धारणा और ध्यान

 

CONCENTRATION AND MEDITATION

 

का हिन्दी अनुवाद

 

लेखक

श्री स्वामी शिवानन्द सरस्वती

 

 

 

 

 

MEDITATE REALIZE LOVE

 

THE DIVINE LIFE SOCIETY

 

 

 

 

अनुवादिका

 

शिवानन्द राधिका अशोक

 

 

प्रकाशक

 

डिवाइन लाइफ सोसायटी

पत्रालय शिवानन्दनगर२४९१९२

जिला टिहरी गढ़वाल, उत्तराखण्ड (हिमालय), भारत

www.sivanandaonline.org, www.disha.org

 

 

 

 

प्रथम हिन्दी संस्करण: २००८

द्वितीय हिन्दी संस्करण : २०११

तृतीय हिन्दी संस्करण २०१५

चतुर्थ हिन्दी संस्करण : २०२१

(,००० प्रतियाँ)

 

 

 

 

 

 

 

 

 

© डिवाइन लाइफ ट्रस्ट सोसायटी

 

 

 

 

 

 

HS 7

 

 

 

 

 

 

PRICE : ₹210/-

 

 

 

 

 

 

 

 

 

' डिवाइन लाइफ सोसायटी, शिवानन्दनगर' के लिए स्वामी पद्मनाभानन्द द्वारा

प्रकाशित तथा उन्हीं के द्वारा 'योग-वेदान्त फारेस्ट एकाडेमी प्रेस,

पो. शिवानन्दनगर२४९ १९२, जिला टिहरी गढ़वाल, उत्तराखण्ड' में मुद्रित

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उन योगियों तथा भक्तों

को

समर्पित

जो धारणा तथा ध्यान द्वारा

जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु प्रयासरत है

 

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परिचय

 

धारणा एवं ध्यान सिद्धि हेतु राज मार्ग है। धारणा ध्यान हेतु प्रेरित करती है। मन को शरीर के बाहर अथवा भीतर किसी एक बिन्दु पर केन्द्रित करके, उसे वहाँ कुछ देर के लिए स्थिर कीजिए। यह धारणा है। आपको इसका नित्य अभ्यास करना चाहिए। पहले उत्तम आचरण के अभ्यास द्वारा अपने मन को स्थिर कीजिए, तत्पश्चात् धारणा का अभ्यास कीजिए। मन की शुद्धता के बिना धारणा का कोई लाभ नहीं है। कुछ तान्त्रिक ऐसे हैं जिनकी धारणा तो होती है, लेकिन उनका चरित्र अच्छा नहीं होता। यही कारण है कि वे आध्यात्मिक मार्ग में किसी प्रकार की प्रगति नहीं कर पाते।

 

वह जिसका आसन स्थिर है तथा जिसने प्राणायाम के निरन्तर अभ्यास द्वारा अपनी नाड़ियों तथा कोशों को शुद्ध कर लिया है, वह अच्छी धारणा कर सकता है।

 

यदि आप सभी विचलनों को दूर हटा दें, तो धारणा तीव्र होगी। एक नैष्ठिक ब्रह्मचारी, जिसने अपनी शक्ति का संरक्षण किया है, उसकी धारणा अपूर्व होगी।

 

कुछ मूर्ख अधैर्यवान् साधक बिना किसी प्रारम्भिक नैतिक प्रशिक्षण के एकदम धारणा करने लग जाते हैं। यह भयंकर भूल है। नैतिक पूर्णता सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है।

 

आप आध्यात्मिक ऊर्जा के सातों चक्रों में से किसी एक पर आन्तरिक रूप से धारणा कर सकते हैं। अवधान धारणा में प्रमुख भूमिका निभाता है। जिसने अपनी अवधान की शक्ति का विकास कर लिया है, उसकी धारणा अच्छी होती है। वह मनुष्य जो वासना तथा सभी प्रकार की काल्पनिक कामनाओं से पूर्ण है, वह किसी भी वस्तु अथवा विषय पर कठिनाई से एक सेकेंड तक ही धारणा कर सकेगा। उसका मन बूढ़े बन्दर की भाँति इधर से उधर कूदता रहता है।

 

एक वैज्ञानिक अपने मन को एकाग्र करता है तथा कई नये आविष्कार करता है। धारणा के द्वारा वह अपने स्थूल मन की पर्तें खोलता है और मन के उच्च लोकों में गहरे उतर जाता है तथा गहन ज्ञान प्राप्त करता है। वह अपने मन की समस्त शक्तियों को एक जगह केन्द्रित करके उन्हें उन पदार्थों पर फेंकता है, जिनका वह विश्लेषण कर रहा है तथा उनके रहस्यों को खोज लेता है।

 

वह जिसे प्रत्याहार (इन्द्रियों को विषयों से वापस खींचना) का ज्ञान है, उसकी अच्छी धारणा होती है। आध्यात्मिक मार्ग में आपको शनैः-शनैः एक-एक कदम आगे बढ़ना होगा। धारणा का अभ्यास प्रारम्भ करने के लिए अच्छे आचरण, आसन, प्राणायाम एवं प्रत्याहार की नींव रखिए। धारणा एवं ध्यान का भवन तभी सफलतापूर्वक खड़ा होगा।

 

आपको धारणा के विषय को उसकी अनुपस्थिति में भी स्पष्ट रूप से देख सकते योग्य होना चाहिए। एक क्षण में ही उसका मानसिक चित्र आपकी आँखों के सामने जाना चाहिए। यदि आपकी धारणा अच्छी होगी, तो आप ऐसा बिना किसी कठिनाई के कर सकेंगे।

 

प्रारम्भ में आप घड़ी की टिकटिक, मोमबत्ती की ली अथवा अन्य किसी विषय पर, जो आपके मन को अच्छा लगे, धारणा का अभ्यास कर सकते हैं। मन के अवलम्बन के लिए किसी विषय के बिना धारणा सम्भव नहीं है। कोई भी विषय, जो मन को रुचिकर लगे, उस पर मन को स्थिर किया जा सकता है। प्रारम्भ में मन को जो नापसन्द हो, ऐसे विषय पर उसे एकाग्र करना बड़ा ही कठिन है।

 

जो धारणा का अभ्यास करते हैं, वे शीघ्र उन्नति करते हैं। वे किसी भी कार्य को वैज्ञानिक ढंग से, बिना किसी गलती के तथा पूर्ण दक्षता से कर सकते है। जिस कार्य को अन्य छह घण्टों में करते हैं, उसे धारणा का अभ्यासी आधे घण्टे में कर सकता है। धारणा उमड़ते हुए आवेगों को शान्त करती है, शुद्ध करती है। यह विचार शक्ति को दृढ करती है तथा विचारों को स्पष्ट करती है। यह मनुष्य की भौतिक प्रगति में सहायता करती है। धारणा करने वाला अपने कार्य एवं व्यापार को अच्छे ढंग से सम्पन्न करता है। जो पहले धुंधला तथा अनिश्चित था, वह धारणा के अभ्यास से स्पष्ट और सुनिश्चित हो जाता है। जो पहले कठिन था, वह अब सरल हो जाता है और जो जटिल तथा भ्रमित करने वाला था, वह सरल एवं मन की पकड़ में हो जाता है। आप धारणा से सब कुछ प्राप्त कर सकते हैं। जो नियमित धारणा करते हैं, उनके लिए कुछ भी असम्भव नहीं है। यदि कोई भूखा अथवा किसी जटिल रोग से ग्रसित हो, तो उसके लिए धारणा करना कठिन है। धारणा का अभ्यास करने वाले की मानसिक दृष्टि एकदम स्पष्ट होती है।

 

मोक्ष प्राप्ति के लिए ध्यान ही एकमात्र श्रेष्ठ मार्ग है। ध्यान सभी दर्दों, कष्टों, त्रिताप तथा पंच क्लेशों को नष्ट कर देता है। ध्यान समदृष्टि प्रदान करता है। ध्यान एक हवाई जहाज के समान है, जो परमानन्द एवं स्थायी शान्ति के धाम की ओर बढ़ने में सहायक होता है। यह एक अद्भुत सीढ़ी है, जो पृथ्वी और स्वर्गलोक को जोड़ती है। तथा साधक को ब्रह्म के अमर धाम को ले कर जाती है।

