भगवान
श्रीकृष्ण
Lord Krishna, His Lilas and Teachings
का हिन्दी अनुवाद
लेखक
श्री स्वामी शिवानन्द सरस्वती
अनुवादिका
सुश्री चन्द्रावती सिंह
प्रकाशक
द डिवाइन लाइफ सोसायटी
पत्रालय शिवानन्दनगर- २४९ १९२
जिला : टिहरी गढ़वाल, उत्तराखण्ड (हिमालय), भारत
www.sivanandaonline.org, www.dishq.orgप्रथम
हिन्दी संस्करण- १९६०
पंचम हिन्दी संस्करण -२०१६
(१००० प्रतियाँ)
ॐ द डिवाइन लाइफ ट्रस्ट
ISBN 81-7052-118-1
HS 227
PRICE: ₹130/-
'द डिवाइन लाइफ सोसायटी, शिवानन्दनगर' के लिए
स्वामी पद्यनाभानन्द द्वारा प्रकाशित तथा उन्हीं के द्वारा 'योग-वेदान्त
फारेस्ट एकाडेमी प्रेस, पो. शिवानन्दनगर- २४९ १९२,
जिला टिहरी गढ़वाल, उत्तराखण्ड में मुद्रित।
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जगद्गुरु तथा
वृन्दावन
के
मुरलीमनोहर
भगवान् श्रीकृष्ण
के श्रीचरणों में
समर्पित
ॐ
आनन्द कुटीर,
ऋषिकेश
मधुर आत्मन् ।
भगवान् कृष्ण षोडश कला से युक्त पूर्णावतार हैं। उनके उपदेशों के हर शब्द तथा उनके जीवन के हर कर्म मानव-जाति के लिए अपूर्व सन्देशों से पूर्ण हैं।
उद्धव के प्रति भगवान् के उपदेशों का अध्ययन कीजिए। श्रीमद्भागवत-अमृत का पान कीजिए। उनकी महिमा का गायन कीजिए। उनके महान् मन्त्र 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' का जप कीजिए। उनके प्रति पूर्ण आत्मार्पण कीजिए। आप शीघ्र ही उनके साथ सायुज्यता को प्राप्त करेंगे!
स्वामी शिवानन्द
षोडश कलावतार भगवान् श्रीकृष्ण की महिमा से कौन परिचित नहीं है। ईश्वरत्व का जितना निखार भगवान् श्रीकृष्ण के जीवन में प्रकट हुआ, उतना अन्य किसी भी व्यक्तित्व में प्राप्त करना सम्भव नहीं है। उनका गीतोपदेश जगत् के इतिहास में सर्वश्रेष्ठ एवं सर्वोत्तम है। भगवान् के हर शब्द तथा हर कर्म मानव जाति के लिए शाश्वत सन्देश रखते हैं। उनकी लीला में वह अमृत सरिता प्रवाहित हो रही है, जिसमें अवगाहन कर मनुष्य अमृतत्व को प्राप्त कर सकता है।
जनता के कलि-सन्तप्त जीवन में कृष्ण-लीला-रूपी सुधा का संचार करने के लिए ही परम कारुणिक श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज ने भगवान् श्रीकृष्ण की बाल लीला तथा उनके उपदेशों को इस पुस्तक में प्रस्तुत किया है। हमें पूर्ण विश्वास है कि इस पुस्तक से सभी प्रकार के मनुष्य प्रेरणा, शक्ति एवं सान्त्वना प्राप्त करेंगे। इस पुस्तक का दैनिक स्वाध्याय शुभ तथा मंगलकारक है। इसके उपदेशों पर चिन्तन तथा मनन करने से मनुष्य उस धाम को प्राप्त कर सकता है "यद्गत्वा न निवर्तन्ते"- जहाँ से पुन: इस नश्वर जगत् में लौटना नहीं पड़ता।
अनुवादिका सुश्री चन्द्रावती सिंह को धन्यवाद देते हैं जिनकी गुरु-सेवा के फल-स्वरूप यह अमूल्य रत्न हम जनता को प्रस्तुत करने में समर्थ हुए हैं।
भगवान् श्रीकृष्ण के अनुपम आशीर्वाद आप सभी प्राप्त करें।
- प्रकाशक
भगवान् की पावन लीला का रहस्य सन्त-महापुरुषों को ही विशेषतः अवगत है। सन्तशिरोमणि शुकदेव जी ही भगवद्-भक्ति के रस से सुपरिचित हैं। उसी प्रकार सद्गुरुदेव शिवानन्द जी महाराज की लेखनी द्वारा हम भगवान् की लीला का अधिकाधिक रहस्य जान सकते हैं; क्योंकि वे सदा कृष्ण-प्रेम में गोते लगा रहे हैं तथा 'वासुदेवः सर्वमिति — यह सब वासुदेव ही है' के विश्वात्म चैतन्य में परमानन्द का उपभोग कर रहे हैं।
अतः मैंने श्रीकृष्ण-लीला-सम्बन्धी अंगरेजी पुस्तक को जनता- जनार्दन की सेवा के लिए हिन्दी में अनूदित किया है। मुझे आशा एवं विश्वास है कि हिन्दी भाषा-भाषी जनता मेरे इस विनम्र प्रयास का हार्दिक स्वागत करेगी तथा भगवत्प्रेम की सरिता बहाने में सहायक सिद्ध होगी।
मैंने अनुवाद को सरल तथा स्वाभाविक बनाने का यथाशक्ति प्रयत्न किया है। मैं भगवान् श्रीकृष्ण से प्रार्थना करती हूँ कि उनकी अपार कृपा से इस पुस्तक के सभी पाठकों में अपूर्व भगवत्प्रेम का जागरण हो तथा वे अमृत-पथ के धीर पथिक बने ।
-चन्द्रावती सिंह
आदौ देवकिदेविगर्भजननं गोपीगृहे वर्धनं
मायापूतनजीवितापहरणं गोवर्धनोद्धारणम् ।
कंसच्छेदनकौरवादिहननं कुन्तीसुतापालनं
एतद्भागवतं पुराणकथितं श्रीकृष्णलीलामृतम् ।।
प्राचीन काल में भगवान् श्रीकृष्ण ने देवकी के गर्भ से जन्म धारण किया, वे गोपी यशोदा के गृह में पाले-पोषे गये। उन्होंने मायारूपिणी पूतना को मारा, गोवर्धन को धारण किया, कंस तथा कौरवों का हनन किया और कुन्ती के पुत्रों की रक्षा की। यही भागवतपुराण का सारांश है जो श्रीकृष्ण-लीला-रूपी अमृत से पूर्ण है।
