात्त्विक विचारों के कारण बनती है, को देख सकता है।
ज्ञान का अचानक स्पर्श अनुभवाश्रित अस्तित्व को भी समाप्त कर देता है तथा संसार जैसी चीज की स्मृति अथवा आत्मा की संकीर्ण वैयक्तिकता के विचार भी उसे पूर्णतया त्याग देते हैं।
जब योगी ध्यान तथा समाधि की अन्तिम अवस्था में पहुँचता है, उसके कर्मों के अन्तिम अवशेष पूर्णतया दग्ध हो जाते हैं। वह इसी जन्म में मुक्ति प्राप्त कर लेता है। तब वह जीवन्मुक्त होता है।
ध्यान अत्यधिक आध्यात्मिक शक्ति, शान्ति, नवीन ऊर्जा तथा जीवनी शक्ति प्रदान करता है। यह सर्वश्रेष्ठ मानसिक शक्तिवर्धक है। यदि ध्यान करने वाला अक्सर क्रोधित हो उठता है, तो यह इस बात की ओर संकेत करता है कि वह निर्विघ्न ध्यान नहीं कर रहा है। उसकी साधना में कुछ-न-कुछ दोष अवश्य है।
ध्यान दृढ़ और शुद्ध विचारों का विकास करता है। इसके अभ्यास से मानसिक प्रतिबिम्ब अत्यन्त स्पष्ट होते हैं। अच्छे विचार दृढ़ होते हैं। विचारों के स्पष्टीकरण के द्वारा भ्रम समाप्त हो जाता है।
जिस प्रकार एक अगरबत्ती से निरन्तर सुगन्धि निकलती रहती है, उसी प्रकार ध्यान का अभ्यास करने वाले साधक के मुख-मण्डल से निरन्तर सुगन्धि तथा दिव्य तेज (ब्रह्मवर्चस्, ब्रह्मतेज से युक्त आभा-मण्डल) निरन्तर निकलता रहता है। जो ध्यानाभ्यास करते हैं, उनका मुख मण्डल शान्त और आकर्षक, मधुर वाणी तथा नेत्रों में तेज होता है।
जिस प्रकार एक बंजर भूमि में कृषि करने से कोई लाभ नहीं है, उसी प्रकार बिना वैराग्य के किया गया ध्यान निष्फल रहता है।
यदि आप आधा घण्टे नित्य ध्यान करते हैं, तो ध्यान की शक्ति और बल से आप नित्य दैनिक जीवन के संग्राम में शान्ति और आध्यात्मिक ऊर्जा के साथ एक सप्ताह तक लगे रह सकते हैं। ध्यान की अग्नि दुर्गुणों के सभी प्रभावों को दग्ध कर देती है। तब अचानक दिव्य ज्ञान आता है जो सीधे मुक्ति अथवा मोक्ष प्रदान करता है।
ध्यान में आप अपरिवर्तनीय प्रकाश के आध्यात्मिक सम्पर्क में रहते हैं। आपकी सभी अशुद्धियाँ दूर हो जाती हैं।
यह प्रकाश उस आत्मा को स्वच्छ कर देता है जो इसके सम्पर्क में रहती है। लैंस को सूर्य के प्रकाश में लाया जाता है, उसके नीचे जो तृण रहते हैं, वे आग पकड़ लेते हैं। इसलिए आपके भीतर यदि एक खुला हृदय है जो कि पूर्णरूपेण ईश्वर के प्रति समर्पित है, उनकी पवित्रता और प्रेम का प्रकाश इस खुली आत्मा को प्रकाशमान करता है और यह दैवी प्रेम की अग्नि आपकी सभी कमियों को जला डालती है। यह प्रकाश अत्यधिक शक्ति तथा सुख ले कर आता है।
सभी दृश्यमान वस्तुएँ माया हैं। ज्ञान के द्वारा अथवा आत्मा पर ध्यान के द्वारा माया नष्ट हो जाती है। व्यक्ति को माया से स्वयं को मुक्त करने का प्रयत्न करना चाहिए। माया मन के द्वारा विनाश करती है। मन के नाश का अर्थ है माया का उन्मूलन कर देना। निदिध्यासन (आत्मा पर ध्यान) माया को विजित करने का मार्ग है। भगवान् बुद्ध, राजा भर्तृहरि, दत्तात्रेय, गुजरात के अखो—सभी ने माया और मन को मात्र गहन ध्यान के द्वारा विजित किया था। एकान्त में प्रवेश करें और ध्यान करें।
जो ध्यानाभ्यास करते हैं, वे पाते हैं कि वे उन लोगों की अपेक्षा अधिक संवेदनशील हैं, जो ध्यान नहीं करते और इस कारण उनके भौतिक शरीर पर अत्यधिक खिंचाव रहता है। कभी-कभी उच्च साधक सोचने लगते हैं कि भगवद्-साक्षात्कार की स्थिति कैसी होगी? भगवान् मेरे सामने कैसे प्रकट होंगे? वे मुझे किस प्रकार दर्शन देंगे? भगवद्-साक्षात्कार वर्णन के परे है। इसका वर्णन करना सम्भव नहीं है। इसका वर्णन करने का कोई साधन नहीं है। वहाँ पूर्ण शान्ति है, वहाँ अवर्णनीय आनन्द है। वहाँ पूर्ण एकान्त है। आध्यात्मिक ज्ञान प्रकट होता है। मन, बुद्धि तथा इन्द्रियाँ कार्य करना बन्द कर देती हैं। वहाँ अन्तर्ज्ञानात्मक अनुभव होता है। मात्र इतना ही कहा जा सकता है। आपको समाधि में स्वयं ही इसे अनुभव करना होगा।
नियमित ध्यान के अभ्यास से मन का भटकना रुक जायेगा। ध्यान चिड़चिड़ाहट दूर करता है और तदनुरूप मन की शान्ति को प्रेरित करता है।
हे साधको! ब्राह्ममुहूर्त में उठ बैठो और ध्यान का अभ्यास करो। इसमें किसी भी मूल्य पर असफल न हों। प्रातः ३.३० से ५.५० बजे तक का समय ब्राह्ममुहूर्त कहलाता है। यह ध्यान हेतु बड़ा ही अनुकूल है। अच्छी नींद के उपरान्त इस समय मन एकदम ताजा रहता है। मन इस समय शान्त और स्थिर रहता है। इस समय मन में सत्त्व अथवा शुद्धता की अधिकता रहती है। वातावरण में भी इस समय सत्त्व की अधिकता रहती है।
इस समय मन कोरे कागज की भाँति रहता है और तुलनात्मक रूप से सांसारिक संस्कारों अथवा प्रभावों से मुक्त रहता है। इस समय राग-द्वेष की तरंगें मन में गहराई से प्रविष्ट नहीं रहती हैं। इस समय जैसा आप चाहें, वैसा मन को मोड़ सकते हैं। अभी आप सरलता से मन को दैवी विचारों से आवेशित कर सकते हैं।
हिमालय के सभी योगी, परमहंस, संन्यासी जन, साधक और ऋषि इस समय अपना ध्यान प्रारम्भ करते हैं और समस्त जगत् को अपनी तरंगें भेजते हैं। आप उनकी आध्यात्मिक तरंगों से अत्यधिक लाभान्वित होंगे। ध्यान स्वयं ही बिना किसी प्रयत्न के लग जायेगा। यदि आप इस समय सोते रहे और यदि आपने इस समय का उपयोग दैवी ध्यान में नहीं किया, तो आपका बहुत अधिक नुकसान हो जायेगा। कुम्भकर्ण न बनें। ज्ञानदेव की भाँति योगी बनें।
शीत ऋतु में आवश्यक नहीं कि आप शीतल जल से स्नान करें। मानसिक स्नान पर्याप्त होगा। कल्पना करें और अनुभव करें कि 'मैं प्रयाग में पवित्र त्रिवेणी अथवा बनारस में मणिकर्णिका में स्नान कर रहा हूँ।' शुद्ध आत्मा का स्मरण करें। इस सूत्र को दोहरायें—“मैं सदा पवित्र आत्मा हूँ।" यह ज्ञान गंगा में किया जाने वाला स्नान है। यह सर्वाधिक शक्तिशाली ज्ञान-स्नान है। यह अत्यधिक शुद्ध करने वाला है। यह समस्त पापों को दग्ध कर देता है। अत्यन्त शीघ्रतापूर्वक नित्य शौचादि कर्म निबटा लें। दाँतों को शीघ्र स्वच्छ कर लें। दाँतों को साफ करने और स्नान करने में अधिक समय न गँवायें। जल्दी करें और शीघ्र तैयार हो जायें। ब्राह्ममुहूर्त शीघ्र समाप्त हो जायेगा। आपको इस बहुमूल्य समय का उपयोग जप तथा ध्यान में करना चाहिए।
मुँह, हाथ और पैरों को शीघ्रता से धो लें। मुख-मण्डल तथा सिर के शीर्ष भाग पर ठण्डा पानी छिड़कें। यह मस्तिष्क और नेत्रों को शीतल करेगा। सिद्ध, पद्म अथवा सुख आसन में बैठें। ब्रह्म की परम ऊँचाई, दैवी वैभव के शिखर पर पहुँचने का प्रयत्न करें।
यदि आपको सुबह जल्दी उठने की आदत नहीं है, तो एक अलार्म घड़ी रखें। एक बार आदत पड़ गयी, तो फिर कोई परेशानी नहीं होगी। अवचेतन मस्तिष्क आपको विशेष समय पर जगाने के लिए आपका आज्ञाकारी दास बन जायेगा।
यदि आप जीर्ण कब्ज के शिकार हैं, तो आप दाँत साफ करते ही तुरन्त एक गिलास ठण्ढा अथवा गर्म जल पी सकते हैं। यह हठयोग का उषापान उपचार है। इससे आपका कब्ज दूर हो जायेगा। आप त्रिफला जल भी पी सकते हैं। दो हरड़, दो आँवले और दो बहेड़े रात के समय एक गिलास जल में भिगो दें। प्रातः काल दाँत साफ करने के बाद इस जल को पियें। आप इन तीनों का चूर्ण भी तैयार करके रख सकते हैं। यह चूर्ण एक या दो चम्मच एक गिलास जल में भिगो दें और सुबह इसे पी लें।
बिस्तर से उठते ही शीघ्र शौच हेतु जाने की आदत बना लें। यदि आप पुराने पाप के कारण असाध्य पुराने कब्ज रोग के शिकार हैं, तो प्रातः उठते ही शीघ्र ध्यानाभ्यास करें। आप ध्यान समाप्त होने के पश्चात् एक कप गर्म जल की सहायता से शौच हेतु जा सकते हैं।
जैसे ही आप बिस्तर से उठें, जप और ध्यान करें। यह महत्त्वपूर्ण है। ध्यान तथा जप समाप्त होने के पश्चात् आप आसन और प्राणायाम का अभ्यास एवं गीता तथा अन्य धार्मिक पुस्तकों का स्वाध्याय कर सकते हैं।