 

ध्यान ईश्वर अथवा आत्मा के एक ही विचार का तैलधारावत् प्रवाह है। ध्यान धारणा का अनुगामी होता है।

 

प्रातः काल ब्राह्ममुहूर्त में से बजे तक ध्यान का अभ्यास करें। यह ध्यान हेतु सर्वश्रेष्ठ समय है।

 

पद्मासन अथवा सुखासन में बैठे सिर, गर्दन और धड़ एकसीध में होने चाहिए। त्रिकुटी, भूमध्य-स्थान अथवा हृदय पर ध्यान करें। नेत्रों को बन्द रखें।

 

ध्यान दो प्रकार का होता हैसगुण और निर्गुण। सगुण ध्यान में योगाभ्यासी भगवान् कृष्ण, राम, सीता, विष्णु, शिव, गायत्री अथवा देवी के रूप का ध्यान करता है। निर्गुण ध्यान में वह अपनी आत्मा पर ध्यान करता है।

 

चतुर्भुज भगवान् हरि के चित्र को अपने सामने रखिए। पाँच मिनट तक इसे स्थिर दृष्टि से देखें, तत्पश्चात् नेत्र बन्द कर लें और चित्र को नेत्रों को बन्द किये हुए ही देखने का प्रयास करें। मन को भगवान् के अंगों पर ले कर जायें। मानसिक रूप से पहले उनके चरणों को देखिए; फिर पैरों को, उसके बाद पीताम्बर को, तत्पश्चात् वक्षस्थल के कौस्तुभ मणि जड़ित स्वर्ण हार को देखें, उसके बाद उनके मकराकृति कुण्डलों को, फिर मुख मण्डल को, उसके बाद मुकुट को, उसके बाद दायें हाथ में चक्र को, उसके बाद बायें हाथ में कमल को, फिर पैरों को, उसके बाद ऊपरी बायें हाथ में शंख को, तत्पश्चात् निचले बायें हाथ में गदा को देखें। इसके बाद पूरी विधि को पुनः दोहरायें मन में 'हरि ' अथवा ' नमो नारायणाय' का जप करें। भगवान् के सर्वज्ञता, सर्वव्यापकता, पवित्रता आदि गुणों के बारे में चिन्तन करें।

 

तथा इसके अर्थ का भाव सहित ध्यान करें। यह निर्गुण ध्यान है। मानसिक रूप से का जप करें। स्वयं को आत्मा के साथ जोड़ें। अनुभव करें— “मैं सर्वव्यापक आत्मा हूँ। मैं सत्-चित्-आनन्द ब्रह्म हूँ। मैं तीनों कालों का तथा मन के सभी रूपान्तरों का मौन साक्षी हूँ। मैं शुद्ध चेतना हूँ। मैं शरीर, मन, प्राण तथा इन्द्रियों से पृथक् हूँ। मैं स्वप्रकाश्य ज्योतिस्वरूप हूँ। मैं अमर परम आत्मा हूँ।

 

यदि आपमें सन्तोष, उत्साह, धैर्य, मन की अविचल स्थिति, मधुर वाणी, मन की एकाग्रता, हल्का शरीर, निर्भयता, निष्काम्यता, सांसारिक वस्तुओं के प्रति अरुचि है, तो जानें कि आप आध्यात्मिक मार्ग में प्रगति कर रहे हैं तथा आप ईश्वर के सन्निकट हैं।

 

हे प्रेम! एक ऐसा स्थान है जहाँ आपको किसी प्रकार की ध्वनि नहीं सुनायी देगी, आपको कोई रंग दिखायी देगा। वह स्थान है परम धाम या परम अनामय स्थान (दर्द रहित स्थान) यह शान्ति और आनन्द का अमर धाम है। यहाँ शारीरिक चेतना नहीं रहती। यहाँ मन विश्राम प्राप्त करता है। सभी कामनाएँ तथा तीव्र अभिलाषाएँ जाती है। यहाँ इन्द्रियाँ शान्त रहती है, बुद्धि कार्य करना बन्द कर देती है। यहाँ कोई नहीं होता। क्या आप गहन ध्यान द्वारा इस शान्ति स्थल की खोज करेंगे? यहाँ परम शान्ति का साम्राज्य है। प्राचीन काल में ऋषियों ने एकान्त में मन को विलीन करके ही इस स्थान को प्राप्त किया था। यहाँ ब्रह्म स्वप्रकाश्य ज्योति में ज्योतित होता है।

 

शरीर को भूल जायें। अपने आस-पास सभी कुछ भूल जायें। भूलना सबसे बड़ी साधना है। यह ध्यान में बड़ी सहायक है। इसके द्वारा भगवान् के निकट पहुँचने में सरलता होती है। ईश्वर को स्मरण करने से आप सब कुछ भूल सकेंगे। मन को विषय-वस्तुओं से वापस खींच कर और इसे अपनी हृदय गुहा में प्रकाशित हो रहे ईश्वर के चरणों में लगा कर आध्यात्मिक आनन्द का अनुभव करें। गहन शान्त ध्यान के अभ्यास द्वारा अपने भीतर गहरे उतर कर लीन हो जायें। गहरे गोते लगायें। सत्-चित्-आनन्द के सागर में उन्मुक्तता से तैरें। आनन्द की दिव्य सरिता में हैं। स्रोत का दोहन करें। देवी चेतना के स्रोत की ओर सीधे आगे बढ़ें और अमृत पान करें। दैवी आलिंगन को अनुभव करें और दैवी समाधि का आनन्द लें। अब यहाँ मैं आपको छोड़ दूंगा। अब आपने अमरत्व एवं निर्भयता की स्थिति को प्राप्त कर लिया है। हे प्रेम! भयभीत हों, देदीप्यमान हों, उनका प्रकाश गया है।

 

जितना अधिक आप ध्यान करेंगे, उतना ही अधिक आपको वह आन्तरिक जीवन प्राप्त होगा, जहाँ मन तथा इन्द्रियाँ कार्य नहीं करती है।

 

आप मूल स्रोत आत्मा के अत्यन्त निकट होंगे। आप आनन्द एवं शान्ति की लहरों का आनन्द लेंगे।

 

समस्त विषय-वस्तुओं के प्रति आपको कोई आकर्षण नहीं रहेगा। यह जगत् आपके सामने दीर्घ स्वप्न जैसा दृष्टिगोचर होगा। निरन्तर गहन ध्यान द्वारा आपके भीतर ज्ञान का सुप्रभात होगा।

 

आप पूर्ण ज्ञानी हो जायेंगे। अब अज्ञानता का आवरण नष्ट हो गया है। आपके समस्त कोशों का भेदन हो गया है। आपके भीतर से देहाध्यास नष्ट हो जायेगा। आप 'तत् त्वं असि' महावाक्य के महत्त्व को पहचान लेंगे। सभी भेद, उपाधियाँ तथा गुण अदृश्य हो जायेंगे। आप सर्वत्र आनन्द, प्रकाश तथा ज्ञान से पूर्ण अनन्त आत्मा के दर्शन करेंगे। यह वास्तव में एक दुर्लभ अनुभव होगा। अर्जुन की भाँति भय से करें। यहाँ पर इन्द्रियाँ नहीं है। यहाँ शुद्ध चेतना मात्र है।

 

हे प्रेम! आप आत्मा हैं। आप यह नश्वर शरीर नहीं है। इस घृणित शरीर के प्रति मोह त्याग दें। भविष्य में कभी भी यह कहे "मेरा शरीर" कहें- "यह उपकरण" अब सूर्यास्त होने को है, सूर्य अपनी सभी किरणों को भीतर समेट रहा है। अब ध्यान हेतु बैठ जायें। अपने भीतर की त्रिवेणी में गहरे गोते लगायें। मन की सभी किरणों को एकत्र करें और आन्तरिक हृदय गुहा में गहरे लीन हो जायें। सभी प्रकार के भय, उत्तरदायित्वों, चिन्ताओं, आकुलताओं को त्याग दें। एकान्त के सागर में विश्राम करें अनन्त शान्ति का आनन्द लें। आपका पुराना शरीर अब चला गया है। सभी सीमाएँ अदृश्य हो गयी हैं। यदि कामनाएँ और पुरानी अभिलाषाएँ पुनः फुफकारने का प्रयत्न करें, तो उन्हें विवेक की लाठी और वैराग्य की तलवार से नष्ट कर दें।