ज्ञानं परमगु मे यद्विज्ञानसमन्वितम् ।
सरहस्य तदंगं च गृहाण गदितं मया ।।
भगवान् श्रीकृष्णण उद्भव से कहते है-
हे उद्धव) मुझसे इस परमगुह्य ज्ञान का श्रवण करो जो विज्ञान से तथा उसके अंगों से समन्वित है।
यावानहं यथाभावी यदूपगुणकर्मकः ।
तथैव तत्त्वविज्ञानमस्तु ते मदनुग्रहात् ।।
मेरी कृपा से तुम मेरे तत्त्वज्ञान तथा उसके रूप का साक्षात्कार करो कर्मों के रहस्य को समझो।
अहमेवासमेवाग्रे नान्यद्यत्सदसत्परम् ।
पश्चादहं यदेतच्च योऽयशिष्येत सोऽस्म्यहम् ।।१।।
सृष्टि होने से पहले मैं ही था। अन्य कुछ भी सत् या असत् न था । प्रलय के पश्चात् भी जो शेष बचा रहता है, वही मैं हूँ।
ऋतेऽर्थ यत्प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि ।
तद्विद्यादात्मनो मायां यथाऽऽभासो यथा तमः ॥२॥
उसी को माया समझो, जिसका कुछ भी उद्देश्य न हो, जिसको आत्मा में प्राप्त नहीं किया जा सके तथा जो ज्योति एवं अन्धकार की भाँति मिथ्या हो ।
यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु ।
प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्यहम् ||३ ||
जिस तरह महाभूत संयुक्त हैं तथा साथ ही एक-दूसरे से पृथक-पृथक भी उसी प्रकार मैं समस्त जगत् को परिव्याप्त कर रहा हूँ, साथ ही उससे पृथक भी हूँ।
एतावदेव जिज्ञास्यं तत्वजिज्ञासुनाऽऽत्मनः ।
अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यत्स्यात्सर्वत्र सर्वदा ||४||
साधक को अन्वय व्यतिरेक की विधि से उस वस्तु को जान लेना चाहिए जो सदा तथा सर्वदा स्थित है।
एतन्मतं समातिष्ठ परमेण समाधिना ।
भवान्कल्पविकल्पेषु न विमुह्यति कर्हिचित् ।।
परम समाधि के द्वारा इस सत्य का अनुभव करो जिससे तुम मायिक वस्तुओं से मोहित न हो जाओ।
(गोपालपूर्वतापिन्युपनिषद्)
नमो विश्वस्वरूपाय विश्वस्थित्यन्तहेतवे ।
विश्वेश्वराय विश्वाय गोविन्दाय नमो नमः ||१ ॥
मैं उन भगवान् श्रीकृष्ण को, गोविन्द को नमस्कार करता हूँ जो इस विश्व के रूप में प्रकट हैं, जो इसकी स्थिति तथा प्रलय के हेतु हैं, जो इस विश्व के ईश्वर हैं, जो विश्व-रूप ही हैं।
नमो विज्ञानरूपाय परमानन्दरूपिणे ।
कृष्णाय गोपीनाथाय गोविन्दाय नमो नमः ॥ २ ॥
उन श्रीकृष्ण अथवा गोविन्द को नमस्कार है जो गोपियों के स्वामी हैं, जो ज्ञान तथा परमानन्द के स्वरूप हैं।
नमः कमलनेत्राय नमः कमलमालिने ।
नमः कमलनाभाय कमलापतये नमः ||३||
कमल-नेत्र भगवान् श्रीकृष्ण, लक्ष्मीपति को नमस्कार है जो पद्मों की माला से विभूषित हैं तथा जिनकी नाभि से कमल की उत्पत्ति है।
बर्हापीडाभिरामाय रामायाकुण्ठमेधसे ।
रमामानसहंसाय गोविन्दाय नमो नमः || ४ ||
उस गोविन्द अथवा राम को नमस्कार है जो लक्ष्मी के मनः सरोवर में हंस के समान हैं, जिनका मोर मुकुट मनुष्यों के हृदय को आह्लादित करता है तथा जो अपूर्व मेधावी हैं।
कंसवंशविनाशाय केशिचाणूरघातिने ।
वृषभध्वजवन्द्याय पार्थसारथये नमः || ५ ||
उन अर्जुन सारथि को नमस्कार है, जो केशी तथा चाणूर के विनाशक हैं, जो कंसवंश के संहारक है, जो वृषभध्वज भगवान् शिव द्वारा वन्दित है।
वेणुवादनशीलाय गोपालायाहिमर्दिने ।
कालिन्दीकूललीलाय लोलकुण्डल धारिणे ||६||
गोपाल श्रीकृष्ण को नमस्कार है, जिन्होंने कालिय के मद को नष्ट किया, जो अपनी सुरीली बाँसुरी से श्रोताओं के हृदयों को आह्लादित करते हैं, जो कुण्डल से विभूषित हैं तथा जो कालिन्दी (यमुना) के तट पर विहार करते हैं।
वल्लवीवदनांभोजमालिने नृत्यशालिने ।
नमः प्रणतपालाय श्रीकृष्णाय नमो नमः ॥ ७ ॥
मैं उन श्रीकृष्ण की वन्दना करता हूँ जो सुन्दर कमल-रूपी बदनों वाली गोपियों से आवेष्टित हो कर उन्हें अपने नृत्य द्वारा आह्लादित करते हैं तथा जो प्रणतपालक हैं।
नमः पापप्रणाशाय गोवर्धनधराय च ।
पूतनाजीवितान्ताय तृणावर्तासुहारिणे ॥८ ॥
मैं उन गोवर्धनधारी, पापप्रणाशक भगवान् को नमस्कार करता हूँ, जिन्होंने पूतना का वध किया तथा तृणावर्त का संहार किया।
निष्कलाय विमोहाय शुद्धायाशुद्धवैरिणे ।
अद्वितीयाय महते श्रीकृष्णाय नमो नमः || ९ ||
उन परम अद्वितीय श्रीकृष्ण को नमस्कार है जो सदा शुद्ध हैं, जो मोह से रहित हैं, जो निष्कल हैं तथा अशुद्ध मन वाले व्यक्तियों के शत्रु हैं।
प्रसीद परमानन्द प्रसीद परमेश्वर ।
आधिव्याधिभुजंगेन दष्टं मामुद्धर प्रभो ।। १० ।।
हे प्रभो! हे परमेश्वर! हे परमानन्द। मुझ पर प्रसन्न होइए। मानसिक एवं शारीरिक क्लेश-रूपी सर्प ने मुझे डस लिया है। मेरा उद्धार कीजिए ।
