बालकों के लिए
दिव्य जीवन सन्देश
DIVINE LIFE FOR CHILDREN
का अविकल अनुवाद
लेखक
श्री स्वामी शिवानन्द सरस्वती
अनुवादक
श्री त्रि. न. आत्रेय
प्रकाशक
द डिवाइन लाइफ सोसायटी
पत्रालय : शिवानन्दनगर—२४९१९२
जिला : टिहरी गढ़वाल, उत्तराखण्ड (हिमालय), भारत
www.sivanandaonline.org, www.dlshq.org
प्रथम हिन्दी संस्करण : १९६६
सप्तम हिन्दी संस्करण : २०१५
अष्टम हिन्दी संस्करण : २०१९
(१,००० प्रतियाँ)
© द डिवाइन लाइफ ट्रस्ट सोसायटी
ISBN 81-7052-062-2
HS 10
PRICE : ₹ 100/-
'द डिवाइन लाइफ सोसायटी, शिवानन्दनगर' के लिए
स्वामी पद्मनाभानन्द द्वारा प्रकाशित तथा उन्हीं के द्वारा 'योग-वेदान्त
फारेस्ट एकाडेमी प्रेस, पो. शिवानन्दनगर, जि. टिहरी गढ़वाल,
उत्तराखण्ड, पिन २४९१९२' में मुद्रित ।
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'ॐ'
जो कल देश के नागरिक बनेंगे,
जिन पर राष्ट्र की भावी आशा केन्द्रित है,
उन सुकुमार- हृदय बालकों को
सप्रेम समर्पित
'ॐ'
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गजाननं भूतगणाधिसेवितं
कपित्थजम्बूफलसारभक्षणम् ।
उमासुतं शोकविनाशकारणं
नमामि विघ्नेश्वरपादपंकजम्।।
मैं उमासुत विघ्नेश्वर गणेश के चरण-कमलों की वन्दना करता हूँ जो दुःखों का नाश करते हैं, भूतगण तथा देवगण जिनकी सेवा करते हैं, जिनका मुँह हाथी का है और जो कपित्थ और जम्बूफल का सार ग्रहण करते हैं।
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वरः ।
गुरुः साक्षात् परंब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः ।।
मैं उन सद्गुरु को प्रणाम करता हूँ जो स्वयं ब्रह्मा, विष्णु और महेश हैं और जो साक्षात् परब्रह्म हैं।
शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभांगम्।
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यम्
वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्।।
मैं विष्णु की वन्दना करता हूँ जिनकी आकृति शान्त है, जो शेषनाग की शय्या पर शयन करते हैं, जिनकी नाभि में कमल है, जो देवताओं के भी ईश्वर हैं और सम्पूर्ण विश्व के आधार हैं तथा आकाश के समान सर्वत्र व्याप्त हैं, जिनका रंग नीलमेघ के समान है, जिनका शरीर अत्यन्त सुन्दर है, जो लक्ष्मीपति हैं, जिनके नेत्र कमल के समान हैं, जो योगियों को ध्यान द्वारा मिलते हैं, जो जन्म-मरण-रूपी भय का नाश करने वाले और सभी लोकों के एकमात्र स्वामी हैं।
१. ब्राह्ममुहूर्त - जागरण- नित्यप्रति प्रातः चार बजे उठिए। यह ब्राह्ममुहूर्त ईश्वर के ध्यान के लिए बहुत
अनुकूल है।
२. आसन - पद्मासन, सिद्धासन अथवा सुखासन पर जप तथा ध्यान के लिए आधे घण्टे के लिए पूर्व
अथवा उत्तर दिशा की ओर मुख करके बैठ जाइए। ध्यान के समय को शनैः-शनैः तीन घण्टे तक बढ़ाइए । ब्रह्मचर्य तथा स्वास्थ्य के लिए शीर्षासन अथवा सर्वांगासन कीजिए। हलके शारीरिक व्यायाम (जैसे टहलना आदि) नियमित रूप से कीजिए। बीस बार प्राणायाम कीजिए ।
३. जप - अपनी रुचि या प्रकृति के अनुसार किसी भी मन्त्र (जैसे 'ॐ', 'ॐ नमो नारायणाय', 'ॐ नमः
शिवाय', 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय', 'ॐ श्री शरवणभवाय नमः', 'सीताराम', 'श्री राम', 'हरि ॐ' या गायत्री) का १०८ से २१,६०० बार प्रतिदिन जप कीजिए (मालाओं की संख्या १ और २०० के बीच ) ।
४. आहार-संयम- शुद्ध सात्त्विक आहार लीजिए। मिर्च, इमली, लहसुन, प्याज, खट्टे पदार्थ, तेल, सरसों तथा
हींग का त्याग कीजिए। मिताहार कीजिए। आवश्यकता से अधिक खा कर पेट पर बोझ न डालिए। वर्ष में एक या दो बार एक पखवाड़े के लिए उस वस्तु का परित्याग कीजिए जिसे मन सबसे अधिक पसन्द करता है। सादा भोजन कीजिए। दूध तथा फल एकाग्रता में सहायक होते हैं। भोजन को जीवन-निर्वाह के लिए औषधि के समान लीजिए। भोग के लिए भोजन करना पाप है। एक माह के लिए नमक तथा चीनी का परित्याग कीजिए। बिना चटनी तथा अचार के केवल चावल, रोटी तथा दाल पर ही निर्वाह करने की क्षमता आपमें होनी चाहिए। दाल के लिए और अधिक नमक तथा चाय, काफी और दूध के लिए और अधिक चीनी न माँगिए ।
५. ध्यान कक्ष- ध्यान कक्ष अलग होना चाहिए। उसे ताले- कुंजी से बन्द रखिए ।
६. दान — प्रतिमाह अथवा प्रतिदिन यथाशक्ति नियमित रूप से दान दीजिए अथवा एक रुपये में दस
पैसे के हिसाब से दान दीजिए।
७. स्वाध्याय— गीता, रामायण, भागवत, विष्णुसहस्रनाम, आदित्यहृदय, उपनिषद्, योगवासिष्ठ, बाइबिल,
जेन्द-अवस्ता, कुरान आदि का आधा घण्टे तक नित्य स्वाध्याय कीजिए तथा शुद्ध विचार रखिए ।
८. ब्रह्मचर्य— बहुत ही सावधानीपूर्वक वीर्य की रक्षा कीजिए। वीर्य विभूति है। वीर्य ही सम्पूर्ण शक्ति है।
वीर्य ही सम्पत्ति है। वीर्य जीवन, विचार तथा बुद्धि का सार है।
९. स्तोत्र - पाठ - प्रार्थना के कुछ श्लोकों अथवा स्तोत्रों को याद कर लीजिए। जप अथवा ध्यान आरम्भ करने से
पहले उनका पाठ कीजिए । इसमें मन शीघ्र ही समुन्नत हो जायेगा।
१०. सत्संग — निरन्तर सत्संग कीजिए। कुसंगति, धूम्रपान, मांस,शराब आदि का पूर्णतः त्याग कीजिए।
बुरी आदतों में न फँसिए।
११. व्रत — एकादशी को उपवास कीजिए या केवल दूध तथा फल पर निर्वाह कीजिए।
१२. जप - माला जप माला को अपने गले में पहनिए अथवा जेब में रखिए। रात्रि में इसे तकिये के नीचे
रखिए।
१३. मौन व्रत – नित्यप्रति कुछ घण्टों के लिए मौन-व्रत कीजिए ।
१४. वाणी-संयम- प्रत्येक परिस्थिति में सत्य बोलिए। थोड़ा बोलिए। मधुर बोलिए।
१५. अपरिग्रह — अपनी आवश्यकताओं को कम कीजिए। यदि आपके पास चार कमीजें हैं, तो इनकी संख्या
तीन या दो कर दीजिए। सुखी तथा सन्तुष्ट जीवन बिताइए। अनावश्यक चिन्ताएँ त्यागिए । सादा जीवन व्यतीत कीजिए तथा उच्च विचार रखिए।
१६. हिंसा-परिहार-कभी भी किसी को चोट न पहुँचाइए (अहिंसा परमो धर्मः) । क्रोध को प्रेम, क्षमा तथा दया से
नियन्त्रित कीजिए ।
१७. आत्म-निर्भरता-सेवकों पर निर्भर न रहिए। आत्म- निर्भरता सर्वोत्तम गुण है।
१८. आध्यात्मिक डायरी - सोने से पहले दिन भर की अपनी गलतियों पर विचार कीजिए। आत्म-विश्लेषण
कीजिए। दैनिक आध्यात्मिक डायरी तथा आत्म-सुधार रजिस्टर रखिए। भूतकाल गलतियों का चिन्तन न कीजिए। की
१९. कर्तव्य पालन — याद रखिए, मृत्यु हर क्षण आपकी प्रतीक्षा कर रही है। अपने कर्तव्यों का पालन करने में
न चूकिए। सदाचारी बनिए।
२०. ईश-चिन्तन- प्रातः उठते ही तथा सोने से पहले ईश्वर का चिन्तन कीजिए। ईश्वर को पूर्ण आत्मार्पण
कीजिए।
यह समस्त आध्यात्मिक साधनों का सार है। इससे आप मोक्ष प्राप्त करेंगे। इन नियमों का दृढ़तापूर्वक पालन करना चाहिए। अपने मन को ढील न दीजिए।
(१) जन्म ही मृत्यु का कारण है।
(२) दुःख का कारण सुख है।
(३) सदाचार सब धर्मों की आधारशिला है।
(४) सदाचार दिव्य मार्ग है।
(५) सदाचार ही आनन्द प्राप्त करा सकता है।
(६) कामना ही दरिद्रता है।
(७) ध्यान एक रचनात्मक, अत्यावश्यक और गतिशील प्रक्रिया है।
(८) भले बनो। भला करो। सेवा करो। प्रेम करो। दान दो। पवित्र बनो। ध्यान करो। भगवान् का साक्षात्कार
करो। यह शिव का धर्म है। यह दिव्य जीवन संघ के सदस्यों का धर्म है।
(९) कृपालु रहो। दयालु रहो। ईमानदार रहो। निष्कपट रहो। सत्यनिष्ठ बनो। शूर बनो। शुद्ध रहो। बुद्धिमान्
बनो। नेक बनो। विचार करो— 'मैं कौन हूँ।' आत्मा को जानो और मुक्ति पाओ। शिव की शिक्षा का यह सार-संक्षेप है।
(१०) अपना पूरा जीवन प्रभु को समर्पित कर दो। वह हर प्रकार से तुम्हारी देखभाल करेगा और तुम्हें कोई
चिन्ता नहीं रहेगी।
(११) दिव्य जीवन प्रेम, ज्ञान और प्रकाश का जीवन है।
(१२) उठो । हे साधको! कड़ी साधना करो। सारी अशुद्धता जला दो। ध्यान के द्वारा प्रबोधन प्राप्त करो।
यस्य देवे परा भक्तिः यथा देवे तथा गुरौ ।
तस्यैते कथिता ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः ।।
'आध्यात्मिक सत्य केवल उसी मनुष्य के सामने प्रकट होते हैं। जिसके मन में ईश्वर के प्रति अगाध भक्ति हो और उतनी ही अगाध भक्ति 'अपने गुरु के प्रति भी हो'—यह उपनिषदों का कहना है। परम तत्त्व अथवा ईश्वर जो कि मन और इन्द्रियों से, बुद्धि-व्यापार और तर्क से परे है, सैकड़ों वर्षों तक भी ग्रन्थों के पढ़ने या बौद्धिक कसरत करते रहने से ज्ञात नहीं हो सकता। इस तरह की पढ़ाई करने वाले व्यक्ति से परम तत्त्व उतना ही दूर है जितना कि अफ्रीका के किसी आदिवासी से चीनी वर्णमाला।
दूसरी ओर गुरु का एक भी शब्द, गुरु के हाथ का एक भी स्पर्श, गुरु का एक भी विचार साधक की प्रज्ञा को जगाने और परम तत्त्व या ईश्वर का सहजानुभूत साक्षात्कार कराने में समर्थ हो सकता है। वह गुरु के साथ आध्यात्मिक तादात्म्य स्थापित कर सके। वह इस योग्यता को कैसे प्राप्त करेगा ? श्रीकृष्ण ने कहा है :
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ।।
आत्म-साक्षात्कार करने वाले ज्ञानी पुरुषों को भली प्रकार दण्डवत् प्रणाम तथा उनकी सेवा और उनसे निष्कपट भाव से प्रश्न करके परम ज्ञान को जान। वे तुझे प्रबुद्ध करेंगे। अर्थात् साधक नम्रता, जिज्ञासा तथा सेवा के गुणों द्वारा उपर्युक्त योग्यता प्राप्त कर सकता है।
इस उज्ज्वल सत्य का ज्वलन्त उदाहरण (शंकराचार्य के चार प्रसिद्ध शिष्यों में से एक) त्रोटक है। वह शास्त्रों का अध्ययन करने के बजाय गुरु की सेवा में ही रत रहा। अन्त में श्री शंकराचार्य ने केवल एक संकल्प से त्रोटक को परम ज्ञान प्रदान किया और इस प्रकार त्रोटक ने गुरु की सेवा करके ही सभी शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त कर लिया।
इसलिए निष्ठावान् साधक की इस बात में दृढ़ श्रद्धा होती है कि :
ध्यानमूलं गुरोर्मूर्तिः पूजामूलं गुरोः पदम् ।
मन्त्रमूलं गुरोर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरोः कृपा ।।
गुरु की मूर्ति ही ध्यान करने योग्य है। गुरु के चरण ही पूजा के पात्र हैं। गुरु के वचन ही वेदवाक्य हैं और गुरु की कृपा ही मोक्ष का आधार है।
मैं तुम्हें एक सन्त की कहानी सुनाऊँगा। वे ईश्वरीय पुरुष हैं। ईश्वरीय पुरुष समस्त मानव-जाति के लिए वरदान होता है। वह सबका सच्चा उपकारक होता है। वह सबको ईश्वर के मार्ग पर ले चलता है। वह प्रसन्नता का मार्ग प्रशस्त करता है। वह एकता और प्रेम की शिक्षा देता है। ईश्वरीय पुरुष दुर्लभ होता है। उसे साक्षात् ईश्वर ही मान कर उसकी पूजा की जाती है।
इस सन्त का जन्म ८ सितम्बर १८८७ को हुआ था। वह एक अच्छे बालक थे। अपनी बाल्यावस्था से ही वह दयालु, सदाचारी तथा ईश्वर भक्त थे । वह बहुत परिश्रमी थे। वह अपनी पढ़ाई मन लगा कर करते थे। वह अच्छे कसरती थे। उनका जीवन सभी दृष्टियों से विकसित था । तुम्हें भी उनकी तरह बनना चाहिए। जब काम करने का समय हो तब काम करना चाहिए। खेलने के समय खेलना चाहिए। अपने शरीर की भी चिन्ता तुम्हें रखनी चाहिए और उसे स्वस्थ बनाना चाहिए। अपनी मानसिक शक्ति और बुद्धि का विकास भी तुम्हें करना चाहिए।
स्कूल की पढ़ाई समाप्त करने के बाद वह मेडिकल कालेज में पढ़ने गये। उनका लक्ष्य रोगियों की सेवा करना था। मेडिकल कॉलेज में वह पहले से भी अधिक प्रतिभाशाली विद्यार्थी बन गये। पढ़ाई के दूसरे वर्ष में पहुँचते-पहुँचते वह पांचवें वर्ष के विद्यार्थियों के समान योग्य बन गये।
फिर उन्होंने नौकरी कर ली। उन्हें धन की चिन्ता नहीं रहती थी। दिन-रात कभी भी रोगी उनके घर में पहुँच जाते थे। उन्होंने एक पत्रिका निकाली। इस पत्रिका में वे स्वास्थ्य और सफाई से सम्बन्धित लेख प्रकाशित किया करते थे । तुम्हें भी स्वास्थ्य की सफाई की जानकारी होनी चाहिए। तभी तुम दूसरों की सेवा ठीक से कर सकते हो।
बंगाल की खाड़ी के उस पार मलाया में— जहाँ चाय के बड़े-बड़े बगीचे हैं— जोहोर - बहरू स्थित एक अस्पताल में किसी अच्छे डाक्टर की जरूरत थी। वह वहाँ डाक्टर बन कर चले गये। वह रात-दिन रोगियों की सेवा करने लगे। जल्दी ही वह एक प्रसिद्ध डाक्टर बन गये। उन्होंने सबका दिल जीत लिया। इतने दिनों बाद आज भी मलाया के लोग उनको याद करते हैं और उनके प्रति कृतज्ञ हैं। सच्ची सेवा की यही महिमा है। उन्होंने बहुत धन अर्जित किया। इस धन को वे दान में दे देते थे । उनका हृदय बहुत विशाल था ।
सन् १९२३ में उन्होंने संसार का त्याग कर दिया। उन्होंने नौकरी से इस्तीफा दे दिया। अपनी सम्पत्ति उन्होंने गरीबों में बाँट दी। वह भारत लौट आये और साधु बन गये। भिक्षा माँग कर जो-कुछ मिलता, उसे खा लेते और सड़क की पटरी पर सोये रहते। कितनी तकलीफ उठाते थे वह ! मलाया में तो वह राजाओं के ठाटबाट से रहते थे। एकदम से वह गरीबी का जीवन व्यतीत करने लगे। त्याग में इतनी शक्ति होती है!
वह स्वर्गाश्रम (ऋषिकेश) में रहने लगे। सन् १९२८ में उन्होंने संन्यास ग्रहण किया। अब वह संन्यासी या स्वामी बन गये। स्वामी डाक्टर के रूप में रोगियों की सेवा करते रहे। सेवा करना उन्हें बहुत अच्छा लगता था। वह हमेशा अपने साथ दवाइयों का एक छोटा बक्सा रखते थे। वे गम्भीर रोगों का भी निर्भय हो कर इलाज करते थे। उनके हाथ में रोगियों को ठीक करने की एक दिव्य शक्ति थी। वह जिस रोगी को भी छू लेते, वह ठीक हो जाता। उनके पास थोड़ा धन बचा था, लेकिन उसे वह अपने ऊपर खर्च नहीं करते थे। वह भिक्षा माँग कर जीवन निर्वाह कर लेते थे और उस धन से रोगियों के लिए फल-दूध खरीद लिया करते थे। उनका हृदय दया का सागर था।
उन्होंने ब्रह्म का साक्षात्कार किया। उनका व्यक्तित्व बहुत ओजस्वी था। लोग उन्हें देख कर उनकी ओर आकर्षित हो जाते थे। अगणित साधक उनके पास पहुँचे। कई साधक उनके शिष्य बन गये। वे उन्हें योग-शिक्षा दिया करते थे। वे योग पर लेख भी लिखते थे। ये लेख विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित होते थे। उन्होंने छोटी-छोटी किताबें भी लिखीं। चिकित्सा के बाद पुस्तक-लेखन के माध्यम से उन्होंने दूसरी महत्त्वपूर्ण सेवा की।
जिस स्थान पर वे रहते थे, वह स्थान धीरे-धीरे आश्रम बन गया। सन् १९३६ में उन्होंने एक संघ (सोसायटी) की स्थापना की। इसका नाम 'दिव्य जीवन संघ' (द डिवाइन लाइफ सोसायटी) है। यह एक बहुत बड़ी संस्था बन गया है। इसकी शाखाएँ पूरे विश्व भर में हैं। साधकों को प्रशिक्षण देने के लिए उन्होंने 'योग-वेदान्त फारेस्ट एकाडेमी' भी स्थापित की। इन सबके द्वारा उन्होंने पूरे विश्व की सेवा की। सेवा ही उनके जीवन का लक्ष्य था । सेवा के ही कारण वह एक महान् सन्त बन गये ।
उन्होंने योग पर ३०० से अधिक पुस्तकें लिखीं। सारा विश्व उनकी पूजा करता था। इसके बावजूद वह बच्चों की तरह सरल थे। वह अत्यन्त सहज थे, दयालु थे, स्नेहमय थे, बुद्धिमान् थे। उन्होंने हमेशा अपने को एक विद्यार्थी ही समझा। वे हमेशा अधिक-से-अधिक ज्ञान अर्जित करने को उत्सुक रहते थे। उनके मुँह से कटु शब्द कभी भी नहीं निकले। उन्होंने सबको मान-सम्मान दिया। वे सबके सम्मुख श्रद्धा से झुक जाते थे। उन्होंने सदैव दूसरों की भलाई के लिए कार्य किया। वे सदैव ही बहुत सक्रिय रहे। अपने कार्य तथा साधना में वे नियमित भी रहे। वे शान्त स्वभाव के थे तथा सदैव प्रसन्न रहते थे। उनके व्यक्तित्व से प्रसन्नता की किरणें फूटी पड़ती थीं।
किसी भी घटना या व्यक्ति का उनके ऊपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता था। वे शान्तिमय थे । जिन महान् सन्त की यह कहानी है, उनका नाम है स्वामी शिवानन्द । उन्होंने ही तुम्हारे लिए इस पुस्तक में बड़ी सुन्दर और शिक्षाप्रद कहानियाँ लिखी हैं।
-स्वामी वेंकटेशानन्द
प्रिय अमृत - पुत्र !
आप मातृभूमि की भावी आशा हैं। आप कल बनने वाले नागरिक हैं। आपको सर्वदा जीवन के लक्ष्य पर विचार करना चाहिए और उसे प्राप्त करने के लिए ही जीवन बनाना चाहिए। जीवन का लक्ष्य है सर्व दुःखों की की प्राप्ति या जन्म मरण से आत्यन्तिक निवृत्ति अथवा कैवल्य-पद की प्राप्ति छुटकारा ।
सुव्यवस्थित नैतिक जीवन-यापन कीजिए। नैतिक बल आध्यात्मिक उन्नति का पृष्ठवंश है। चारित्र्य-गठन आध्यात्मिक साधना का एक मुख्य अंग है। ब्रह्मचर्य का पालन कीजिए। ब्रह्मचर्य के पालन से अनेक पूर्वकालीन ऋषियों ने अमृतत्व प्राप्त किया था। यह नवीन शक्ति, वीर्य, बल, जीवन में सफलता और जीवन के उपरान्त नित्य-सुख का स्रोत है। वीर्य के नाश से रोग, क्लेश और अकाल-मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं; इसलिए वीर्य-रक्षा के लिए विशेष सावधान रहो।
ब्रह्मचर्य के अभ्यास 'अच्छा स्वास्थ्य, आन्तरिक शक्ति, मानसिक शान्ति और दीर्घ जीवन प्राप्त होते हैं। यह मन और स्नायुओं को सबल बनाता है, शारीरिक और मानसिक शक्ति के संचय में सहायता देता है। यह बल और साहस की वृद्धि करता है। इससे जीवन के दैनिक संग्राम में कठिनाइयों का सामना करने के लिए बल प्राप्त होता है। पूर्ण ब्रह्मचारी विश्व पर शासन कर सकता है। वह ज्ञानदेव के समान पंच-तत्त्वों तथा प्रकृति को नियन्त्रित कर सकता है।
वेदों में तथा मन्त्रों की शक्ति में श्रद्धा बढ़ाओ। नित्य-प्रति ध्यान का अभ्यास करो। सात्त्विक भोजन करो। पेट को ठूंस-ठूंस कर मत भरो। अपनी भूलों के लिए पश्चात्ताप करो। मुक्त-हृदय से अपनी भूलों को स्वीकार करो। झूठ बोल कर या बहाना बना कर अपनी भूल को छिपाने की कभी चेष्टा मत करो। प्रकृति के नियमों का पालन करो। नित्य-प्रति खूब शारीरिक व्यायाम करो। अपने कर्तव्यों का पालन यथा-समय करो। सरल जीवन और उन्नत विचारों का विकास करो। वृथा अनुकरण करना छोड़ दो। कुसंगति से जो बुरे संस्कार बन गये हों, उनकी काया पलट कर दो। उपनिषद्, योगवासिष्ठ, ब्रह्मसूत्र, श्री शंकराचार्य के ग्रन्थ तथा अन्य शास्त्रों का स्वाध्याय करो। इनसे आपको वास्तविक शान्ति और सान्त्वना प्राप्त होगी। कुछ पाश्चात्य दार्शनिकों ने यह उद्गार प्रकट किया है—“जन्म और धर्मानुसार हम ईसाई हैं; किन्तु जिस शान्ति को हमारा मन चाहता है, वह शान्ति उपनिषदों के अध्ययन से ही मिल सकती है।"
सबके साथ मिल कर रहो। सबसे प्रेम करो। अपने को परिस्थितियों के अनुकूल बनाने का प्रयत्न करो और निःस्वार्थ सेवा का भाव विकसित करो। अथक सेवा के द्वारा सबके हृदय में प्रवेश करो। अद्वैत-प्रतिपादित आत्मा की अभिन्नता के साक्षात्कार का यही उपाय है।
-स्वामी शिवानन्द
विषय-सूची
बीस महत्त्वपूर्ण आध्यात्मिक नियम
८. सन्तों की जीवनियों का अध्ययन करो
८. सूर्य की किरणों से आँखों की ज्योति बढ़ती है
३. अपना कर्तव्य भली प्रकार पूरा करो
२०. बड़ों की आज्ञा का पालन करो
१२. आइ. सी. एस. और पी. सी. एस.
१५. ईश्वर तुम्हें मन से चाहेगा
१९. जल्दबाजी से बरबादी होती है।
२०. घमण्ड हमेशा पतन की ओर ले जाता है।
२१. अविवेक की अपनी हानियाँ हैं
२२. स्वार्थ और तुच्छता से 'दुःख भोगना पड़ता है
२३. प्रलोभन से मुसीबत उठानी पड़ती है।
२४. बुराई का बदला भलाई से चुकाओ
२५. अपने प्रति जैसा व्यवहार चाहते हो, वैसा ही दूसरों के साथ करो
२६. दया का अपना पुरस्कार होता है।
२८. शिष्टता और स्वच्छता सबको प्रभावित करती हैं
२९. ईश्वर पर भरोसा रखो और सत्कर्म करो
३०. अपराधी अन्तःकरण अपनी छाया से भी डरता है
३१. आपसी सहायता और सहयोग से सुख मिलता है
३२. अच्छे जीवन से ईश्वरमय जीवन प्राप्त होता है
३३. जो दूसरों के लिए गड्ढा खोदता है, वह खुद उसी गड्ढे में गिरता है
बच्चो, तुम्हें ईश्वर ने बनाया। तुम्हारे भाई, बहन, माता, पिता, मित्र और बन्धु — सबको ईश्वर ने ही बनाया। सूर्य, चन्द्र और तारे ईश्वर ने बनाये। पशु-पक्षियों को उन्होंने बनाया। पर्वत, नदी, वृक्ष आदि उन्हीं ने बनाये और सारा विश्व उन्हीं ने बनाया।
ईश्वर तुम्हारे हृदय में बसते हैं। वह हर जगह हैं। वह सर्वव्यापी हैं, सर्वज्ञ हैं, सर्वशक्तिमान् हैं, परम कृपालु हैं तथा आनन्दमय हैं। तुम्हारा शरीर ईश्वर का चलता-फिरता मन्दिर है। शरीर को शुद्ध, मजबूत और स्वस्थ रखो।
सदा ईश्वर की प्रार्थना करो। वह तुम्हें सब-कुछ देंगे।
ईश्वर प्रेम हैं। ईश्वर सत्य हैं। ईश्वर शान्ति हैं। ईश्वर आनन्द हैं। ईश्वर प्रकाश हैं। ईश्वर शक्ति हैं। ईश्वर ज्ञान हैं। उनका दर्शन करो और मुक्ति पाओ ।
नित्य सुबह-शाम कीर्तन करो। नित्य प्रार्थना करो। ईश्वर को फूल चढ़ाओ। उन्हें नमस्कार करो। मिठाई पहले उन्हें चढ़ाओ, फिर खाओ। उनके आगे दीप रखो, कपूर जलाओ। उनकी आरती उतारो। उन्हें माला पहनाओ:
बालकों के लिए दिव्य जीवन सन्देश अपने कमरे में ईश्वर का चित्र रखो। नित्य उसकी पूजा करो। तुम्हारी सारी कामनाएँ पूरी होंगी।
हे विश्व के स्वामी! आपको नमस्कार! आप मेरे गुरु हैं। आप ही माता हैं, पिता हैं और सही मार्ग-दर्शक हैं। मेरी रक्षा करें। मैं आपका हूँ। सब आपका है। आपकी ही इच्छा पूरी होगी।
हे पूजनीय प्रभु! आपको नमस्कार! मुझे सन्मति दें। मुझे शुद्ध बनायें। मुझे प्रकाश दें, शक्ति दें, स्वास्थ्य दें और दीर्घ आयु दें। मुझे एक अच्छा ब्रह्मचारी बनायें ।
हे सर्वशक्तिमान् प्रभु! मेरे सारे दोष मिटायें। मुझे गुणवान् बनायें। मुझे देश - भक्त बनायें जिससे मैं अपनी मातृभूमि से प्यार कर सकूँ।
हे प्रिय ईश्वर! आप मेरे पापों और बुरे कामों को क्षमा करें। आपने जो-जो वरदान दिये हैं, उनके लिए आपको धन्यवाद देता हूँ। आप मेरे प्रति बड़े दयालु हैं। मैं सदा आपका ही स्मरण करूँ।
मुझे कर्तव्यपरायण बनायें। मेरी परीक्षाओं में मुझे सफलता दें। मुझे भला और प्रतिभाशाली बालक (बालिका) बनायें। आपको प्रणाम!
मेरी स्मरण शक्ति तेज हो। मैं सबसे प्रेम करूँ, सबकी सेवा करूँ, सबमें मैं आपको देखूँ। मेरी उन्नति करें। मेरी रक्षा करें। मेरी माता की, मेरे पिता की, दादा-दादी की, भाई-बहन की— सबकी रक्षा करें। आपकी जय हो !
रविवार के दिन भगवान् सूर्य की पूजा करो। ये मन्त्र जपो -ॐ मित्राय नमः, ॐ सूर्याय नमः, ॐ आदित्याय नमः । भगवान् सूर्य तुम्हें अच्छी तन्दुरुस्ती देंगे, तेज देंगे और सुन्दर दृष्टि देंगे।
सोमवार के दिन भगवान् शिव की पूजा करो। मंगल और शुक्रवार के दिन देवी की पूजा करो। बृहस्पतिवार के दिन गुरु की पूजा करो। शनिवार के दिन हनुमान् की पूजा करो। तुम्हें समृद्धि, शान्ति, ऐश्वर्य और सफलता मिलेगी।
भगवान् ब्रह्मा इस संसार को बनाने वाले देव हैं। सरस्वती विद्या की देवी हैं। वह ब्रह्मा की शक्ति अथवा पत्नी हैं। भगवान् विष्णु इस संसार के पालन करने वाले देव हैं। लक्ष्मी देवी उनकी शक्ति अथवा पत्नी हैं। वह सम्पत्ति की देवी हैं। भगवान् शिव इस संसार के संहार करने वाले देव हैं। उमा अर्थात् पार्वती उनकी शक्ति अथवा पत्नी हैं। भगवान् गणेश उनके बड़े पुत्र हैं। भगवान् सुब्रह्मण्य उनके दूसरे पुत्र हैं।
भगवान् गणेश सभी प्रकार के विघ्नों का नाश करने वाले देव हैं। भगवान् सुब्रह्मण्य सब प्रकार की सफलता और शक्ति देने वाले हैं। श्रद्धा और भक्ति से उनकी पूजा करो। इससे भक्ति, भुक्ति (सांसारिक सुख) और मुक्ति तीनों मिलती हैं।
ईश्वर तुम्हें प्यार करते हैं। वह तुम्हें अच्छे-अच्छे पदार्थ देते हैं, खाने को भोजन और पहनने को वस्त्र देते हैं। उन्होंने तुम्हें सुनने को कान दिये हैं, देखने को आँखें दी हैं, सूँघने को नाक दी है, स्वाद लेने को जीभ दी है, काम करने को हाथ और चलने को पैर दिये हैं।
तुम अपनी इन आँखों से ईश्वर को नहीं देख सकते; परन्तु वह तुम्हें देखते हैं। वह तुम्हारा ध्यान रखते हैं। तुम्हारे हर काम के बारे में वह जानते हैं।
वह तुम पर अपार कृपा रखते हैं। उनसे प्रेम करो। उनकी स्तुति करो। उनका नाम और उनकी महिमा गाओ। उनसे प्रार्थना करो कि वह तुम्हें सब पापों से बचायें। वह तुमसे प्रसन्न होंगे और आशीर्वाद देंगे।
गायत्री वेदों की पवित्र माता हैं। तुम्हारी माँ की भी वह माँ हैं। वह एक देवी हैं। यदि तुमने जनेऊ धारण किया है तो प्रतिदिन प्रातः, मध्याह्न और सन्ध्या-काल में गायत्री का जप करो। नियमित रूप से सन्ध्या करो। सूर्य को अर्घ्य प्रदान करो।
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं ।
भर्गो देवस्य धीमहि
धियो यो नः प्रचोदयात् ।।
"हम उन ईश्वर का और उनकी महिमा का ध्यान करते हैं, जिन्होंने विश्व को बनाया है, जो पूज्य हैं, जो सब प्रकार के पापों और अज्ञान का नाश करने वाले हैं। वह हमारी बुद्धि को प्रेरणा दें।"
गायत्री माता तुम्हें स्वास्थ्य, दीर्घ आयु और समृद्धि दें!
रमेश! गुलाब को देखो। वह कितना सुन्दर है! उसकी सुगन्धि कितनी अच्छी है! तुम उसे चाहते हो। उसे तोड़ते और सूँघते हो। क्या कोई वैज्ञानिक गुलाब बना सकता है? तुम कागज का बढ़िया गुलाब बना सकते हो, लेकिन उसमें वह सुगन्धि न होगी ।
गुलाब जल्दी ही मुरझा जाता है और उसका सौन्दर्य और सुगन्धि नष्ट हो जाती है। फिर तुम उसे फेंक देते हो। वह नश्वर है। उसका सौन्दर्य कुछ ही क्षणों का है।
उस सुन्दर फूल को किसने बनाया? उसके रचयिता ईश्वर हैं। वह सौन्दर्यों के सौन्दर्य हैं। उनमें शाश्वत सौन्दर्य है। उनको प्राप्त करो। तुम्हारे अन्दर भी परम सौन्दर्य आयेगा । सौन्दर्य ईश्वर है। सर्वदा सही और गलत का, असली और नकली का भेद पहचानो ।
ईश्वर एक ही है; लेकिन उनके नाम और रूप अनन्त हैं। उन्हें कोई भी नाम दो। जो भी रूप तुम्हें पसन्द हो, उस रूप में उनको पूजो। उनका दर्शन अवश्य होगा और उनकी कृपा और आशीर्वाद अवश्य मिलेगा।
भगवान् शिव हिन्दुओं के भगवान् हैं। अल्लाह मुसलमानों के भगवान् हैं। जुहोवा यहूदियों के भगवान् हैं। अहुरमज्द पारसियों के भगवान् हैं।
घृणा और गर्व का अभाव, शुचिता, दान, इन्द्रियों का निग्रह, तपस्या, सत्यनिष्ठा, त्याग, प्राणिमात्र पर करुणा, धैर्य, क्षमा- ये सब ईश्वर-प्राप्ति के साधन हैं।
प्रत्येक धर्म ईश्वर-प्राप्ति का मार्ग बतलाता है । प्रत्येक धर्म के केन्द्र-बिन्दु ईश्वर हैं।
तुम अपने ईसाई मित्रों से झगड़ो नहीं, मुसलमान मित्रों और पारसी मित्रों से लड़ो नहीं। उनका धर्म उन्हें ईश्वर की ओर उसी तरह से ले जाता है। जैसे तुम्हारा धर्म तुम्हें ले जाता है। ईश्वर की ओर जाने वाले किसी भी मार्ग से चल कर ईश्वर तक पहुँचा जा सकता है। 'सभी मार्ग ईश्वर की ओर जाते हैं' -मन में इस बात का ध्यान रखो।
एक महान् मुनि थे पराशर । उनकी पत्नी का नाम सत्यवती था । उनके एक तेजस्वी पुत्र का नाम द्वैपायन था। सत्यवती देवी मछुवारों की पुत्री थी, लेकिन उनके पुत्र (द्वैपायन) विख्यात ऋषि थे । उन्होंने कई ग्रन्थ लिखे। चारों वेदों का ऋक्, यजुस्, साम और अथर्व नाम से उन्होंने वर्गीकरण किया। वेदों का संकलन भी किया। इसीलिए उनका नाम वेदव्यास पड़ा ।
उन्होंने 'महाभारत' ग्रन्थ लिखा। उसमें संसार-भर का ज्ञान समाया हुआ है। उन्होंने अष्टादश पुराण लिखे। उन्होंने 'वेदान्त-सूत्र' लिखे। वह एक महान ज्ञानी थे।
उनके एक पुत्र थे शुक। वह भी बड़े तेजस्वी ऋषि थे। उनको सर्वत्र ईश्वर - दर्शन होता था।
व्यास की अपने गुरु के रूप में पूजा करो। तुम्हें उनकी कृपा प्राप्त होगी। महर्षि शुक के समान ऋषि बनो ।
श्री विद्यारण्य मुनि का दूसरा नाम माधवाचार्य है। अद्वैत-ज्ञान में श्री शंकराचार्य के बाद उन्हीं का नाम लिया जाता है। चारों वेदों पर उन्होंने भाष्य लिखे; ‘पंचदशी', ‘अनुभूति-प्रकाश', 'जीवन्मुक्तविवेक' आदि कई ग्रन्थ लिखे । वह महा तपस्वी थे। उन्हें गायत्री देवी का वर प्राप्त था। दक्षिण भारत में हम्पी के पास गायत्री देवी ने स्वर्ण-वृष्टि की थी।
हुक्का और बुक्का नाम के दो भाइयों की सहायता से उन्होंने विजयनगर साम्राज्य की स्थापना की थी। इसी से वह एक राष्ट्र-निर्माता कहलाते हैं। उन्होंने प्रजा को मुहम्मद बिन तुगलक तथा उसके उत्तराधिकारियों के दमन और अत्याचार से बचाया था।
विद्यारण्य एक आदर्श मुनि थे। तपस्या, सदाचार, ज्ञान और त्याग में तुम विद्यारण्य के समान बनो ।
एक शाक्य राजा थे। उनका नाम शुद्धोदन था। उनका सिद्धार्थ नाम का एक पुत्र था। प्रारम्भ से ही सिद्धार्थ का हृदय बड़ा कोमल था। वह सब पर करुणा भाव रखते थे। एक दिन रास्ते में उन्होंने एक शव देखा, जिसे लोग कन्धे पर उठाये ले जा रहे थे। उन्हें पता चला कि वह भी एक दिन इसी प्रकार मरने वाले हैं। दूसरी बार उन्होंने एक चील को निर्दयतापूर्वक एक फाखता खाते हुए देखा। इसी प्रकार उन्होंने कई करुणाजनक प्रसंग देखे ।
संसार के दुःखों को देख कर सिद्धार्थ बेचैन हो उठे। उनको संसार से वैराग्य हो गया। एक रात वह अपनी पत्नी, बच्चे, परिवार और राज्य - सब कुछ छोड़ कर चुपके से जंगल में चले गये। एक बोधि-वृक्ष के नीचे बैठ कर तपस्या करने लगे। उन्हें वहाँ ज्ञान की प्राप्ति हुई, बोध मिला और तब से वे 'बुद्ध' कहलाने लगे।
उन्होंने संसार को अहिंसा का उपदेश दिया। तुम भी बुद्ध का हृदय रखो। संसार के इतिहास में बुद्ध का व्यक्तित्व बहुत ही उत्कृष्ट है।
श्री शंकराचार्य भारत के बहुत बड़े दार्शनिक थे। वे भगवान् शिव के अवतार थे। उन्होंने बहुत ही छोटी आयु में संन्यास ले लिया था। वे बड़े ज्ञानी थे। वे ईश्वर का वास्तविक स्वरूप जानते थे। हिन्दू-धर्म उन दिनों मिटने ही वाला था; क्योंकि बौद्ध-धर्म प्रबल होता जा रहा था। श्री शंकराचार्य ने उसे (हिन्दू-धर्म को) पुनर्जीवित किया। वे अद्वैत वेदान्त के परिपोषक थे।
उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र और भगवद्गीता पर उन्होंने भाष्य लिखे हैं। सोलह वर्ष की अवस्था से पहले ही वे सारे ज्ञान में पारंगत हो गये थे। शास्त्रार्थ में उन्होंने सभी पण्डितों और विद्वानों को परास्त किया। वेदान्त के प्रारम्भिक विद्यार्थियों के लिए उन्होंने एक पुस्तक लिखी है, जिसका नाम ‘विवेक-चूड़ामणि' है।
श्री शंकराचार्य ने लगभग १०८ ग्रन्थ लिखे हैं। भारत में जितने ज्ञानी पुरुष पैदा हुए हैं, उन सबमें श्री शंकराचार्य बड़े हैं । ३२ वर्ष की आयु में उनका देहावसान हो गया। अपने जीवन की इसी स्वल्पावधि में उन्होंने सारे भारतवर्ष को जगा दिया। शंकराचार्य की जय हो !
सिख गुरुओं में गुरु नानक प्रथम हैं। सन् १४६९ में तलवण्डी नामक स्थान में उनका जन्म हुआ था। उस स्थान को आजकल 'ननकाना साहेब' कहते हैं। वे सिख-धर्म के प्रवर्तक हैं। वे बचपन से ही धर्मात्मा थे।
नानक के पिता कालूजी चाहते थे कि उनका पुत्र उन्हीं की तरह दुकानदारी करे। नानक ने पढ़ाई-लिखाई छोड़ कर सारा समय सन्तों के साथ बिताना शुरू किया।
ईश्वर की स्तुति में उन्होंने कई पद लिखे हैं। उन पदों को एक ग्रन्थ में संकलित किया गया है जिसका नाम है 'ग्रन्थसाहेब' । सिख इस ग्रन्थ की पूजा करते हैं। उन्होंने हिन्दुओं और मुसलमानों में एकता स्थापित करने की कोशिश की। ७० वर्ष की आयु में सन् १५३९ में उनकी मृत्यु हुई।
ब्रह्मा के पुत्रों में महर्षि वसिष्ठ जी परम तेजस्वी थे । ब्रह्मा के प्राण से उनका जन्म हुआ था। जन्म से ही वे ब्रह्मज्ञानी थे। आध्यात्मिक शक्ति में वसिष्ठ की बराबरी करने वाला कोई दूसरा ऋषि नहीं हुआ । वे साक्षात् भगवान् थे। उनकी शक्ति का वर्णन कठिन है।
विश्वामित्र नाम के एक ऋषि वसिष्ठ को हराना चाहते थे। विश्वामित्र ने हजारों वर्ष तक तपस्या की और कई दिव्य अस्त्र प्राप्त किये। अब वे वसिष्ठ से युद्ध करने लगे। वसिष्ठ ने केवल संकल्प-बल से उन सारे अस्त्रों को विफल बना दिया। विश्वामित्र कुछ न कर सके। उनके सौ पुत्र और सारी सेना वसिष्ठ की अन्तःशक्ति से नष्ट हो गयी। वसिष्ठ की अन्तःशक्ति की और वसिष्ठ की जय हो !