प्रत्येक सन्ध्या का समय ध्यान हेतु अत्यन्त उपयोगी है। ब्राह्ममुहूर्त और सन्ध्या के समय सुषुम्ना नाड़ी सरलता से प्रवाहित होती है। जब सुषुम्ना नाड़ी प्रवाहित हो रही हो, उस समय आप गहन ध्यान और समाधि में बिना किसी प्रयत्न के प्रविष्ट हो सकते हैं। यही कारण है कि ऋषि, योगी और शास्त्र – सभी ने इन दोनों सन्ध्याओं का बहुत अधिक महत्त्व बताया है। जब श्वास दोनों नासारन्ध्रों से प्रवाहित हो रही हो, तो जानें कि सुषुम्ना प्रवाहित हो रही है। जब भी सुषुम्ना कार्य कर रही हो, उस समय ध्यान हेतु बैठ जायें और आत्मा के आन्तरिक आनन्द का लाभ लें।
जप अथवा ध्यान प्रारम्भ करने के पूर्व दैवी स्तोत्रों तथा गुरु-स्तोत्र का पाठ या १२ बार ॐ का उच्चारण अथवा ५ मिनट तक कीर्तन करें। आप शीघ्र ही मन का उत्थान और आलस्य और नींद को दूर कर सकेंगे। शीर्षासन अथवा सर्वांगासन अथवा किसी भी आसन और प्राणायाम का अभ्यास ५-५ मिनट तक करें। यह आपको ध्यान हेतु तैयार कर देगा और निद्रा और आलस्य को दूर भगा देगा।
यह ब्राह्ममुहूर्त है! सोयें नहीं। बिस्तर में करवट न बदलें। कम्बल को फेंक दें। उठ जायें और अपना ध्यान प्रारम्भ कर दें तथा अन्तरात्मा के अनन्त आनन्द का अनुभव करें।
एक अलग ध्यान का कमरा रखें। इसे ताला लगा कर बन्द रखें। इसका प्रयोग एकान्त वन की भाँति करें। किसी को भी कमरे के भीतर प्रवेश न करने दें। इसे पवित्र रखें। यदि आप एक अलग कमरा न रख सकें, तो कमरे के एक छोटे से कोने को परदे लगा कर ध्यान के कमरे में बदल डालें। प्रातः काल तथा सायंकाल यहाँ अगरबत्ती और कर्पूर जलायें। भगवान् श्री कृष्ण, शिव, राम, देवी, गायत्री, गुरु, ईसामसीह अथवा बुद्ध भगवान् का चित्र रखें। अपना आसन चित्र के सामने रखें। कुछ पुस्तकें—जैसे गीता, रामायण, भागवत, उपनिषद्, विवेकचूड़ामणि, योगवासिष्ठ, ब्रह्मसूत्र, बाइबिल, जेन्द अवस्ता, कुरान आदि भी कमरे में रखें।
कमरे को महान् सन्तों, ऋषियों, पैगम्बरों तथा जगद्गुरुओं के चित्रों से सजा कर रखें। कमरे में प्रवेश करने के पूर्व स्नान कर लें अथवा अपने मुख मण्डल, हाथों और पैरों को धो लें। देवता के समक्ष आसन के ऊपर बैठ जायें। भक्ति-स्तोत्रों अथवा गुरु-स्तोत्रों का पाठ करें। इसके पश्चात् जप, धारणा और ध्यान का अभ्यास करें।
इस कमरे को भगवान् का मन्दिर समझना चाहिए। आपको कमरे के भीतर पवित्रता सहित और आदरपूर्वक प्रवेश करना चाहिए। कमरे की चहारदीवारी के भीतर ईर्ष्या, वासना, लालच तथा क्रोध के विचारों का प्रवेश नहीं होना चाहिए। वहाँ किसी प्रकार की सांसारिक बातें नहीं की जानी चाहिए। क्योंकि कोई भी शब्द जो बोला गया हो, कोई भी विचार जो सोचा गया हो, कोई भी कार्य जो किया गया हो, वह कभी भी नष्ट नहीं होता। वे जहाँ पर किये जाते हैं, उस कमरे के आकाश की सूक्ष्म लहर से टकरा कर परावर्तित होते हैं, इसलिए वे मन पर अनिवार्य रूप से प्रभाव डालते हैं।
जब आप भगवान् के नाम का उच्चारण करते हैं, तो वे कमरे के आकाश के शक्तिशाली स्पन्दन में स्थिर हो जाते हैं। छह माह के भीतर आपको कमरे के वातावरण में शान्ति और पवित्रता का अनुभव होगा। जब भी आपका मन सांसारिक प्रभावों से बहुत अधिक व्यथित हो, तब आप कमरे में बैठ जायें और आधे घण्टे तक भगवान् के नाम का जप करें। तब आप तत्काल मन के भीतर सम्पूर्णतया परिवर्तन देखेंगे। अभ्यास करें और शान्ति प्रदान करने वाले आध्यात्मिक प्रभावों का स्वयं अनुभव करें। आप मसूरी, दार्जिलिंग, शिमला, ऊटी स्वयं अपने ही घर में पायेंगे। आपको परिवर्तन हेतु किसी पर्वतीय स्थल पर जाने की आवश्यकता नहीं होगी।
साधना अथवा योगाभ्यास के समान कुछ और चीज़ नहीं है।
"व्यक्ति को अपना ध्यान एकाग्रतापूर्वक एक ऐसे समतल स्थान पर करना चाहिए जो कंकर पत्थरों, अग्नि, वायु, धूल, शीत और कोलाहल से मुक्त हो, जहाँ का दृश्य नेत्रों को मनोहर, सुखकर हो, जहाँ कुटिया, गुफाएँ और उत्तम जल स्थान हो तथा जो उत्तम ध्यान में सहायता करे।” (श्वेताश्वतरोपनिषद् : ११-१०)
जब आप ध्यान में प्रगति करेंगे, तो संसार आपको रास नहीं आयेगा। यहाँ आपको बाधा डालने वाले अनेक कारण हैं। यहाँ का वातावरण उत्थानकारी नहीं है। आपके मित्र आपके सबसे बुरे शत्रु हैं। वे व्यर्थ की बातों में आपका सारा समय व्यर्थ गँवा देंगे। मित्रता करने पर ऐसा होना अनिवार्य है। आप परेशान हो जायेंगे। आप चिन्ता में पड़ जायेंगे। तब आप ऐसे वातावरण से बाहर निकलना चाहेंगे। समय, धन तथा भटकने को बचाने के लिए मैं आपको ध्यान हेतु कुछ स्थान बताना चाहता हूँ। आप इनमें से कोई एक स्थान चुन लें। यह स्थान समशीतोष्ण मौसम वाला होना चाहिए तथा यह ग्रीष्म, शीत तथा वर्षा ऋतु में अनुकूल होना चाहिए। आपको दृढ़ निश्चय के लिए एक स्थान पर दृढ़तापूर्वक तीन वर्षों तक रहना होगा। चूँकि प्रत्येक स्थान के कुछ लाभ और कुछ हानियाँ हैं, इसलिए आपको ऐसा स्थान चुनना चाहिए जहाँ लाभ अधिक हों और हानियाँ कम। इस जगत् में प्रत्येक वस्तु एक-दूसरे से सम्बन्धित है। यहाँ तक कि यदि आप एक ध्रुव से दूसरे ध्रुव तक चले जायेंगे, तो भी आपको एक आदर्श स्थान भी कठिनाई से प्राप्त हो सकेगा, जिससे आप सभी दृष्टिकोणों से सन्तुष्ट हो सकेंगे। आपको जप, ध्यान और प्रार्थना से अपना स्वयं का आध्यात्मिक वातावरण तैयार करना होगा। एक आदर्श स्थान प्राप्त करना असम्भव है। आपको थोड़ी असुविधा होने पर उस स्थान से हटना नहीं चाहिए। आपको वहीं रहना चाहिए। जल्दी-जल्दी स्थान बदलने से कोई लाभ नहीं होगा। एक स्थान से दूसरे की तुलना न करें। अपने विवेक और बुद्धि का प्रयोग करें। जब आप शिमला में होंगे, तो आपको मसूरी बड़ा ही आकर्षक अनुभव होगा और जब आप मसूरी में होंगे, तो शिमला बड़ा ही आकर्षक प्रतीत होगा। मन तथा इन्द्रियों पर तनिक भी विश्वास न करें, उनकी चालें बहुत हो गयीं। इन्द्रियों के भ्रमित करने तथा प्रलोभनों से बचें।
सर्वप्रथम मैं ऋषिकेश और मुनिकीरेती का सुझाव दूँगा। ये ध्यान हेतु अद्भुत स्थान हैं। इनको प्रशंसनीय ढंग से स्वीकार किया जा सकता है। यहाँ का आकर्षण तथा आध्यात्मिक प्रभाव अद्भुत है। आप यहाँ अपनी कुटिया बना सकते हैं। उत्तरकाशी, गरुड़चट्टी, ब्रह्मपुरी और नीलकण्ठ (ऋषिकेश के पास) अन्य अच्छे स्थान हैं। अल्मोड़ा और नैनीताल भी अच्छे हैं। गंगा, नर्मदा तथा यमुना के किनारे का प्रत्येक गाँव सुन्दर है। कुल्लु घाटी तथा चम्बा घाटी भी अनुकूल है। यदि आप गुफा में जीवन व्यतीत करना चाहते हैं, तो ऋषिकेश से १४ मील दूर वसिष्ठ गुहा चले जाइए। यह एक सुन्दर गुफा है। यहाँ पर स्वामी रामतीर्थ ने कुछ समय तक निवास किया था। यहाँ आस-पास के गाँवों में दूध भी उपलब्ध हो जाता है। ऋषिकेश के पास ब्रह्मपुरी में राम गुहा एक अन्य अच्छा सुन्दर स्थान है। आपको काली कमली वाला क्षेत्र से १५ दिनों के लिए राशन प्राप्त हो जायेगा। हिमालय में टिहरी के पास बामरुगी गुहा एक अच्छी गुफा है। आपको टिहरी के पास धारणा के लिए अनेक उत्तम स्थान मिलेंगे। मुरलीधर ने एक सुन्दर बगीचे सहित एक पक्की कुटिया बनायी है। आप यहाँ पर भी निवास कर सकते हैं। माउंट आबू भी एक सुन्दर और शीतल स्थान है।
ध्यान हेतु शीतल स्थान की आवश्यकता होती है। गर्म स्थान में मस्तिष्क अत्यन्त शीघ्र थक जाता है। शीतल स्थान में आप २४ घण्टे तक भी ध्यान कर सकते हैं। आपको थकावट का अनुभव नहीं होगा। अलवर और लिंबड़ी के महाराजा ने पढ़े-लिखे साधुओं के लिए माउंट आबू में अच्छी गुफाओं का निर्माण किया है तथा भोजन आदि अन्य सुविधाओं की भी व्यवस्था की है। लक्ष्मणझूला एक अन्य उत्तम स्थान है। यहाँ नयी कुटिया के निर्माण हेतु भी बहुत स्थान है। कानपुर के पास ब्रह्मावर्त भी अनुकूल स्थान है। मथुरा के आगे सात मील दूर यमुना नदी के किनारे अनेक अच्छे स्थान है। उत्तरकाशी में आध्यात्मिक तरंगें अच्छी हैं। आप लक्षेश्वर नामक शान्त स्थान पर ठहर सकते हैं।