श्रीकृष्ण रुक्मिणीकान्त गोपीजनमनोहर ।
संसारसागरे मग्नं मामुद्धर जगद्गुरो ।। १९ ।।
हे श्रीकृष्ण, रुक्मिणीपति, हे जगदगुरु, हे गोपियों के मन को हरने वाले, संसार सागर से मेरा उद्धार कीजिए।
केशव क्लेशहरण नारायण जनार्दन ।
गोविन्द परमानन्द मां समुद्धर माधव ।। १२ ।।
हे केशव, हे क्लेशहरण, हे नारायण, हे जनार्दन, हे गोविन्द, हे परमानन्द, हे लक्ष्मीपति, मेरा उद्धार कीजिए।
लसद्बर्हापीडं ललितललितस्मेरवदनं
भ्रमत्कीडापांगं प्रणतजनतानिर्वृत्तिपदम् ।
नवाम्भोदश्यामं निजमधुरिमाभोगभरितं परं
देवं वन्दे परिमिलितकैशोरकरसम् ||१ ||
मैं उन भगवान् श्रीकृष्ण की बन्दना करता हूँ जिनका मुकुट मयूरपंख से सुशोभित हैं, जिनका बदन प्रेमपूर्ण मुस्कान से दीप्त है, जिनकी आँखों से कृपा--दृष्टि संचरित होती है, जिनका शरीर घनश्याम है, जिनमें किशोरावस्था का शुद्ध सौन्दर्य है, जो माधुर्य-रस से पूर्ण हैं, जो अमृतत्व प्रदान करते हैं तथा प्रणत जनों को संसार से मुक्त करते हैं।
मनसि मम सन्निधत्तां मधुरमुखा मधुरापांगा।
करकलितललितवंशी कापि किशोरकृपालहरी ||२||
भगवान् श्रीकृष्ण का वह मधुर मुख, जो कृपा से पूर्ण है, जिसका सौन्दर्य अनिर्वचनीय है; वह किशोर श्रीकृष्ण जिनके हाथ में ललित वंशी है, सदा मेरे हृदय में विराजमान हो ।
सार्धं समृद्धैरमृतायमानैराध्मायमानैर्मुरलीनिनादैः ।
मूर्धाभिषिक्तं मधुराकृतीनां बालं कदा नाम विलोकयिष्ये ||३||
मैं कब उन किशोर प्रभु के दर्शन करूंगा जो सौन्दर्य के स्वरूप हैं, जो अपनी बाँसुरी को कलात्मक ढंग से बजाते हैं तथा मधुर संगीत का सृजन करते हैं, जो कानों को बहुत प्रिय है तथा जो अमृतत्वप्रदायक है।
(भागवत: स्कन्द १, अध्याय ८)
नमस्ये पुरुषं त्वाऽऽद्यमीश्वरं प्रकृतेः परम् ।
अलक्ष्यं सर्वभूतानामन्तर्बहिरवस्थितम् । । १ ।।
हे पुरातन पुरुष परमात्मा! मैं आपको नमस्कार करती हूँ, आप प्रकृति से परे, अलक्ष्य है तथा सभी भूतों के अन्तर्बाह्य स्थित हैं।
मायाजवनिकाच्छन्नमज्ञाऽधोक्षजमव्ययम् ।
न लक्ष्यसे मूढदृशा नटो नाट्यधरो यथा ।। २ ।।
मैं अज्ञ स्त्री हूँ, मैं किस प्रकार आप अव्यय परमात्मा की पूजा कर सकती हूँ? आप तो माया के पर्दे से आच्छन्न हैं। जिस प्रकार नाटक में भाग लेने वाले नट अपने नाट्य से एकात्म नहीं होते, उसी प्रकार अज्ञानी जन आपको देख नहीं पाते।
तथा परमहंसानां मुनीनाममलात्मनाम् ।
भक्तियोगविधानार्थं कथं पश्येम हि स्त्रियः ||३ ॥
शुद्ध चित्त वाले परमहंसों के लिए भी आप दुर्लभ हैं। तो फिर हम स्त्री-जन किस प्रकार आपके लिए भक्तियोग का विधान कर आपके दर्शन प्राप्त कर सकती हैं?
कृष्णाय वासुदेवाय देवकीनन्दनाय च ।
नन्दगोपकुमाराय गोविन्दाय नमो नमः ।।४ ।।
मैं बारम्बार श्रीकृष्ण को नमस्कार करती हूँ जो वासुदेव हैं, देवकीनन्दन हैं, नन्द गोप कुमार तथा गोविन्द अथवा गौओं के पालक हैं।
नमः पंकजनाभाय नमः पंकजमालिने ।
नमः पंकजनेत्राय नमस्ते पंकजांघ्रये ॥५ ॥
आप परमात्मा को नमस्कार है, आप पंकज-नाम है, अर्थात् आपकी नाभि से पंकज की उत्पत्ति हुई थी, आप कमल-पुष्पों की माला से सुशोभित है, नमस्कार है आपको। आपकी आँखें कमल के समान है तथा आपके चरण सुन्दर पद्म के समान है।
विपदः सन्तु नः शश्वत्तत्र तत्र जगद्गुरो ।
भवतो दर्शनं यत्स्यादपुनर्भवदर्शनम् ||६||
हम समय-समय पर विपत्तियों को प्राप्त करें, जिससे हे जगद्गुरु, हम आपके दर्शन प्राप्त कर सकें, जिससे पुनः ससार का दर्शन न करना पड़े अर्थात् हम अमृतत्व प्राप्त कर लें।
जन्मैश्वर्य श्रुतिश्रीभिरेधमानमदः पुमान् ।
नैवार्हत्यभिधातुं वै त्वामकिंचनगोचरम् ।।७।।
जिस व्यक्ति की दृष्टि जाति, धन, विद्वत्ता तथा ऐश्वर्य के मद से आच्छन्न है, वह आपकी स्तुति के योग्य नहीं, आप तो अकिंचन तथा निष्पाप जनों के लिए ही सुलभ हैं।
नमोऽकिंचनवित्ताय निवृत्तगुणवृत्तये ।
आत्मारामाय शान्ताय कैवल्यपतये नमः ॥८ ॥
आप ही अकिंचनों का धन हैं, मैं आपको नमस्कार करती हूँ; आप माया के गुणों से निर्लिप्त हैं। मैं आपकी पूजा करती हूँ; आप सदा आत्मा में ही रमण करते हैं, आप शान्ति तथा कैवल्य मोक्ष के प्रभु हैं।
मन्ये त्वां कालमीशानमनादिनिधनं विभुम्
समं चरन्तं सर्वत्र भूतानां यन्मिथः कलिः ।। ९ ।।
आप काल हैं, आप सबके ईश्वर हैं, आप आदि तथा अन्त से रहित हैं, आप सर्वत्र समरूप से विचरण करते हैं, अशान्ति तो भूत पदार्थों में ही है।
न वेद कश्चिद्भगवंश्चिकीर्षितं