वसिष्ठ एक आदर्श महर्षि हैं। प्रतिदिन उनकी पूजा करो । 'योगवासिष्ठ' नामक ग्रन्थ में उनके सारे उपदेश मिलते हैं।
प्रभु ईसामसीह ईसाई धर्म के प्रवर्तक हैं। वे एक महान् योगी थे। वे पैगम्बर थे, ईश्वर का सन्देश फैलाने वाले थे। उन्होंने अनेक चमत्कार किये। गरीबों और कोढ़ियों की सेवा की। कुमारी मरियम उनकी माता थीं।
भगवान् बुद्ध बौद्ध-धर्म के प्रवर्तक थे और वे भी पैगम्बर थे। वे बड़े कृपालु थे। वे एक राजकुमार थे।
मुहम्मद रसूल इस्लाम-धर्म के प्रवर्तक थे। वे भी नबी थे।
सभी धर्म एक हैं। किसी धर्म से द्वेष न करो। सब धर्मों से प्रेम करो। प्रत्येक धर्म अच्छा है । सब धर्म ईश्वर तक पहुँचने का मार्ग बताते हैं।
सन्तों का जीवन-चरित्र पढ़ने से तुम्हें ज्ञान मिलेगा। तुम भले बनोगे। तुममें सद्गुण विकसित होंगे। तुम ईश्वर का प्रत्यक्ष दर्शन करोगे।
तुकाराम, ज्ञानदेव, एकनाथ और रामदास -ये सब महाराष्ट्र के महान् सन्त थे । गौरांग महाप्रभु बंगाल के बड़े सन्त थे ।
मीराबाई, सखुबाई—ये महिलाएँ महान् सन्त थीं। गुरु नानक, कबीर, नरसी मेहता, तुलसीदास भी बहुत बड़े सन्त थे।
सन्त जोसेफ, सन्त फ्रांसिस, सन्त पैट्रिक महान् ईसाई सन्त थे । ये सारे सन्त तुम्हारा कल्याण करें!
गोस्वामी तुलसीदास श्री रामचन्द्र जी के महान् भक्त थे। अपनी प्रगाढ़ भक्ति के कारण उन्होंने श्री राम का प्रत्यक्ष दर्शन किया था। वे अपनी पत्नी पर बहुत आसक्त थे। उनकी पत्नी ही उनकी गुरु बनी।
उत्तर प्रदेश के बाँदा जिले में राजापुर नामक गाँव में सन् १५८९ में तुलसीदास का जन्म हुआ। जन्म से वे ब्राह्मण थे। पैदा होते समय उनके मुँह में बत्तीसों दाँत थे। जन्म के समय वे रोये नहीं थे।
गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित 'श्रीरामचरितमानस' (रामायण) हिन्दी-संसार में एक अनोखी कृति है। उत्तर प्रदेश में यह ग्रन्थ बहुत लोकप्रिय है। सारे उत्तर भारत में लोग इसे बड़ी श्रद्धा से पढ़ते हैं।
रामायण का पाठ नित्य प्रति करो। कुछ चौपाइयाँ कण्ठस्थ कर लो और गाओ।
अजामिल एक श्रद्धालु ब्राह्मण थे। वह रोज ईश्वर की पूजा करते थे। वह सबके प्रति दयालु थे। अपने काम में वह बड़े नियमित थे। वह एकादशी के दिन उपवास करते थे। वह एक आदर्श मनुष्य थे। भगवान् नारायण के वह भक्त थे । प्रार्थना-पूजा आदि वह नियमित रूप से करते थे।
एक दिन वह जंगल में गये। वहाँ उन्हें एक सुन्दर स्त्री मिली। उस पर वह मोहित हो गये। उससे विवाह कर लिया और तबसे ईश्वर का भजन-कीर्तन उन्होंने छोड़ दिया। वह पत्नी के प्रेम में डूब गये। उनके आठ पुत्र पैदा हुए। अब वह नास्तिक बन गये ।
मृत्यु-काल में उन्हें यमदूत दिखायी दिये। वह डर गये। जोर-जोर से चिल्लाने लगे। अपने छोटे लड़के नारायण को अपनी सहायता के लिए पुकारने लगे। नारायण का नाम सुनते ही भगवान् विष्णु के सेवक आ गये। और यमदूतों को भगा कर उन्हें वैकुण्ठ ले गये।
सर्वदा नारायण का नाम लो। अजामिल ने जान-बूझ कर नारायण का नाम नहीं लिया था, फिर भी भगवान् के आनन्द-धाम पहुँच गया। तुम श्रद्धा और भक्ति के साथ ईश्वर का नाम लोगे, तो कितना लाभ होगा !!
पुरन्दरदास नामक एक ब्राह्मण थे। वह बड़े लोभी और कंजूस थे। भगवान् कृष्ण ने उनके लोभ की परीक्षा लेनी चाही। वह एक भिखारी के रूप में आये और ब्राह्मण से भिक्षा माँगी। ब्राह्मण ने कुछ भी देने से इनकार कर दिया और दूसरे दिन आने को कहा। भिखारी दूसरे दिन भी आया। उस दिन भी ब्राह्मण ने भिखारी को दूसरे दिन आने को कहा। भिखारी महीनों तक इसी तरह प्रतिदिन आता रहा।
अन्त में एक दिन ब्राह्मण को बड़ा क्रोध आया और उसने एक पैसा उठा कर भिखारी के मुँह पर फेंक दिया। भिखारी ने पैसा छोड़ दिया और ब्राह्मण के घर के पिछवाड़े गया। ब्राह्मण की पत्नी ने अपनी नाक से नथ उतार कर उसे भिक्षा में दे दी। भिखारी वह नथ उसी ब्राह्मण के हाथ बेच कर पैसा ले कर चलता बना ।
ब्राह्मण को पत्नी पर बड़ा क्रोध आया। पूछा- “तुम्हारी नथ कहाँ है?” उसने कहा—“अभी मैं अन्दर से लाती हूँ।” पत्नी भय के कारण विष खा लेना चाहती थी, लेकिन नथ अपने स्थान पर रखी हुई उसे दिखायी पड़ी। नथ को उसने अपने पति के हाथ में रख दिया। पति को बड़ा आश्चर्य हुआ। तबसे वह सन्त और भगवान् का भक्त बन गया ।
मेरे प्रिय नारायण! भीष्म अथवा हनुमान् के समान ब्रह्मचारी बनो। हरिश्चन्द्र के समान सत्यवादी बनो। कर्ण के समान उदार और अर्जुन के समान वीर बनो ।
युधिष्ठिर के समान धर्मात्मा बनो। बुद्ध के समान कृपालु बनो । ध्रुव और प्रह्लाद के समान भक्त बनो। बृहस्पति के समान प्रतिभाशाली, भीम के समान पराक्रमी और श्री राम के समान कर्तव्यपरायण बनो ।
नचिकेता के समान ज्ञानी बनो। ज्ञानदेव के समान योगी और शिवाजी के समान बहादुर बनो ।
भगवान् श्री कृष्ण सारे विश्व के स्वामी हैं। राम और कृष्ण एक हैं। राम का जन्म अयोध्या में हुआ था और कृष्ण का मथुरा में । सीता राम की पत्नी थी और रुक्मिणी कृष्ण की ।
राम के हाथ में धनुष था और कृष्ण के हाथ में मुरली थी। राम ने रावण का संहार किया और कृष्ण ने कंस का नाश किया।
राम मर्यादापुरुषोत्तम हैं, कृष्ण लीलापुरुषोत्तम। राम के भाई लक्ष्मण थे और कृष्ण के भाई बलराम । सीताराम बोलो, राधेश्याम बोलो।
श्री हनुमान् पवनदेव (वायु) के पुत्र हैं। उनकी माता का नाम अंजनी देवी है । वह राम के महान् निष्ठावान् सेवक तथा दूत हैं। वह बड़े बलशाली वीर हैं। वह अखण्ड ब्रह्मचारी हैं।
उन्होंने लंका को भस्म किया। उन्होंने सीता को श्री राम की अँगूठी दी और सीता जी की चूड़ामणि ला कर श्री राम को दी। रावण-पुत्र अक्षयकुमार का उन्होंने संहार किया।
हनुमान् की तरह पराक्रमी और ब्रह्मचारी बनो। हनुमान् की पूजा करो। गाओ :
जय जय सीता राम की।
जय बोलो 'हनुमान् की ॥
भीष्म महान् वीर थे। वह ज्ञानी भी थे। वह न्यायप्रिय, धर्मात्मा और सत्यवादी थे। वह जो कहते थे, वही करते भी थे और वह वही कहते थे जो उन्हें करना होता। वह ब्रह्मचारी थे ।
उनके पिता का नाम था शान्तनु और माता का गंगा देवी। अपने पिता को प्रसन्न करने के लिए उन्होंने राज्य का त्याग किया। पुत्रोचित कर्तव्य पालन करने के लिए उन्होंने महान् त्याग किया।
उन्होंने अपनी इच्छा से शरीर-त्याग किया। राजा युधिष्ठिर को उन्होंने शरशय्या पर पड़े-पड़े धर्म का उपदेश दिया। वह सन्त-कोटि के योद्धा थे । हे नरेन्द्र, तुम भी भीष्म के समान बनो ।
द्रौपदी पाण्डवों की पत्नी थीं। कर्तव्यनिष्ठा, उदारता, सत्य, भक्ति, पातिव्रत्य, धर्मपरायणता आदि की वह साकार मूर्ति थीं। वह राजा द्रुपद की पुत्री थीं। उनके भाई का नाम धृष्टद्युम्न था ।
उन्होंने भगवान् शिव से सुयोग्य पति का वरदान पाँच बार माँगा था; इसलिए भगवान् ने वर दिया कि अगले जीवन में उनके पाँच पति होंगे। एक यज्ञ की अग्नि से उनका जन्म हुआ था।
भगवान् कृष्ण ने उन्हें अनन्त वस्त्रों का दान दिया और उनकी लाज बचायी। द्रौपदी कृष्ण के प्रति अगाध श्रद्धा रखती थीं। अर्जुन ने स्वयंवर में उन्हें प्राप्त किया।
प्रिय लीला! सीता भगवान् राम की पत्नी हैं और राजा जनक की पुत्री। रामायण की वह नायिका हैं। संसार भर में सबसे अधिक गुणवती और आदर्श महिला सीता हैं। भारतीय नारी के लिए सीता आज भी आदर्श हैं। वह लक्ष्मी देवी की अवतार हैं।
वह पवित्र थीं, उनका जीवन सादा था और राम के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा रखती थीं। वह एक आदर्श पत्नी थीं। पवित्रता और सहिष्णुता की वह मूर्त रूप थीं। वह आदर्श पतिव्रता थीं। उन्होंने अग्नि-परीक्षा दी। सीता जी के व्यक्तित्व में सौन्दर्य के साथ पवित्रता, सादगी, भक्ति और त्याग के गुण मिश्रित थे।
तुम सब सीता के समान चमको ! तुम सबमें सीता के गुण आयें! सीता की कृपा तुम सब पर हो !
भगवान् श्री कृष्ण तीनों लोकों के स्वामी हैं। वह श्री विष्णु भगवान् के पूर्ण अवतार थे । उनमें सोलहों कलाएँ थीं। अर्जुन एक पराक्रमी वीर थे। वह पाण्डु के तीसरे पुत्र थे। वह स्वर्गाधिपति इन्द्र के अंश से जन्मे थे।
वह श्री कृष्ण के निष्ठावान् शिष्य थे। श्री कृष्ण उनसे प्रेम करते थे।
महाभारत के युद्ध में श्री कृष्ण अर्जुन के सारथि बने थे। अर्जुन के भाई पाण्डवों को श्री कृष्ण ने विजय दिलायी।
रण-क्षेत्र में जब अर्जुन विषाद से ग्रस्त हुए, तब श्री कृष्ण ने उन्हें भगवद्गीता का उपदेश दिया और अपने विश्व-रूप का दर्शन कराया। अर्जुन अत्यन्त भाग्यशाली थे; क्योंकि श्री कृष्ण के श्रीमुख से वह गीता के उपदेश सुन सके। श्री कृष्ण ने अर्जुन के माध्यम से सारे संसार पर उपकार किया। अर्जुन और कृष्ण नर और नारायण थे।
शकुन्तला मेनका और विश्वामित्र की पुत्री थीं। कण्व ऋषि उसके पालक-पिता थे। शकुन्तला ने दुष्यन्त से विवाह किया। उसने दुष्यन्त से वचन लिया कि उसका पुत्र राजगद्दी पर बैठने का अधिकारी होगा। उनके एक पुत्र जन्मा । वही भरत के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।
शकुन्तला अपने पुत्र को ले कर दुष्यन्त के दरबार में गयी और भरत को युवराज के रूप में स्वीकार करने को कहा। दुष्यन्त ने कहा कि 'मुझे कुछ याद नहीं है।'
तब दुष्यन्त को आकाशवाणी सुनायी दी— “अपने पुत्र को आश्रय दो। शकुन्तला सत्य बोल रही है।" आकाशवाणी सुन कर दुष्यन्त ने भरत को युवराज के रूप में स्वीकार किया। भरत एक सुप्रख्यात राजा बना। उसी के नाम पर इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा।
हे माधव! अपने वचन पर हर मूल्य पर डटे रहो। सत्य की ही जय होती है, असत्य की नहीं।
सावित्री राजा अश्वपति की पुत्री थीं। वह बड़ी सुन्दर और सुशील थीं। राजा द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान् (जो अपने राज्य से निर्वासित कर दिये गये थे) के साथ सावित्री का विवाह हुआ।
नारद ऋषि से सावित्री को मालूम हुआ कि उसके पति एक वर्ष के अन्दर मर जाने वाले हैं। कुछ दिनों के बाद उन्हें पता चला कि आज से चार दिनों बाद उनके पति का देहान्त होने वाला है। उन्होंने अन्तिम तीन रातों तक व्रत रखा।
सत्यवान् के साथ वह भी वन में गयीं। उसके प्राण ले जाने के लिए यम आया। लेकिन सावित्री यम के साथ लड़ती रहीं और अपने पातिव्रत्य के बल पर पति को वापस ले आयीं।
हे सुशीला ! सावित्री के समान पवित्र रहो।
नल निषेध राज्य (जिसे आजकल बरार कहते हैं) के राजा वीरसेन के पुत्र थे । वह बड़े सुन्दर और सदाचारी थे। विदर्भ के राजा भीम की पुत्री दमयन्ती से उन्होंने स्वयंवर में विवाह किया।
चौपड़ के खेल में नल ने अपना राज्य और सारी सम्पत्ति गँवा दी। केवल एक वस्त्र के साथ वह राज्य छोड़ कर चल पड़े। दमयन्ती भी उनके साथ चली।
वन में नल दमयन्ती को छोड़ कर चल दिये। दमयन्ती चेदि देश के राजा के महल में ठहरी। नल अयोध्या के राजा के अस्तबल में काम करने लगे। दमयन्ती को उसके पिता घर वापस ले आये। उसका दूसरा स्वयंवर रचा गया। नल भी आये। स्वयंवर में नल और दमयन्ती फिर मिल गये। नल ने अपना राज्य जीत लिया।
कर्ण महाभारत के एक महान् योद्धा थे। वह अपनी दानवीरता के लिए प्रसिद्ध थे। वह माँ कुन्ती के गर्भ से ही स्वर्ण-कवच और कर्ण-कुण्डल ले कर जन्मे थे। उनका जन्म दुर्वासा ऋषि द्वारा कुन्ती को दिये गये सूर्य-मन्त्र का जप करने के फल-स्वरूप हुआ था ।
कुन्ती ने अपने पुत्र को नदी में फेंक दिया और उसे अधिरथ नामक एक धीवर ने उठा लिया जो कि दुर्योधन का सारथि था। कर्ण ने परशुराम से धनुर्विद्या सीखी।
कर्ण किसी प्रकार से भी अर्जुन से कम नहीं थे। अर्जुन के रथ को भूमि में धँसा कर श्री कृष्ण ने उसकी (अर्जुन की) रक्षा की, अन्यथा कर्ण अर्जुन को मार देते । कर्ण का संहार अर्जुन के हाथों हुआ।
एक राजा था। उसका नाम उत्तानपाद था। उसकी दो रानियाँ थीं— सुरुचि और सुनीति । सुनीति का एक पुत्र था जो बड़ा सुशील था । उसका नाम ध्रुव था । सुरुचि उससे घृणा करती थी। उसने उसे राजमहल से बाहर कर दिया। इससे बालक बहुत दुःखी हुआ। वह भगवान् की कृपा से अपने पिता के राज्य के समान दूसरा राज्य पाने की कोशिश करने लगा।
नारद ऋषि ने बालक ध्रुव को 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' मन्त्र का उपदेश दिया। ध्रुव ने उस मन्त्र का जप किया। वह बड़ी निष्ठा से तपस्या करते रहे। आहार लेना भी उन्होंने छोड़ दिया। तब भगवान् वासुदेव उनके सामने प्रकट हुए। केवल स्पर्श से भगवान् ने उन्हें दिव्य ज्ञान दे दिया।
भगवान् के अनुग्रह से ध्रुव ने नक्षत्र पदवी प्राप्त की। उन्हें शाश्वत सुख मिला, परम आनन्द की प्राप्ति हुई । नित्य प्रति 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' मन्त्र का जप करो।
हिरण्यकशिपु नामक एक राक्षस था। उसने तपस्या करके ब्रह्मा जी से यह वरदान प्राप्त किया कि संसार में उसे कोई देव, दानव या मानव मार न सके। उसे ईश्वर के नाम से घृणा थी। भगवद् भक्तों को वह बहुत कष्ट देता था और उन्हें मार डालता था ।
प्रह्लाद नामक उसका एक पुत्र था । प्रह्लाद भगवान् हरि के परम भक्त थे। उन्हें हिरण्यकशिपु खूब पीटता था और हरि का नाम लेने से मना करता था । प्रह्लाद अपने पिता की बात अनसुनी करके सदा ईश्वर की महिमा गाते रहते थे। उनके पिता ने उन्हें मार डालने का बहुत बार प्रयत्न किया। लेकिन सभी विपत्तियों से भगवान् ने उन्हें बचाया। भगवान् के प्रति हिरण्यकशिपु की घृणा अपनी आखिरी सीमा तक पहुँच गयी। अन्त में भगवान् नरसिंह का अवतार ले कर आये। उन्होंने हिरण्यकशिपु का संहार किया और प्रह्लाद की रक्षा की।
तुम भी प्रह्लाद के समान बनो ।
शिवि सूर्यवंशी राजा थे। काशी उनकी राजधानी थी। वह दान के लिए विख्यात थे। एक बाज से डर कर एक कबूतर उनकी शरण में आया। शिवि ने उसे उसके प्राणों की रक्षा का वचन दिया।
बाज की भूख मिटाने के लिए शिवि कबूतर के बदले अपने शरीर का मांस काट कर देने लगे। जब उनका सारा शरीर कट गया, तब बाज और कबूतर — दोनों अपने असली रूप में (देवताओं के रूप में) प्रकट हुए और उन्हें कई वर दिये । वह स्वर्ण के विमान पर चढ़ कर स्वर्ग गये।
करुणा से बढ़ कर दूसरा कोई गुण नहीं है। काशिराज शिवि ने स्वर्ग और अमर यश प्राप्त किया। हे प्रिय शिवराम! दुर्बलों की रक्षा करो।
शबरी जंगलों में रहने वाली भील जनजाति की महिला थीं। वह श्री राम की भक्त थीं। वह बहुत धर्मनिष्ठ थीं। अपने वनवास के समय श्री रामचन्द्र शबरी के आश्रम में पधारे थे। शबरी ने राम को अर्घ्य प्रदान किया और कुछ फल भी खिलाये, जिन्हें उन्होंने पहले खुद चख कर देखा कि वे मीठे हैं या नहीं। चूँकि शबरी ने उन फलों को बड़ी भक्ति के साथ अर्पित किया था, इसलिए राम ने जूठे होने पर भी उन्हें बड़े स्वाद के साथ खाया।
वस्तुतः प्रेममय हृदय ही मुख्य वस्तु है। ईश्वर बहुमूल्य भोग नहीं चाहता । जो सच्चा भक्त भगवान के चरणों में अपने को पूर्णतया समर्पित कर देता है, भगवान् उसके दास बन जाते हैं।
एक सूर्यवंशी राजा थे। उनका नाम अम्बरीष था। वह भगवान् वासुदेव के बड़े भक्त थे। वह एकादशी का व्रत रखते थे। एक बार द्वादशी के दिन उन्होंने भगवान् की पूजा की और ब्राह्मणों को भोज दिया। वह भी आहार ग्रहण करने वाले थे, इतने में ऋषि दुर्वासा आये। राजा ने उनका स्वागत किया। ऋषि स्नान के लिए नदी पर गये। बहुत देर तक लौटे नहीं। राजा ऋषि से पहले भोजन नहीं कर सकते थे, इसलिए पारण करने के लिए केवल पानी पी लिया ।
दुर्वासा स्नान करके आये। राजा ने पानी पी लिया था, इससे वे बड़े क्रुद्ध हुए। अम्बरीष का संहार करने के लिए उन्होंने एक राक्षस की सृष्टि की। लेकिन भगवान् ने उनकी रक्षा के लिए अपना चक्र भेज दिया। उस चक्र ने राक्षस का संहार कर दिया और दुर्वासा पर भी आक्रमण करने लगा। ऋषि भय से भागने लगे। वह वासुदेव की शरण गये। प्रभु ने कहा- "मैं कुछ नहीं कर सकता, अम्बरीष की ही शरण में जाओ।" तब अम्बरीष ने भगवान् की स्तुति की और चक्र को शान्त किया। इस प्रकार अम्बरीष ने ऋषि की रक्षा की।
प्यारे बच्चो ! अपनी सत्ता या सम्पत्ति का घमण्ड न करो। घमण्ड पतन की ओर ले जाता है ।
श्री रामचन्द्र के बाद राजा विक्रमादित्य ही भारत के सबसे महान् पराक्रमी और महान् राजा हुए। वीरता में वह सूर्य के समान थे। उनका शासन बहुत दयामय तथा सद्भावपूर्ण था। उनका शासन-काल भारत में स्वर्ण युग माना जाता है।
उनके दरबार में नौ रत्न थे। उन रत्नों में कालिदास भी एक थे। उन्होंने संस्कृत-साहित्य का पुनरुत्थान किया। समूचे भारत पर उनका आधिपत्य था ।
उनके शासन काल में सर्वत्र शान्ति, प्राचुर्य और समृद्धि थी। लोग घरों में ताला नहीं लगाते थे। कहीं भी चोरी का नाम नहीं था। सारी प्रजा प्रसन्न थी। राजा बड़े भक्त और धर्म-प्रेमी थे। वह चौंसठ कलाओं में निपुण थे। अष्ट सिद्धियाँ और नव-निधियाँ उनके अधीन थीं।
उनका सिंहासन बत्तीस सिंहों के ऊपर स्थित था। वह बड़े न्यायी, धर्मात्मा और दयालु थे। चीन देश के एक यात्री फाहियान ने उनके शासन के विषय में लिखा है। उनके राज्य-काल में सारे देश में शिक्षा और संस्कृति का खूब विकास हुआ था । सचमुच में वह राज-वैभव की पराकाष्ठा तक पहुँच गये थे ।
हरिश्चन्द्र वाराणसी के राजा थे। वह सदा सत्य बोलते थे। उनका नाम सत्य का पर्याय हो गया था। उन्होंने बड़े न्याय और कुशलता से राज्य किया।
विश्वामित्र ऋषि ने कई प्रकार से उनकी परीक्षा ली। हरिश्चन्द्र को राज्य से बाहर भेज दिया गया। उन्हें उनकी रानी से अलग कर दिया गया। उनका पुत्र साँप के काटने से मर गया। उन्हें अपने पुत्र का दाह संस्कार स्वयं करना पड़ा। विश्वामित्र ने उन्हें असत्य बोलने के लिए विवश करने का पूरा प्रयत्न किया, पर वह कभी असत्य नहीं बोले ।
भगवान् शिव उनकी सत्यनिष्ठा से प्रसन्न हुए। उनका मृत पुत्र फिर जी उठा। भगवान् शिव ने कहा- "हरिश्चन्द्र, तुम मेरे सच्चे भक्त हो। मैं तुम पर प्रसन्न हूँ। पूरे जीवन में तुम एक भी असत्य नहीं बोले। मैं तुम्हें तुम्हारा सारा राज्य, धन और सम्पत्ति लौटा देता हूँ। पत्नी-पुत्र सहित अपने महलों को लौट जाओ। सुख से रहो। तुम्हारा नाम संसार में हमेशा प्रसिद्ध रहेगा। तुम्हें लोग सत्यवादी के रूप में स्मरण करेंगे। तुम्हें सुख मिले !”
ऊँचा ध्येय रखो । हरिश्चन्द्र के समान बनो। मृत्यु का भय उपस्थित होने पर भी असत्य न बोलो। जीवन सादा रखो। विचार उच्च रखो। तुम्हें सभी प्रकार का वैभव और सफलता मिलेंगे !
दुर्योधन के अन्धे पिता का नाम धृतराष्ट्र था। दुर्योधन न्यायी और सुशील नहीं था। उसने पाण्डु के पुत्रों का राज्य जुए में जीत लिया।
महाभारत का युद्ध हुआ। अर्जुन और भीम-दोनों खूब वीरता के साथ लड़े। उन्होंने धृतराष्ट्र के कई पुत्रों (कौरवों) को मार डाला।
कौरवों के सेनापति भीष्म अर्जुन के हाथों घायल हुए। अन्त में पाण्डवों की विजय हुई |
बहुत वर्षों पहले भारत में पाण्डु और धृतराष्ट्र नामक दो महान् राजा थे। पाण्डु के पुत्र पाँच थे ।
सबसे बड़े पुत्र का नाम युधिष्ठिर था। युधिष्ठिर धर्मात्मा और सद्गुणी थे। दूसरे पुत्र का नाम भीम था। वह बहुत बलवान् और महान् योद्धा थे । तीसरे पुत्र अर्जुन थे जो धनुर्विद्या में कुशल थे ।
अन्तिम दो पुत्र – नकुल और सहदेव — जुड़वाँ भाई थे। सारे भाई बहुत भले, प्रतिभाशाली, न्यायी और सदाचारी थे। वे पाण्डव कहलाते थे ।
सबसे धृतराष्ट्र जन्म से अन्धे थे। उनके एक सौ पुत्र थे। दुर्योधन बड़ा पुत्र था।
दुर्योधन का भाई दुःशासन था। द्रौपदी के बाल खींचने वाला यही था। तब भीम ने प्रतिज्ञा की थी कि वह दुःशासन का रक्त पान करेगा। अन्त में उसकी प्रतिज्ञा पूरी हुई।
धृतराष्ट्र के सभी पुत्र बहुत अन्यायी और दृष्ट थे। उन्हें पाण्डवों के प्रति बहुत ईर्ष्या थी। वे कौरव कहलाते थे। कौरवों और पाण्डवों की कथा। महाभारत नामक ग्रन्थ में लिखी हुई है।
मेरे प्रिय कृष्ण! प्रतिदिन रामायण पढ़ो। तुम अच्छे बच्चे बनोगे। भगवान् राम तुम्हें आशीर्वाद देंगे। भगवान् राम दशरथ के पुत्र थे | वह अयोध्या के राजा थे। उनकी पत्नी का नाम सीता था। लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न उनके भाई थे। कौशल्या राम की माता थीं।
अपने भाइयों से लक्ष्मण के समान प्यार करो। भगवान् राम के अनुचर हनुमान् की तरह पवित्र और वीर बनो।
अयोध्या के दर्शन कर आओ। अयोध्या एक तीर्थ-स्थान है। सरयू नदी में स्नान करो। अपने माता-पिता से कहो कि वे तुम्हें अयोध्या ले जायें।
भगवान् राम हरि के अवतार हैं। दुष्ट रावण ऋषियों को सताया करता था। उसका संहार करने के लिए राम ने जन्म लिया। रावण लंका (जिसे आजकल श्रीलंका कहते हैं) का राजा था।
भरत की माता कैकेयी ने राम को वन में भेजा। राम अपनी पत्नी सीता और भाई लक्ष्मण के साथ दण्डक वन गये। रावण साधु के वेश में आया और सीता जी का हरण कर ले गया। राम ने सुग्रीव के साथ मित्रता की। हनुमान् राम के सेवक और दूत बने ।
राम और रावण के बीच भयंकर युद्ध हुआ। राम ने रावण का संहार किया और सीता को वापस ले आये। राम अपने साथियों सहित अयोध्या लौट आये। वह अयोध्या के राजा बने। उनका राज्य रामराज्य कहलाता था। रामराज्य में सर्वत्र सुख, शान्ति और समृद्धि थी।
(१)
अर्जुन कौरवों से युद्ध करने गये। श्री कृष्ण उनके सारथि थे। अर्जुन ने देखा कि उनके सगे-सम्बन्धी ही उनसे युद्ध करने के लिए खड़े हैं। वह कृष्ण से बोले – “हे कृष्ण ! ये सारे प्रतिपक्षी लोग मेरे ही सम्बन्धी हैं। उन्हें मारने का पाप मुझसे न होगा। उनसे मैं लड़ना नहीं चाहता। उन्हें मैं मार नहीं सकता । हे कृष्ण! मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा है। मैं आपका शिष्य हूँ। मुझे रास्ता दिखायें।"
भगवान् कृष्ण ने कहा- "हे अर्जुन! तुम्हें युद्ध करना ही चाहिए। उसमें कोई पाप नहीं है। क्षत्रिय के नाते यह तुम्हारा धर्म है। अपने धर्म को मत छोड़ो। यह गलत है। मृत्यु पर्यन्त तुम्हें अपना धर्म पालन करना ही चाहिए। जय और पराजय, सुख और दुःख सब एक ही हैं। उन्हें समान समझो ।
"तुम्हें केवल कर्म करना चाहिए। यह न सोचो कि उससे तुम्हें क्या मिलने वाला है। देखो, मैं यहाँ हूँ। मैं ईश्वर हूँ । मैं तुम्हारे साथ हूँ। जाग जाओ। प्रसन्न होओ। मेरी पूजा करो। मैं सारे जग का स्वामी हूँ।"
(२)
श्री कृष्ण अर्जुन से बोले - "हे वीर! तुम जो कुछ भी करते हो, सब मुझे अर्पण करो; क्योंकि मैं ही भगवान् हूँ। किसी प्रकार का मानसिक ताप न रखो। तुम्हें अपना कर्तव्य-कर्म करना चाहिए; परन्तु उसके फल की आशा नहीं रखनी चाहिए। यही धर्म है। ऐसा करने पर तुम योगी बनोगे । पुष्प, जल, अग्नि आदि द्रव्य से ईश्वर की पूजा का परित्याग नहीं करना चाहिए। जो कुछ भी कर्म नहीं करता, वह सच्चा योगी नहीं है। तुम अपने स्व-धर्म का पालन करो; परन्तु उसके फल की अपेक्षा मत रखो।
“इन सब योद्धाओं का मैंने पहले ही अपनी दिव्य शक्ति से संहार कर दिया है। मैं सारा संसार नष्ट कर सकता हूँ। मुझे तुम्हारी अपेक्षा नहीं है। तुम केवल एक निमित्त हो ।
"अपना चित्त मुझमें लीन करो। अहंकार का त्याग करो। तुम्हारे हृदय में तथा सबके हृदय में ईश्वर है। उसकी शरण में जाओ। मैं ही वह ईश्वर हूँ। सभी धर्मों का त्याग करो, मेरी शरण में आओ। मैं तुम्हें मोक्ष दूँगा और तुम्हारी सहायता करूँगा।"
श्री कृष्ण की इहलौकिक-लीला समाप्त होने को आयी थी। उनके निष्ठावान् मन्त्री और शिष्य उद्भव उनकी स्तुति करते-करते उनके सामने रो पड़े। वह श्री कृष्ण का वियोग सहन नहीं कर सकते थे। उन्होंने भगवान् से कहा- "हे कृष्ण। मुझे यहाँ छोड़ कर मत जाइए। मैं आपके बिना रह नहीं सकता।"
श्री कृष्ण ने उद्भव से कहा-"मेरे परम मित्र! शोक न करो। इस मेरे स्थिति में तुम पास नहीं आ सकोगे। अपने को शुद्ध करो। मेरे परम स्वरूप का ध्यान करो। मैं ईश्वर हूँ। मैं ही सब कुछ हूँ। मैं इस विश्व का स्रष्टा, पालक और संहारक हूँ। स्थूल इन्द्रियों से मैं गोचर नहीं होता। मैं मन और बुद्धि की पहुँच से भी परे हूँ।
"बदरीनाथ जाओ। वहाँ मेरे धाम में मेरा ध्यान करो। मैं तुम्हें अपने हृदय में रख लूँगा।"
उद्धव के समान भगवान् की पूजा करो।
अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखो । मिठाई अधिक मत खाओ । आवश्यकता से अधिक खा कर पेट पर बोझ न डालों । प्याज, लहसुन, मांस मछली न खाओ । दूध, फल, परवल, लौकी और पालक खाओं ।
प्रतिदिन ठंडे पानी से स्नान करो । खुरदुरे तौलिये से शरीर को रगड़ो । रोज साबुन का उपयोग न करो । नदी में डुबकी लगाओ । खुली हवा में दौड़ लगाओ । नियमित रूप से आसन करो । शीर्षासन, सर्वांगासन, मत्स्यासन और भुंजगासन करो । दण्ड-बैठक लगाओ । सुबह-शाम धूप का सेवन करो । थोड़ी देर तक गहरी साँसे लो ।
विचार, वाणी और कर्म की शुद्धता का नाम ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य के पालन से अच्छा स्वास्थ्य, अन्त:शक्ति , मानसिक शान्ति, दीर्घ आयु और ईश्वर-दर्शन प्राप्त होते हैं । नैष्ठिक ब्रह्मचारी सारे विश्व को हिला सकता है ।
ब्रह्मचर्य बल से लक्ष्मण जी रावण-पुत्र मेघनाथ का संहार कर सके थे। पाण्डवों और कौरवों के पितामह भीष्म ने ब्रह्मचर्य के ही बल से मृत्यु पर विजय पा ली थी। ब्रह्मचर्य से ही हनुमान् महावीर बने ।
ब्रह्मचर्य से तुम्हें अनुपम स्वास्थ्य मिलेगा। ब्रह्मचर्य का पालन करने से दीर्घ आयु, परम सुख, शक्ति, तेज, बल, स्मरण शक्ति, ज्ञान, वैभव और अक्षय कीर्ति की प्राप्ति होती है तथा सद्गुणों और सत्यनिष्ठा का विकास होता है। नियमित रूप से जप, कीर्तन, प्रार्थना, ध्यान और सर्वांगासन करो। शुद्ध शाकाहारी भोजन ग्रहण करो। तुम एक तेजस्वी ब्रह्मचारी बनोगे ।
हे शंकर! पेट दुखता है तो खाना छोड़ दो। उपवास करो। एरण्ड के तेल की एक खुराक ले लो। गिलास भर गरम पानी पिओ । उपवास से बहुत लाभ होगा।
सदा अपने पेट में दवाएँ न भरते रहो। प्राकृतिक जीवन जिओ । प्रातःकाल और सायंकाल धूप-स्नान करो। नियमित व्यायाम करो । फल और टमाटर का रस लो। तुम्हारा स्वास्थ्य सुन्दर रहेगा।
तुम स्वयं अपना डाक्टर बनो। डाक्टर के पास न जाओ। शुद्ध वायु, शुद्ध जल, धूप, पौष्टिक आहार—ये उत्तम औषध हैं। सदा प्राकृतिक जीवन बिताओ।
मनुष्य का शरीर हड्डी, मांस, वसा और रक्त से बना है। छाती और पेट के अन्दर कई प्रकार के अवयव हैं। उनमें खाना पहुँचता है और हजम होता है। मूत्राशय में मूत्र रहता है। यकृत में पित्त पैदा होता है। मन दिमाग में रहता है। वह सोचने और अनुभव करने का काम करता है।
अमर आत्मा हृदय में बसता है। दोनों आँखें खिड़की हैं, जिनके द्वारा आत्मा देखता है। शरीर मरता है; पर आत्मा बना रहता है। तुम वस्तुत: अमर आत्मा हो।
सफाई देवत्व के समतोल है। सफाई रखने से शरीर में फुरती बनी रहती है। साफ रहोगे, तो स्वस्थ रहोगे। प्रतिदिन ठण्डे पानी से नहाओ। दाँत अच्छी तरह से साफ करो। स्वच्छ वस्त्र पहनो। अपने कपड़े रोज धोओ। विचार, वाणी और कर्म में भी सदा स्वच्छ रहो।
अपना कमरा खूब साफ करो। कूड़ा, धूल और रद्दी को हटाओ। रोज झाडू लगाओ। कई रोग भाग जायेंगे।
साफ रहोगे, तो तुम्हारे शिक्षक तुम्हें पसन्द करेंगे। सब लोग तुम्हें चाहेंगे। तुम्हारा व्यक्तित्व बढ़िया दिखेगा। गन्दे मनुष्य से सब घृणा करते हैं।
अपनी नोटबुक साफ रखो। प्रश्नों के उत्तर तुम साफ लिखोगे, तो परीक्षक प्रसन्न होगा। वह तुम्हें विशेष योग्यता के अंक भी देगा।
धूप, पानी, हवा, भोजन, व्यायाम और आराम -ये छह उत्तम वैद्य हैं। इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता। ये वैद्य तुमसे एक भी पैसा नहीं माँगेंगे। इनका इलाज सदा निःशुल्क होता है। इनसे मुफ्त इलाज कराओ और सुखी तथा स्वस्थ रहो।
धूप-स्नान बड़ा अच्छा टानिक है। उससे अद्भुत शक्ति मिलती है। उससे विटामिन डी मिलता है और सभी चर्मरोग मिटते हैं। धूप बड़ी सस्ती कीटाणुनाशक औषध है। वह सभी विषैले कीटाणुओं को नष्ट कर देती है। प्रतिदिन धूप में कुछ समय नंगे बदन रहो। शुद्ध वायु तुम्हारे खून की सफाई करेगी।
शुद्ध जल से स्वास्थ्य बनता है। हलके और पुष्टिकर आहार से तुम स्वस्थ और बलवान् बनोगे। सड़ी-गली चीजें, सड़े और कच्चे फल कभी न खाना। नियमित रूप से व्यायाम करो। आराम करो।
आम खा कर अपच हो जाये, तो दूध पीओ। घी अधिक खाने से अपच हो जाये, तो नींबू का रस लो। केला खाने से अपच हो जाये, तो साँभर नमक खाओ। केक खाने से अपच हो, तो गरम पानी पियो। दूध से अपच हुआ हो, तो मट्ठा पिओ। कटहल से अपच हुआ हो, तो केला खाओ।
नारियल से अपच हो गया हो, तो थोड़ा-सा चावल खाओ। दाल से अपच हो, तो थोड़ी चीनी खाओ। पानी का अपच हो, तो जरा शहद लो। खूबानी फल से अपच हो, तो खूब पानी पिओ ।
आँखों का अधिष्ठातृ देव सूर्य है। वह स्वास्थ्य, तेज और जीवन-शक्ति देता है। रोज सुबह-शाम आँखें बन्द करके धूप में बैठो। शिर को बायें और दायें कन्धों की ओर धीरे-धीरे बारी-बारी से झुकाओ। लगभग दश मिनट तक अपनी बन्द आँखों पर सूर्य की किरणें पड़ने दो।
अब छाया में आ जाओ। अपनी हथेली से दोनों आँखों को लगभग पाँच मिनट तक ढके रखो। ऐसा करते समय आँख की पुतली पर कोई दबाव न पड़ने पाये।