 

जब तक आप ब्रह्म-स्थिति को प्राप्त कर लें, इन दोनों को सदा अपने पास रखें। सत् चित् आनन्द है। अनन्त है। का ध्यान करें।

 

की गर्जना करें। ही सुनें। का स्वाद लें। का दर्शन करें। का पान करें। आपका नाम है। यही आपका नाम है। यही आपका पथ-प्रदर्शन करे! शान्तिः।

-स्वामी शिवानन्द

ध्यानश्लोकम्

 

शिवध्यानम्

 

शान्तं पद्मासनस्थं शशधरमुकुटं पंचवक्त्रं त्रिनेत्रं

शूलं वज्रं खड्गं परशुमभयदं दक्षिणांगे वहन्तम्

नागं पाशं घण्टां डमरुकसहितां चांकुशं वामभागे

नानालंकारदीप्तं स्फटिकमणिनिभं पार्वतीशं नमामि

 

मैं पंचमुखी श्री शिव जी को प्रणाम करता हूँ जो पार्वती जी के स्वामी हैं, जो अनेक प्रकार के आभूषण धारण किये हैं, जो स्फटिक मणि के समान दीप्तिमान हैं, जो पद्मासन में स्थित हैं, चन्द्रमा जिनका मुकुट है, जिनके तीन नेत्र हैं, जो दाहिनी ओर त्रिशूल, वज्र, खड्ग एवं बार्थी ओर नागपाश, घण्टा, डमरु तथा अंकुश धारण किये हैं। जो अपने भक्तों की सभी भयों से रक्षा करते हैं।

।। शंकराचार्यध्यानम् ।।

पद्मासीनं प्रशान्तं यमनिरतमनंगारितुल्यप्रभावं

फाले भस्मांकिताभं स्मितरुचिरमुखांभोजमिन्दीवराक्षम्म्

कम्बुग्रीवं कराभ्यामविहतविलसत्पुस्तकं ज्ञानमुद्रां

वन्दयै गीर्वाणमुख्यैर्नतजनवरदं भावये शंकरार्यम्

मैं श्री शंकराचार्य जी का ध्यान करता हूँ, जो पद्मासन में ज्ञानमुद्रा में बैठे हैं, जो शान्त हैं, जो यम-नियम आदि सद्गुणों से युक्त हैं, जिनकी कीर्ति भगवान् शंकर के समान है, जिनके मस्तक पर भस्म अंकित है, जिनका मुख खिले कमल के समान है, जिनके नेत्र कमल की पंखुड़ी के समान हैं, जो हाथों में वेद लिये हुए हैं, जिनकी आराधना महत् बुद्धि सम्पन्न जन करते हैं तथा जो अपने भक्तों की समस्त कामनाओं को पूर्ण करते हैं।

ओंकारध्यानम्

ओंकारं निगमैकवेद्यमनिशं वेदान्ततत्त्वास्पदं

चोत्पत्तिस्थितिनाशहेतुममलं विश्वस्य विश्वात्मकम्

विश्वत्राणपरायणं श्रुतिशतैः सम्प्रोच्यमानं विभुं

सत्यज्ञानमनन्तमूर्तिममलं शुद्धात्मकं तं भजे

मैं नित्य-शुद्ध, सर्वव्यापक, प्रणव, ओंकार का सदैव ध्यान करता हूँ, जिसे विभिन्न श्रुतियों में वेदान्त का स्रोत एवं आधार कहा गया है, जिसे इस विश्व की सृष्टि, अस्तित्व तथा विलय का कारण कहा जाता है, जो इस विश्व की आत्मा है तथा जो सत्य, ज्ञान और अनन्तता है।

।। दत्तात्रेयध्यानम् ।।

 

मालाकमण्डलुधरः करपद्मयुग्मे

मध्यस्थपाणियुगले डमरुत्रिशूलम्

अध्यस्थ ऊर्ध्वकरयोः शुभशंखचक्रे

वन्दे तमत्रितनयं भुजषट्कयुक्तम्

 

मैं अत्रि-पुत्र दत्तात्रेय का ध्यान करता हूँ, जिनके छह हाथ हैं, जिनके नीचे के दोनों हाथों में माला और कमण्डल, मध्य के दोनों हाथों में डमरु और त्रिशूल तथा ऊपरी दोनों हाथों में शंख और चक्र हैं।

 

गणेशध्यानम्

 

गजाननं भूतगणादिसेवितं

कपित्थजम्बूफलसारभक्षणम्

उमासुतं शोकविनाशकारणं

नमामि विघ्नेश्वरपादपंकजम्

 

मैं उमा-पुत्र श्री गणेश के चरण-कमलों में नमन करता हूँ, जो सभी दुःखों का नाश करते हैं, भूत गण तथा देव जिनकी सेवा करते हैं तथा जो जम्बू और कपित्थ फल के सार को ग्रहण करते हैं।

सुब्रह्मण्यध्यानम्॥

 

षडाननं कुंकुमरक्तवर्णं

महामतिं दिव्यमयूरवाहनम्

रुद्रस्य सुनूं सुरसैन्यनाथं

गुहं सदाहं शरणं प्रपद्ये

 

मैं षडानन भगवान् गुह के चरणों का सदा ध्यान करता हूँ, जो कुंकुम के समान रक्त वर्ण के तथा जो अनन्त ज्ञान हैं, जिनका वाहन दिव्य मयूर है, जो देवों की सेना के नायक हैं।

 

।। सरस्वतीध्यानम् ।।

 

या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता

या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना।

या ब्रह्माच्युतशंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता

 सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा ।।

 

वे देवी सरस्वती मेरी रक्षा करें जो शुभ्र वर्ण की हैं, हिम के समान श्वेत कुन्दों के पुष्पों को धारण करती हैं, शुभ्र वस्त्र धारण करती हैं, श्रेष्ठ पवित्र वीणा लिये हुए श्वेत कमल पर विराजित हैं, ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश जिनकी आराधना करते हैं तथा जो जड़ता और आलस्य को दूर करने वाली हैं।

 

महालक्ष्मीध्यानम्

 

वन्दे पद्मकरां प्रसन्नवदनां सौभाग्यदां भाग्यदां

हस्ताभ्यामभयप्रदां मणिगणैर्नानाविधैर्भूषिताम्

भक्ताभीष्टफलप्रदां हरिहरब्रह्मादिभिस्सेवितां

पार्श्वे पंकजशंखपद्मनिधिभिर्युक्तां सदा शक्तिभिः

 

मैं श्री लक्ष्मी देवी का ध्यान करता हूँ, जो हाथों में कमल लिये हैं, प्रसन्न मुख हैं, सौभाग्य को देने वाली हैं, जो दोनों हाथों से अभय प्रदान करती हैं, जो अनेक मणियों से सुशोभित हैं, जो अपने भक्तों को अभीष्ट फल प्रदान करती हैं, ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश जिनकी आराधना करते हैं, शक्तियाँ जिनके आस-पास रहती हैं और जो शंख, पद्म तथा महापद्मा निधि से युक्त हैं।

 

 

 

 

 

कृष्णध्यानम्

 

वंशीविभूषितकरान्नवनीरदाभात्

पीताम्बरादरुणबिम्बफलाधरोष्ठात्

पूर्णेन्दुसुन्दरमुखादरविन्दनेत्रात्

कृष्णात्परं किमपि तत्त्वमहं जाने ।।

 

मैं कमलनयन वंशीधर कृष्ण, जो काले मेघ के समान वर्ण वाले हैं, जिनके ऑट लाल बिम्ब फल की भाँति हैं, जिनका मुख पूर्ण चन्द्र की भाँति प्रकाशित हो रहा है, के. सिवा अन्य किसी को नहीं जानता।

 

रामध्यानम् ।।

 