तवेहमानस्य नृणां विडम्बनम् ।
न यस्य कश्चिहयितोऽस्ति कर्हिचिद्
द्वेष्यश्च यस्मिन् विषमा मतिर्नृणाम् ।। १० ।।
हे प्रभु! आप क्या करने जा रहे हैं, इसे कोई नहीं जानता, फिर भी आप साधारण व्यक्ति के समान लीला करते हैं। आपके लिए न तो कोई प्रिय है और न कोई अप्रिय। विभिन्न लोग आपको विभिन्न रूपों से समझते हैं।
ब्रह्मादयः सुरगणा मुनयोऽथ सिद्धाः
सत्त्वैकतानमतयो वचसां प्रवाहैः ।
नाराधितुं पुरुगुणैरधुनापि पिप्रुः
किं तोष्टुमर्हति स मे हरिरुग्रजातेः ।। १ ।।
मैं कैसे उन हरि की स्तुति करूँ, जिनकी ब्रह्मा और अन्य देव गण ऋषि तथा सिद्धों के साथ सत्त्व से परिप्लावित मन से युक्त हो, प्रार्थना प्रवाहों से स्तुति में निरत रहते हुए भी आराधना करने में असमर्थ हैं? मैं तो असुर-कुल में उत्पन्न हूँ।
मन्ये धनाभिजनरूपतपा श्रुतौज-
स्तेजः प्रभाववलपौरुषबुद्धियोगाः ।
नाराधनाय हि भवंति परस्य पुंसो
भक्त्या तुतोष भगवान् गजयूथपाय ।। २ ।।
मेरी समझ में तो धन, उन्नत कुल में जन्म, शारीरिक सौन्दर्य, तपस्या, विद्वत्ता, शक्ति, ज्ञान तथा योगाभ्यास के द्वारा भी श्री हरि की कृपा को प्राप्त करना सम्भव नहीं; वह श्री हरि भक्ति मात्र से ही गजेन्द्र पर प्रसन्न हो गये थे।
विप्रद्विषड्गुणयुतादरविन्दनाभ-
पादारविन्दविमुखाच्छ्वपचं वरिष्ठम् ।
मन्ये तदर्पितमनोवचनेहितार्थ-
प्राणं पुनाति स कुलं न तु भूरिमानः ॥ ३ ॥
वह चाण्डाल, जिसने मन, वचन तथा कर्म से अपने धन तथा जीवन को भगवान् के चरणों में लगा दिया है, उस ब्राह्मण से श्रेष्ठ है जो बारहों गुणों से सम्पन्न होते हुए भी भगवान् के चरण-कमलों में प्रीति नहीं रखता। वह चाण्डाल सबको शुद्ध बनाता है, परन्तु वह ब्राह्मण अभिमान से पूर्ण हो ऐसा नहीं कर पाता ।
नैवात्मनः प्रभुरयं निजलाभ पूर्णो
मानं जनादविदुषः करुणो वृणीते ।
यद्यज्जनो भगवते विदधीत मानं
तच्चात्मने प्रतिमुखस्य यथा मुखश्रीः ।।४।।
वह प्रभु, जो सदा अपनी आत्मा में ही परितृप्त हैं, तुच्छं बुद्धि वाले व्यक्तियों की पूजा के लिए लालायित नहीं हैं; परन्तु करुणा तथा दया के कारण वह भक्त पर अनुग्रह करने के लिए उसके द्वारा अर्पित वस्तुओं को ग्रहण कर लेते हैं। मुख पर जो कुछ भी शोभावर्धक लेप लगाया जाये, वह वैसा ही दर्पण में प्रतिबिम्बित हो जाता है; उसी प्रकार भक्ति द्वारा भक्त अपना ही उद्धार करता है।
नाहं विभेम्यजित तेऽतिभयानकास्य
जिह्वार्कनेत्रभ्रुकुटीरभसोग्रदंष्ट्रात् ।
आन्त्रस्रजः क्षतजकेसरशंकुकर्णा-
न्निर्ह्रादभीतदिगिभादरिभिन्नखाग्रात् ।।५ ।।
हे महाप्रभु! मैं आपके भयंकर रूप से भयभीत नहीं हूँ, आपका मुख विशाल है, जिह्वा विकराल है, आँखें सूर्य की तरह विभासित हैं, भौंहें भयानक हैं, दाँत कराल हैं, आप अंतड़ियों की माला पहने हैं, आपकी गरदन रुधिर से स्नात है। आपके कर्ण खडे हैं, आपका गर्जन दिग्पालों को विकम्पित करने वाला है, आपके नख शत्रुओं को विदीर्ण करने में समर्थ हैं।
त्रस्तोस्म्यहं कृपणवत्सल दुःसहोग्र-
संसारचक्रकदनाद् ग्रसतां प्रणीतः ।
बद्धः स्वकर्मभिरुशत्तम तेऽङ्घ्रिमूलं
प्रीतोऽपवर्गमरणं ह्रयसे कदा नु ।।६।।
परन्तु हे कृपणवत्सल प्रभु! मैं इस भयानक संसार-चक्र से भयभीत हूँ जिसके हे मध्य अपने कर्म से विवश हो कर मैं पड़ा हुआ हूँ। हे परम पूज्य प्रभु, आप कब मुझे अमृतत्वधाम में अपने निकट बुला लेंगे ?
यस्मात्प्रियाप्रियवियोगसंयोगजन्म-
शोकाग्निना सकलयोनिषु दह्यमानः ।
दुःखौषधं तदपि दुःखमतद्धियाहं
भूमन् भ्रमामि वद मे तव दास्ययोगम् ॥७॥
मैं विभिन्न योनियों में जन्म ग्रहण से प्राप्त शोकाग्नि से भयभीत हैं, प्रिय वस्तुओं से विरह तथा अप्रिय के मिलने से प्राप्त दुःख, राग-द्वेष के द्वन्द्वों से दोलायमान जीवन, जहाँ शोक की दवा शोक ही है, इस दयनीय जीवन से भयभीत हैं; फिर भी मैं अज्ञानी हो इस संसार में भ्रमण कर रहा हूँ। हे पूर्ण प्रभु! कृपया मेरी सेवा को स्वीकार कर इस दारुण संसार से मेरा उद्धार करें।
माया मनः सृजति कर्ममयं बलीयः
कालेन चोदितगुणानुमतेन पुंसः ।
छन्दोमयं यदजयार्पितषोडशारं
संसारचक्रमज कोऽतितरेत्त्वदन्यः ॥८ ॥
प्रकृति अपनी कर्ममय अचिन्त्य शक्ति द्वारा काल की सहायता से आपकी अध्यक्षता में सृष्टि करती है। प्रकृति असीम बल से सम्पन्न हो वैदिक कर्मों की प्रवृत्ति रखती हुई सोलह अरों वाले संसार-चक्र की रचना करती है। हे अजन्मा प्रभु! आपकी कृपा के बिना कैसे कोई इस चक्र से मुक्ति प्राप्त कर सकता है ?