इससे देखने की शक्ति बढ़ेगी। चश्मे की आवश्यकता नहीं रहेगी। एक या दो सप्ताह तक इसका अभ्यास करो। यह अभ्यास एक महीने तक भी जारी रख सकते हो।
स्काउट बनो। प्राथमिक उपचार सीखो। कोई दुर्घटनाग्रस्त हो जाये.. तो उसकी सेवा कर सकते हो। पट्टी बाँधना सीखो। खून बहता हो, तो कपड़े का टुकड़ा तह करके खून को उससे या रूई से दबा कर रोको और उस पर पट्टी बाँध दो। कहीं कट जाये, तो साफ पानी से धोओ और आयोडीन या टिंचर बेन्ज़ाइन लगाओ।
अवस्तार (स्ट्रेचर) न हो, तो उसके स्थान में कोट काम में लाओ। नाक से खून बहता हो, तो नाक की ऊपरी हड्डी पर और गरदन के पीछे के भाग पर बरफ का टुकड़ा रखो। स्तब्धता (शाक) की दशा में रोगी को कम्बल से लपेट कर उसका शरीर खूब गरम करो। गरम काफी या चाय पिलाओ।
खून को बहने से रोकने के लिए फिटकरी के घोल का प्रयोग करो। यह घोल तैयार करके कपड़े या रूई का टुकड़ा उसमें भिगो लो। फिर इस भीगे हुए कपड़े को घाव पर रख कर पट्टी बाँध दो ।
हर मामूली तकलीफ में डाक्टर के पास दौड़ना अच्छा नहीं। तुम स्वयं डाक्टर बनो। एक दिन उपवास रखो। उससे कई रोग अच्छे हो जायेंगे ।
कब्ज में त्रिफला का चूर्ण गरम दूध या पानी के साथ लो। दूध में शहद मिला कर लो। अपच हो तो सुबह उठते ही खाली पेट ताजी अदरक के कुछ टुकड़े चीनी के साथ खाओ। कान से मवाद बहता हो, तो उसमें लहसुन या नीम के तेल की कुछ बूँदें डालो।
मसूड़े फूल जायें, तो सरसों का तेल और नमक मिला कर उन पर उँगली से रगड़ो। इस तेल का उपयोग गठिया में भी कर सकते हो। तेल को धूप में पका लो। दाँतों में खड्ड हो गया हो, तो उसमें थोड़ा-सा कपूर दबा दो ।
रोगी के स्वास्थ्य लाभ के लिए प्रार्थना करो। उसके पास बैठ कर कीर्तन करो। उसे सीधा लिटा दो। गरदन, छाती और कमर पर से कपड़ा ढीला कर दो जिससे कि रोगी आसानी से साँस ले सके।
रोगी को ऊनी कम्बल से लपेट दो। शरीर के दोनों पार्श्वो तथा पैरों के पास गरम पानी की बोतलें रखो। बोतलों को कपड़े से ढक दो। उनका असर शरीर की चमड़ी पर न होने पाये।
रोगी यदि पी सके, तो उसे गरम काफी या चाय पिलाओ। उसके हाथ और छाती पर तारपीन के तेल की मालिश धीरे-धीरे करो। उसे उठने न दो। उसके उठने से उसकी हृदय गति बन्द हो सकती है।
समय धन है। समय धन से भी अधिक मूल्यवान है। धन खो जाये तो फिर पैदा किया जा सकता है, लेकिन समय खो गया तो फिर प्राप्त नहीं किया जा सकता। जो क्षण बीत गया, उसे वापस नहीं लाया जा सकता।
जीवन क्षणों के समूह के सिवा और कुछ नहीं है। गीता-पाठ, कीर्तन, जप, प्रार्थना, ध्यान, गरीबों और साधुओं की सेवा, पाठ्य-पुस्तकों की पढ़ाई, अच्छे साधनों से धनोपार्जन आदि में जीवन के प्रत्येक क्षण का सदुपयोग करना चाहिए। घड़ी टिक्-टिक् करके यह याद दिलाती है कि जीवन का एक-एक क्षण बीता जा रहा है।
ताश या शतरंज खेलने में, सिनेमा देखने में और उपन्यास पढ़ने में समय बरबाद न करो। समय का मूल्य जानो। उसका दुरुपयोग करोगे, तो बुढ़ापे में पछताओगे। व्यर्थ की गपशप में समय बरबाद न करो। अपने समय का ठीक-ठीक उपयोग करोगे, तो तुम महान् बनोगे। रोज का कार्यक्रम बना लो और उस पर डटे रहो । निश्चय ही तुम सफल होओगे ।
समय बहुमूल्य है। रोज एक घण्टा देर से स्कूल जाओगे, तो पाठ पढ़ने से चूक जाओगे, ठीक समय पर स्टेशन नहीं जाओगे तो गाड़ी न पकड़ सकोगे।
ठीक समय पर काम करने की आदत डालो। जल्दी उठो और ठीक समय पर अपना काम शुरू कर दो। १० बजे स्कूल जाना हो, तो उससे कुछ समय पहले ही वहाँ पहुँच जाने का प्रयत्न करो। सभाओं में जाना हो, तो भी समय का ध्यान रखो।
देखो, प्रकृति भी नियमित चलती है। सूर्य ठीक समय पर निकलता है। ऋतुएँ ठीक समय पर आती है। समय का पालन नहीं करोगे, तो जीवन में असफल रहोगे। समय का पालन करोगे, तो महान् सफलता पाओगे। नियमितता की आदत डालोगे, तो सभी काम ठीक समय पर करने में सदा सहायता मिलेगी।
प्रत्येक मनुष्य को कर्तव्य का पालन करना होता है। माता-पिता की आज्ञा का पालन करो। तुम्हारी प्यारी माँ तुम्हें रोज खिलाती है और सब प्रकार से तुम्हें आराम पहुँचाती है। उससे प्रेम करो। उसका आदर करो। वह जो कहे, उसे पूरा मन लगा कर करो तथा उसे प्रसन्न रखो। पिता का भी कहना मानो। अपने पूज्य पिता का भी आदर करो। वह तुम्हारे लिए धन कमाते हैं। माता-पिता दोनों तुम्हारा ख्याल रखते हैं। तुम्हारे लिए वे भगवान् हैं, जिनका दर्शन तुम स्वयं कर सकते हो।
अपना पाठ अच्छी तरह याद करो। अपने शिक्षकों की आज्ञा का पालन करो और उनका आदर करो। यह भी तुम्हारा कर्तव्य है । अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद अपनी मातृभूमि की सेवा करो। गरीबों का दुःख दूर करो। यह भी तुम्हारा कर्तव्य है ।
बड़ों का आदर करो। पड़ोसियों की सेवा करो। प्रतिदिन तीन बार प्रार्थना और संध्या करो। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में 'तुम अपने कर्तव्यों का पालन जितनी कुशलता से करोगे, उतना ही तुम्हारा जीवन सफल होगा।
दब्बू न बनो। साहसी बनो। खुश रहो। शूर बनो। शेर की तरह चलो। हिम्मत के साथ बोलो। झेंप मिटाओ। सदा खुश रहो। अपने स्वास्थ्य का ख्याल रखो। स्वस्थ, सुदृढ़ और जोशीले रहो।
जो भी काम करने का निश्चय करो, उसे पूरे मन से, जी लगा कर पूरा करो। हर हालत में उसे पूरा करो। अधूरा न छोड़ो। पढ़ने के लिए कोई पुस्तक लो, तो उसे पूरी पढ़ो।
सेवा और त्याग तुम्हारे जीवन का लक्ष्य होना चाहिए। मातृभूमि के लिए अपना सर्वस्व त्याग करने वाले महापुरुषों का स्मरण रखो। ऐसे वीरोचित कार्य करो जिन्हें लोग चिर काल तक याद रखें। आदर्श जीवन जियो ।
● जहाँ अज्ञान ही आनन्द है, वहाँ बुद्धिमान् बनना नादानी है।
● हथेली पर दही नहीं जमता।
● बूँद-बूँद से भरे सरोवर ।
● छोटी-छोटी बातों का ध्यान रखो, बड़ी बातें अपने-आप ही सुलझ जायेंगी।
● धीमा किन्तु निरन्तर अध्यवसाय करने वाला सफल होता है।
● देख कर पाँव रखो।
● जल्दबाजी से बरबादी होती है।
● शील स्वयं अपना पुरस्कार है।
● क्रीड़ा रहित कार्य मूढ़ता का जनक है।
● सब बातों की जानकारी रखो; पर किसी एक में प्रवीण बनो।
● जो कुछ भी करो, कुशलतापूर्वक करो।
● मेरे मन कुछ और है और कर्ता के कुछ और।
● फूलमाला से मीठी बोली बेहतर है।
● अपने लिए जैसा बरताव पसन्द करते हो, वैसा ही दूसरों के साथ करो।
● मृदु वचन से कटुता दूर हो जाती है।
● कोई अवसर न चूको ।
● बहती गंगा में हाथ धो लो ।
● एकता में बल है।
● ईमानदारी का काम सम्माननीय होता है।
● भाग्य पुरुषार्थी का ही साथ देता है।
● पराजय विजय की सीढ़ी है।
माता-पिता की आज्ञा का पालन करो। सदा सत्य बोलो। कभी असत्य न बोलो। समय का पालन करो। सदा साफ-सुथरे रहो। भले बनो और भला करो। वीर बनो। गरीब और जरूरतमंद लोगों की सहायता करो। अपना कर्तव्य भली प्रकार पूरा करो।
अपना पाठ ठीक से याद करो। बड़ों का तथा अपने शिक्षक का सम्मान करो। देश की सेवा करो। समाज की सेवा करो। काम मत टालो । कल करने के लिए कुछ भी न छोड़ो। अपना कर्तव्य ठीक से निभाओगे, तो जीवन में विजयी होओगे। सदा बहुत सुखी रहोगे।
सदा फुरतीले रहो। निष्काम सेवा, त्याग और प्रेम को जीवन का लक्ष्य बनाओ। आदर्श जीवन जिओ। नम्र और मृदु बनो। दूसरों की भावनाओं को मत दुखाओ। कटु शब्द कभी न बोलो। मीठा बोलो। बहुत अधिक मत बोलो। किसी की निन्दा न करो। प्रतिदिन कुछ-न-कुछ सेवा करो।
प्रत्येक क्षण का सदुपयोग करो। परिश्रमी बनो। सदा सावधान रहो। अपना सर्वांगीण विकास करो। स्वयं भोजन बनाना सीखो। टाइप करना और शार्टहैण्ड - लेखन सीखो। ईमानदारी से व्यवसाय करो। बागवानी और खेती सीखो। घर के पीछे थोड़ी भूमि हो, तो वहाँ साग-सब्जी और फलों के पेड़ लगाओ।
सदा व्यस्त रहो। निरीक्षण की शक्ति का विकास करो। भले लोगों की संगति करो। एक पैसे का भी दुरुपयोग न करो। जब स्वयं रोटी कमा सको, तभी विवाह करो। सुव्यवस्थित और अनुशासित जीवन जिओ । आलस्य, प्रमाद और चुगलखोरी को दूर भगाओ। किसी भी गुट में सम्मिलित न होओ।
फुरसत के समय बच्चों को पढ़ाओ। छोटा-सा कोई उद्योग शुरू करो, जो कमाई का साधन हो और जिसमें ज्यादा पूँजी न लगती हो। कोई अच्छी कमीशन एजेन्सी लो। पैसा-पैसा बचाओ। कला, दस्तकारी, हारमोनियम, वायलिन या गायन सीखो।
मेरी प्यारी राधा, प्रातः काल जल्दी उठो मेरे प्यारे राम, बिस्तर से उठते ही यह धुन गाओ :
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।।
अपने माता, पिता और सभी गुरु जनों को दण्डवत् प्रणाम करो। पाठशाला में जब अपने मित्रों या सहपाठियों से मिलो, तब कहो — 'जय राम जी की' या 'जय कृष्ण जी की' या 'ॐ नमो नारायणाय' या 'जय सीताराम' या 'जय राधेश्याम' ।
अपनी पुस्तकें पढ़ने पहले भगवान् की स्तुति करो।
ताश न खेलो। ताश खेलने से तुम बिगड़ जाओगे। सिनेमा न देखो। रोज मन्दिर जाओ और ईश्वर की पूजा करो। मन्दिर जाते समय फूल, कपूर और फल ले जाओ।
किसी से घृणा न करो, अपितु सबसे प्रेम करो। अन्धे को पैसा दो। माता-पिता के कपड़े धोओ। माता-पिता तथा दूसरों पर कभी क्रोध न करो। क्रोध बुरा है। उससे स्वास्थ्य खराब हो जायेगा। उससे तुम्हारा नाम भी कलंकित होगा। क्रोध में आ कर तुम गलत काम कर बैठोगे ।
ईश्वर तुम्हारे सभी विचारों पर निगाह रखता है। कोई विचार छिपाओ नहीं। स्पष्टवादी बनो। विचार, वाणी और क्रिया में शुद्ध रहो।
प्रिय गोविन्द! अपने भाइयों तथा सहपाठियों से झगड़ा न करो। माता, पिता तथा गुरु का कहना मानो। धूम्रपान न करो। यह बुरी आदत है। धूम्रपान करने से बीमारी आयेगी। बुरी संगति छोड़ दो।
गन्दे शब्द न बोलो। किसी को गाली मत दो। सबके प्रति दया रखो। सबकी सेवा करो। बड़ों का आदर करो। चोरी न करो। किसी को पीड़ा मत पहुँचाओ। नम्रता से बोलो। मीठा बोलो। पाठशाला में सब काम ठीक समय पर करो।
रोज का पाठ ठीक से याद करो। अपनी कक्षा में प्रथम आओ। ज्यादा न खेलो। खटमल और बिच्छुओं को मत मारो। समय बरबाद न करो ।
हे महादेव! विलासिता से बचो। खाने और पहनने में सादगी बरतो । अपनी इच्छाओं और आवश्यकताओं को बढ़ाओ नहीं। इच्छाएँ और विलासिता सुख और शान्ति की दुश्मन हैं। सादा जीवन सुख और शान्ति देता है।
सभी ऋषि और मुनि सादा जीवन जीते थे। वे उच्च विचार रखते थे। उनका जीवन ईश्वरमय था। वे सदा आनन्दमय थे। उन्हें दिव्य ज्ञान प्राप्त था। राजा उनकी पूजा करते थे। ईश्वरमय जीवन बिताओ। जप करो। भजन-कीर्तन करो। उच्च विचार रखो। छुट्टी के दिनों में साधु-सन्तों की संगति में रहो।
अपने में अनुकूलनशीलता के गुण का विकास करो। अपने को सबके अनुकूल बना लो। तभी सबका मन जीत सकोगे, जीवन में सफल होओगे। सबके अनुकूल रहने के लिए तुम्हें नम्र और प्रेममय बनना होगा।
अहंकार, कठोरता और हठ अनुकूलनशीलता में बाधक हैं। मृदु रहो। सज्जन बनो । विनम्र बनो। सादगी से रहो। बड़ों का कहना मानो । हठ मत करो। तुम जल्दी अनुकूलनशील बन जाओगे ।
यदि तुममें अनुकूलनशीलता है, तो सब तुम्हें प्यार करेंगे। तुम अपने आफिस के कामकाज भी आसानी से निपटा सकोगे। वेतन में वृद्धि होगी और तुम जल्दी अपने विभाग के प्रमुख बन जाओगे ।
छोटी-छोटी बातों में भी ईमानदार बनो। ईमानदारी सर्वोत्तम नीति है। ईमानदारी मूलभूत गुण है। ईमानदार मनुष्य पर सभी लोग विश्वास करते हैं। उसका सब आदर करते हैं। वह जीवन में विजयी होता है। वह शीघ्र तरक्की करता है। वह अपने उद्योग-व्यापार का तुरन्त विस्तार कर सकता है। वह प्रसिद्ध हो जाता है।
ईमानदार मनुष्य पर ईश्वर कृपा करता है। अधिकारी लोग ईमानदार मनुष्य को पसन्द करते हैं। ईमानदार रहोगे, तो तुम्हारा चित्त शाांत रहेगा। सुख की नींद आयेगी और स्वास्थ्य ठीक रहेगा। परलोक में स्वर्ग द्वार तुम्हारे लिए खुले रहेंगे।
रिश्वत न लो। यह बेईमानी है, पाप है। इस कुकृत्य का बुरा फल भोगना पड़ता है। अपनी आय के अन्दर निर्वाह करो। उतना ही पाँव फैलाओ, जितनी लम्बी चादर हो। अपने खर्चे को आमदनी से अधिक न होने दो। सादा जीवन जिओ। तब अधिक धन की अपेक्षा नहीं रहेगी। धन उधार लेना नहीं पड़ेगा। रिश्वत लेने का प्रलोभन नहीं रहेगा।
जल्दी सो कर जल्दी उठने से मनुष्य स्वस्थ, समृद्ध और बुद्धिमान् बनता है। वचन में जल्दबाजी न करो, पर दिया हुआ वचन पूरा करने में विलम्ब न करो। वक्त का एक टाँका नौ टाँकों से अच्छा है। 'तब पछताये होत क्या जब चिड़ियाँ चुग गयीं खेत।' एकता में बल है।
एक हँसी हजार रोगों का उपचार है। दान के बछड़े के दाँत नहीं गिने जाते। चीजें जैसी दीखती हैं, असल में वह वैसी नहीं हैं। अहंकार वायुवेग से आता है, चींटी की चाल से जाता है। उपदेश देना आसान है, उस पर अमल करना कठिन ।
रोग का इलाज करने से बेहतर है, उससे बचाव करना। जो कुछ भी है, वह ईश्वर ही है। सभी चमकने वाली वस्तुएँ सोना नहीं होतीं। बिना सेवा के मेवा नहीं। ईश्वर में श्रद्धा रखो और भला काम किये जाओ। समय सबसे मूल्यवान् है ।
वकील या पुलिस आफिसर न बनो। प्रतिदिन असंख्य बार झूठ बोलना पड़ेगा। रोज कई गलत काम करने पड़ेंगे। इससे आत्मा का हनन होगा।
डाक्टर बनो या प्रोफेसर बनो या किसान बनो। प्रोफेसर बनोगे, तो खूब अवकाश मिलेगा। शान्त और धर्ममय जीवन जी सकोगे। प्रतिदिन जप, कीर्तन और ध्यान के लिए पर्याप्त समय मिलेगा।
अपनी खेती का ध्यान रखो। उससे खूब धन मिलेगा। इसमें स्वावलम्बन है। डाक्टरों का पेशा उत्तम है, लेकिन मोटी फीस न लेना। गरीबों का उपचार निःशुल्क करो ।
कालेज की लड़की बड़े फैशन वाली बन जाती है। अँगरेजियत उसमें आ जाती है। वह खाना नहीं पका सकती। उसे एक रसोइया चाहिए। उसके कपड़े धो देने के लिए एक नौकरानी चाहिए। अगर तुम ऐसी लड़की से शादी करोगे, तो तुम उसकी आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर सकोगे। उसके साथ तुम्हारा जीवन सुखी नहीं होगा।
वह घर नहीं सँभाल सकती। वह तुमसे समानता का हक माँगेगी। वह तुम्हारी सुविधा का ख्याल नहीं रख सकेगी। वह कीमती साड़ियाँ और कई प्रकार के आभूषण माँगेगी। यदि तुम उसे अपना कोई काम करने के लिए बुलाओगे, तो वह उपन्यास पढ़ती रहेगी। सिनेमा दिखाने के लिए वह तुम्हें रोज परेशान करेगी।
सरल, धार्मिक, थोड़ी अँगरेजी और मातृभाषा जानने वाली कुलीन लड़की से विवाह करो। विवाह तभी करो, जब तुम अपनी जीविका स्वयं चलाने के योग्य बन जाओ।
शिष्टाचार कुलीनता का चिह्न है। उससे तुम्हारी दयालुता और नम्रता का पता चलता है। सुशील रहोगे तो सब तुम्हें प्यार करेंगे, सम्मान लोकप्रिय बनोगे । टैगे तुम
अच्छे गुण सीखो। अशिष्ट और अभद्र न बनो। कोई तुम्हारे घर पर आये, तो कहो— 'जय राम जी की। आइए, आसन ग्रहण कीजिए। कहिए आपकी क्या सेवा करूँ ? पीने के लिए जल ला दूँ।'
कोई तुम्हें भेंट में कुछ देता है, तो कहो- 'बहुत-बहुत धन्यवाद। इस प्रकार बोलोगे, तो सब पर तुम्हारी अच्छी छाप पड़ेगी।
अपनी माता के समान ही अपनी मातृभूमि से भी प्रेम करो। भारत से प्रेम करो। यह देश-भक्ति है। मातृभूमि बड़ी मधुर और सुन्दर है। तुम्हारी मातृभूमि की महिमा अनिर्वचनीय है।
विदेशों में रहते हुए तुम्हारे पास भोग-विलास की सामग्री भरपूर हो सकती है। तुम्हारे जीवन में हर प्रकार की सुविधा हो सकती है। फिर भी तुम्हारा मन खुश नहीं होगा। तुम्हें अपने प्रिय घर और देश की याद आती रहेगी। तुम्हें अपने बचपन की, अपने मित्रों तथा माता-पिता और भाई-बहनों के साथ बिताये मधुर जीवन की भी याद आयेगी।
अपने देश की सेवा करो। त्याग, सेवा और प्रेम को अपना लक्ष्य बनाओ। सच्चा देश-भक्त अपनी मातृभूमि के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने को सदा तैयार रहता है। मातृभूमि की जय हो! संसार-भर में पवित्र भारतवर्ष की जय हो! योगियों और ऋषियों के देश भारत की जय हो!
अपने जीवन का बीमा ईश्वर के यहाँ कराओ। वहाँ तुम्हें पूर्ण सुरक्षा मिलेगी। बाकी सभी बीमा कम्पनियाँ डूब सकती हैं, पर यह बीमा कभी धोखा नहीं दे सकता।
इस बीमे के लिए कोई रकम नहीं जमा करानी पड़ती। केवल ईश्वर से प्रेम करना पर्याप्त है। केवल अपना हृदय ईश्वर को समर्पित करना पर्याप्त है। इससे अक्षय दिव्य सम्पदा प्राप्त होगी।
ईश्वर की महिमा गाओ। कीर्तन करो। सदा भगवान् के नाम का जप करो। सारे सांसारिक मोह छोड़ दो। तुम्हें सतत परम आनन्द प्राप्त होगा।
अपने से बड़ों की आज्ञा का पूरा-पूरा पालन करो। उनकी निन्दा न करो। उनका अपमान न करो। उनके प्रति कटु शब्दों का प्रयोग न करो। उन्हें सम्मान साथ सम्बोधित करो। यदि तुम अपने माता-पिता का अपमान करोगे, तो जीवन में तुम्हें बहुत मुसीबतें उठानी पड़ेंगी।
गुरु की आज्ञा का पालन करो। उन्हें भगवान् समझ कर पूजा करो। वे तुम्हें विद्या देते हैं जो कि सर्वोत्तम वरदान है। अन्धकार मिटा कर वे तुम्हें ज्ञान का प्रकाश दिखाते हैं। जो अपने गुरु का अपमान करते हैं, उन्हें नरक का कष्ट भोगना पड़ता है।
माता-पिता, गुरु, भाई-बहनों की आज्ञा का पालन करोगे तो महापुरुष कहलाओगे; खूब वैभव, समृद्धि और सुख पाओगे।
बिस्तर से उठते ही ठीक तरह से मुँह धोओ और दाँत साफ करो । फिर नहाओ। ईश्वर की स्तुति करो। हरि-नाम गाओ। देवी सरस्वती की पूजा करो। वह तुम्हें ज्ञान, विवेक और वाक् शक्ति प्रदान करेंगी। तब बाकी काम करो।
जब तक मुँह न धोओ और दातून न करो, तब तक कुछ न खाओ। कपड़े साफ रखो। भोजन से पहले हाथ अच्छी तरह साफ करो। नाखून न चबाओ। यह एक बुरी आदत है। हाथ साफ रखो। लिखते समय हाथ स्याही से न भरने पाये।
एकादशी की रात को भोजन न करो। ज्यादा मिठाई मत खाओ। सोने-चाँदी के आभूषण न पहनो। गद्दों पर मत सोओ। फैशन की चीजें खरीदने में पैसे बरबाद न करो। मितव्ययी और सादा बनो।
आदर्श नैतिक चरित्र से सम्पन्न बनो। सच्चरित्रता के बिना सच्ची और स्थायी सफलता नहीं मिलती। चरित्र बल है। उसके बिना जीवन विफल है।
कोई विषय दिमाग में ठूंसो मत। भाव समझ कर पढ़ो। समझ समझ कर पढ़ो। तब पढ़ी हुई बात को याद रखना सरल हो जायेगा। एकाग्र हो कर पढ़ाई करो। सदा आशावान् रहो। सब-कुछ भली-भाँति पढ़ो।
पुराने पाठ बार-बार पढ़ो। यदि तुम ऐसा नहीं करोगे, तो उन्हें भूल जाओगे। जो भी पढ़ चुको, उसे लिख डालो। ईश्वर की प्रार्थना करो और उससे उसकी कृपा की याचना करो।
समूचे जीवन में छात्र-जीवन अति उत्तम है। इस जीवन में पारिवारिक जिम्मेदारी नहीं रहती। विद्यार्थी परिवार से सम्बन्धित परेशानियों मुक्त रहता है। माता-पिता तुम्हारा ध्यान रखते हैं। पाठशाला चरित्र का निर्माण करने और अच्छी आदतें डालने का स्थान है ।
माता भी उत्तम गुरु है। वह चरित्र बनाती है। शिक्षक एक महीने में जो सिखाता है, माता उसे सुगमतापूर्वक घर में ही, बहुत कम समय में सिखा सकती है।
रोज के काम का एक नियमबद्ध क्रम बना लो। एक समय-सूची तैयार करो। हर हालत में उसके अनुसार चलो। प्रातःकाल (५ से ७ बजे (तक) का समय पढ़ाई के लिए अत्युत्तम समय है। परीक्षा के दिनों में आधी-आधी रात तक मत पढ़ो। इससे स्वास्थ्य बिगड़ता है।
प्रतिदिन खेला करो। खेलने से शरीर चुस्त और हृष्ट-पुष्ट बनेगा।
ईमानदार बनो। ईमानदारी से काम करो। सत्कर्म करो। हृदय को विशाल बनाओ। सच्चा महापुरुष वह है, जिसका हृदय विशाल हो तथा जो सच्चरित्र और विवेकी हो ।
ईश्वर की दृष्टि में संसार की दौलत का कोई मूल्य नहीं है। गरीब मनुष्य भी, यदि वह चाहे, तो प्रयत्न करके महापुरुष बन सकता है।
नेपोलियन, नेल्सन, लार्ड क्लाइव, रैम्से मैकडानेल्ड, जस्टिस मुत्थुस्वामी अय्यर, कार्डिनल वोल्सी-वे सब जन्म से गरीब थे। वे अपने प्रयास से महान् बने। उनके महान कार्य अविनाशी हैं। उनके नाम अमर है।
बुरे बच्चों की संगति छोड़ दो। लड़कियों से मजाक मत करो। बुरे बच्चों के साथ रहोगे, तो वे तुम्हें बिगाड़ देंगे।
ताश मत खेलो। जुआ मत खेलो। इससे तुम बिगड़ जाओगे। ताश खेलने लगोगे, तो अपने पिता की जेब से पैसे चुराओगे। एक-एक करके सारी बुराइयाँ तुममें आ जायेंगी।
बाजार की मिठाई न खाना। इससे स्वास्थ्य खराब हो जायेगा और बीमार पड़ जाओगे। बाजार की मिठाइयाँ मक्खियों और दूसरे विषैले कीटाणुओं से दूषित हो जाती हैं।
खेल-खेल में भी दूसरों को धोखा न देना। सभी खेलों में निष्पक्ष रहो। बचपना छोड़ दो, लेकिन बाल-सहज सादगी बनाये रखो।
तुम्हारा भाई बीड़ी पीता है, तो तुम उसकी नकल न करो। तम्बाकू न खाओ। बीड़ी की दुकान पर न जाओ। अपने भाई के लिए सिगरेट मत खरीदो। पान मत खाओ।
सिनेमा मत देखो। इससे तुम्हारी आँखें खराब हो जायेंगी। तुम खराब लड़कें बन जाओगे। सिनेमा देखने से तुम्हारा चरित्र बिगड़ जायेगा।
सादी पोशाक पहनो। चोटी रखने में शर्म न करो। फैसनेबल तरीके से बालों को मत सँवारो। बूट-पैण्ट पहनना छोड़ दो। ये सब बिलकुल बेकार हैं, खरचीले भी हैं। सादे कपड़े पहनो। सादा खाना खाओ। लाल मिर्च, इमली, चाय, काफी, लहसुन, प्याज, मछली और इसी प्रकार की दूसरी उत्तेजक चीजें न खाओ।
प्रातः ४ बजे उठो। रात में छह घण्टे सोओ। रोज जप की दश माला फेरो। एक घण्टा कीर्तन करो। बीस प्राणायाम करो। शीर्षासन, सर्वांगासन, हलासन और मत्स्यासन करो। जप और ध्यान के लिए पद्मासन में बैठो। प्रतिदिन गीता का थोड़ा पाठ करो।
सज्जनों की संगति में समय बिताओ। सप्ताह में एक दिन मौन रखो। रोज कुछ-न-कुछ निःस्वार्थ सेवा करो। खूब दान दो। एक कापी में मन्त्रों को लिखो। शाम को व्यायाम करो। असत्य न बोलो। क्रोध मत करो। बेकार लोगों की संगति में न रहो। ब्रह्मचर्य का कड़ा पालन करो। प्रतिदिन धार्मिक साहित्य पढ़ो। क्रोध, ईर्ष्या, कामना, अहंकार आदि दुर्गुणों को नियन्त्रित करो।
सदा ईश्वर का स्मरण करो। एकादशी के दिन उपवास करो। उपन्यास पढ़ना, नाटक-सिनेमा देखना, काफी-चाय पीना आदि दुर्व्यसनों को छोड़ दो। अच्छे चरित्र (यम और नियम) का विकास करो। कम खाओ, कम बोलो, अधिक पढ़ो। दश बजे रात को सो जाओ।
सच्चारित्र्य सभी प्रकार की धन्यता का मूल स्रोत है। उसे 'यम' और नियम' भी कहते हैं। यदि तुम इन नैतिक नियमों और आध्यात्मिक व्रतों का पालन करोगे, तो शक्तिशाली और महान् बनोगे।
किसी प्राणी या मनुष्य को चोट न पहुँचाओ। सदा सत्य बोलो । दूसरों की सम्पत्ति न चुराओ । ब्रह्मचर्य का पालन करो। दूसरों से उपहार न लो। यह 'यम' है।
शरीर और मन से शुद्ध रहो। सदा सन्तुष्ट और प्रसन्न रहो। कम-से-कम एकादशी के दिन उपवास करो। गीता की तरह के धार्मिक ग्रन्थों का पाठ करो और जप करो। प्रतिदिन ईश-प्रार्थना करो। यह 'नियम' है।
यम और नियम से बढ़ कर दूसरी सम्पत्ति नहीं है। यम-नियम के पालन से बढ़ कर गौरव की कोई दूसरी बात नहीं हो सकती। इनका पालन करोगे, तो ईश्वर स्वयं तुम्हारे पास मदद करने आयेगा ।
प्रतिदिन निम्नांकित कीर्तन करो-
गोविन्द जय-जय गोपाल जय-जय,
राधारमण हरि गोविन्द जय-जय ।
श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारे,
हे नाथ नारायण वासुदेव ।
नारायण अच्युत, गोविन्द माधव केशव,
सदाशिव नीलकण्ठ शम्भो शंकर सदाशिव ।
राधे गोविन्द भजो राधे गोपाल,
राधे गोविन्द भजो राधे गोपाल ।
हरे कृष्ण हरे राम, राधे गोविन्द,
जय सियाराम जय जय सियाराम।
जय राधेश्याम जय जय राधेश्याम,
जय हनुमान् जय-जय हनुमान् ।
राम राम राम राम राम राम राम,
राम राम राम राम राम राम राम ।
जय नन्दलाला दीनदयाला,
जय कृष्ण जय हरे-हरे ।
ईश्वर में पूर्ण श्रद्धा रखो। पवित्र ग्रन्थों और महापुरुषों के वचनों पर श्रद्धा रखो। अपने आप पर श्रद्धा रखो। ईश्वर कृपा और उनकी नाम-महिमा पर श्रद्धा रखो।
श्रद्धा से पर्वत तक हिल जाते हैं। श्रद्धा डगमगाती हो, तो साधु-सन्तों और भक्तों की संगति से तथा धर्मग्रन्थों के अध्ययन से उसे दृढ़ करो। ईश्वर के लिए हृदय खुला रखो। बालकों की तरह सरल बनो ।
नामदेव भगवान् कृष्ण पर अगाध श्रद्धा रखते थे। भगवान् ने नामदेव के हाथ से खाना ले कर खाया। प्रह्लाद की श्रीहरि में अविचल भक्ति थी। भगवान् ने उन्हें उनके क्रूर पिता द्वारा दी जाने वाली यातनाओं से बचाया। भगवान् शिव ने भक्त कण्णप्प को दर्शन दिये।
प्रार्थना एक महान् आध्यात्मिक शक्ति है। श्रद्धापूर्वक सच्ची भक्ति से आर्द्र हृदय से ईश्वर की प्रार्थना करनी होती है। ईश्वर-प्रार्थना की क्षमता पर सन्देह न करो। प्रार्थना में अद्भुत शक्ति भरी है।
प्रार्थना के समय अपने हृदय का द्वार पूर्ण रूप से खुला रखो। संकीर्णता या कुटिलता न रहने दो। तुम सब कुछ पा जाओगे। प्रार्थना नियमित रूप से करो। ईश्वर से प्रकाश, पवित्रता, भक्ति और ज्ञान की याचना करो।
द्रौपदी ने भक्तिमय हृदय से प्रार्थना की। श्री कृष्ण ने उन्हें तुरन्त ही मुसीबतों से बचाया। गजेन्द्र ने भी भक्तिमय हृदय से प्रार्थना की। उसकी रक्षा के लिए भगवान् चक्र ले कर दौड़े आये। मीरा ने प्रार्थना की। भगवान् कृष्ण ने उसकी सेवा एक सेवक की भाँति की। अभी से, इसी क्षण से पूरे हृदय से प्रार्थना करने लगो । हे प्रिय राधाकृष्ण ! देर न करो। कल कभी नहीं आयेगा ।
प्रातः शीघ्र उठो । ईश्वर के नाम का कीर्तन करो। स्तोत्र पाठ करो। बोलो-
कृष्णं कमलपत्राक्षं पुण्यश्रवणकीर्तनम् ।
वासुदेवं जगद्योनिं नौमि नारायणं हरिम् ।।
मुँह धोओ। स्नान करो। ईश्वर नाम का जप करो। उनकी प्रार्थना करो। उनकी पूजा करो। जल-पान करो। तब स्कूल जाओ। ईश्वर से प्रार्थना करो कि वह तुम्हें तुम्हारे अध्ययन में सफलता दें।
दोपहर में भोजन से पहले एक बार और ईश्वर की प्रार्थना करो। पहले भगवान् को भोजन अर्पित करो, तब उसे ग्रहण करो। वह तुम पर प्रसन्न होंगे और तुम्हारी सहायता करेंगे।
शाम को खेल-कूद के बाद हाथ-पैर-मुँह धोओ। एक बार फिर जप करो, ईश्वर-प्रार्थना करो। उनका गुणगान करो, उनकी लीलाएँ पढ़ो।
प्रिय राम! श्री कृष्ण के १०८ नामों का खूब अध्ययन करो। उसे 'कृष्णाष्टोत्तरशतनाम कहते हैं। उसे कण्ठस्थ कर लो और रोज पाठ करो। विष्णु के हजार नाम भी पढ़ो। उसे 'विष्णुसहस्रनाम' कहा जाता है। जितनी बार हो सके, उसका पाठ करो। उससे समृद्धि, परीक्षा में सफलता, बुद्धि, तन्दुरुस्ती और ईश्वर भक्ति प्राप्त होती हैं।
इसके बाद गीता का अध्ययन करो। रोज थोड़ा-थोड़ा पढ़ो। उसका अर्थ पढ़ो। श्री कृष्ण तुम्हारा ध्यान रखेंगे। वह सदा तुमसे प्यार करते हैं। वह हमेशा तुम्हारे पथ-प्रदर्शक रहे हैं। वह महेश्वर हैं।
अपने पिता से पूछो कि भागवत क्या है। वे बतायेंगे कि वह ईश्वर की कथा है। वह संस्कृत भाषा में है। संस्कृत भाषा सीखो और भागवत पढो ।
गीता बहुत पवित्र ग्रन्थ है। उसमें सभी उपनिषदों का सार है। उसमें अठारह अध्याय और सात सौ श्लोक हैं।
श्री कृष्ण ने अपने भक्त अर्जुन को कुरुक्षेत्र की रणभूमि में गीता का उपदेश दिया।
महर्षि व्यास ने यह पुस्तक लिखी है। रोज एक श्लोक याद करो। गीता का अध्ययन प्रतिदिन करो। तुम खूब उन्नति करोगे। अपनी जेब में सदा गीता की एक प्रति रखा करो।
गंगा नदी संसार-भर में पवित्र नदी है। यमुना, गोदावरी, सरस्वती. नर्मदा, सिन्धु, कावेरी, ताम्रपर्णी और सरयू नदियाँ अन्य पवित्र नदियाँ हैं। राजा भगीरथ अपनी तपश्चर्या के बल से गंगा नदी को स्वर्ग से धरती पर लाये।
इन पवित्र नदियों में स्नान करो। उससे तुम्हारा मन शुद्ध होगा। गंगालहरी-स्तोत्र का पाठ करो और गंगा जी की आरती शाम के समय करो।
श्री राम श्री राम श्री राम श्री राम,
श्री राम श्री राम श्री राम श्री राम ।
कापी में रोज दश मिनट तक 'श्री राम' लिखो। इससे परीक्षा में सफल होओगे। खूब धन कमाओगे और अच्छा स्वास्थ्य पाओगे। तुम्हारी सारी विपत्तियाँ दूर होंगी। यह सभी रोगों का उत्तम उपचार है। तुम सदा प्रसन्न और सुखी रहोगे ।
इस कापी को पूजा घर में रखो। फूलों से इसकी पूजा करो।
पिता प्रत्यक्ष ईश्वर है । माता प्रत्यक्ष ईश्वर है। साधु प्रत्यक्ष ईश्वर है। साधुओं की सेवा करो। गरीबों की सेवा करो। रोगियों की सेवा करो। माता-पिता की सेवा करो। शिक्षक की सेवा करो। मित्रों की सेवा करो।
सेवा ईश्वर की पूजा है। मनुष्य की सेवा ही ईश्वर की सेवा है। दरिद्रों की सेवा ही ईश्वर की सेवा है। माता-पिता की सेवा ही ईश्वर की सेवा है।
सेवा से हृदय शुद्ध होता है और परम सुख मिलता है। प्यासे को पानी पिलाओ। सहपाठियों की मदद करो। जो तुम समझ गये हो, वह उन्हें भी समझाओ। सड़क पार करने में अन्धों की सहायता करो।
रसोई बनाने में माता की सहायता करो। पास के कुएँ से, तालाब या नदी से पानी ला दो। बाजार से सब्जी और फल ला दो। माता-पिता के, रोगियों के और महात्माओं के कपड़े धो दो।
अपने पड़ोसियों के लिए अस्पताल से दवा ला दो। घर बुहार दो । बरतन साफ करो। खुद खाने से पहले गरीबों को, गायों को, पक्षियों को रोटी दो। प्राथमिक चिकित्सा सीखो। सड़क पर से काँटे, काँच के टुकड़े और पत्थर हटाओ। कोई काम अधूरा न छोड़ो।
पत्तू एक नास्तिक है । कित्तू एक आस्तिक है। जो ईश्वर को मानता नहीं, वह नास्तिक कहलाता है। जो ईश्वर को मानता है, वह आस्तिक कहलाता है।
पत्तू ने कित्तू से पूछा - "प्यारे कित्तू ! तुम हमेशा ईश्वर की बात करते रहते हो। तुम कीर्तन और जप करते हो। उसे फूल चढ़ाते हो। वह है कहाँ ?"