ध्यायेदाजानुबाहुं धृतशरधनुषं बद्धपद्मासनस्थं

पीतं वासो वसानं नवकमलदलस्पर्धिनेत्रं प्रसन्नम्

वामांकारूढसीतामुखकमलमिलल्लोचनं नीरदाभं

नानालंकारदीप्तं दधतमुरुजटामण्डलं रामचन्द्रम्

 

श्री रामचन्द्र जी का ध्यान करो, जो आजानुबाहु हैं, जो पद्मासन में बैठे हैं, पोत वस्त्र धारण किये हैं, जिनके नेत्र नव-प्रस्फुटित कमल की पंखुड़ी की भाँति हैं, जिनकी चाल अत्यन्त सुन्दर है, जिनकी बायीं ओर सीता जी विराजमान हैं, जिनका वर्ण मेघ के समान श्याम है, जिन्होंने अनेक आभूषण धारण किये हैं तथा जिनके शीश पर विशाल जटा सुशोभित है।

 

गायत्रीध्यानम्

 

मुक्ताविद्रुमहेमनीलधवलच्छायैर्मुखैस्तीक्षणै-

युक्तामिन्दुनिबद्धरत्नमुकुटां तत्त्वात्मवर्णात्मिकाम्

गायत्री वरदाभयांकुशकशां शुभ्रं कपालं गदां

शंखं चक्रमथारविन्दयुगलं हस्तैर्वहन्तीं भजे

 

मैं श्री गायत्री माता का ध्यान करता हूँ, जिनका मुख मोतियों, मूँगे, स्वर्ण, नीले एवं श्वेत रत्नों से सुशोभित है, जिनका मुकुट मोतियों और चन्द्रमा से अलंकृत है, जो सभी वेदों के सार को व्यक्त करती हैं, जो उस पवित्र सत्य की मूर्ति हैं, जो अपने दोनों हाथों से वरदान तथा अभय प्रदान करती है तथा जो अपने हाथों में अंकुश, चाबुक, खप्पर, गदा, शंख, चक्र तथा दो श्वेत कमल लिये हैं।

 

सूर्यध्यानम्

 

भास्वद्रत्नाढ्यमौलिः स्फुरदधररुचा रंजितश्चारुकेशो

भास्वान्यो दिव्यतेजाः करकमलयुतः स्वर्णवर्णः प्रभाभिः

विश्वाकाशावकाशग्रहपतिशिखरे भाति यश्चोदयाद्रौ

सर्वानन्दप्रदाता हरिहरनमितः पातु मां विश्वचक्षुः

 

जो जगत् के नेत्र हैं, जो समस्त आनन्द के दाता हैं, जो भगवान् हरि, शिव एवं देवों द्वारा पूजित हैं, जो ऊँचे पहाड़ों में चमकते हैं, जो रत्न जड़ित मुकुट के साथ देदीप्यमान हैं, जो ग्रहों के देव हैं, जिन्होंने इस सम्पूर्ण जगत् को व्याप्त किया है, जो अपने ओठों तथा सुन्दर केशों की दीप्ति के साथ प्रकाशित हैं तथा दिव्य तेज से युक्त हैं, वे सूर्यदेव मेरी रक्षा करें।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