तस्मादमूस्तनुभृतामहमाशिषोऽज्ञ
आयुः श्रियं विभवमैन्द्रियमा विरिञ्चात् ।
नेच्छामि ते विलुलितानुरुविक्रमेण
कालात्मनोऽपनय मां निजभृत्यपार्श्वम् ।।९।।
अतः मैं उन विषय सुखों की इच्छा नहीं करता जिनके लिए अज्ञानी जन लालायित रहते हैं; जैसे दीर्घायु, धन, यश, इन्द्र-पद, ब्रह्म-पद आदि; न तो मैं अणिमा आदि सिद्धियों की ही कामना करता क्योंकि ये सब विषय कालरूप प्रभु आपसे अपहृत हो जायेंगे, अतः मेरी प्रार्थना है कि हे प्रभु, आप अपने सम्पर्क में मुझे बनाये रखें।
कुत्राशिषः श्रुतिसुखा मृगतृष्णिरूपाः
क्वेदं कलेवरमशेषरुजां विरोहः ।
निर्विद्यते न तु जनो यदपीति विद्वान्-
कामानलं मधुलवैः शमयन्दुरापैः ।। १० ।।
उन सुखोपभोगों से क्या लाभ जो कणों को ही प्रिय हैं; परन्तु वास्तव में मृगजल की भाँति मिथ्या हैं? इस भौतिक शरीर से क्या लाभ जो रोगों का घर है ? ऐसा जानते हुए भी मनुष्य विरक्त नहीं होते तथा वे विषय-सुख की बूंदों से कामाग्नि को बुझाने का विफल प्रयत्न करते रहते हैं।
श्रीकृष्णः कमलानाथो वासुदेवः सनातनः ।
वसुदेवात्मजः पुण्यो लीलामानुषविग्रहः ।। १ ।।
श्रीवत्सकौस्तुभधरो यशोदावत्सलो हरिः ।
चतुर्भुजात्तचक्रासिगदाशंखाम्बुजायुधः ।। २ ।।
'देवकीनन्दनः श्रीशो नन्दगोपप्रियात्मजः ।
यमुनावेगसंहारी बलभद्रप्रियानुजः ।।३ ।।
पूतनाजीवितहरः शकटासुरभंजनः ।
नन्दब्रजजनानन्दी सच्चिदानन्दविग्रहः ||४ ||
नवनीतावलिप्तांगो नवनीतनटोऽनघः ।
नवनीतनवाहारो मुचुकुन्दप्रसादकः ।।५।।
षोडशस्त्रीसहस्रेशः त्रिभंगी मधुराकृतिः ।
शुकवागमृताब्धीन्दुर्गोविन्दो गोविदां पतिः ।। ६ ।।
वत्सवाटचरोऽनन्तो धेनुकासुरभंजनः ।
तृणीकृततृणावर्तो यमलार्जुनभंजनः ।।७।।
उत्तालतालभेत्ता च तमालश्यामलाकृतिः ।
गोपगोपीश्वरो योगी कोटिसूर्यसमप्रभः ॥८ ॥
इलापतिः परंज्योतिर्यादवेन्द्रो यदूद्वहः ।
वनमाली पीतवासाः पारिजातापहारकः ।। ९ ।।
गोवर्धनाचलोद्धर्ता गोपालः सर्वपालकः ।
अजो निरंजनः कामजनकः कंजलोचनः ||१०||
मधुहा मथुरानाथो द्वारकानायको बली ।
वृदावनान्तसंचारी तुलसीदामभूषणः ।। ११ ।।
स्यमन्तकमणेर्हर्ता नरनारायणात्मकः ।
कुब्जाकृष्णाम्बरधरो मायी परमपूरुषः । । १२ ।।
मुष्टिकासुरचाणूरमल्लयुद्धविशारदः ।
संसारवैरी कंसारिः मुरारिर्नरकान्तकः ।। १३ ।।
अनादिर्ब्रह्मचारी च कृष्णाव्यसनकर्षकः ।
शिशुपालशिरश्छेत्ता दुर्योधनकुलान्तकः ।। १४ ।।
विदुराक्रूरवरदो विश्वरूपप्रदर्शकः ।
सत्यवाक् सत्यसंकल्पो सत्यभामारतो जयी ।। १५ ।।
सुभद्रापूर्वजो विष्णुः भीष्ममुक्तिप्रदायकः ।
जगद्गुरुर्जगन्नाथो वेणुनादविशारदः ।। १६ ।।
वृषभासुरविध्वंसी बाणासुरबलान्तकृतः ।
युधिष्ठिरप्रतिष्ठाता बर्हिबर्हावतंसकः ।। १७ ।।
पार्थसारथिरव्यक्तो गीतामृतमहोदधिः ।
कालीयफणमाणिक्यरंजित श्रीपदाम्बुजः ।। १८ ।।
दामोदरो यज्ञभोक्ता दानवेन्द्रविनाशनः ।
नारायणः परंब्रह्म पन्नगाशनवाहनः ।।१९।।
जलक्रीडासमासक्तः गोपीवस्त्रापहारकः ।
पुण्यश्लोकस्तीर्थपादो वेदवेद्यो दयानिधिः ।। २० ।।
सर्वतीर्थात्मकस्सर्वग्रहरूपी परात्परः ।
एवं श्रीकृष्णदेवस्य नाम्नामष्टोत्तरं शतम् ।। २१ ।।
कृष्णनामामृतन्त्राम परमानन्दकारकम् ।
अत्युपद्रवदोषघ्नं परमायुष्यवर्धनम् ।। २२ ।।
।। इति श्रीकृष्णाष्टोत्तरशतनामस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।।
उन परम प्रभु भगवान् कृष्ण को नमस्कार है, जो सर्वान्तर्यामी हैं, जो सत्-चित्-आनन्द हैं, जो सर्वात्मा है, जो भक्त जनों के मोक्षदाता हैं, जो सबके आदि कारण हैं, जिन्होंने भक्तों एवं देवताओं को प्रमुदित करने तथा अधर्म का उच्छेदन कर धर्म की संस्थापना करने के हेतु मानव-रूप धारण किया है।
मैं उन परब्रह्म परमात्मा को नमस्कार करता हैं, जिनसे यह रहस्यमय जगत् उत्पन्न हुआ, जिनमें यह संस्थित है तथा अन्त में जिनमें यह विलीन होगा। वे स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण हैं।
भगवान् श्रीकृष्ण महाविष्णु के सभी अवतारों में सर्वोत्कृष्ट हैं। वे सभी अवतारों में अनुपम एवं शिरोमणि हैं। वे षोडश कलासम्पन्न पूर्ण अवतार हैं। वे सुप्रसिद्ध यादव वंशज तथा जगद्गुरु थे। वे प्रेमाधीश तथा मानव-प्रेमी थे। उनके दिव्य रूप ने आज भी भारत की आत्मा को प्रेम की स्निग्ध श्रृंखला में आबद्ध कर रखा है।
भागवत, महाभारत तथा विष्णुपुराण- सभी एक-स्वर से यह घोषित करते हैं कि भगवान् श्रीकृष्ण के रूप की सुषमा एवं मधुरिमा की समता त्रैलोक्य में कोई नहीं कर सकता।
करयुग्म में वंशी धारण किये हुए उनके मनोहर रूप का पूजन होता है। यह वह रूप है जिस पर भारत में ही नहीं वरन् पाश्चात्य देशों में तथा अमरीका में भी असंख्य भक्त गण अपनी श्रद्धा एवं विशुद्ध प्रेम को न्योछावर करते हैं।
वे बौद्धिक एवं भावात्मक गुणों के साकार रूप थे। वे तत्कालीन युग के सर्वोच्च प्रतिभाशाली व्यक्ति थे। वे एक महान् ऐतिहासिक पुरुष थे। उनकी बाल-लीला सभी विचारशील व्यक्तियों के लिए असंख्य प्रत्यक्ष शिक्षाएँ हैं। उनका व्यक्तित्व भव्य तथा असाधारण था ।
