चिदानन्द आत्मकथा

 

Autobiography पुस्तक का हिन्दी अनुवाद

सादर प्रेमार्पण जन्म दिवस २४ सितम्बर २०२४

 

 

भावानुवादिका

स्वामी श्रीप्रियानन्द माताजी

 

प्रकाशक

 

डिवाइन लाइफ सोसायटी

पत्रालय : शिवानन्दनगर- २४९१९२

जिला : टिहरी गढ़वाल, उत्तराखण्ड (हिमालय),

भारत www.sivanandaonline.org, www.dlshq.org

 


 

प्रथम हिन्दी संस्करण : २०२४ (५०० प्रतियाँ)

 

डिवाइन लाइफ ट्रस्ट सोसायटी

 

HC - 07

 

PRICE: ₹85/-

 

' डिवाइन लाइफ सोसायटी, शिवानन्दनगर' के लिए स्वामी अद्वैतानन्द द्वारा प्रकाशित तथा उन्हीं के द्वारा 'योग-वेदान्त फॉरेस्ट एकाडेमी प्रेस, पो. शिवानन्दनगर, जि. टिहरी गढ़वाल, उत्तराखण्ड, पिन २४९१९२' में मुद्रित

 

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प्रकाशकीय

 

परम पूज्य स्वामी चिदानन्द जी महाराज ने, विश्व-कल्याणार्थ अति व्यस्त रहने तथा अति विनीत स्वभाव के कारण निजी अस्तित्व को कभी महत्ता नहीं दी। सद्गुरु भगवान् स्वामी शिवानन्द जी के एक सेवक रूप में ही जीवन पर्यन्त रहे, इसलिए अपनी आत्मकथा लेखन की आवश्यकता समझी ही नहीं। इस पुस्तक में स्वामीजी महाराज द्वारा लिखित कुछ आत्म-परिचयात्मक एवं आत्म-कथात्मक आलेखों एवं पत्रों को अत्यन्त सुन्दर रूप में संकलित किया गया है। इसमें प्रस्तुत उनके महान् जीवन- चरित की कतिपय झलकियाँ विदित कराती हैं कि किशोरावस्था के पूर्व से ही चिन्तनशील एवं अन्तर्मुखी प्रवृत्ति के कारण, अध्यात्म सम्बन्धी उत्कट जिज्ञासाएँ उनके अन्तर में समाहित थीं। अपने गुरु-गोविन्द के प्रति सर्वस्व समर्पण से उनमें अवशिष्ट कुछ रहा। अहंशून्यता की इस स्थिति में केवल शेष रहा - चित्-आनन्द - चिदानन्द

 

डिवाइन लाइफ सोसायटी


 

अन्तर्विषय

 

प्रणामांजलि................................................................................................................................... 7

सम्मिलन...................................................................................................................................... 9

आत्म परिचय.............................................................................................................................. 11

श्री गुरुदेव-चरणाश्रित................................................................................................................... 26

परमाध्यक्षीय प्रबोधन................................................................................................................... 39

पत्र एवं पत्रोत्तर अंश (पश्चिम की यात्रा-अवधि में)............................................................................. 45

शिरडी तीर्थ-संस्मरण................................................................................................................... 59

चिदानन्द हूँ ।। ....................................................................................................................... 64


 

श्रद्धा भाव पूरित


 

प्रणामांजलि

 

दिव्य परम सत्ता को सादर श्रद्धापूरित प्रणाम। इस धरती पर परमात्मा के प्रतिनिधि रूप में अवतरित सद्गुरुदेव को समादर प्रणिपात। हमारी आध्यात्मिक मातृभूमि भारतवर्ष के पावन सन्तों-महात्माओं, ऋषि-मुनियों, मनीषियों, भगवद्साक्षात्कार प्राप्त ब्रह्मज्ञानियों, अन्य महान् विभूतियों, यथा महर्षि व्यास, वशिष्ठ, याज्ञवल्क्य, तथा अर्वाचीन युग के अन्यान्य कई महान् आत्माओं को प्रेमपूर्ण प्रणाम। वे महान् आत्माएँ, जिन्होंने शाश्वत सत्य का परमोच्च अनुभव प्राप्त कर लिया था, आध्यात्मिक ज्ञान-प्रकाश को विकीर्ण करने तथा प्रभु की अगाध भक्ति की अवर्णनीय आनन्दानुभूति को समकालीन सन्तों-भक्तों में प्रसारित करने हेतु जो इस धरती पर रहीं, उन सबके शुभाशीर्वाद हम सब पर हों।

 

 

 

सम्मिलन

 

 

इस लोक में दो आत्माओं का प्रत्यक्ष मिलन सदैव प्रारब्ध कर्मानुसार ही सुनियोजित होता है। एक बार मिल लेने पर पुनः व्यावहारिक संसार में उस सम्बन्ध का नैरन्तर्य भी प्रारब्ध कर्मों के फलस्वरूप रहता है। सनातन धर्म अथवा वैदिक धर्म जो हिन्दू धर्म के नाम से प्रचलित है, उसमें इसका स्पष्टीकरण हुआ है। संसार में मानव रूप में उत्पन्न दो जीवात्माओं का मिलन भिन्न-भिन्न रूपों में होता है। सद्गुरु भगवान् श्री स्वामी शिवानन्द जी के श्री चरणों में मेरी आध्यात्मिक यात्रा सम्पन्न होने से पूर्व आनन्द-मूर्ति पूज्य पापा रामदास जी से मेरा सम्मिलन एक विशिष्ट ढंग से ही हुआ।

 

 


 

श्री राम

 

आत्म परिचय

 

दक्षिण भारत के पश्चिम समुद्र तटीय क्षेत्र में नदी किनारे बसा एक नगर मंगलौर मेरी जन्मभूमि है। वहाँ पर मेरे मातामह नेलीकई वेंकटराव तथा उनकी धर्मपत्नी श्रीमती सुन्दरम्मा का निवास स्थान था। वहीं पर २४ सितम्बर १९१६ को मेरा जन्म हुआ। वे दोनों अत्यन्त पवित्र एवं उदारहृदय थे। विशेषतया निर्धनों एवं जरूरतमन्दों की मदद में सदैव तत्पर रहते थे। मेरी जननी श्रीमती सरोजिनी देवी मेरे नाना-नानीश्री की बहुत लाड़ली सुपुत्री थीं। कारण कि इकलौती यही सन्तान थी, जो जीवित रह सकी। इनके जन्म से पूर्व कितने ही पुत्र मृत्यु को प्राप्त होते गये थे। अठ्ठाइस वर्ष की अवस्था में मेरी माताश्री की लौकिक यात्रा भी दैववश समाप्त हो गयी। उस समय तक वह पाँच बच्चों की माता बन चुकी थीं। जब वह स्वर्ग सिधारीं, मेरी बड़ी बहिन हेमलता बाई ग्यारह वर्ष की तथा मैं नौ वर्षीय बालक था। अपने परिवार में जैसे माताश्री अपने जननी जनक की लाड़ली थीं, इसी प्रकार मैं उस परिवार का पहला पुत्र होने के नाते सबका लाड़ला था। श्रीधर को अर्थात् मुझे अपनी मातामही तथा माताश्री के ममतापूर्ण पारस्परिक होड़ में अधिकाधिक लाड़-प्यार मिलता रहा। इस प्रकार मैं उनकी 'आँखों का तारा' बना रहा।

 

पिताश्री श्रीनिवास राव का परिवार मद्रास में रहता था। उनकी यह इच्छा

 

थी कि अब सब अपने घर मद्रास में जायें। मेरे मातामह तथा मातामही ने पिताश्री से साग्रह अनुनय विनय की; परिवार का प्रथम पुत्र होने के कारण मेरा लालन-पालन, उच्च पढ़ाई-लिखाई मंगलौर में ही होना समुचित रहेगा। उनकी हार्दिक लालसा-उत्कण्ठा को पहचान कर मेरे पिताश्री द्वारा सहमति प्रदान करना अप्रत्याशित तथा विस्मयजनक था। इस प्रकार मंगलौर शहर में उच्च शिक्षा ग्रहण करते हुए जीवन के १६ वर्ष व्यतीत हो गये।

 

मंगलौर शहर पापा रामदास जी के निवास स्थान कन्हनगढ़ के समीपस्थ था। सन् १९२३ में पापा रामदास जी का सम्पूर्ण वर्ष भारत-भ्रमण में व्यतीत हुआ था। वापिस आने पर मंगलौर शहर के बाहर कदरी-पहाड़ियों की गुफा में सतत राम-नाम का जप करते हुए आनन्दपूर्वक एकान्तवास किया। वहाँ पर उन्हें अपने यात्रा - वृत्तान्त को लिखने की अन्तः प्रेरणा हुई और सन् १९२४ की अवधि में उन्होंने इस कार्य को पूर्ण भी कर लिया। वहाँ के एक सज्जन श्री बोलर विठ्ठल राव, जो नानाश्री के मित्र भी थे, उनकी 'सरस्वती' नामक प्रिंटिंग प्रेस में यह पुस्तक अंग्रेजी में 'इन क्वेस्ट ऑफ गॉड' अर्थात् 'ईश्वर की खोज में' प्रकाशित हो गयी। नानाश्री को इसकी प्रथम प्रति अपने मित्र द्वारा भेंट में प्राप्त हुई थी। एक दिन उस पुस्तक पर मेरी दृष्टि पड़ गयी। कवर पेज पर पापा रामदास जी के मनमोहक चित्र को मैं देखता ही रह गया। जैसे-जैसे मैं चित्र को निहारता रहा, उसी में रमता गया। सबकी नजर बचाकर, ऊपरी मंजिल के हॉल में बैठकर प्रतिदिन दोपहर को उस पुस्तक को आदि से अन्त तक पढ़कर मैंने एक सप्ताह में पूर्ण कर दिया।

