बालकों के लिए
दिव्य जीवन सन्देश
DIVINE LIFE FOR CHILDREN
का अविकल अनुवाद
लेखक
श्री स्वामी शिवानन्द सरस्वती
अनुवादक
श्री त्रि. न. आत्रेय
प्रकाशक
द डिवाइन लाइफ सोसायटी
पत्रालय : शिवानन्दनगर—२४९१९२
जिला : टिहरी गढ़वाल, उत्तराखण्ड (हिमालय), भारत
www.sivanandaonline.org, www.dlshq.org
प्रथम हिन्दी संस्करण : १९६६
सप्तम हिन्दी संस्करण : २०१५
अष्टम हिन्दी संस्करण : २०१९
(१,००० प्रतियाँ)
© द डिवाइन लाइफ ट्रस्ट सोसायटी
ISBN 81-7052-062-2
HS 10
PRICE : ₹ 100/-
'द डिवाइन लाइफ सोसायटी, शिवानन्दनगर' के लिए
स्वामी पद्मनाभानन्द द्वारा प्रकाशित तथा उन्हीं के द्वारा 'योग-वेदान्त
फारेस्ट एकाडेमी प्रेस, पो. शिवानन्दनगर, जि. टिहरी गढ़वाल,
उत्तराखण्ड, पिन २४९१९२' में मुद्रित ।
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'ॐ'
जो कल देश के नागरिक बनेंगे,
जिन पर राष्ट्र की भावी आशा केन्द्रित है,
उन सुकुमार- हृदय बालकों को
सप्रेम समर्पित
'ॐ'
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गजाननं भूतगणाधिसेवितं
कपित्थजम्बूफलसारभक्षणम् ।
उमासुतं शोकविनाशकारणं
नमामि विघ्नेश्वरपादपंकजम्।।
मैं उमासुत विघ्नेश्वर गणेश के चरण-कमलों की वन्दना करता हूँ जो दुःखों का नाश करते हैं, भूतगण तथा देवगण जिनकी सेवा करते हैं, जिनका मुँह हाथी का है और जो कपित्थ और जम्बूफल का सार ग्रहण करते हैं।
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वरः ।
गुरुः साक्षात् परंब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः ।।
मैं उन सद्गुरु को प्रणाम करता हूँ जो स्वयं ब्रह्मा, विष्णु और महेश हैं और जो साक्षात् परब्रह्म हैं।
शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभांगम्।
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यम्
वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्।।
मैं विष्णु की वन्दना करता हूँ जिनकी आकृति शान्त है, जो शेषनाग की शय्या पर शयन करते हैं, जिनकी नाभि में कमल है, जो देवताओं के भी ईश्वर हैं और सम्पूर्ण विश्व के आधार हैं तथा आकाश के समान सर्वत्र व्याप्त हैं, जिनका रंग नीलमेघ के समान है, जिनका शरीर अत्यन्त सुन्दर है, जो लक्ष्मीपति हैं, जिनके नेत्र कमल के समान हैं, जो योगियों को ध्यान द्वारा मिलते हैं, जो जन्म-मरण-रूपी भय का नाश करने वाले और सभी लोकों के एकमात्र स्वामी हैं।
१. ब्राह्ममुहूर्त - जागरण- नित्यप्रति प्रातः चार बजे उठिए। यह ब्राह्ममुहूर्त ईश्वर के ध्यान के लिए बहुत
अनुकूल है।
२. आसन - पद्मासन, सिद्धासन अथवा सुखासन पर जप तथा ध्यान के लिए आधे घण्टे के लिए पूर्व
अथवा उत्तर दिशा की ओर मुख करके बैठ जाइए। ध्यान के समय को शनैः-शनैः तीन घण्टे तक बढ़ाइए । ब्रह्मचर्य तथा स्वास्थ्य के लिए शीर्षासन अथवा सर्वांगासन कीजिए। हलके शारीरिक व्यायाम (जैसे टहलना आदि) नियमित रूप से कीजिए। बीस बार प्राणायाम कीजिए ।
३. जप - अपनी रुचि या प्रकृति के अनुसार किसी भी मन्त्र (जैसे 'ॐ', 'ॐ नमो नारायणाय', 'ॐ नमः
शिवाय', 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय', 'ॐ श्री शरवणभवाय नमः', 'सीताराम', 'श्री राम', 'हरि ॐ' या गायत्री) का १०८ से २१,६०० बार प्रतिदिन जप कीजिए (मालाओं की संख्या १ और २०० के बीच ) ।
४. आहार-संयम- शुद्ध सात्त्विक आहार लीजिए। मिर्च, इमली, लहसुन, प्याज, खट्टे पदार्थ, तेल, सरसों तथा
हींग का त्याग कीजिए। मिताहार कीजिए। आवश्यकता से अधिक खा कर पेट पर बोझ न डालिए। वर्ष में एक या दो बार एक पखवाड़े के लिए उस वस्तु का परित्याग कीजिए जिसे मन सबसे अधिक पसन्द करता है। सादा भोजन कीजिए। दूध तथा फल एकाग्रता में सहायक होते हैं। भोजन को जीवन-निर्वाह के लिए औषधि के समान लीजिए। भोग के लिए भोजन करना पाप है। एक माह के लिए नमक तथा चीनी का परित्याग कीजिए। बिना चटनी तथा अचार के केवल चावल, रोटी तथा दाल पर ही निर्वाह करने की क्षमता आपमें होनी चाहिए। दाल के लिए और अधिक नमक तथा चाय, काफी और दूध के लिए और अधिक चीनी न माँगिए ।
५. ध्यान कक्ष- ध्यान कक्ष अलग होना चाहिए। उसे ताले- कुंजी से बन्द रखिए ।
६. दान — प्रतिमाह अथवा प्रतिदिन यथाशक्ति नियमित रूप से दान दीजिए अथवा एक रुपये में दस
पैसे के हिसाब से दान दीजिए।
७. स्वाध्याय— गीता, रामायण, भागवत, विष्णुसहस्रनाम, आदित्यहृदय, उपनिषद्, योगवासिष्ठ, बाइबिल,
जेन्द-अवस्ता, कुरान आदि का आधा घण्टे तक नित्य स्वाध्याय कीजिए तथा शुद्ध विचार रखिए ।
८. ब्रह्मचर्य— बहुत ही सावधानीपूर्वक वीर्य की रक्षा कीजिए। वीर्य विभूति है। वीर्य ही सम्पूर्ण शक्ति है।
वीर्य ही सम्पत्ति है। वीर्य जीवन, विचार तथा बुद्धि का सार है।
९. स्तोत्र - पाठ - प्रार्थना के कुछ श्लोकों अथवा स्तोत्रों को याद कर लीजिए। जप अथवा ध्यान आरम्भ करने से
पहले उनका पाठ कीजिए । इसमें मन शीघ्र ही समुन्नत हो जायेगा।
१०. सत्संग — निरन्तर सत्संग कीजिए। कुसंगति, धूम्रपान, मांस,शराब आदि का पूर्णतः त्याग कीजिए।
बुरी आदतों में न फँसिए।
११. व्रत — एकादशी को उपवास कीजिए या केवल दूध तथा फल पर निर्वाह कीजिए।