भगवान् श्रीकृष्ण के सदुपदेशों के प्रत्येक शब्द तथा उनकी प्रत्येक क्रिया मानव जाति के लिए विविध प्रकार से महत्त्वपूर्ण निहितार्थ के श्रेष्ठ एवं उत्कृष्ट प्रत्यक्ष पाठ से आपूर्ण है।
सृष्टि के आरम्भ से ही भगवान् श्रीकृष्ण की उपासना प्रचलित है। यह तो बद का ही एक अंग है; कोई नवीन सम्प्रदाय नहीं। भगवान् श्रीकृष्ण सारे भारत में सर्वाधिक लोकप्रिय आराध्य देव बन गये हैं। भारत में ही नहीं, विदेशों में भी सहस्रों महिलाएँ उनकी आराधना करती हैं तथा उनके मन्त्र 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' का जप करती हैं।
ज्ञान, भाव तथा कर्म में श्रीकृष्ण सर्वथा महान् थे। शास्त्रों ने इतना पूर्ण, इतना दिव्य, इतना सूक्ष्म तथा इतना श्रेष्ठ जीवन किसी अन्य का वर्णन नहीं किया जितना कि उनका ।
यद्यपि भगवान् श्रीकृष्ण मानव रूप में प्रकट हुए थे तथापि उनका शरीर अप्राकृतिक तथा दिव्य था। न तो उन्होंने कोई जन्म ग्रहण किया और न वे काल-कवलित ही हुए। अपनी योग-माया के द्वारा ही वे प्रकट हुए तथा अन्तर्धान भी। इस रहस्य से केवल ऋषि, योगी तथा भक्त गण ही अवगत हैं।
भगवान् श्रीकृष्ण ने इस घरा-धाम में अनेक लीलाएं कीं। उन्होंने अर्जुन का रथ हाँका। वे सर्वोत्तम राजनीतिज्ञ थे। वे संगीत कला में निपुण थे। उन्होंने नारद को वीणा की शिक्षा दी। उनकी बाँसुरी के संगीत ने गोपियों के तथा सभी लोगों के हृदय को पुलकित कर दिया। वे नन्दग्राम तथा गोकुल में गोपाल थे। शैशवावस्था में ही उन्होंने अनेक अद्भुत कौशल प्रदर्शित किये, अनेक असुरों का संहार किया। माता को उन्होंने विश्वरूप-दर्शन कराया। उन्होंने रासलीला की जिसके रहस्य का ज्ञान केवल नारद, गौरांग, राधा तथा गोपियों-जैसे भक्तों को ही था। उन्होंने अर्जुन तथा उद्धव को योग, भक्ति तथा वेदान्त के परम रहस्य का उपदेश दिया। उन्हें चौसठ कलाओं में निपुणता प्राप्त थी। इन्हीं कारणों से वे षोडश कला-युक्त पूर्ण अवतार माने जाते हैं।
अवतार
विशेष परिस्थिति में विशेष कारण के हेतु ही अवतारों का प्रादुर्भाव होता है। जब कभी अधर्म की अधिकता होती है, जब कभी अधर्म के कारण अस्त-व्यस्तता तथा अव्यवस्था आने लगती है तथा लोगों का सुनिश्चित विकास अवरुद्ध हो जाता है, जब कभी स्वार्थपरता, क्रूरता एवं नृशंसता के द्वारा मानव समाज का सन्तुलन विकृत हो जाता है, जब कभी अधर्म का बोलबाला होता है, जब सामाजिक संस्थाओं की नींव जर्जरित हो उठती है तब धर्म के संस्थापन एवं शान्ति स्थापना के लिए अवतारों का प्रादुर्भाव होता है।
मानव के उत्थान के लिए ईश्वर का अवतरण ही अवतार है। संसार में सन्तुलन बनाये रखने के लिए हिरण्यगर्भ की एक किरण अतुल शक्ति ले कर इस भूलोक में अवतीर्ण होती है। अवतारों के कार्य तथा उनकी शिक्षाएँ मानो प्राणी पर विशेष आध्यात्मिक प्रभाव डालती हैं तथा उनके दिव्य प्रस्फुटन एवं आत्मसाक्षात्कार में सहायता पहुँचाती हैं।
अवतार मनुष्य की दिव्य प्रकति को अभिव्यक्त करने तथा कामुकता एवं अहंकारमय क्षुद्र भौतिक जीवन से उसे ऊपर उठाने के लिए ही आते हैं। भगवान् की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति ही अवतार कहलाती है। आवेश, अंश तथा कला-अवतार, ऋषि, मुनि, सिद्ध पुरुष, मसीहा, पैगम्बर आदि भगवान् की छोटी अभिव्यक्तियाँ हैं।
अवतार प्रायः अपने अन्तरंग साथियों के साथ ही अवतीर्ण होते हैं। भगवान् राम लक्ष्मण, भरत तथा शत्रुघ्न के साथ; भगवान् कृष्ण बलराम, देवताओं तथा ऋषियों के साथ तथा भगवान् सनक कुमार सनातन, सनन्दन और सनत्कुमार के साथ प्रकट हुए।
श्री शंकर, रामानुज आदि कुछ आचार्य एवं आध्यात्मिक नेता के रूप में आते हैं। श्री चैतन्य की भाँति कुछ अवतार लोगों के हृदय में भक्ति-रस का संचार करने तथा उन्हें ईश्वरोन्मुख बनाने के लिए आते हैं; किन्तु भगवान् श्रीकृष्ण के समान पूर्ण अवतार तो तभी आते हैं जब संसार में चतुर्दिक् अशान्ति, अराजकता तथा आपत्ति छा जाती है।
अधिकांश अवतारों ने किसी एक कार्य-विशेष को ही सम्पादित किया; किन्तु भगवान् श्रीकृष्ण के कार्यकलाप तो बहुमुखी थे, अतएव वे पूर्ण अवतार कहलाये।
पुराण के श्रीकृष्ण
अग्नि, ब्रह्म, पद्म, ब्रह्मवैवर्त, विष्णु तथा श्रीमद्भागवत पुराण श्रीकृष्ण चरित्र का वर्णन करते हैं। ब्रह्म तथा पद्म-पुराण के कई अध्यायों में इसका वर्णन किया गया है। ब्रह्मवैवर्त, विष्णु तथा श्रीमद्भागवत पुराण के सम्पूर्ण ग्रन्थ अथवा स्कन्धों में श्रीकृष्ण चरित्र का वर्णन है।
वैष्णव मत के उत्तरकालीन विकास में राधा-तत्त्व का महत्त्वपूर्ण भाग रहा। श्रीविष्णु तथा श्रीमद्भागवत पुराण में श्री राधा का कहीं उल्लेख नहीं है। पद्म तथा ब्रह्मवैवर्त पुराण में ही राधा-तत्त्व, राधा तथा उसकी सखियों की वास्तविक प्रकृति, उनके नाम, उनके रहस्यात्मक अर्थ तथा रासलीला में श्रीकृष्ण जी के साथ उनके सम्बन्ध इत्यादि का विशद् वर्णन है। ब्रह्मवैवर्त पुराण में श्रीकृष्ण की आराधना में राधा-तत्त्व को विशेष महत्त्व दिया गया है। श्रीविष्णु तथा श्रीमद्भागवत-पुराण में भगवान् श्रीकृष्ण तथा उनकी आराधना का दार्शनिक निरूपण किया गया है।
जीवन-चरित्र