ध्यान हेतु महत्त्वपूर्ण स्थान
१. ऋषिकेश २. हरिद्वार
३. उत्तरकाशी ४. कनखल
५. बद्रीनारायण ६. देवप्रयाग
७. गंगोत्री ८. अयोध्या
९. माउंट आबू १०. नासिक
११. वाराणसी १२. वृन्दावन
१३. श्रीनगर १४. अल्मोड़ा
१५. नैनीताल १६. बेंगलुरु
१७. पुरी १८. द्वारका
१९. पण्ढरपुर २०. तिरुवोत्तियुर
२१. आलन्दी (पूना के पास) २२. तिरुवेनगोई पहाड़ियाँ (मुसिरी, दक्षिण भारत)
२३. तिरुपति की पहाड़ियाँ २४. पापनासम् (तिरुनेवेली जिला)
(इन स्थानों में से कोई शान्त स्थान चुन लें।)
गंगा, यमुना, कावेरी, गोदावरी, कृष्णा और ताम्रपर्णी के किनारे का कोई भी गाँव आपको ध्यान हेतु अनुकूल होगा। आप कोई भी वह स्थान चुन सकते हैं, जो समशीतोष्ण वातावरण वाला हो।
सभी स्थानों में से और सारे संसार में से ऋषिकेश सबसे अच्छा स्थान है। यहाँ पर आध्यात्मिक स्पन्दन आत्मोत्थानकारी हैं। दृश्यावली अत्यन्त आकर्षक है। यह एक सुन्दर स्थान है।
मसूरी, दार्जिलिंग, शिमला, ऊटी, कोडाईकेनाल तथा सभी पहाड़ी क्षेत्र शीतल स्थान हैं। वहाँ पर सुन्दर सुन्दर दृश्यावलियाँ हैं, लेकिन ये राजसिक क्षेत्र हैं। वहाँ पर कोई आध्यात्मिक उत्थानकारी स्पन्दन नहीं हैं। लोग वहाँ पर आनन्द लेने के लिए तथा वातावरण को दूषित करने के लिए जाते हैं। इसलिए वे ध्यान हेतु उपयुक्त नहीं हैं।
प्रारम्भ में इन स्थानों पर आपको ये कुछ सुविधाएँ अवश्य होनी चाहिए जैसे पुस्तकालय, चिकित्सालय, रेलवे स्टेशन। वहाँ पर आपको दूध और फल उपलब्ध होने चाहिए, अन्यथा एक ही स्थान पर लम्बे समय तक साधना करना कठिन हो जायेगा। जब आप साधना में आगे बढ़ेंगे, जब आप देह-चेतना से ऊपर उठ जायेंगे, तो आप कहीं भी निवास कर सकते हैं।
एकान्त और निरन्तर ध्यान—ये दोनों आत्म-साक्षात्कार हेतु महत्त्वपूर्ण आवश्यकताएँ हैं। गंगा अथवा नर्मदा, हिमालय का दृश्य, प्यारे फूलों के बगीचे, पवित्र मन्दिर—ये सभी वे स्थान हैं, जो ध्यान-धारणा में मन का उत्थान करते हैं, इनका लाभ लें।
एक शान्त स्थान, आध्यात्मिक स्पन्दन जो उत्तरकाशी, ऋषिकेश, बद्रीनारायण में हैं, एक अच्छा स्थान, सम वातावरण - ये स्थितियाँ मन की एकाग्रता हेतु अनिवार्य रूप से पूर्वापेक्षाएँ हैं।
गुफा का जीवन ध्यान के लिए सर्वश्रेष्ठ है। भारत के प्राचीन ऋषियों ने गुफाओं में रह कर कठोर तपस्या की थी। गुफाओं में तापमान एक जैसा रहता है। गुफाएँ ठण्ढी रहती हैं। जलाने वाली ग्रीष्म ऋतु की गर्मी गुफा के भीतर प्रवेश नहीं कर सकती।
किसी प्रकार की बाहरी आवाजें भी गुफा के भीतर नहीं सुनायी देतीं। | गुफा के भीतर आपका ध्यान सुन्दर और अबाधित होगा। गुफा के भीतर शान्ति भी रहती है। गुफा के भीतर के आध्यात्मिक स्पन्दन आत्मोत्थानकारी हैं। यहाँ लौकिक वातावरण भी नहीं है, क्योंकि यहाँ आधुनिक सभ्यता प्रवेश नहीं कर सकती है। ये गुफा के जीवन के लाभ हैं।
हिमालय में वसिष्ठ गुफा अत्यन्त सुन्दर है। यह ऋषिकेश से १४ मील दूर है। यहाँ पर महर्षि वसिष्ठ ने तपस्या की थी। इस कारण इसका नाम वसिष्ठ गुफा है। यहाँ पर आपको पास के गाँवों से दूध प्राप्त हो सकता है। टिहरी हिमालय के पास बामरुघ गुफा एक अन्य अच्छी गुफा है। ऋषिकेश से ६ कि. मी. दूर नीलकण्ठ पहाड़ियों के पास भी गुफाएँ हैं।
जिनकी आधुनिक शिक्षा तथा दुर्बल शरीर है तथा जो भीरु हैं, उनके लिए गुफा में जीवन बिताना सम्भव नहीं है। यह उन साधकों के लिए है, जो मजबूत शरीर के स्वामी हैं, जो निर्भय हैं, जिनमें अत्यधिक सहन-शक्ति है, जिनके पास कुछ सिद्धियाँ हैं, वे यहाँ निवास कर सकते हैं। जिनको हिमालय की जड़ी-बूटियों का दिव्य अच्छा ज्ञान है, जिन्होंने कायाकल्प के द्वारा अपने शरीर को दृढ़ बना लिया है, जिन्होंने नीमकल्प अथवा शुद्ध कुचला के द्वारा जहरीले प्राणियों के काटने से स्वयं को प्रतिरोधी बना लिया है, जिनके पास मन्त्र-सिद्धि है, जिनका जंगली पशुओं के ऊपर नियन्त्रण है, जो सर्दी-गर्मी और भूख-प्यास को सहन कर सकते हैं, जिनको इस जगत्, इन्द्रिय-विषयों, किसी भी प्रकार के कार्य के प्रति कोई आकर्षण न शेष रहा हो, जो लम्बे समय तक ध्यान कर सकते हों, जिनको आन्तरिक वैराग्य हो, ऐसे सभी लोग गुफा में निवास कर सकते हैं।
कुछ युवा शुष्क साधक जिनका शरीर कमजोर है तथा दुर्बल स्वास्थ्य है, जिनमें कुछ धार्मिक पुस्तकों के अध्ययन से तथा जीवन में किसी दुर्भाग्य अथवा कुछ कठिनाइयों के कारण विवेक और वैराग्य की एक किरण जागी है, वे बिना किसी पूर्व-तैयारी अथवा शारीरिक और मानसिक संयम के हिमालय की गुफाओं की ओर दौड़ पड़ते हैं। जिस प्रकार थर्मामीटर का पारा तेज बुखार में १०६ डिग्री चढ़ जाता है, इसी प्रकार यौवन का जोश सिर के शीर्ष में ११२ डिग्री चढ़ जाता है। यह अत्यन्त शीघ्रता से ठण्ढा हो जाता है। उन्हें वहाँ रहने में कठिनाई का अनुभव होता है और कुछ ही दिनों में वे वह स्थान छोड़ देते हैं। कुछ लोगों को गुफा का जीवन अनुकूल नहीं होता। उनको वायु का सही आवागमन न होने के कारण किसी प्रकार के त्वचा रोग अथवा पीत रुधिरता रोग हो जाता है।
किसी ऐसे स्थान में जहाँ वायु का अच्छा आवागमन है अथवा किसी भी एकान्त स्थान में यहाँ तक कि आपकी जमीन अथवा गाँव में भूमि के नीचे, दो दीवारों के बीच खाली स्थान में जिसमें ठण्ढी हवा तथा गर्म हवा हेतु पाइप हों (ये गुफा को ठण्डा रखेंगे) ऐसे किसी स्थान पर कृत्रिम गुफा जैसे कैवल्य गुहा अथवा आनन्द कुटीर निर्मित की जा सकती हैं। सभी सच्चे साधक जो संसार में रहते हैं, उन्हें अपने लिए ऐसी एक गुफा बना लेनी चाहिए। उन्हें अत्यधिक लाभ होगा।
गुफा के जीवन की एक और हानि है। जो लम्बे समय तक गुफा में निवास करते हैं, वे तामसिक हो जाते हैं। वे कोई भी कार्य करने में असमर्थ हो जाते हैं। वे लोगों के साथ घुल-मिल नहीं पाते। वे लोगों की भीड़ से बहुत घबराते हैं। यदि उन्हें कुछ लोगों के साथ रहना पड़ जाये, तो उनका सिर दर्द करने लगता है। यदि उन्हें थोड़ा भी शोर सुनायी देता है, तो उनका मन शीघ्र ही विचलित हो जाता है। यह सन्तुलित जीवन नहीं है। यह एकपक्षीय विकास है। जो गुफा में निवास करता है, उसे यदि वह एक व्यस्त शहर में जाये, तो भी अपना सन्तुलन बनाये रखना चाहिए। यही आध्यात्मिक विकास की पहचान है।
वास्तविक एकान्त, सुखद, अद्भुत गुहा आपके हृदय में है। यह उपनिषदों की हृदय-गुहा है, जहाँ प्राचीन काल में दत्तात्रेय, शंकर तथा याज्ञवल्क्य निवास करते थे। आज भी आधुनिक सन्त और ऋषि अपने बाहर की ओर भागने वाली इन्द्रियों और मन को भीतर खींच कर यहीं निवास करते हैं। वे यहाँ अमरता के मधु का पान करते हैं और सदा आनन्दमय रहते हैं।
आप सभी हृदय की इस रहस्यमय तथा अद्भुत गुफा में अपनी अन्तरात्मा ब्रह्म अथवा परमात्मा, लक्ष्य तथा सभी के आत्मा के आश्रय के साथ अकेले लीन रहें।
सिर, गर्दन तथा पीठ को एक सीधी रेखा में रखें। गीता के छठवें अध्याय के ११वें तथा १३वें श्लोक का पाठ करें, जहाँ आसन का वर्णन किया गया है। एक कम्बल को चारवर्ती करके बिछा लें और इसके ऊपर सफेद कपड़े का टुकड़ा बिछा लें। इस कार्य को अत्यन्त सुन्दरता से करें। यदि आपको एक अच्छा व्याघ्र चर्म अथवा हिरण की छाल मिल जाये, तो अत्युत्तम है। व्याघ्र चर्म के अपने ही लाभ हैं। यह शरीर में शीघ्र ही ऊर्जा प्रवाहित करता है और शरीर से ऊर्जा को बाहर नहीं जाने देता। यह चुम्बकत्व से परिपूर्ण है।