१२. जप - माला जप माला को अपने गले में पहनिए अथवा जेब में रखिए। रात्रि में इसे तकिये के नीचे
रखिए।
१३. मौन व्रत – नित्यप्रति कुछ घण्टों के लिए मौन-व्रत कीजिए ।
१४. वाणी-संयम- प्रत्येक परिस्थिति में सत्य बोलिए। थोड़ा बोलिए। मधुर बोलिए।
१५. अपरिग्रह — अपनी आवश्यकताओं को कम कीजिए। यदि आपके पास चार कमीजें हैं, तो इनकी संख्या
तीन या दो कर दीजिए। सुखी तथा सन्तुष्ट जीवन बिताइए। अनावश्यक चिन्ताएँ त्यागिए । सादा जीवन व्यतीत कीजिए तथा उच्च विचार रखिए।
१६. हिंसा-परिहार-कभी भी किसी को चोट न पहुँचाइए (अहिंसा परमो धर्मः) । क्रोध को प्रेम, क्षमा तथा दया से
नियन्त्रित कीजिए ।
१७. आत्म-निर्भरता-सेवकों पर निर्भर न रहिए। आत्म- निर्भरता सर्वोत्तम गुण है।
१८. आध्यात्मिक डायरी - सोने से पहले दिन भर की अपनी गलतियों पर विचार कीजिए। आत्म-विश्लेषण
कीजिए। दैनिक आध्यात्मिक डायरी तथा आत्म-सुधार रजिस्टर रखिए। भूतकाल गलतियों का चिन्तन न कीजिए। की
१९. कर्तव्य पालन — याद रखिए, मृत्यु हर क्षण आपकी प्रतीक्षा कर रही है। अपने कर्तव्यों का पालन करने में
न चूकिए। सदाचारी बनिए।
२०. ईश-चिन्तन- प्रातः उठते ही तथा सोने से पहले ईश्वर का चिन्तन कीजिए। ईश्वर को पूर्ण आत्मार्पण
कीजिए।
यह समस्त आध्यात्मिक साधनों का सार है। इससे आप मोक्ष प्राप्त करेंगे। इन नियमों का दृढ़तापूर्वक पालन करना चाहिए। अपने मन को ढील न दीजिए।
(१) जन्म ही मृत्यु का कारण है।
(२) दुःख का कारण सुख है।
(३) सदाचार सब धर्मों की आधारशिला है।
(४) सदाचार दिव्य मार्ग है।
(५) सदाचार ही आनन्द प्राप्त करा सकता है।
(६) कामना ही दरिद्रता है।
(७) ध्यान एक रचनात्मक, अत्यावश्यक और गतिशील प्रक्रिया है।
(८) भले बनो। भला करो। सेवा करो। प्रेम करो। दान दो। पवित्र बनो। ध्यान करो। भगवान् का साक्षात्कार
करो। यह शिव का धर्म है। यह दिव्य जीवन संघ के सदस्यों का धर्म है।
(९) कृपालु रहो। दयालु रहो। ईमानदार रहो। निष्कपट रहो। सत्यनिष्ठ बनो। शूर बनो। शुद्ध रहो। बुद्धिमान्
बनो। नेक बनो। विचार करो— 'मैं कौन हूँ।' आत्मा को जानो और मुक्ति पाओ। शिव की शिक्षा का यह सार-संक्षेप है।
(१०) अपना पूरा जीवन प्रभु को समर्पित कर दो। वह हर प्रकार से तुम्हारी देखभाल करेगा और तुम्हें कोई
चिन्ता नहीं रहेगी।
(११) दिव्य जीवन प्रेम, ज्ञान और प्रकाश का जीवन है।
(१२) उठो । हे साधको! कड़ी साधना करो। सारी अशुद्धता जला दो। ध्यान के द्वारा प्रबोधन प्राप्त करो।
यस्य देवे परा भक्तिः यथा देवे तथा गुरौ ।
तस्यैते कथिता ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः ।।
'आध्यात्मिक सत्य केवल उसी मनुष्य के सामने प्रकट होते हैं। जिसके मन में ईश्वर के प्रति अगाध भक्ति हो और उतनी ही अगाध भक्ति 'अपने गुरु के प्रति भी हो'—यह उपनिषदों का कहना है। परम तत्त्व अथवा ईश्वर जो कि मन और इन्द्रियों से, बुद्धि-व्यापार और तर्क से परे है, सैकड़ों वर्षों तक भी ग्रन्थों के पढ़ने या बौद्धिक कसरत करते रहने से ज्ञात नहीं हो सकता। इस तरह की पढ़ाई करने वाले व्यक्ति से परम तत्त्व उतना ही दूर है जितना कि अफ्रीका के किसी आदिवासी से चीनी वर्णमाला।
दूसरी ओर गुरु का एक भी शब्द, गुरु के हाथ का एक भी स्पर्श, गुरु का एक भी विचार साधक की प्रज्ञा को जगाने और परम तत्त्व या ईश्वर का सहजानुभूत साक्षात्कार कराने में समर्थ हो सकता है। वह गुरु के साथ आध्यात्मिक तादात्म्य स्थापित कर सके। वह इस योग्यता को कैसे प्राप्त करेगा ? श्रीकृष्ण ने कहा है :
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ।।
आत्म-साक्षात्कार करने वाले ज्ञानी पुरुषों को भली प्रकार दण्डवत् प्रणाम तथा उनकी सेवा और उनसे निष्कपट भाव से प्रश्न करके परम ज्ञान को जान। वे तुझे प्रबुद्ध करेंगे। अर्थात् साधक नम्रता, जिज्ञासा तथा सेवा के गुणों द्वारा उपर्युक्त योग्यता प्राप्त कर सकता है।
इस उज्ज्वल सत्य का ज्वलन्त उदाहरण (शंकराचार्य के चार प्रसिद्ध शिष्यों में से एक) त्रोटक है। वह शास्त्रों का अध्ययन करने के बजाय गुरु की सेवा में ही रत रहा। अन्त में श्री शंकराचार्य ने केवल एक संकल्प से त्रोटक को परम ज्ञान प्रदान किया और इस प्रकार त्रोटक ने गुरु की सेवा करके ही सभी शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त कर लिया।
इसलिए निष्ठावान् साधक की इस बात में दृढ़ श्रद्धा होती है कि :
ध्यानमूलं गुरोर्मूर्तिः पूजामूलं गुरोः पदम् ।
मन्त्रमूलं गुरोर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरोः कृपा ।।
गुरु की मूर्ति ही ध्यान करने योग्य है। गुरु के चरण ही पूजा के पात्र हैं। गुरु के वचन ही वेदवाक्य हैं और गुरु की कृपा ही मोक्ष का आधार है।
मैं तुम्हें एक सन्त की कहानी सुनाऊँगा। वे ईश्वरीय पुरुष हैं। ईश्वरीय पुरुष समस्त मानव-जाति के लिए वरदान होता है। वह सबका सच्चा उपकारक होता है। वह सबको ईश्वर के मार्ग पर ले चलता है। वह प्रसन्नता का मार्ग प्रशस्त करता है। वह एकता और प्रेम की शिक्षा देता है। ईश्वरीय पुरुष दुर्लभ होता है। उसे साक्षात् ईश्वर ही मान कर उसकी पूजा की जाती है।