विषय-सूची

परिचय. 4

ध्यानश्लोकम्. 8

अध्याय . 20

धारणा का सिद्धान्त... 20

. धारणा क्या है?. 20

. धारणा कहाँ करें?. 21

. धारणा हेतु निर्देश. 23

. अन्तर्मुख एवं बहिर्मुख वृत्तियाँ.. 27

. मन के मार्गों को जानें. 28

. मन की घुमन्तु प्रवृत्ति को कम करें. 32

. सभी शक्तियों का दोहन करें. 35

. धारणा की कहानी.. 37

. योग - प्रश्नोत्तरी. 49

अध्याय . 52

धारणा का अभ्यास. 52

. अवधान. 52

. धारणा का अभ्यास. 57

. जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में धारणा.. 59

. धारणा के योग का आश्रय स्थल. 60

. धारणा हेतु अभ्यास. 65

. कुर्सी पर धारणा.. 66

. अनाहत ध्वनियों पर धारणा.. 68

. त्राटक.. 70

अध्याय . 72

ध्यान हेतु पूर्वापेक्षाएँ. 72

. ध्यान क्या है?. 72

. ध्यान की आवश्यकता.. 72

. ध्यान का फल. 74

. ब्राह्ममुहूर्त - -ध्यान हेतु सर्वश्रेष्ठ समय. 80

. ध्यान-कक्ष.. 82

. ध्यान हेतु स्थान. 83

. ध्यान हेतु गुफा का जीवन. 85

. ध्यान हेतु तैयारी. 87

. ध्यान कैसे करें. 87

१०. कब और कहाँ ध्यान करें. 93

११. ध्यान की पूर्वापेक्षाएँ. 94

१२. ध्यान हेतु तीन बैठकें.. 98

१३. ध्यानाभ्यास के लिए योग्यताएँ. 98

१४. कितने घण्टे ध्यान करें. 101

१५. ध्यान हेतु सहायक क्रियाएँ. 102

१६. ध्यान हेतु आसन. 102

१७. ध्यान में नियमितता.. 104

अध्याय . 106

ध्यान का अभ्यास. 106

. ध्यान का व्यावहारिक रूप. 106

. ध्यान में सच्चा विश्राम. 108

. नेत्र बन्द कर मानसिक चित्रण करना.. 109

. ध्यानयोग. 109

. एकान्त और ध्यान. 112

. सर्वोच्च शिखर पर पहुँचें. 117

. ध्यान में गलतियाँ.. 119

. ध्यान हेतु निर्देश. 120

. ध्यान हेतु बीस निर्देश. 127

१०. ध्यान में क्रियाएँ. 130

११. ध्यान की अवस्था.... 133

१२. संयम का अभ्यास. 137

१३. ध्यान- प्रश्नोत्तरी. 138

अध्याय . 143

ध्यान के प्रकार. 143

. ध्यान हेतु चुनाव. 143

. विभिन्न पथों में ध्यान. 145

. प्रारम्भिक ध्यान. 149

. सगुण ध्यान. 154

. निर्गुण ध्यान. 158

. सगुण तथा निर्गुण ध्यान की तुलना.. 170

. ध्यान तथा कर्म. 172

अध्याय . 174

ध्यान में शारीरिक बाधाएँ. 174

प्रस्तावना.. 174

. निरर्थक भ्रमण.. 175

. साधना में रुकावट. 175

. देहाध्यास. 176

. रोग. 176

. बहुत अधिक तर्क करना.. 177

. वातावरण.. 178

. बुरी संगत. 178

. दोष-दृष्टि... 179

. आत्मस्पष्टीकरण की आदत. 179

१०. आवेग. 180

११. अशुद्ध एवं अपौष्टिक भोजन. 180

१२. साधना में अनियमितता.. 181

१३. झटके.. 182

१४. ब्रह्मचर्य की कमी.. 182

१५. ओज.. 183

१६. यम तथा नियम की कमी.. 183

१७. जिह्वा पेचिश. 184

१८. गुरु की आवश्यकता.. 184

१९. अति-भोजन आदि.. 186

२०. दुर्बल स्वास्थ्य..... 186

२१. मित्र. 187

२२. सामाजिक प्रकृति.. 188

२३. तन्द्रा, आलस्य और निद्रा.. 188

२४. लौकिक सुख.. 190

२५. सम्पत्ति.. 190

अध्याय . 191

ध्यान में मानसिक बाधाएँ. 191

. क्रोध. 191

. चुगलखोरी. 193

. निराशा.. 194

. संशय. 194

. स्वप्न... 196

. बुरे विचार. 196

. मिथ्या तुष्टि... 199

. भय. 199

. मन की अस्थिरता.. 200

१०. ध्यान में पाँच बाधाएँ. 200

११. पुराने कुसंस्कारों का दबाव. 201

१२. उदासी तथा नैराश्य... 201

१३. लालच. 202

१४. घृणा.. 202

१५. अधैर्य. 204

१६. स्वतन्त्र प्रकृति.. 204

१७. ईर्ष्या.... 205

१८. निम्न प्रकृति.. 206

१९. मनोराज्य... 210

२०. स्मृति.. 211

२१. मानसिक वार्तालाप. 212

२२. मोह. 212

२३. योग में बाधाएँ. 213

२४. अन्य बाधाएँ. 214

२५. पूर्वाग्रह, असहिष्णुता और हठधर्मिता.. 215

२६. रजोगुण और तमोगुण.. 216

२७. संकल्प... 216

२८. तमस्. 216

२९. तीन बाधाएँ. 217

३०. तृष्णा और वासना.. 217

३१. विक्षेप. 218

३२. विषयासक्ति.... 219

अध्याय . 220

ध्यान में उच्च बाधाएँ. 220

. अभिलाषा एवं कामना.. 220

. नैतिक और आध्यात्मिक अहंकार. 221

. धार्मिक ढोंग (दम्भ ) 221

. कीर्ति और प्रतिष्ठा... 222

. भूत गण.. 224

. दृश्य... 225

. सिद्धियाँ.. 225

. काषाय. 226

. लय. 227

१०. रसास्वाद. 227

११. तूष्णीभूत अवस्था.... 228

१२. स्तब्ध अवस्था.... 228

१३. अव्यक्तम्. 228

उपसंहार. 229

अध्याय . 231

ध्यान में अनुभव. 231

. ध्यान में विभिन्न अनुभव. 231

. अनाहत ध्वनियाँ.. 235

. ध्यान में ज्योतियाँ.. 236

. साधकों के रहस्यमय अनुभव. 239

. ध्यान के क्षणों में. 242

. भगवान् का दर्शन. 245

. पृथकता का अनुभव. 246

. दैवी चेतना.. 248

. आनन्दमय अनुभव. 251

१०. मन भ्रमण करता है. 254

११. भूत गण.. 255

१२. आत्मा की झलक.. 255

१३. ज्योतिर्मय दर्शन. 257

परिशिष्ट.. 259

बीस महत्त्वपूर्ण आध्यात्मिक नियम. 264

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

धारणा और ध्‍यान

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

अध्याय

धारणा का सिद्धान्त

. धारणा क्या है?

 

"देशबन्धश्चित धारणा "मन को किसी बाह्य विषय अथवा आन्तरिक बिन्दु पर एकाग्र करना धारणा है। एक बार एक संस्कृत के विद्वान कबीर के पास गये और उनसे प्रश्न किया "कबीर, अभी आप क्या कर रहे हैं?" कबीर ने उत्तर दिया पण्डित जी, मैं मन को सांसारिक विषयों से वापस खींच कर भगवान् के चरण कमलों पर एकाग्र कर रहा हूँ।" इसे धारणा कहते हैं। उत्तम आचरण, आसन-प्राणायाम तथा विषय-वस्तुओं से प्रत्याहार धारणा में शीघ्र सफलता प्राप्ति को सरल बनाते हैं। धारणा योग की सीढ़ी का छठवाँ पायदान है। मन जिस पर टिक सके, ऐसी किसी वस्तु के बिना धारणा नहीं हो सकती। एक निश्चित उद्देश्य, रुचि, एकाग्रता धारणा में सफलता लाते हैं।

 

इन्द्रियाँ आपको बाहर खींच लाती है और आपके मन की शान्ति को भंग कर देती हैं। यदि आपका मन बैचैन है, तो आप किसी प्रकार की प्रगति नहीं कर सकते हैं। जब अभ्यास के द्वारा मन की किरणें एकत्रित हो जाती हैं, तो मन एकाग्र हो जाता है और आपको मन के भीतर से आनन्द प्राप्त होता है। विचारों और आवेगों को शान्त करें।

 

आपके भीतर धैर्य, दृढ़ संकल्प तथा अथक दृढ़ता होनी चाहिए। आपको अपने अभ्यास में बड़ा ही नियमित होना चाहिए, अन्यथा आलस्य और विपरीत बल आपको लक्ष्य से दूर ले के चले जायेंगे। एक उत्तम प्रशिक्षित मन को संकल्प के अनुसार किसी भी विषय पर, चाहे वह बाहरी हो या आन्तरिक, सभी विचारों के निषेध के लिए एकाग्र किया जा सकता है।

 

प्रत्येक व्यक्ति के पास कुछ विषयों पर धारणा हेतु क्षमता होती है। लेकिन आध्यात्मिक प्रगति के लिए धारणा का अत्यन्त उच्च स्तर तक विकास हो जाना चाहिए। उत्तम धारणा वाले व्यक्ति की अर्जन क्षमता अच्छी होती है तथा वह कम समय में अधिक कार्य कर सकता है। धारणा करते समय मस्तिष्क पर किसी प्रकार का तनाव नहीं होना चाहिए। आपको मन के साथ संघर्ष नहीं करना चाहिए।

 

एक पुरुष जिसका मन वासनाओं तथा विभिन्न प्रकार की काल्पनिक कामनाओ से पूर्ण है, वह मन को किसी विषय पर एक पल के लिए भी कठिनाई से ही एकाग्र कर सकेगा। ब्रह्मचर्य का पालन, प्राणायाम के अभ्यास, आवश्यकताओं तथा गतिविधियों में कमी, विषय-वस्तुओं का त्याग, एकान्त का सेवन, मौनव्रत, इन्द्रियों पर संयम करने तथा कामवासना, लोभ, क्रोध का उन्मूलन करना, अनावश्यक लोगों से मिलने-जुलने से बचना, समाचारपत्र- पठन और सिनेमा देखने का त्याग उपर्युक्त बताये गये नियमों के पालन से धारणा-शक्ति में वृद्धि होती है।

 

संसार के कष्टों, दुःखों से मुक्ति के लिए एकमात्र मार्ग धारणा है। इसके अभ्यासी का स्वास्थ्य उत्तम तथा उसे मानसिक दृष्टि से उत्साहित रहना चाहिए। धारणा का अभ्यासी सूक्ष्म अन्तर्दृष्टि प्राप्त कर सकता है। वह किसी भी कार्य को बड़ी कुशलता से सम्पन्न कर सकता है। धारणा आवेगों को शान्त करती है। विचार-शक्ति को दृढ़ बनाइए और विचारों को स्पष्ट कीजिए। यम तथा नियम के द्वारा मन को शुद्ध कीजिए। शुद्धता के बिना धारणा का कोई उपयोग नहीं है।

 

किसी मन्त्र का जप तथा प्राणायाम मन को स्थिर करेगा। विक्षेपों का उन्मूलन कीजिए और धारणा-शक्ति में वृद्धि कीजिए। धारणा तभी की जा सकती है, जब मन सभी प्रकार के विक्षेपों से मुक्त हो। किसी भी उस विषय पर जिसे मन पसन्द करता हो या जो आपको अच्छा लगे, उस पर धारणा करें। प्रारम्भ में मन को स्थूल विषयों पर धारणा द्वारा प्रशिक्षित करना चाहिए और बाद में आप सूक्ष्म विषयों तथा निर्गुण विचारों पर सफलतापूर्वक धारणा कर सकेंगे। अभ्यास में नियमितता सर्वाधिक आवश्यक है।

 

स्थूल रूप : दीवार पर एक काला बिन्दु, मोमबत्ती की लौ, चमकता हुआ तारा, चन्द्रमा का चित्र, भगवान् शिव, राम, कृष्ण, देवी अथवा अपने इश्देवता के चित्र को अपने सामने रख कर खुली आँखों से ध्यान करें।

सूक्ष्म रूप: अपने इष्टदेवता के चित्र के सामने बैठ जायें और आँखें बन्द कर लें। अपने इह्देवता का मानसिक चित्र अपनी दोनों भौहों के मध्य अथवा अपने हृदय में रखें। मूलाधार, अनाहत, आज्ञा अथवा अन्य किसी आन्तरिक चक्र पर धारणा करें। दैवी गुणों जैसे प्रेम, करुणा अथवा अन्य किसी निर्गुण विचार पर धारणा करें।

. धारणा कहाँ करें?