 

उस समय मैं नौ वर्षीय मातृ-विहीन बालक ही था। चतुर्थ श्रेणी का छात्र था। इस पुस्तक को पढ़ने से मुझे भारत देश का सिंहावलोकन हो गया जिससे अब तक मैं पूर्णतया अपरिचित था। देश के विभिन्न धार्मिक स्थानों का पता चला, जो मेरी कल्पना में भी नहीं थे। 'हिमालय' में सुस्थित 'बद्रीनारायण' तथा 'केदारनाथ' मन्दिर, कलकत्ता के पास 'दक्षिणेश्वर' के श्री रामकृष्ण परमहंस का तथा भवतारिणी के 'काली मन्दिर' इत्यादि का प्रथम परिचय मिला। 'अन्नक्षेत्र', 'भिक्षा' 'राम-भजन' आदि शब्द मेरे शब्दकोष का अंग बन गये। 'समाधि', 'भावातीत अवस्था', शब्दों से पहली बार परिचित हुआ।

 

भारतवासियों की जीवनशैली का एक नया परिदृश्य मेरे सम्मुख सुस्पष्ट हुआ। अब तक की मेरी दिनचर्या तो घर से विद्यालय और विद्यालय से घर तक ही सीमित थी। जब से इस पुस्तक को पढ़ना प्रारम्भ किया, उस समय से स्वामी रामदास जी से प्रत्यक्ष मिलन की उत्कण्ठा-ललक जाग्रत हो गयी थी। परन्तु उनका अता-पता मालूम था। जब हमारे घर भिक्षा हेतु कोई साधु आते तो मैं तुरन्त पुस्तक लाकर फोटो दिखाते हुए उनके बारे में पूछताछ किया करता। किसी से भी कुछ पता चलने के कारण मैं निराश हो गया था। आखिरकार एक दिन एक साधु द्वारा ज्ञात हो ही गया कि स्वामी रामदास जी का आनन्दाश्रम, मंगलौर के निकट ही कन्हनगढ़ रेलवे स्टेशन से एक दो मील की दूरी पर है। अब तो मैं यथासम्भव शीघ्रातिशीघ्र ही उनके दर्शनार्थ जाना चाहता था।

 

 

 

 

सन् १९३२ की बात है। पिता श्री की अभिलाषा थी कि मैं और छोटा भाई राघवेन्द्र, हम दोनों मद्रास पितृगृह में आकर अग्रिम शिक्षा ग्रहण करें। शिक्षण अंग्रेजी माध्यम से शुरू हुआ, क्योंकि हमें तमिल भाषा का ज्ञान नहीं था, दूसरी भाषा संस्कृत ली थी। इस प्रकार देववाणी द्वारा अपने देश की ज्ञान-निधि के सम्पर्क में आने का भी सौभाग्य मिल गया। अपने पूर्वजों के धर्म सम्बन्धी वचनामृत, पवित्र चरित्र, आचार-व्यवहार, धर्मनिष्ठा एवं जीवन के उच्चादर्श इत्यादि हमको वैदिक ज्ञान तथा 'सुभाषित' द्वारा प्राप्त हुए। इस समय तक मेरी बड़ी बहिन हेमलता बाई का पाणिग्रहण चिदम्बरम् शहर के पास अन्नमलाई यूनिवर्सिटी के संस्कृत-प्रोफेसर के साथ हो चुका था और अब वह गर्भवती थीं। माताश्री के जीवित रहने से प्रथम प्रसव के लिए नानी-नानाश्री के घर मंगलौर जाना अनिवार्य होने के कारण उन्हें वहाँ छोड़ आने का मुझसे आग्रह किया गया, जिसे पूर्ण कर दिया गया। प्रसव काल के तीन-चार मास पश्चात् बहिन की तरफ से पुनः सन्देश प्राप्त हुआ कि प्रथम सन्तान के जन्मोपरान्त पहले उन्हें अपनी ससुराल कोयम्बतूर ले जाना है, तदुपरान्त अन्नमलाई पहुँचाना है।

 

इस प्रकार मंगलौर जाने का सुअवसर पुनः प्राप्त होने पर मैं अति प्रसन्न था। मद्रास-मंगलौर मेल में यात्रा करने तथा रास्ते में कन्हनगढ़ रेलवे स्टेशन को देखने पर तो अन्तर्मन अभिभूत हो उठा। भावावेश में मैं उतरने ही लगा था कि एकाएक ख्याल गया कि रास्ते में रुकना उचित नहीं, क्योंकि मंगलौर स्टेशन पर कोई मेरी प्रतीक्षा में खड़ा होगा। इसलिए यात्रा स्थगित करने का विचार छोड़ दिया। घर पहुँच गया। विशेष कारणवश तीन चार दिन के लिए बहिन हेमलता बाई को वहाँ से प्रस्थान स्थगित करना पड़ा था। इस अवधि में कन्हनगढ़ जाने का सौभाग्य-सुअवसर प्राप्त हुआ जानकर प्रसन्नता का पारावार था। नानाश्री से अनुमति तथा कुछ धनराशि लेकर मैं चल पड़ा। मंगलौर से ट्रेन पकड़ कर कन्हनगढ़ पहुँच गया।

 

वहाँ उतरकर स्वामी रामदास जी के आनन्दाश्रम का रास्ता पूछते-पूछते अचानक अपने को आश्रम के मुख्य द्वार पर खड़ा पाया। अन्दर प्रवेश करने पर देखा कि भजन हॉल, जहाँ मुझे जाना था, वह कुछ दूरी पर है। वहीं पर स्वामी रामदास जी अपना मध्याह्न भोजन कर रहे थे। उनके दर्शन की मेरी तीव्र उत्कण्ठा देखकर उनके सेवक अनौपचारिक ढंग से मुझे सीधे उनके पास ले गये। अन्ततः मेरे हृदय की चिराकांक्षित अभिलाषा पूर्ण हुई; सपना साकार हो गया। मैं 'इन क्वेस्ट ऑफ गॉड' पुस्तक के रचयिता के समक्ष खड़ा था। स्वामी रामदास जी ने प्रेमिल मुस्कान से मेरा स्वागत किया। कुर्सी के सामने स्टूल पर रखे तकिए के ऊपर उनकी टाँगें थीं। घुटने टेककर उनके सम्मुख मैंने प्रणाम किया। फिर उनके दोनों चरणकमलों को हाथों में लेकर अपने सिर को उन श्री चरणों के नीचे रख दिया। मृदुता से उनके सुकोमल चरणों को अपने शीश पर रखकर शुभाशीर्वादित हुआ। इस प्रकार पापा रामदास जी के प्रथम दर्शन से ऐसी सुखद अनुभूति हुई जैसे 'धरती पर स्वर्ग' उतर आया हो। तदुपरान्त, मेरे और उनके मध्य कुछ वार्ता हुई। मैंने कई प्रश्न पूछे। उत्तर भी मिल गये। कुछ प्रश्नों के उत्तर के लिए उन्होंने मुझसे प्रश्न पूछे।

 

फिर उन्होंने मुझे भोजन करने का आग्रह किया। मुझे याद आता है कि वह वात्सल्यमयी पूज्या कृष्णाबाई माता जी ही थीं जिन्होंने ममतापूर्वक मुझे भोजन कराया था। भोजनोपरान्त अल्प विश्राम किया। उन सबने मुझे रात्रि पर्यन्त रुकने का आग्रह किया किन्तु मैंने उन्हें अवगत कराया कि उसी दिन वापिस पहुँचना अत्यावश्यक है। फिर मुझे वह ' विज़न' पत्रिका के कार्यालय में ले गये; जहाँ मैंने 'इन क्वेस्ट ऑफ गॉड' की एक नयी प्रति खरीद ली। तत्पश्चात्, पूज्य पापा से विदा लेकर कन्हनगढ़ स्टेशन से मंगलौर की गाड़ी पकड़ कर घर वापिस पहुँच गया। मधुर राम-नाम से प्लावित आनन्दाश्रम की पवित्र भूमि का वह अविस्मरणीय अनुभव आज भी मेरे स्मृति पटल पर ज्यों का त्यों अंकित है।

 