इस सन्त का जन्म ८ सितम्बर १८८७ को हुआ था। वह एक अच्छे बालक थे। अपनी बाल्यावस्था से ही वह दयालु, सदाचारी तथा ईश्वर भक्त थे । वह बहुत परिश्रमी थे। वह अपनी पढ़ाई मन लगा कर करते थे। वह अच्छे कसरती थे। उनका जीवन सभी दृष्टियों से विकसित था । तुम्हें भी उनकी तरह बनना चाहिए। जब काम करने का समय हो तब काम करना चाहिए। खेलने के समय खेलना चाहिए। अपने शरीर की भी चिन्ता तुम्हें रखनी चाहिए और उसे स्वस्थ बनाना चाहिए। अपनी मानसिक शक्ति और बुद्धि का विकास भी तुम्हें करना चाहिए।
स्कूल की पढ़ाई समाप्त करने के बाद वह मेडिकल कालेज में पढ़ने गये। उनका लक्ष्य रोगियों की सेवा करना था। मेडिकल कॉलेज में वह पहले से भी अधिक प्रतिभाशाली विद्यार्थी बन गये। पढ़ाई के दूसरे वर्ष में पहुँचते-पहुँचते वह पांचवें वर्ष के विद्यार्थियों के समान योग्य बन गये।
फिर उन्होंने नौकरी कर ली। उन्हें धन की चिन्ता नहीं रहती थी। दिन-रात कभी भी रोगी उनके घर में पहुँच जाते थे। उन्होंने एक पत्रिका निकाली। इस पत्रिका में वे स्वास्थ्य और सफाई से सम्बन्धित लेख प्रकाशित किया करते थे । तुम्हें भी स्वास्थ्य की सफाई की जानकारी होनी चाहिए। तभी तुम दूसरों की सेवा ठीक से कर सकते हो।
बंगाल की खाड़ी के उस पार मलाया में— जहाँ चाय के बड़े-बड़े बगीचे हैं— जोहोर - बहरू स्थित एक अस्पताल में किसी अच्छे डाक्टर की जरूरत थी। वह वहाँ डाक्टर बन कर चले गये। वह रात-दिन रोगियों की सेवा करने लगे। जल्दी ही वह एक प्रसिद्ध डाक्टर बन गये। उन्होंने सबका दिल जीत लिया। इतने दिनों बाद आज भी मलाया के लोग उनको याद करते हैं और उनके प्रति कृतज्ञ हैं। सच्ची सेवा की यही महिमा है। उन्होंने बहुत धन अर्जित किया। इस धन को वे दान में दे देते थे । उनका हृदय बहुत विशाल था ।
सन् १९२३ में उन्होंने संसार का त्याग कर दिया। उन्होंने नौकरी से इस्तीफा दे दिया। अपनी सम्पत्ति उन्होंने गरीबों में बाँट दी। वह भारत लौट आये और साधु बन गये। भिक्षा माँग कर जो-कुछ मिलता, उसे खा लेते और सड़क की पटरी पर सोये रहते। कितनी तकलीफ उठाते थे वह ! मलाया में तो वह राजाओं के ठाटबाट से रहते थे। एकदम से वह गरीबी का जीवन व्यतीत करने लगे। त्याग में इतनी शक्ति होती है!
वह स्वर्गाश्रम (ऋषिकेश) में रहने लगे। सन् १९२८ में उन्होंने संन्यास ग्रहण किया। अब वह संन्यासी या स्वामी बन गये। स्वामी डाक्टर के रूप में रोगियों की सेवा करते रहे। सेवा करना उन्हें बहुत अच्छा लगता था। वह हमेशा अपने साथ दवाइयों का एक छोटा बक्सा रखते थे। वे गम्भीर रोगों का भी निर्भय हो कर इलाज करते थे। उनके हाथ में रोगियों को ठीक करने की एक दिव्य शक्ति थी। वह जिस रोगी को भी छू लेते, वह ठीक हो जाता। उनके पास थोड़ा धन बचा था, लेकिन उसे वह अपने ऊपर खर्च नहीं करते थे। वह भिक्षा माँग कर जीवन निर्वाह कर लेते थे और उस धन से रोगियों के लिए फल-दूध खरीद लिया करते थे। उनका हृदय दया का सागर था।
उन्होंने ब्रह्म का साक्षात्कार किया। उनका व्यक्तित्व बहुत ओजस्वी था। लोग उन्हें देख कर उनकी ओर आकर्षित हो जाते थे। अगणित साधक उनके पास पहुँचे। कई साधक उनके शिष्य बन गये। वे उन्हें योग-शिक्षा दिया करते थे। वे योग पर लेख भी लिखते थे। ये लेख विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित होते थे। उन्होंने छोटी-छोटी किताबें भी लिखीं। चिकित्सा के बाद पुस्तक-लेखन के माध्यम से उन्होंने दूसरी महत्त्वपूर्ण सेवा की।
जिस स्थान पर वे रहते थे, वह स्थान धीरे-धीरे आश्रम बन गया। सन् १९३६ में उन्होंने एक संघ (सोसायटी) की स्थापना की। इसका नाम 'दिव्य जीवन संघ' (द डिवाइन लाइफ सोसायटी) है। यह एक बहुत बड़ी संस्था बन गया है। इसकी शाखाएँ पूरे विश्व भर में हैं। साधकों को प्रशिक्षण देने के लिए उन्होंने 'योग-वेदान्त फारेस्ट एकाडेमी' भी स्थापित की। इन सबके द्वारा उन्होंने पूरे विश्व की सेवा की। सेवा ही उनके जीवन का लक्ष्य था । सेवा के ही कारण वह एक महान् सन्त बन गये ।
उन्होंने योग पर ३०० से अधिक पुस्तकें लिखीं। सारा विश्व उनकी पूजा करता था। इसके बावजूद वह बच्चों की तरह सरल थे। वह अत्यन्त सहज थे, दयालु थे, स्नेहमय थे, बुद्धिमान् थे। उन्होंने हमेशा अपने को एक विद्यार्थी ही समझा। वे हमेशा अधिक-से-अधिक ज्ञान अर्जित करने को उत्सुक रहते थे। उनके मुँह से कटु शब्द कभी भी नहीं निकले। उन्होंने सबको मान-सम्मान दिया। वे सबके सम्मुख श्रद्धा से झुक जाते थे। उन्होंने सदैव दूसरों की भलाई के लिए कार्य किया। वे सदैव ही बहुत सक्रिय रहे। अपने कार्य तथा साधना में वे नियमित भी रहे। वे शान्त स्वभाव के थे तथा सदैव प्रसन्न रहते थे। उनके व्यक्तित्व से प्रसन्नता की किरणें फूटी पड़ती थीं।
किसी भी घटना या व्यक्ति का उनके ऊपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता था। वे शान्तिमय थे । जिन महान् सन्त की यह कहानी है, उनका नाम है स्वामी शिवानन्द । उन्होंने ही तुम्हारे लिए इस पुस्तक में बड़ी सुन्दर और शिक्षाप्रद कहानियाँ लिखी हैं।
-स्वामी वेंकटेशानन्द
प्रिय अमृत - पुत्र !