पूर्व अथवा उत्तर दिशा की ओर मुँह करके बैठ जायें। आध्यात्मिक नवाभ्यासी को इस नियम का पालन करना चाहिए। उत्तर दिशा की ओर मुँह करने से वह हिमालय के ऋषियों के सम्पर्क में होगा और वह उनके प्रवाह से रहस्यमय ढंग से लाभान्वित होगा।
ध्यान की आदत तथा एकान्त आध्यात्मिक पथ में आपकी महान् धरोहर हैं। ध्यान आपको आध्यात्मिक शक्ति, शान्ति, नया बल तथा जीवनी-शक्ति प्रदान करता है। यदि ध्यान करने वाला अत्यन्त शीघ्र उत्तेजित हो जाता है, तो यह इस बात को दर्शाता है कि उसका ध्यान भली प्रकार और निर्बाध रूप से नहीं लग रहा है। उसकी साधना और ध्यान में कुछ गलती अवश्य है।
आपको शान्त मन के साथ ध्यान करना चाहिए। मात्र तभी आप शीघ्र समाधि में प्रविष्ट हो सकेंगे। यदि आप इन्द्रियों को नियन्त्रित कर लें और निष्काम हो जायें, तो आपका मन शान्त होगा। मुक्ति की प्रबल लालसा और ईश्वर के विचार शीघ्र ही आपको निष्काम बना देंगे। जिसका मन शान्त है, वह सम्राटों का सम्राट्, शाहों का शाह है। जिसका मन शान्त है, उसकी स्थिति अवर्णनीय है।
धारणा और ध्यान में आपको मन को अनेक प्रकार से प्रशिक्षित करना होगा। मात्र तभी आपका स्थूल मन सूक्ष्म बनेगा।
जो भी आप एकान्त में ध्यान करेंगे, वह आपके नित्य के जीवन में परिलक्षित होना चाहिए। आपके कार्यों में सन्तुलन तथा सामंजस्य होना चाहिए। आपको सदैव शान्तिपूर्ण होना चाहिए। मात्र तभी आप ध्यान के परिणामों का वास्तव में साक्षात्कार कर सकेंगे।
ध्यान की प्रक्रिया
ऊपर के अंगों (धड़, गर्दन तथा सिर) को सीधे और शरीर के बराबर रखते हुए मन को इन्द्रियों सहित हृदय में लीन कर दें। ज्ञानी ब्रह्म (ॐ) की पतवार से संसार की सभी भयंकर यन्त्रणाओं से पार हो जाता है।
इन्द्रियों को नीचे रख कर, अपनी कामनाओं को वशीभूत करके तथा नासारन्ध्रों से ज्ञानी को अपने मन को उसी प्रकार नियन्त्रित करना चाहिए, जिस प्रकार एक रथ का सारथी बिगड़े हुए घोड़ों के द्वारा खींच कर ले जाये जा रहे रथ पर नियन्त्रण करता है।
योगी के पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश से निर्मित शरीर में धारणा के निम्न वर्णित लक्षण प्रकट होते हैं। उसके लिए कोई रोग अथवा आयु अथवा कष्ट नहीं होता, जिसने अपने शरीर को धारणा की अग्नि से जला डाला है।
जब शरीर हल्का और निरोग होता है, मन कामनाओं से रहित होता है, जब रंग तेजस्वी होता है, वाणी मधुर होती है तथा उसके शरीर से सुगन्ध आती है। जब मल-मूत्र अत्यन्त कम हो जाते हैं, तो कहते हैं कि प्रथम श्रेणी की धारणा प्राप्त हो गयी है।
सामान्य निर्देश
जिस प्रकार आप नमक अथवा शक्कर को जल से सन्तृप्त करते हैं, उसी प्रकार आपको मन को ईश्वर के विचारों के साथ, दैवी वैभव, दैवी उपस्थिति के साथ, श्रेष्ठ आत्मा को जाग्रत करने वाले आध्यात्मिक विचारों के साथ सन्तृप्त करना चाहिए। मात्र तभी आप सदैव दैवी चेतना में स्थित हो सकेंगे।
यदि आप कठोर ध्यानाभ्यास करना तथा शीघ्र समाधि प्राप्त करना अथवा आत्म-साक्षात्कार करना चाहते हैं, तो आपके लिए पाँच चीजें अनिवार्य हैं—मौन, हल्का आहार अथवा दूध और फलों का आहार, आकर्षक दृश्यावली सहित एकान्त, एक गुरु के साथ व्यक्तिगत सम्पर्क एवं एक शीतल स्थान।
आप गहन ध्यान में मात्र तभी प्रवेश कर सकते हैं, जब आप नैतिक जीवन व्यतीत करें। इसके पश्चात् आपको अपने मन में विवेक और अन्य चरणों को निर्मित करना होगा। आप धारणा में मन का अर्जन कर सकते हैं और अन्त में स्वयं को ध्यान हेतु समर्पित कर सकते हैं। जितना अधिक आप नैतिक जीवन बितायेंगे, जितना अधिक आप ध्यान करेंगे, उतना ही अधिक आपको निर्विकल्प समाधि (जो कि आपको जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त करेगी तथा आपको अनन्त आनन्द और अमरता प्रदान करेगी) में प्रवेश करना सरल होगा। भगवान् श्री कृष्ण अपने हाथों में वंशी ले कर क्या शिक्षा देते हैं? वंशी का प्रतीकात्मक दर्शन क्या है? वंशी ॐ का प्रतीक है। वे कहते है- " अपने अहंकार को रिक्त कर दो। मैं तुम्हारी शरीर रूपी वंशी को बजाऊंगा। तुम्हारी इच्छा मेरी इच्छा से एक हो जाये। ॐ में शरण लो। तुम मुझमें प्रविष्ट हो जाओगे। आत्मा को झंकृत करने वाले आत्मा के आन्तरिक संगीत को सुनो और अनन्त शान्ति में विश्राम करो। "
हल्के आहार सहित धारणा तथा ध्यान के अभ्यास के द्वारा समाधि सम्भव है। दो या तीन घण्टे ध्यान करें। यदि आप थक गये हैं, तो आधे घण्टे विश्राम कर लें। एक कप दूध लें, तत्पश्चात् पुनः ध्यान हेतु बैठ जायें। ध्यान की क्रिया विधि को बार-बार दोहरायें। आप सन्ध्या के समय बरामदे में टहल सकते हैं। मन में यहाँ तक कि कुछ मिनट के लिए भी सांसारिक विचारों को न आने दें।
जिस प्रकार एक विद्यार्थी गणित अथवा भूगोल विषय अरुचिकर लगने पर भी परीक्षा में पास होने के बाद जो लाभ प्राप्त होते हैं, उनकी कल्पना करके उनके प्रति रुचि उत्पन्न करता है, उसी प्रकार आपको ध्यान के निरन्तर अभ्यास के द्वारा जो अगणित लाभ जैसे अमरता, परम शान्ति तथा अनन्त आनन्द प्राप्त होंगे, उनका विचार करके ध्यान में रुचि उत्पन्न करनी चाहिए।
जब आपको काम के प्रति अरुचि तथा एकमात्र ध्यान की कामना होगी, तो आप दूध और फल मात्र पर आधारित पूर्ण संन्यास का जीवन व्यतीत कर सकते हैं। आपकी अच्छी आध्यात्मिक प्रगति होगी। जब ध्यान की इच्छा समाप्त हो जाये, पुनः काम करने लगे। इस प्रकार शनैः-शनैः अभ्यास के द्वारा मन को मोड़ा जा सकता है।
एक लोहे का टुकड़ा जलती हुई भट्ठी में रखिए। यह अग्नि की भाँति लाल हो जायेगा। इसे हटा लें। यह अपना लाल रंग खो देगा। यदि आप इसे सदा लाल रखना चाहते हैं, तो आपको इसे सदा आग के ऊपर रखना होगा। इसी प्रकार यदि आप मन को ब्रह्मज्ञान से सदा आवेशित रखना चाहते हैं, तो आपको मन को निरन्तर ध्यान के द्वारा सदा ब्रह्माग्नि के सम्पर्क में रखना होगा। आपको ब्रह्म-चेतना के तैलधारावत् प्रवाह को बनाये रखना होगा। तब आपको सहज अवस्था प्राप्त होगी।
यदि आप आधा घण्टे ध्यान करते हैं, तो आप इसके बल से स्वयं को जीवन-संघर्ष में एक सप्ताह तक शान्ति तथा आध्यात्मिकता के साथ लगाये रखने में सक्षम होंगे। चूँकि आपको नित्य जीवन में विशेष प्रकार की प्रकृति वाले विभिन्न मनों के साथ चलना पड़ता है, इसलिए ध्यान से शान्ति और शक्ति प्राप्त करें। तब आपको कोई परेशानी और चिन्ता नहीं होगी।
जब आप ध्यान में नवाभ्यासी हों, तो ध्यान में बैठने के तत्काल बाद दस मिनट तक कुछ श्रेष्ठ श्लोकों का पाठ करें। यह मन का उत्थान करेगा। मन को सांसारिक विषयों से सरलता से वापस खींचा जा सकेगा। तत्पश्चात् इस प्रकार के विचार को भी रोक दें और मन को बार-बार तथा प्रयत्नपूर्वक एक ही विचार पर लगायें। तब निष्ठा प्रकट होगी।
चित्र
जब आप ध्यान प्रारम्भ करें, उसके पहले आपको अपने सामने भगवान् अथवा ब्रह्म का (स्थूल अथवा निर्गुण) मानसिक चित्र रखना चाहिए। जब आप भगवान् श्री कृष्ण का स्थूल चित्र खुली आँखों से देखेंगे और ध्यान करेंगे, तो यह ध्यान का स्थूल रूप है। जब आप अपनी आँखें बन्द करके भगवान् श्री कृष्ण का चित्र देखेंगे, तो यह भी स्थूल ध्यान है; लेकिन यह अधिक निर्गुण है। जब आप अनन्त निर्गुण प्रकाश का ध्यान करते हैं, तो यह और अधिक निर्गुण है। पूर्व वाले दोनों ध्यान के सगुण प्रकार से सम्बद्ध हैं। निर्गुण ध्यान में भी प्रारम्भ में मन को स्थिर करने के लिए एक निर्गुण रूप है। बाद में यह रूप नष्ट हो जाता है और ध्यान तथा ध्याता एक हो जाते हैं। ध्यान मन से आगे बढ़ता है।
व्यावहारिक निर्देश