कित्तू ने कहा-' -"पत्तू! वह तो सब जगह है। वह तुम्हारे हृदय में भी है। वह सभी प्राणियों में है ।"
पत्तू ने कहा- "कित्तू! मुझे अपना ईश्वर दिखाओ।"
कित्तू ने पत्तू को एक छड़ी लगायी और कहा- पत्तू, अपना दर्द दिखाओ तो।"
पत्तू ने जवाब दिया- "दर्द दिखाऊँ कैसे ? वह तो में अनुभव कर रहा हूँ।
कित्तू ने कहा- ईश्वर भी ऐसा ही है। उसका जप और ध्यान करके अनुभव करना होता है। मैं उसे दिखा नहीं सकता।"
उसी क्षण से पत्तू आस्तिक बन गया।
जबान सँभाल कर बोलो। बोलते समय प्रत्येक शब्द पर ध्यान दो। किसी की बुराई न करो। बढ़ा-चढ़ा कर न बोलो। सत्य और यथार्थ बोलो। वाणी पर बड़ी सावधानी से नियन्त्रण रखो। कम बोलो। नपे-तुले शब्द बोलो। बातूनी मत बनो ।
बोलने से पहले सोच लो कि तुम्हारी बात सच्ची, प्रिय और हितकर है या नहीं। यदि न हो, तो मत बोलो। अपने काम से काम रखो। दूसरों के मामलों में दखल न दो ।
किसी की बुराई सुनो, तो फिर उसे किसी से न कहो। चतुराई दिखाने की कभी कोशिश न करो। मौन रहने का महत्त्व समझो। बिन-माँगी सलाह न दो । इन नियमों का पालन करोगे, तो सुखी और शान्त रहोगे। लोग तुम्हें। चाहेंगे, तुम्हारा सम्मान करेंगे। तुम जीवन में सफल होओगे ।
साधु-संन्यासियों, योगियों, महात्माओं, भक्तों आदि की संगति तथा उनसे आध्यात्मिक उपदेश श्रवण करने को सत्संग कहते हैं। सत्संग वह नाव है जो प्राणी को निर्भयता और अमरता-रूपी दूसरे तट पर पहुँचाती है।
सत्संग से अज्ञान का अन्धकार मिटता है और हृदय में सांसारिक विषय-भोगों के प्रति अनासक्ति तथा वैराग्य भर जाता है। सत्संग अज्ञान रूपी बादलों को तितर-बितर कर देने वाला सूर्य है। उससे दिव्य जीवन जीने की प्रेरणा मिलती है और परमेश्वर के अस्तित्व की धारणा दृढ़ होती है।
धर्मग्रन्थों का अध्ययन अभावात्मक सत्संग है। महात्माओं के दर्शन के लिए जाते समय भक्ति भाव से कुछ-न-कुछ फल ले कर जाओ। उनसे बहस न करो। शान्त बैठ कर उनका उपदेश सुनो तथा उसे आचरण में लाओ।
हे सोहराब ! मनुष्य कई प्रकार के काम करता है। शरीर से जब प्राणवायु निकल जाता है, तब शरीर धरती पर शव बन कर पड़ा रह जाता है। उससे दुर्गन्ध निकलती है। शव को जलाया जाता है या गाड़ा जाता है या नदी में प्रवाहित कर दिया जाता है।
मृत शरीर न तो बोल सकता है, न देख सकता है और न सुन सकता है। यह शरीर किसने बनाया है? इसका निर्माता ईश्वर है। वह अन्तर्यामी है। उसी की शक्ति से यह शरीर चलता-फिरता और काम करता है। उसी की शक्ति से तुम देखते हो, सुनते हो, सूंघते हो, अनुभव करते हो, बोलते हो, सोचते हो और जानते हो।
उसको जान लो। तुम अमर बन जाओगे। तुम्हें परम शान्ति मिलेगी।
कम खाओ, ज्यादा पिओ। ज्यादा पढ़ो, कम खेलो। बैठो कम चलो ज्यादा। गपशप कम करो, सीखो ज्यादा। कम सोओ, प्रार्थना अधिक करो। लो कम, दो ज्यादा ।
कम बोलो, करो ज्यादा। रोओ मत, खूब हँसो।
भले बनो। भला करो। समझदार बनो। प्रसन्न रहो। मुसकाओ। खेलो-कूदो। नाचो -गाओ। भजन करो। हँसो। सेवा करो। प्रेम करो। दान दो । संयम रखो। शुद्ध रहो । ईश्वर का ध्यान करो। आत्मज्ञान प्राप्त करो।"
क्या तुमने जादूगर को देखा है ? तुम्हारे सामने वह अपनी मुट्ठी खोल कर दिखलायेगा। उसमें कुछ नहीं होगा। झट से वह मुट्ठी बन्द कर लेगा और उसमें से मुर्गा या साँप या कुछ-न-कुछ बाहर निकलता दिखलायी पड़ेगा। फिर मुट्ठी खोलते ही सब गायब हो जायेगा। क्या तुम्हें विश्वास है कि सचमुच उसके हाथ में साँप था ? बिलकुल नहीं। यह केवल भ्रम है, इन्द्र-जाल है, जादू है। उसकी मुट्ठी में साँप नहीं है।
ईश्वर एक जादूगर है। उसके हाथ में एक साँप दीखता है, जिसे हम संसार कहते हैं। जादूगर के हाथ के साँप की तरह यह भी मिथ्या ही है। तुरन्त ही यह गायब हो जायेगा और झट से दिखायी भी देने लगेगा। वास्तव में संसार कुछ है ही नहीं ।
मकड़ी जाला किससे बनाती है? अपनी ही शक्ति से, धागे से बनाती है। फिर उसको निगल भी लेती है। फिर जाला नहीं रह जाता। इसी प्रकार ईश्वर भी अपने से ही यह संसार बनाता है और अपने में ही समेट भी लेता है। इसलिए संसार ईश्वर ही है। सब ईश्वर है, ईश्वर ही सब कुछ है। सबकी पूजा करो, सबसे प्रेम करो; क्योंकि सब-कुछ ईश्वर ही है।
अमृतसर में एक लोभी बालक रहता था। उसके घर में एक सुराही थी, जिसकी गरदन पतली थी। वह किशमिशों से आधी भरी हुई थी। उसने अपना हाथ सुराही में डाला और किशमिशों से मुट्ठी भर ली, किन्तु मुट्ठी भरी हुई होने के कारण वह अपना हाथ बाहर नहीं निकाल सकता था।
अपना हाथ बाहर निकालने का उसने भरसक प्रयत्न किया, पर निकाल न सका। वह रोने लगा। उसका रोना उसकी माँ ने सुना। वह आयी। और पूछने लगी- “बच्चे, क्या हो गया?" बच्चे ने जवाब दिया- "मेरा हाथ अन्दर फँस गया है। बाहर नहीं निकल रहा है।"
माँ ने कहा- "प्यारे बच्चे, कुछ किशमिशें गिरा दे, हाथ निकल आयेगा।” लड़के ने वैसा ही किया और उसका हाथ बाहर निकल आया। माँ ने कहा- “बच्चे, फिर कभी लालच न करना।"
लालच से मनुष्य दुःखी होता है। इसलिए गोविन्द ! कभी लालच करना । सन्तोष रखना ।
झूठ बोलना महापाप है। झूठे से सभी घृणा करते हैं। उस पर कोई विश्वास नहीं करता है। वह सच बोले, तब भी लोग उसकी बात पर विश्वास नहीं करते ।
एक लड़का गायें चराया करता था। एक बार वह जोर-जोर से चिल्लाया- "भेड़िया आया, भेड़िया आया। बचाओ।' आस-पास के लोग दौड़े आये। उनको देख कर लड़का हँसने लगा और बोला- "भेड़िया कहाँ है! मैंने तो यों ही मजाक किया था।" ऐसा उसने तीन बार किया। फिर एक दिन सचमुच भेड़िया आ गया। लड़का मदद के लिए चिल्लाने लगा। लोगों ने सोचा कि लड़का मजाक कर रहा है, इसलिए वे नहीं आये। भेड़िया लड़के को खा गया।
देखो, झूठ बोलने से बड़ा खतरा होता है। अपने दोषों को स्वीकार कर लो। कभी झूठ मत बोलो। तुम साहसी बनोगे। तुम्हारा मन साफ और पवित्र बनेगा। सब तुम्हारी प्रशंसा करेंगे और तुमसे प्यार करेंगे।
एक नदी के किनारे नारियल के पेड़ पर एक बन्दर रहता था। एक मगर उसका मित्र था। बन्दर मगर को नारियल दिया करता था। मगर ने एक दिन नारियल ले जा कर अपनी पत्नी को दिया। उसने नारियल खाया और बोली- “यह फल बड़ा स्वादिष्ट है। मैं तुम्हारे मित्र का जिगर खाना चाहती हूँ, क्योंकि रोज मीठे नारियल खाने से उसका जिगर और भी स्वादिष्ट हो गया होगा।"
मगर बन्दर के पास जा कर बोला- “चलो, आज नदी में हम दोनों खूब सैर करेंगे।” बीच धारा में जब दोनों पहुँचे, तब मगर बोला- “मेरी पत्नी तुम्हारा जिगर खाना चाहती है।"
बन्दर ने जवाब दिया- "मैं तो अपना जिगर पेड़ पर ही छोड़ आया हूँ।” तब दोनों किनारे लौट आये। बन्दर पेड़ पर कूद गया और बोला—“दोस्त ! मुझ पर विश्वास करके तुम मूर्ख ही बने। मैं भला पेड़ पर अपना जिगर कैसे छोड़ सकता हूँ। मगर बड़े दुःख के साथ वापस लौट गया।
गोपीचन्द की दो लड़कियाँ थीं, जिनका नाम था उर्मिला और उमा । वह उन्हें बहुत चाहता था। उसने उर्मिला का विवाह एक माली से किया और उमा का एक कुम्हार से। एक दिन गोपीचन्द उर्मिला के घर गया और बोला—“बेटी! कैसी हो ?” उर्मिला ने जवाब दिया- “हम बहुत सुखी हैं। भगवान् से प्रार्थना करो कि हमारे पौधों को खूब पानी मिले।"
तब गोपीचन्द उमा के घर गया और पूछा - "उमा बेटी! तुम कैसी हो ?” उसने कहा- "हम बहुत सुखी हैं। भगवान् से प्रार्थना करो कि कुछ दिन और वर्षा न हो, जिससे कि हमारे कच्चे घड़े सूख जायें ।"
गोपीचन्द बहुत उलझन में पड़ गया। वह यह निश्चय नहीं कर पा था कि क्या प्रार्थना करे। तब उसने गम्भीरता से विचार किया। उसे समझ में आ गया कि संसार में प्रत्येक व्यक्ति स्वार्थी है।
एक बार एक गरीब स्त्री का बच्चा मर गया। वह भगवान् बुद्ध के पास गयी और उसने अपने मरे हुए बच्चे को जीवित करने वाली औषध मांगी । बुद्ध ने कहा—'' बहन ! सिर्फ एक दवा है जो तुम्हारे बच्चे को जिलासकती है। । तुम मुझे मुट्ठी भर सरसों किसी ऐसे घर से ला दो, जिसमें अाज तक कोई मरा न हो।"
वह स्त्री घर-घर जा कर सरसों माँगने लगी। सभी घरों से उसे उत्तर मिलता। एक ने कहा—“मेरा बच्चा मर गया है।' दूसरा बोला- "कल मेरे पिता परे है।" तीसरा बोला "महीने भर पहले मेरी पत्नी मरी है।
दुःखी हो कर वह बुद्ध के पास लौट आयी और उनसे सारा हाल कह सुनाया। तब बुद्ध भगवान् ने कहा- "तुम अपने ही दुःख की बात मत सोचो। दुःख और मृत्यु का सामना सभी को करना पड़ता है।"
दो पड़ोसी थे— एक चींटी और एक टिड्डा। चींटी बड़ी फुरतीली थी। खूब मेहनती थी। वह हमेशा जाड़ों के लिए अनाज-दाने जमा करने में लगी रहती थी टिड्डा बड़ा आलसी था। सारी गरमी उसने गाने में ही बिता दी। जाडे का मौसम आ गया। उसके पास खाने को कुछ न था। एक दिन वह पड़ोसी चीटी के पास गया और खाना माँगने लगा। चींटी ने पूछा- "दोस्त! गरमी के दिनों में क्या करते रहे?" टिड्डे ने कहा- "गाता रहा।” चींटी ने कहा - " अब जाड़ा नाचने में बिताओ। मैं क्या करूँ ? तुम्हें देने के लिए मेरे पास कुछ नहीं है।"
टिड्डा बेचारा मुँह लटका कर घर लौटा। उसे सारा जाड़ा भूखे रह कर गुजारना पड़ा।
सीख : कभी आलस्य न करो। सदा फुरतीले बने रहो। कोई-न-कोई काम करते रहो। हमेशा भविष्य के लिए बचाते रहो। कभी भीख या उधार न माँगो ।
मैं लड्डू हूँ। मैं बड़ा मीठा और स्वादिष्ट हूँ। सभी मुझे खूब चाहते हैं। बच्चे तो मुझे बहुत ही चाहते हैं। जब कभी मुझे देखते हैं या मेरा नाम सुनते है, तो उनके मुँह में पानी भर आता है। कोई भण्डारा या विवाह का भोज ऐसा नहीं होता, जहाँ मैं न होऊँ। साधु लोग मुझे बड़े चाव से भक्षण कर जाते हैं।
मैं रोते बच्चों को हँसाता हूँ, खुश करता हूँ। कमजोर आदमी में मैं प्राण भरता हूँ। मुझे खा कर लोग मोटे-ताजे हो जाते हैं। उनके गाल तथा त्वचा चमकने लगती है। लोग मेरा बड़ा ध्यान रखते हैं। मुझे कीमती बरतनों में, आलमारियों में और पेटियों में रखते हैं। मैं चीनी, घी और बेसन का मूल्य बढ़ा देता हूँ।
मेरे अन्दर भी आत्मा या ईश्वर निवास करता है। मैं उसके बिना जी नहीं सकता। जिस तरह लोग मुझे चाहते हैं, उसी तरह वे यदि ईश्वर को चाहते तो बहुत समय पहले ही परमानन्द प्राप्त कर लेते ।
एक लड़का था। उसका नाम रामू था। एक दिन वह गंगा में नहाने गया। अचानक एक हाथी उसे मारने के लिए दौड़ा। लड़का डर गया। वह गंगासागर (पतली टोंटी और चौड़े मुँह वाला बरतन ) के अन्दर घुस गया। हाथी भी उसके पीछे-पीछे गंगासागर के अन्दर गया। लड़का उसकी टोंटी में से बाहर आ गया। हाथी भी बाहर आ गया, लेकिन उसकी पूँछ टोंटी में ही अटक गयी। हाथी अपनी पूँछ से हाथ धो बैठा।
लड़का एक तुलसी के पौधे पर चढ़ गया, लेकिन उसके बाल (चोटी) नीचे लटकते रहे। हाथी उन्हीं बालों को पकड़ कर पेड़ पर चढ़ गया। लड़के ने बाल काट डाले और हाथी नीचे गिर कर मर गया।
हे गोविन्द ! नदी कामना और वासनाओं का जीवन है। लड़का जीव है। हाथी माया है। गंगासागर सन्यास है। नली गुफा है। तुलसी का पौधा भय का वृक्ष है। बाल पुरानी वासनाएँ हैं। वासनाओं को काट दो, माया खत्म हो जायेगी। पुराने संस्कारों को मिटा कर तुम शान्ति पाओगे I
सिसिली में सिरेकूज के राजा डाइनेशियस ने पाइथियास को मरणदण्ड दिया। पाइथियास ने राजा से कहा- "मैं घर जा कर वहाँ का काम-काज निपटा आऊँ। मैं फाँसी के दिन हाजिर हो जाऊँगा।” राजा ने कहा - "तुम्हारे लौटने का क्या भरोसा !"
पाइथियास के मित्र डायमोन ने कहा- "पाइथियास के बदले में कैदखाने में रहूँगा। वह नहीं लौटे, तो मुझे फाँसी दे दीजिएगा।” राजा ने पाइथियास को घर जाने की अनुमति दे दी। डायमोन उसकी जगह बन्दी बना लिया गया। पाइथियास घर पहुँचा और सारा काम-काज निबटा दिया। जोर की आँधी आने के कारण वह ठीक समय पर लौट नहीं पाया। सिपाही डायमोन को फाँसी देने के लिए ले जाने लगे।
इतने में पाइथियास घोड़े को तेजी से भगाता हुआ आ पहुँचा। राजा ने दण्ड देने वाले अधिकारियों से कहा-' -"ठहरो! फाँसी न दो। इन लोगों ने मुझे सच्ची मित्रता का पाठ सिखाया है। मैं इन दोनों सच्चे मित्रों के बीच तीसरा मित्र बन कर रहना चाहता हूँ।”
चारे से भरी नाँद में एक कुत्ता घुस कर बैठ गया। एक बैल चारा खाने आया। बैल ने कहा—“प्यारे कुत्ते। चारा तुम्हारे काम का नहीं है। मुझे खाने दो।" कुत्ते ने कहा- "चारे का मेरे लिए कोई उपयोग नहीं। मैं उसे खा नहीं सकता हूँ। फिर तुम्हीं क्यों खाओ ?"
कुत्ता बड़ा स्वार्थी था। बहुत से बच्चे, विद्यार्थी और मनुष्य ऐसे हैं। जो इस कुत्ते की तरह स्वार्थी होते हैं। वे सब कुछ अपने ही लिए चाहते हैं। उन्हें दूसरों के हितों का कुछ भी ख्याल नहीं रहता। वह यह नहीं चाहते कि दूसरों को भी लाभ हो। स्वार्थी मनुष्य हमेशा यही समझता है कि एकमात्र वही सही है, बाकी सब गलत हैं।
स्वार्थ छोड़ो। दूसरों के दृष्टिकोण से देखने का प्रयत्न करो। निःस्वार्थ बनो। दूसरों को सुख देने का प्रयत्न करो। तुम्हारे पास जो कुछ हो, दूसरे बच्चों को भी बाँटो। दूसरों के हितों का ध्यान रखो। तुम सुखी होओगे। तुम महान् बनोगे ।
एक बार एक स्त्री की गाड़ी छूट गयी। उसे सारी रात दूसरे दर्जे के बेटिंग रूम में बितानी पड़ी। उसके पास खूब धन और जेवरात थे। स्टेशन मास्टर का लड़का आया और उस स्त्री को वेटिंग रूम से बाहर निकाल कर स्वयं सोफे पर सो गया। वह स्त्री चुपचाप इंटर क्लास के वेटिंग रूम में जा कर सोयी।
स्टेशन मास्टर बड़ा लोभी था। उसने एक चपरासी को भेजा तथा उस स्त्री की हत्या करके सारा धन और जेवर लाने को कहा। चपरासी ने सोफे पर सोये हुए उस लड़के की हत्या कर डाली। लड़का जब चिल्लाया, तो स्टेशन मास्टर वहाँ दौड़ा आया और देखा कि उसका लड़का खून में लथपथ पड़ा हुआ है। उन लोगों ने शव को उठा कर रेलवे लाइन पर फेंक दिया।
गाड़ी आयी। ड्राइवर ने गाड़ी रोक दी। पुलिस बुलायी गयी। जाँच-पड़ताल की गयी। स्त्री ने सारी कहानी सुनायी। स्टेशन मास्टर और चपरासी कैद कर लिये गये।
लोभ से विनाश होता है।
एक भेड़िया एक नदी में पानी पी रहा था। नीचे की ओर एक भेड़ का बच्चा भी पानी पी रहा था। उस भेड़िये के मन में उस मेमने को खाने की इच्छा हुई। भेड़िया मेमने के पास आया और बोला- “हे दुष्ट! मेरा पानी तू क्यों जूठा कर रहा है?"
मेमने ने कहा—“महाराज! मैं कैसे पानी जूठा कर सकता हूँ? पानी तो आपकी ओर से मेरी ओर बह रहा है।" भेड़िये ने कहा- "नौ महीने पहले तूने मुझे गाली दी थी।” मेमने ने कहा- "तब तो मैं पैदा भी नहीं हुआ था।" भेड़िये ने कहा - "तब वह तेरी माँ होगी।" यह कह कर भेड़िया फौरन झपट पड़ा और उसने मेमने को चीर-फाड़ कर खा डाला।
दूसरे का दोष देखना बहुत आसान है। बालकों और सयानों में भी कई ऐसे भेड़िये होते हैं। जो दुष्ट बच्चे दूसरों को तंग करते हैं, वे सचमुच भेड़िये ही हैं। अपने अन्दर जो पशुता है, उसे दूर करो। भले बनो, भला करो।
राजमणि मदुरै का निवासी था। वह पाँचवीं कक्षा में पढ़ता था। उसके माता-पिता, दो भाई और बूढ़े दादा-दादी थे।
उसका दादा पिचुमणि ८० साल का था। पिचुमणि राजमणि को बहुत चाहता था। राजमणि जो भी माँगता, वह उसे देता था। कोई भी काम पड़ता, तो वह राजमणि को ही बार-बार आवाज देता। राजमणि अपने दादा को नहीं चाहता था; क्योंकि वह उसे बार-बार काम करने को बुलाता रहता था। उसे खेलने को भी समय नहीं मिलता था। एक दिन शाम को उसका एक मित्र खेलने आया। पिचुमणि ने उसी समय राजमणि से नहाने के लिए गरम पानी ला देने को कहा। पिचुमणि को कम दिखायी पड़ता था। वह बिना किसी का सहारा लिये चल-फिर नहीं सकता था।
राजमणि को गुस्सा आ गया। भगोने में उबलता पानी ले आया और बूढ़े के शिर पर उँडेल दिया। उसके सारे शरीर में फफोले पड़ गये।
हे गोविन्द ! राजमणि की तरह कभी व्यवहार न करना। आज्ञाकारी बनो। माता-पिता तथा गुरु जनों की सेवा करना सबसे बड़ा कर्तव्य है। तभी तुम्हें सच्चा सुख, शान्ति और समृद्धि प्राप्त होगी।
एक शरारती बन्दर था। एक दिन खेलते-कूदते वह जंगल में जा पहुँचा। वहाँ एक लट्ठा अधूरा चिरा पड़ा था। चिरे हुए हिस्से में चीरने वालों लकड़ी की एक गुल्ली डाल रखी थी। गुल्ली के कारण लकड़ी के बीच में दरार हो गयी थी।
बन्दर गुल्ली के पास जा बैठा। वह उस गुल्ली को खींच कर निकालना चाहता था। वह बहुत मजबूती से फँसी हुई थी, फिर भी पूरी ताकत लगा कर बन्दर ने उसे निकाल ही डाला। लकड़ी के दोनों भाग तुरन्त एक-दूसरे पर चिपक गये और बेचारे बन्दर की पूँछ उसमें फँस गयी। बन्दर वहीं तड़प-तड़प कर मर गया।
दूसरों के मामलों में अपनी टाँग न अड़ाओ। अपने काम से मतलब रखो। अपनी राय न देते फिरो। स्वभाव से ही नम्र रहो। कम बोलो, अधिक सोनो-विचारो ।
एक खेत में एक चण्डूल चिड़िया अपने बच्चों के साथ रहती थी। वह सबेरे उड़ जाती और कुछ दाने चुग लाती। उसने बच्चों से कह रखा था- "मेरे न रहने पर जो कुछ भी हुआ करे, मुझे शाम को बतलाया करो।” एक शाम को बच्चों ने कहा कि 'खेत का मालिक अपने मित्रों से फसल काटने को कह रहा था।'
चण्डूल ने कहा- "घबराने की कोई बात नहीं। हमें यहाँ कोई खतरा नहीं है।" अगले दिन बच्चों ने बताया कि खेत का मालिक अपने पड़ोसियों से फसल काटने के लिए कह रहा था। चण्डूल ने कहा- "प्यारे बच्चो। अब भी कोई खतरा नहीं है।" उसके अगले दिन बच्चों ने कहा- "कल मालिक खुद अपने बच्चों के साथ आ कर फसल काटने वाला है।" तब चण्डूल ने कहा—“हाँ, अब खतरा है। अब बिना देर किये किसी सुरक्षित स्थान पर हमें चले जाना चाहिए। मालिक कल निश्चय ही आयेगा; क्योंकि काम उसका अपना है।"
यदि चाहते हो कि काम ठीक तरह से हो, तो तुम अपना काम स्वयं करो। दूसरों के भरोसे न रहो। खाना तुम खाते हो। इसके लिए तुम दूसरों पर निर्भर नहीं रहते।
माता-पिता की सेवा ईश्वर की पूजा के समान है। माता पार्वती है एक बार अपने पुत्र गणेश और कार्तिकेय के आगे एक बढ़िया फल रखा और कहा "जो सारी पृथ्वी की परिक्रमा करके पहले लौट आयेगा, उसे फल मिलेगा।"
कार्तिकेय अपने वाहन मोर पर सवार हुए और पृथ्वी की परिक्रमा करने के लिए दौड़ चले। गणेश ने माता पार्वती और पिता शंकर की तीन परिक्रमा की और फल मांगा। पार्वती ने वह फल गणेश को दे दिया और वह उसे खा गये।
तीन दिन के बाद कार्तिकेय लौट कर आये और देखा कि गणेश फल खा गये हैं। तब कार्तिकेय माता-पिता की महिमा समझ गये।
दो विद्यार्थी राम और शिव अपने शिक्षक के लिए एक-एक भारी टोकरी ले जा रहे थे। शिव बड़बड़ाते हुए कहने लगा कि उसकी टोकरी बड़ी वजनदार है। राम हँसने लगा मानो उसकी टोकरी हलकी हो।
शिव ने पूछा - "तुम क्योंकर हँस रहे हो? तुम्हारी टोकरी तो मेरी टोकरी से भी ज्यादा भारी है और तुम मुझसे ज्यादा दुर्बल भी हो।" राम ने उत्तर दिया- "मैंने अपनी टोकरी में एक छोटी-सी जड़ी रख छोड़ी है. जिससे मेरी टोकरी हलकी हो गयी है।"
शिव ने पूछा- "राम ! मुझे बताओ, वह कौन-सी जुड़ी है? मैं भी उसे अपनी टोकरी में रखना चाहता हूँ, जिससे कि इसका भार घट जाये।
राम ने कहा- "मेरे मित्र। सबसे कीमती दिव्य जड़ी धैर्य है, जो कि भार को हलका कर देती है। "
साधु सज्जन होते हैं। उन्हें इस संसार के प्रति मोह नहीं रहता। वे जहाँ भी चाहें—संसार अथवा जंगल में रह सकते हैं। जितने से वे जिन्दा रह सकें उतना खाना उन्हें मिल जाये, बस वही उनके लिए काफी है। उनकी पोशाक सादी होती है। उनका अपना कोई परिवार नहीं होता, न बाल-बच्चे होते हैं और न सम्पत्ति ही। फिर भी वे परम सुखी होते हैं।
साधु ज्ञानी और सद्गुणी होते हैं। दया, विश्व-प्रेम, सत्यनिष्ठा, पवित्रता आदि सभी दिव्य गुण उनमें होते हैं। वे अपने मन और इन्द्रियों पर काबू पा लेते हैं।
साधुओं में क्रोध, लोभ, अहंकार, ईर्ष्या आदि दोष नहीं रहते। वे सबसे प्रेम करते हैं। वे सदा भजन और ध्यान करते हैं। वे कभी किसी को दुःख नहीं देते। लोग उनका सम्मान करते हैं और उनकी पूजा करते हैं।
ऋषि महान् आत्मा होते हैं। ऋषि साक्षात् ईश्वर हैं। व्यास, वसिष्ठ, विश्वामित्र, वाल्मीकि ये सब महान् ऋषि हैं। व्यास ब्रह्मर्षि है। जनक राजर्षि हैं। व्यास ने अठारह पुराण लिखे। वाल्मीकि ने रामायण लिखी। कश्यप, अत्रि, भारद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, वसिष्ठ और जमदग्नि — ये सप्तर्षि हैं। रात्रि के समय आकाश में सप्तर्षि-मण्डल दिखायी देता है।
इन ऋषियों को प्रतिदिन प्रणाम करो। बोलो "ॐ नमः परम יי ऋषिभ्यो नमः परम ऋषिभ्यः । वे तुम्हें आशीर्वाद देंगे।
ईश्वर ने पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश इन पाँच तत्त्वों का निर्माण किया। तुम्हारा शरीर भी इन पाँच तत्त्वों से बना है। प्रत्येक तत्त्व का स्वामी एक देवता होता है।
मानव-शरीर में पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ होती हैं—कान, त्वचा, आँख, जीभ और नाक । कान शब्द सुनते हैं। त्वचा शीत-उष्ण का अनुभव करती है। आँख रूप और रंग देखती है। जीभ स्वाद चखती है। नाक गन्ध सूँघती है।
पाँच कर्मेन्द्रियाँ भी हैं। वे हैं हाथ, पैर, वाणी, गुदा तथा जननेन्द्रिय । इन सभी इन्द्रियों का स्वामी मन है। यह ग्यारहवीं इन्द्रिय है। मन से परे अमर आनन्दमय आत्मा है। वह अन्तर्यामी है।
हिमालय संसार - भर में सबसे बड़ा पर्वत है। हिमालय की सबसे ऊँची चोटी एवरेस्ट है। हिमवान् हिमालय का राजा है। उसकी पुत्री पार्वती हैं। भगवान् शिव ने पार्वती से विवाह कर लिया। वह कैलास पर्वत पर रहते हैं जो तिब्बत में है।
गंगा, यमुना, सिन्धु और ब्रह्मपुत्र नदियाँ हिमालय से निकलती हैं। हिमालय में अनेक गुफाएँ हैं। ऋषि और साधु उन गुफाओं में रह कर ध्यान और तपस्या करते हैं।
गरमी की छुट्टियों में हरिद्वार और ऋषिकेश देखो। वहाँ हिमालय और गंगा को देख सकते हो । स्थान और यहाँ के प्राकृतिक दृश्य बड़े सुन्दर और सुहावने हैं। ऋषिकेश और हरिद्वार में कई आश्रम हैं। साधु-संन्यासी उन आश्रमों में रहते हैं।
वेद के नाम से चार ग्रन्थ हैं। चारों वेदों के नाम हैं: ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। तुमने यदि यज्ञोपवीत धारण किया हो, तो इन्हें पढ़ना चाहिए। वेदों में ईश्वर की सत्यता के बारे में वर्णन है। सत्य-ज्ञान के वे मूर्त रूप हैं।
वेदों के स्तोत्र-भाग को 'संहिता' कहते हैं। यज्ञ-भाग को 'ब्राह्मण' कहते हैं। उपासना - भाग 'आरण्यक' कहलाते हैं और ज्ञान-भाग को 'उपनिषद्' कहते हैं। तुम्हें इन सभी को पढ़ना चाहिए।
यदि तुमने यज्ञोपवीत नहीं धारण किया है, तो महाभारत के शान्ति पर्व और अनुशासन पर्व पढ़ने चाहिए। व्यास महर्षि ने तुम्हीं लोगों के लिए इसे लिखा है। इसे भली-भाँति पढ़ो। तुम बहुत बड़े ज्ञानी बन जाओगे ।
विश्व में एशिया, यूरोप, अफ्रीका, अमरीका व आस्ट्रेलिया-ये पाँच महाद्वीप हैं । प्रशान्त महासागर, अटलांटिक महासागर, हिन्द महासागर, उत्तरी ध्रुव महासागर तथा दक्षिणी ध्रुव महासागर — ये विश्व के पाँच महासागर हैं।
एशिया में रूस, चीन, जापान, भारत, अरब, फारस, अफगानिस्तान और मेसोपोटामिया (मिश्र) देश हैं। यूरोप में अनेक छोटे-छोटे देश हैं। अफ्रीका में सहारा नामक एक बड़ा रेगिस्तान है। अफ्रीका के दक्षिणी भाग और हीरे की बड़ी-बड़ी खाने है। वहाँ बहुत सारे हबशी और डरावने शेर रहते हैं।
अमरीका में उत्तर और दक्षिण के नाम से दो भूप्रदेश है। उत्तरी भाग बड़ा धनवान और सुसंस्कृत है। वहीं विख्यात संयुक्त राज्य है।
दूर दक्षिण में आस्ट्रेलिया एक बड़ा द्वीप है। उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव प्रदेश बड़े ठण्डे हैं। मनुष्य वहाँ रह नहीं सकते।
यह विश्व एक रंगमंच है, जिस पर तरह-तरह के नाटक हुआ करते है। यहाँ भले और बुरे दोनों प्रकार के लोग रहते हैं। यहाँ गरमी ठण्डक प्यास रातदिन होते हैं। लोग अमीर भी हैं और गरीब भी हे राम! इस विश्व पर भरोसा न रखो। उस ईश्वर का भजन करो जो इस (विश्व) से है।
हमारा यह देश भारत या हिन्दुस्तान कहलाता है। इसे भारतवर्ष भी कहते हैं। भौतिक और आध्यात्मिक सम्पत्ति यहाँ भरपूर है। वास्तविक शिक्षा और संस्कृति में यहाँ के प्राचीन निवासी बहुत आगे बढ़े हुए थे। भारत की सीमाएँ इस प्रकार है-उत्तर में हिमालय पर्वत, पूर्व में बंगाल की ', खाड़ी, दक्षिण में हिन्द महासागर और पश्चिम में अरब सागर। भारत की बड़ी नदियाँ हैं—–गंगा, यमुना, सिन्धु, ब्रह्मपुत्र, नर्मदा, गोदावरी, कृष्णा और कावेरी ।
चन्द्रगुप्त, अशोक, विक्रमादित्य, हर्ष, अकबर –—ये भारत के बड़े सम्राट् रह चुके हैं। ये सब उत्तर भारत में शासन करते थे। विन्ध्य पर्वत से दक्षिण का भूभाग दक्षिण भारत कहलाता है। वह कर्मभूमि माना जाता है। उत्तर भारत पुण्यभूमि है।
भारत की जलवायु बड़ी सुन्दर है। चावल यहाँ का मुख्य भोजन है। उत्तर में गेहूं पैदा होता है। उत्तर के लोग बहुत भावुक होते हैं। दक्षिण के लोग अच्छे दिमाग वाले होते हैं। चावल से बौद्धिक शक्ति बढ़ती है। गेहूँ से शारीरिक शक्ति बढ़ती है।
कृत, त्रेता, द्वापर और कलयुग चार युग हैं। इस समय कलियुग चल रहा है। यह अन्तिम युग है। इसके बाद फिर कृतयुग आने वाला है।
कृतयुग में लोग सत्य तथा करुणा के गुणों से युक्त होते हैं तथा तपस्या और दान करते हुए धर्म का पूरा-पूरा पालन करते हैं। वे ध्यान के द्वारा ईश्वर का साक्षात्कार करते हैं।
त्रेतायुग में धर्म का एक चरण क्षीण हो जाता है। वह चरण सत्य है। लोग इस युग में यज्ञ के द्वारा ईश्वर का साक्षात्कार करते हैं।
द्वापरयुग में सत्य और करुणा का भाग धर्म से मिट जाता है। लोग उसमें सेवा के द्वारा ईश्वर का साक्षात्कार करते हैं।
कलियुग में धर्म का एक अंग दान ही रह जाता है। इसमें लोग भगवान् के नाम-स्मरण से, कीर्तन से ईश्वर का साक्षात्कार करते हैं।
विश्व की सबसे लम्बी नदी मिसीसिपी है सबसे ऊंचा पर्वत एवरेस्ट है। सहारा सबसे बड़ा रेगिस्तान है। विक्टोरिया सबसे बड़ा जलप्रपात है। नियाग्रा सबसे बड़ा और विकसित विद्युत् उत्पन्न करने वाला केन्द्र है। प्रशान्त महासागर सबसे बड़ा महासागर है।
महाभारत सबसे बड़ा महाकाव्य है। वेद सबसे प्राचीन ग्रन्थ हैं। हाथी सबसे बड़ा जानवर है। वर्खोयांस्क सबसे ठण्ढा स्थान है। कोहनूर सबसे बड़ा हीरा है। एशिया सबसे बड़ा महाद्वीप है ।
ज्ञान सबसे मूल्यवान् सम्पत्ति है। एकता की भावना उत्पन्न करने वाला सबसे उत्तम गुण प्रेम है। इन्द्रिय-निग्रह सबसे बड़ा बल है। उपवास सर्वोत्तम इलाज है। ब्रह्मचर्य महानतम तपस्या है। जप सर्वोत्कृष्ट यज्ञ है। राम महानतम राजा है। कृष्ण सबसे बड़े योगी (अथवा ज्ञानी) हैं। ईश्वर सबसे बड़ी सत्ता है।
जेम्स वाट (इंग्लैण्ड) वाष्पचालित इंजिन का (सन् १५६५ में) अन्वेषक है। मार्कोनी (इटली) बेतार का तार (सन् १८९६ में) अन्वेषक है। फ्रांस की मैडम क्यूरी ने सन् १९०३ में रेडियम (तेजातु) की खोज की। एल. एल. बेयर्ड (इंग्लैण्ड) ने सन् १९२५ में टेलीविजन का आविष्कार किया।
टोरिसेली (इटली) ने सन् १६४३ में बैरोमीटर (वायुभार -मापक) का आविष्कार किया। रोयेनजेन (जर्मनी) ने सन् १८९५ में एक्सरे - यन्त्र का आविष्कार किया। फहरेनहाइट (फ्रांस) ने सन् १७२१ में थर्मामीटर (तापमापक) का आविष्कार किया। गैलीलियो ने दूरबीन का आविष्कार किया ।
राइट ब्रदर्स (अमरीका) ने सन् १९०३ में वायुयान का आविष्कार किया। एडिसन (अमरीका) ने सन् १८७७ में ग्रामोफोन का आविष्कार किया। मोर्स (अमरीका) ने सन् १८३५ में बिजली के टेलिग्राफ का आविष्कार किया। बेल (अमरीका) ने सन् १८७६ में टेलीफोन का आविष्कार किया। देखो और नीप्से (फ्रान्स) ने फोटोग्राफी का आविष्कार किया।
बिना पानी की नदी और बिना निवासियों के शहर कहाँ मिलते हैं? नक्शे में वह कौन सी चीज है जिसका पैर पकड़ते ही वह तुम्हारे कन्धे पर कूद जाती है ? छतरी । जब मैं चलती हूँ तो जीती हूँ और जब रुक जाती हूँ तो मरती हूँ। मैं कौन हूँ? घड़ी ।
कौन-सी चीज है जिसे कोई खोना नहीं चाहता और पाना भी नहीं चाहता? मुकदमा । अँगरेजी के कौन-से चार अक्षर हैं जिनसे चोर डर जाते हैं? ओ आई सी यू (हाँ, तुझे मैं देखता हूँ)। अँगरेजी में सबसे लम्बा शब्द कौन-सा है ? Disetablishmentarianism (डिसइस्टैब्लिश- मेन्टैरियानिज्म).
भगवान् विष्णु बम्बई के गर्वनर थे। ठाकुर उनके पास गया और बोला, “श्रीमान्, प्रणाम! मुझे कलेक्टर का काम चाहिए।" विष्णु ने पूछा, "तुम क्या हो? तुम्हारी योग्यता क्या है ?" ठाकुर ने कहा, "मैं गरमियों में आइ. सी. एस. हूँ और जाड़ों में पी. सी. एस. हूँ।"
विष्णु ने पूछा, "गरमी में आई. सी. एस. और जाड़ों में पी. सी. एस. का क्या मतलब है?" ठाकुर ने कहा, "गरमी में मैं आइस क्रीम सेलर हूँ और जाड़ों में पोटैटो चाप सेलर हूँ।"
गवर्नर ने अपने चपरासी को बुला कर कहा- "लक्ष्मण, इस आइ. एस. को फौरन यहाँ से निकाल दो कह दो, इसके लिए यहाँ कोई काम नहीं है। लक्ष्मण ने उसका गला पकड़ कर फौरन निकाल दिया।
संसार में मनुष्य सबसे अधिक श्रेष्ठ और महान प्राणी है। वह का चमत्कार है। वह अपने-आप में एक छोटा संसार है। वह ईश्वर की मूर्ति है। सार रूप में वह ईश्वर ही है।
वही एक ऐसा प्राणी (सामाजिक पशु) है जो हँसता है, रोता है, चलता है और भला बुरा समझता है। संसार में जितने प्राणी है, उन सबका वही एकमात्र नायक तथा शासक है।
खाना और सोना—ये दो बातें मनुष्य और अन्य प्राणियों में समान हैं; लेकिन मनुष्य दिव्य ज्ञान पाता है और खुद ईश्वर बनता है।
आत्मा का ज्ञान ही उत्तम विद्या है। मन पर विजय प्राप्त करना ही उत्तम विजय है। आत्मा का नाद या अनहद नाद ही उत्तम संगीत है। प्रसन्नता ही सर्वोत्तम औषधि है।
अपनी इन्द्रियों और मन के साथ संग्राम ही सर्वोत्तम संग्राम है। सर्वोत्तम विज्ञान आत्म-विज्ञान है। सर्वोत्तम वैद्य उपवास है। सर्वोत्तम ज्ञान दूसरों की हिंसा न करना है। मध्यम मार्ग ही सर्वोत्तम नियम है।
निष्काम सेवा ही सर्वोत्तम गणित है, जो सुख को दूना करता है और दुःख को घटा देता है। सर्वोत्तम इंजीनियरी मृत्यु-नदी के ऊपर ईश्वर तक श्रद्धा का पुल बाँधना है। सर्वोत्तम कला सुरीले स्वर में महामन्त्र का उच्चारण है। उत्तम स्वाध्याय है 'मैं कौन हूँ' का अनुसन्धान करना और सांसारिक बन्धनों से मुक्त होना।
सब प्राणियों से मनुष्य श्रेष्ठ है, क्योंकि उसमें ज्ञान है। वह जानता है कि सही क्या है, गलत क्या है और भला क्या है, बुरा क्या है।
वह जहाजों से बड़े सागर पार कर सकता है और वायुयान से आकाश में उड़ सकता है। सागर में डुबकी लगा सकता है। वह दूर बैठे साथियों से बातें कर सकता है।
वह महायोगी या पण्डित बन सकता है। उसके पास तर्क, अन्वेषण, विवेचना और चिन्तन-मनन करने की शक्ति है।
हिन्दू-धर्मग्रन्थ छह हैं : श्रुति, स्मृति, इतिहास, पुराण, आगम और दर्शन ।
श्रुति के अन्तर्गत चार उपवेद, छह आगम और चार वेद हैं। इन वेदों के अन्तर्गत संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद् है।
मनुस्मृति याज्ञवल्क्यस्मृति, पाराशरस्मृति आदि कई स्मृतियाँ हैं।
रामायण, योगवासिष्ठ, महाभारत, हरिवंश इत्यादि इतिहास हैं। कुल अठारह पुराण हैं। सबसे प्रमुख पुराण भागवत है। इनके अतिरिक्त और भी कई छोटे-छोटे पुराण हैं।
पूजा के विधान आगम कहलाते हैं। पांचरात्र आगम सबसे अधिक प्रसिद्ध है। तन्त्र शास्त्र आगम के अन्दर ही है।
न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा और वेदान्त ये छह दर्शन है। सभी दर्शनों में बादरायण का वेदान्त प्रमुख है।
इन सबमे पूरा हिन्दू-धर्म समाया हुआ है।
एक ईश्वर है जो सारे विश्व का शासक है। एक है सूर्य जो इस विश्व को प्रकाश देता है।
दो हैं अश्विनीकुमार। दो हैं मानव के प्रकार — पुरुष और स्त्री ।
तीन हैं हिन्दू-धर्म के देवता। तीन हैं वेद जिनसे ब्राह्मण-धर्म बना है।
चार हैं वर्ण और चार हैं आश्रम चार हैं जीवन की अवस्थाएँ (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय) ।
पाँच हैं यज्ञ की अग्नि । पाँच हैं मूलभूत तत्त्व ।
छह हैं ऋतुएँ। छह हैं वेद के अंग ।
सात हैं महर्षि । सात हैं संगीत के स्वर ।
आठ हैं राजयोग के अंग । आठ हैं पूर्णता की सिद्धियाँ ।
नौ हैं निधियाँ। नौ है संख्या का अन्त ।
ईश्वर की प्रथम सृष्टि थी जल । इस विश्व में पहली ध्वनि निकली थी ॐ । ब्राह्मण को दीक्षा देने का पहला मन्त्र गायत्री है। इस धरती का पहला राजा पृथु था।
पहला काव्य रामायण है। अमरीका जाने वाला पहला आदमी कोलम्बस था। पहला छापाखाना खुला जर्मनी में जीवन को प्रेरणा देने वाली पहली चीज श्रद्धा है।
आध्यात्मिक साधक को जिन-जिन बातों से बचना है, उनमें से पहली है कुसंगति। भारत आने वाले विदेशियों में पहला था वास्कोडिगामा। सबसे पहला भारतीय गवर्नर लार्ड सिन्हा था।
पाप करने वाला सबसे पहला पुरुष आदम था। दुःख का पहला कारण है अज्ञान । सबसे पहला हिन्दू-धर्मग्रन्थ ऋग्वेद है। सब आध्यात्मिक साधनाओं में पहली साधना जप है।
हे वासुदेव! इस चमकीले सूर्य को देखो। वह अपना कर्तव्य नियमित रूप से करता है। वह ठीक समय से निकलता है। तुम भी सूर्य के समान ही नियम पालन करो। उदय होते समय सूर्य में किरणें नहीं होतीं।
वह बिना तेल और बाती के जलता है (या चमकता है)। उसके अन्दर अपार शक्ति भरी है। सूर्य को पैदा करने वाला ईश्वर है। सूर्य जाड़ों में गरमी देता है। उसी से बादल बनते और वर्षा होती है। सूर्य के ही कारण सारे पेड़-पौधे बढ़ते हैं। यदि सूर्य न हो तो ठण्ड से सब मर जायें।
सूर्य निकलते समय और अस्त होते समय हृदय बड़ा प्रसन्न होता है। उससे अच्छा स्वास्थ्य, तेजस्विता और आँख की ज्योति प्राप्त होती है। रोज प्रातःकाल, विशेषतः रविवार के दिन, आदित्यहृदय स्तोत्र का पाठ करो। इससे तुम जीवन में सफलता प्राप्त करोगे, स्वस्थ रहोगे और दीर्घ आयुष्य पाओगे। प्रातः और सायं सूर्य को अर्घ्य प्रदान करो।
आगरा का ताजमहल, पीसा की झुकी मीनार, बेबीलोन का झूलता बगीचा, मिश्र के पिरामिड, रोडस शहर का कोलोसस, चीन की बड़ी दीवाल और शाहजहाँ का मयूर सिंहासन—ये विश्व के सात आश्चर्य हैं। ताजमहल बादशाह शाहजहाँ की बेगम मुमताज की कब्र पर बनाया गया है।
इटली के पीसा नामक स्थान पर जो मीनार है, वह एक तरफ को झुकी हुई है। अपने प्रयोग करते समय गैलिलियो ने इसका इस्तेमाल किया था।
बेबीलोन का बगीचा पानी में तैर रहा है।
काहिरा में पिरामिड हैं। ये पत्थरों से बनी विशाल संरचनाएँ हैं।
कोलोसस एक बहुत बड़ी मूर्ति है, जो कुस्तुनतुनिया के बन्दरगाह पर बनायी गयी है जिसके दो पैर बन्दरगाह के दोनों तरफ हैं।
चीन की दीवाल मंगोलिया और चीन के बीच बनायी गयी थी। वह संसार की सबसे बड़ी दीवाल है।
मयूर सिंहासन अपनी कारीगरी और नक्काशी के लिए प्रसिद्ध है।
एक दूसरा आश्चर्य है मन । किन्तु आश्चर्यों का आश्चर्य तुम्हारा अपना अमर आत्मा है।
हिन्दू-धर्म हिन्दुओं का धर्म है। भारत के ऋषि-मुनियों ने इस धर्म की स्थापना की। हिन्दुओं का पवित्र ग्रन्थ वेद है। हिन्दू-धर्म कहता है—“भले बनो। भला करो। ईश्वर और मनुष्य के प्रति अपने कर्तव्य का पालन करो। शुद्ध रहो। सादा रहो। ईश्वर की पूजा करो। उसकी शरण में जाओ। किसी से घृणा मत करो। सभी प्राणी ईश्वर के ही रूप हैं। सत्य बोलो। किसी प्राणी की मन, वाणी और कर्म से हिंसा न करो।"
वेद चार हैं। पुराण अठारह हैं। व्यास मुनि ने अठारह पुराण, चार वेद और महाभारत की रचना की। महाभारत पाँचवाँ वेद माना जाता है। रामायण, भागवत और भगवद्गीता हिन्दुओं के अत्यन्त प्रिय ग्रन्थ हैं।
हिन्दू ईश्वर की पूजा करते हैं। वे भगवान् राम, कृष्ण, शिव या देवी की पूजा करते हैं। वे रोज मन्दिर जाते हैं और पूजा करते हैं।
ज्योति-सन्तानो!