आप मातृभूमि की भावी आशा हैं। आप कल बनने वाले नागरिक हैं। आपको सर्वदा जीवन के लक्ष्य पर विचार करना चाहिए और उसे प्राप्त करने के लिए ही जीवन बनाना चाहिए। जीवन का लक्ष्य है सर्व दुःखों की की प्राप्ति या जन्म मरण से आत्यन्तिक निवृत्ति अथवा कैवल्य-पद की प्राप्ति छुटकारा ।
सुव्यवस्थित नैतिक जीवन-यापन कीजिए। नैतिक बल आध्यात्मिक उन्नति का पृष्ठवंश है। चारित्र्य-गठन आध्यात्मिक साधना का एक मुख्य अंग है। ब्रह्मचर्य का पालन कीजिए। ब्रह्मचर्य के पालन से अनेक पूर्वकालीन ऋषियों ने अमृतत्व प्राप्त किया था। यह नवीन शक्ति, वीर्य, बल, जीवन में सफलता और जीवन के उपरान्त नित्य-सुख का स्रोत है। वीर्य के नाश से रोग, क्लेश और अकाल-मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं; इसलिए वीर्य-रक्षा के लिए विशेष सावधान रहो।
ब्रह्मचर्य के अभ्यास 'अच्छा स्वास्थ्य, आन्तरिक शक्ति, मानसिक शान्ति और दीर्घ जीवन प्राप्त होते हैं। यह मन और स्नायुओं को सबल बनाता है, शारीरिक और मानसिक शक्ति के संचय में सहायता देता है। यह बल और साहस की वृद्धि करता है। इससे जीवन के दैनिक संग्राम में कठिनाइयों का सामना करने के लिए बल प्राप्त होता है। पूर्ण ब्रह्मचारी विश्व पर शासन कर सकता है। वह ज्ञानदेव के समान पंच-तत्त्वों तथा प्रकृति को नियन्त्रित कर सकता है।
वेदों में तथा मन्त्रों की शक्ति में श्रद्धा बढ़ाओ। नित्य-प्रति ध्यान का अभ्यास करो। सात्त्विक भोजन करो। पेट को ठूंस-ठूंस कर मत भरो। अपनी भूलों के लिए पश्चात्ताप करो। मुक्त-हृदय से अपनी भूलों को स्वीकार करो। झूठ बोल कर या बहाना बना कर अपनी भूल को छिपाने की कभी चेष्टा मत करो। प्रकृति के नियमों का पालन करो। नित्य-प्रति खूब शारीरिक व्यायाम करो। अपने कर्तव्यों का पालन यथा-समय करो। सरल जीवन और उन्नत विचारों का विकास करो। वृथा अनुकरण करना छोड़ दो। कुसंगति से जो बुरे संस्कार बन गये हों, उनकी काया पलट कर दो। उपनिषद्, योगवासिष्ठ, ब्रह्मसूत्र, श्री शंकराचार्य के ग्रन्थ तथा अन्य शास्त्रों का स्वाध्याय करो। इनसे आपको वास्तविक शान्ति और सान्त्वना प्राप्त होगी। कुछ पाश्चात्य दार्शनिकों ने यह उद्गार प्रकट किया है—“जन्म और धर्मानुसार हम ईसाई हैं; किन्तु जिस शान्ति को हमारा मन चाहता है, वह शान्ति उपनिषदों के अध्ययन से ही मिल सकती है।"
सबके साथ मिल कर रहो। सबसे प्रेम करो। अपने को परिस्थितियों के अनुकूल बनाने का प्रयत्न करो और निःस्वार्थ सेवा का भाव विकसित करो। अथक सेवा के द्वारा सबके हृदय में प्रवेश करो। अद्वैत-प्रतिपादित आत्मा की अभिन्नता के साक्षात्कार का यही उपाय है।
-स्वामी शिवानन्द
विषय-सूची
बीस महत्त्वपूर्ण आध्यात्मिक नियम
८. सन्तों की जीवनियों का अध्ययन करो
८. सूर्य की किरणों से आँखों की ज्योति बढ़ती है
३. अपना कर्तव्य भली प्रकार पूरा करो
२०. बड़ों की आज्ञा का पालन करो
१२. आइ. सी. एस. और पी. सी. एस.