ध्यान के समय देखें कि आप कितने समय तक सभी सांसारिक विचारों को बन्द कर सकते हैं। मन को बड़ी ही सावधानीपूर्वक देखें। यदि यह समय बीस मिनट है, तो इसे तीस मिनट अथवा अधिक बढ़ाने का प्रयत्न करें। मन को बार-बार दैवी विचारों से भरें। जब मन ध्यान में स्थिर हो जाता है, तो नेत्र गोलक भी स्थिर हो जाते हैं। एक योगी जिसका मन शान्त है, उसके नेत्र स्थिर होते हैं। पलकें झपकनी नहीं चाहिए। आँखें लाल अथवा श्वेत होनी चाहिए।
सभी कार्य चाहे वे आन्तरिक अथवा बाह्य हों, वे मात्र तभी किये जा सकते हैं, जब मन अंगों के साथ संयुक्त होता है। विचार ही सच्चा कर्म है। यदि आपने स्थिर अभ्यास से मन पर नियन्त्रण कर लिया है, यदि आप आवेगों और चित्त-वृत्तियों को नियमित कर सकते हैं, तो आप मूर्खतापूर्ण और गलत कार्य नहीं कर सकते। ध्यान विभिन्न आवेगों और चित्त वृत्तियों पर नियन्त्रण में बहुत अधिक सहायता करता है।
विस्तृत आकाश पर धारणा और ध्यान करें। यह एक अन्य प्रकार का निर्गुण ध्यान है। ध्यान की इस विधि से मन सीमित रूपों के विचारों को बन्द कर देता है। यह धीरे-धीरे शान्ति के सागर में बदलने लगता है अर्थात् यह इसके विषय अर्थात् विभिन्न प्रकार के रूपों से रहित हो जाता है। यह सूक्ष्म और अति सूक्ष्म हो जाता है।
कुछ साधक खुली आँखों से ध्यान करना पसन्द करते हैं, जब कि कुछ बन्द आँखों से, जब कि कुछ अन्य अधखुले नेत्रों से।
यदि आप खुली आँखों से ध्यान करेंगे, तो धूल आदि के कण आपकी आँखों में प्रविष्ट हो जायेंगे। कुछ विद्यार्थी खुली आँखों से धारणा करना पसन्द करते हैं, जब कि कुछ बन्द आँखों से। जो बन्द आँखों से ध्यान करते हैं, उन्हें थोड़ी ही देर में नींद आने लगती है। यदि आँखें खुली रहती हैं, तो प्रारम्भिक अभ्यासियों का मन विषयों पर घूमता रहता है। अपने सामान्य ज्ञान का उपयोग कीजिए और उस विधि को अपनाइए जो आपको अनुकूल आये। किसी भी परिस्थिति में जो भी अन्य बाधाएँ आयें, उन पर विजय प्राप्त कीजिए।
आपको ध्यान के अभ्यास में नियमित रहना चाहिए। ध्यान में नियमितता महान् आवश्यक है । अभ्यासी यदि नियमित रहे, तो उसकी प्रगति अत्यन्त शीघ्र होती है एवं उसे महान् सफलता प्राप्त होती है। यहाँ तक कि यदि आपको कोई वांछित परिणाम न भी प्राप्त हों, तो भी आपको लगनशीलता, धैर्य तथा अध्यवसाय के साथ अभ्यास करते रहना चाहिए। कुछ समय बाद आपको महान् सफलता प्राप्त होगी, इसमें कोई सन्देह नहीं है। किसी भी परिस्थिति में एक दिन के लिए भी अभ्यास न रोकें। मन को बार-बार सात्त्विक दैवी विचारों से परिपूर्ण करें। अब नयी लीकों का निर्माण हो जायेगा। जिस प्रकार एक ग्रामोफोन की सुई प्लेट में एक छोटी लीक का निर्माण करती है, उसी प्रकार सात्त्विक विचार मन एवं मस्तिष्क में नयी स्वस्थ लीकों को काटता है। नवीन संस्कारों का निर्माण होता है।
प्राण मन के लिए बाहरी आवरण है। सूक्ष्म प्राण के स्पन्दन विचारों के निर्माण को जन्म देते हैं। प्राणायाम के द्वारा आप मन को अधिक सूक्ष्म बना कर अपने ध्यान में वृद्धि कर सकते हैं।
यदि आप नीबू के रस अथवा इमली के रस को एक सोने के प्याले में रखें, तो वह खराब नहीं होता; लेकिन यदि आप इसे ताँबे अथवा पीतल के बर्तन में रख दें, तो यह उसी समय खराब हो कर विषैला हो जायेगा। इसी प्रकार यदि एक व्यक्ति जो निरन्तर ध्यान का अभ्यास करता है, उसके शुद्ध मन में यदि थोड़ी विषय-वृत्ति भी होगी, तो वह उस व्यक्ति को प्रदूषित नहीं करेगी और विकार (विषय-विचारों) को प्रेरित नहीं करेगी। यदि अशुद्ध मन वाले व्यक्तियों में विषय-विचार होंगे, तो जब भी वे विषय-वस्तुओं के सम्पर्क में आयेंगे, तब वे उनमें उत्तेजना उत्पन्न करेंगे।
शारीरिक स्वास्थ्य
आसन शरीर को स्थिर बनाते हैं। बन्ध और मुद्राएँ शरीर को दृढ़ बनाते हैं। प्राणायाम शरीर को हल्का बनाता है। नाड़ी शुद्धि मन की साम्यावस्था को प्रभावित करती है। इन योग्यताओं का अर्जन करके आपको मन को ब्रह्म पर केन्द्रित करना चाहिए। तभी ध्यान स्थिरतापूर्वक आनन्द के साथ हो सकेगा।
प्रातःकाल ४ बजे पाँच मिनट शीर्षासन करें। इसके बाद पाँच मिनट विश्राम करें। तत्पश्चात् बैठ कर ध्यान करें। आपका ध्यान बहुत अच्छा लगेगा।
ध्यान के पूर्व २० हल्के कुम्भक करें, तत्पश्चात् ध्यान हेतु बैठ जायें। प्राणायाम तन्द्रा और निद्रा को दूर कर देगा और मन को स्थिर बनायेगा।
एक सप्ताह तक मात्र फल और दूध पर रहें। आपका ध्यान बहुत अच्छा लगेगा। यह आहार आपको हल्का और सात्त्विक बनायेगा। रात्रि के समय ध्यान रखें, मात्र आधा सेर दूध ही लें। आपका अच्छा ध्यान लगेगा। आप नींद पर शीघ्र विजय प्राप्त कर सकेंगे। रात्रि के समय भारी भोजन से आलस्य शीघ्र आता है।
ध्यान के आसन
जो ४-५ घण्टे लगातार ध्यान करते हैं, उन्हें प्रारम्भ में पद्मासन तथा वज्रासन अथवा सिद्धासन और वज्रासन में बैठना चाहिए।
कभी-कभी पैरों अथवा जाँघों के भागों में रक्त एकत्रित हो जाता है और थोड़ी परेशानी देता है। दो घण्टे के बाद पद्मासन अथवा सिद्धासन से वज्रासन में बैठ जायें अथवा पैरों को पूरे सीधे फैला दें। एक दीवार अथवा तकिये से टिक कर बैठें। मेरुदण्ड सीधा रखें। यह अत्यन्त आरामदायक आसन है। दो कुर्सियों को आपस में जोड़ लें, एक कुर्सी पर बैठ जायें और दूसरी पर पैर फैला लें। यह भी एक अन्य युक्ति है।
यह प्रारम्भिक अभ्यासियों के लिए एक प्रकार का ध्यान है। एक एकान्त कमरे में पद्मासन में बैठें। अपनी आँखें बन्द कर लें। सूर्य के तेज, चन्द्रमा के वैभव, तारों की द्युति और आकाश के सौन्दर्य पर ध्यान करें।
प्रारम्भिक योग्यताएँ
प्रारम्भ में धारणा में मन को विभिन्न प्रकार से प्रशिक्षण दें। कानों को बन्द करके हृदय की अनाहत ध्वनियों पर धारणा करें। 'सोऽहं' का जप करते हुए श्वास पर धारणा करें। किसी भी स्थूल प्रतीक पर धारणा करें। सूर्य के सर्वव्यापक प्रकाश पर धारणा करें। नीले आकाश पर धारणा करें। शरीर के विभिन्न चक्रों पर धारणा करें। सत्य, ज्ञान, अनन्त, एक, नित्य आदि निर्गुण विचारों पर धारणा करें। अन्त में एक ही चीज पर दृढ़ हो जायें।
ध्यान में आँखों पर जोर न डालें। मस्तिष्क पर तनाव न दें। मन के साथ संघर्ष न करें। दिव्य विचारों को सरलतापूर्वक प्रवाहित होने दें। स्थिरतापूर्वक ध्यान के लक्ष्य के बारे में विचार करें। अनधिकृत रूप से प्रवेश करने वाले विचारों को ऐच्छिक रूप से तथा हिंसात्मक रूप से भगाने का प्रयास न करें। श्रेष्ठ सात्त्विक विचार रखें।
यदि ध्यान में कोई तनाव हो, तो कुछ दिनों के लिए ध्यान के घण्टों को कुछ कम कर दें। मात्र हल्का ध्यान करें। जब आप सामान्य अवस्था में आ जायें, तो पुनः समय में वृद्धि करें। सम्पूर्ण साधना में अपने सामान्य ज्ञान का प्रयोग करें। मैं हमेशा इसी बात पर जोर देता हूँ।
ब्राह्ममुहूर्त में ध्यान का अभ्यास करें। यह ध्यान हेतु सर्वश्रेष्ठ समय है। सदैव दिन और रात के उस समय का चुनाव करें, जब आपका मन स्वच्छ हो और जब आप कम बाधित हो। आपको सोने जाने के पूर्व एक बार ध्यान हेतु बैठना चाहिए। मन इस समय बड़ा ही शान्त रहता है। आपका ध्यान रविवार को बड़ा ही अच्छा लगेगा; क्योंकि यह छुट्टी का दिन है और मन मुक्त रहता है। रविवार के दिन कठोर ध्यानाभ्यास कीजिए। जब आप मात्र फल और दूध पर रहेंगे अथवा उपवास करेंगे, तो आपका ध्यान बहुत अच्छा लगेगा। सदैव अपने सामान्य ज्ञान का उपयोग करें और ध्यान में अधिक लाभ प्राप्त करें।
रात्रि में ध्यान करें। दूसरी बार बैठक अनिवार्य है। रात में यदि आपके पास अधिक अवकाश नहीं है, तो कुछ मिनट अर्थात् मात्र १० या १५ मिनट ही बैठें। आपको रात के समय बुरे स्वप्न नहीं आयेंगे। निद्रा में भी दिव्य विचार रहेंगे। उस समय अच्छे संस्कार रहेंगे।