आशा है, तुम स्वस्थ होगे। इस समय शायद तुम लोग यह कार्यक्रम बनाने में लगे होगे कि गरमी का अवकाश कैसे बिताया जाये। पर ध्यान रखो, अपना सारा समय खेल-कूद और व्यर्थ की गपशप में मत बिताना । एक काम करो। एक दिनचर्या बना लो और कड़ाई से उसका पालन करो। बिलकुल बड़े सवेरे अर्थात् साढ़े चार बजे उठ जाओ। ईश्वर का नाम लो । हाथ-मुँह धो कर कम-से-कम आधा घण्टा प्रार्थना करो या भजन गाओ। फिर पढ़ाई में लगो। कौन-कौन-से दिन क्या-क्या पढ़ना है, इसका भी क्रम बना लो। दो-ढाई घण्टा पढ़ चुकने के बाद दूध, दो-एक बिस्कुट या ऐसा ही कुछ जलपान कर लो। फिर अपनी माता या किसी दूसरे के घरेलू काम में हाथ बँटाओ। फिर स्नान करके लगभग पन्दरह मिनट तक ईश्वर का भजन करो। खाना चाहे कितना भी स्वादिष्ट लगे, पर अधिक मत खाओ। अधिक खाने से आलस्य बढ़ेगा और स्वास्थ्य बिगड़ जायेगा। उसके बाद घण्टा-भर आराम करो। फिर पढ़ाई में लगो और घर पर करने के लिए पढ़ाई का जो काम हो, उसे कर डालो। कुछ आराम करो। आराम के समय माता-पिता से या भाई-बहन से अच्छी और धार्मिक बातें कर सकते हो।
दोपहर बाद खेलने के लिए बाहर जाओ। शाम होने लगे, तो टहलने जाओ। शाम को घर लौट कर हाथ-पैर धोओ, आधा घण्टा भजन करो और पढ़ाई करो। उसके बाद रात का भोजन करो। लगभग पन्दरह मिनट आराम करो या टहलो। साढ़े नौ बजे सो जाओ; पर सोने से पहले पन्दरह मिनट प्रार्थना करो, विस्तर पर लेटे-लेटे ईश्वर का ध्यान करो।
जल्दी सोये जल्दी जागे, तनिक नहीं दुःख पाये ।
बुद्धि और स्वास्थ्य बढ़े, धन उसके घर आये ।।
इस वाक्य को दश बार पढ़ो और याद कर लो। क्या तुम अब बिना देखे ही इसे कह सकते हो? केवल याद कर लेना ही काफी नहीं है। जैसा कहते हो, वैसा करना भी होगा।
तब तुम बहुत अच्छे बच्चे बनोगे और सब लोग तुमसे प्यार करेंगे। ईश्वर तुम पर प्रसन्न होगा। भगवान् तुम्हारा भला करे !
-स्वामी शिवानन्द
भगवती माँ के पुत्रो!
नमस्कार। ॐ नमो नारायणाय ।
आशा है तुम सब अच्छे हो मेरा विचार है कि तुम लोगों का गरमी का अवकाश सानन्द बीता होगा। मुझे बताना कि तुम लोगों ने अवकाश कैसे गुजारा । सारा समय खेलते ही तो नहीं रह गये ? पढ़ाई बन्द तो नहीं कर दी थी? नहीं, मैं नहीं मानता की तुम शरारती बच्चे हो। आशा है तुमने खेल के साथ-साथ अपना पाठ भी ठीक से पढ़ा होगा। है न? इसके अलावा अपने माता-पिता की, भाई-बहन की और मित्रों की मदद भी की है न? अब एक सुन्दर कहानी सुनो।
दो लड़के थे। दोनों पड़ोसी थे। एक धनी आदमी का लड़का था। उसका नाम दुलाल था। दूसरा गरीब लड़का था। उसका नाम गोपाल था। दोनों एक ही स्कूल में और एक ही कक्षा में पढ़ते थे। दुलाल को पढ़ाने के. लिए उसके मास्टर घर पर आते थे। लेकिन गोपाल को कोई पढ़ाने वाला न था। इसलिए गोपाल को अपनी तैयारी करने के लिए कड़ा परिश्रम करना पड़ता था। दो-दो शिक्षकों के होते हुए भी दुलाल का मन पढ़ाई में नहीं लगता था। वह खेलना अधिक पसन्द करता था। इसलिए वह अच्छा विद्यार्थी नहीं बन सका।
गरमी की छुट्टियों में गोपाल ने कड़ी मेहनत की और अपनी पढ़ाई पूरी कर ली, लेकिन दुलाल ने अपना सारा समय खेल में ही गँवा दिया। गरमी की छुट्टी समाप्त होने के बाद परीक्षा के दिन आये। परीक्षा का परिणाम घोषित हुआ। पता चला कि गोपाल अपनी कक्षा में प्रथम आया और दुलाल अनुत्तीर्ण रह गया।
दुलाल की तरह न रहो। गोपाल की तरह बनो। सदा खेलने से पहले अपना पाठ पूरा करो। तब तुम अच्छे लड़के बनोगे और सब तुम्हें प्यार करेंगे।
भला बालक बनने के लिए भगवान् का आशीर्वाद तुम्हें प्राप्त हो !
- शिवानन्द
ज्योति सन्तानो!
नमस्कार। ॐ नमो नारायणाय ।
तुम्हें यह पत्र लिखते हुए मुझे बड़ी प्रसन्नता है। तुम छोटे हो। तुम पवित्र हो। तुम दिव्य हो। तुम्हें अभी से दिव्य जीवन जीना शुरू करना चाहिए।
सत्य बोलो। खेल-खेल में भी दूसरों को सताओ नहीं। माता-पिता, गुरुजनों और शिक्षकों का सम्मान करो और उनका कहना मानो। सबसे प्रेम करो। जैसी भी बन सके, सबकी सेवा करो। जानवरों पर दया रखो। सबके सहायक बनो। ईश्वर सबका प्रभु है। भगवान् सज्जनता और प्रेम है। प्रेम और भक्ति से ईश्वर का भजन करो। यही दिव्य जीवन है। कभी आलसी न रहो। आलसी रहना बहुत बुरा है। इस पर एक कहानी सुनो।
बहुत दिन पहले की बात है। दो पड़ोसी थे। एक थी चींटी और दूसरा था टिड्डा। चींटी बड़ी मेहनती थी। खूब काम करती थी। वह सदा जाड़े के दिनों के लिए अनाज इकट्ठा करती रहती थी।
पड़ोसी टिड़ा बड़ा आलसी था। सारी गरमी उसने गाने में, मौज-शौक में बिता दी। जाड़ा आया। उसके पास खाने को कुछ न था। एक दिन वह अपनी पड़ोसी चींटी के यहाँ गया और उससे खाना मांगा। चींटी ने कहा- "दोस्त! गरमी के दिनों में तुम क्या करते रहे?" टिड्डे ने कहा- "गाता रहा।” चींटी ने कहा- "अब जाड़े में नाचो। मैं क्या करूँ ? तुम्हें देने के लिए मेरे पास अधिक नहीं है।"
बेचारा टिड्डा रोता-पछताता घर आया। सारा जाड़ा उसे भूखे रह कर ही गुजारना पड़ा। इस कहानी का सार यह है कि कभी आलसी न रहो। सदा काम में लगे रहो। अपने भविष्य के लिए कुछ-न-कुछ बचाया करो। कभी भीख या उधार न माँगो ।
मैं नये साल के लिए तुम सबकी सफलता, प्रसन्नता और आनन्द की कामना करता हूँ।
सस्नेह, प्रेम और ॐ
तुम्हारा आत्मस्वरूप,
स्वामी शिवानन्द
यह एक घमण्डी कौए की कहानी है। अपने घमण्ड के कारण उसने अपनी रोटी खो दी। एक बार एक घमण्डी और मूर्ख कौआ एक पेड़ की ऊँची चोटी पर बैठा था। उसकी चोंच में रोटी का एक टुकड़ा था। एक सियार की नजर उस पर पड़ी। सियार बड़ा चालाक था। वह भूखा भी था। उस रोटी को पाने की इच्छा वह करने लगा। लेकिन कौआ पेड़ के ऊपर था। सियार ने एक उपाय सोचा। उसने कहा, “पेड़ पर कितना सुन्दर पक्षी बैठा है! यह तो स्वर्ग से ही उतरा दीखता है। लेकिन बड़े दुःख की बात है। कि इतना सुन्दर पक्षी गा नहीं सकता। यदि वह गा सकता, तो न जाने कितने लोगों का मन मोह लेता।”
मूर्ख कौआ सियार की बातें सुन कर खुशी से फूल उठा और उसने सोचा, “मैं गा उठूं तो सियार समझ जायेगा कि मैं गा भी सकता हूँ।" तब कौआ काँ-काँ बोल पड़ा और उसके मुँह से रोटी नीचे गिर पड़ी। सियार ने शौक से रोटी खा ली और बोला, “कितना घमण्डी और मूर्ख कौआ है तू । "
दूसरे लोग खुशामद करें, तो घमण्ड न करना। तुम घमण्ड करोगे, तो लोग तुम्हें आसानी से ठग सकते हैं। घमण्ड हमेशा पतन की ओर ले जाता है। निरहंकारी रहो। लोग तुमसे प्यार करेंगे। ईश्वर तुम्हारा भला करें!
- शिवानन्द
दिव्यत्व की सन्तानो !
नमस्कार। ॐ नमः शिवाय ।
आज मैं तुम लोगों को एक लालची कुत्ते की कहानी सुनाना चाहता हूँ। एक लालची कुत्ता था। कई दिनों से उसे खाना नहीं मिला था। सौभाग्य से उसे एक दिन मांस का एक टुकड़ा मिला। उसको ले कर वह एक तालाब के पास गया ताकि वह उसे मजे से खा सके। ज्यों ही उसने पानी में देखा, उसे अपनी परछाईं दिखायी पड़ी। उसने सोचा कि यह कोई दूसरा कुत्ता अपने मुँह में मांस का टुकड़ा लिये हुए आ पहुँचा है। वह लालची था, इसलिए उसने मांस के उस दूसरे टुकड़े को भी छीनना चाहा ताकि उसे दो टुकड़े मिल जायें। वह तुरन्त पानी में कूद पड़ा और उस कुत्ते से लड़ने लगा। लेकिन वह ज्यों ही पानी में कूदा, मांस का टुकड़ा उसके मुँह से पानी में गिर पड़ा और खो गया। इस भाँति अधिक लालच करने से कुत्ता अपना भी मांस खो बैठा।
लालच मत करो। लालच से कष्ट भोगना पड़ता है। लालच करोगे, तो कोई तुमसे प्यार नहीं करेगा। पास में जो कुछ भी हो, मिल-बाँट कर उसका उपभोग करो। तब तुम्हें सब लोग चाहेंगे। जो अपनी वस्तु को दूसरों को देने के बाद उपभोग करता है, उसे भगवान् भी खूब देता है।
ईश्वर तुम्हारा भला करें! तुम सुखी रहो! सब तुम्हें प्यार करें!
- शिवानन्द
दिव्य आलोक के पुत्रो,
नमस्कार ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।
मुझे इस बात से बड़ी प्रसन्नता है कि मैं तुम्हारे काम आ रहा हूँ। तुम अपने माता-पिता, गुरु जनों, शिक्षकों और साधुओं की आज्ञा का पालन करो। गीता का पाठ करो और उसके अनुसार जीवन बिताओ। यह दिव्य जीवन है।
अनुदार न बनी। एक कहानी सुनाता हूँ। इससे पता चलेगा कि अनुदार रहना अच्छी बात नहीं है। एक मूर्ख बौद्ध महिला थी। उसके पास सोने की बनी बुद्ध जी की एक मूर्ति थी। वह जहाँ भी जाती, साथ में उस मूर्ति को भी लिये रहती थी। वह एक मठ में गयी, जहाँ बुद्ध की कई प्रकार की मूर्तियाँ रखी हुई थीं। उसे दूसरी कोई मूर्ति पसन्द न आयी। उसे अपनी ही मूर्ति प्यारी थी। जब वह धूप जलाती, तो यही प्रयत्न करती कि उसका सुगन्धित धुआँ किसी दूसरी मूर्ति के पास न जाये। वह अपनी मूर्ति के चारों ओर एक परदा डाल देती थी। कुछ महीनों में धुएँ के मारे उसकी मूर्ति काली और मैली हो गयी, किन्तु बाकी दूसरी मूर्तियाँ चमकती रहीं।
अनुदार व्यक्तियों का यही हाल होता है। वे दूसरे धर्मों का आदर नहीं करते। लेकिन भगवान् सभी धर्मों में है। अनुदार व्यक्ति को यह मालूम नहीं रहता, इसलिए दूसरों के धर्म से वह घृणा करता है। इसलिए ईश्वर उसे प्यार नहीं करते। सच्चे धर्म में सत्य, पवित्रता और प्रेम होता है। तुम कभी अनुदार न बनो।
- शिवानन्द
यहाँ तुम लोगों के लिए एक बढ़िया गीत लिख रहा हूँ। कण्ठस्थ कर लोगे? यदि तुम जल्दी कण्ठस्थ कर लोगे, तो तुम बहुत अच्छे बच्चे हो । क्या तुम इसे
गीत
दो छोटे नयन दिये हरि-दर्शन को,
दो छोटे कान दिये हरि-गुन सुनने को,
दो छोटे चरन दिये हरि-मारग में चलने को,
दो छोटे ओंठ दिये हरि-गुन गाने को,
दो छोटे हाथ दिये हरि के काम करने को,
और एक छोटा हृदय दिया हरि से प्रेम करने को।
१. माता-पिता की सेवा करो।
२. गुरु की सेवा करो।
३. रोगियों की सेवा करो।
४. गरीबों की सेवा करो।
५. प्रेम से सेवा करो ।
६. सेवा और भजन करो।
७. उत्सुकतापूर्वक सेवा करो।
८. निःस्वार्थ भाव से सेवा करो।
९. सबमें भगवान् को उपस्थिति मान कर उनकी सेवा करो।
१०. इस प्रकार सेवा करने से तुम अच्छे बच्चे बनोगे।
● एक तन्दुरुस्ती हजार नियामत ।
● समय किसी के लिए रुका नहीं रहता।
● व्यर्थ न खोओ, स्वार्थ न चाहो ।
● खर्च करो, ईश्वर और देगा।
● अन्त भला सो सब भला ।
● हवाई महल मत बनाया करो।
● वक्त का एक टाँका नौ टाँकों से अच्छा है।
● ताली दोनों हाथों से बजती है।
● काल करे सो आज कर, आज करे सो अब ।
१. ईश्वर का चिन्तन करो।
२. ईश्वर के बारे में बोलो।
३. ईश्वर के नाम का जप करो।
४. ईश्वर का गुणगान करो।
५. ईश्वर से प्रेम करो।
६. ईश्वर की पूजा करो।
७. ईश्वर की प्रार्थना करो।
८. ईश्वर के लिए रुदन करो।
९. ईश्वर को पुकारो।
१०. तब तुम ईश्वर का दर्शन पाओगे।
● जरूरतमंद लोगों को खून दो ईश्वर तुम्हारे पास किसी चीज की कमी नहीं रहने देगा।
● कर्म-फल की आकांक्षा मत रखो, वह अपने-आप मिलेगा।
● दुःखी वे हैं जो लोभी हैं।
● सेवा ही पूजा है।
● जो बचाता नहीं, वह कुछ भी नहीं कमाता ।
● विपत्ति का सामना हिम्मत से करो।
● बुरे दिनों के लिए कुछ बचाते रहो।
● सत्य के सिवा कुछ भी स्थायी नहीं रहता।
● ठूंस-ठूंस कर खाना खतरनाक है।
● व्यर्थ गँवाओ नहीं, स्वार्थ चाहो नहीं।
● प्रेम करोगे, तो प्रेम पाओगे।
● समय पर हर चीज सुहाती है।
● काम ही फल है, बातें तो केवल पत्ते हैं।
● नाम बड़े दर्शन थोड़े।
● हर दिन के बाद रात आती है।
● क्या तुम सबसे अधिक प्रिय बच्चे बनना चाहते हो ? यदि हाँ, तो सादा रहो। सौम्य रहो। महान् बनो। प्रसन्न रहो। सत्यवादी रहो। सुशील रहो।
● निष्ठावान् बनो। उदार रहो। धैर्यशील रहो। निःस्वार्थ बनो।
● बुरा न देखी। बुरा न सुनी। बुरा न बोलो। बुरा न करो। पवित्र बोलो। पवित्र सोचो। शुद्ध भावना रखो। अपने प्रति सच्चे रहो। सोते हुए स्वप्न में मैंने देखा, सौन्दर्य ही जीवन है; जागने पर पाया कि कर्तव्य ही जीवन है।
इन उपर्युक्त वाक्यों को दश बार पढ़ो। पुस्तक बन्द रखो। क्या तुम अब इन्हें दोहरा सकते हो ?
● घृणा मत करो।
● घबराओ नहीं।
● दूसरों को दुःख न दो।
● बुरी संगति में न रहो।
● दूसरों को दोष न दो।
● आलस्य न करो।
● खराब शब्द न बोलो।
● क्रोध न करो।
● लोभ न करो।
● झूठ न बोलो।
तब तुम भले बनोगे।
● कम खाओ, कम पिओ, कम बोलो, कम सोओ।
● थोड़ी सेवा करो, थोड़ा दान करो, थोड़ी मदद करो।
● कुछ पूजा करो, कुछ जप करो, कुछ कीर्तन करो।
तब तुम अच्छे बच्चे बनोगे।
*
खेल-खेल में दिन और रात नहीं गँवाऊँगा।
अपना कर्तव्य करके मैं सुख-सन्तोष पाऊँगा ।।
यह गीत दश बार बोलो। क्या अब इसे देखे बिना दोहरा सकोगे? नहीं, खाली दोहराना काफी नहीं है। जैसा बोलते हो, क्या वैसा करते भी हो ? यह दिव्य जीवन है।
भले बनना चाहो तो—
अच्छा ही देखो, अच्छा ही सुनो, अच्छा ही सोचो।
अच्छा ही करो, अच्छा ही बोलो, अच्छा ही पढ़ो।
अच्छा ही लिखो, अच्छा ही खाओ, अच्छा ही पिओ ।
● भक्तिपूर्वक प्रार्थना करो। निःस्वार्थ हो कर प्रार्थना करो।
●
● उत्साह से प्रार्थना करो। सच्चाई से प्रार्थना करो।
●
● मानसिक प्रार्थना करो। हृदय से प्रार्थना करो।
●
● निष्कपट हो कर प्रार्थना करो।
ईश्वर तुम्हें पूरे मन से चाहेगा।
१. ईश्वर तुम में है।
२. ईश्वर प्रत्येक व्यक्ति में है।
३. ईश्वर प्रत्येक वस्तु में है।
४. ईश्वर जीवन है।
५. ईश्वर प्रकाश है।
६. ईश्वर सत्य है।
७. ईश्वर सुन्दरता है।
८. ईश्वर शान्ति है।
९. ईश्वर पूर्णता है।
१०. ईश्वर प्रेम है।
बच्चो! यहाँ कुछ सूक्तियाँ दी जा रही हैं। प्रयत्न करके देखो, इनमें कितनी रोज याद कर सकते हो। स्मरण-शक्ति बढ़ाने का यह एक अच्छा अभ्यास है। यदि तुम इन सबको याद कर सको, तो तुम्हारी स्मरण शक्ति उत्तम है। एक दरजन सूक्तियाँ याद कर सकने पर बहुत अच्छी, नौ याद करने पर अच्छी और छह याद करने पर साधारण है। स्वयं परीक्षा करके देखो।
● मन्दिर में चिराग जलाने से पहले अपने घर में जलाओ।
● जल्दबाजी से बरबादी होती है।
● ताली दोनों हाथों से बजती है।
● प्रेम सबसे बड़ा इलाज है।
● व्यर्थ परिश्रम न करो।
● हथेली पर दही नहीं जमता ।
● जल्दी सोये, जल्दी जागे
● तनिक नहीं दुःख पाये;
● बुद्धि और स्वास्थ्य बढ़े,
● धन उसके घर आये।
● सेवा बिन मेवा नहीं।
● अपने मुँह मियाँमिट्ठू बनने से काम नहीं चलता।
● तेते पाँव पसारिए जेती लाँबी सौर।
● दृष्टि से ओझल, मन से ओझल ।
● पश्चात्ताप प्रायश्चित्त है।
●
● महान् उपलब्धियाँ संकट से युक्त होती है ।
● अधजल गगरी छलकत जाये ।
● धोबी का कुत्ता, घर का न घाट का ।
(१)
● सदा ईश्वर पर भरोसा रखो।
● अपमान और आघात सहन करो।
● वाणी पर नियन्त्रण रखो।
● किसी को ठगो मत।
● कुसंगति भयावह है।
● निर्भय बनो।
● देते जाओ, ईश्वर प्रसन्न होगा ही ।
● दूसरों की सहायता करना पुण्य है।
● सताना पाप है।
● जप युद्ध-कवच है।
● ज्ञान फल है।
● पर हित के लिए ही जिओ ।
● मन धोखा देता है, सावधान रहो।
● क्रोध का प्रारम्भ से ही उन्मूलन करो।
● उदारता से लोभ को जीतो ।
● शुद्ध मन तुम्हारा मित्र है।
● शान्ति प्रगति का मार्ग है।
● ईश्वर के गुण-गान गाओ।
● मृदु बोलो, मधुर बोलो।
● प्रेम ही सेवा है।
● अपने को जानो।
● सद्गुण जीवन का आधार है।
● आनन्द तुम्हारे अन्दर ही है।
● भले के लिए पुरुषार्थ करो ।
● ईश्वर तुम्हारी निधि है।
● संख्या से जुड़े नहीं, तो शून्य का कोई मूल्य नहीं ।
● ईश्वर से जुड़े नहीं, तो जीवन का कोई मूल्य नहीं ।
(२)
● आड़े वक्त काम आने वाला ही सच्चा मित्र है।
● न आने से देर में आना अच्छा है।
● मन से भी किसी का बुरा न सोचो।
● दूसरों के साथ वैसा ही व्यवहार करो, जैसा अपने लिए चाहते हो ।
● एक असत्य दूसरे असत्य को न्योता देता है।
● पराजय विजय की सीढ़ी है।
● ईश्वर हृदय को देखता है, रूप को नहीं।
● देने वाला सुख भोगता है।
● जब तू जागे, तभी सबेरा ।
● जैसा बोओगे, वैसा ही काटोगे।
● अवसर के लिए तैयार रहो।
● सोच कर काम करो।
● ऊँची दुकान, फीका पकवान ।
● लोभ के समान पाप नहीं।
● आँख से दूर, मन से दूर
● अशर्फिया लुटें, कोयले पर छाप ।
● किसी से झगड़ो नहीं ।
● हथेली पर दही नहीं जमता ।
● कथनी और करनी अलग-अलग हैं।
● अति कभी भली नहीं ।
● एकता में बल है।
● पाप अपना दण्ड खुद लाता है।
● जहाँ चाह है, वहाँ राह है।
● अपने मन की परीक्षा करो।
● ईश्वर ही सच्चा मित्र है।
● ईश्वर-दर्शन का उत्साह रखो।
शिक्षक : सोहन, मोहन और विजय-तुम सब-के-सब यहाँ हो। बहुत ही अच्छा। सोहन, तुम कब आये ?
सोहन : जी, मैं आज सुबह आया ।
शिक्षक: क्या चाहते हो? हमेशा की तरह आज शाम को भी कहानी वाला कार्यक्रम चलाया जाये ?
लड़के : जी हाँ ।
शिक्षक : ठीक इस बार में तुम लोगों से कोई दिलचस्प कहानी सुनना चाहता हूँ। तुममें से कौन-कौन कहानी सुना सकता है? हाथ उठाओ।
(सब अपना हाथ उठाते हैं।)
शिक्षक : बहुत अच्छा । इसका मतलब है कि तुम सब कहानी पढ़ने में रुचि रखते हो। तो बारी-बारी से सुनाना ।
(विजय पहले हाथ उठा कर बताता है कि वह कहानी सुनाना चाहता है।)
बहुत ठीक। विजय! अब आगे आओ और हम लोगों को कोई बढ़िया कहानी सुनाओ।
विजय: एक जंगल में एक शिकारी एक अकेली झोपड़ी में रहता था। उसके पास एक वफादार शिकारी कुत्ता रहता था, जिसका नाम टाइगर था। एक दिन शिकारी की पत्नी बीमार हो गयी, इसलिए अपने बच्चे को उस कुत्ते के सुपुर्द कर वह शिकार खेलने चला गया। इस बीच एक भेड़िया उस झोपड़ी में घुस आया, जहाँ वह बच्चा सोया हुआ था। वह पालने पर झपट पड़ा और बच्चे को खाने की कोशिश की। कुत्ते ने एकदम भेड़िये पर हमला किया। दोनों के बीच खूब लड़ाई हुई। अन्त में भेड़िया मारा गया। और कुत्ता अपने मालिक के बच्चे को बचाने में सफल हो गया। लेकिन इस लड़ाई के बीच कुत्ते का मुँह खून से सन गया।
शिकारी घर लौटा। कुत्ते के मुँह पर खून देख कर उसने सोचा कि सम्भव है, इसने मेरे बच्चे को खा लिया। इस विचार से वह क्रोध से पागल हो गया। उसने कुत्ते को तत्काल ही गोली मार दी।
फिर झोपड़ी में जा कर देखा, तो बच्चा आराम से सोया हुआ था और पास में भेड़िया मरा पड़ा था। अब सारी बात उसकी समझ में आयी। तब वह उस कुत्ते के लिए बड़ा पश्चात्ताप करने लगा, जिसने अपनी जान पर खेल कर मालिक के बच्चे की रक्षा की। वह बहुत पछताया और रोने लगा, लेकिन उसका रोना-धोना कुत्ते को जीवित न कर सका।
सोहन : ऐसा कौन है जो टाइगर समान वफादार कुत्ते को पालना न चाहे ? किन्तु ऐसे मालिक को धिक्कार है, जिसने कुत्ते की वफादारी पर सन्देह किया और उसे तत्काल ही मार डाला! कितने खेद की बात है!
मोहन : हाँ मित्र! मैं तुमसे सहमत हूँ। मालिक वास्तव में बड़ा मूर्ख था। कुत्ते के मुँह पर खून लगा देख कर वह एकदम भड़क गया और अपनी विचार-शक्ति खो बैठा। स्थिति समझने के लिए वह एक पल भी रुक न सका। अपनी आँखों से देख कर सारी स्थिति समझ लेने के लिए वह झोपड़ी के अन्दर तक न गया।
विजय : ऐसे क्रोधी, अविवेकी, उतावले, धैर्यहीन, आसुरी वृत्ति वाले लोगों की इस संसार में कमी नहीं है।
शिक्षक : बहुत खूब! शिकारी की जल्दबाजी के प्रति तुम लोगों की प्रतिक्रिया और हर-एक के तुम्हारे अपने-अपने दृष्टिकोणों को मैं शान्ति से सुनता रहा हूँ। मुझे इस बात की खुशी है कि तुम लोगों में से किसी ने भी उस मालिक के पक्ष में नहीं कहा और उसके नृशंस काम की तथा कुत्ते के प्रति उसके अविश्वास की निन्दा की। इसलिए ध्यान रखो कि सन्देह या शंका सबसे बड़ा शत्रु है। उससे मन अशान्त हो जाता है। क्रोध और सन्देह से मनुष्य का विवेक नष्ट जाता है।
क्या तुम जानते हो कि वह शिकारी इतना उतावला, धैर्यहीन बन कर क्यों ऐसा नृशंस कार्य कर बैठा ?. अविवेकी और
(कुछ समय तक शान्ति रही। कोई उत्तर नहीं दे सका।)
शिक्षक : इसका एक ही कारण था कि उस आदमी के मन में अपने बच्चे के प्रति आसक्ति थी। उसके मन में अपने इकलौते बच्चे के प्रति बहुत प्यार और मोह था और इसीलिए वह तत्काल उत्तेजित हो उठा, गुस्से से पागल हो गया और विचार-शक्ति खो बैठा। क्रोधावेश में वह ठीक बात का विचार नहीं कर सका।
बच्चो ! नरक के तीन द्वार जानते हो?
लड़के: जी नहीं वे कौन-से हैं?
सोहन: (धीमी आवाज में) क्या राजमहल की भाँति नरक का भी कोई द्वार होता है।
(सब हँसते हैं।)
शिक्षक: तो बच्चो, ध्यान से सुनो! काम, क्रोध और लोभ ये तीन नरक के द्वार हैं। मनुष्य जब क्रोध करता है, तब उलझन में पड़ जाता है, वह स्मृति और समझ खो बैठता है। क्रोध में जो मन में आये, उसी को बकने लगता है और जैसा मन में आये, वैसा कर बैठता है। वह हत्या कर देता है। एक भी चुभता हुआ शब्द लड़ाई और खून का कारण बन जाता है। क्रोध में मनुष्य होश - हवास खो बैठता है। उसकी बुद्धि उसका साथ नहीं देती। उसे मालूम नहीं हो पाता कि वास्तव में वह कर क्या रहा है। वह पूरी तरह से क्रोध के प्रभाव में रहता है। क्रोध आत्मज्ञान को नष्ट कर डालता है। यह शान्ति का सबसे बड़ा शत्रु है। सभी दुर्गुण, दोष और कुकर्म क्रोध से ही पैदा होते हैं। जिसने क्रोध को जीत लिया है, वह कभी गलत या बुरा कार्य नहीं कर सकता । अप्रसन्नता, रोष, उत्तेजना तथा चिड़चिड़ाहट —ये सब क्रोध के ही अलग-अलग रूप हैं, जिनमें मात्रा और तीव्रता के होता है। अनुसार भेद होता है ।
सोहन: मास्टर साहब, आपने क्रोध के बारे में काफी विस्तार से समझाया है, लेकिन क्या इस महादोष से बचने का कोई उपाय नहीं है?
शिक्षक: तुमने बहुत सही प्रश्न पूछा। तुम समझदार दीखते हो। मैं बताता हूँ। क्रोध को काबू में करने के लिए मौन और विचार (ठीक-ठीक चिन्तन करना) - ये दो उपाय बहुत सहायक होते हैं। मनुष्य छोटी-छोटी बातों के लिए एकदम क्रोध में आपे से बाहर हो जाता है। जब क्रोध को रोकना कठिन लगे, तो तुरन्त ही उस स्थान से बाहर चले जाना चाहिए और तेजी से टहलना चाहिए। फौरन ठण्ढा जल पीना चाहिए।
क्रोध अथवा चिड़चिड़ाहट मन की दुर्बलता का लक्षण है।
अँधेरी कोठरी में बत्ती या टार्च जला दो, तो फौरन अँधेरा मिट जाता। है। इसी प्रकार क्रोध को उसके विपरीत गुणों—जैसे धैर्य, विचार (सही चिन्तन), प्रेम, क्षमा और सेवा-भाव के अभ्यास से जीता जा सकता है। तब क्रोध अपने-आप शान्त हो जाता है। घृणा का शमन घृणा से नहीं, उसके विपरीत गुण 'प्रेम' से होता है।
वह शिकारी धैर्य और विचार का थोड़ा भी अभ्यास कर पाया होता, तो उसे अपने स्वामी-भक्त कुत्ते से हाथ न धोना पड़ता। जल्दी में तुम्हें कुछ भी नहीं करना चाहिए। जल्दबाजी बरबादी लाती है। कोई काम करने से पहले उसके बारे में दो बार सोचो। अब समझे मोहन ! क्या सारी बातें समझ मैं आ गयीं?
मोहन : जी हाँ, समझ गया। शिकारी और कुत्ते की कहानी सुन कर मुझे भी ऐसी ही एक कहानी की याद आयी जो मेरे साथ घटी थी। क्या मैं उसे संक्षेप में बतला सकता हूँ?
शिक्षक : अवश्य! तुम्हारे अनुभव सुन कर सभी लड़के खुश होंगे और कुछ सबक भी सीखेंगे।
मोहन : एक बार ऐसा हुआ कि मैंने वंशी बजाते हुए श्री कृष्ण का एक सुन्दर चित्र खरीदा और अपनी मेज पर उसे सजा दिया। एक दिन सुबह देखा, तो वह वहाँ नहीं था। मुझे मालूम न था कि उसे किसने उठा लिया। मैंने बहुत खोजा, किन्तु कोई लाभ न हुआ जितनी देर में चित्र खोजता रहा, उतनी देर तक मेरी छोटी बहन कमरे में एक कोने में खड़ी खड़ी मुस्करा रही थी। मैंने सोचा कि चित्र उसी ने उठा लिया होगा और कहीं छिपा दिया होगा। तब गुस्से के आवेश में मैं उसे वहीं और उसी समय खूब पीटने लगा। वह जोर-जोर से रोने लगी। माँ दौड़ी आयी और उसे बचा लिया। माँ जानती थी कि वह निर्दोष है, इसलिए उसे मारने के कारण मुझे खूब डाँटने लगी। दोपहर में मेरे पिता जी आफिस से घर लौटे, तब सारी बात समझ में आयी। असल में बात यह थी कि उस कमरे की सफाई होनी थी। पिता जी ने यह सोच कर कि सफाई करते समय फोटो पर गर्द जम जायेगी, चित्र को वहाँ से हटा कर अपने बक्से में बन्द कर दिया था।
तब मुझे मालूम हुआ कि मैंने अपनी निरपराध बहन के साथ नाहक बुरा व्यवहार किया । यदि कुछ धैर्य और विचार से काम लिया होता, तो मैं इतनी निर्दयता से पेश न आता।
शिक्षक : बहुत खूब । अच्छा, बच्चो! अब देर हो रही है। आज शाम का समय बहुत अच्छी तरह व्यतीत हुआ। तुम लोगों ने हमें अपने-अपने अनुभव और कहानियाँ सुनायीं। मुझे आशा है कि आज की बातों से तुम लोगों को खूब लाभ मिला होगा। अत: प्यारे बच्चो, तुम लोग धैर्य, विचार (सही चिन्तन), हिम्मत, विश्व-प्रेम, निःस्वार्थ सेवा, दृढ़ इच्छा-शक्ति आदि रचनात्मक सद्गुणों का विकास करो।
ईश्वर तुम लोगों का कल्याण करे!
लड़के प्रणाम मास्टर साहब। आपके उपदेश के अनुसार ही हम व्यवहार करेंगे। हमारे विचारों में बहुत परिवर्तन हो गया है। यह सब आपकी कृपा का फल है।
शिक्षक: ओ हो! गोपाल आज तो तुम सब ठीक समय से आ गये। हो। कृष्ण कहाँ है?
गोपाल: वह अभी कुछ ही देर में आने वाला है।
शिक्षक : गोपाल, यह तो बताओ कि कल वह लाल साफे वाला आदमी कौन था और उससे क्या झगड़ा हो रहा था ?
गोपाल: जी हाँ, वह मेरा पड़ोसी है। वह बड़ा अमीर है--- लखपति | हमारे बड़े सेठ नेमिचन्द का वह मुनीम है। उसने एक गरीब किसान को कुछ सौ रुपये उधार दिये थे, जिसका ब्याज वह माँग रहा था और किसान ठीक समय पर वह ब्याज नहीं चुका सका था। इसी को ले कर झगड़ा था।
शिक्षकः यह बात है। वह किसान को धमका रहा था और उससे बहुत बुरी तरह पेश आ रहा था। वह अपनी सम्पत्ति, नाम, यश, पद और प्रभाव की बड़ी बड़ाई कर रहा था। तुमने देखा न कि वह अपनी सम्पत्ति को ले कर कितनी डींग मार रहा था ? क्या तुम्हें उसका व्यवहार पसन्द आया ?
गोपाल : नहीं, उसका व्यवहार किसी तरह उचित नहीं था। गरीब किसान के साथ उसने जैसा व्यवहार किया, उसकी हम निन्दा करते हैं।
शिक्षक : क्या तुम लोगों ने वह कहानी सुनी है—'चमकने वाली सभी चीजें सोना नहीं होतीं ।'
कृष्ण : जी हाँ, वह तो एक घमण्डी हिरन के बारे में है। क्या मैं उसे सुना दूँ?
शिक्षक: हाँ, सुनाओ।
कृष्ण : एक छोटा बारहसिंगा पानी पीने के लिए एक झरने पर गया। नीचे नीले पानी में उसने अपनी परछाईं देखी। उसे अपनी परछाईं देख कर बड़ा आश्चर्य हुआ। अपने सुन्दर सींग देख कर उसे अभिमान होने लगा। उसने सोचा- "कितने सुन्दर सींग मेरे पास हैं। मेरा बाकी सारा शरीर भी यदि ऐसा ही सुन्दर होता, तो इस धरती पर मैं सबसे सुन्दर प्राणी होता। लेकिन मैं अपनी इन पतली भद्दी टाँगों को देख नहीं सकता। इनके कारण मुझे शरम आती है।"
इतने में एक शेर की भयानक गर्जना सुनायी पड़ी। बारहसिंगा वायुवेग से भागा। वह अपनी उन्हीं टाँगों के सहारे, जिनकी वह निन्दा कर रहा था, छलाँग मार कर बहुत दूर निकल आया और शेर बहुत पीछे रह गया। लेकिन ज्यों ही वह एक घने जंगल में घुसा, उसकी सींगें जो सुन्दर थीं और जिन्हें वह बहुत पसन्द करता था, एक झाड़ी में फँस गयीं और वह फँस गया। इतने में पीछे से भूखा शेर आया और उसे खा गया।
इस तरह आखिर, वे सुन्दर सींग ही, जिन्हें वह बहुत चाहता था, उसकी मृत्यु का कारण बनीं।
शिक्षक : बहुत सुन्दर । देखो बच्चो ! वे सुन्दर सींग, जिन पर बारहसिंगे को बड़ा अभिमान था, उसकी मौत का कारण बनीं। यह सच है कि घमण्ड हमेशा पतन की ओर ले जाता है। मनुष्य के पास ज्यों ही कुछ धन, अधिकार, नाम और यश हो जाता है, वह घमण्डी बन जाता है। वह अपने को बहुत बड़ा समझने लगता है और दूसरों से घृणा करता है। उसमें अपने को दूसरों से बहुत बड़ा मानने का दोष आ जाता है और दूसरों के साथ मिलने-जुलने में वह अपना अपमान समझता है।
किसी में सेवा या आत्म-त्याग का गुण हो, तो वह कहने लगेगा कि 'मेरे समान कौन सेवा कर सकता है? मैं ब्रह्मचारी हूँ। मैं पिछले दश वर्षों से ब्रह्मचर्य की साधना कर रहा हूँ इत्यादि। जिस प्रकार सांसारिक लोग सम्पत्ति पा कर घमण्ड से फूल जाते हैं, उसी प्रकार साधु और धार्मिक लोग भी अपने नैतिक गुणों की डींग मारने लगते हैं।
प्यारे बच्चो, याद रखो कि इस प्रकार का घमण्ड भौतिक तथा आध्यात्मिक प्रगति के मार्ग में बड़ा बाधक है। इसका परिणाम आखिर में पतन ही होता है।
शिवाजी के जीवन की एक घटना मुझे याद आती है। उससे बहु अच्छी सीख मिलती है।
गोपाल : वह कौन-सी घटना है? उसे हम सुनना चाहते हैं।
शिक्षक : अच्छा सुनो।
एक बार शिवाजी ने एक किला बनाने के काम में एक हजार मजदूरों को लगाया। उन्हें इस बात का अभिमान था कि वह इतने लोगों का भरण-पोषण कर रहे हैं। शिवाजी के गुरु रामदास को यह मालूम हो गया। उन्होंने शिवाजी को बुला कर कहा कि उनके महल के सामने जो पत्थर पड़ा है, उसे तुड़वा दें। शिवाजी ने एक मजदूर को वह पत्थर तोड़ने की आज्ञा दी। जब पत्थर तोड़ा गया, तो उस पत्थर के अन्दर से एक मेढक कूद कर बाहर आ गया।
रामदास ने शिवाजी से पूछा - "शिवा, इस पत्थर के अन्दर इस मेढक के खाने-पीने का प्रबन्ध किसने किया होगा ?” शिवाजी लज्जित हो गये। रामदास स्वामी के चरणों में झुक कर कहा— गुरु महाराज, आप अन्तर्यामी है। जब मेरे मन में यह अभिमान पैदा हुआ कि मैं इन मजदूरों को खाना दे रहा हूँ, तब आप यह बात समझ गये। अब मेरे हृदय में विवेक जाग्रत हुआ है। मेरी रक्षा कीजिए। प्रभु, मैं आपका शिष्य हूँ।"
बच्चो! अपनी सफलता, सम्पत्ति, धन, शक्ति, यश आदि का अभिमान अपने अन्दर न आने दो। याद रखो कि सम्पत्ति, सुन्दरता, मान, प्रतिष्ठा, यौवन सब समाप्त हो जाते हैं; परन्तु सदाचार से पूर्ण जीवन पर किसी प्रकार की आँच नहीं आने पाती।
सभी वस्तुएँ ईश्वर की देन हैं। हमारा कुछ भी नहीं है। हम कुछ नहीं हैं। हम प्रभु के हाथों के उपकरण हैं। हमें सदा अपना मन सन्तुलित रखना चाहिए, मान-अपमान, अमीरी-गरीबी, शीत-उष्ण, सुख-दुःख आदि सबका समान भाव से सामना करना चाहिए। दुःख पड़े, तो उसे धैर्यपूर्वक सहना चाहिए। सुख में किसी प्रकार का घमण्ड या अभिमान नहीं करना चाहिए ।
मेरा ख्याल है, आज यहीं समाप्त करें। आज के लिए इतना पर्याप्त है। तुम्हें मालूम ही है कि आज सुबह हम सब जल्दी में हैं। ईश्वर तुम सबका कल्याण करे!
लड़के : आपको बहुत धन्यवाद ! मास्टर साहब ।
(गोपाल, कृष्ण, राम आदि लड़के कक्षा में प्रवेश करते हैं और अपनी-अपनी जगह बैठ जाते हैं। कक्षा में पूर्ण शान्ति है ।)
कृष्ण : (अपने साथी के कान में) आज हमारे गुरु जी कुछ नाराज दीखते हैं। देखो, उनके तेवर चढ़े हुए हैं।
गोपाल : चुप रहो, नहीं तो उनका क्रोध बढ़ जायेगा।
(सब मन्त्र-मुग्ध की तरह चुप हैं। हर एक डर रहा है कि कहीं गुरु जी की कूद दृष्टि उस पर न पड़ जाये। कोई बोलने की हिम्मत नहीं कर पा रहा है।)
शिक्षक: अच्छा बच्चो! मुझे इस बात का खेद है कि कल शाम को कुछ बच्चे घर देर से पहुँचे। तुम्हारे माता-पिता के शिकायत के पत्र मेरे पास आये हैं।
(कृष्ण हिम्मत करता है और शुरू करता है।)
कृष्ण : मास्टर साहब, आप बुरा न मानें तो मैं उसका कारण बताऊँ ।
शिक्षक : तुमसे मुझे यही उम्मीद थी। मैं सीधा-सादा सच्चा कारण जानना चाहता हूँ। तुम लोग जो भी करो या बोलो, उसमें तुम्हें साहसी, ईमानदार, सच्चा और स्पष्टवादी होना चाहिए। संकोची न बनो।
कृष्ण : अच्छा। कल शाम को जब हम बगीचे में टहल कर लौट रहे थे, एक सँकरी गली में हमारे पीछे एक साइकिल वाला आया। वह तेजी से जा रहा था। सामने से एक बच्चा आया। बच्चे को बचाने के लिये उसने साइकिल घुमायी। सामने से एक फेरी वाला सब्जी की टोकरी लिये आ रहा था। साइकिल वाला उससे जा टकराया। फेरी वाले की टोकरी नीचे जमीन पर गिर गयी और उसकी चीजें बिखर गयीं ।
फेरी वाले ने साइकिल वाले को पकड़ लिया और सब्जी का दाम उससे माँगने लगा। दोनों में झगड़ा होने लगा और चारों ओर भीड़ इकट्ठी हो गयी। कुछ लोग साइकिल वाले का पक्ष लेने लगे और कुछ फेरी वाले की बात का समर्थन करने लगे। गरमा-गरमी के बाद दोनों हाथापाई पर उतर आये। दोनों के कपड़े फट गये और शरीर पर खरोंचें और चोटें आ गयीं ।
फिर पुलिस आयी और काफी प्रयत्न के बाद दोनों को अलग किया। कुछ लोगों को गिरफ्तार भी किया। दुर्भाग्य से पुलिस वालों ने झगड़ा निपटाने के लिए दोनों से घूस माँगी और कहा कि जो पक्ष अधिक घूस देगा, उसके पक्ष में फैसला किया जायेगा। परिणाम यह हुआ कि जुर्माना और घूस दे कर दोनों पक्षों को काफी हानि उठानी पड़ी।
शिक्षक : क्या तुम लोगों ने अपने-अपने घर जा कर यह नहीं बतलाया कि इस घटना के कारण देरी हो गयी?