१५. ईश्वर तुम्हें मन से चाहेगा
१९. जल्दबाजी से बरबादी होती है।
२०. घमण्ड हमेशा पतन की ओर ले जाता है।
२१. अविवेक की अपनी हानियाँ हैं
२२. स्वार्थ और तुच्छता से 'दुःख भोगना पड़ता है
२३. प्रलोभन से मुसीबत उठानी पड़ती है।
२४. बुराई का बदला भलाई से चुकाओ
२५. अपने प्रति जैसा व्यवहार चाहते हो, वैसा ही दूसरों के साथ करो
२६. दया का अपना पुरस्कार होता है।
२८. शिष्टता और स्वच्छता सबको प्रभावित करती हैं
२९. ईश्वर पर भरोसा रखो और सत्कर्म करो
३०. अपराधी अन्तःकरण अपनी छाया से भी डरता है
३१. आपसी सहायता और सहयोग से सुख मिलता है
३२. अच्छे जीवन से ईश्वरमय जीवन प्राप्त होता है
३३. जो दूसरों के लिए गड्ढा खोदता है, वह खुद उसी गड्ढे में गिरता है
बच्चो, तुम्हें ईश्वर ने बनाया। तुम्हारे भाई, बहन, माता, पिता, मित्र और बन्धु — सबको ईश्वर ने ही बनाया। सूर्य, चन्द्र और तारे ईश्वर ने बनाये। पशु-पक्षियों को उन्होंने बनाया। पर्वत, नदी, वृक्ष आदि उन्हीं ने बनाये और सारा विश्व उन्हीं ने बनाया।
ईश्वर तुम्हारे हृदय में बसते हैं। वह हर जगह हैं। वह सर्वव्यापी हैं, सर्वज्ञ हैं, सर्वशक्तिमान् हैं, परम कृपालु हैं तथा आनन्दमय हैं। तुम्हारा शरीर ईश्वर का चलता-फिरता मन्दिर है। शरीर को शुद्ध, मजबूत और स्वस्थ रखो।
सदा ईश्वर की प्रार्थना करो। वह तुम्हें सब-कुछ देंगे।
ईश्वर प्रेम हैं। ईश्वर सत्य हैं। ईश्वर शान्ति हैं। ईश्वर आनन्द हैं। ईश्वर प्रकाश हैं। ईश्वर शक्ति हैं। ईश्वर ज्ञान हैं। उनका दर्शन करो और मुक्ति पाओ ।
नित्य सुबह-शाम कीर्तन करो। नित्य प्रार्थना करो। ईश्वर को फूल चढ़ाओ। उन्हें नमस्कार करो। मिठाई पहले उन्हें चढ़ाओ, फिर खाओ। उनके आगे दीप रखो, कपूर जलाओ। उनकी आरती उतारो। उन्हें माला पहनाओ:
बालकों के लिए दिव्य जीवन सन्देश अपने कमरे में ईश्वर का चित्र रखो। नित्य उसकी पूजा करो। तुम्हारी सारी कामनाएँ पूरी होंगी।
हे विश्व के स्वामी! आपको नमस्कार! आप मेरे गुरु हैं। आप ही माता हैं, पिता हैं और सही मार्ग-दर्शक हैं। मेरी रक्षा करें। मैं आपका हूँ। सब आपका है। आपकी ही इच्छा पूरी होगी।
हे पूजनीय प्रभु! आपको नमस्कार! मुझे सन्मति दें। मुझे शुद्ध बनायें। मुझे प्रकाश दें, शक्ति दें, स्वास्थ्य दें और दीर्घ आयु दें। मुझे एक अच्छा ब्रह्मचारी बनायें ।
हे सर्वशक्तिमान् प्रभु! मेरे सारे दोष मिटायें। मुझे गुणवान् बनायें। मुझे देश - भक्त बनायें जिससे मैं अपनी मातृभूमि से प्यार कर सकूँ।
हे प्रिय ईश्वर! आप मेरे पापों और बुरे कामों को क्षमा करें। आपने जो-जो वरदान दिये हैं, उनके लिए आपको धन्यवाद देता हूँ। आप मेरे प्रति बड़े दयालु हैं। मैं सदा आपका ही स्मरण करूँ।
मुझे कर्तव्यपरायण बनायें। मेरी परीक्षाओं में मुझे सफलता दें। मुझे भला और प्रतिभाशाली बालक (बालिका) बनायें। आपको प्रणाम!
मेरी स्मरण शक्ति तेज हो। मैं सबसे प्रेम करूँ, सबकी सेवा करूँ, सबमें मैं आपको देखूँ। मेरी उन्नति करें। मेरी रक्षा करें। मेरी माता की, मेरे पिता की, दादा-दादी की, भाई-बहन की— सबकी रक्षा करें। आपकी जय हो !
रविवार के दिन भगवान् सूर्य की पूजा करो। ये मन्त्र जपो -ॐ मित्राय नमः, ॐ सूर्याय नमः, ॐ आदित्याय नमः । भगवान् सूर्य तुम्हें अच्छी तन्दुरुस्ती देंगे, तेज देंगे और सुन्दर दृष्टि देंगे।
सोमवार के दिन भगवान् शिव की पूजा करो। मंगल और शुक्रवार के दिन देवी की पूजा करो। बृहस्पतिवार के दिन गुरु की पूजा करो। शनिवार के दिन हनुमान् की पूजा करो। तुम्हें समृद्धि, शान्ति, ऐश्वर्य और सफलता मिलेगी।
भगवान् ब्रह्मा इस संसार को बनाने वाले देव हैं। सरस्वती विद्या की देवी हैं। वह ब्रह्मा की शक्ति अथवा पत्नी हैं। भगवान् विष्णु इस संसार के पालन करने वाले देव हैं। लक्ष्मी देवी उनकी शक्ति अथवा पत्नी हैं। वह सम्पत्ति की देवी हैं। भगवान् शिव इस संसार के संहार करने वाले देव हैं। उमा अर्थात् पार्वती उनकी शक्ति अथवा पत्नी हैं। भगवान् गणेश उनके बड़े पुत्र हैं। भगवान् सुब्रह्मण्य उनके दूसरे पुत्र हैं।
भगवान् गणेश सभी प्रकार के विघ्नों का नाश करने वाले देव हैं। भगवान् सुब्रह्मण्य सब प्रकार की सफलता और शक्ति देने वाले हैं। श्रद्धा और भक्ति से उनकी पूजा करो। इससे भक्ति, भुक्ति (सांसारिक सुख) और मुक्ति तीनों मिलती हैं।
ईश्वर तुम्हें प्यार करते हैं। वह तुम्हें अच्छे-अच्छे पदार्थ देते हैं, खाने को भोजन और पहनने को वस्त्र देते हैं। उन्होंने तुम्हें सुनने को कान दिये हैं, देखने को आँखें दी हैं, सूँघने को नाक दी है, स्वाद लेने को जीभ दी है, काम करने को हाथ और चलने को पैर दिये हैं।
तुम अपनी इन आँखों से ईश्वर को नहीं देख सकते; परन्तु वह तुम्हें देखते हैं। वह तुम्हारा ध्यान रखते हैं। तुम्हारे हर काम के बारे में वह जानते हैं।
वह तुम पर अपार कृपा रखते हैं। उनसे प्रेम करो। उनकी स्तुति करो। उनका नाम और उनकी महिमा गाओ। उनसे प्रार्थना करो कि वह तुम्हें सब पापों से बचायें। वह तुमसे प्रसन्न होंगे और आशीर्वाद देंगे।
गायत्री वेदों की पवित्र माता हैं। तुम्हारी माँ की भी वह माँ हैं। वह एक देवी हैं। यदि तुमने जनेऊ धारण किया है तो प्रतिदिन प्रातः, मध्याह्न और सन्ध्या-काल में गायत्री का जप करो। नियमित रूप से सन्ध्या करो। सूर्य को अर्घ्य प्रदान करो।
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं ।
भर्गो देवस्य धीमहि
धियो यो नः प्रचोदयात् ।।
"हम उन ईश्वर का और उनकी महिमा का ध्यान करते हैं, जिन्होंने विश्व को बनाया है, जो पूज्य हैं, जो सब प्रकार के पापों और अज्ञान का नाश करने वाले हैं। वह हमारी बुद्धि को प्रेरणा दें।"
गायत्री माता तुम्हें स्वास्थ्य, दीर्घ आयु और समृद्धि दें!