श्री एम. एस. कामत एक विख्यात लोकप्रिय प्रकाशक तथा लेखक, उन दिनों (सन् १९३०-४० में) 'सण्डे टाइम्स' नामक एक रविवारीय समाचार पत्र मद्रास से प्रकाशित किया करते थे। यह अत्यधिक जनप्रिय समाचार पत्र था; कारण कि इसमें विविध विषयों-विषयक लेख प्रकाशित होते थे जिसमें सदैव कम से कम एक पृष्ठ पर अथवा कभी-कभी दो पृष्ठों पर धर्म सम्बन्धी लेख एवं समाचार प्रकाशित होते थे। एक रविवारीय समाचार पत्र के निर्धारित धर्म विषयक पृष्ठ पर स्वामी रामदास जी का चित्र देखकर मुझे सुखद आश्चर्य हुआ। साथ ही यह सूचना पढ़कर उल्लसित हुआ कि नगर के सारस्वत समुदाय के निमन्त्रण पर वह मद्रास आयेंगे और प्रवचन भी करेंगे। निश्चित दिनांक-समय-स्थल सहित सभा का कार्यक्रम प्रकाशित था। एक सायं उनका प्रवचन सुप्रसिद्ध गोखले हॉल (सभागार) में था। दूसरे दिन, मध्याह्न उनके दर्शन, प्रवचन, भजन के साथ-साथ, सत्संगोपरान्त भोजन का भी अनौपचारिक कार्यक्रम था। गोखले हॉल कैसे पहुँचा जाए, इसकी जानकारी मैंने विस्तार से प्राप्त कर ली थी। कारण कि, हमारा पारिवारिक निवासस्थान, नगरीय भीड़-भाड़ से बहुत दूर नगरोपरान्त - जहाँ म्यूनिसिपल कार्पोरेशन की सीमा समाप्त तथा डिस्ट्रिक्ट बोर्ड का क्षेत्र प्रारम्भ होता था, वहाँ अवस्थित था।

 

जब मैं गोखले हॉल पहुँचा तो पाया कि वह ठसाठस भरा हुआ था। मैं वहाँ प्रविष्ट भी नहीं हो सका। सभी कुर्सियों पर श्रोतागण आसीन थे। बहुत से लोग पीछे खड़े हुए थे। मुझे हॉल ढूँढने में समय लग गया था। जब मैं पहुँचा तो पापा रामदास जी पहले से ही प्रवचन कर रहे थे। मेरी आँखों ने एक अनोखा दृश्य देखा। सामान्यतः मंच पर बैठने की औपचारिक व्यवस्था (जैसे सामने एक मेज और उसके पीछे कुछ कुर्सियाँ) दृष्टिगोचर नहीं हुई। उनकी सहमति से ही कुर्सियाँ दीवार तक पीछे खिसका दी गयी थीं और मेज को आगे मंच के एकदम किनारे तक लगा दिया गया था। एकदम सीधा तना हुआ शरीर रखते हुए, पालथी लगा कर वह अपनी सहज मुद्रा में मेज पर विराजमान थे। अपने कथनानुसार भाव-मुद्राएँ एवं हाथों का समुचित संचालन हो रहा था। वह कोंकणी भाषा में प्रवचन कर रहे थे। उनके श्रीमुख से शब्द-धारा अविरत प्रवाहित हो रही थी। वह ईश्वर-प्रेरित मनः स्थिति में थे। वह राम-नाम की महिमा तथा अनुशासनात्मक जीवन-यापन की महत्ता पर प्रकाश डाल रहे थे। श्रोतागण मन्त्रमुग्ध हो उनके श्री मुख से निःसृत शब्दों का पान तथा कथन का श्रवण कर रहे थे।

 

 

 

 

 

वहाँ से चलने के पूर्व आयोजकों से मद्रास में पापा के ठहरने के स्थान के बारे में मैंने ज्ञात कर लिया था। मुझे बताया गया कि वह प्रसिद्ध सेन थोम कॉलोनी में डॉ० गोपाल कतरे के गृह में ठहरे हुए थे। मद्रास के सुप्रसिद्ध समुद्रतटीय मरीना के दक्षिणीय अन्तिम छोर पर जहाँ मरीना समुद्री तट की सड़क समाप्त होती थी, वहाँ से यह आवासीय कॉलोनी प्रारम्भ होती थी। दूसरे दिन पावन सन्त के दर्शनार्थ एवं सत्संग की उत्कट लालसा के साथ चेतपट से मयलापुर बस टर्मिनल पहुँचा। सेन थोम पहुँचने के लिए मैं पूर्वाभिमुख हो समुद्र तट की दिशा में पैदल ही चलने लगा। सेन थोम से समुद्र के समानान्तर एक लम्बी सड़क है, जिसके दोनों ओर कुछ आवासीय भवन अवस्थित हैं। जब मैं मयलापुर कॉलोनी पार कर सेन थाम रोड पहुँचा, तब मैंने दो व्यक्तियों से डॉ० कतरे के निवास स्थान के विषय में पूछा तो उन्होंने सुनिश्चित जानकारी के अभाव में अस्पष्ट सा उत्तर दे दिया। वास्तव में जिस स्थान पर मैंने इन व्यक्तियों से पूछा था, वहाँ से बायीं ओर डॉ० कतरे का निवास स्थान मात्र एक फर्लांग की दूरी पर था। अनभिज्ञता के कारण मैं दायीं ओर मुड़ गया और लगातार चलता रहा। कभी-कभी रुक कर स्थानीय व्यक्तियों से डॉ० कतरे के निवास स्थान के विषय में पूछ लेता। भीषण गर्मी में मैं एक मील से अधिक चल चुका था। आगे पहुँच कर मैं फिर रुका और एक सज्जन से पूछा जो एक भक्त जान पड़ता था; सम्भवतः दक्षिणी कन्नड़ व्यक्ति था। उसने उत्तर दिया, "ओह, डॉ० कतरे ! आपका अभिप्राय है, जहाँ पावन महापुरुष स्वामी रामदास जी ठहरे हुए हैं?" सोत्साह सिर हिलाते हुए मैंने कहा, "जी हाँ!" उसने बताया कि "आप विपरीत दिशा में गए हैं, एक एक कदम चलते रहने से और दूर होते गये। मयलापुर के मोड़ तक उसी मार्ग से लौटना होगा। मोड़ को पार करके अपनी दायीं ओर मुड़ने पर उनके अपने ही बाग में स्थित एक द्वितला भवन देखने को मिलेगा।" उसको धन्यवाद देते हुए मैं उसी मार्ग से लौट पड़ा। चिलचिलाती धूप के कारण पसीने से तरबतर हो गया था। अब तक मध्याह्नोत्तर हो चुका था। अन्ततोगत्वा डॉ० कतरे का निवास स्थान मिल गया।

 

मैंने भवन में प्रवेश किया और सीढ़ियाँ चढ़ गया। मुझे बताया गया कि नगर में किसी नियोजित सम्मिलन (भेंट) के लिए स्वामीजी प्रस्थान के लिए तैयार थे। अतः उचित यही था कि शीघ्रता की जाए और इस सुअवसर को हाथ से जाने दिया जाए। मैं सीढ़ियों पर दौड़ा और द्वितीय तल पर पहुँच गया। स्वामी रामदास जी खड़ाऊँ पहने, हाथ में छड़ी पकड़े नीचे उतरने के लिए सीढ़ियों पर रहे थे। एक सज्जन मुझे उनके सम्मुख ले गए, तथा उन्हें बताया, "यह नवयुवक आपके दर्शनार्थ एवं आशीर्वाद प्राप्त्यर्थ आया है।" तत्क्षण नीचे झुककर सिर से उनका चरण स्पर्श किया। स्वामी रामदास जी एक हाथ छड़ी पर धरे झुके और दूसरे हाथ से हार्दिक स्नेह-सहित मेरी पीठ पर जोरदार थपकी दी। उन्होंने कहा, "रामदास के आशीर्वाद आपके साथ हैं। रामदास ने अभी प्रस्थान करना है। राम नाम जपो। भगवान् का स्मरण करो।" और वह नीचे कार की ओर चले गये। आनन्दाश्रम में हुई प्रथम भेंट-दर्शनोपरान्त, यह मेरी द्वितीय संक्षिप्त भेंट थी।

 

 

 

दो वर्ष पश्चात् विश्वयुद्ध के कारण ब्रिटिश अधिकारी पूर्वी तट को असुरक्षित समझने लगे थे। तीन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्ट्रीट मद्रास बन्दरगाह सहित ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा खाली करवा दी गयी थीं। मद्रास के सभी घरों में अन्धेरा रखना अनिवार्य हो गया था। यहाँ तक कि किसी भी गृह में बत्ती का प्रकाश अथवा मोमबत्ती की प्रकाश-किरण भी नहीं होनी चाहिए। नगरवासियों ने घरों की सभी खिड़कियाँ बन्द कर दी थीं। सूर्यास्त के उपरान्त नगर कब्रिस्तान सा दिखायी देता था। गवर्नर के आदेशानुसार नगर-मेयर ने यह घोषणा कर दी थी, "नगरवासियों की सुरक्षा तथा बचाव के लिए किसी भी प्रकार का आश्वासन नहीं दिया जा सकता। समस्त नगरवासियों को कहीं दूर अथवा अपने सम्बन्धियों के घर स्वरक्षार्थ चले जाना चाहिए। उनके द्वारा नगर खाली करने के लिए विशेष रेलगाड़ियाँ चलाने की व्यवस्था कर दी जायेगी।"