भगवान् श्रीकृष्ण लीला-पुरुषोत्तम थे, योगेश्वर थे और थे प्रेम मूर्ति । भगवान् राम मर्यादा-पुरुषोत्तम थे। वे एक आदर्श पुत्र, आदर्श भ्राता, आदर्श पति, आदर्श मित्र तथा आदर्श राजा थे। वे मनुष्य के सभी उच्चतम आदशों के साकार रूप ही माने जा सकते हैं। मानव प्राणी के शिक्षार्थ उन्होंने आदर्श गार्हस्थ्य जीवन यापन किया।
श्रीकृष्ण कर्मनिष्ठ पुरुष थे। वे ऐतिहासिक पुरुष थे तथा अनुचित को उचित में परिणत करने वाले थे। वे न्याय एवं धर्म के पक्षपाती थे। आततायियों से पीड़ितों का परित्राण करना ही उनकी नीति थी। उनमें अलौकिक शारीरिक शक्ति थी। वे ज्ञानी तथा जगद्गुरु थे।
वे स्वर्गिक संगीतज्ञ थे। वे योगेश्वर थे। वे अर्जुन तथा उद्धव के सखा थे। अर्जुन तथा उद्धव के प्रति योग, भक्ति तथा ज्ञान पर दिये गये उनके अमर उपदेश अद्वितीय हैं। वे अभी तक पाठकों के हृदय को स्पन्दित करते हैं तथा उन्हें आध्यात्मिक पथ की ओर प्रेरित करते हैं और उनके हृदय में शान्ति लाते हैं।
भगवान् श्रीकृष्ण सदा के लिए सर्वश्रेष्ठ कर्मयोगी थे। उन्होंने ज्ञान ज्योति को जीवित रखा। वे ज्ञान तथा निष्काम कर्म की साक्षात् मूर्ति थे। इस भूलोक तथा स्वर्गलोक में जो भी श्रेष्ठतम, उच्चतम, पवित्रतम तथा सर्वाधिक सौन्दर्यमय, उत्कृष्ट एवं महान् था, उसका अपने जीवन में उन्होंने समावेश किया। वे गौ, गोपकुमार तथा गोपियों के सर्वस्व थे। वे निर्धनों तथा असहायों के मित्र तथा सहायक थे। वे एक अपूर्व प्रतिभाशाली पुरुष थे।
कंस की रंगशाला में उपस्थित मल्ल युद्ध करने वालों के लिए वे वज्र थे; फिर भी उनका हृदय सबसे अधिक कोमल था। वे कंस के लिए काल, गोपियों के लिए कामदेव, योगियों तथा भक्तों के लिए निरन्तर ध्येय पदार्थ, मुनियों के लिए आनन्द-स्वरूप एवं परमगति तथा माता-पिता के लिए बालक थे। वे मन्मथ के भी साक्षात् मन्मथ थे।
भगवान् श्रीकृष्ण जगत्पति होते हुए भी नम्रता की मूर्ति थे। वे अर्जुन के सारथि बने। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में अतिथियों के पाद प्रक्षालन का कार्य उन्होंने स्वेच्छा से अपने हाथों में लिया।
भागवत पुराण के अनुसार श्रीकृष्ण इस धरा धाम पर कुल एक सौ पचीस वर्ष तक रहे।
विद्यार्थी जीवन
भगवान् श्रीकृष्ण ने अवन्तीपुर के गुरु सान्दीपनि से विद्या प्राप्त की। वे एक साधारण विद्यार्थी की भाँति अपने गुरु के पास रहे। वे नम्र, विनीत तथा आज्ञाकारी शिष्य थे। उन्होंने बहुत कठोर जीवन व्यतीत किया। अपने गुरु के लिए उन्होंने अरण्य से समिधाएँ एकत्र कीं। उन्होंने अपने सहपाठियों के हृदय में प्रेम का संचार किया। सुदामा, जो बाद में कुचेला के नाम से प्रसिद्ध हुए, भगवान् श्रीकृष्ण के सहाध्यायी थे।
श्रीकृष्ण में अलौकिक स्मरण शक्ति थी। कितना ही कठिन क्यों न हो, जिस विषय को वे एक बार श्रवण करते, वह सदा उनके स्मृति पटल पर अंकित रहता। चौंसठ दिन के स्वल्पकाल में ही उन्होंने चौंसठ कलाओं में पूर्ण अधिकार प्राप्त कर लिया। उनका शारीरिक बल अतुलनीय था। वे धनुर्विद्या तथा युद्ध-कौशल में भी पारंगत थे।
जब उनका विद्यार्थी जीवन समाप्त हुआ, तब गुरु की आज्ञा से वे पंचजन नामक सामुद्रिक दैत्य से गुरुपुत्र को मुक्त कर लाये जो उन्हें उठा ले गया था। श्रीकृष्ण ने पंचजन का वध कर उसका शंख पांचजन्य ले लिया।
दया की मूर्ति
भगवान् श्रीकृष्ण मुनियों के सम्मुख परब्रह्म के रूप में, योगियों के सम्मुख परम तत्त्व के रूप में, गोपियों के सम्मुख कामदेव के रूप में, योद्धाओं के सम्मुख शूरवीर योद्धा के रूप में, वसुदेव-देवकी के सम्मुख नन्हें शिशु के रूप में, कंस के सम्मुख काल के रूप में तथा राजाओं के सम्मुख सम्राट् के रूप में अर्थात् विभिन्न व्यक्तियों की भावना के अनुसार विविध रूप में प्रतीत होते थे। विषय वे ही थे; किन्तु दर्शक के दृष्टिकोण के अनुसार वे विभिन्न रूपों में दृष्टिगोचर होते थे।
गोपियों के अतीव प्रेम के कारण वे उनके घरों से छिप कर मक्खन खाया करते थे। इसलिए वे माखन चोर कहलाते थे; परन्तु वास्तव में तो वे भक्तों के कुत्सित भावों का हरण कर उनके मन को दिव्य भावों से पूरित कर देते हैं। बाल्यावस्था की माखन चोरी तो प्रेमी गोपियों को आह्लादित करने के लिए उनकी एक प्रकार की लीला मात्र थी। गोपिकाओं को श्रीकृष्ण जी की यह लीला बहुत ही प्रिय थी; अतः वे भगवान् के आगमन तथा उनके मक्खन के आस्वादन की बड़ी उत्सुकता से प्रतीक्षा किया करती थीं। भगवान् वास्तव में अपने भक्तों के हृदय को चुरा कर उन्हें संसार से उदासीन बनाते तथा उनके मन को अपने चरण-कमलों की ओर आकर्षित कर उन्हें चिरन्तन शान्ति एवं आनन्द में विभोर कर देते हैं। 'दासोऽहम्' शब्द में 'दा' अक्षर का हरण कर अपने भक्तों को 'सोऽहम्' मैं वही हूँ अथवा जीव को परमात्मा से ऐक्य की भावना— के महत्त्व की अनुभूति कराते हैं। भगवान् गीता में कहते हैं: “ददामि बुद्धियोगं तम् — अपने भक्तों को मैं विवेक-योग प्रदान करता हूँ" (अध्याय: १०-१०)। भगवान् कितने दयालु है। । धन्य हैं वे तथा धन्य है उनका नाम!