रमेश! गुलाब को देखो। वह कितना सुन्दर है! उसकी सुगन्धि कितनी अच्छी है! तुम उसे चाहते हो। उसे तोड़ते और सूँघते हो। क्या कोई वैज्ञानिक गुलाब बना सकता है? तुम कागज का बढ़िया गुलाब बना सकते हो, लेकिन उसमें वह सुगन्धि न होगी ।
गुलाब जल्दी ही मुरझा जाता है और उसका सौन्दर्य और सुगन्धि नष्ट हो जाती है। फिर तुम उसे फेंक देते हो। वह नश्वर है। उसका सौन्दर्य कुछ ही क्षणों का है।
उस सुन्दर फूल को किसने बनाया? उसके रचयिता ईश्वर हैं। वह सौन्दर्यों के सौन्दर्य हैं। उनमें शाश्वत सौन्दर्य है। उनको प्राप्त करो। तुम्हारे अन्दर भी परम सौन्दर्य आयेगा । सौन्दर्य ईश्वर है। सर्वदा सही और गलत का, असली और नकली का भेद पहचानो ।
ईश्वर एक ही है; लेकिन उनके नाम और रूप अनन्त हैं। उन्हें कोई भी नाम दो। जो भी रूप तुम्हें पसन्द हो, उस रूप में उनको पूजो। उनका दर्शन अवश्य होगा और उनकी कृपा और आशीर्वाद अवश्य मिलेगा।
भगवान् शिव हिन्दुओं के भगवान् हैं। अल्लाह मुसलमानों के भगवान् हैं। जुहोवा यहूदियों के भगवान् हैं। अहुरमज्द पारसियों के भगवान् हैं।
घृणा और गर्व का अभाव, शुचिता, दान, इन्द्रियों का निग्रह, तपस्या, सत्यनिष्ठा, त्याग, प्राणिमात्र पर करुणा, धैर्य, क्षमा- ये सब ईश्वर-प्राप्ति के साधन हैं।
प्रत्येक धर्म ईश्वर-प्राप्ति का मार्ग बतलाता है । प्रत्येक धर्म के केन्द्र-बिन्दु ईश्वर हैं।
तुम अपने ईसाई मित्रों से झगड़ो नहीं, मुसलमान मित्रों और पारसी मित्रों से लड़ो नहीं। उनका धर्म उन्हें ईश्वर की ओर उसी तरह से ले जाता है। जैसे तुम्हारा धर्म तुम्हें ले जाता है। ईश्वर की ओर जाने वाले किसी भी मार्ग से चल कर ईश्वर तक पहुँचा जा सकता है। 'सभी मार्ग ईश्वर की ओर जाते हैं' -मन में इस बात का ध्यान रखो।
एक महान् मुनि थे पराशर । उनकी पत्नी का नाम सत्यवती था । उनके एक तेजस्वी पुत्र का नाम द्वैपायन था। सत्यवती देवी मछुवारों की पुत्री थी, लेकिन उनके पुत्र (द्वैपायन) विख्यात ऋषि थे । उन्होंने कई ग्रन्थ लिखे। चारों वेदों का ऋक्, यजुस्, साम और अथर्व नाम से उन्होंने वर्गीकरण किया। वेदों का संकलन भी किया। इसीलिए उनका नाम वेदव्यास पड़ा ।
उन्होंने 'महाभारत' ग्रन्थ लिखा। उसमें संसार-भर का ज्ञान समाया हुआ है। उन्होंने अष्टादश पुराण लिखे। उन्होंने 'वेदान्त-सूत्र' लिखे। वह एक महान ज्ञानी थे।
उनके एक पुत्र थे शुक। वह भी बड़े तेजस्वी ऋषि थे। उनको सर्वत्र ईश्वर - दर्शन होता था।
व्यास की अपने गुरु के रूप में पूजा करो। तुम्हें उनकी कृपा प्राप्त होगी। महर्षि शुक के समान ऋषि बनो ।
श्री विद्यारण्य मुनि का दूसरा नाम माधवाचार्य है। अद्वैत-ज्ञान में श्री शंकराचार्य के बाद उन्हीं का नाम लिया जाता है। चारों वेदों पर उन्होंने भाष्य लिखे; ‘पंचदशी', ‘अनुभूति-प्रकाश', 'जीवन्मुक्तविवेक' आदि कई ग्रन्थ लिखे । वह महा तपस्वी थे। उन्हें गायत्री देवी का वर प्राप्त था। दक्षिण भारत में हम्पी के पास गायत्री देवी ने स्वर्ण-वृष्टि की थी।
हुक्का और बुक्का नाम के दो भाइयों की सहायता से उन्होंने विजयनगर साम्राज्य की स्थापना की थी। इसी से वह एक राष्ट्र-निर्माता कहलाते हैं। उन्होंने प्रजा को मुहम्मद बिन तुगलक तथा उसके उत्तराधिकारियों के दमन और अत्याचार से बचाया था।
विद्यारण्य एक आदर्श मुनि थे। तपस्या, सदाचार, ज्ञान और त्याग में तुम विद्यारण्य के समान बनो ।
एक शाक्य राजा थे। उनका नाम शुद्धोदन था। उनका सिद्धार्थ नाम का एक पुत्र था। प्रारम्भ से ही सिद्धार्थ का हृदय बड़ा कोमल था। वह सब पर करुणा भाव रखते थे। एक दिन रास्ते में उन्होंने एक शव देखा, जिसे लोग कन्धे पर उठाये ले जा रहे थे। उन्हें पता चला कि वह भी एक दिन इसी प्रकार मरने वाले हैं। दूसरी बार उन्होंने एक चील को निर्दयतापूर्वक एक फाखता खाते हुए देखा। इसी प्रकार उन्होंने कई करुणाजनक प्रसंग देखे ।
संसार के दुःखों को देख कर सिद्धार्थ बेचैन हो उठे। उनको संसार से वैराग्य हो गया। एक रात वह अपनी पत्नी, बच्चे, परिवार और राज्य - सब कुछ छोड़ कर चुपके से जंगल में चले गये। एक बोधि-वृक्ष के नीचे बैठ कर तपस्या करने लगे। उन्हें वहाँ ज्ञान की प्राप्ति हुई, बोध मिला और तब से वे 'बुद्ध' कहलाने लगे।
उन्होंने संसार को अहिंसा का उपदेश दिया। तुम भी बुद्ध का हृदय रखो। संसार के इतिहास में बुद्ध का व्यक्तित्व बहुत ही उत्कृष्ट है।
श्री शंकराचार्य भारत के बहुत बड़े दार्शनिक थे। वे भगवान् शिव के अवतार थे। उन्होंने बहुत ही छोटी आयु में संन्यास ले लिया था। वे बड़े ज्ञानी थे। वे ईश्वर का वास्तविक स्वरूप जानते थे। हिन्दू-धर्म उन दिनों मिटने ही वाला था; क्योंकि बौद्ध-धर्म प्रबल होता जा रहा था। श्री शंकराचार्य ने उसे (हिन्दू-धर्म को) पुनर्जीवित किया। वे अद्वैत वेदान्त के परिपोषक थे।
उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र और भगवद्गीता पर उन्होंने भाष्य लिखे हैं। सोलह वर्ष की अवस्था से पहले ही वे सारे ज्ञान में पारंगत हो गये थे। शास्त्रार्थ में उन्होंने सभी पण्डितों और विद्वानों को परास्त किया। वेदान्त के प्रारम्भिक विद्यार्थियों के लिए उन्होंने एक पुस्तक लिखी है, जिसका नाम ‘विवेक-चूड़ामणि' है।
श्री शंकराचार्य ने लगभग १०८ ग्रन्थ लिखे हैं। भारत में जितने ज्ञानी पुरुष पैदा हुए हैं, उन सबमें श्री शंकराचार्य बड़े हैं । ३२ वर्ष की आयु में उनका देहावसान हो गया। अपने जीवन की इसी स्वल्पावधि में उन्होंने सारे भारतवर्ष को जगा दिया। शंकराचार्य की जय हो !