 

मेरी आयु इस समय पच्चीस वर्ष की हो गयी थी। मेरे बड़े चचेरे भाई, मैं और संयुक्त परिवार के कुछ अल्पवयस्कों को मद्रास से कोयम्बतूर, जहाँ हमारी पारिवारिक जागीरदारी थी, जाने की व्यवस्था की गयी थी। आज भी मैं यह समझने में असमर्थ हूँ कि किस प्रकार मद्रास के एक बड़े बंगले से, जो हमारा बचपन का निवास स्थान था, छोड़ देने की इस जटिल प्रक्रिया द्वारा महानगरी कोयम्बतूर में वास करने हितार्थ अपने आपको हम समायोजित-व्यवस्थित कर पाये।

 

आध्यात्मिक यात्रा का श्री गणेश

 

सन् १९३२ से १९४२ तक के लगभग दस वर्षों से, जब से मैंने मंगलौर छोड़ा और मद्रास पहुँचा, तब से ही मेरे अन्तर्मन में शनैः शनैः एक आन्तरिक रूपान्तरण हो रहा था। तीन आध्यात्मिक सरिताओं का स्थायी पावन संगम मेरे जीवन में उद्भूत हो चुका था। मद्रास में ही सन् १९३३ के लगभग 'गॉस्पल ऑफ श्री रामकृष्ण' पुस्तक से प्रभावित मैं उनके वशीभूत हो चुका था। द्वितीय, एम० एस० कामत द्वारा प्रकाशित 'सण्डे टाइम्स' के एक विशेषांक में नवयुवक रमण महर्षि के विद्यार्थी जीवन के मात्र सत्रह वर्ष की आयु में ही परित्याग विषयक विशिष्ट लेख पढ़ा। उसमें उनका फोटो भी था। इस लेख से मेरे भीतर त्याग की भावना प्रस्फुटित हुई और आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने का विचारोदय हुआ। तृतीय, श्री पी० के० विनयरंगम द्वारा प्रकाशित 'माई मैगज़ीन ऑफ इंडिया' में मुद्रित स्वामी शिवानन्द जी के आध्यात्मिक साहित्य तथा उनके अमृत-वचनों की एक पुस्तक का अध्ययन प्रारम्भ कर दिया था। इन तीनों सन्तों ने इस एक ही केन्द्रीभूत विचार को बार-बार दोहराते हुए मेरे मन में अंकित कर दिया -

 

"जीवन का लक्ष्य है भगवत्साक्षात्कार। भगवत्साक्षात्कार में ही जीवन की अर्थवत्ता है। भगवत्साक्षात्कार किए बिना ही यदि आप मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं तो आपका जीवन व्यर्थ है। मानो आपने प्रभु-प्रदत्त बहुमूल्य मानव जन्म-जीवन उपहार को व्यर्थ ही गँवा दिया।

 

 

अब मेरा हृदय वैराग्य की प्रचण्ड अग्नि से संपूरित हो चुका था। संसार- परित्याग और सुदूर हिमालय में कहीं भी एकान्तवास के अहर्निश विचार ने मेरे मन पर आधिपत्य जमा लिया था। मैं दुविधा में था। यद्यपि मैं अविवाहित था और इस दृष्टिकोण से पूर्णतया मुक्त भी था, किन्तु स्वयं को स्वधर्म कर्तव्य-बन्धन से और पारिवारिक कनिष्ठों और वरिष्ठ जनों के प्रति, जिनकी मुझे सेवा करनी थी, दायित्वों से अपने को बद्ध समझता था। पिताश्री का स्वास्थ्य उत्तम नहीं था; साथ ही साथ मद्रास से विवश गमन के आघात से उनका भावुक हृदय आहत हो चुका था। ज्येष्ठ पुत्र के नाते स्वकर्तव्य पूर्ति हितार्थ मैं घर में रुकने को बाध्य हो जाता था। दूसरी ओर लौकिक बन्धनों के विच्छेदन की उत्कट अभिलाषा मुझे सशक्तता से अपनी ओर खींचती थी।

 

प्रायः मध्य रात्रि-उपरान्त एकाएक मेरी नींद उचट जाती और मैं इस विचार-भय से कम्पित हो जाता कि क्या मैं कभी भी निवृत्ति-पथ का पथिक नहीं बन पाऊँगा? इस विचार संघात ने मुझे प्रचण्ड वैराग्य, भक्ति-युक्त त्याग- तपस्या और गहन ध्यान-हितार्थ तुरन्त आवश्यक पग उठाने के लिए अत्यधिक बाध्य कर दिया था।

 

आर० एस० पुरम निवास स्थान में जैसे तैसे अब आठ-नौ महीने व्यतीत हुए थे। मैंने बलवती दृढ़ता से यह महसूस किया कि मुझे अब और विलम्ब नहीं करना चाहिए। अधिक प्रतीक्षा किये बिना अब शीघ्रातिशीघ्र अविलम्ब अन्तिम कदम उठा लेने की उत्कटता मेरे अन्तर्मन को प्रेरित तथा उद्वेलित कर रही थी। धीरे-धीरे मन में एक योजना ने यह रूप धारण किया। मैं घर से यह सूचित करके जाऊँगा कि भगवान् वेंकटेश्वर के दर्शनार्थ पावन तिरुपति धाम जाकर कुछ दिन वहाँ वास करना है। मैं जानता था कि इससे वे सब सहर्ष सहमत होंगे। कारण कि सम्पूर्ण परिवार तिरुपति भगवान् का ही आराधक-उपासक था, तथा मैंने नीचे तिरुपति शहर से समूचे सप्तगिरि पर पैदल चलकर तिरुमला जाने की प्रतिज्ञा की हुई थी। ऐसा सूचित कर मैंने घर का त्याग किया।

 

तिरुपति स्थानम् से मैंने पत्र लिख दिया कि शिरडी साईं बाबा समाधि स्थल जाने के लिए भी मैं इसी प्रकार वचन-बद्ध था। दोनों पुण्य स्थानों की यात्रा तथा भगवान् के दर्शनार्थ आने की योजना यथार्थ और यथोचित थी। किन्तु लौटकर आने का मेरा विचार कदापि नहीं था। मेरा यह परित्याग सदा के लिए था। जो महत्त्वपूर्ण कदम जीवन में उठाने जा रहा था, उससे सम्बन्धित मैं पहले से ही पाँच आध्यात्मिक महापुरुषों से आशीर्वाद प्राप्त्यर्थ पत्र लिख चुका था। एक पत्र भगवान् श्री रमण महर्षि जी को, एक स्वामी रामदास जी को, एक स्वामी राजेश्वरानन्द जी को (सुविख्यात दार्शनिक डॉ० टी० एम० पी० महादेवन के गुरु), चौथा पत्र तिरुपति धाम से दस मील दूर व्यास आश्रम येरपेडू आन्ध्रप्रदेश के पूज्य मलयाला स्वामी जी को। गुरुदेव स्वामी शिवानन्द जी के सम्पर्क में तो पत्र- व्यवहार द्वारा मैं पूर्ववत् ही था। श्री रमण महर्षि जी का उत्तर संक्षिप्त था, उसके द्वारा मुझे सूचित किया गया कि मेरा पत्र भगवान् के सम्मुख प्रस्तुत कर दिया था। भगवान् का प्रसाद विभूति तथा कुमकुम की पुड़िया पैकेट संलग्न था। स्वामी रामदास जी का उत्तर विशिष्ट प्रकार का था। स्वामी जी ने लिखा था- "प्रिय राम ! आपने यह तो लिखा ही नहीं कि आप कौन-सा, कैसा कदम उठाने जा रहे हैं? अतः बिना जाने रामदास कैसे आशीर्वाद दे? तथापि समस्त शुभ कार्यों के लिए रामदास का आशीर्वाद है।"

 

जहाँ जहाँ, मैं भ्रमण कर रहा था, मैंने पत्र द्वारा घर से सम्पर्क बनाये रखा, जैसे कि मैंने लौटना हो। जबकि वापसी का इरादा मेरा बिल्कुल नहीं था। इस भ्रम में रखने का एक कारण तो यह था मैं अकस्मात् ही उनको असहनीय कठोर आघात नहीं पहुँचाना चाहता था कि मैं सदैव के लिए उनसे दूर चला गया और वे मुझे पुनः कभी भी नहीं देख पायेंगे। क्योंकि उन दिनों हिमालय भारत का एक सुदूर क्षेत्र समझा जाता था। शिरडी में एक मास ठहरने के उपरान्त मैंने परिजनों को पत्रचिदानन्द आत्मकथा लिख दिया कि मैं मथुरा-वृन्दावन जाना चाहता था। वृन्दावन पहुँचने पर श्री रामकृष्ण सेवा आश्रम में तीन सप्ताह व्यतीत किये। मथुरा भी दर्शनार्थ गया था। वृन्दावन से मैंने श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज को पत्र लिख दिया था, "मैं आपके श्री चरणों में समर्पित होने तथा महाराज श्री की सेवा-हेतु आश्रम रहा हूँ।" प्रत्युत्तर मिला - "आपका पत्र प्राप्त हुआ। जी हाँ, आप सकते हैं। आदर, प्रेम और ॐ।"