लड़के : जी, हमने बतलाया; लेकिन उन्हें हमारी बात पर सन्देह था।
शिक्षक : ठीक! मैं देख लूँगा। अच्छा गोपाल, क्या तुम जानते हो कि तुम लोग रोज यहाँ क्यों आते हो ?
गोपाल : जी हाँ, रोज कुछ-न-कुछ नयी बात सीखने के लिए।
शिक्षक : ठीक है। तो जीवन की ऐसी हर एक घटना से कुछ-न-कुछ सीखना चाहिए। मैं एक ऐसी कहानी सुनाता हूँ। आशा है, उससे तुम बहुत कुछ सीख सकोगे।
(सब खुशी से ताली बजाते हैं।)
शिक्षक : एक बार दो बिल्लियों को एक रोटी मिली। दोनों उस पर एक-साथ ही टूट पड़ीं। रोटी के दो टुकड़े हो गये। उनमें से एक टुकड़ा कुछ बड़ा था और दूसरा छोटा। दोनों झगड़ने लगीं। उसी समय एक बन्दर उधर से गुजरा। उसने पूछा - "बहनो, क्यों झगड़ती हो? क्या बात है?" बिल्लियों ने हाल सुनाया, तो बन्दर बोला- “झगड़ो मत। मैं इन दोनों टुकड़ों को तराजू में तोल कर बराबर-बराबर कर दूँगा।" दोनों राजी हो गयीं। उसने तराजू के दोनों पलड़ों में एक-एक टुकड़ा रखा। एक टुकड़ा कुछ भारी था ही। उस भारी टुकड़े को बन्दर ने कुछ काट लिया और खा गया। अब दूसरा टुकड़ा भारी हो गया। उस टुकड़े में से भी उसने कुछ हिस्सा काटा और खा गया। इसी तरह एक बार एक टुकड़े को तो दूसरी बार दूसरे को वह तोड़-तोड़ कर खाता रहा। आखिर में बहुत छोटे-छोटे टुकड़े बचे।
तब बिल्लियों की समझ में आया कि उन्होंने मूर्खता की। बन्दर से उन्होंने वह बचा हुआ टुकड़ा माँगा। लेकिन वह निर्णायक (बन्दर) बोला- "क्या तुम यह समझती हो कि मैंने यह सारा कष्ट व्यर्थ ही ?" उठाया ? मुझे मेहनताना भी तो चाहिए ? यह कह कर बचे हुए टुकड़ों को भी उसने अपने मुँह में डाल लिया। बच्चो! यह बताओ कि इस कहानी से क्या सीख मिलती है? हाथ ऊँचा करो ?
कृष्ण : जी, मैं बताऊँ ?
शिक्षक : हाँ, सुनाओ ।
कृष्ण : अपने बीच कोई मामला खड़ा हो, तो उसे आपस में निपटा लेना चाहिए।
शिक्षक : बिलकुल ठीक, तुम समझदार बच्चे हो । है न?
गोपाल : हमें अपने बीच में किसी तीसरे आदमी को आने नहीं देना चाहिए।
शिक्षक : बिलकुल ठीक । तुमने उत्तर पूरा कर दिया। इसलिए देखो बच्चो, अविवेक की अपनी हानियाँ हैं। अब जाने का समय हो गया है। भगवान् तुम सबका भला करे !
शिक्षक : मोहन, तुम आ गये? पिछले चार दिनों से कहाँ थे?
मोहन : जी, मैं अपनी बहन की शादी में अमृतसर गया था। आज ही सुबह वहाँ से वापस लौटा हूँ।
शिक्षक : क्यों तुम सुस्त और उनींद दीखते हो ? क्या तबीयत खराब थी ?
मोहन: जी नहीं तीसरे दर्जे के डिब्बे में बड़ी भीड़ थी। इसलिए : रात-भर जागना पड़ा। एक झपकी तक नहीं ले सका। वैसे, यात्रा बड़ी आनन्ददायक रही।
गोपाल : मास्टर साहब, मोहन कह रहा था कि अमृतसर से लौटते समय कोई रोचक घटना घटी है उसे सुनने की हमारी इच्छा है।
शिक्षक: अच्छा मोहन, तुम्हारे सारे साधी तुम्हारा अनुभव सुनना चाहते हैं। क्या तुम सुना सकते हो?
मोहन: अवश्य! अमृतसर स्टेशन पर जब गाड़ी आयी, तो तीसरे दर्जे के डिब्बे में बड़ी भीड़ थी। बड़ी कठिनाई से हम डिब्बे के अन्दर घुस सके। एक यात्री पूरी बर्थ पर अपना पैर फैलाये लेटा हुआ था। दरवाजे पर दो हट्टे-कट्टे पठान खड़े थे। उन दोनों ने उस व्यक्ति से उठ कर बैठने और दूसरों को जगह देने के लिए कहा। लेकिन उनकी बात पर उसने ध्यान नहीं दिया। पठानों ने फिर एक बार उससे स्थान देने को कहा, लेकिन वह बड़ी लापरवाही से बड़बड़ाया- "मैं बहुत दूर का यात्री हूँ, इसलिए पैर फैलाने के लिए मुझे अधिक स्थान की आवश्यकता है।" पठानों ने कहा- "दूसरों को असुविधा दे कर इस तरह आराम करने का तुम्हें अधिकार नहीं है।" यह कह कर वे दोनों उस व्यक्ति के पास आये और उसके दोनों ओर खड़े हो गये। फिर उन्होंने उसके शरीर को उठा कर नीचे फर्श पर रख दिया। वह व्यक्ति बहुत ही क्रोधित हुआ और पठानों को लाल-लाल आँखों से देखता रहा। उसने घूँसा तान लिया, किन्तु कुछ न कर सका। दूसरे सब यात्री चुप रहे. किन्तु वे मन-ही-मन हँस रहे थे और इस विनोद से बहुत प्रसन्न हुए। दोनों पठान और दूसरे दो यात्री उसकी बर्थ पर बैठ गये । (सब बच्चे खूब हँसते हैं।)
शिक्षक: अच्छा बच्चों, मालूम पड़ता है कि घटना सुन कर खूब मजा आया। मैं तुम लोगों को यह चार शब्द बताता हूँ-नीच बुद्धि', 'स्वार्थ', 'हठ', 'दम्भ' । सोच कर बताओ कि इस दुर्गुण वाले व्यक्ति के लिए कौन-सा शब्द उपयुक्त है। सोचने के लिए मैं तुम्हें दो मिनट का समय देता हूँ।
कृष्ण : जी, मेरे विचार से वह मनुष्य एकदम स्वार्थी था।
गोपाल : जी, वह केवल स्वार्थी ही नहीं था, नीच-बुद्धि भी था। यह तो साफ है कि उसकी गलती थी। अपनी भूल स्वीकार करने के बदले वह बेहद नाराज हो गया। इससे पता चलता है कि उसकी बुद्धि बड़ी नीच थी।
मोहन : जी, गोपाल ठीक कहता है। वह स्वार्थी और नीच - बुद्धि तो था ही, साथ ही दम्भी भी था; क्योंकि वह हठधर्मी पूरी सीट को घेरने को सही साबित करना चाहता था ।
सोहन : जी, मेरे ख्याल से अब और अधिक कहने की जरूरत नहीं है। थोड़े शब्दों में कहना हो, तो वह इन सारी बुराइयों का सम्मिश्रण था। पठानों के बार-बार कहने के बावजूद वह उठा नहीं, इसलिए वह हठी भी था।
शिक्षक : बहुत खूब। प्यारे बच्चो, मुझे इस बात की प्रसन्नता है कि तुम लोगों ने अपना दिमाग खूब लगाया है। तुम लोगों का यह प्रयत्न प्रशंसनीय है और थोड़ा-बहुत तुम सबका कहना सही है। यदि मैं इस विषय को और अधिक स्पष्ट करने के लिए संक्षेप में एक कहानी और सुनाऊँ तो आशा है, तुम सब उसको पसन्द करोगे।
सब बच्चे : जी हाँ । आपकी कहानी सुन कर हमें बड़ी खुशी होगी।
शिक्षक : ठीक है, सुनो।
एक बदमाश कुत्ता था। वह एक नाँद में, जिसके अन्दर सूखी घास भरी हुई थी, घुस गया। जो भी पशु पास आता, वह उस पर गुर्राता। किसी पशु को वह घास खाने नहीं देता था और न स्वयं ही खा सकता था। एक दिन घास खाने के लिए एक बैल आया। कुत्ता झट से भूँकने लगा और बैल की तरफ उछला। बैल बोला- "मुझे घास क्यों नहीं खाने देते ? वह तुम्हारे लायक तो है नहीं।” कुत्ते ने जवाब दिया- “भले ही मैं न खा सकूँ, पर दूसरा कोई भी उसे खा नहीं सकता।" बेचारा बैल चला गया।
एक दिन एक गधे ने देखा कि नाँद में सूखी अच्छी घास भरी है। उसके मुँह में पानी भर आया । नाँद के पास जा कर चोरी से अपना मुँह घास से भर लिया। कुत्ता गुर्राया और उसने गधे को काटना चाहा; लेकिन गधा उलटा घूम कर दुलती झाड़ने लगा। कुत्ते के मुँह पर जोर की चोट लगी और रिरियाता हुआ वहाँ से भाग निकला। गधे ने पेट-भर घास खा ली और बाकी बैल के लिए छोड़ दी।
तो बच्चो, इन दोनों प्रसंगों को मन में दोहरा लो। इससे कुछ निश्चित निष्कर्षों पर पहुँच सकोगे।
गोपाल : जी, अब पूरी बात मेरी समझ में आयी। कुत्ता न स्वयं घास खा सकता था और न किसी को खाने देता था। तुच्छता का यह स्पष्ट उदाहरण है जो स्वार्थ से भी अधिक बुरा है।
शिक्षक : बच्चो, इसका अर्थ यह है कि स्वार्थ मनुष्य को नीचता की ओर धकेलता है। संसार में इस तरह के नीच लोग भरे पड़े हैं। नीच व्यक्ति दूसरों को सुखी और समृद्धिशाली देख कर जल-भुन जाता है। वह स्वयं तो मिठाई, फल वगैरह खायेगा, लेकिन अपने नौकर को वही चीज खाते देख कर उसका जी जलने लगता है। दूसरों को चाय या कोई दूसरी चीज देनी , तो उसमें भी वह बहुत फर्क करता है। अपने लिए बढ़िया चीजें रख हो, लेगा और दूसरों को रद्दी चीजें बाँट देगा। नीच मनुष्य सम्पत्ति हड़पने के ए अपने भाई को जहर खिला देने में भी संकोच नहीं करेगा। धोखा दे कर और झूठ बोल कर उसके धन पर अधिकार कर लेने में वह बिलकुल नहीं हिचकिचायेगा। धन एकत्र करने के लिए वह हर तरह का नीच कृत्य करने को तैयार हो जायेगा। वह भले ही बहुत बड़ा आदमी हो, समाज में उसका मान भी हो, लेकिन रेलवे स्टेशन पर दो पैसे के लिए कुली से झिक-झिक करने लगेगा। मरते हुए आदमी को बचाने के लिए वह अपने भोजन में से एक ग्रास भी नहीं देगा। उसका दिल पत्थर के समान कठोर होता है। उसे मालूम ही नहीं कि 'दान' क्या होता है।
क्या तुम जानते हो कि इसका उलटा सद्गुण कौन-सा है, जिसका विकास हर एक को करना है ?
मोहन : जी, पिछले दिनों आपने कई सद्गुणों के नाम हमें बताये थे। मेरे विचार से इसके विपरीत गुण श्रेष्ठता, उदारता, दानशीलता और विश्व-प्रेम हैं।
शिक्षक : खूब । दिन-प्रति-दिन तुम बुद्धिमान् बन रहे हो। ठीक है। आज के लिए बस इतना ही है। अब हम खाने के लिए चलें। ईश्वर तुम्हारा कल्याण करे!
लड़के : मास्टर साहब! आपको बहुत धन्यवाद।
शिक्षक : सोहन, क्या बात है? आज तुम उदास दीखते हो? अरे, तुम्हारे गाल पर आँसू बह रहे हैं। क्यों इतने दुःखी हो? स्नानघर में जा कर मुँह धो आओ मन को शान्त करो और मुझे बताओ कि तुम क्यों इतने दुःखी हो? तुम्हारी कुछ सहायता करने की कोशिश करूँगा ।
(सोहन स्नानघर में जाता है और पाँच मिनट में मुँह धो कर वापस लौटता है।)
शिक्षक: अच्छा, तुम आ गये। अब बताओ, क्या बात है ?
सोहन : जी, आज सुबह मेरे कुछ साथी मुझे पास के फल के बगीचे में ले गये। माली वहाँ नहीं था। हम सब आम तोड़ कर वहीं खाने लगे। कुछ लड़कों ने पके आमों से अपनी जेबें भर लीं। इतने में हमने देखा कि थोड़ी ही दूरी पर बगीचे का माली आ रहा था। मेरे सारे साथी भाग गये; लेकिन माली ने मुझे पकड़ लिया, मेरे कान खींचे और खूब मार-पीट कर मुझे भगा दिया।
शिक्षक : यह सब सुन कर बड़ा दुःख हुआ। लेकिन मुझे इस बात की खुशी है कि तुमने सब सच-सच कह दिया और कुछ भी छिपाया नहीं। मैं समझता हूँ कि अपने मित्रों की शरारत के शिकार तुम बने । माली से तुम्हें पिटवाने और लज्जित करने के लिए तुम्हें अकेला छोड़ कर वे भाग गये। फिर भी मुझे इस बात का आश्चर्य है कि तुम जैसा अच्छा लड़का उन साधियों की बातों में कैसे आ गया। क्या वह सार्वजनिक बगीचा है, जहाँ जो चाहे वह जाये और मुफ्त में फल खाये ?
सोहन: जी नहीं वह तो एक निजी बगीचा है। वहाँ कोई नहीं जा सकता। हम पिछले द्वार से घुसे थे।
शिक्षक: अरे, चोरी से पिछले द्वार से घुसे ! क्या तुम लोगों ने बेहद गलत काम नहीं किया?
सोहन: जी, सब-के-सब उधर से ही घुसे थे।
शिक्षक : तुम्हारे सब साथी यदि कुएँ में गिरने लगें, तो तुम भी उन्हीं का अनुकरण करोगे ?
सोहन : जी नहीं, मुझे सचमुच अपने ऊपर लज्जा आ रही है।
शिक्षक: अच्छा तो तुम अपनी गलती महसूस करते हो। तुम लोगों को आम खाने का इतना शौक था, तो कुछ देर प्रतीक्षा करते और माली की अनुमति ले लेते। ऐसा लगता है कि तुम लोगों के ऊपर प्रलोभन इतना अधिक हावी था कि कुछ देर भी रुक कर अपने बुरे काम तथा उसके परिणाम के बारे में सोच नहीं सके। खैर, जो भी हो। घबराओ मत। "मनुष्य से भूल हो ही जाया करती है, ईश्वर उसे क्षमा कर देता है।” हिम्मत रखो। इस प्रसंग से यदि तुम अपने जीवन में कुछ सीख सके, तो अच्छा ही हुआ। अब तुम्हें पता चला कि किस तरह प्रलोभन से मुसीबत उठानी पड़ती है। कोई काम करने से पहले भली प्रकार सोच लो। तुमने अँधेरे में ही छलाँग लगा दी। ठीक है न ?
सोहन : जी हाँ। मैं अपनी गलती महसूस कर रहा हूँ। उन लड़कों ने अपने साथ चलने के लिए मुझ पर दबाव डाला। मुझे अपनी इच्छा के विरुद्ध उनके साथ जाना पड़ा। बगीचे के अन्दर भी मैंने साथियों से कहा था कि माली से पूछे बिना आमों को हाथ न लगायें; लेकिन उन्होंने मेरी बात पर जरा भी ध्यान नहीं दिया।
शिक्षक : सोहन, सड़े सेब की कहानी जानते हो?
सोहन : जी नहीं। वह मैं सुनना चाहता हूँ; क्योंकि आप जो भी कहानी सुनाते हैं, वह बड़ी रोचक और शिक्षाप्रद होती है।
शिक्षक: बहुत अच्छा। ध्यान से सुनो। अहमद एक अच्छा लड़का था। वह हमेशा अपने माता-पिता का कहना मानता था। उसका एक साथी था। वह बड़ा खराब था। वह बदमाश था। स्कूल के काम से हमेशा जी चुराता था। वह अपना बहुत सारा समय और धन बरबाद किया करता था। अहमद उस बुरे लड़के की संगति में पड़ गया।
अहमद के पिता को यह मालूम हुआ। उसने अपने बच्चे को इस कुसंगति से बचाने का निश्चय किया। अन्त में उसने एक बढ़िया उपाय सोच निकाला। एक दिन उसने उस लड़के के हाथ में कुछ बढ़िया से दिये और कहा उन्हें एक स्थान में कुछ दिनों तक रख दो ।
उसी दिन पिता ने उन सेबों के बीच एक सड़ा सेब भी रख दिया। दो दिन बाद लड़के से कहा कि सेब उठा लाओ। उसे यह देख कर बड़ा आश्चर्य हुआ कि सारे सेब सड़ गये थे। उसने अपने पिता से इसके बारे में पूछा। पिता ने समझाया कि सड़े सेब ने अच्छे सेबों को बिगाड़ दिया। तब उसने बताया कि उस बुरे लड़के की संगति छोड़ दो, नहीं तो तुम भी बिगड़ जाओगे। तब से अहमद ने उस बुरे लड़के की संगति छोड़ दी।
तो, सोहन, तुमने देखा न कि कैसे एक सड़े सेब ने दूसरे अच्छे सेबों को खराब कर दिया। कुसंगति का कितना बुरा फल निकला। इसलिए खूब सावधान रहो और बुरे साथियों का साथ छोड़ दो, नहीं तो जाओगे । तुम भी बिगड़
जीवन में अभी बहुत से उतार-चढ़ाव तुम्हें देखने हैं। तुम्हारे तथाकथित मित्र तुम्हारे वास्तविक शत्रु हैं। इस संसार में एक भी नि:स्वार्थ मित्र मिलना कठिन है। तुम्हारे पास खूब पैसा और सुविधाएँ हों, तो उन्हें पाने के लिए तुम्हारे पास कई मित्र जुट जायेंगे। जब तुम मुसीबत में होगे, तब उनमें से एक भी तुम्हारी चिन्ता नहीं करेगा। संसार में धन का लोभ, ढोंग, छल, खुशामद, असत्य, धोखा और स्वार्थ भरा है। तुम्हे बहुत सँभल कर रहना होगा। साथी व्यर्थ की बकवास करने आयेंगे और तुम्हारा समय नष्ट करेंगे। वे कहेंगे- "मित्र, क्या कर रहो हो ? जैसे भी हो सके, खूब पैसा कमाओ। खूब ऐश करो। खाओ, पिओ और मौज करो। चलो, सिनेमा देखें। आज अमरीका के हालीवुड की बढ़िया फिल्म चल रही है। उसमें बढ़िया नाच है। आगे की कौन जानता है? ईश्वर कहाँ है? स्वर्ग कहाँ है ? इस संसार से परे कुछ भी नहीं है।" वे सब सुख के मीत हैं। इन सांसारिक मित्रों से ऐसी ही बातें सुनने को मिलेंगी। जब मुसीबत में रहोगे, तो ये तुम्हें छोड़ जायेंगे। विवाह करोगे, तो हो सकता है कि तुम्हारी स्त्री और बच्चे भी कुछ समय बाद तुम्हें छोड़ जायें ।
सोहन : जी, यह बहुत अच्छा हुआ कि आपने ठीक समय पर मुझे सचेत कर दिया। “पहले से सचेत होने का मतलब है कि पहले से ही बुराइयों से युद्ध करने के लिए सन्नद्ध रहना।” मैं सदा अपना ध्यान रखूँगा । लेकिन क्या आप यह बताने की कृपा करेंगे कि इन बुराइयों से कैसे बचा जाये ?
शिक्षक : यह देख कर मुझे बड़ी खुशी हुई कि तुम जीवन के बारे में अधिकाधिक समझने के लिए इतने उत्सुक हो। जीवन फूलों की सेज के समान सुखदायक ही नहीं है। उसमें तुम्हें बहुत-कुछ चुनना पड़ता है और त्यागना पड़ता है। स्वार्थ, काम, क्रोध, लोभ, घृणा, असूया आदि दुर्गुणों को हटाना पड़ता है और दया, क्षमा, विश्व-प्रेम, सहिष्णुता, धैर्य, साहस, दृढ़ इच्छा-शक्ति आदि सद्गुणों का विकास करना पड़ता है।
सर्वोत्तम मार्ग बुरे साथियों की संगति का परित्याग कर देना है। ऊपर से वे चाहे जितने घनिष्ठ दिखें, पर उनसे बोलना मत। कुसंगति में रहने की अपेक्षा एकाकी रह जाना ही अच्छा है। एकमात्र उस 'अमर साथी' पर भरोसा रखो। तभी तुम पूर्ण रूप से सुरक्षित रह सकते हो। तुम्हें जो भी चाहिए, वह देगा। एकाग्रता से अपने अन्दर उसका मधुर उपदेश सुनो और उसके अनुसार चलो।
सोहन : वह 'अमर साथी' कौन है? मैं ठीक-ठीक नहीं समझ पाया।
शिक्षक : वह अमर साथी, तुम्हारा सच्चा साथी, जो हमेशा तुम्हारा साथ देने वाला और तुम्हारे हृदय में बसने वाला है, परमात्मा, सर्वव्यापक ईश्वर है ।
सोहन : आपने मेरे बहुत सारे सन्देह मिटा दिये और बड़े उपयोगी परामर्श दिये। मैं बहुत कृतज्ञ हूँ ।
शिक्षक : ईश्वर तुम्हारा भला करे!
शिक्षक : ओ, अजय ! क्या बात है, आज तुम सब देर से आ रहे हो ?
अजय: एक जादूगर सड़क पर कुछ जादू दिखा रहा था। हम सब उसे देखने के लिए रुक गये थे ।
शिक्षक : कोई बात नहीं। चलो, अब हम शुरू करें।
सोहन : जी, आज कहानी सुनाने की मेरी बारी है।
शिक्षक : ठीक है। तुमने ठीक से तैयारी कर ली है ? अच्छा देखें, तो तुम आज अपने साथियों का किस प्रकार मनोरंजन करते हो ?
सोहन : एक बार एक धनी किसान अपने दरवाजे के पास था; एक भिखारी उसके पास गया और कुछ खाना-पीना माँगा। किसान ने उसे डाँट कर भगा दिया।
कुछ दिनों के बाद वह किसान शिकार के लिए गया। रात हो गयी और वह रास्ता भूल गया। भटकते-भटकते एक झोपड़ी के पास आया। वहाँ उसने रात-भर ठहरने और भोजन पाने की इच्छा प्रकट की। झोपड़ी का मालिक बड़ा गरीब था, फिर भी उसने उसे कुछ खाना और सोने को बिस्तर दिया। सबेरा हुआ तो गरीब आदमी ने किसान को जगाया और उसे जंगल से बाहर जाने का मार्ग बतला दिया। दिन के उजाले में किसान ने उस आदमी को पहचान लिया। वह वही भिखारी था, जिसे एक दिन किसान ने डाँट कर लौटा दिया था। किसान की गरदन शर्म से झुक गयी। वह उससे क्षमा माँगने लगा। बोला- "बुराई का बदला भलाई से चुका कर तुमने मुझे एक सीख दी है। "
अजय : जी, उस किसान ने बड़ा अपराध किया था। उस भिखारी को कुछ-न-कुछ देने के बदले उसे डाँटा और यों ही खाली हाथ लौटा दिया। उसका अपमान किया, उसकी भावनाओं को चोट पहुँचायी। यह बड़ा अपराध था, इसमें कोई सन्देह नहीं है।
मोहन : यह मूर्खता की हद थी। उसके व्यवहार से पता चलता है कि उसे अपने धन और पद का कितना अभिमान था। बदला लेने के लिए जंगल में भिखारी ने भी यदि उसे डाँटा-फटकारा होता, तो उस धनी आदमी के गर्व और उच्चता की भावना को निश्चित ही चोट पहुँचती । वह इस अपमान को सह नहीं पाता और भिखारी से लड़ने लगता ।
सोहन : मित्रो, इसके विपरीत उस भिखारी की उदारता को तो देखो। उसे जो अपमान मिला, उसे भिखारी ने कितनी शान्ति और धैर्य के साथसहन कर लिया। उसने एक शब्द भी नहीं कहा और इस तरह चला गया मानो कुछ हुआ ही नहीं। उसने इस सिद्धान्त का ठीक-ठीक पालन: 'अपमान और चोट सह लेना सबसे बड़ी साधना है। वह कोई साधारण भिखारी नहीं था, वह तो काफी पहुँचा हुआ 'योगी' था। उसके व्यवहार ने यह सिद्ध कर दिया कि उसमें दिव्य गुण थे और उसका चरित्र बहुत सुशील था। किसान जब जंगल में मार्ग भूल गया था, तब उसने उसे खाना दिया, रहने को स्थान दिया। कुछ दिन पहले इसी किसान ने उसके साथ बुरा बरताव किया था, उसे वह एकदम भूल गया। उसे भी बदला लेने का अवसर मिला था, फिर भी उसने तनिक भी दुर्भाव नहीं प्रकट किया। वह बड़ा उदार था, दानशील था और सत्कारशील भी था।
विजय : मित्रो, तुम सब किसान के चरित्र को दोष दे रहे हो और भिखारी की उदारता की प्रशंसा कर रहे हो तो तुम लोगों के विचार से यह दुष्ट किसान अपने बुरे व्यवहार का दण्ड भुगतने के काबिल ही था। यदि भिखारी के स्थान पर मैं होता, तो किसान को बढ़िया पाठ सिखाता और उसकी अक्ल ठिकाने लगा देता।
मोहन : अच्छा, बताओ तुम क्या पाठ पढ़ाते ?
विजय: मैं उसे रात भर भूखा रखता और सबेरे मेरे कुत्ते उसे जंगल से बाहर खदेड़ देते। उसकी अक्ल ठिकाने लगाने का यही बढ़िया उपाय था।
मोहन : इतने दिनों बाद आदरणीय गुरु जी से जो सीखा, वह क्या यही है? कोई काम करने का क्या यही दिव्य मार्ग है? क्या यही वह 'स्वर्ण नियम' (बुराई का बदला भलाई से दो) है जो गुरु जी सदा सिखाते रहे हैं ? यदि बुरा आदमी बुराई नहीं छोड़ता, तो भला आदमी सदाचार को क्यों छोड़े? हमें बुरी बातों का अनुसरण नहीं करना है, बुरी बातें छोड़नी हैं। गुरु जी की यह बात क्या तुम भूल गये कि द्वेष का बदला प्रेम से चुकाओ ? यदि ऐसा नहीं कर सकते तो तटस्थ रहो, लेकिन द्वेष का बदला द्वेष से कभी न लो।'
शिक्षक : बहुत अच्छा, मोहन तुम्हारी दलीलें वास्तव में प्रशंसनीय हैं। बच्चों, क्या तुम देख नहीं रहे हो कि भिखारी की उदारता की धनी किसान पर कैसी प्रतिक्रिया हुई और किसान किस तरह लज्जित हुआ, किस तरह क्षमा माँगने लगा ? यही नहीं, उसने यह वचन दिया कि आगे से वह किसी भिखारी को खाना देने से इनकार नहीं करेगा। उदारतापूर्ण व्यवहार उस धनी आदमी के लिए अपने-आपमें दण्ड था । हमें द्वेष को प्रेम से जीतना चाहिए।
भिखारी ने अपने आतिथ्य सत्कार से, विपत्ति में किसान की सहायता करके उसकी बुराई का बदला भलाई से चुका कर उसका (किसान का) गर्व तोड़ दिया। घमण्डी आदमी को सुधारने का कितना अच्छा तरीका है। किसी को उसकी भूल महसूस कराने का यह सही मार्ग है। प्रतिशोध से तो द्वेष और शत्रुता की आग भड़कती है। लगता है, ऐसी परिस्थितियों में जो व्यवहार दूसरों के साथ किया जाना चाहिए, उसके बारे में तुम लोगों के मन में अभी भी कुछ शंका है। इस बारे में क्या कुछ और बतलाने की आवश्यकता है।
मोहन : जी हाँ, अवश्य बतलायें ।
शिक्षक : बहुत अच्छा। तो इन्हें लिख लो-
(१) सभी परिस्थितियों में अधिक-से-अधिक शक्ति, उत्साह और प्रेम के साथ अधिक-से-अधिक लोगों की अधिक-से-अधिक भलाई हर सम्भव तरीके से करो ।
(२) दया से तुम्हारा मन मृदुल बने। सद्गुणों से तुम्हारा मन प्रसन्न रहे। क्षमा से तुम्हारा मन परिशुद्ध हो ।
(३) अहिंसा का अभ्यास करो। किसी की भी हिंसा करोगे, तो अपनी ही हिंसा करोगे; क्योंकि जो ईश्वर तुम्हारे अन्दर है, वही सबके अन्दर है। सभी प्राणियों में एक ही आत्मा है, इसलिए सबसे वैसा ही प्यार करो जैसा अपने से करते हो।
ये उपदेश पर्याप्त हैं या और चाहिए ?
लड़के : ये अत्यन्त प्रेरणादायक हैं। कुछ और भी बतायें ?
शिक्षक : ठीक! कुछ प्रसिद्ध फूलों का नाम लो ।
मोहन : कुमुदिनी, गुलाब, रातरानी, कमल, चमेली।
शिक्षक : ठीक! अब लिखो-
(४) अपने हृदय-रूपी बगीचे में प्रेम-रूपी कुमुदिनी, पवित्रता-रूपी गुलाब, करुणा-रूपी रातरानी, साहस-रूपी कमल और नम्रता-रूपी चमेली को उगाओ।
(सब हँसते हैं।)
लड़के : यह सुझाव (हृदय के बगीचे में दिव्य गुण उगाना) बड़ा सुन्दर और आनन्ददायी है। इसे हम कभी नहीं भूल सकते।
शिक्षक : मुझे यह जान कर बड़ी प्रसन्नता हुई कि तुम लोग नैतिक और आध्यात्मिक उपदेशों में बहुत रुचि रखते हो।
(५) नम्रता और क्षमा सर्वोच्च सद्गुण हैं। ईश्वर तभी सहायता करता है, जब तुम पूरे विनम्र बनते हो। प्यारे
बच्चो ! याद रखो, नम्रता कायरता नहीं है। कई लोग नम्रता को कायरता समझते हैं। विनय दुर्बलता नहीं है। नम्रता और विनय दोनों निश्चय ही आध्यात्मिक गुण हैं।
(६) जो नम्रता का बीज बोता है, वह मित्रता का फल पाता है। जो दया का बीज बोता है, वह प्रेम का फल पाता
है।
(७) क्रोध सबसे बुरी आग है। वासना सर्वभक्षी आग है। दोनों ही मन को जला देते हैं। प्रेम और पवित्रता से इस
आग को बुझा
इतना काफी है। बताओ, किन-किन दोषों को किन-किन गुणों से जीता जा सकता है?
सोहन : घृणा या क्रोध को प्रेम से ।
विजय : बुराई को भलाई से।
अजय : लोभ को उदारता से ।
मोहन : भय को साहस से ।
सोहन : झूठ को सत्य से ।
विजय : घमण्ड को नम्रता से ।
अजय : कठोरता को कोमलता से ।
मोहन : सांसारिकता को दिव्यता से ।
शिक्षक : बहुत सुन्दर । तुम लोगों ने सही उत्तर दिया। एक बात और है, उसे कह कर समाप्त करता हूँ।
मोहन : गुरु जी, आपने थोड़े में सारी नीति-निधि का बड़े ही रोचक ढंग से स्पष्टीकरण कर दिया।
शिक्षक : ईश्वर तुम्हारा कल्याण करे! तुम सब इन गुणों का विकास करो और ईश्वरत्व प्राप्त करो!
बच्चों, क्या यह बता सकते हो कि तुम्हारा हृदय किस प्रकार का होना चाहिए ? जो-जो इसका उत्तर दे सकें, वे अपना हाथ ऊँचा करें।
मोहन: जी, संवेदनशील और स्नेहमय।
शिक्षक : खूब ! बिलकुल ठीक। तुम बहुत होशियार दिखायी देते हो देखो बच्चो, तुम्हें अपना हृदय दानशील या स्नेहमय बनाना चाहिए। दान क्या होता है, यह जानते हो?
सोहन : गरीबों और जरूरतमन्द लोगों को धन देना ।
शिक्षक: ठीक। लेकिन इतना ही नहीं दान का अर्थ है किसी प्रकार के प्रतिफल की आकांक्षा रखे बिना दूसरों के काम आना, अपने पास जो कुछ हो उसमें दूसरों को भी देना। दूसरे शब्दों में कर्म-रूप में प्रेम ही दान है। प्रत्येक सत्कार्य दान है। प्यासे जानवरों को पानी पिलाना दान है। दुःखी आदमी से मीठे बोल बोलना दान है। गरीब या बीमार आदमी को दवा देना दान है। तुम्हें किसी ने कोई हानि पहुँचाबी हो, तो उसे क्षमा करना और भूल जाना दान है।
सड़क पर पड़े हुए काँटे को, केले के छिलके को या काँच के टुकड़े को हटा देना दान है। ढेरों धन लुटाने की अपेक्षा एक छोटा सद्विचार, एक अल्प-सी दया कई गुना कीमती है। दूसरों की सेवा करना या दूसरों के लिए प्रार्थना करना दान है।
लेकिन इस विषय में एक बात का ध्यान रहे कि दान हमेशा चुपचाप होना चाहिए। दायाँ हाथ जो करे, वह बायें हाथ तक को मालूम न हो। देने में तुम्हें परम आनन्द का अनुभव होना चाहिए। जब भी गरीब आदमी दिखे, उसे कुछ-न-कुछ देना चाहिए दान का एक अवसर उसने दिया, इसलिए उसके प्रति कृतज्ञ रहो।
क्या यह बता सकते हो कि उस अमीर किसान को उस भिखारी ने किस प्रकार का दान दिया? इसका जवाब कागज पर लिख कर मुझे दे दो। (सब लिखते हैं और दो मिनट में शिक्षक को दे देते हैं।)
शिवानन्द और विश्व के बालक
शिक्षक : बहुत खूब। मोहन, विजय और सोहन ने सही उत्तर दिया है ।
(सब खुशी से ताली बजाते हैं ।)
मोहन:,तुम उत्तर पढ़ो।
मोहन : भिखारी ने इस प्रकार का दान किया कि किसान ने उसके प्रति जो दुर्व्यवहार किया था, उसे भिखारी ने क्षमा कर दिया और उसे भुला दिया ।
सोहन : यह हमारे लिए एक नयी बात है। हमें यह पता ही नहीं था कि दान कई प्रकार से किया जाता है।
शिक्षक : बच्चो, इस संसार में जानने योग्य बातें अभी बहुत है। तुम्हें अभी बहुत कुछ सीखना है। तो हम सब उठे। कल फिर मिलेंगे। तुम सबका भला हो!
लड़के— बहुत-बहुत धन्यवाद, गुरु जी ।
शिक्षक : मोहन, तुम्हें कहानी सुनना अच्छा लगता है?
मोहन : जी हाँ, यदि वह रोचक हो ।
शिक्षक : बच्चो, कहानी तो हमेशा रोचक ही हुआ करती है। लो सुनो, एक कहानी सुनाता हूँ।
जार्ज वाशिंगटन दश साल के थे। उनके पिता ने उन्हें उनके जन्म-दिन पर उपहार में एक बढ़िया कुल्हाड़ी दी। वह बहुत खुश हुए और अपने पिता के बगीचे में जा कर उस कुल्हाड़ी से खेलने लगे। जानते हो, कुल्हाड़ी से उन्होंने क्या किया ? एक सतालू के पौधे के चारों ओर की छाल काट डाली।
शाम को उनके पिता घूमने के लिए बगीचे की ओर गये। छाल कटी देख कर वे बहुत नाराज हुए। पूछने लगे— “किसने इसे काटा है? उसे मैं भारी सजा दूँगा।"
वाशिंगटन डर से काँप उठे। लेकिन वह बहादुर थे। उन्होंने कहा—“पिता जी, मैंने अपनी नयी कुल्हाड़ी से इसे काटा है।"
मोहन : पिता ने उन्हें खूब मारा होगा, गुरु जी ?
शिक्षक : धैर्यपूर्वक सुनते जाओ। पिता ने उन्हें अपनी गोद में उठा लिया और कहा—“"प्यारे बच्चे! तुम सच बोले, इसकी मुझे बड़ी खुशी हुई। इस बार मैं तुम्हें प्रसन्नतापूर्वक माफ करता हूँ।”
मोहन : क्षमा कर दिया उसे? मैं उसका पिता होता तो खूब थप्पड लगाता ।
शिक्षक : यह तुम्हारा गलत विचार है। पिता ने इसलिए माफ किया कि वह सच बोला । वाशिंगटन अपने सारे जीवन में एक बार भी झूठ नहीं बोले। सभी लोग उन पर विश्वास करते थे। वे आगे चल कर अपने देश के महान् व्यक्ति बने। जो मनुष्य अपनी गलती स्वीकार कर ले, उस पर पश्चात्ताप करके यह संकल्प करे कि आगे फिर वह कभी गलती नहीं करेगा, तो वह क्षमा के योग्य है और उसे क्षमा कर देना चाहिए। यह दिव्य मार्ग है। दया, सहानुभूति, प्रेम, करुणा, क्षमा, सत्य — ये दिव्य गुण हैं। यदि हम दिव्य मनुष्य बनना चाहें, तो हमें सहिष्णुता, धैर्य, दृढ़ इच्छा-शक्ति, विश्व- प्रेम आदि गुणों का विकास करना चाहिए। जान लो, तुम्हारे मित्र के हाथ से किसी तरह तुम्हारी घड़ी टूट जाती है या तुम्हारा कुछ नुकसान हो जाता है, तब तुम क्या करोगे ?
मोहन : उसे हरजाना देना चाहिए या दण्ड भोगना चाहिए।
शिक्षक : फिर से तुम गलती कर रहे हो। अगर वह तुम्हारे प्रति किये हुए अपने अपराध के लिए पश्चात्ताप करे... ?
मोहन : नहीं गुरु जी, बिना चूँ किये उसे हरजाना देना ही चाहिए अथवा उचित दण्ड भुगतने के लिए तैयार रहना चाहिए। मैं उसे किसी तरह भी छोड़ नहीं सकता ।
शिक्षक : मान लो, संयोग से तुम्हारे हाथों से उसकी घड़ी टूट जाती है। यह सच है कि तुमने जान-बूझ कर नहीं तोड़ी। क्या इस दशा में तुम दण्ड भुगतने या मूल्य चुकाने के लिए तैयार हो ?
मोहन : जी नहीं, क्योंकि मैंने जान-बूझ कर नहीं तोड़ी है।
शिक्षक : तब तुम अपने मित्र पर क्यों शर्तें लादना चाहते हो? अपने प्रति दूसरों से जैसा व्यवहार चाहते हो, तुम भी उनसे वैसा ही व्यवहार करो । यह स्वर्ण-नियम ध्यान में रखो - "किसी ने तुम्हारे साथ बुरा व्यवहार किया, तो बदले में भला व्यवहार करो।" बदला लेने की बात मत सोचो। क्षमा करो। उदार बनो। विशालहृदयी बनो। दानशील बनो। तुम्हें इन दैवी गुणों को विकसित करना चाहिए। तो अब समझे, ऐसी परिस्थिति में कैसा व्यवहार करना चाहिए ?
कोई तुम्हारी निन्दा करे, तो तुम क्या करोगे ? क्या तुम उसी तरह व्यवहार करोगे ?
मोहन : जी, बिलकुल नहीं। मैं उस पर ध्यान ही नहीं दूँगा और तटस्थ रहँगा; क्योंकि अभी-अभी आपने कहा कि बदला नहीं लेना चाहिए, भले रहना चाहिए और बदले में भला ही करना चाहिए।
शिक्षक: बहुत सुन्दर। यह है मूल्यवान् बात तुम दिव्य पुरुष बनना चाहते हो या आसुरी व्यक्ति ? राम बनना चाहते हो या रावण ?
मोहन : निश्चय ही मैं राम बनना चाहता हूँ।
शिक्षक: वाह! बच्चो! समझ लो कि प्रेम मिलता है प्रेम से और द्वेष से द्वेष ही मिलता है। तुम दूसरों से प्यार करोगे, तो वे भी तुम्हें प्यार करेंगे। ऊपर कहे हुए गुण विकसित करोगे, तो तुम एक आदर्श बालक बनोगे। ईश्वर तुम्हें प्यार करेंगे और तुम पूरी तरह से सफल होओगे।
तीन नियमों को जानते हो ?
मोहन : जी नहीं, वे कौन से हैं? कृपया बतायें। मैं उनके अनुसार चलने का प्रयत्न करूँगा ।
शिक्षक : बहुत अच्छा। तुम होशियार हो। लो सुनो :
(१) लौह-नियम क्या है ?
यह है असभ्य लोगों का नियम-
किसी ने कुछ भला किया
तो बदले में उसके साथ बुराई करो
(२) रजत-नियम क्या है ?
यह है व्यावहारिक लोगों का नियम-
किसी ने तुम्हारा बुरा किया
तो बदले में तुम भी उसके साथ बुराई करो।
( ३) स्वर्ण-नियम क्या है ?
यह है धार्मिक लोगों का नियम-
किसी ने तुम्हारा बुरा किया
तो बदले में तुम उसके साथ भलाई करो ।
तो प्यारे मोहन, मुझे बताओ तुम कौन-सा नियम अपनाना हो?
मोहन : स्वर्ण-नियम में पालन करना चाहता हूँ।
शिक्षक: बहुत सुन्दर! ईश्वर तुम्हारा कल्याण करे।।
मोहन : धन्यवाद, गुरु जी ।
शिक्षक: अच्छा गोपाल ! आज तुम अपनी नयी पोशाक में बड़े शानदार दिखायी दे रहे हो। आओ, यहाँ बैठो। आज तुम्हें एक नयी बात बताऊंगा । नीतिशास्त्र क्या है, जानते हो?