सिख गुरुओं में गुरु नानक प्रथम हैं। सन् १४६९ में तलवण्डी नामक स्थान में उनका जन्म हुआ था। उस स्थान को आजकल 'ननकाना साहेब' कहते हैं। वे सिख-धर्म के प्रवर्तक हैं। वे बचपन से ही धर्मात्मा थे।
नानक के पिता कालूजी चाहते थे कि उनका पुत्र उन्हीं की तरह दुकानदारी करे। नानक ने पढ़ाई-लिखाई छोड़ कर सारा समय सन्तों के साथ बिताना शुरू किया।
ईश्वर की स्तुति में उन्होंने कई पद लिखे हैं। उन पदों को एक ग्रन्थ में संकलित किया गया है जिसका नाम है 'ग्रन्थसाहेब' । सिख इस ग्रन्थ की पूजा करते हैं। उन्होंने हिन्दुओं और मुसलमानों में एकता स्थापित करने की कोशिश की। ७० वर्ष की आयु में सन् १५३९ में उनकी मृत्यु हुई।
ब्रह्मा के पुत्रों में महर्षि वसिष्ठ जी परम तेजस्वी थे । ब्रह्मा के प्राण से उनका जन्म हुआ था। जन्म से ही वे ब्रह्मज्ञानी थे। आध्यात्मिक शक्ति में वसिष्ठ की बराबरी करने वाला कोई दूसरा ऋषि नहीं हुआ । वे साक्षात् भगवान् थे। उनकी शक्ति का वर्णन कठिन है।
विश्वामित्र नाम के एक ऋषि वसिष्ठ को हराना चाहते थे। विश्वामित्र ने हजारों वर्ष तक तपस्या की और कई दिव्य अस्त्र प्राप्त किये। अब वे वसिष्ठ से युद्ध करने लगे। वसिष्ठ ने केवल संकल्प-बल से उन सारे अस्त्रों को विफल बना दिया। विश्वामित्र कुछ न कर सके। उनके सौ पुत्र और सारी सेना वसिष्ठ की अन्तःशक्ति से नष्ट हो गयी। वसिष्ठ की अन्तःशक्ति की और वसिष्ठ की जय हो !
वसिष्ठ एक आदर्श महर्षि हैं। प्रतिदिन उनकी पूजा करो । 'योगवासिष्ठ' नामक ग्रन्थ में उनके सारे उपदेश मिलते हैं।
प्रभु ईसामसीह ईसाई धर्म के प्रवर्तक हैं। वे एक महान् योगी थे। वे पैगम्बर थे, ईश्वर का सन्देश फैलाने वाले थे। उन्होंने अनेक चमत्कार किये। गरीबों और कोढ़ियों की सेवा की। कुमारी मरियम उनकी माता थीं।
भगवान् बुद्ध बौद्ध-धर्म के प्रवर्तक थे और वे भी पैगम्बर थे। वे बड़े कृपालु थे। वे एक राजकुमार थे।
मुहम्मद रसूल इस्लाम-धर्म के प्रवर्तक थे। वे भी नबी थे।
सभी धर्म एक हैं। किसी धर्म से द्वेष न करो। सब धर्मों से प्रेम करो। प्रत्येक धर्म अच्छा है । सब धर्म ईश्वर तक पहुँचने का मार्ग बताते हैं।
सन्तों का जीवन-चरित्र पढ़ने से तुम्हें ज्ञान मिलेगा। तुम भले बनोगे। तुममें सद्गुण विकसित होंगे। तुम ईश्वर का प्रत्यक्ष दर्शन करोगे।
तुकाराम, ज्ञानदेव, एकनाथ और रामदास -ये सब महाराष्ट्र के महान् सन्त थे । गौरांग महाप्रभु बंगाल के बड़े सन्त थे ।
मीराबाई, सखुबाई—ये महिलाएँ महान् सन्त थीं। गुरु नानक, कबीर, नरसी मेहता, तुलसीदास भी बहुत बड़े सन्त थे।
सन्त जोसेफ, सन्त फ्रांसिस, सन्त पैट्रिक महान् ईसाई सन्त थे । ये सारे सन्त तुम्हारा कल्याण करें!
गोस्वामी तुलसीदास श्री रामचन्द्र जी के महान् भक्त थे। अपनी प्रगाढ़ भक्ति के कारण उन्होंने श्री राम का प्रत्यक्ष दर्शन किया था। वे अपनी पत्नी पर बहुत आसक्त थे। उनकी पत्नी ही उनकी गुरु बनी।
उत्तर प्रदेश के बाँदा जिले में राजापुर नामक गाँव में सन् १५८९ में तुलसीदास का जन्म हुआ। जन्म से वे ब्राह्मण थे। पैदा होते समय उनके मुँह में बत्तीसों दाँत थे। जन्म के समय वे रोये नहीं थे।
गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित 'श्रीरामचरितमानस' (रामायण) हिन्दी-संसार में एक अनोखी कृति है। उत्तर प्रदेश में यह ग्रन्थ बहुत लोकप्रिय है। सारे उत्तर भारत में लोग इसे बड़ी श्रद्धा से पढ़ते हैं।
रामायण का पाठ नित्य प्रति करो। कुछ चौपाइयाँ कण्ठस्थ कर लो और गाओ।
अजामिल एक श्रद्धालु ब्राह्मण थे। वह रोज ईश्वर की पूजा करते थे। वह सबके प्रति दयालु थे। अपने काम में वह बड़े नियमित थे। वह एकादशी के दिन उपवास करते थे। वह एक आदर्श मनुष्य थे। भगवान् नारायण के वह भक्त थे । प्रार्थना-पूजा आदि वह नियमित रूप से करते थे।
एक दिन वह जंगल में गये। वहाँ उन्हें एक सुन्दर स्त्री मिली। उस पर वह मोहित हो गये। उससे विवाह कर लिया और तबसे ईश्वर का भजन-कीर्तन उन्होंने छोड़ दिया। वह पत्नी के प्रेम में डूब गये। उनके आठ पुत्र पैदा हुए। अब वह नास्तिक बन गये ।
मृत्यु-काल में उन्हें यमदूत दिखायी दिये। वह डर गये। जोर-जोर से चिल्लाने लगे। अपने छोटे लड़के नारायण को अपनी सहायता के लिए पुकारने लगे। नारायण का नाम सुनते ही भगवान् विष्णु के सेवक आ गये। और यमदूतों को भगा कर उन्हें वैकुण्ठ ले गये।
सर्वदा नारायण का नाम लो। अजामिल ने जान-बूझ कर नारायण का नाम नहीं लिया था, फिर भी भगवान् के आनन्द-धाम पहुँच गया। तुम श्रद्धा और भक्ति के साथ ईश्वर का नाम लोगे, तो कितना लाभ होगा !!