 

वहाँ से दिल्ली गया। दिल्ली से हरिद्वार पहुँचने पर मैं श्री रामकृष्ण सेवा आश्रम, कनखल में रुका। मद्रास मठ के स्वामी अशेषानन्द जी का पत्र दिए जाने पर सब मेरे प्रति बड़े दयालु रहे। यहाँ कनखल के अध्यक्ष स्वामी अजयोनन्द जी थे। वह गुरुदेव से भली-भाँति परिचित थे। १९ मई १९४३ को बुद्ध जयन्ती अथवा बुद्ध पूर्णिमा के पावन दिवस पर ऋषिकेश जाने के लिए मैंने उनसे विदा ली। ऋषिकेश शहर से डेढ़ मील दूरी पर शिवानन्द आश्रम में मध्याह्नोत्तर पहुँचा। वहाँ सन्निकट एक रामाश्रम धर्मशाला में मुझे किसी ने एक हॉल के कोने में ठहरने का स्थान दिया।

 

सूर्योस्तोपरान्त, सान्ध्य चन्द्र-प्रकाश में श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज हाथ में बड़ा डंडा लिये आश्रम के ऊपरी भाग से नीचे की ओर आए। उनके पीछे एक ब्रह्मचारी हाथ में हरीकेन लालटेन लिये हुए था। जैसे वे निकट पहुँचे, तत्क्षण मैंने धरती पर लेटकर साष्टांग दण्डवत प्रणाम किया। उन्होंने पूछा, "यह कौन है?" सहवर्तियों ने बताया, "यह श्रीधर राव है, जो मथुरा से पत्र व्यवहार करता रहा।" उन्होंने कृपा-पूरित शब्दों में कहा, "उठो सौम्य !"

 

मैंने वैसा ही किया। मुझे ऐसा अनुभव हुआ कि मैं अपने गन्तव्य पर पहुँच गया। परमात्मा के आशीर्वाद से मैंने अपने आपको सौभाग्यशाली पाया। इस प्रकार मेरा सम्पूर्ण जीवन सद्गुरुदेव श्री स्वामी शिवानन्द जी के श्रीचरणों में पूर्णरूपेण समर्पित हो गया। संसार के बाह्य धरातल पर यह भौतिक यात्रा का तो चरम बिन्दु था, और आध्यात्मिक यात्रा का श्री गणेश शुभारम्भ

 

 


 

श्री गुरुदेव-चरणाश्रित

 

शिवानन्द आश्रम में प्रवेश के बाद श्रीधर राव ने शीघ्र ही एक प्रमुख साधक और महत्त्वपूर्ण प्रभावशाली व्यक्तित्व के रूप में ख्याति प्राप्त कर ली थी। वह आश्रम के केन्द्र बिन्दु हो गये थे। गुरुदेव स्वामी शिवानन्द जी महाराज ने उन पर आश्रम की सम्पूर्ण व्यवस्था का दायित्व सौंप दिया था जिसको निभाते हुए विभिन्न कार्य-विभागों में अनेकविध रूप से कुशलतापूर्वक उन्होंने सर्वोत्तम प्रशिक्षण प्राप्त कर लिया था। सन् १९४९ में गुरुदेव ने उन्हें पवित्र संन्यासाश्रम में दीक्षित कर, स्वामी चिदानन्द सरस्वती नाम से विभूषित किया।

 

कई समय ऐसे आए, जब कुछ भक्त जन गुरुदेव से उनके आध्यात्मिक उत्तराधिकारी के विषय में जानकारी प्राप्त करना चाहते थे। यद्यपि उसका उत्तर भिन्न-भिन्न ढंग से दिया गया था तथापि भाव-आशय तो एक समान ही था। सन् १९४४-४५ की बात है, गुरुदेव के एक मारवाड़ी भक्त श्री काशीराम गुप्ता जी (श्री रामनिवास गुप्ता जी के पिताश्री) कलकत्ता से गुरुदेव के दर्शनार्थ आश्रम में आये हुए थे। गुरुदेव ने उन्हें अपने गंगा-तटस्थ कुटीर में बुलाया और आश्रम में उनकी सुख- सुविधा के बारे में पूछताछ कर जानकारी प्राप्त की। तभी एकाएक गुरुदेव ने उनकी ओर देखते हुए बताया, " जी! मेरा उत्तराधिकारी चुका है।" आश्चर्य से गुप्ता जी ने पूछा, "कौन? उस समय ब्रह्मचारी श्रीधर राव, जो गंगा स्नानोपरान्त किनारे पर खड़े होकर तौलिए से अपना शरीर पोंछ रहे थे, ध्यानपूर्वक उधर देखकर, अंगुली से संकेत करते हुए गुप्ता जी को बताया, "वहाँ देखो, गंगा किनारे उस नवयुवक साधक को। यही है मेरा आध्यात्मिक उत्तराधिकारी।" अतएव गुरुदेव ने तब से ही, अर्थात् श्रीधर राव रूप में ही उन्हें अपना उत्तराधिकारी चयनित कर लिया था। प्रारम्भिक दिनों में ही एक बार इसी तरह अपने वृद्ध सज्जन भक्त मेजर जनरल ए० एन० शर्मा से गुरुदेव ने कहा था, "मेरा उत्तराधिकारी गया है।"

 

सन् १९६२-६३ में जब स्वामी जी आश्रम से बाहर अज्ञातवास में थे, उन्हीं दिनों संयोगवश, योग समाज-मद्रास के संस्थापक कवियोगी शुद्धानन्द भारती, जो गुरुदेव के सहपाठी, बालपन के सखा भी थे, आश्रम में पधारे। उन्होंने गुरुदेव से पूछा, "स्वामी जी! कृपया मुझे अपनी अनश्वर वसीयत के बारेचिदानन्द आत्मकथा

 

३१ बतलाइए; जो आप मानवजाति को अपनी पुस्तकों तथा भवनों के अतिरिक्त उत्तरदान करेंगे ? क्या यह दिव्य जीवन संघ है अथवा पुण्यशील संन्यासियों का समाज है, जिसे आपने प्रशिक्षित किया है?" ऐसा सुनकर कुछ समय तक गुरुदेव अन्तर्मुखी तथा मौन हो गए। तत्पश्चात् उन्होंने कहा, "निःसन्देह, स्वामी चिदानन्द ! वही मेरी जीवन्त आध्यात्मिक वसीयत हैं, जिसे मेरे उपरान्त दिव्य जीवन संघ का कार्य चलाने के लिए मैं अपने पीछे छोड़ रहा हूँ।" और फिर मानो ब्रह्माण्डीय दैवी योजना को अपने मन में पहले ही देख लिया हो, और आगे बोले, "वह रहे हैं, पहुँचने वाले हैं।"

 

एक अन्य अवसर पर गीता प्रेस के संस्थापक श्री जयदयाल गोयन्दका जी ने गुरुदेव से मिलने पर उनके आध्यात्मिक उत्तराधिकारी के विषय में पूछा था। प्रत्युत्तर की अपेक्षा गुरुदेव ने स्वामी चिदानन्द जी को तत्काल वहाँ आने का सन्देश भिजवाया। स्वामी जी ने वहाँ पहुँचते ही, दूर से ही गुरुदेव को श्रद्धापूर्वक तीन बार दण्डवत प्रणाम किये। तदुपरान्त, श्री गोयन्दका जी को भी साष्टांग प्रणाम किये। अन्य कुछ घटित नहीं हुआ, कुछ कहा भी नहीं गया। किन्तु उनके सहज शिष्टाचार ने गीता प्रेस के संस्थापक पूज्य गोयन्दका जी पर बहुत गहरा प्रभाव डाला। चिदानन्द जी की मात्र उपस्थिति तथा विनम्र दण्डवत ने उन्हें एक असाधारण भाव से पूरित कर दिया और मौन में ही उन्हें अपने प्रश्न का उत्तर मिल गया।

 

 

 

श्री स्वामी चिदानन्द जी महाराज का अपने ३९ वें जन्म-दिवस पर दिया गया प्रवचन

 