 

हृदय-कमल (अनाहत चक्र) अथवा भूमध्य अथवा त्रिकुटी (दोनों भौहों के मध्य स्थान) अथवा नासिकाग्र पर धारणा करें। नेत्रों को बन्द रखें।

 

मन का स्थान आज्ञा चक्र है। यदि आप त्रिकुटी पर धारणा करेंगे, तो मन सरलता से एकाग्र हो जायेगा।

 

भक्तों को हृदय पर धारणा करनी चाहिए योगियों तथा वेदान्तियों को आज्ञा चक्र पर धारणा करनी चाहिए।

 

मन का अन्य स्थान है सहस्रार ( सिर का शीर्ष स्थान) कुछ वेदान्ती यहाँ पर धारणा करते हैं। कुछ योगी नासिकाग्र पर भी धारणा करते हैं (नासिकाग्र दृष्टि)

 

धारणा के एक केन्द्र पर दृढ़तापूर्वक अभ्यास करते रहें। इसे हठपूर्वक पकड़े रहें। यदि आप हृदय पर धारणा करते हैं, तो सदा इसी पर करते रहें, इसे कभी बदलें। यदि आप आस्थावान् है, तो आपके गुरु धारणा हेतु केन्द्र का चुनाव करेंगे। यदि आप आत्म-निर्भर व्यक्ति हैं, तो आप स्वयं ही केन्द्र का चुनाव कर सकते हैं।

 

भ्रूमध्य-दृष्टि अर्थात् दोनों भौंहों के मध्य दृष्टि को केन्द्रित करना। यह आज्ञा चक्र का क्षेत्र है। अपने ध्यान के कमरे में पद्मासन अथवा सिद्धासन में बैठ कर एक मिनट तक धारणा करें। इस समय को शनैः-शनैः आधा घण्टे तक बढ़ायें। इसमें बल-प्रयोग करें। यह योग की क्रिया विक्षेप अथवा मन के भटकाव को रोकती है तथा धारणा का विकास करती है। भगवान् श्री कृष्ण ने गीता के पाँचवें अध्याय के २७ वें श्लोक में इस क्रिया-विधि को निर्दिष्ट किया है: “स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे ध्रुवो: "बाह्य सम्पर्कों को दूर करके दृष्टि को भ्रूमध्य में केन्द्रित करें। इसे भ्रूमध्य-दृष्टि भी कहते हैं; क्योंकि नेत्र भ्रूमध्य की ओर केन्द्रित किये जाते हैं। आप इसके सिवा नासिकाग्र दृष्टि का भी चुनाव कर सकते हैं। -

 

नासिकाग्र दृष्टि में दृष्टि को नासिका के अग्र भाग पर केन्द्रित करते हैं। जब आप सड़क पर भ्रमण कर रहे हों, तब भी नासिकाग्र दृष्टि रखें। भगवान् कृष्ण ने गीता के छठवें अध्याय के श्लोक १३ में इसका वर्णन इस प्रकार किया है "सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रम्” – चारों तरफ देखते हुए, मात्र नासिका के अग्रभाग पर एकटक स्थिर दृष्टि से देखें यह अभ्यास मन को स्थिर करता है तथा धारणा-शक्ति का विकास करता है।

 

एक राजयोगी त्रिकुटी पर धारणा करता है। यह आज्ञा चक्र का स्थान है। यह भूमध्य में है। यह जाग्रत अवस्था में मन का स्थान है। यदि आप इस स्थान पर धारणा करें, तो आप सरलता से मन को नियन्त्रित कर सकते हैं। यहाँ पर धारणा करने से अत्यन्त शीघ्र ही, यहाँ तक कि एक दिन के अभ्यास से ही कुछ लोगों को प्रकाश दिखायी देने लगता है। वे अभ्यासी जो विराट् पर ध्यान करना चाहते हैं तथा जगत् की सहायता करना चाहते हैं, उन्हें अपने ध्यान हेतु इस स्थान का चुनाव करना चाहिए। एक भक्त को हृदय पर जो कि भावना तथा अनुभव का स्थान है, ध्यान करना चाहिए। जो हृदय पर ध्यान करते हैं, उन्हें महानू आनन्द की प्राप्ति होती है। जो आनन्द प्राप्त करना चाहते हैं, उन्हें हृदय पर ध्यान करना चाहिए।

 

एक हठयोगी अपना मन सुषुम्ना नाड़ी जो कि मेरुरज्जु का मध्य मार्ग है तथा किसी विशेष चक्र जैसे मूलाधार, मणिपूर अथवा आज्ञा चक्र पर एकाग्र करता है। कुछ योगी निम्न चक्रों की उपेक्षा करते हैं। वे अपने मन को आज्ञा चक्र पर ही एकाग्र करते हैं। उनका सिद्धान्त यह है कि वे आज्ञा चक्र पर नियन्त्रण के द्वारा सभी निम्न चक्रों पर स्वयं ही नियन्त्रण कर सकेंगे। जब आप किसी चक्र पर धारणा करते हैं, तो प्रारम्भ में मन तथा उस चक्र के मध्य तन्तु जैसा सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। इसके पश्चात् योगी सुषुम्ना के साथ-साथ एक-एक चक्र ऊपर चढ़ता चला जाता है। यह उत्थान धैर्यपूर्वक प्रयत्न द्वारा शनैः-शनैः होता है सुषुम्ना के प्रवेश द्वार में हलचल होने से अत्यधिक आनन्द की प्राप्ति होती है। तब आप मदमस्त हो जाते हैं। आप संसार को पूर्णतः विस्मृत कर देंगे। सुषुम्ना के द्वार में स्पन्दन होने पर कुलकुण्डलिनी शक्ति सुषुम्ना में प्रवेश करने का प्रयत्न करती है और अन्तर में महान् वैराग्य जाता है। आप पूर्ण निर्भय हो जाते हैं। आपको अनेक दृश्य दिखायी देते हैं। आप श्रेष्ठ अन्तर्ज्योतियों के साक्षी बनते हैं। इसे उन्मनी अवस्था कहते हैं। विभिन्न चक्रों पर नियन्त्रण द्वारा आपको अनेक प्रकार के आनन्द तथा विभिन्न ज्ञान प्राप्त होते हैंजैसे यदि आपने मूलाधार पर विजय प्राप्त कर ली है, तो आपने भूमण्डल पर स्वयं ही विजय प्राप्त कर ली है। यदि आपने मणिपूर चक्र पर विजय प्राप्त कर ली है, तो आपने अग्नि पर स्वयं ही विजय पा ली है, अब अभि आपको नहीं जला सकती। पंच धारणा आपको पंच तत्त्वों पर विजय में सहायक सिद्ध होगी। इनको किसी दक्ष योगी के निर्देशन में सीखें

. धारणा हेतु निर्देश

 

मन को किसी एक विचार पर केन्द्रित करना धारणा कहलाती है। धारणा में मन शान्त एवं स्थिर हो जाता है। इसमें मन की विभिन्न किरणें एकत्रित करके ध्यान के विषय पर एकाग्र की जाती हैं। मन लक्ष्य पर केन्द्रित हो जाता है। यहाँ मन का किसी प्रकार का विचलन नहीं होगा। एक विचार मन को आपूरित कर लेता है। इसमें मन की समस्त ऊर्जाएं एक विचार पर केन्द्रित हो जाती हैं। इन्द्रियाँ शान्त हो जाती हैं तथा वे कार्य नहीं करतीं। जब धारणा गहन होती है, तो शरीर तथा वातावरण के प्रति कोई चेतना नहीं रहती। जिसकी अच्छी धारणा होती है, वह पलक झपकते ही, बन्द आँखें किये हुए स्पष्ट रूप से ईश्वर का चित्र देख सकता है।

 

मनोराज्य (हवाई किले बनाना) को धारणा नहीं कहते। यह मन का हवा में उड़ान भरना है। इसे धारणा अथवा ध्यान समझने की गलती करें। मन की इस आदत को आत्म-निरीक्षण तथा आत्म-विश्लेषण द्वारा रोकें।

 

यदि आप अपने मन को किसी बिन्दु पर १२ सेकेंड तक केन्द्रित करते हैं, तो यह धारणा है। ऐसी १२ धारणाएँ मिल कर एक ध्यान होंगी१२X१२=१४४ सेकेंड | १२ ऐसे ध्यान २५ मिनट २८ सेकेंड एक समाधि होंगे। वह कूर्मपुराण के अनुसार है। भगवान् के चित्र पर भी धारणा को किया जा सकता है।