पुरन्दरदास नामक एक ब्राह्मण थे। वह बड़े लोभी और कंजूस थे। भगवान् कृष्ण ने उनके लोभ की परीक्षा लेनी चाही। वह एक भिखारी के रूप में आये और ब्राह्मण से भिक्षा माँगी। ब्राह्मण ने कुछ भी देने से इनकार कर दिया और दूसरे दिन आने को कहा। भिखारी दूसरे दिन भी आया। उस दिन भी ब्राह्मण ने भिखारी को दूसरे दिन आने को कहा। भिखारी महीनों तक इसी तरह प्रतिदिन आता रहा।
अन्त में एक दिन ब्राह्मण को बड़ा क्रोध आया और उसने एक पैसा उठा कर भिखारी के मुँह पर फेंक दिया। भिखारी ने पैसा छोड़ दिया और ब्राह्मण के घर के पिछवाड़े गया। ब्राह्मण की पत्नी ने अपनी नाक से नथ उतार कर उसे भिक्षा में दे दी। भिखारी वह नथ उसी ब्राह्मण के हाथ बेच कर पैसा ले कर चलता बना ।
ब्राह्मण को पत्नी पर बड़ा क्रोध आया। पूछा- “तुम्हारी नथ कहाँ है?” उसने कहा—“अभी मैं अन्दर से लाती हूँ।” पत्नी भय के कारण विष खा लेना चाहती थी, लेकिन नथ अपने स्थान पर रखी हुई उसे दिखायी पड़ी। नथ को उसने अपने पति के हाथ में रख दिया। पति को बड़ा आश्चर्य हुआ। तबसे वह सन्त और भगवान् का भक्त बन गया ।
मेरे प्रिय नारायण! भीष्म अथवा हनुमान् के समान ब्रह्मचारी बनो। हरिश्चन्द्र के समान सत्यवादी बनो। कर्ण के समान उदार और अर्जुन के समान वीर बनो ।
युधिष्ठिर के समान धर्मात्मा बनो। बुद्ध के समान कृपालु बनो । ध्रुव और प्रह्लाद के समान भक्त बनो। बृहस्पति के समान प्रतिभाशाली, भीम के समान पराक्रमी और श्री राम के समान कर्तव्यपरायण बनो ।
नचिकेता के समान ज्ञानी बनो। ज्ञानदेव के समान योगी और शिवाजी के समान बहादुर बनो ।
भगवान् श्री कृष्ण सारे विश्व के स्वामी हैं। राम और कृष्ण एक हैं। राम का जन्म अयोध्या में हुआ था और कृष्ण का मथुरा में । सीता राम की पत्नी थी और रुक्मिणी कृष्ण की ।
राम के हाथ में धनुष था और कृष्ण के हाथ में मुरली थी। राम ने रावण का संहार किया और कृष्ण ने कंस का नाश किया।
राम मर्यादापुरुषोत्तम हैं, कृष्ण लीलापुरुषोत्तम। राम के भाई लक्ष्मण थे और कृष्ण के भाई बलराम । सीताराम बोलो, राधेश्याम बोलो।
श्री हनुमान् पवनदेव (वायु) के पुत्र हैं। उनकी माता का नाम अंजनी देवी है । वह राम के महान् निष्ठावान् सेवक तथा दूत हैं। वह बड़े बलशाली वीर हैं। वह अखण्ड ब्रह्मचारी हैं।
उन्होंने लंका को भस्म किया। उन्होंने सीता को श्री राम की अँगूठी दी और सीता जी की चूड़ामणि ला कर श्री राम को दी। रावण-पुत्र अक्षयकुमार का उन्होंने संहार किया।
हनुमान् की तरह पराक्रमी और ब्रह्मचारी बनो। हनुमान् की पूजा करो। गाओ :
जय जय सीता राम की।
जय बोलो 'हनुमान् की ॥
भीष्म महान् वीर थे। वह ज्ञानी भी थे। वह न्यायप्रिय, धर्मात्मा और सत्यवादी थे। वह जो कहते थे, वही करते भी थे और वह वही कहते थे जो उन्हें करना होता। वह ब्रह्मचारी थे ।
उनके पिता का नाम था शान्तनु और माता का गंगा देवी। अपने पिता को प्रसन्न करने के लिए उन्होंने राज्य का त्याग किया। पुत्रोचित कर्तव्य पालन करने के लिए उन्होंने महान् त्याग किया।
उन्होंने अपनी इच्छा से शरीर-त्याग किया। राजा युधिष्ठिर को उन्होंने शरशय्या पर पड़े-पड़े धर्म का उपदेश दिया। वह सन्त-कोटि के योद्धा थे । हे नरेन्द्र, तुम भी भीष्म के समान बनो ।
द्रौपदी पाण्डवों की पत्नी थीं। कर्तव्यनिष्ठा, उदारता, सत्य, भक्ति, पातिव्रत्य, धर्मपरायणता आदि की वह साकार मूर्ति थीं। वह राजा द्रुपद की पुत्री थीं। उनके भाई का नाम धृष्टद्युम्न था ।
उन्होंने भगवान् शिव से सुयोग्य पति का वरदान पाँच बार माँगा था; इसलिए भगवान् ने वर दिया कि अगले जीवन में उनके पाँच पति होंगे। एक यज्ञ की अग्नि से उनका जन्म हुआ था।
भगवान् कृष्ण ने उन्हें अनन्त वस्त्रों का दान दिया और उनकी लाज बचायी। द्रौपदी कृष्ण के प्रति अगाध श्रद्धा रखती थीं। अर्जुन ने स्वयंवर में उन्हें प्राप्त किया।
प्रिय लीला! सीता भगवान् राम की पत्नी हैं और राजा जनक की पुत्री। रामायण की वह नायिका हैं। संसार भर में सबसे अधिक गुणवती और आदर्श महिला सीता हैं। भारतीय नारी के लिए सीता आज भी आदर्श हैं। वह लक्ष्मी देवी की अवतार हैं।
वह पवित्र थीं, उनका जीवन सादा था और राम के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा रखती थीं। वह एक आदर्श पत्नी थीं। पवित्रता और सहिष्णुता की वह मूर्त रूप थीं। वह आदर्श पतिव्रता थीं। उन्होंने अग्नि-परीक्षा