श्री गुरुदेव की सदेच्छानुसार यह जन्म-दिन मनाया गया, इसकी मुझे प्रसन्नता है। पहले तो मैंने श्री स्वामी जी से क्षमा याचना की थी, कि मुझे इसके लिए विवश किया जाये, किन्तु इस उत्सव के मनाये जाने के कारण, हमने अभी-अभी समस्त धर्म-ग्रन्थों का सार तत्त्व सुना; उनके श्रीमुख से सभी युगों और समस्त वर्गों के सन्तों के ज्ञानोपदेशों का सत्त्व निःसृत होता, हमने श्रवण किया। हमें उपनिषदों का ज्ञान सरल भाषा में सुनने को मिला। कुरान, बाइबिल, गीता, पुराण, सभी धर्म-ग्रन्थों के अत्यन्त सरल, प्रभावशाली, रोमहर्षक, उत्साहवर्धक और प्रेरणास्पद जीवन्त शब्द, प्रत्यक्ष गुरुदेव के श्रीमुख से हम सुन रहे थे। इस एक ही बात के लिए, जन्म- दिन का मनाया जाना सार्थक हो गया। मैं कितना प्रसन्न हूँ, यह वर्णन नहीं किया जा सकता। जाने पिछले कितने जन्मों के पुण्य-कर्मों के परिणामस्वरूप, हम इस पावन स्थली पर बैठे हुए हैं और जिस अनन्त आध्यात्मिकता, असीम दिव्यता की जीवन्त ज्वाला की गुरुदेव प्रतिमूर्ति हैं, उस अग्नि को आज वाणी के रूप में हम यहाँ श्रवण कर रहे हैं। अभी जो कुछ भी आपने सुना, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। उन्होंने हममें दिव्य प्रकाश भर दिया है। प्रत्येक शब्द जीवन्त आध्यात्मिकता की धधकती अग्नि है। किन्तु गुरुदेव ने जैसे कहा, कल प्रातः हम सो कर उठेंगे, तो वही, वैसे ही पुराने व्यक्ति होंगे। परन्तु इसे निश्चित रूप से सुरक्षित रखने के लिए भगवान् ने स्वामी वेंकटेशानन्द जी को भेजा हुआ है। प्रत्येक शब्द अब लिपिबद्ध हो गया है और यह मुद्रित भी हो जायेगा। मेरी आप सबसे प्रार्थना है कि गुरुदेव के इस प्रवचन की मुद्रित प्रतिलिपि अपने पास सुरक्षित रखें। प्रतिदिन प्रातः उठते ही, तथा रात को सोने से पहले इसे एक बार पढ़ें। हमारे सम्पूर्ण जीवन के लिए एक आदर्श उदाहरण के रूप में और हमें, जीव से असीम सच्चिदानन्द आत्मा में परिणत करने के लिए, हमें उच्चतम दिव्यता तक समुन्नत करने के लिए यह एक प्रवचन ही पर्याप्त है।

 

श्री स्वामी कृष्णानन्द जी के जन्म-दिवस का उत्सव मनाने के एकदम साथ ही, इतनी शीघ्र अपना जन्म-दिवस मनाने के लिए मैंने श्री गुरुदेव से प्रार्थना की थी कि इसे छोड़ दिया जाये। कुछ दिनों बाद उन्होंने कहा, "भले ही तुम्हारी इच्छा हो या हो, मैं तो यह मनाने जा रहा हूँ।" तब उन्होंने मुझे एक अद्भुत नुस्खा दिया। यह मेरे लिए एक परीक्षा थी, जिसमें गुरुदेव की कृपा से मैं सफल हुआ। उन्होंने कहा, "तुम चिन्ता क्यों करते हो? उन्हें जन्म-दिन मनाने दो। तुम समझो कि यह किसी और का जन्म-दिवस है। अनुभव करो मैं अकर्ता, अभोक्ता हूँ। साक्षी बन जाओ।" यह आध्यात्मिक वटी उन्होंने मुझे दी। यही भाव मैंने आज प्रातः से बनाये रखा है। परन्तु अब तो मुझे पूरा निश्चय हो गया है कि यह किसी और का ही जन्म- दिवस है। जिस चिदानन्द नाम के व्यक्ति का आप सबने इतना अद्भुत विवरण दिया है, मैं भी उससे मिलना चाहता हूँ।

 

अपने शिष्यत्व की दीर्घावधि में "गुरु वाक्य वेद बाक्य" सूत्रानुसार स्वामी जी सतत अपनी सेवाएँ समर्पित करते रहे। अमेरिका के भक्तों के साग्रह अनुरोध पर अक्तूबर सन् १९५९ में योग तथा वेदान्त का सन्देश देने हेतु स्वामी जी को गुरुदेव ने वहाँ जाने का आदेश दिया। वहाँ पहुँचकर उत्तरी अमेरिका, दक्षिणी अमेरिका, यूरोप और अफ्रीका के असंख्य जिज्ञासु श्रोताओं के हृदय पर उन्होंने जो गम्भीर आध्यात्मिक प्रभाव छोड़ा, वह अवर्णनीय है।

 

 

" वर्षों से भी अधिक लगातार विदेश के भीड़भाड़, कोलाहल और अशान्तिपूर्ण पर्यावरण में रहने तथा आध्यात्मिक वार्ताओं में समय व्यतीत करते रहने के पश्चात्, मैं यहाँ भारत में मौन तथा प्रशान्त वातावरण में रहने को लालायित था। यहाँ पहुँचने पर पचासों पत्र उत्तर की प्रतीक्षा में पड़े देखे। पत्र लिखने वालों की व्यग्रता का मैं अनुभव करता हूँ। परमात्मा उन सबको आशीर्वादित करें। केवल आपकी निष्ठा और प्रेमाग्रह (भगीरथ के समान) का सातत्य ही इस मौन-प्रेमी स्वामी को प्रत्युत्तर देकर पत्राचार के लिए विवश कर पाये हैं। आप धन्यवाद के पात्र हैं। इस समय विदेश से आये भक्तों के लगभग एक सौ पचास पत्र मेरे पास उत्तर के लिए रखे हैं और एक सप्ताह के अन्दर कार्यक्रम-हेतु गुजरात जाने के लिए भी मुझे अनुरोध किया जा रहा है। वहाँ जाना अवश्यम्भावी हो गया है। भगवान् ही जाने कि प्रत्युत्तर का कार्य कब और कैसे सम्भव हो पायेगा। आपके सभी पत्रों को बार-बार पढ़ रहा हूँ, ताकि अत्यावश्यक तथ्यों पर मैं प्रकाश डाल सकूँ।"

 

१९५९ स्वामीजी की प्रथम विदेश यात्रा

 

 

 

 

 

 

" विदेश से आने पर यहाँ मेरा सम्पूर्ण व्यक्तित्व, मेरा अन्तर्मन आन्तरिक नीरवता, एकान्त-ध्यान हेतु किसी निर्जन स्थान के लिए आकुल-व्याकुल था। सन् १९५६ के पूर्व दिनों में भी ऐसी ही स्थिति थी परन्तु संस्था के, आनन्दकुटीर (आश्रम) के अनेकानेक कर्तव्य कर्मों की व्यस्तता के कारण यह उत्कट लालसा अपूर्ण रह गयी थी। जब मैं पश्चिमी देशों में था तभी मुझे ऐसा आभास होने लगा था कि भारत वापिस पहुँच कर इस आतुरता को रोक पाना अति कठिन होगा। इसलिए अन्तःप्रेरणा-अनुसार भारत लौटने पर सीधे आश्रम में गुरुदेव के श्री चरणों में पहुँच एकान्तवास के लिए उनकी अनुमति चाहने को प्रबल इच्छुक था, जो उन्होंने अनिच्छापूर्वक प्रदान कर दी थी। कारण कि परिव्राजक का क्लेशकर जीवन अपनाने की वे अनुमति नहीं देना चाहते थे; परन्तु मेरा अनुरोध इतना गम्भीर था कि उसे अस्वीकार भी नहीं करना चाहते थे।

 

 

 


 

पूज्यपाद स्वामी जी महाराज दक्षिणी भारत के पावन तीर्थ स्थलों की यात्रा पर लगभग एक वर्ष परिव्राजक रूप से अज्ञात संचरण करते रहे। किन्तु श्री नागराजन जी (पूज्य स्वामी विमलानन्द जी) येन केन प्रकारेण उनका पता जानने में सफल हो ही गये। फिर पत्र-व्यवहार प्रारम्भ हो गया।

 

 

 


 

 

गाणगापुर

 

श्री एस. नागराजन जी,

शिवानन्द आश्रम।

पूज्य अमर आत्मन् !