 

धारणा तथा प्राणायाम दोनों ही एक-दूसरे पर निर्भर हैं। यदि आप प्राणायाम का अभ्यास करेंगे, तो आपको धारणा प्राप्त होगी। सामान्य रूप से प्राणायाम का अभ्यास धारणा के बाद किया जाता है। अलग-अलग प्रकृति के अनुसार भिन्न-भिन्न अभ्यास हैं। कुछ लोगों को पहले प्राणायाम का अभ्यास करना सरल पड़ता है, जब कि अन्य को पहले धारणा करना सरल पड़ता है।

 

जब धारणा गहन हो जाती है, तो आपको बड़े ही आनन्द तथा आध्यात्मिक उन्माद का अनुभव होगा। आप अपने शरीर तथा चारों ओर के वातावरण आदि सबको भूल जायेंगे। सभी प्राण ऊपर सिर की ओर ले जाये जायेंगे

 

प्राणायाम रजोगुण तथा तमोगुण के उस आवरण को हटाता है, जिसने सत्त्व को आवृत कर रखा है। यह नाड़ियों को शुद्ध करता है। यह मन को दृढ़ एवं स्थिर बनाता है, जिससे वह धारणा हेतु तैयार हो जाता है। प्राणायाम से मन की अशुद्धियाँ उसी प्रकार दूर हो जाती हैं, जैसे स्वर्ण को गलाने पर उसकी अशुद्धियाँ दूर हो जाती हैं।

 

जब आप अत्यन्त रुचि के साथ किसी पुस्तक को पढ़ते हैं, तो आपको अपना लेकर जोरर-जोर से चिल्ला रहे व्यक्ति की आवाज भी नहीं सुनायी देती। यहाँ तक कि आप अपने सामने  खड़े व्यक्ति को भी नहीं देख पाते, अपने पास रखे पुष्पों की सुगन्ध का भी आपको अनुभव नहीं होता। इसे ही धारणा कहते हैं। यहाँ मन एक वस्तु पर दृढ़ता से एकाग्र है। जब आप आत्मा अथवा ईश्वर का चिन्तन करे, तो धारणा ऐसी ही होनी चाहिए। मन को सांसारिक विषय पर केन्द्रित करना बड़ा ही  सरल है; क्योंकि मन आदत के कारण स्वाभाविक रूप से इसमें रुचि लेता है। मस्तिष्क में इसकी लीक कटी हुई है। आपको नित्य ही भगवान् अथवा स्वयं के भीतर स्थित आत्मा पर ध्यान के अभ्यास हेतु मन को प्रशिक्षित करना होगा। फिर मन बाह्य विषयों की ओर नहीं जायेगा, क्योंकि इसे धारणा के अभ्यास से अत्यधिक आनन्द प्राप्त होगा।

 

एक स्वर्णकार एक दस कैरेट स्वर्ण को शुद्ध स्वर्ण में बदलने के लिए इसमें अम्ल मिला कर इसे घरिया में कई बार जलाता है। इसी प्रकार आपको धारणा द्वारा अपने गुरु के निर्देशों तथा उपनिषदों के वाक्यों पर चिन्तन अथवा ध्यान अथवा जप अथवा मानसिक जप द्वारा अपने विषयी मन को शुद्ध करना होगा।

 

प्रारम्भिक अभ्यासियों को ध्यान में झटकों का अनुभव होता है। सिर पैरो हाथों वक्ष अथवा भुजाओं में झटके लग सकते हैं। भीरु लोग अनावश्यक ही इनसे घबरा जाते हैं। इसमें घबराने की कोई बात नहीं है। वास्तव में ध्यान मस्तिष्क की कोशिकाओं, नाड़ियों आदि में परिवर्तन लाता है। इसमें पुरानी कोशिकाएँ, नयाँ शक्तिशाली कोशिकाओं द्वारा स्थानान्तरित की जाती हैं। वे सत्त्व से आपूरित हो जाती है। सात्विक विचार तरंगों के लिए नयी लीकों का, नये मार्गों का निर्माण मस्तिष्क तथा मन में होता है, इसी कारण मांसपेशियाँ थोड़ी उत्तेजित हो जाती हैं। साहसी बनें। साधक के लिए साहस एक महत्त्वपूर्ण गुण एवं योग्यता है। इस सद्गुण का अर्जन कीजिए।

 

सही आसन में बैठें। नेत्रों को बन्द कर लें। कल्पना करें कि सर्वत्र ईश्वर के सिवा और कुछ भी नहीं है।

 

जैसा कि आप सभी जानते ही हैं कि बीजगणित को समझने के लिए अंकगणित का प्रारम्भिक ज्ञान आवश्यक है, संस्कृत के काव्य तथा वेदान्त के ग्रन्थ लघु सिद्धान्त कौमुदी और तर्क संग्रह के प्रारम्भिक ज्ञान के बिना नहीं समझे जा सकते। इसी प्रकार निर्गुण निराकार ब्रह्म पर ध्यान प्रारम्भ में स्थूल प्रतीक के बिना सम्भव नहीं है। दृश्य एवं ज्ञात के द्वारा अदृश्य एवं अज्ञात तक पहुँचने का प्रयास करें।

 

जितना अधिक आप ईश्वर में मन को एकाग्र करेंगे। आपका मन उतनी ही शक्ति अर्जित करेगा। अधिक धारणा अर्थात् अधिक ऊर्जा। धारणा प्रेम अथवा अनन्तता के साम्राज्य के आन्तरिक प्रकोष्ठों को खोलती है। धारणा ज्ञान के कोष को खोलने की एकमात्र चाबी है।

 

धारणा करें। ध्यान करें। गहन चिन्तन-शक्ति का विकास करें। अनेक जटिल बिन्दु तब एकदम स्पष्ट हो जायेंगे। आपको अपने भीतर से ही उत्तर एवं हल प्राप्त होंगे।

 

अपने ज्ञान एवं साक्षात्कार की पुष्टि हेतु शुकदेव जी को राजा जनक के पास जाना पड़ा था। राजा जनक ने अपने दरबार में उनकी परीक्षा ली थी। उन्होंने शुकदेव का ध्यान भटकाने के लिए अपने महल के चारों ओर नृत्य एवं संगीत की सभाएँ आयोजित की और शुकदेव को हाथ में एक दूध से भरा हुआ प्याला ले कर महल के तीन चक्कर लगाने के लिए कहा, लेकिन प्याले से दूध की एक भी बूँद नहीं गिरनी चाहिए थी। शुकदेव जी तो अपनी आत्मा में पूर्ण स्थित थे, इसलिए वे परीक्षा में पूर्ण सफल रहे। कोई भी उनके मन को विचलित नहीं कर सकता था।

 

धारणा का अभ्यास धीरे-धीरे स्थिरतापूर्वक करें। इसके अभ्यास से आप नरश्रेष्ठ बन जायेंगे।

 

आपको प्रारम्भ में मन को उसी तरह बहलाना होगा, जिस प्रकार बच्चे को बहलाते हैं। मन भी एक अज्ञानी बच्चे की तरह है। मन से कहें- "अरे मन, तुम मिथ्या निरर्थक नाशवान् वस्तुओं के पीछे क्यों भागते हो? तुम्हें इसमें अनेक कष्ट होंगे। भगवान् कृष्ण की ओर देखो, जो सर्वाधिक सौन्दर्यशाली हैं। इससे तुम्हें नित्य आनन्द की प्राप्ति होगी। तुम संसार के प्रेम गीतों को सुनने के लिए क्यों भागते हो? भगवान् के भजन सुनो। आत्मा को झंकृत करने वाले कीर्तनों को सुनो। तुम्हारा उत्थान होगा।" इस प्रकार मन धीरे-धीरे अपनी पुरानी बुरी आदत को छोड़ देगा और स्वयं भगवान् के चरणों में एकाग्र हो जायेगा। जब यह रजोगुण एवं तमोगुण से मुक्त हो जायेगा, तो यह आपका पथ-प्रदर्शन करेगा। तब यह आपका गुरु होगा।

 