एक साधक जो कि शहर में एक एकान्त कमरे में ध्यान करता है, उसे वहाँ पर भी उतनी ही शान्ति प्राप्त हो सकती है जितनी कि एक जंगल में होगी। लेकिन उसे वहाँ पर ऋषिकेश, उत्तरकाशी अथवा गंगोत्री के समान आध्यात्मिक स्पन्दन नहीं प्राप्त हो सकते। मन के उत्थान तथा मन की एकाग्रता उत्पन्न करने में स्पन्दन एक जीवन्त भूमिका अदा करते हैं। इन पवित्र स्थानों में ऋषियों के स्पन्दन फैले हुए हैं और साधकों को उनसे बड़ा ही लाभ प्राप्त होता है। इन पवित्र स्थानों में बिना किसी संघर्ष अथवा प्रयत्न के स्वयं ही वैराग्य, सात्त्विक भाव आ जाता है। कुछ स्त्रियाँ ऋषिकेश स्टेशन पर नीचे उतर जाती हैं। जिस क्षण वे हिमालय को देखती हैं, वे कहती हैं- "बेटा कौन है? पिता कौन है? प्रत्येक चीज़ माया है। हर चीज़ झूठी है।" यहाँ मन पर ऐसा शक्तिशाली प्रभाव पड़ता है। मात्र योगी और सन्त ही हैं, जो तत्काल ध्यान के स्थान के स्पन्दनों को जान सकते हैं।
आपको जीवन के अनेक रहस्यों को खोलने की चाबी दे दी गयी है। यह चाबी है ध्यान। प्रातःकाल ४ से ७ बजे के बीच नियमित रूप से ध्यान कीजिए और अनन्त आनन्द तथा अमरता को प्राप्त कीजिए।
गंगा और नर्मदा के किनारे, हिमालय का दृश्य, सुन्दर फूलों के बगीचे तथा पवित्र मन्दिर—ये वे स्थान हैं, जो धारणा और ध्यान में मन का उत्थान करते हैं। ऐसे स्थानों पर ध्यान कीजिए।
एकएकान्त स्थान जहाँ मौसम ठण्ढा हो और जहाँ आध्यात्मिक स्पन्दन हों, मन की धारणा हेतु उत्तम है।
प्रातःकाल के समय आपका मन स्वच्छ और शान्त होता है। उस समय आध्यात्मिक प्रभाव तथा अद्भुत शान्ति होती है। सभी सन्त तथा योगी इस समय ध्यान का अभ्यास करते हैं और सम्पूर्ण जगत् को अपने आध्यात्मिक स्पन्दन भेजते हैं। यदि आप इस समय अपनी प्रार्थना, जप और ध्यान प्रारम्भ करें, तो आपको बहुत अधिक लाभ होगा। आपको प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं होगी। मन की ध्यानावस्था स्वयं ही आयेगी।
जब मन निर्विषय (विषय-वस्तुओं तथा उनके उपभोग के विचार से मुक्त) बन जाये, तो यह ध्यान है।
भगवान् ने स्वयं को इस संसार में छिपाया है और आपकी हृदय गुहा में बैठ गये हैं। वे अदृश्य स्वामी हैं। आपको शुद्ध मन के साथ धारणा और ध्यान के द्वारा उनकी खोज करनी होगी। यह लुका-छिपी का यथार्थ खेल है।
ध्यान के लिए प्रत्येक वस्तु सात्त्विक होनी चाहिए। भोजन भी सात्त्विक होना चाहिए। पहना हुआ वस्त्र भी सात्त्विक होना चाहिए। संगत भी सात्त्विक होनी चाहिए। बातचीत भी सात्त्विक होनी चाहिए। स्वाध्याय भी सात्त्विक होना चाहिए। प्रत्येक वस्तु सात्त्विक होनी चाहिए। तभी मात्र अच्छी प्रगति सम्भव है, विशेष रूप से नवाभ्यासियों के विषय में यह अनिवार्य है।
अनिवार्यताएँ
(१) उत्तरकाशी, ऋषिकेश, लक्ष्मणझूला, कनखल अथवा बद्रीनाथ जैसा शीतल स्थान ध्यान हेतु अनिवार्य
है, क्योंकि ध्यान के समय मस्तिष्क गर्म हो जाता है।
(२) साधना हेतु क्षमता।
(३) अच्छा, सात्त्विक, सारभूत, हल्का और पोषक आहार ।
(४) एक अच्छा आध्यात्मिक (अनुभवी) गुरु।
(५) अध्ययन हेतु उत्तम पुस्तकें।
(६) आपके भीतर ज्वलन्त वैराग्य, ज्वलन्त मुमुक्षुत्व तथा दृढ़ विवेक ।
(७) आपमें ब्रह्म-तत्त्व, ब्रह्म-वस्तु को समझने के लिए सूक्ष्म, तीव्र, शान्त तथा एकाग्र बुद्धि होनी
चाहिए। मात्र तभी साक्षात्कार सम्भव है। अनेक लोगों को आध्यात्मिक साधना के लिए उपर्युक्त
अनुकूल परिस्थितियाँ नहीं प्राप्त होतीं। यही कारण है कि वे किसी प्रकार की आध्यात्मिक प्रगति नहीं कर पाते।
ध्यान तभी सम्भव है, जब मन सत्त्व गुण से परिपूर्ण हो। पेट भरा हुआ नहीं होना चाहिए। मन एवं भोजन के मध्य अन्तरंग सम्बन्ध है। भारी भोजन हानिकारक है। ११ बजे पूरा भोजन लीजिए और रात्रि के समय आधा सेर दूध लें। जो ध्यान करते हैं, उन साधकों के लिए रात्रि भोजन हल्का होना चाहिए।
प्रत्येक मनुष्य के भीतर अनेक योग्यताएँ एवं क्षमताएँ हैं। वह शक्ति एवं ज्ञान का कोष है। वह जैसे-जैसे विकास करता है, उसकी नयी शक्तियाँ और क्षमताएँ और योग्यताएँ अनावृत होती जाती हैं। अब वह अपने वातावरण को परिवर्तित कर सकता है और अन्यों को प्रभावित कर सकता है। वह अन्यों के मन को वशीभूत कर सकता है। वह आन्तरिक तथा बाह्य प्रकृति पर विजय प्राप्त कर सकता है। वह परम चेतनावस्था में प्रवेश कर सकता है।
एक अँधेरे कमरे में एक बर्तन रखा है, जिसमें एक जलता हुआ दीपक है। यदि वह बर्तन फूट जाता है, तो कमरे का अँधेरा विलीन हो जाता है और आप कमरे में सर्वत्र उजाला देखते हैं। इसी प्रकार यह शरीर रूपी बर्तन यदि आत्मा के ऊपर निरन्तर ध्यान करने से फूट • जाये अर्थात् यदि आप अविद्या और इसके प्रभाव - शरीर के साथ पहचान को नष्ट कर दें और शारीरिक चेतना से ऊपर उठ जायें, तो आप आत्मा के परम प्रकाश को सर्वत्र देख सकते हैं।
आसन वास्तव में मानसिक हैं। मानसिक पद्मासन अथवा मानसिक सिद्धासन लगाने का प्रयास करें। यदि मन भटकता है, तो आपका शरीर अथवा आसन स्थिर नहीं होगा। जब मन स्थिर होगा अथवा ब्रह्म में दृढ़ होगा, तो शरीर की स्थिरता स्वयं ही आयेगी।
निरन्तर ईश्वर के बारे में विचार करें। मन को सदैव ईश्वर की ओर जाना चाहिए। मन को एक महीन रेशमी तन्तु से भगवान् शिव अथवा हरि के चरणों से बाँध दीजिए। मन के भीतर सांसारिक विचारों को प्रवेश न करने दें। मन को किसी प्रकार के शारीरिक अथवा मानसिक सुख के बारे में विचार न करने दें। जब यह उपर्युक्त विचारों में लिप्त हो, तो इसकी अच्छी पिटाई करें। तब यह भगवान् की ओर मुड़ेगा। जिस प्रकार गंगा निरन्तर समुद्र की ओर प्रवाहित होती है, उसी प्रकार भगवान् के विचार निरन्तर बिना रुके प्रभु की ओर प्रवाहित होने चाहिए। जिस प्रकार घण्टियों की आवाज एक लय में कानों में पड़ती है, उसी प्रकार मन को भगवान् की ओर एक निरन्तर बहती धारा में आना चाहिए। निरन्तर साधना के द्वारा सात्त्विक मन से ईश्वर की ओर निरन्तर दैवी वृत्ति का प्रवाह होता रहना चाहिए।
किसी भी चीज पर किसी प्रकार विचार न करना सर्वोच्च समाधि प्राप्त करना है।
निदिध्यासन अथवा निरन्तर और श्रेष्ठ ध्यान में विचार करने की प्रक्रिया रुक जाती है। तब वहाँ मात्र एक ही विचार रहता है—'अहं ब्रह्मास्मि ।' जब यह विचार भी त्याग दिया जाता है, तो निर्विकल्प समाधि होती है।
मन रूपों के द्वारा निराकार को पकड़ना चाहता है। मन के शुद्धिकरण के बाद श्रवण (आध्यात्मिक प्रवचनों तथा पवित्र ग्रन्थों के श्रवण) एवं ब्रह्म-चिन्तन के द्वारा एक निराकार प्रतीक निर्मित होता है। बाद में गहन ध्यान में यह निराकार प्रतीक विलीन हो जाता है। जो शेष रह जाता है, वह है चिन्मात्र अथवा केवल अस्ति (शुद्ध अस्तित्व मात्र ) ।
मन की पूजा ब्रह्म की भाँति की जानी चाहिए। यह बौद्धिक पूजा है, यह उपासना-वाक्य है।
मन ब्रह्म अथवा प्रकट ईश्वर है। मन चलता-फिरता ईश्वर है।
ब्रह्म तक मन के साधन द्वारा पहुँचा जा सकता है। यह ही उचित है कि मन के ऊपर ब्रह्म की भाँति ध्यान किया जाये।
यदि कर्मयोग के साधक आत्मज्ञान के साथ व्यवहार करते हुए, अपने अन्तर में आनन्द प्राप्त करते हैं और तत्काल फल प्राप्ति की लालसा नहीं करते और नियमित रूप और धीरे-धीरे से ध्यान करते हैं, तब मन धीरे-धीरे परिपक्क होता है और अन्त में वे अनन्त आत्मा तक पहुँच जाते हैं।
जब आप एक पुस्तक को अत्यन्त ध्यान से रुचिपूर्वक पढ़ते हैं, तो आपका मन विचारों में लीन हो जाता है; उसी प्रकार ब्रह्म के निर्गुण ध्यान में मन एक ही विचार पर दृढ़ हो जाता है और वह है आत्मा का ध्यान ।
आपको ध्यान के लिए एक प्रशिक्षित उपकरण (मन) की आवश्यकता है। इसे शान्त, स्पष्ट, शुद्ध, सूक्ष्म, तीक्ष्ण, स्थिर तथा एकाग्र होना चाहिए। ब्रह्म शुद्ध और सूक्ष्म है। इस कारण आपको ब्रह्म तक पहुँचने के लिए शुद्ध और सूक्ष्म मन की आवश्यकता है।