 प्रिय नागराजन जी,

 

नमो नारायणाय।

 

इस समय जहाँ मेरा वास है, वह एक नीरव स्थान है; जो गाणगापुर (एक छोटा सा गाँव) से कुछ मील दूर है। यहाँ किसी प्रकार की भी कोई सुविधा नहीं है। दो नदियों के 'संगम' स्थल पर यह एकान्त स्थान है। पास में ही एक छोटा-सा मन्दिर तथा धर्मशाला, जिसमें टीन की छत वाला केवल एक बरामदा ही है। गाणगापुर से प्रतिदिन यहाँ कुछ यात्री आते हैं जो 'संगम' - स्नानोपरान्त वापिस चले जाते हैं। मैं यहाँ एक भिक्षु की भाँति ही रहता हूँ। चाय-दूध खरीदने के लिए अल्प धनराशि है मेरे पास। उडिपी के एक कन्नड़ सज्जन की एक छोटी-सी दुकान से ही चाय-दूध लेता हूँ। जब मेरे पास पैसे का अभाव होता है तो वह उधार दे देता है। एक मास पूर्व जब मैं यहाँ आया था, तब पंढरपुर का एक भक्त कुछ अनुष्ठान कर रहा था, वह मुझे मध्याह्न की भिक्षा में एक चपाती अथवा ज्वार की एक मोटी रोटी दे दिया करता था। दस दिन पूर्व वह यहाँ से चला गया है। तदुपरान्त, कुछ दिन थोड़ा भोजन मन्दिर से और कुछ दिन दुकानदार से लेकर निर्वाह किया। कभी एक या दो केले ही आहार में ले लेता हूँ। परन्तु सब पूर्णतया ठीक है। गुरुदेव की कृपा ही इस शरीर का भरण-पोषण तथा स्वास्थ्य की देख-रेख कर रही है। मैं मन्दिर के बरामदे में एक बोरी तथा तौलिए पर ही सोता हूँ। जैसा कि यह शहर से दूर चारों ओर से खुला स्थान है; सर्दी बहुत है। श्रीनगर के गोबिन्दराम कपूर द्वारा दी गयी काले रंग की शाल मेरे पास है।


 

गाणगापुर

 

दिनांकः मई १९६३

 

श्री एस. नागराजन जी,

आनन्द कुटीर।

पूज्य आत्मन् !

प्रिय नागराजन जी,

नमो नारायणाय।

जय सतगुरु शिवानन्द देव !

 

इस पुण्य दिवस बुद्ध जयन्ती (वैशाख पूर्णिमा) के पावन अवसर पर ही बीस वर्ष पूर्व मैं ऋषिकेश पहुँचा था। उसी सान्ध्य बेला में गुरुदेव के प्रथम प्रत्यक्ष दर्शन का एवं उनके श्री चरणों में प्रणत हो, विनम्र प्रणाम करने का दुर्लभ सुअवसर पाकर मेरा जीवन पवित्रीकृत हो गया और मैं धन्य धन्य हो उठा। तब से ही गुरुदेव के अनेकानेक आशीर्वाद, अनन्त अपार प्रेम, दया-करुणापूर्ण कृपा-वर्षण होता रहा है, उसके लिए आज शिष्यत्व के बीस वर्षोंपरान्त उनके चरणारविन्द में साभार सादर श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ। भगवान् का मैं अत्यन्त धन्यवादी हूँ। उन्हीं की दया-कृपा से मुझ जैसे अपात्र का जीवन गुरुदेव का दिव्य सान्निध्य- सत्संग प्राप्त कर आध्यात्मिक रूप से सुसम्पन्न हुआ।

 

लगभग एक वर्ष पूर्व सन् १९६२ में दक्षिणीय पवित्र तीर्थ स्थलों की यात्रा हेतु आश्रम से मैंने प्रस्थान किया था। गुरुदेव की कृपा के फलस्वरूप अनेक तीर्थो का दर्शन-भ्रमण कर चुका हूँ। बहुत कुछ उपलब्धि हुई, पर्याप्त सीखने को मिला तथा अन्तर्मुखी साधनामय जीवन व्यतीत करने का प्रयास भी रहा। अधिकतया मौन ही रहता था। गुरुदेव ने इस शरीर की सम्पूर्ण देखभाल की है। मैं नदी तट पर नीरव एकान्त स्थान पर हूँ। अब मेरे मन में आश्रम पहुँचने की अन्तःप्रेरणा प्रबल हो उठी है। मैं गंगा मैया के दर्शनार्थ लालायित हूँ। गुरुदेव को

चिदानन्द आत्मकथा

 

३९ तो मैंने अपने हृदय-सिंहासन पर विराजित किया हुआ है, परन्तु गंगा जी के दर्शन तो वहाँ पहुँच कर ही होंगे। यह ईश्वर की इच्छा ही प्रतीत होती है कि पुनः उत्तर दिशा की ओर गमन किया जाए। अतएव मैं किसी समय भी वहाँ पहुँच सकता हूँ।

 

तारीख और समय आदि के विषय में मुझे कुछ ज्ञात नहीं। अनिश्चित है। परमात्मा ही हमारे आन्तरिक नियन्ता एवं निर्देशक हैं। वही होगा जैसा वे चाहते हैं। वे मेरे संचालक हैं, जब चाहेंगे मुझे यहाँ से ले जायेंगे। इसे दैवी योजना, ईश्वरेच्छा कहेंगे या गुरुदेव का सत्संकल्प; (इस सेवक के लिए दोनों समान ही हैं) कोई रहस्यमयी शक्ति तो अवश्य है, जिसके अनुसार सब संचालित होता रहता है। यदि कोई निरभिमानी होकर पूर्ण समर्पण करता है तो यही शक्ति पूर्णरूपेण उसका संचालन करती है। गंगा मैया की तथा गुरुदेव के श्री चरणों की स्फुरणा भी जब मेरे मस्तिष्क में होती है तो मेरा हृदय हर्षातिरेक से पुलकित हो उठता है। वे मुझ जैसे मूढ़ को भी आशीर्वादित करते रहते हैं। आप सबके दर्शन की उत्सुकतापूर्वक प्रतीक्षा में -

 

चिदानन्द हूँ !


 

श्री गुरुदेव की महासमाधि के उपरान्त

 

"समुद्र-तट से लगभग पांच-छः हजार फीट की ऊँचाई पर शीतल और शान्त स्थान मसूरी पहुँचने के लिए मैं सीधे देहरादून की ओर शीघ्रतापूर्वक चल पड़ा। वहाँ रहते हुए अकस्मात् चौथे ही दिन गुरुदेव के श्री चरण-दर्शनों की अप्रतिरोध्य कामना एकाएक मुझे आश्रम में खींच लाई। आश्रम में कुछ समय रुक कर गुरुदेव के दर्शन-मिलनोपरान्त मेरे लौटने के समय, मुझे गुरुदेव की गम्भीर रुग्णावस्था के विषय में सूचित किया गया। मैंने अपना प्रस्थान स्थगित कर दिया तथा इस आशा से मैं रुक गया कि गुरुदेव के स्वास्थ्य लाभ होने पर फिर विदा लेकर एकान्तवास के लिए चला जाऊँगा। जानते हैं फिर क्या हुआ? जब डॉक्टर पुनर्सुधार की बात सोच रहे थे, स्वास्थ्य लाभ होता देख रहे थे, तो २४ घंटे के अन्दर ही हालत बिगड़ती दिखाई पड़ी, स्थिति में परिवर्तन गया, और सदा- सदा के लिए अपनी आँखें मूँद कर गुरुदेव परम तत्त्व में विलीन हो गये; और मेरी नियति ने मुझे इस विषम अकल्पनीय परिस्थिति में पहुँचा दिया।

 

तत्काल ही आश्रम के महत्त्वपूर्ण कार्यों की व्यवस्था का दायित्व मेरे कन्धों पर गया। कार्य-बाहुल्य की व्यस्तता इतनी अधिक बढ़ गयी कि आश्रम से सायं भ्रमण हेतु भी जाना असम्भव सा हो गया। सर्वोपरि महत्त्व की बात तो यह थी कि संस्था का न्यासी मंडल दृढ़ निश्चयी था कि संस्था का अध्यक्ष पद मुझे ही सम्भालना होगा। और हुआ भी वही। प्रन्यासियों की एक बैठक हुई जिसमें मुझे ही परमाध्यक्ष मनोनीत किया गया। उन सबकी प्रेम भरी निष्ठा के सामने विवशतावश मुझे सब स्वीकार करना पड़ा। सम्पूर्ण स्थिति को समझाना असम्भव प्रतीत हो रहा है। विश्लेषण नहीं कर पा रहा। आश्रम की व्यवस्था संचालन का कार्य सहज- सुचारु रूप से होते रहने का प्रयास कर रहा हूँ। बहुत सी आवश्यक बातें हैं जिन पर मुझे ध्यान केन्द्रित करना है। संस्था के कानूनी मामले, वैधानिक नियम-नीति, अभ्यागतों का मार्ग-दर्शन, अन्तेवासियों का पथ-प्रदर्शन, चहुँ ओर से एकत्रित पत्र। ऐसी स्थिति में पत्राचार के लिए तो समय निकाल पाना सम्भव ही नहीं।

 