जैसे ही आप ध्यान के लिए बैठें, का तीन से छह बार उच्चारण करें। यह आपके मन से सभी सांसारिक विचारों को दूर करेगा तथा विक्षेपों को दूर हटायेगा। इसके बाद मानसिक रूप से का जप करें।

 

सभी अन्य संवेदनात्मक अनुभवों एवं विचारों की उपेक्षा करें। मन के भीतर परस्पर सम्बन्धी कार्यों से उत्पन्न जटिलताओं को रोकें। मन को एक ही विचार पर लगायें ।मन की अन् सभी गतिविधियों को बन्द कर दें। अब सम्पूर्ण मन एक ही विचार से परिपूर्ण होगा जिस प्रकार एक ही विचार अथवा एक ही कार्य की पुनरावृत्ति से उस विचार अथवा कार्य में दक्षता आती है, उसी प्रकार एक ही क्रिया अथवा विचार की पुनरावृत्ति से विचारों के एकीकरण, धारणा तथा ध्यान में दक्षता आती है।

 

प्रारंभ में मन को एक ही विचार पर लगाना अत्यन्त कठिन होगा। विचारों की संख्या में कमी करें। एक ही विषय पर विचार करने का प्रयत्न करें। यदि आप गुलाब के बारे में विचार कर रहे हो, तो मात्र गुलाब से ही सम्बन्धित सभी विचार होने चाहिए। आप संसार के विभिन्न भागों में उगने वाले विभिन्न प्रकार के गुलाबों के बारे में सोच सकते है। निर्मित होने वाली विभिन्न चीजों के बारे में भी विचार कर सकते हैं। मन की निरुद्देश्य रूप से इधर-उधर भटकने की अवस्था को रोकें। गुलाब के बारे में विचार करें, तो निर्थक रूप से आने वाले अन्य विचारों को रखें   धीरे-धीरे आप मन को मात्र एक ही विचार पर केन्द्रित कर सकेंगे। आपको नित् ही मन पर संयम करना होगा। विचार-नियन्त्रण हेतु सदैव जागरूक रहना आवश्यक है।" |

 

कामनाओं तथा आवश्यकताओं में कमी, एक या दो घण्टे नित्य मौन एक एकान्त कमरे में एक या दो घण्टे रहने, प्राणायाम के अभ्यास, प्रार्थना, नित्य ध्यान की बैठकों में वृद्धि तथा विचार आदि के द्वारा धारणा में वृद्धि होती है।

 

आपको सदैव उत्साहपूर्ण तथा शान्तिपूर्ण रहने का प्रयत्न करना चाहिए, तभी आपको मन की धारणा प्राप्त होगी। बराबर वालों के साथ मैत्री, छोटों तथा दुखी करें के प्रति करुणा, गुणी और वरिष्ठ जनों के प्रति मुदिता तथा पापी एवं दुर्जनों के प्रति उपेक्षा के भाव का अभ्यास करने से प्रसन्नता एवं शान्ति उत्पन्न होती है तथा घृणा और ईर्ष्या का नाश होता है।

 

विचारों की संख्या में कमी से धारणा में वृद्धि होती है। विचारों की संख्या में कमी करना निश्चय ही पहाड़ पर चढ़ने के समान दुष्कर प्रतीत होगा। प्रारम्भ में यह आपको बहुत थका देगा, यह कार्य अरुचिकर भी अनुभव होगा; लेकिन बाद में आपको आनन्द भी देगा, क्योंकि विचारों में कमी से आपको मन की प्रचुर शक्ति तथा आन्तरिक शान्ति प्राप्त होगी। धैर्य, अध्यवसाय, जागरूकता और दृढ संकल्प से सुसज्जित हो कर आप विचारों को सन्तरे अथवा नीबू की भाँति आसानी से कुचल सकेंगे।

 

इनको कुचलने के बाद इन्हें उखाड़ फेंकना आपके लिए अधिक सरल होगा। इन्हें कुचलना अथवा दबाना मात्र पर्याप्त नहीं होगा। इससे पुनः विचारों का पुनर्जीवन होगा। इन्हें उसी प्रकार पूर्णतया उखाड़ फेंकना चाहिए, जिस प्रकार हिलते हुए दाँत को जड़ से उखाड़ दिया जाता है। मौन धारण, प्राणायाम के अभ्यास, आत्म-संयम, कठोर साधना तथा मानसिक रूप से अधिक निरासक्ति के भाव के अर्जन के द्वारा धारणा का विकास किया जा सकता है।

 

जाग्रत एवं स्वप्नावस्था के मध्य की सन्धि पर धारणा का अभ्यास एवं इस सन्धि-काल को बढ़ाना दोनों ही कठिन है। रात्रि के समय शान्त कमरे में बैठें और सावधानीपूर्वक मन को देखें। आप सन्धि की स्थिति को प्राप्त करने योग्य हो जायेंगे। तीन माह तक नियमित अभ्यास करें। आपको सफलता मिलेगी।

 

अपनी गतिविधियों में कमी करें। आपको और अधिक धारणा एवं आन्तरिक जीवन प्राप्त होगा।

 

यदि आपको कमरे के भीतर मन को एकाग्र करने में कठिनाई का अनुभव हो, तो बाहर जायें, खुले स्थान पर, छत पर, नदी के किनारे अथवा बगीचे के शान्त कोने में बैठ जायें। आपकी धारणा अच्छी होगी।

 

जैसे ही आप टार्च का बटन दबाते हैं, पलक झपकते ही प्रकाश चमकता है। इसी प्रकार योगी धारणा करके आज्ञा चक्र (दोनों भौंहों के मध्य स्थान पर) का बटन दबाता है और तत्काल दैवी प्रकाश चमकता है।

. अन्तर्मुख एवं बहिर्मुख वृत्तियाँ

अन्तर्मुख- वृत्ति

 

आपको अन्तर्मुख-वृत्ति मात्र तभी प्राप्त हो सकती है, जब आपने मन को बाहर ले जाने वाली समस्त शक्तियों को नष्ट कर दिया हो। सत्त्व में वृद्धि के कारण मन की ऊर्जा को भीतर की ओर खींचना अन्तर्मुख-वृत्ति है।

 

आपको योग की क्रिया प्रत्याहार के द्वारा मन को अन्तरावलोकन करने अर्थात् इसको स्वयं की ओर भीतर की ओर मोड़ने की क्रिया को सीखना चाहिए। जिनको इस क्रिया का ज्ञान होता है, वे ही शान्ति से पूर्ण होते हैं तथा मात्र वे ही प्रसन्न रहते हैं। मन में अब किसी प्रकार का विध्वंस नहीं होता। मन अब स्वयं बाहर नहीं निकल सकता ! इसे अब हृदय-गुहा में रखा जा सकता है। त्याग और वैराग्य (कामनाओं, विषयों तथा अहंकार के त्याग) द्वारा आपको मन को भूखा रखना चाहिए।

 

जब मन की बाहर जाने वाली वृत्तियाँ रोक ली जाती है, जब मन हृदय में ही रुका रहता है, जब इसका पूरा ध्यान स्वयं ही मात्र इसी की ओर ही मुड़ जाता है, तो इस अवस्था को अन्तर्मुख-वृत्ति कहते हैं। जब साधक को यह अन्तर्मुख-वृत्ति प्राप्त हो जाती है, तो वह अधिक साधना कर सकता है। वैराग्य तथा अन्तरावलोकन इस मानसिक अवस्था की प्राप्ति में बड़े ही सहायक होते हैं।

 

बहिर्मुख वृत्ति

 

रजोगुण के कारण मन के बाहर की ओर जाने वाली वृत्ति को बहिर्मुख-वृत्ति कहते हैं। पुरानी आदत के प्रभाव से कान और नेत्र तुरन्त बाहर से आती हुई ध्वनि की ओर जाते हैं। विषय और कामनाएँ बाहर की ओर जाने वाली शक्तियाँ है। एक राजसिक मनुष्य अन्तर्मुख-वृत्ति वाले अन्तर आध्यात्मिक जीवन का स्वप्न भी नहीं देख सकता वह अन्तरावलोकन हेतु पूर्ण अयोग्य है।

 

जब दृष्टि बाहर की ओर जाती है, तो बदलते हुए परिदृश्य मन को आपूरित कर लेते हैं। मन की