एक एकान्त स्थान में पद्मासन, सिद्धासन अथवा सुखासन में बैठ जाइए। स्वयं को सभी प्रकार की वासनाओं, आवेगों और आवेशों से मुक्त करें। इन्द्रियों को वश में करें। मन को विषयों से खींच लें। बाहरी अथवा सांसारिक विचारों को सहजता से भगायें। ॐ अथवा 'अहं ब्रह्मास्मि' का बार-बार मानसिक जप करके ब्रह्माकार-वृत्ति बनाये रखने का प्रयत्न करें। ॐ के मानसिक जप के साथ अनन्त का विचार, प्रकाश के सागर का विचार, सर्वज्ञान का विचार तथा सर्व आनन्द का विचार आता है। यदि मन भटकता है, तो साढ़े तीन मात्रा के दीर्घ प्रणव का उच्चारण ६ बार करें। यह विधि विक्षेप तथा अन्य बाधाओं को दूर करेगी।
मन कठोर परिश्रम के बाद थकान का अनुभव करता है। इसलिए यह आत्मा नहीं बन सकता। आत्मा अनन्त शक्ति का कोष है। मन आत्मा का उपकरण मात्र है। इसे उचित प्रकार से संयमित करना चाहिए। जिस प्रकार आप विभिन्न प्रकार के व्यायामों के द्वारा अपने भौतिक शरीर का विकास करते हैं, उसी प्रकार आपको मानसिक प्रशिक्षण, मानसिक चरित्र अथवा मानसिक व्यायाम के द्वारा मन को प्रशिक्षित करना होगा।
जिस प्रकार नमक जल में घुल जाता है, उसी प्रकार सात्त्विक मन एकान्त में ध्यान के समय ब्रह्म में, इसके अधिष्ठान में विलीन हो जाता है।
ॐ धनुष है, मन तीर है तथा ब्रह्म वह लक्ष्य है जिसे वेधा जाना है। ब्रह्म उसके द्वारा वेधा जा सकता है, जिसके विचार केन्द्रित हैं। ऐसा होने पर यह मन ब्रह्म के साथ उसी प्रकार तन्मय हो जाता है, जैसे कि तीर लक्ष्य को वेधने के बाद उसके साथ एक हो जाता है।
ध्यानाभ्यास के लिए ब्राह्ममुहूर्त का समय (प्रातःकाल ४ से ६ बजे तक) निस्सन्देह सर्वश्रेष्ठ समय है। यह वह समय है, जब अच्छी नींद के पश्चात् मन एकदम तरोताजा रहता है। इस समय मन तुलनात्मक रूप से शान्त और शुद्ध रहता है। यह कोरे कागज के समान होता है। मात्र ऐसा मन ही वैसे आकार में ढाला जा सकता है जैसा आप चाहें। और इस समय वातावरण भी शुद्धता तथा अच्छाई से आवेशित रहता है।
यदि आप ध्यानयोग का अभ्यास करना चाहते हैं, यदि आप मन की धारणा के द्वारा भगवद्-साक्षात्कार करना चाहते हैं, तो आपको अपनी सभी भौतिक गतिविधियाँ पूर्णतया बन्द कर देनी चाहिए। ५ या ६ वर्षों के लिए सभी मोह के बन्धन निर्दयतापूर्वक काट दिये जाने चाहिए। समाचार पत्र पढ़ना और मित्रों से पत्र-व्यवहार पूर्णतया बन्द कर देना चाहिए, क्योंकि ये मन को विचलित करते हैं और संसार के विचार को दृढ़ करते हैं। ५ या ६ वर्षों के लिए एकान्त अनिवार्य है।
मन 'मैं' के कारण ही अस्तित्वमान है। 'मैं' मात्र मन का विचार है। मन और 'मैं' एक ही है। 'मैं' यदि नष्ट हो जाये, तो मन भी नष्ट हो जायेगा। यदि मन नष्ट हो जायेगा, तो 'मैं' भी नष्ट हो जायेगा। तत्त्वज्ञान के द्वारा मन को नष्ट कर दें। 'अहं ब्रह्मास्मि' की भावना के द्वारा, निरन्तर प्रबल निदिध्यासन के द्वारा 'मैं' का नाश कर दें। जब मन नष्ट हो जाता है, तो विचार रुक जाते हैं, नाम-रूप भी अस्तित्वमान नहीं रहते और आप लक्ष्य पर पहुँच जाते हैं।
प्रारम्भ में मात्र दो बार ध्यान हेतु बैठिए—एक बार प्रातः ४ से ५ बजे तक तथा दूसरी बार रात्रि में ६ से ८ बजे तक। ६ माह अथवा १ वर्ष के पश्चात् आप अपनी मानसिक क्षमता के अनुसार तीन बार ध्यान हेतु बैठ सकते हैं। ऊपर की दोनों बैठकों के अलावा मध्याह्न में ४ से ५ बजे तक एक बार और आप धारणा का समय दो घण्टों तक बढ़ा सकते हैं। ग्रीष्म ऋतु में यह पसीने के कारण थोड़ा क्लेशकर तथा कठिन होता है। इस नुकसान की भरपाई शीत ऋतु में की जा सकती है। शीत ऋतु ध्यान हेतु बहुत अधिक अनुकूल है। ऋषिकेश और मुनिकीरेती ध्यान हेतु प्रशंसनीय ढंग से अनुकूल होंगे। ध्यान के नवाभ्यासियों के लिए शीत ऋतु तथा वसन्त ऋतु का आरम्भिक भाग श्रेष्ठ है। शीत ऋतु में मन बिलकुल भी नहीं थकता। आप थकान का थोड़ा भी अनुभव किये बिना २४ घण्टे ध्यान कर सकते हैं। यही कारण है कि साधु लोग शीत ऋतु में ध्यान हेतु ऋषिकेश का चुनाव करते हैं। ध्यान के समय में सावधानीपूर्वक शनैः-शनैः वृद्धि करनी चाहिए। ध्यान आवेश में आ कर प्रारम्भ नहीं करना चाहिए। इसे नियमित रूप से स्थिरतापूर्वक करना चाहिए। सम्पूर्ण साधना की अवधि में आपको अपने सामान्य ज्ञान एवं बुद्धि का प्रयोग करना चाहिए। आपको योग की सीढ़ी पर शनैः-शनैः चरणबद्ध रूप से चढ़ना चाहिए। आपको अभ्यास को कुछ दिनों के लिए भी नहीं त्यागना चाहिए।
जो भी ध्यान करना प्रारम्भ कर रहे हों, उन्हें प्रातः काल एक घण्टे तथा सायंकाल एक घण्टे ध्यान अवश्य ही करना चाहिए। अभ्यास के समय में शनैः-शनैः वृद्धि करनी चाहिए। अन्य महत्त्वपूर्ण बात यह है कि २४ घण्टे ब्रह्म-भाव रखना चाहिए। चेतना का अविरत प्रवाह होना चाहिए। आपको एक क्षण के लिए भी 'अहं ब्रह्मास्मि' अथवा दैवी उपस्थिति के विचार को भूलना नहीं चाहिए। ईश्वर का विस्मरण वास्तव में मृत्यु है। यह वास्तव में आत्महत्या है। यह आत्मद्रोह है। यह सबसे बड़ा पाप है।
मन को ब्रह्म के विचार से आपूरित करने से पूर्व आपको दैवी विचारों को सर्वप्रथम आत्मसात करना होगा। पहले आत्मीकरण और उसके बाद विलयन। तब एक क्षण की देरी के बिना आत्म-साक्षात्कार स्वयं ही आयेगा। इस वाक्य को सदा याद रखिए - आत्मीकरण, विलयन और फिर आत्म-साक्षात्कार।
आपको अधिक आत्म-चिन्तन, वासनाओं के उन्मूलन, इन्द्रियों पर नियन्त्रण तथा और अधिक आन्तरिक जीवन के द्वारा दृढ़, शुद्ध और अटल बनना होगा। आपको रविवार तथा छुट्टियों के प्रत्येक पल का उपयोग अपने श्रेष्ठ आध्यात्मिक लाभ हेतु करना होगा।
यदि आपने एक माह तक रसगुल्ला खाया है, तो रसगुल्ले के प्रति मानसिक आसक्ति मन में आ जाती है। इसी प्रकार यदि आप संन्यासियों की संगत में रहे, योग- वेदान्त आदि की पुस्तकें पढ़ें, तो ईश्वरीय चेतना को प्राप्त करने के लिए मन में लगाव उत्पन्न हो जायेगा। मात्र मानसिक आसक्ति आपकी बहुत अधिक सहायता नहीं कर सकेगी। इस हेतु ज्वलन्त वैराग्य, ज्वलन्त मुमुक्षुत्व, आध्यात्मिक साधना हेतु क्षमता, प्रबल तथा निरन्तर प्रयत्न और निदिध्यासन (ध्यान) की आवश्यकता है। मात्र तभी आत्मज्ञान सम्भव है।
एक सदाचारी जीवन व्यतीत करना ही मात्र भगवद्-साक्षात्कार हेतु पर्याप्त नहीं है। निरन्तर ध्यान करना आवश्यक है। एक सदाचारी जीवन धारणा तथा ध्यान हेतु मन को तैयार करता है। मात्र धारणा और ध्यान ही हैं जाते हैं। 'आत्म-साक्षात्कार की ओर ले कर
आपको गीता में प्राप्त होगा— 'मन्मनः', 'मत्परः'। ये आपको बताते हैं कि आप अपना सम्पूर्ण मन, १०० प्रतिशत मन ईश्वर को अर्पित करें। मात्र तभी आपको आत्म-साक्षात्कार प्राप्त होगा। यदि मन की एक किरण भी बाहर निकलती है, तो ईश्वर - साक्षात्कार प्राप्त करना असम्भव होगा। जिस प्रकार आप गँदले जल को फिटकरी आदि के द्वारा स्वच्छ करते हैं, उसी प्रकार आपको गँदले मस्तिष्क को, जो कि वासनाओं तथा मिथ्या संकल्पों से पूर्ण है, ब्रह्म-चिन्तन के द्वारा शुद्ध करना होगा। मात्र तभी सच्चा ज्ञान होगा।
जब आप ध्यान करें, आपको शीघ्र परिणाम प्राप्त करने के लिए जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए। एक उदाहरण देखिए, एक युवती ने बच्चे की आकांक्षा से पीपल के वृक्ष की १०८ परिक्रमाएँ कीं और तुरन्त ही अपने पेट को स्पर्श करके देखने लगी कि बालक आया या नहीं। यह तो सीधी-सीधी मूर्खता है। उसे कुछ महीनों तक प्रतीक्षा करनी होगी। इसी प्रकार यदि आप कुछ समय तक नियमित ध्यान करेंगे, तो आपका मन परिपक्व होगा और आप आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करेंगे। जल्दबाजी व्यर्थ है।