"व्यवहारतः, पिछला सम्पूर्ण वर्ष एक प्रकार से अज्ञात संचार में ही व्यतीत हो गया। तत्पश्चात् अन्तःप्रेरणा होने पर मौन-ध्यान प्रशान्ति के लिए मेरी अभिलाषा-जिज्ञासा एक अनजानी दिशा की ओर मुझे ले गयी। एकान्त स्थान- वास हेतु ऊँचाई पर पहुँच गया था। किन्तु दैवी योजना कुछ और ही थी जो मुझे परम श्रद्धेय गुरुदेव के श्री चरणों में वापिस ले आयी। विदेश से लौटने पर मुझे अप्रत्याशित परिस्थितियों का सामना करते रहना पड़ा जिसकी मैंने कभी कल्पना भी की थी। स्थिति में पूर्णतया अनिश्चयपूर्ण परिवर्तन गया। एक के बाद एक अनिश्चित घटना-चक्र में पड़ते-पड़ते अति व्यस्त होता गया। ईश्वरेच्छा कहें या गुरुदेव का संकल्प, कुछ भी कह सकते हैं; ऐसी-ऐसी परिस्थितियाँ सामने आयीं जो मेरे लिए पूर्णतः अकल्पनीय थीं; जिन्हें समझ पाने में असमर्थ हूँ। न्यासी मंडल द्वारा परमाध्यक्ष पद जो सौंपा गया, उसका योग्यतापूर्वक निर्वहन कर सकूँ, इसके लिए आपके शुभाशीर्वाद, शुभाशीषं तथा आशीर्वचन की अपेक्षा है, तभी आप पूज्यजनों के हार्दिक अभिनन्दन सफलीभूत होंगे। गुरुदेव से मेरी एकमात्र यही प्रार्थना-याचना है कि विशुद्ध भाव से सेवा करने, कर्तव्यनिष्ठा से कर्म करने तथा समुचित रीति से जीवन-यापन करने में मुझे समर्थ करें। वे इस सेवक को विनम्रता, निःस्वार्थपरता तथा पूर्ण समर्पण की सामर्थ्य प्रदान करने से वंचित रखें।


 

परमाध्यक्षीय प्रबोधन

 

(२३--१९६३ को मुख्यालय आश्रम के अन्तेवासी साधकों को दिये गये प्रथम प्रबोधन का सारांश)

 

सौभाग्यशाली अमर आत्मन् !

 

गुरुदेव-स्वरूप दिव्य आत्मन् !

 

आप सबमें अन्तर्हित दिव्यता को मेरे प्रणाम। आज का श्री गणेश- पूजा-दिवस, पावन विनायक चतुर्थी दिवस, विजयदशमी की भाँति ही मंगल कार्यों का शुभारम्भ दिवस माना जाता है। अब हमारे बीच गुरुदेव सशरीर उपस्थित नहीं हैं। उनका पुण्य उत्तरदायित्व कर्तव्य कर्म, हम सबको सम्मिलित रूप से योग्यतापूर्वक सम्पन्न करना है, जो उनके समय हम पर नहीं था, उसी का निर्वहन करने से सम्बन्धित अपने आन्तरिक भाव-विचार आपके समक्ष प्रस्तुत करना चाहता हूँ।

चिदानन्द आत्मकथा

 

४३ इस आश्रम में हम सब लोग व्यापक रूप से देश-विदेश के विभिन्न भागों से आए हुए हैं। यद्यपि सबकी आस्थाएँ, भाषाएँ, विचारधाराएँ, रीति- रिवाज इत्यादि अपने-अपने देश के अनुसार भिन्न-भिन्न हैं, तथापि पूर्व जन्म- कृत कर्मों के फलस्वरूप नियति द्वारा यहाँ समन्वित रूप से निवास करते हुए एकसूत्र में बँधे हुए हैं। सबके अस्तित्व गुरुदेव से ही संयुक्त हैं। गुरुदेव ही हम सबके मूल केन्द्र हैं, हमारे जीवनाधार हैं।

 

हम सबके पारस्परिक सहयोग के परिणामस्वरूप ही गुरुदेव का महान् मिशन, 'दिव्य जीवन संघ,' समृद्धि तथा उत्कर्ष को प्राप्त हुआ है, जिसके द्वारा पिछले कई वर्षों में असंख्यासंख्य साधक, भक्तजन, गुरुदेव के दिव्योपदेशों से लाभान्वित हुए हैं। अपने सत्संकल्प, कठिन तपस्या, तीव्र त्याग-वैराग्य द्वारा, तथा इससे भी बढ़कर अपने अविरल, अजस्र, अथक प्रयास द्वारा ही गुरुदेव ने महान् उपलब्धि प्राप्त की; जो अविस्मरणीय है। हम सबकी अपेक्षा जिन्होंने अकेले ही कठोर परिश्रम द्वारा निष्ठापूर्वक, कर्तव्य कर्म सम्पन्न किए, वे केवल गुरुदेव ही थे। उन्हीं के संकेन्द्रित प्रयास का उत्तमोत्तम परिणाम था, जो उन्होंने प्राप्त किया, अन्यथा सब असम्भव ही था। जिस विशेष क्षण में जो कार्य वे प्रारम्भ करते, उसे पूरी लगन से, मनोयोगपूर्वक सम्पूर्ण करते और उसे सर्वोत्तम रूप दे देते। अपनी कार्य-प्रणाली के विषय में, बहुधा बताया करते थे कि वे अपने मस्तिष्क के सूक्ष्मातिसूक्ष्म अनेक कोष्ठों में से विषय सम्बन्धित एक कोष्ठ को बड़ी तत्परता से खोल लेते, उसी एक विशेष कार्य को पूर्ण एकाग्रता से करते; इसके सम्पूर्ण हो जाने पर वह कोष्ठ बन्द कर देते। फिर दूसरा खोलते, अवधानपूर्वक उस कार्य को सम्पन्न करते; फिर वही क्रम चलता रहता। यह आश्रम, विशाल संस्था, उन्हीं के अनेक वर्षों के अनवरत, अविराम, सतत प्रयासों, अनन्य निष्ठा के फलस्वरूप ही निरन्तर प्रगतिशील रही।

 

इस आश्रम के दो पहलू हैं, जो परस्पर अनुप्राणित हैं। प्रथमतः हम सब लोग यहाँ साधक रूप में आध्यात्मिक प्रगति हेतु आश्रम के सानुकूल सात्त्विक वातावरण का लाभ उठाते हुए साधना-रत रहते हैं। दूसरा पहलू है-एक विशाल इकाई के रूप में दिव्य जीवन संघ, शिवानन्द आश्रम में हम निवास करते हैं। इस दृष्टि से हम सब गुरुदेव के सौभाग्यशाली सेवक हैं। इस प्रकार हमारे व्यक्तित्व में ये दोनों पक्ष अन्योन्याश्रित हैं। इस संस्था के माध्यम से गुरुदेव ने केवल भारत में अपितु विदेशों में भी अनगिनत मानव जीवन में शान्ति, प्रेरणा, सान्त्वना प्रदान कर उनका उद्धार किया। आश्रम में ही स्थायी रूप से विराजित रहते हुए वे सब स्थानों में, सूक्ष्म रूप द्वारा सक्रियतापूर्वक कार्य करते रहे। उस समय भी आश्रम विशाल स्तर पर गुरुदेव का ही अभिन्न रूप माना जाता था, और अब भी गुरुदेव के अन्तर्धान होने पर, उनका ही साकार रूप है।

 

बहुसंख्यक भक्त-साधकों के लिए गुरुदेव का सत्साहित्य उन्हीं का प्रतिरूप रहा। उनके प्रेरणाप्रद सदुपदेश अप्रत्यक्ष रूप में गुरुदेव स्वयं ही थे। गुरुदेव के इस विस्तृत-विशाल स्वरूप का अनुभव समग्र विश्व ने किया। उनकी आध्यात्मिक शिक्षाओं ने साधकों के अन्तः स्पर्श द्वारा उनके आन्तरिक जीवन को परिवर्तित कर सम्पूर्ण व्यक्तित्व को दिव्य बनाने का नवीन दृष्टिकोण दिया।

 

हमारे बीच तो गुरुदेव प्रेरणास्रोत के रूप में प्रत्यक्ष विद्यमान रहे। उनकी समुपस्थिति में हमें उनका दिव्य सत्संग-लाभ प्राप्त हुआ, अब तो वह अतीत का विषय बनकर रह गया। यह वास्तविकता है। केवल हमारे लिए ही नहीं, बहुत से साधक-अनुयायी जो सत्संग लाभ के लिए यहाँ आया करते थे, उन्हें भी अब गुरुदेव के सत्संग का अभाव खटकेगा। निःसन्देह गुरुदेव की अनुपम कृतियों, पुस्तकों, परिपत्रों, पत्रिकाओं के रूप में उनकी शिक्षाओं-निर्देशों द्वारा उनका सत्संग मिल जायेगा। परन्तु साधक-जिज्ञासुओं के लिए इतना ही पर्याप्त होगा और ही इससे वे सन्तुष्ट हो पायेंगे। परिणामतः प्रतिनिधि-रूप में गुरुदेव के शिष्यों अर्थात् हम सबसे उन्हें कुछ अपेक्षा रहेगी। अतः इस कर्तव्य-धर्म का निर्वहन करने के योग्य हमें बनना होगा, गुरुदेव के ज्ञान को विकीर्ण करने हेतु हमें माध्यम बनना होगा।

 

श्री गुरुदेव के शिष्यों अर्थात् हमसे ही 'शिवानन्द आश्रम' की बास्तविक