गोपाल : यह शब्द आज मैं पहली बार ही सुन रहा हूँ। यह तो मेरे लिए बिलकुल नया है, कृपया समझायें।
शिक्षक: मैं अभी समझाये देता हूँ। नीति शास्त्र सदाचार का शास्त्र है। सदाचार यह बतलाता है कि मनुष्य को परस्पर तथा दूसरे प्राणियों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए। इस शास्त्र में वे क्रमबद्ध सिद्धान्त दिये गये हैं, जिन पर मनुष्य को चलना चाहिए। नीति-शास्त्र न हो, तो मनुष्य इस संसार में अथवा अध्यात्म मार्ग में कुछ भी प्रगति नहीं कर सकता। नीति-शास्त्र नैतिकता है। जो व्यक्ति शुद्ध नैतिक जीवन बिताता है, वह सरवत शान्ति पाता है। नीति शास्त्र के अनुसार व्यवहार करने से तुम अपने पड़ोसियों, परिवार के लोगों, साथियों और सभी लोगों के साथ मेल-मिलाप से रह सकोगे।
कृष्ण : सदाचार क्या है गुरु जी ? क्या आप बताने की कृपा करेंगे? मैं ठीक-ठीक नहीं जानता हूँ।
शिक्षक: बहुत अच्छा प्रश्न पूछा है। मैं जरूर बताऊँगा। ऐसा काम कभी नहीं करना चाहिए, जिससे दूसरों का भला न होता हो, या जिसके लिए बाद में पछताना या लज्जित होना पड़े। इनके बजाय ऐसे काम करने चाहिए, जिनके लिए आगे चल कर सब लोग तुम्हारी प्रशंसा करें। प्रशंसनीय और अपना तथा दूसरों का भला करने वाले काम ही हमेशा करने चाहिए। यह सदाचार का संक्षिप्त विवरण है।
गोपाल : व्यवहार, चरित्र और सदाचार—ये शब्द प्रायः सुनने में आते रहते हैं। इनसे भ्रम हो जाता है। क्या इनका एक ही अर्थ है ?
शिक्षक : ओह, तुमने तो प्रश्न पर प्रश्नों की झड़ी लगा दी!
गोपाल : गुरु जी, आप तो ज्ञान की खान हैं।
शिक्षक : तो उसे पूरा खाली करके ही छोड़ने का इरादा है शायद! (सब खिलखिला कर हँस पड़ते हैं।)
खैर, तुम लोगों की शंका का समाधान करना ही होगा।
हम व्यक्तिगत रूप से एक-दूसरे के साथ नित्य-प्रति के जीवन में जो बर्ताव करते हैं, उसे व्यवहार कहते हैं।
मनुष्य में जितने सद्गुण हैं, उन सबको मिला कर चरित्र कहते हैं। चरित्र से ही मनुष्य शक्तिशाली और तेजस्वी होता है। लोग कहते हैं कि 'ज्ञान ही शक्ति है'; पर मैं पूरे जोर के साथ कहता हूँ कि 'चरित्र ही शक्ति है'। चरित्र के बिना ज्ञानार्जन करना असम्भव है । चरित्रहीन व्यक्ति इस संसार में मृतप्राय है। समाज उसे तिरस्कार और उपेक्षा की दृष्टि से देखता है। यदि तुम अपने जीवन में सफल होना चाहते हो, दूसरों को प्रभावित करना चाहते हो, सांसारिक और आध्यात्मिक मार्गों में प्रगति करना चाहते हो, तो तुम्हारा चरित्र निष्कलंक होना चाहिए। शंकराचार्य, बुद्ध, ईसा और प्राचीन ऋषियों को आज भी याद किया जाता है; क्योंकि उनका चरित्र दिव्य और अद्भुत था। वे लोग अपने चरित्र-बल से ही दूसरों को प्रभावित और उनके हृदय को परिवर्तित कर सके । चरित्र जीवन का स्तम्भ है। मनुष्य का चरित्र उसके व्यवहार का परिचय देता है अथवा यो भी कहा जा सकता है कि मनुष्य के नित्य जीवन का व्यवहार उसके चरित्र को प्रकट करता है।
आचार- शास्त्र में जिस सद्-व्यवहार का वर्णन है, नैतिक जीवन और 'कर्तव्य पालन की चर्चा है, वही सदाचार कहलाता है।
सत्य बोलना, अहिंसा का आचरण करना, दूसरों को मन, वाणी अथवा कर्म से कष्ट न देना, किसी के प्रति क्रोध न प्रकट करना, दूसरों की निन्दा अथवा बुराई न करना और सबमें ईश्वर का दर्शन करना सदाचार है।
राम : तो चरित्र ही महान् आत्म-शक्ति है।
शिक्षक : हाँ, वह सुन्दर फूल के समान है, जो चारों ओर अपनी सुगन्ध फैलाता है। सद्गुणों तथा अच्छे चरित्र वाले व्यक्तियों का व्यक्तित्व अद्भुत होता है। कोई कलाकार हो सकता है, कुशल संगीतकार हो सकता है, योग्य कवि या महान् वैज्ञानिक हो सकता है; लेकिन यदि उसका चरित्र शुद्ध नहीं है, तो समाज में उसको समुचित स्थान नहीं मिलेगा। लोग उसको दुतकारेंगे । चरित्रवान् व्यक्ति को दयालु, कृपालु, सत्यनिष्ठ, क्षमाशील और सहिष्णु होना चाहिए। उसमें ये सभी गुण होने चाहिए ।
जो व्यक्ति जान-बूझ कर असत्य बोलता है, दूसरों की भावना को चोट पहुँचाता है, उसे दुश्चरित्र कहते हैं। हर एक को इस बात का प्रयत्न करना चाहिए कि उसका चरित्र शुद्ध और निष्कलंक हो।
गोपाल : शुद्ध और निष्कलंक चरित्र वाले व्यक्ति के लक्षण क्या हैं?
शिक्षक : बड़े कठिन प्रश्न पूछ रहे हो। चरित्रवान् व्यक्ति में जो गुण होने चाहिए, वे असंख्य हैं। उन सबको सुनते-सुनते तुम थक जाओगे। फिर भी कुछ खास-खास गुण बताता हूँ—जैसे नम्रता; मन, वाणी और कर्म से अहिंसा-पालन, आत्म-निग्रह, निर्भयता, दानशीलता, दृढ इच्छा-शक्ति, शालीनता, अक्रोध, निरहंकार, शुचिता, प्राणी मात्र के प्रति करुणा ।
राम! क्या तुम बता सकते हो कि किसी की हत्या या हिंसा क्यों नहीं करनी चाहिए? पड़ोसी से क्यों प्रेम करना चाहिए?
राम : थोड़ा समय दीजिए, सोच कर बताता हूँ। (थोड़ी देर तक सोचने के बाद कहता है।)
क्योंकि ईश्वर एक है और सभी प्राणी उसके ही रूप हैं, उसकी ही सृष्टि हैं। सबमें एक ही आत्मा है। अतः दूसरे को पीड़ा देना अपने को पीड़ा देने जैसा है।
शिक्षक : खूब ! बिलकुल ठीक। तुम समझदार हो ।
गोपाल : गुरु जी । कहानी के लिए बहुत थोड़ा समय रह गया है, मैं एक सुना दूँ।
शिक्षक: अच्छी बात है। समय पर तुमने कहानी की याद दिला दी। ठीक है, सुनाओ।
गोपाल : एक बार एक मालिक अपने गुलाम के साथ बहुत बुरा बर्ताव करने लगा। गुलाम का नाम था ऐन्ड्रोकिल्स । मामूली अपराध के लिए भी चाबुक से उसकी पिटाई करता। उसे आधा पेट भूखा रखता। इन कष्टों से गुलाम बहुत तंग आ गया और एक दिन जंगल की ओर भाग गया।
वहाँ पौधों की झुरमुट में उसने किसी की कराह सुनी। वह उस ओर गया और वहाँ एक शेर को कराहते हुए देखा। शेर अपना एक पंजा उठा कर दिखा रहा था। उस पंजे में एक मोटा कांटा चुभा था। वह गुलाम उसके पास गया और काँटा निकाल दिया, फिर कपड़े के एक टुकड़े से पट्टी बाँध दी। शेर को आराम मिला। वह ऐन्ड्रोकिल्स के पैरों पर लोट गया। फिर पूँछ हिलाते हुए कुत्ते की तरह उसका हाथ चाटने लगा। वे दोनों मित्र बन गये। और एक ही गुफा में रहने लगे।
कुछ महीनों के बाद मालिक ने उस गुलाम को पकड़ लिया और उसे राजा के पास ले गया। राजा ने आदेश दिया कि गुलाम को भूखे शेर के सामने फेंक दिया जाये। इसके लिए एक दिन निश्चित किया गया। शेर और गुलाम ऐन्ड्रीकिल्स की लड़ाई देखने के लिए हजारों लोग इकट्ठा हुए। बेचारे गुलाम को एक पिंजरे में बन्द कर दिया गया और उसी में शेर को छोड़ दिया | जोर से गर्जा और उसकी ओर लपका। लेकिन गुलाम के समीप जाते ही उसने अपने पुराने दोस्त को पहचान लिया। शेर फौरन उसके पैरों पर गिर पड़ा और पूँछ हिलाते हुए उसका हाथ चाटने लगा। यह आश्चर्य देख कर राजा और प्रजा — सब चकित रह गये ।
राजा ने गुलाम को पास बुलाया। गुलाम ने शेर के साथ अपनी मित्रता की सारी कहानी कह सुनायी। सुन कर राजा बहुत खुश हुआ गुलाम तथा शेर—दोनों को आजाद कर दिया। और
शिक्षक : बड़ी रोचक और शिक्षाप्रद कहानी है। बच्चो, देखो। 'दया का अपना पुरस्कार होता है।' दयालु लड़की की कहानी जानते हो ?
लड़के : जी नहीं। आपने उसे सुनने की हमारी उत्सुकता जगा दी। वह कहानी भी गुलाम की कहानी जैसी ही दिलचस्प होगी।
शिक्षक : एक रेलगाड़ी एक जंगल से हो कर जा रही थी। शाम हो चली थी, रेलवे लाइन के दोनों ओर हरे-भरे खेत थे। खेतों में कई स्त्री, पुरुष, बालक काम कर रहे थे। एक लड़की नदी के पुल के पास जानवर चरा रही थी।
उस दिन खूब वर्षा हुई थी। नदी में पानी चढ़ा हुआ था। उससे किनारे कट गये थे। नदी का पुल पुराना था और एक तरफ से टूट गया था। नदी का रेतीला किनारा बह गया था लड़की यह जानती थी रेलगाड़ी आने का समय था। गाड़ी को पुल पार करना था। लड़की ने सोचा कि कुछ हो गया, तो कई लोगों के प्राण जायेंगे। वह इंजन को कैसे रोके? उसके मन में तुरन्त एक विचार आया। गाड़ी तेजी से आ रही थी एक सेकेण्ड भी रुका नहीं जा सकता था। जहाँ पुल टूटा था, वहाँ दौड़ कर गयी। अपनी साड़ी को हाथ में ले कर अपने शिर के ऊपर हिलाने लगी।
चालक ने लाल झण्डी देखी। इतने में गाड़ी आधा पुल पार कर गयी। चालक ने बड़ी मुश्किल से गाड़ी रोकी। उसने खतरे वाली जगह देखी। गार्ड भी वहाँ आ गया । सब समझ गये कि कितना भयंकर खतरा था। सैकड़ों लोगों के प्राण बच गये।
कृष्ण वाह! बड़ी बीर लड़की थी उसने बड़ा अच्छा काम किया। गोपाल : लड़की वास्तव में बड़ी बहादुर थी। उसमें हिम्मत और विश्व प्रेम भरा था।
शिक्षक : देखो बच्चो ! दया और सौजन्य का छोटा-सा भी काम हमारे हृदय को शुद्ध करता है और भागवती चेतना को अधिकाधिक जाग्रत करता है।
राम : मेरे दिमाग में उस मालिक और गुलाम ऐन्ड्रोफिल्स की कहानी घूम रही है। वह मालिक इतनी निर्दयता से क्यों व्यवहार करता था? उसे नौकरी से छुड़ा देता तो क्या काफी न था?
शिक्षक : बच्चो ! एक जमाना था, जब मनुष्य भी पशुओं की तरह खरीदे और बेचे जाते थे। अमीर लोग उन्हें नौकर की तरह नहीं, गुलाम की तरह रखते थे। वे यदि मालिक की इच्छा के विरुद्ध कुछ भी करते थे, तो उनके साथ बड़ा बुरा व्यवहार किया जाता था। उनके मामूली अपराध से ही मालिक का क्रोध भड़क जाता था। उन्हें जीवन-भर गुलामी करनी पड़ती। थी। अमीर लोग उन्हें खरीदते थे और उन्हें निजी सम्पत्ति मानते थे। इसलिए वे यदि भाग जाते थे, तो उन्हें खोज कर पकड़ा जाता था और कठोर दण्ड दिया जाता था।
गोपाल : यह बड़ी लज्जा की बात है कि बेचारे गुलामों के साथ ऐसा दुर्व्यवहार किया जाता था। ऐन्ड्रोकिल्स शेर के पास जाने का साहस कैसे कर सका गुरु जी ?
शिक्षक : शेर पीड़ा से कराह रहा था और अपना पंजा उठा कर दिखा रहा था। ऐन्ड्रोकिल्स ने पंजे में चुभे हुए काँटे को स्पष्ट देख लिया। शेर बहुत सीधा-सादा दीख पड़ता था। उसे देख कर गुलाम का हृदय पसीज गया । इसलिए गुलाम साहसपूर्वक शेर के पास गया और उसने उसका पंजा अपने हाथ में ले कर काँटा निकाल दिया। शेर को आराम मिला और कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए उसने पूँछ हिलाना शुरू कर दिया ।
कृष्ण : इतना भयानक शेर भी कैसे यूँ इतना सीधा बन गया गुरु जी ?
शिक्षक : पशु भी बड़े भावुक होते हैं। उनके साथ जैसा व्यवहार किया जाता है, वे भी वैसा ही व्यवहार करते हैं। तभी तो हाथी, बाघ, कुत्ते आदि कई हिंसक पशु भी पालतू बना लिये जाते हैं और उनको काम भी सिखाया जाता है।
अल्पाइन के रेड क्रास कुत्तों के बारे में तुमने सुना है ?
कृष्ण : जी नहीं। उनके तथा उनके काम के बारे में जानने का कुतूहल पैदा हो गया है गुरु जी।
शिक्षक : सचमुच ही वह बात जानने योग्य है।
स्विट्ज़रलैण्ड के आल्पस पर्वत में जो लोग बर्फ में खो जाते हैं, उनकी तलाश करने तथा उनकी रक्षा करने की शिक्षा वहाँ के सेंट बनार्ड कुत्तों को दी जाती है। रेडक्रास कुत्ते लड़ाइयों में ऐम्बुलेन्स की टोली की मदद करते हैं। प्रत्येक रेड-क्रास कुत्ते के गले में एक छोटी थैली बँधी होती है, जिसमें मरहम-पट्टी करने का सामान होता है और ब्राण्डी की छोटी बोतल भी रहती है। कुत्ते को जब कोई ऐसा घायल व्यक्ति दिखायी देता है, जो स्वयं अपना थोड़ा-बहुत उपचार कर सकता हो, तो कुत्ता उसके पास जा कर तब तक खड़ा रहता है जब तक कि वह अपने घाव पर पट्टी बाँध नहीं लेता। यदि वह व्यक्ति इतना घायल होता है कि स्वयं कुछ भी नहीं कर पाता, तो कुत्ता उसके पास खड़ा हो कर भौंकने लगता है। उसका भौंकना सुन कर स्ट्रेचर से ढोने वाले लोग आ जाते हैं और उस व्यक्ति को उठा कर युद्ध के मैदान से बाहर प्राथमिक उपचार गृह में ले जाते हैं।
कृष्ण : यह तो बहुत आश्चर्य की बात है कि कुत्ते भी ऐसा मानवीय कार्य करते हैं।
गोपाल : गुरु जी, आज के दिन काफी समय तक बड़ी दिलचस्प बातें होती रही हैं। हमें खेद है कि हमने आपको बहुत समय तक रोक लिया और प्रश्नों की झड़ी लगा कर आपको परेशान कर दिया।
शिक्षक : कोई बात नहीं। ऐसे जिज्ञासा-भरे प्रश्नों का उत्तर देने में मुझे बड़ी खुशी होती है। तुम लोगों की तरह के जिज्ञासु विद्यार्थियों को पा कर मैं बहुत प्रसन्न हूँ। ईश्वर तुम्हारा कल्याण करे !
लड़के: बहुत-बहुत धन्यवाद गुरु जी।
जीवन के सभी क्षेत्रों में सफलता की कुंजी
(कक्षा में राम और कृष्ण —दोनों आपस में बातचीत कर रहे हैं।)
राम: नमस्ते कृष्ण । परीक्षा के दिन बहुत निकट आ चुके हैं। मैंने तो अपनी तैयारी पूरी कर ली है। तुम्हारी तैयारी कहाँ तक हुई है ?
कृष्ण : अभी तक मैंने कोई तैयारी नहीं की है। मैं तो खेल-कूद में हो मस्त रहा।
राम: बिना तैयारी किये परीक्षा में पास कैसे होओगे ? बताओ तो ।
कृष्ण : मैं इस वर्ष परीक्षा में न बैठने की सोच रहा हूँ।
राम : मित्र, ऐसी बात सुन कर मुझे खेद हो रहा है। (शिक्षक आते हैं।)
शिक्षक : क्या बात है कृष्ण, आज तुम बहुत उदास दिखायी पड़ रहे हो ?
राम : गुरु जी, इस बार परीक्षा में न बैठने का इसका विचार है। कहता है, पढ़ाई में बहुत अनियमित रहा है। खेल-कूद में मस्त रहा, इसलिए अब तक कोई तैयारी नहीं कर पाया है।
शिक्षक : यह बात है ? अभी भी समय है। परीक्षा के लिए दो महीने बाकी हैं। आज ही से प्रयत्न शुरू कर दो, तो सारी कमी पूरी कर सकते हो। काम चाहे थोड़ा करो, पर नियमित रूप से करो, तो परीक्षा में पास हो सकते हो। कर्तव्य कठोर होता है, पर उसका फल मधुर होता है। मन बहलाव और खेल के लिए अपने कर्तव्य को नहीं भूलना चाहिए ।
चिन्ता न करो। प्रफुल्ल रहो। हिम्मत रखो। काम में लग जाओ। परीक्षा में न बैठने का विचार छोड़ दो और कठिन परिश्रम करने के लिए अपनी कमर कस लो। जो मनुष्य नियमित और समयनिष्ठ रहता है, वह जीवन के सभी क्षेत्रों में निश्चय ही सफलता प्राप्त करता है। क्या तुमने डायमोन और पाइथियस की कहानी सुनी है ?
लड़के : जी नहीं ।
शिक्षक : ओह! वह बड़ा अद्भुत प्रसंग है; नियमितता से क्या-क्या लाभ हैं, इस बात का बड़ा स्पष्ट चित्र उससे मिलता है।
सिरेकूज़ (इटली) में दो गहरे मित्र रहते थे— डायमोन और पाइथियस । पाइथियस के किसी अपराध पर वहाँ के राजा ने उसे फाँसी की सजा दे दी। उसने राजा से कुछ समय माँगा, ताकि वह घर जा कर अपनी पत्नी और बच्चों से मिल आये। उसने वचन दिया कि फाँसी के दिन वह अवश्य ही हाजिर हो जायेगा। उसके मित्र ने जमानत के रूप में अपने को प्रस्तुत किया। सजा का दिन आ गया, लेकिन पाइथियस दिखायी नहीं दिया । तब डायमोन फाँसी पर चढ़ने को तैयार हो गया। उसे फाँसी के तख्ते पर ले जाया गया। बहुत से लोग इकट्ठे हो गये। सबकी आँखों में आँसू थे; क्योंकि डायमोन बिलकुल निरपराध और एक सच्चा मित्र था। चारों ओर उदासी छा गयी थी
इतने में घोड़ों की टाप सुनायी दी और उसके साथ ही किसी की आवाज भी सुनायी दी कि 'ठहरो, फाँसी को रोको।' डायमोन को फाँसी के तख्ते से उतारने का आदेश दिया गया। लोग बहुत खुश हुए। लेकिन डायमोन का कोई परिवार नहीं था, इसलिए अपने मित्र के स्थान पर वह स्वयं ही फाँसी पर चढ़ने पर जोर दे रहा था। पाइथियस इस बात के लिए राजी नहीं हुआ। राजा को उन दोनों की मित्रता देख कर बड़ी खुशी हुई और उसने मृत्युदण्ड वापस ले लिया। तब से वह उन दोनों का मित्र बन गया।
तो बच्चो, पाइथियस यदि पल-भर भी देर से आता तो डायमोन मर गया होता। जीवन में सफलता देने वाला एकमात्र गुण है—समयनिष्ठता ।
कृष्ण : गुरु जी ! आपकी बात ने मुझे पहले से अधिक समझदार बना दिया है। आपने गलत रास्ते पर जाने से मुझे बचा लिया। मैं वचन देता हूँ। कि मैं आपकी आज्ञा का पालन करूँगा और आगे से कड़ा परिश्रम करूंगा। आपके उपदेश के लिए मैं बहुत आभारी हूँ।
शिक्षक : ईश्वर तुम्हारा भला करे, बच्चे । जो मनुष्य नियमित नहीं है, पक्का निश्चय करके काम नहीं करता, वह अपने प्रयत्नों का फल कभी नहीं पा सकता। नियमितता, अनुशासनबद्धता और समयनिष्ठता— साथ-साथ रहते हैं। भारत के स्कूल-कालेज के विद्यार्थी फैशन में, रहन-सहन में और बाल कटाने में पाश्चात्य देशों के लोगों का अनुकरण करते हैं। यह व्यर्थ है। हमें उनकी नियमितता और समयनिष्ठता जैसे सद्गुणों का अनुकरण करना चाहिए। अँगरेज कितने अनुशासित होते हैं। और वे प्रत्येक क्षण का कितना सदुपयोग करते हैं, इस पर ध्यान दो। वे भारतीयों की अपेक्षा अधिक अध्ययनशील, नियमित और समयनिष्ठ हैं। विशेषज्ञों और शोध - छात्रों की संख्या भारत की अपेक्षा विदेशों में अधिक है।
प्रकृति से सीखो। कितनी नियमितता के साथ ऋतुएँ आती हैं; ठीक समय पर सूर्य उदय और अस्त होता है, वर्षा होती है, फूल खिलते हैं, फल और तरकारियाँ पैदा होती हैं, पृथ्वी तथा चन्द्रमा घूमते हैं और दिन रात, सप्ताह, माह, वर्ष आते रहते हैं । प्रकृति हमारी गुरु है ।
जीवन के सभी क्षेत्रों में नियमित रहो। नियम से जल्दी सोओ और उठो। 'जल्दी सोना और जल्दी उठना स्वास्थ्य, समृद्धि और बुद्धि बढ़ाता है।' खाने में, पढ़ाई में, व्यायाम में, पूजा-ध्यान में सदा नियमित रहो। इस तरह तुम जीवन में सफल रहोगे और सुखी भी। नियमितता और समयनिष्ठता तुम्हारा लक्ष्य होना चाहिए।
(कक्षा-नायक (मानीटर) मोहन कक्षा में हो रहे शोरगुल की शिकायत करने आफिस में पहुँचता है। घण्टी बजती है। शिक्षक कक्षा में प्रवेश करते हैं।)
शिक्षक : क्यों बच्चो, कक्षा-नायक ने शिकायत की है कि तुम सबने निडर हो कर कक्षा में हल्ला मचाया है, कक्षा का अनुशासन भंग किया है। और अशिष्ट व्यवहार किया है। यह बहुत बुरी बात है। तुम जैसे प्रगतिशील विद्यार्थियों से इस प्रकार के व्यवहार की आशा नहीं थी।
खैर, अब हम अपना नित्य का क्रम चलायें और आवश्यकता हुई, तो आज की घटना के बारे में बाद में सोचेंगे। आज मैं तुम लोगों को एक ऐसी कहानी सुनाने जा रहा हूँ, जिससे तुम लोग सीख सकोगे कि कैसा व्यवहार करना चाहिए और किन-किन अच्छी आदतों का विकास चाहिए। करना
एक सज्जन ने विज्ञापन दिया कि उनके ऑफिस में क्लर्क का काम करने के लिए एक युवक की आवश्यकता है। उस स्थान के लिए लगभग पचास व्यक्तियों ने आवेदन-पत्र भेजे। कई के लिए तो सिफारिशें भी थीं। उन सज्जन ने एक ऐसे व्यक्ति को चुना, जिसके पास कोई भी सिफारिश नहीं थी और बाकी सबको लौटा दिया। उनके पास उनका एक मित्र बैठा था । उसने पूछा – “यह बताओ कि तुमने उस लड़के को क्यों चुना? उसके पास तो कोई सिफारिश या प्रशंसा पत्र भी नहीं था।"
सज्जन ने कहा- "तुम गलत समझ रहे हो, उसके लिए ढेर सारी सिफारिशें थीं। जब वह कमरे में आया, तो अपने पैर पोंछ कर आया और अन्दर आते ही उसने दरवाजा बन्द कर दिया। इससे पता चलता है कि वह व्यवस्थित और अनुशासित है।
"उसने वह पुस्तक उठा कर मेज पर रख दी, जिसे मैंने जान-बूझ कर फर्श पर रख दिया था। दूसरे लोग उस पुस्तक को लाँघते हुए चले आये । उसने उस बूढ़े लँगड़े को अपना आसन दे दिया। इससे पता चलता है कि वह सभ्य और सज्जन है। उसके कपड़े साफ थे और बाल भी ठीक सँवारे हुए थे। वह देखने में भी साफ और प्रतिष्ठित लग रहा था। वह अपनी बारी आने तक प्रतीक्षा करता रहा, जब कि दूसरे लोग एक-दूसरे को धक्का दे रहे। थे। इससे यह पता चलता है कि वह सभ्य आचरण वाला व्यक्ति है। क्या ये सब सिफारिशें नहीं हैं, इसीलिए मैंने उसे नौकरी पर रख लिया। मेरा विचार है कि मेरा चुनाव ठीक है।"
मोहन, कक्षा में हंगामा होते हुए तुमने देखा है। क्या यह बता सकते हो कि कौन-कौन इसके लिए जिम्मेदार है ?
मोहन : जी हाँ, सोहन आगे की सीट पर बैठने के लिए अपने साथी से लड़ पड़ा और दोनों एक-दूसरे के साथ उलझ गये। कुछ पुस्तकें नीचे फर्श पर फेंक दी गयीं। कुछ लड़के उन पर पैर रखते हुए निकल गये । विजय और सोहन — दोनों एक-दूसरे को धक्का दे रहे थे और बिना कारण शोर मचा रहे थे।
शिक्षक : तो इन दोनों का स्वभाव उस व्यक्ति से बिलकुल विपरीत था, जिसकी चर्चा मेरी कहानी में आयी है। बच्चो, तुम लोगों के व्यवहार के बारे में यह सब सुन कर मुझे बड़ा दुःख होता है।
तुम्हारा चेहरा तुम्हारे आन्तरिक भावों का विज्ञापन-पट्ट है। मेरी कहानी में जिस सफल व्यक्ति का उल्लेख है, उसके चरित्र के साथ अपने चरित्र की तुलना करके देखो। अन्दर झाँको अपने दोष और कमजोरियाँ पहचानो। देखो, तुम कहाँ हो और फिर अपने को सुधारने का प्रयत्न करो।
सोचो, पचास लोगों में से जिनके साथ भारी सिफारिशें थीं, वही एक व्यक्ति चुना गया, जिसके पास कोई भी सिफारिश नहीं थी, ऐसा क्यों?
गोपाल : इसलिए कि वह साफ था और उसका व्यवहार शिष्टतापूर्ण था। वह साफ-सुथरा, व्यवस्थित और सज्जन था ।
शिक्षक : उसके पास वे सारे सद्गुण थे, जिन्होंने उसके लिए सिफारिश का काम किया। इन्हीं गुणों के बल पर उसने बाकी सबको पछाड़ दिया और नौकरी पा ली। तो बताओ, तुम लोगों की योग्यता कैसी है? जिस प्रकार का व्यवहार आज कक्षा में तुमने किया है, उसके लिए मुझसे किस पुरस्कार की अपेक्षा करते हो?
लड़के : गुरु जी, हम अपने व्यवहार के कारण लज्जित हैं। बहुत हो गया, हमें अब और लज्जित न कीजिए। हम आश्वासन देते हैं कि भविष्य में आपको शिकायत का कोई मौका नहीं देंगे।
शिक्षक : मैं तुम लोगों पर विश्वास करता हूँ; क्योंकि सच्चाई और ईमानदारी से बढ़ कर और कोई गुण नहीं है। सच्चा पश्चात्ताप बहुत काफी होता है। सच्चा ईमानदार व्यक्ति कोमल हृदय वाला होता है, स्पष्टवादी और ईमानदार होता है। ढोंग और पाखण्ड से वह बहुत दूर रहता है। उसकी बात पर लोग पूरा भरोसा रखते हैं और उसको अपनी सेवा में लेने के लिए काफी उत्सुक रहते हैं।
लेकिन इसे चेतावनी समझो। मैं सावधान कर रहा हूँ। यह वैज्ञानिक अनुसन्धानों का युग है, फैशन और गलत मान्यताओं का जमाना है। लोग अपनी सनक के अनुसार काम करते हैं। हर प्रकार की बुरी आदतें हममें घर कर गयी हैं। यहाँ तक कि तथाकथित सभ्य समाज भी उससे अछूते नहीं रह पाये है। उदाहरण के लिए जब दो मित्र मिलते हैं, तो 'जय श्रीकृष्ण, ॐ यो नारायणाय आदि भगवान् के स्मरण के साथ एक-दूसरे का अभिवादन नहीं करते; बल्कि वे सिगरेट दे कर ऐसा करते हैं। वे कहते - यार चलो, सिगरेट का कश लगाया जाये, विस्की का एक पेग लिया 'आदि।
बच्चो! याद रखो, शराब पीने की लत बहुत बुरी लत है। एक बार को यह लत लग गयी, तो यह उसको पूरा पियक्कड़ बनाये बिना नहीं छोड़ती। शराब भयानक विष है, जो दिमाग और नाड़ियों को खराब कर देती है। धूम्रपान दूसरी बुरी लत है, जो संसार-भर में फैली हुई है। जिनकी धूम्रपान करने की आदत सी हो गयी है, वे इसके समर्थन में खूब दलीले देते हैं। वे कहते हैं-"धूम्रपान से शौच साफ होता है। इससे सवेरे-सवेरे मेरा पेट साफ हो जाता है।" सावधान ! बच्चो, धूम्रपान से सारा शरीर विषमय हो जाता है।
दूसरे भी कई व्यसन हैं जैसे पान खाना, कड़ी चाय और काफी पीना आदि ।
मोहन : चाय या काफी पीना बुरा नहीं है, गुरु जी। सभी लोग इन दिनों चाय पीते हैं।
शिक्षक : ठीक है। सीमित मात्रा में चाय या काफी पीने से कड़ी मेहनत करने वालों को आराम मिलता है। लेकिन बात यह है कि इससे इच्छा-शक्ति क्षीण हो जाती है और असंयम से बच पाना उसके लिए कठिन हो जाता है। तब कठिनाई पैदा होती है। वह इन पेय पदार्थों का दास बन जाता है। यदि वह इन्हें पीने की आदत पर काबू रख सके, चाहे जिस समय झझे छोड़ देने की शक्ति उसमें हो, तो कोई हर्ज नहीं।
प्रायः अधिकतर लोग अपनी बातचीत में, विशेषतः क्रोध की उत्तेजित दशा में, बहुत अश्लील शब्दों का प्रयोग करने के आदी हो गये हैं। जो सुरुचि सम्पन्न है, सभ्य और सुसंस्कृत है, वह ऐसे शब्द मुँह में ला नहीं सकता। इसलिए बच्चो, धूम्रपान करने वाले, शराबी तथा असभ्य व्यक्तियों की संगति से सदा बचे रहो। इस संसार में असम्भव कुछ भी नहीं है। 'जहाँ चाह है, वहाँ राह है।'
अच्छी बात है। अब हम चलें। ईश्वर तुम्हें बल दे, जिससे तुम अपने को इस प्रकार के सभी व्यसनों से बचा सको !
लड़के : बहुत-बहुत धन्यवाद गुरु जी ।
शिक्षक: मोहन, आने में इतना विलम्ब क्यों हुआ? क्या सैर-सपाटा करने निकल गये थे ?
लड़के: नहीं गुरु जी, आज मोहन को यहाँ स्कूल लाने में बड़ी कठिनाई हुई, उसे खूब समझाना पड़ा। इसलिए विलम्ब हुआ ।
शिक्षक : क्या हो गया था उसे ?
मोहन : हिन्दी भूषण परीक्षा में वह अनुत्तीर्ण हो गया है। इसके लिए यह ईश्वर को और अपने भाग्य को कोस रहा है। वह खाना-पीना छोड़ बैठा है, न सोता है न आराम करता है, दिन-रात रोता ही रहता है, पागल-सा हो गया है। इस कारण उसके माता-पिता बहुत घबराये हुए हैं।
शिक्षक : कहाँ है वह? मेरे पास लाओ। (दो लड़के उसे कक्षा में लाते हैं।) सोहन, मेरी ओर देखो, क्यों इतने परेशान हो रहो हो ? केवल इसलिए कि परीक्षा में अनुत्तीर्ण रह गये और जीवन-संग्राम में थोड़ा पिछड़ गये ?
सोहन: (आँसू पोछते हुए) जी, मुझे बड़ी-बड़ी आशाएँ थीं। मैंने मेहनत से पढ़ाई की। परीक्षा में उत्तीर्ण होने के लिए आधी-आधी रात तक पढ़ता रहा। लेकिन मेरे दुर्भाग्य से मेरी सारी आशाओं पर पानी फिर गया, मेरे सारे प्रयत्न मिट्टी में मिल गये। अपने भाग्य को कोसने के सिवाय मैं और क्या करूँ ?
शिक्षक: मूर्ख न बनो। घबराने की क्या बात है? जीवन की परीक्षाओं और कठिनाइयों के आ जाने पर इस प्रकार हतोत्साहित होना और शोक करना तुम जैसे धीर व्यक्ति को शोभा नहीं देता। ईश्वर महान् है। और उसकी बातें समझना बहुत सरल नहीं है। वह कृपानिधि है। परीक्षा के दिनों में जब तुम इतनी तैयारी कर रहे थे, क्या तुमने ईश्वर की प्रार्थना की थी? ईश्वर-कृपा की याचना की थी? हम अपने जीवन की नित्य की क्रियाओं में ईश्वर को भुला देते हैं। इसीलिए सारे दुःख-कष्ट आ घेरते हैं, ताकि हमारा अहंकार दूर हो। वास्तव में देखा जाये, तो ये सारे दुःख-कष्ट प्रच्छन्न रूप में वरदान ही हैं। ये हमें शुद्ध बनाने हेतु भगवत्प्रसाद हैं। हमें जो-जो विपत्तियाँ आ घेरती हैं, उनके पीछे कोई-न-कोई महान् प्रयोजन होता है। तुमने सुना होगा — “विपत्तियों की भट्ठी में तपे बिना जीवन खरा सोना नहीं बनता।”
सोहन : गुरु जी, हम कैसे समझें कि इन दुःखों तथा कष्टों के पीछे कोई-न-कोई अर्थ और प्रयोजन रहता है? क्या केवल इसी से मान लें कि आप कह रहे हैं?
शिक्षक : यह समझदारी का प्रश्न है। मान लो, किसी के शरीर में कहीं एक फोड़ा हो गया है। उसमें मवाद भर गया है। उसे भारी पीड़ा हो रही है। मवाद ही पीड़ा का असली कारण है। मवाद निकालने के लिए डाक्टर छुरे से फोड़े को चीरना चाहता है। वह व्यक्ति अज्ञानवश यह समझ सकता है कि डाक्टर मुझे मारने या घायल करने आया है। वस्तुतः डाक्टर तो उसका हितचिन्तक है। वह फोड़े को चीर कर उसे पीड़ा से मुक्ति दिलाना चाहता है।
इसी प्रकार हम भी अज्ञानवश अपने ऊपर आने वाली सभी विपत्तियों और विफलताओं के लिए ईश्वर को जिम्मेदार समझते हैं और मूर्खतावश उसे कोसने लगते हैं। सभी पापों का मूल अज्ञान है। इसलिए प्यारे, तुम्हें दिव्य औषध की घूंट की बहुत अधिक आवश्यकता है।
इस दिव्य औषध (ज्ञान) की तलाश करने के लिए ही गौतम बुद्ध ने अपने माता-पिता, अपनी प्रिय पत्नी और बच्चे तथा अपनी सारी राजसी सुख-सुविधाओं को तिलांजलि दे दी थी। इस औषध में पीड़ा समाप्त करने वाली महान् गुण-शक्ति है। सभी रोगों के लिए यह रामबाण है।
सोहन: गुरु जी यह चमत्कारी औषध कौन-सी है, जिसकी आप इतनी बड़ाई कर रहे हैं? समझाइए तो।
शिक्षक: यह है बहुत ही सरल और सबसे अधिक प्रभावशाली- 'ईश्वर पर भरोसा रखो, ठीक काम करते जाओ।' तुम्हारा मामला बिलकुल उस व्यापारी का सा है ।
सोहन: वह व्यापारी कौन था और उसकी समस्या क्या थी, गुरु जी ?
शिक्षक—एक व्यापारी बाजार से घर लौट रहा था। उसके पास बहुत सा धन था। मार्ग में एक जंगल से हो कर वह गुजरा। एकदम तेज वर्षा होने लगी। उसे भारी मुसीबत का सामना करना पड़ा; क्योंकि उसे सारी रात ठण्ढ और पानी में जंगल में बितानी पड़ी। वह बड़बड़ाने लगा और ईश्वर को दोष देने लगा। सबेरा हुआ तो एक डाकू की नजर उस व्यापारी पर पड़ी और उसने उसे गोली मार कर सारा धन छीन लेने का प्रयत्न किया। लेकिन, बारूद गीली हो गयी थी, इसलिए गोली नहीं चली। व्यापारी बच कर भाग गया। बच्चो, उस व्यापारी को मौत के मुँह से किसने बचाया ?
सोहन : भारी वर्षा के कारण उस डाकू की बारूद गीली हो गयी और आगे चल कर व्यापारी के लिए वरदान साबित हुई।
शिक्षक : बात तुम्हारी समझ में आ गयी। सफलता की अपेक्षा विफलता उत्तम सीख देती है। अब ईश्वर के प्रति पूरी-पूरी श्रद्धा रखा करो। पूरे मन से अपना कर्तव्य करो, बाकी सब (सफलता या असफलता) ईश्वर पर छोड़ दो। गीता में भगवान् कहते हैं- "कर्म करना ही कर्तव्य है। कर्म का फल तुम्हारा हेतु नहीं है। "
एक और प्रसंग के द्वारा इस बात को स्पष्ट कर दूँ।
एक बार अर्जुन और श्री कृष्ण—दोनों किसी धनी आदमी से मिलने गये। वह बड़ा घमण्डी और अहंकारी था। उसने उनके स्वागत की, उन्हें भोजन कराने या उनके साथ सद्व्यवहार करने की चिन्ता ही नहीं की। वह एकदम उदासीन बन गया।
श्री कृष्ण ने उसे आशीर्वाद दिया और कहा - " "तुम्हें पाँच करोड़ रुपये मिलें।” इसके बाद वे दोनों एक दूसरे व्यक्ति से मिलने गये। वह निर्धन, किन्तु सज्जन और वृद्ध था। उसके पास एक गाय थी। उसने कृष्ण तथा अर्जुन का सत्कार किया और दोनों को पीने के लिए दूध दिया। श्री ने कृष्ण ने कहा-' -"तुम्हारी गाय मर जाये।”
अर्जुन को बड़ा आश्चर्य हुआ, बोला—“भगवन्! आपका स्वभावमैं समझ नहीं पाया। आपने उस धनी आदमी को तो वरदान दिया, जिसने आपका अपमान किया और जिस गरीब ने आपका सत्कार किया, उसे शाप दिया।"
भगवान् ने उत्तर दिया—“धनी आदमी अपनी सम्पत्ति की बदौलत बड़े-बड़े पाप करेगा और सीधे नरक में जायेगा। यह गरीब अपनी गाय की ममता से छूट जायेगा और शीघ्र मेरे पास आयेगा।"
अर्जुन ने कहा- "प्रभु, आप बड़े रहस्यमय हैं। अब मैं आपका वास्तविक स्वभाव समझा।'
बच्चो, ईश्वर जानता है कि हमारा भला किस बात में है। ईश्वर वहीं करता है, जो हमारे लिए उत्तम हो। ईश्वर वही करता है, जो अन्ततः हमारे लिए कल्याणकारी सिद्ध हो। उसके विधान को सरलता से नहीं समझा जा सकता। उसके दिव्य विधान को जानने का प्रयत्न करो और ज्ञानी बनो। हँसते हुए, धैर्य और बहादुरी के साथ सभी कठिनाइयों का सामना करो और जीवन-संग्राम में जूझो। कठिनाइयाँ और विपत्तियाँ इसीलिए आती हैं कि ईश्वर के प्रति तुम्हारी श्रद्धा प्रगाढ़ हो, तुम्हारी संकल्प-शक्ति दृढ़ हो, सहन-शक्ति में वृद्धि हो तथा तुम्हारा चित्त अधिकाधिक ईश्वर की ओर मुड़े। दुःख बड़ा शिक्षक है। कुन्ती ने प्रार्थना की थी— “हे प्रभु कृष्ण, मुझे सदा विपत्तियाँ ही देते रहो, जिससे मैं आपका स्मरण निरन्तर करती रह सकूँ।” इसलिए समझ लो, ईश्वर सब कुछ हमारे कल्याण के लिए ही करता है। छोटी-छोटी बातों से खीज न जाओ। बड़ी-बड़ी सफलताओं के कारण आपे से बाहर न हो जाओ। सदा शान्त और सन्तुलित रहो । सब कुछ ईश्वर की इच्छा से होता है। कष्ट, दुःख, कठिनाई और असफलता — सब ईश्वर का उपहार हैं। इनसे हमारा चित्त शुद्ध होता है। इसलिए हमें अपने को ईश्वर की इच्छा पर छोड़ देना चाहिए। ईश्वर के चरणों में अपने को पूर्णतया समर्पित कर दो और कोई भी दुःख या कठिनाई आये, तो झींको नहीं। समझदार लोग अपने भले या बुरे—दोनों को ही बड़ी शान्ति के साथ स्वीकार करते हैं। वे न तो भले का खुशी से स्वागत करते हैं और न बुरे की निन्दा ही करते हैं।
इसी प्रकार हमें जो भी प्राप्त हो—भला या बुरा, उसे ईश्वरीय विधान समझ कर समान भाव से स्वीकार करना चाहिए। हमें अपने विषय में यह समझना चाहिए कि हम मात्र उपकरण हैं, जिनसे ईश्वर अपनी दिव्य इच्छा के अनुसार काम लेता है।
सोहन : गुरु जी, जब हम कठोर परिश्रम करते हैं, वह कुछ-न-कुछ लाभ प्राप्त करने के लिए ही करते हैं। तब अपनी इच्छा और कठिन परिश्रम के अनुसार हम कर्म-फल प्राप्त करने की आशा क्यों नहीं करें ?
शिक्षक : तुमने ठीक प्रश्न पूछा। मान लो, तुम अपनी बहन के विवाह में जाना चाहते हो और उसके लिए सप्ताह भर के अवकाश के लिए अर्जी देते हो। अब इस अवकाश की स्वीकृति देना पूर्णतया तुम्हारे अधिकारी पर निर्भर है। मान लो, वह कहेंगे- “इस समय मेरे पास कार्य करने वाले लोग कम हैं, इसलिए तुम्हारा अवकाश स्वीकृत नहीं कर सकूँगा।” तब तुम क्या करोगे? क्या अधिकारी को कोसोगे या नौकरी छोड़ दोगे? क्या तुम्हें इस बात का दुःख होगा कि तुम्हें छुट्टी नहीं मिल पायी? लेकिन क्या तुम अधिकारी पर दबाव डाल कर छुट्टी पाने के अपने अधिकार पर जोर दे सकते हो ?