जब गृहस्थ यौगिक साधक ध्यान में उच्च अवस्था में पहुँच जाते हैं, यदि वे ध्यान में सच में गम्भीर हैं, तो उनको यह निर्दिष्ट किया जाता है कि उनको सभी सांसारिक गतिविधियाँ बन्द कर देनी चाहिए। उच्च साधकों के लिए काम एक बाधा है। यही कारण है कि भगवान् श्री कृष्ण ने गीता में कहा है कि 'एक साधु जो कि योग की खोज करता है, उसके लिए कर्म एक साधन है; किन्तु वही साधक यदि योग पर सिंहासनारूढ हो चुका है, तो उसके लिए शम साधन कहलाता है।' तब कर्म और ध्यान अम्ल और क्षार की भाँति, अग्नि और जल की भाँति अथवा प्रकाश और अँधेरे की भाँति असंगत बन जाते हैं।
आपको अपने वैराग्य, ध्यान तथा सात्त्विक गुणों जैसे धैर्य, अध्यवसाय, करुणा, प्रेम, दया, पवित्रता आदि में नित्य वृद्धि करनी चाहिए। वैराग्य तथा सद्गुण ध्यान में सहायता करते हैं। ध्यान सात्त्विक गुणों में वृद्धि करता है।
एक सर्व व्यापक ब्रह्म की भावना रखिए। इस नश्वर शरीर को एक दिखावे की भाँति अस्वीकार करें। इस भावना को सदैव बनाये रखें।
आप ध्यान के समय अपनी आँखें बन्द क्यों रखते हैं? अपनी आँखें खुली रखें। और ध्यान करें। आपको शहर की भीड़-भाड़ के मध्य अपने मन का सन्तुलन बनाये रखना चाहिए। मात्र तभी आप परिपूर्ण होंगे। प्रारम्भ में जब आप नवाभ्यासी हों, तब आप मन के विचलन को दूर करने के लिए आँखें बन्द कर सकते हैं; क्योंकि अभी आप बहुत दुर्बल हैं, किन्तु बाद में आपको आँखें खुली रख कर, यहाँ तक कि चलते समय भी ध्यान करना चाहिए। दृढ़तापूर्वक विचार करें कि यह जगत् अवास्तविक है और तब वहाँ कोई जगत् नहीं होगा। यदि आप जब आपकी आँखें खुली हों, तब भी आप आत्मा पर ध्यान कर सकते हैं, तो आप एक दृढ़ मनुष्य हैं। आप सरलता से विचलित नहीं होंगे। आप मात्र तभी ध्यान कर सकते हैं, जब आपका मन समस्त आकुलताओं से मुक्त हो।
धारणा और ध्यान में आपको अपने मन को विभिन्न प्रकार से प्रशिक्षित करना होगा। मात्र तभी स्थूल मन सूक्ष्म बनेगा। जब आप जप तथा ध्यान का अभ्यास करते हैं, तो सभी वृत्तियाँ सूक्ष्म रूप ग्रहण कर लेती हैं। वे तनु हो जाती हैं। उन्हें समाधि के द्वारा ज्ञानाग्नि में दग्ध करना चाहिए। मात्र तभी आप सुरक्षित रहेंगे। छिपी हुई वृत्तियाँ एक बृहत् भयंकर रूप धारण करने हेतु तैयार रहती है। आपको सदैव सावधान और जागरूक रहना चाहिए
नियमित ध्यान के द्वारा गहन विरोधी बलों के द्वारा गहन पतन को रोकें। स्पष्ट तथा सामान्य विचार के द्वारा मन के निस्देश्य भटकाव को रोकें। तुच्छ मन की झूठी बुदबुदाहट को न सुनें। अपनी आन्तरिक दृष्टि को देवी केन्द्र की ओर मोड़ें। अपनी यात्रा में आने वाले धर्कों से न घबरायें। बहादुर बनें। जब तक आप अपने परमानन्द के केन्द्र में विश्राम न कर लें, तब तक साहस के साथ आगे बढ़ते जायें।
एक बड़े शहर में रात्रि आठ बजे बहुत अधिक शोर रहता है। ९ बजे उतना शोर नहीं रहता। १० बजे शोर और भी कम रहता है। और ११ बजे यह बहुत ही कम हो जाता है। १ बजे रात को सर्वत्र शान्ति हो जाती है। इसी प्रकार योगाभ्यास के प्रारम्भ में मन में अनगिनत वृत्तियाँ रहती हैं। मन में बहुत अधिक विचलन और उत्तेजना रहती है। धीरे-धीरे विचार की लहरें शान्त हो जाती है। अन्त में मन के सभी मानसिक रूपान्तरण नियन्त्रित हो जाते हैं और योगी अनन्त शान्ति के आनन्द उपभोग करता है।
जब आप एक बड़े शहर के बाजार के बीच से गुजर रहे होते हैं, तो आपको छोटी-छोटी आवाजें सुनायी नहीं पड़तीं; लेकिन जब आप प्रातः काल अपने किसी मित्र के साथ एक शान्त कमरे में ध्यान करने के लिए बैठे होते हैं, तो आप छींकने और खाँसने की आवाजें भी पहचान सकते हैं। इसी प्रकार जब आप कोई काम कर रहे होते हैं, तो आप बुरे विचारों को पहचान नहीं पाते; लेकिन जब आप ध्यान हेतु बैठते हैं, तो आप उन्हें पहचान सकने योग्य होते हैं। जब आप ध्यान के लिए बैठें, तो यदि बुरे विचार आयें, तो न घबरायें। और अधिक जप तथा ध्यान करें। वे शीघ्र चले जायेंगे।
जब आप ध्यान करें, इन्द्रियों से उत्पन्न होने वाले सतही जाग्रतियों को अस्वीकार कर दें। सभी अन्य बीते प्रसंगों एवं विचारों की यादों की तुलना से बचें। मन की सम्पूर्ण ऊर्जा को बिना किसी अन्य विचारों के साथ तुलना के स्वयं की आत्मा अथवा ईश्वर के एक विचार पर केन्द्रित करें।
योग के साधक को बहुत अधिक धन की आवश्यकता नहीं होती; क्योंकि यह उसे संसार के प्रलोभनों में फँसा देता है। वह अपने शरीर की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कुछ धन अपने पास रख सकता है। आर्थिक स्वतन्त्रता मन को आकुलताओं से मुक्त करती है और उसे निर्बाध रूप से साधना करने योग्य बनाती है।
प्रारम्भ में आप प्रातः ४ से ४.३० बजे तक तथा रात्रि में ८ से ८.३० बजे तक ध्यान करें। प्रातः काल का समय ध्यान हेतु सर्वश्रेष्ठ है; क्योंकि मन गहन निद्रा के उपरान्त ताजा रहता है और इसके साथ ही साथ वातावरण में सात्विकता होने के कारण शरीर में सत्त्व प्रमुख रहता है। योगवासिष्ठ में ऋषि वसिष्ठ कहते हैं- "हे राम! प्रारम्भ में १/४ मन ध्यान हेतु, १/४ भाग मन मनोरंजन के लिए, १/४ भाग मन अध्ययन के लिए और १/४ भाग गुरु सेवा के लिए दो। उसके बाद ३/८ मन ध्यान के लिए, १/८ मनोरंजन के लिए, ३/८ अध्ययन के लिए और १/८ गुरु-सेवा के लिए दो ।" यहाँ मनोरंजन का अर्थ है—अन्य कार्य जैसे धोना, सफाई आदि। इसका अर्थ गोल्फ का खेल नहीं है। इसका अर्थ मन के लिए विश्राम अथवा धारणा और ध्यान के पश्चात् मन का दिशा परिवर्तन है, अन्यथा मन थकावट का अनुभव करता है और आगे काम करना अस्वीकार कर देता है। तत्पश्चात् १/२ मन ध्यान हेतु, १/२ मन अध्ययन के लिए दें। ध्यान के समय में धीरे-धीरे वृद्धि करें। जब ध्यान दो घण्टे तक होने लगे, तो इसे धीरे-धीरे एक घण्टे और बढ़ा दें। प्रात काल ४ से ५ बजे तक तथा रात्रि में ८ से ९ बजे तक। एक वर्ष पश्चात् इस समय को प्रातः डेढ़ घण्टे तथा रात को डेढ़ घण्टे तक कर दें। तीसरे वर्ष के अन्त में दो घण्टे प्रातः और दो घण्टे रात्रि कर दें। चौथे वर्ष में प्रातः तीन घण्टे तथा रात में तीन घण्टे कर दें। यह बृहत् जन-समुदाय के लिए है। एक लगनशील साधक जो दृढ़ जीवनी-शक्ति तथा सूक्ष्म बुद्धि से सम्पन्न है, वह साधना के प्रथम वर्ष में ही ६ घण्टे ध्यान कर सकता है। आपको ध्यान के साथ-साथ पवित्र ग्रन्थ जैसे योगवासिष्ठ, उपनिषद्, गीता, विवेकचूड़ामणि, अवधूत गीता आदि का स्वाध्याय करना चाहिए। ऐसा अध्ययन अति उत्थानकारी होता है ६ घण्टे अध्ययन और ६ घण्टे ध्यान अत्यन्त लाभकारी है। यह आपको २४ घण्टे ध्यान निदिध्यासन के लिए सहायक सिद्ध होगा।
ध्यान में मूलबन्ध : जब आप जप करने के लिए बैठें, गुदा को संकुचित करें। इसे हठयोग में मूलबन्ध कहते हैं। यह धारणा में सहायता करता है। यह अभ्यास अपान वायु को नीचे नहीं जाने देता।
ध्यान में कुम्भक: जितनी देर आप आराम से रोक सकें, श्वास को रोके रहें। यह कुम्भक है। यह मन को स्थिर करता है और धारणा में सहायता करता है। आपको तत्काल आध्यात्मिक आनन्द की अनुभूति होगी।
यौगिक आहार : मिताहार सात्त्विक आहार लें। पेट को चावल, सब्जी, दाल तथा रोटी से अधिक मात्रा में भरने से नींद आती है और साधना में बाधा पड़ती है। एक पेटू अथवा विषयी अथवा आलसी मनुष्य ध्यान का अभ्यास नहीं कर सकता। दूध का आहार शरीर को बहुत हल्का रखता है। इससे आप एक आसन में सरलता से और आराम से घण्टों बैठे रह सकते हैं। यदि आप दुर्बलता का अनुभव करें, तो आप एक अथवा दो दिनों तक थोड़े चावल अथवा दूध और बाजरा या कोई हल्का आहार ले सकते हैं। जो सेवा के क्षेत्र में हैं या जो व्याख्यान देते हैं अथवा जो अत्यधिक आध्यात्मिक प्रचार की गतिविधियाँ करते हैं, उनको