सोहन : नहीं। मैं नौकरी क्यों छोड़ दूँगा? और यदि वह अवकाश नहीं देता है, तो उसकी निन्दा करने से भी कोई लाभ नहीं होगा। यदि मैं अपने अधिकार पर जोर देने लगूँ, तो शायद मैं अपने अधिकारी को असन्तुष्ट ही करूँगा ।
शिक्षक : बहुत ठीक । तब तुम्हारे लिए यही उत्तम है कि तुम अपने को अपने अधिकारी की इच्छा पर छोड़ दो। तुम्हारी इच्छा के अनुसार अवकाश मिला तो बहुत अच्छा; लेकिन अपनी सफलता के लिए अधिक हर्षित होने की जरूरत नहीं है। यदि अवकाश नहीं मिला, तो चिन्ता करने की भी आवश्यकता नहीं। इसी प्रकार कर्तव्य का पालन ईश्वर में पूरी श्रद्धा तथा उसके प्रति भक्ति के साथ करना चाहिए। कर्तव्य के लिए कर्तव्य करो। उसका फल ईश्वर को अर्पित कर दो।
हमारा मन जो उद्विग्न या उत्तेजित होता है, वह कर्म के कारण नहीं, वरन् उसका फल प्राप्त करने की इच्छा के कारण होता है। यही हमारे मन को अशान्त बनाता है । इच्छा की पूर्ति न हो, तो हम असन्तुष्ट होते हैं। यदि हम फल प्राप्त करने की कामना छोड़ दें, तो सफलता या विफलता हमारे मन को जरा भी प्रभावित नहीं कर सकती ।
शिक्षक : गोपाल, तुम्हारे पर्चे कैसे हुए हैं ?
गोपाल : मैंने जो लिखा है, उससे मुझे पूरा सन्तोष है। अँगरेजी का पर्चा जरूर कुछ कठिन था, लेकिन मैंने सभी प्रश्नों के उत्तर लिखे हैं। गणित के दश में से सभी सवाल मैंने ठीक-ठीक किये हैं। हिन्दी में ७५ प्रतिशत अंक निश्चित ही मिलेंगे। कुल मिला कर प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होने की आशा है और ईश्वर ने चाहा तो आगे छात्र-वृत्ति भी पा सकता हूँ। परीक्षा भवन में जो शिक्षक हमारे साथ थे, उनको भी मेरी उज्ज्वल सफलता पर विश्वास है।
शिक्षक : बहुत सुन्दर । परीक्षा फल कब प्रकाशित होगा ? अपने सभी साथियों को शानदार दावत दोगे न ?
गोपाल : निश्चय ही गुरु जी। मैं अपने सभी शिक्षक और सहपाठियों को वनभोज (पिकनिक) के लिए ले जाऊँगा।
शिक्षक : बढ़िया विचार है।
कृष्ण : गुरुजी, परसों परीक्षा भवन में एक बड़ी खेदजनक घटना हो गयी। आप सुनेंगे, तो दुःखी होंगे।
शिक्षक: क्यों, किसी छात्र को परीक्षा भवन से निकाल दिया गया क्या ?
कृष्ण : जी हाँ, बात यह है कि एक लड़का अपने साथ कुछ कागज लाया था, जिसमें कुछ उन प्रश्नों के उत्तर लिख लिये थे, जिनके बारे में उसका ख्याल था कि उस दिन के प्रश्न-पत्र में जरूर पूछे गये होंगे। डेस्क के नीचे छिपाये हुए उन कागजों से वह उत्तर नकल करने में व्यस्त था। एकाएक परीक्षा निरीक्षक ने कहा कि कोई खुले कागज अपने साथ डेस्क पर या डेस्क के नीचे न रखे। लड़का यह सोच कर घबरा गया और परेशान हो गया कि निरीक्षक ने उसे नकल करते देख लिया होगा। अपनी जेब में उन कागजों को छिपा लेने के लिए वह फौरन उन्हें मोड़ने लगा। सहायक निरीक्षक ने, जो कि कुछ ही दूरी पर खड़े थे, उसकी यह हरकत देख ली और उसे रंगे हाथों पकड़ लिया। तुरन्त ही उस लड़के को परीक्षा भवन से निकाल दिया गया।
शिक्षक : कितनी मुसीबत है! बच्चो, क्या बता सकते हो कि उसका अन्त:करण किस प्रकार का था? जो जानता हो, हाथ ऊँचा करे।
कृष्ण : गुरु जी, मैं जानता हूँ, पर वह शब्द भूल रहा हूँ। मैं सोच कर अभी बताता हूँ।
(मिनट भर सोच कर बताता है।)
उसका अपराधी अन्त:करण था। ठीक है न, गुरु जी ?
शिक्षक: बिलकुल ठीक तुमने यह कहावत सुनी होगी- 'अपराधी अन्तःकरण अपनी छाया से भी डरता है।'
मैं चाहता हूँ कि तुम सब इस बात को ठीक-ठीक समझ लो। इन दिनों लड़के कड़ी मेहनत नहीं करना चाहते। वे सफलता पाने का आसान रास्ता खोजते हैं और इसके लिए हर सम्भव गलत कदम उठाने के लिए तैयार हो जाते हैं। यह बहुत बुरी मनोवृत्ति है। ध्यान रखो - 'अशुद्ध साधनों से प्राप्त की गयी सफलता सफलता ही नहीं है।' महात्मा गान्धी ने कहा है — “ अशुद्ध और गलत साधनों से सफलता प्राप्त करने के बजाय लक्ष्य को न प्राप्त करना उत्तम है। जीवन के किसी भी क्षेत्र में या काम में सफलता पाना चाहते हो, तो उसका साधन शुद्ध और सही ही होना चाहिए, गलत नहीं। तभी यह कहा जा सकता है कि तुमने वास्तविक सफलता पायी है। इसी प्रकार जो सम्पत्ति हम अशुद्ध साधनों से उपार्जन करते हैं, उसके साथ कई मुसीबतें भी लगी रहती हैं; परन्तु वही यदि शुद्ध साधनों से कमायें, तो उससे हम सुखी होंगे और हमारा भाग्य चमकेगा।"
ऐसे सब प्रसंगों से तुम लोगों की आँख खुलनी चाहिए। एक विनोद-कथा के द्वारा पूर्वोक्त कहावत का अर्थ स्पष्ट करता हूँ।
एक धनी ब्राह्मण था । उसके पास कई नौकर थे। एक दिन उसका चाँदी का लोटा खो गया। उसे अपने नौकरों पर शक हुआ, लेकिन वह पता नहीं लगा सका कि किसने चोरी की है। अन्त में उसने एक उपाय सोचा। उसने अपने सभी नौकरों को बुला भेजा। सबके हाथ में एक-एक लकड़ी दे दी और कहा - "लकड़ियाँ बिलकुल एक-सी हैं। प्रत्येक लकड़ी एक-एक गज लम्बी है। लेकिन कल प्रातः चोर नौकर की लकड़ी एक इंच बढ़ जायेगी।”
सब अपने-अपने स्थानों को लौट गये। जिसने चोरी की थी, वह सारी रात सोचता रहा-"यह मालिक बड़ा बुद्धिमान् है। मेरी लकड़ी एक इंच लम्बी हो जायेगी और मैं पकड़ा जाऊँगा। क्यों न मैं एक इंच लकड़ी काट कर फेंक दूं।" उसने ऐसा ही किया। अगले दिन प्रातः मालिक ने सबको बुलाया और अपनी-अपनी लकड़ी दिखाने को कहा। उसने देखा कि एक लकड़ी बाकी लकड़ियों से छोटी है। इस प्रकार उस छोटी लकड़ी वाला नौकर चोर साबित हुआ। ब्राह्मण को चाँदी का लोटा वापस मिल गया और अपराधी नौकर निकाल दिया गया।
गोपाल: ऐसी ही अपराधी मनोवृत्ति की एक घटना मैं सुनाऊँ ? : गुरु जी,
शिक्षक : जरूर सुनाओ।
गोपाल : एक शहर में कपास का एक व्यापारी रहता था। वह बड़ा धनी था। उसके पास कपास का बहुत बड़ा स्टाक था। एक रात चोरों ने उसमें से एक गट्ठर चुरा लिया। चोरों को पकड़ने की उसने खूब कोशिश की, लेकिन पकड़ न सका ।
एक बूढ़े ने उस व्यापारी से कहा- “अपने लोगों को एक भोज दो। मैं चोर को पकड़ लूँगा।” व्यापारी ने ऐसा ही किया। जब सब लोग भोजन कर रहे थे, तब वह बूढ़ा जोर से चिल्लाया- "चोरों की दाढ़ी में अभी तक कपास चिपकी हुई है।” इस पर जो चोर थे, उनका हाथ अनजाने में अपनी-अपनी दाढ़ी पर चला गया, जिससे कि वे कपास निकाल दें। इस तरह वे पकड़ लिये गये।
शिक्षक : खूब ! यह भी बड़ी शिक्षाप्रद कहानी है जो इसी सत्य की ओर संकेत करती है। अपराधी मनोवृत्ति वाला मनुष्य जीवन में कभी सफल नहीं होता, कभी उन्नति नहीं कर सकता। वह साहसी, ईमानदार और निष्कपट नहीं रह सकता ।
बच्चो, तुम लोगों ने देखा होगा कि कुछ लोग रेल में बिना टिकट सफर करते हैं। वे जानते हैं कि यदि वे पकड़े गये, तो किराये का दुगना पैसा देना पड़ेगा। बिना टिकट के सफर करने वालों की तुच्छ मानसिक स्थिति अनुभवी लोग समझ सकते हैं। ऐसे लोग बहुत घबराते हैं। उनको हर क्षण चौकन्ना रहना पड़ता है। वे सदा खिड़की से बाहर झाँकते रहते हैं, ताकि देख सकें कि टिकट चेकर किस डिब्बे से किस डिब्बे में जा रहा है।
अपराधी मनोवृत्ति के कारण वह हर क्षण इस भय से परेशान रहता है। कि वह पकड़ा जायेगा और उसे जुर्माना देना पड़ेगा। टिकट चेकर डिब्बे में घुसता है, तो वह उसकी नजर से बचने के लिए पाखाने में जा छिपता है। कुछ देर के बाद बाहर निकल कर जब वह देखता है कि टिकट चेकर अभी तक डिब्बे में मौजूद है, उसे आश्चर्य और निराशा — दोनों होते हैं। उससे टिकट माँगा जाता है। वह कुछ नहीं कह पाता है। उसे किराया और जुर्माना — दोनों ही देने पड़ते हैं।
तो बच्चो, जो रकम देनी है, उसे देने में कभी मत चूको । दिल साफ रखो। निर्भय और बहादुर रहो।
शिक्षक : विक्रम, रात भर लाउड स्पीकर पर गाना और शोर होता रहा, क्या बात थी ? सारी रात बड़ी परेशानी रही।
विक्रम : पड़ोसी के यहाँ विवाह था, गुरु जी ।
शिक्षक : ओह, तो कल रात विवाह उत्सव का आनन्द उठाया तुमने। (हँसते हुए) मुझे एक आदमी का स्मरण हो आया, जो अपनी लड़की का विवाह करके ठगा गया।
विक्रम : कौन था गुरु जी, वह ? क्या हुआ था ?
शिक्षक : एक आदमी था। उसके चार लड़के थे। वे आपस में लड़ते रहते थे। उसने उन्हें शान्ति से रखने का भरसक प्रयत्न किया, पर उसे सफलता नहीं मिली। कुछ वर्षो बाद वह मर गया। वे लड़के छोटी-छोटी बातों को ले कर तब भी बराबर लड़ते रहे और उनमें आपसी मतभेद बढ़ते गये। हर एक अपनी अलग-अलग कमाई करता था।
कुछ वर्षों में बड़े भाई की लड़की विवाह योग्य हुई। विवाह का दिन निश्चित हुआ। बड़ा भाई नरेन्द्र इस असमंजस में पड़ गया कि इतने बड़े समारोह का आयोजन वह अकेला कैसे कर सकता है। उसे अपने भाइयों से किसी प्रकार की सहायता की आशा नहीं थी, क्योंकि लम्बे अरसे से उनके बीच लड़ाई-झगड़ा ही चल रहा था। उसने सोचा और खूब सोचा। अन्त में एक उपाय उसे सूझा। उसने अपने सारे कथाकथित मित्रों को बुलाया और विवाह के सम्बन्ध में उन लोगों से खूब चर्चा की। भाइयों के बीच ऐसा तनावपूर्ण सम्बन्ध है, यह मित्रों को अच्छी तरह मालूम था। उन्होंने इस स्थिति का पूरा-पूरा लाभ उठाया। उन्होंने कहा- “भाई, तुम क्यों घबराते हो? यह तो साधारण-सा काम है। भाड़ में जायें तुम्हारे भाई। हम सारी तैयारी कर देंगे। हम विवाह समारोह का सारा कार्यक्रम तैयार करेंगे और बड़ी धूमधाम से मनायेंगे।” नरेन्द्र को उन कथाकथित मित्रों की बात पर विश्वास करना पड़ा। खर्चे का एक मोटा हिसाब लगा लिया गया और उन मित्रों को कुछ रकम पेशगी दे दी गयी ताकि अनाज, मिठाई, फल, गहने, कपड़े तथा अन्य सामग्री खरीदी जा सके और बारात को ठहराने का, भोज का, नाच-गाने आदि का इन्तजाम किया जा सके।
विवाह सम्पन्न हुआ। सारा कार्यक्रम दो-तीन दिन तक चलता रहा। तो बच्चो, तुम सोच सकते हो कि क्या परिणाम हुआ होगा। सुनार, बजाज, हलवाई और ऐसे ही छोटे-छोटे कई व्यापारियों ने अपना-अपना बिल पेश किया। जो अनुमान लगाया गया था, खर्च उसके दुगने से भी अधिक हो गया। बेचारे नरेन्द्र का दिवाला निकल गया और वह दुःख और परेशानी में डूब गया।
यह परेशानी क्यों हुई, जानते हो ?
कृष्ण : जी हाँ, नरेन्द्र के उन झूठे मित्रों ने उसे धोखा दिया और उसके पैसे से खूब मजा लूटा |
विक्रम : गुरु जी, आखिर वे भाई तो उसके अपने और सगे थे। क्यों उन्होंने विवाह जैसे महत्त्वपूर्ण काम में सहयोग नहीं दिया ?
शिक्षक : उन लोगों में अनुकूलनशीलता का गुण लेशमात्र भी नहीं था। उनका अहंकार और गर्व सबसे बड़ी बाधा थे ।
कृष्ण : अनुकूलनशीलता से आपका क्या आशय है, गुरु जी ?
शिक्षक : अनुकूलनशीलता एक ऐसा महान् गुण है जिससे मनुष्य अपने को दूसरों के अनुकूल बना लेता है, भले ही उनके स्वभाव उसके स्वभाव से भिन्न क्यों न हों। जीवन में सफल होने के लिए यह गुण अत्यन्त आवश्यक है। इस गुण का विकास धीरे-धीरे करना चाहिए। अधिकांश लोग दूसरों के साथ निर्वाह करना जानते ही नहीं।
कृष्ण : अनुकूलनशील आदमी के क्या-क्या गुण होते हैं, गुरु जी ?
शिक्षक : यह समझदारी का प्रश्न है। अनुकूलनशील आदमी को कुछ-न-कुछ त्याग करना पड़ता है। जैसे कोई क्लर्क अपने ऊपर के अधिकारी के तरीकों, आदतों और स्वभाव को जानता है और अपने को उसके अनुकूल बना लेता है, तो अधिकारी क्लर्क का दास बन जाता है। अपने अधिकारी को खुश करने के लिए दो-चार मीठे शब्द ही पर्याप्त होते हैं। मीठे बोल बोलो, नरमी से बोलो। अपने अधिकारी के प्रत्येक शब्द का अनुसरण करो; क्योंकि वह तुमसे आदर की अपेक्षा रखता है। तुम्हें इसके लिए कुछ खोना नहीं पड़ेगा। ऐसा होने पर अधिकारी तुम्हारे प्रति अपने हृदय में कुछ आत्मीयता अनुभव करने लगेगा। तुम जो चाहो, वह कर देगा। तुमसे कोई गलती हो जायेगी, वह उस ओर ध्यान नहीं देगा। तुम उसके प्रिय बन जाओगे। अनुकूलनशीलता के गुण का विकास करने के लिए नम्रता और आज्ञा-पालन आवश्यक हैं। जो अहंकारी और घमण्डी होता है, वह दूसरों से अनुकूलन में कठिनाई अनुभव करता है और इसलिए वह सदा परेशान रहता है।
अनुकूलनशील आदमी के अपने पास जो कुछ भी है, उसे दूसरों के साथ मिल-बाँट कर उपयोग करना चाहिए। कभी-कभी उसे अपमान और कठोर वचन सहन करने पड़ते हैं। उसे अपने में धैर्य, सहिष्णुता तथा मानसिक सन्तुलन के गुणों का विकास करना चाहिए। जब वह दूसरों के अनुकूल बनने का प्रयत्न करने लगता है, तब ये सारे गुण अपने-आप विकसित होने लगते हैं।
गोपाल : जी, अब मैं समझ गया कि नरेन्द्र अपनी पुत्री के विवाह में क्यों कठिनाई में पड़ गया। प्रत्येक भाई अहंकारी था। प्रत्येक का स्वभाव एक-दूसरे के अनुकूल बन कर रहने को तैयार नहीं था। इसलिए परस्पर सहायता करने या सहयोग देने का सवाल ही नहीं उठता था ।
शिक्षक : बिलकुल ठीक। क्या परस्पर सहायता और सहयोग की कहानी सुना सकते हो ?
गोपाल : क्यों नहीं।
एक बार एक सँकरे पुल पर दो भेड़े आमने-सामने से आ रहीं थीं। पुल के बीच दोनों मिलीं। पुल क्या था, खाली एक लकड़ी का लट्ठा था। वे मुड़ नहीं सकती थीं।
एक भेड़ ने कहा- "इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है। मैं भी तो तुम्हें देख न सकी। यह मेरी गलती है। मैं पानी में कूद जाऊँगी, तुम चली जाना।"
पहली भेड़ ने कहा- "नहीं, नहीं, ऐसा मत करो। तुम डूब जाओगी। पानी गहरा है। बहाव भी तेज है। मैं लट्ठे पर लेट जाती हूँ, तुम मेरे ऊपर पैर रख कर चली जाना।"
तब पहली भेड़ लेट गयी और दूसरी भेड़ धीरे से उसके ऊपर से निकल गयी। इस प्रकार दोनों पुल पार कर सकीं। दोनों ने एक-दूसरे को धन्यवाद दिया और चली गयीं।
शिक्षक : बहुत खूब । तुमने सचमुच बहुत अच्छी कहानी सुनायी। इससे यह शिक्षा मिलती है कि 'परस्पर सहयोग और सहायता से सुख मिलता है।' इसलिए बच्चों, अपने को दूसरों के अनुकूल बना लो। परिस्थिति के अनुरूप व्यवहार करो। तुम जीवन में सदा सफल रहोंगे। ईश्वर तुम्हारा कल्याण करे !
लड़के : नमस्कार, गुरु जी ।
शिक्षक : बच्चो, पिछले कई दिनों से तुम सब कई नैतिक और आध्यात्मिक कहानियाँ सुनते रहे हो। आज मैं कुछ प्रश्न पूछ कर यह देखना चाहता हूँ कि तुम सही उत्तर दे सकते हो अथवा नहीं।
मोहन, किसी दुःखी या मुसीबत में पड़े हुए व्यक्ति की सहायता क्यों करनी चाहिए ?
मोहन : इसलिए कि उससे हमारा चरित्र परिष्कृत होगा और दूसरा कारण यह है कि उसमें भी वही ईश्वर बसता है जो मुझमें है। मनुष्य की सेवा ईश्वर की सेवा है। परोपकार, दया और त्याग के कार्य करने से हमारा हृदय शुद्ध होता है, विशाल होता है और कोमल बनता है। इस प्रकार दिव्य प्रकाश ग्रहण करने योग्य बनता है।
शिक्षक : बहुत सुन्दर । तुम्हारा उत्तर संक्षिप्त और मधुर है। इससे मुझे पूरा सन्तोष है। लेकिन यह बतलाओ कि त्याग के कार्य से तुम्हारा आशय क्या है ?
मोहन: जी, इसे परिभाषित करना कठिन है, लेकिन मैं अपनी आँखों देखी घटना से अपना आशय समझा सकता है।
शिक्षक : ठीक है, सुनाओ।
मोहन : कल एक दुमंजिले मकान में आग लग गयी। घर की मालिकिन शाम का भोजन पकाने के बाद अपने बच्चों के साथ शयन कक्ष में आराम कर रही थी। घर का मालिक घर पर नहीं था। चूल्हे के पास एक कपड़ा पड़ा था, संयोग से उसमें आग लग गयी। पास में ही पड़े लकड़ी के एक गट्ठर ने आग पकड़ ली और फिर सारे घर में आग फैल गयी। मालिकिन यह समझ कर कि सब ठीक-ठाक है, कमरे को अन्दर से बन्द करके निश्चिन्त हो कर सो गयी। इधर लपटें बहुत ऊँचे उठने लगीं। सारा मुहल्ला जाग गया। भीड़ जमा हो गयी। घर के मालिक को लोग आवाज दे रहे थे, पर कोई उत्तर नहीं मिल रहा था। बाहर का शोर-गुल सुन कर मालिकिन जागी और सारा घर धुएँ और लपटों से भरा देख कर घबरा उठी। बच्चों को उसने जगा दिया और घबराहट में उन्हें ले कर छत पर जा पहुँची। वहाँ से वह जोर-जोर से सहायता के लिए चिल्लाने लगी। लोग घड़ों और बालटियों में पानी ला ला कर आग बुझाने का प्रयत्न कर रहे थे। मालिकिन की हृदय विदारक पुकार कोई नहीं सुन पा रहा था। इतने में पड़ोस का एक नवयुवक लकड़ी की एक सीढ़ी लाया और उससे छत पर पहुँच गया। फिर वह महिला तथा बच्चों को सुरक्षित नीचे उतार लाया।
इतने में दमकल आ गया और आग बुझाने लग गया। आग बुझाने में पूरे दो घण्टे लगे। सभी सामान राख बन चुका था। ईश्वर की कृपा की से किसी की जान नहीं गयी। घर की मालिकिन ने सन्तोष की साँस ली और अपनी हीरे की अंगूठी उतार कर उस प्राणरक्षक युवक को उपहार के रूप में देने लगी। युवक ने उसे धन्यवाद दिया और वह अँगूठी वापस करते हुए कहा, "हम बालचर हैं और हम लोग सेवा के बदले में कोई उपहार नहीं लेते। मैंने तो केवल अपना कर्तव्य निभाया है। इससे अधिक और कुछ नहीं किया।"
उस युवक की बहादुरी और निष्काम सेवा देख कर सब आश्चर्यचकित रह गये और उसकी प्रशंसा करने लगे; क्योंकि उसने अपने प्राणों को विपत्ति में डाल कर उस महिला और उसके बच्चों के प्राण बचाये थे।
शिक्षक: बहुत अच्छा है। अपने प्राणों को जोखिम में डाल कर दूसरों के प्राण बचाना वास्तव में वीरतापूर्ण निःस्वार्थ काम है और ऐसा काम ही त्याग का काम कहलाता है। उस भीड़ में से बहुत से लोगों ने पानी ला ला कर आग बुझाने का प्रयत्न किया जरूर; लेकिन उस बालचर ने जिस हिम्मत और बहादुरी का काम किया, उसकी तुलना में उनका कार्य साधारण ही था।
इसके अतिरिक्त उसका एक दूसरा भी प्रशंसनीय कार्य रहा है।
गोपाल : जी हाँ! उसने महिला द्वारा दिये गये हीरे की अंगूठी के उपहार को स्वीकार नहीं किया। उसने कर्तव्य के लिए कर्तव्य किया। वह सच्चा कर्मयोगी था ।
शिक्षक : बिलकुल ठीक। सत्कर्म कभी व्यर्थ नहीं जाता। उससे चित्त शुद्ध होता है और ईश्वरीय कृपा और दिव्य प्रकाश की प्राप्ति होती है। अच्छाई से जीवन धन्य, सफल और समृद्ध बनता है ।
भूखे को भोजन देना, रोगी की सेवा करना, नंगे को कपड़ा देना, गरीब और दीन की सहायता करना, अपने पास जो है उसे मिल बाँट कर इस्तेमाल करना और बदले में कुछ भी न चाहना—ये सब त्याग और निःस्वार्थ सेवा के छोटे-छोटे कार्य हैं। सत्कार्य करने का कोई भी मौका चूकना नहीं चाहिए, इन्हें रोज करना चाहिए। तुम्हें स्वयं पता चल जायेगा कि इससे क्या-क्या लाभ है ? तुम्हारा जीवन प्रेम, त्याग, ज्ञान और बहादुरी का जीवन्त उदाहरण होना चाहिए।
कृष्ण, बता सकते हो कि किसी की हत्या करना या किसी को चोट पहुँचाना क्यों बुरा है ?
कृष्ण : क्योंकि उसका परिणाम अनर्थकारी है। वह हमें पशुता के स्तर पर लाता है। दूसरों को कष्ट देना अपने-आपको ही कष्ट देना है। जब हम दूसरों का उपकार करते हैं, तो हम अपना ही उपकार करते हैं। सब प्राणियों में एक ही आत्मा, एक ही ईश्वर बसता है।
शिक्षक : वाह! तुम्हारा उत्तर भी वैसा ही है, जैसा कि मोहन का था। मुझे खुशी है कि इन दैनिक वार्तालापों से तुम लोगों ने लाभ उठाया है।
कृष्ण : 'आत्म-त्यागी को सदा सम्मान मिलता रहा है', इस सत्य का प्रतिपादन करने वाली एक और कहानी सुनाऊँ गुरु जी ?
शिक्षक : हाँ, सुनाओ, लेकिन पाँच मिनट में ही।
कृष्ण : जोधपुर के राणा की सेवा में एक राजपूत सेविका थी। उसका नाम पन्ना था। राजकुमार को छोड़ कर रानी मर गयी थी, इसलिए उस स्वामी-भक्त महिला को राजकुमार की देख-भाल करने का भार सौंपा गया था। एक दिन राणा के शत्रुओं की टोली महल में घुस आयी। वे उस राजकुमार की तलाश कर रहे थे। वे उसे मार डालना चाहते थे। पन्ना ने फौरन अपने लड़के को राजकुमार के कपड़े पहना दिये और उसे राजकुमार की जगह महल में ले जा कर बैठा दिया। शत्रुओं ने उस लड़के को तलवार से मौत के घाट उतार दिया। वह अपने बच्चे का कतल होते देख रही थी, पर चिल्लायी नहीं। इस प्रकार अपने पुत्र की बलि दे कर उसने राजकुमार के प्राण बचाये। बहादुरी, स्वामी भक्ति और आत्म-त्याग के गुणों के लिए उसकी याद हमेशा की जायेगी।
शिक्षक : बहुत सुन्दर। यह एक सरल-सी छोटी कहानी है। उसने तो एक ऐसे त्याग का बढ़िया उदाहरण प्रस्तुत किया, जो अब तक किसी महिला ने नहीं किया।
शिक्षक: अच्छा, विक्रम, तुम बता सकते हो कि हमारी इन वार्ताओं से तुमने क्या-क्या सीखा ?
विक्रम: मैं इस विषय को मन-ही-मन दोहरा लूँ। मुझे दो मिनट का समय दें।
शिक्षक : ठीक है।
विक्रम : सुनिए ।
"अपने साथ जैसे व्यवहार की अपेक्षा रखते हो, दूसरों के साथ भी वैसा ही व्यवहार करो। "
"प्रेम से प्रेम उत्पन्न होता है और द्वेष से द्वेष ।” ठीक है न, गुरु जी ?
शिक्षक : बिलकुल ठीक है। तुम्हारी स्मरण शक्ति तेज है। और कुछ ?
विजय : जी हाँ। “बुराई का बदला भलाई से दो” – स्वर्ण सूत्र ।
"बदला लेना नहीं चाहिए, विशाल और उदार हृदय बनना चाहिए।"
शिक्षक : सुन्दर! इन बातों को सदा स्मरण रखोगे और इन्हें अपने जीवन में उतारने का प्रयत्न करोगे, तो शीघ्र ही सफल हो जाओगे। जीवन की सारी समस्याओं का समाधान हो जायेगा। गुणहीन जीवन जल-रहित, मरुधान-रहित रेगिस्तान के समान है। इसलिए अपने जीवन को निःस्वार्थ प्रेम, त्याग, ज्ञान और सद्भाव का जीवन्त रूप बनाओ। दूसरों का सम्मान करोगे, दूसरों से सहानुभूति रखोगे, तो तुम्हें भी सम्मान और सहानुभूति मिलेगी ।
विजय, तुम कोई दो बातें बता सकते हो, जो तुमने इन सारी वार्ताओं में ग्रहण की हों?
विजय : जी हाँ। "हमें अहिंसा का पालन करना चाहिए। कोई भी काम करने से पहले कम-से-कम दो बार सोच लेना चाहिए; क्योंकि जल्दबाजी से बरबादी होती है।"
शिक्षक : समझ लो बच्चो! इशारे से, अभिव्यक्तियों से, लहजे से या आवाज से अथवा कटु शब्दों से भी किसी की भावना को चोट पहुँचाना हिंसा ही है। धर्माचरण दिव्य पथ है। सम्पत्ति, सौन्दर्य, यौवन, मान-यश-सब फीके पड़ जाते हैं, परन्तु धर्म-परायणता का जीवन कभी नष्ट नहीं होता ।
मोहन : गुरु जी, रोज की तरह आज आप कोई कहानी नहीं सुनायेंगे ?
शिक्षक : जी हाँ, वह तो होगा ही। लेकिन जो कुछ आज तक ग्रहण किया है, उसे एक बार हृदयंगम कर लेना अच्छा है। ठीक है। आज कौन लड़़का बढ़िया छोटी लेकिन विनोदशील कहानी सुनायेगा ?
सोहन : (शुरू करता है।)
तीन दुष्ट थे। वे लूट-मार करने के लिए रोज बाहर जाया करते थे । लूट में जो भी मिलता, उसे वे तीनों बराबर बाँट लिया करते थे। एक दिन एक वृक्ष के नीचे उन्होंने एक बड़ा पत्थर पड़ा हुआ देखा। उन्होंने सोचा कि इस पत्थर के नीचे धन होना चाहिए। जब उन्होंने पत्थर हटाया, तो नीचे एक गड्ढा दिखायी पड़ा।
गड्ढे को खोद कर देखा, तो वहाँ एक तिजोरी गड़ी हुई मिली। उन्होंने तिजोरी का ताला तोड़ डाला। उसके अन्दर खूब सोना और चाँदी भरा हुआ देख कर उनको बड़ी खुशी हुई। वह इतनी भारी थी कि उसे उठा नहीं सकते थे। उन्होंने एक आदमी को गाड़ी लाने भेजा। जब वह चला गया, तो बाकी दो आपस में बात करने लगे— “सारा धन हम दोनों ही बाँट लें, तो कितना अच्छा हो ! हमारा तीसरा साथी लौट आये, तो हम उसे आसानी से खतम कर सकते हैं। तब हमें एक तिहाई धन मिलने के बजाय आधा-आधा धन मिल जायेगा।" दोनों ने मिल कर यह योजना बनायी कि तीसरा ज्यों ही आये, उसे मार डाला जाये।
वह तीसरा आदमी शहर गया। उसने एक गाड़ी किराये पर ली तथा साथ ही कुछ शराब और मिठाई भी ली। वह भी उन दोनों के समान ही दुष्ट था। उसने अपने मन में सोचा "सारा धन यदि मैं अकेला ही पा जाऊँ, तो बाकी सारी जिन्दगी आराम से कट सकती है।" यह सोच कर उसने शराब में थोड़ा जहर मिला दिया।
वह ज्यों ही जंगल में पहुँचा कि वे दोनों उस पर टूट पड़े और उसकी हत्या कर डाली। अपनी सफलता पर वे दोनों इतने प्रसन्न हुए कि तिजोरी को गाड़ी पर चढ़ाने से पहले वे मिठाई और शराब पर हाथ साफ करने लगे। वे दोनों तुरन्त ही मर गये और उसी गड्ढे में गिर पड़े। वह तिजोरी जहाँ की तहाँ पड़ी रह गयी।
विजय : कितने दुःख की बात है! उन पर दया आती है। लूट कर जो भी मिलता होगा, उसे वे लोग आपस में हमेशा बराबर-बराबर बाँट लेते होंगे। अब की बार क्या हो गया कि सबके मन में खुद ही सारा धन हड़प लेने की इच्छा पैदा हो गयी ? इस तरह की मनोवृत्ति मैं समझ नहीं सका। गुरु जी, वे क्यों ऐसा सोचने लगे ?
शिक्षक : वे सब एक ही विचारधारा के लोग थे। इस बार उनका लोभ हद से ज्यादा बढ़ गया और इसलिए वे अपना सर्वनाश कर बैठे। सम्पत्ति की लालसा या लोभ महादोष है। लोभ मनुष्य की बुद्धि को मन्द बना देता है और उसे अन्धा कर देता है। वह मन में निराशा और अशान्ति उत्पन्न कर देता है। वह कभी भी तृप्त नहीं होता। उसका कोई अन्त नहीं है। लोभी मनुष्य परम स्वार्थी होता है। उसे अपने ही हितों का ध्यान रहता है। दूसरों की वह जरा भी परवाह नहीं करता।
नरक के तीन द्वार कौन-से हैं, जानते हो अजय ?
अजय : काम, क्रोध और लोभ ।
शिक्षक : ठीक है। तो यह लोभ भी नरक का द्वार है। बच्चो, समझ लो कि लोभ जब बढ़ जाता है, तो यह कितनी तबाही ले आता है। लोभ के रोग का उपचार जानते हो ? इस भयानक दुर्गुण से बचने का मार्ग क्या है?
मोहन : जी हाँ। एक दिन आपने बताया था कि जीवन में इन दोषों के विपरीत तथा रचनात्मक गुणों का विकास करने से इन पर विजय प्राप्त की जा सकती है।
शिक्षक : बिलकुल ठीक। देखो, परम धन है सन्तोष। वह लोभ की अग्नि को शीतल कर देता है। जो रचनात्मक है, वह सदा निषेधात्मक पर विजय पाता है। यह प्रकृति का नियम है। अकरणात्मक दोष रचनात्मक गुणों के सामने टिक नहीं सकते। उदाहरण के लिए साहस भय को दूर करता है, प्रकाश अन्धकार को दूर करता है, सहिष्णुता क्रोध को मिटाती है, उदारता तथा सन्तोष लोभ को जीत लेते हैं। अन्य दोषों के विषय में भी इसी प्रकार समझना चाहिए।
सोहन : समझ गया, गुरु जी तीनों ने यदि एक तिहाई धन से ही सन्तोष कर लिया होता, तो इस प्रकार की नाशकारिणी दुःखान्त घटना न होती और उनका ऐसा भयंकर अन्त नहीं होता; लेकिन लोभ ने उन्हें अन्धा बना दिया और हर एक ने सोचा कि वही अकेला सारा धन पा जाये और खूब धनी बन जाये। कितनी बुरी बात है!
शिक्षक : याद रखो बच्चो, यदि तुम दूसरों के लिए गड्ढा खोदोगे, तो तुम खुद उसी में गिरोगे। लोभ और मोह का बहुत निकट का सम्बन्ध है। लोभी आदमी को अपने धन से बड़ा मोह होता है। उसका मन सदा अपनी तिजोरी और कमर में लटके हुए चाभी के गुच्छे पर ही लगा रहता है। धन ही उसका प्राण और जीवन है। धन कमाने के लिए वह जीता है। सच कहा जाये, तो वह अपने धन का पहरेदार है। उस धन का मजा तो उसका फजूलखर्च लड़का ही लूटता है।
साहूकार लोग हमेशा इसी लोभ के शिकार होते हैं। पच्चीस और पचास प्रतिशत तक ब्याज ले कर गरीबों का खून चूसते हैं। धर्मशाला या मन्दिर बनवा कर वह दिखाना चाहते हैं कि बड़ा धर्म-पुण्य कर रहे हैं। लेकिन इतने से उनके निर्दयी कृत्यों का पाप धुलने वाला नहीं है। निर्दयी लोगों के कारण कई परिवार उजड़ चुके हैं। जिसके पास एक लाख रुपया हो, वह दश लाख कमाने की चिन्ता में रहता है। दश लाख वाला करोड़ों रुपये पैदा करने के प्रयत्न में लगा रहता है। लोभ का कहीं अन्त नहीं है।
दानशीलता के समान लोभ के भी अनेक प्रकार हैं। किसी को नाम, यश और प्रशंसा की तृष्णा है। वह लोभ है। सब जज चाहता है कि वह हाईकोर्ट का जज बने। तीसरे दर्जे का मजिस्ट्रेट सर्वाधिकारसम्पन्न प्रथम श्रेणी का मजिस्ट्रेट बनना चाहता है। यह भी लोभ ही है।
सोने का अण्डा देने वाली मुर्गी की कहानी जानते हो?
विजय : जी हाँ। वह कहानी मैं सुना दूँ। हमारे साथी भी इसे सुनना चाहेंगे। एक किसान के पास एक अद्भुत मुर्गी थी। वह रोज असली सोने का एक अण्डा देती थी। वह किसान धनी बन गया, लेकिन साथ-ही-साथ अधिक लोभी भी हो गया। वह धैर्य खो बैठा और एक दिन में एक ही अण्डा पाने से उसे सन्तोष नहीं हुआ। सारे अण्डे एक ही बार में पा लेने के लोभ से उस किसान ने मुर्गी का पेट चीर डाला और उसके अन्दर सोना खोजने लगा, लेकिन वहाँ कुछ न मिला। तब वह अपने बाल नोचने और मूर्खता के लिए अपने को कोसने लगा। मुर्गी को खो देने का उसे बहुत पछतावा रहा, लेकिन अब दुःख करने से क्या लाभ था!
शिक्षक : बहुत अच्छा। यह बहुत सुन्दर और बोधप्रद कहानी है। इससे हमें शिक्षा मिलती है कि 'लोभी होने से पास में जो है, उससे भी हाथ धोना पड़ता है।'
मीडास कौन था, जानते हो सोहन ?
सोहन : जी नहीं ।
शिक्षक : तो सुनो उसकी कहानी। यह बड़ी दिलचस्प है। मीडास एक राजा था। वह बड़ा लोभी था। उसने यह वरदान माँगा कि जो कुछ भी वह छू ले, वह सोना बन जाये। वर उसे मिल गया। उसने अपने बगीचे में सभी पेड़ों को हाथ लगाया, तो सब सोने के बन गये। वह बहुत खुश हुआ। जब वह खाने को बैठा और उसने भोजन को हाथ लगाया, तो वह भी सोने का गरम कौर बन गया। बेचारा अपनी भूख मिटा नहीं सका; क्योंकि उसका मुँह और जीभ जल गये थे। तब और भी बुरा हुआ जब उसकी बच्ची दौड़ी-दौड़ी आयी और उसकी गोद में बैठ गयी। उसका हाथ लगते ही वह भी सोने की निर्जीव गुड़िया बन गयी। वह बहुत ही दुःखी हुआ। अपनी मूर्खता के लिए अपने को कोसने लगा। तब वह अपना वर वापस करने के लिए प्रार्थना करने लगा। तब, वरदान वापस ले लिया गया।
इसलिए, बच्चो! लोभ न करो। पास में जो है, उसे मिल-बाँट कर खाओ। लोभ, स्वार्थ और दुर्भावना से किसी को दुःख या कष्ट मत पहुँचाओ। लड़ने और उत्तेजनापूर्ण बहस करने की आदत छोड़ दो। तर्क मत करो। किसी से झगड़ोगे या बहस करने लगोगे, तो अपने मन का सन्तुलन खो बैठोगे । व्यर्थ ही बहुत सारी शक्ति व्यय हो जायेगी। खून गरम होगा। नाड़ियों को क्षति पहुँचेगी। हमेशा अपने मन को शान्त रखने का प्रयत्न करो।
तो बच्चो! खाने के लिए देर हो रही है। कल फिर मिलेंगे। तुम सबका कल्याण हो !
लड़के : नमस्कार, गुरु जी ।
(१) हाथी कितना ऊँचा कूद सकता है ?
(२) वह कौन है जो मुँह और दाँत के बिना भी काटता है ?
(३) कौन-सी चीज है जो टूटने के बाद ज्यादा उपयोगी होती है ?
(४) वह कौन है जो बिना कान के सुनता है, बिना आँख के देखता है और बिना जीभ के चखता है ?
(५) वह कौन-सी चीज है जिसे तुम निगल सकते हो और वह तुम्हें भी निगल सकती है?
(६) मेरे पास शहर हैं, पर घर नहीं; जंगल हैं, पर पेड़ नहीं; नदियाँ हैं, पर पानी नहीं। मैं कौन हूँ ?
(७) वह कौन-सी चीज है जिसकी आवश्यकता होने पर तुम फेंक देते हो और आवश्यकता न होने पर उठा लेते
हो ?
(८) मेरे पास एक ऐसी चीज है जिसे मैं जितना अधिक बाँटता हूँ, उतना अधिक बढ़ती है। वह क्या है?
(९) 'ड' अक्षर क्यों बहुत मीठा है ?
(१०) वह क्या है जो पहाड़ पर जाती है, पहाड़ से नीचे आती है, पर जरा भी हिलती नहीं ?
(११) ग्रामोफोन रेकार्ड में कितनी रेखाएँ होती हैं?
(१२) वह क्या चीज है जिसमें छेद होते हैं, पर फिर भी पानी टिक जाता है ?
(१३) वह कौन है जिसमें हजारों सुइयाँ हैं, पर सी नहीं सकता ?
(१४) वह क्या है जिसके आँखें हैं, पर देख नहीं सकता?
(१५) वह कौन है जो सारे विश्व का चक्कर लगाता है, फिर भी एक कोने में पड़ा रहता है?
(१६) खिड़की को तोड़े बिना उस पार कौन जा सकता है?
(१७) 'क' 'ख' का पिता ,पर 'ख' 'क' का पुत्र नहीं है। बताओ 'ख' क्या है ?
(१८) वह कौन-सी चीज है जो सदा तुम्हारे आगे है, फिर भी तुम देख नहीं सकते ?
(१९) वह कौन-सा प्रश्न है जिसका तुम 'हाँ' में उत्तर दे ही नहीं सकते ?
(२०) वह क्या चीज है जो दूसरों को बाँटने पर बढ़ती है ?
(२१) वह कौन है जो दिन भर कुछ काम नहीं करता है, पर उसे काम करने का वेतन मिलता है ?
उत्तर
१. हाथी कूद नहीं सकता।
२. जूता ।
३. केरल का नारियल, लन्दन का अण्डा ।
४. ब्रह्म ।
५. पानी।
६. नक्शा ।
७. लंगर ।
८. ज्ञान ।
९. क्योंकि वह 'लड्डू' शब्द के बीच में पड़ता है।
१०. सड़क ।
११. एक रेखा ।
१२. स्पंज ।
१३. साही (स्याही)।
१४. आलू ।
१५. (डाक) टिकट ।
१६. प्रकाश ।
१७. पुत्री ।
१८. भविष्य ।
१९. क्या तुम सो रहे हो ?
२०. सुख ।
२१. रात का पहरेदार ।