उनके ही प्राण लेने के विचार से आयी हुई पूतना के प्रति भी मातृभाव रख कर उसे उन्होंने मुक्ति दी। उन्होंने कंस तथा शिशुपाल के समान घोर शत्रु को भी, जिसने भरी सभा में उनका अपमान किया था, मोक्ष प्रदान किया; फिर तो जो उनके अनन्य भक्त हैं, उनका कहना ही क्या!
एक बार भगवान् श्रीकृष्ण जी ने अपनी धर्मपत्नी श्रीरुक्मिणीदेवी से कहा "हे राजकुमारी अनेक वीर नरेशों के प्रेम को ठुकरा कर तुमने मुझसे ब्याह कर भला नहीं किया। मैं किसी देश का राजा नहीं हूँ। मैं तो भय के कारण समुद्र-तटीय नगर में निवास करता हूँ। मेरा आचार-व्यवहार भी विचित्र-सा है। यह सामान्य लौकिक व्यवहार के अनुरूप नहीं है। अल्पसंख्यक ही मुझे समझ पाते हैं। मेरे समान पुरुष को वरण करने वाली स्त्रियों को सदा क्लेश ही झेलना पड़ता है। मेरा सम्पर्क पतितों तथा अकिंचन लोगों से रहता है; अतः धनाढ्य लोग तो मुझ जैसे लोगों से मिलना-जुलना भी पसन्द नहीं करते । अपनी आत्मा में ही लीन रहने के कारण स्त्री, पुत्र, सम्पत्ति में मेरी कोई आसक्ति नहीं है; अतः हे विदर्भ कुमारी ! तुमने मेरे संग विवाह कर भूल ही की।"
श्रीकृष्ण का यह छोटा वक्तव्य उनकी महत्ता का परिचायक है। वे दुर्बल एवं विनम्र के प्रति अत्यन्त दयालु तथा कारुणिक थे।
महान् योद्धा
भगवान् श्रीकृष्ण बारह वर्ष की अल्पायु में ही एक निर्भीक योद्धा थे। कुब्जा के तिलक से अभिषिक्त तथा सुदामा माली के पुष्पहार से अलंकृत हो उन्होंने कंस के धनुर्यज्ञ की यज्ञशाला में प्रवेश कर विशाल धनुष को तोड़ डाला। कंस ने कुवलयापीड नामक हाथी को श्रीकृष्ण को मारने भेजा। भगवान् ने उसका वध कर रंगभूमि में प्रवेश किया। वहाँ उन्होंने कंस के प्रधान पहलवानों को अर्थात् चाणुर तथा तोषल को धराशायी बनाया। अब वे छलाँग मार कर कंस के मंच पर जा पहुँचे और उसको केश पकड़ कर मंच से गिरा दिया और उसके प्राण ले लिये।
श्रीकृष्ण जी ने मगधराज जरासन्ध तथा कालयवन से वीरतापूर्वक लोहा लिया। जरासन्ध अपने जामाता कंस के मारे जाने का वृत्तान्त सुन कर आग-बबूला हो उठा। उसने मथुरा नगरी पर सत्रह बार आक्रमण किया; किन्तु प्रत्येक बार उसे श्रीकृष्ण से मुँह की खानी पड़ी।
शोणितपुर नरेश सहस्रबाहु बाणासुर से उन्होंने युद्ध किया। श्रीकृष्ण के पुत्र अनिरुद्ध गुप्त रूप से बाण की पुत्री ऊषा से विवाह कर उसी के साथ रहने लगे थे। बाणासुर को इस रहस्य का पता चल गया और उसने अनिरुद्ध को बन्दी बना लिया। श्रीकृष्ण ने बाणासुर से युद्ध कर उसकी भुजाएँ काट डालीं और अनिरुद्ध तथा ऊषा के साथ द्वारका वापस आ गये।
तदुपरान्त उन्होंने करूष देश के राजा पौण्ड्रक का वध किया। वह श्रीकृष्ण की दिव्यता को अस्वीकार करता था और श्री विष्णु के चिह्न शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण कर अपने को वास्तविक वासुदेव घोषित करता था ।
दुष्ट शिशुपाल ने युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में श्रीकृष्ण को युद्ध के लिए ललकारा। भगवान् ने सुदर्शन चक्र उसके ऊपर चला कर उसका शिरोच्छेदन कर दिया। सौभपति शाल्व, जो शिशुपाल का मित्र था, ने अपने मित्र की मृत्यु के प्रतिकार की भावना से श्रीकृष्ण पर आक्रमण किया; किन्तु वह उनके हाथों मारा गया। इसी भाँति उन्होंने दन्तवक्त्र का भी बध किया।
योगेश्वर
आकाश मण्डल की तारिकाओं एवं समुद्र तट के रजत कणों की गणना कर सकना सम्भव है; किन्तु त्रिलोकपति भगवान् श्रीकृष्ण की अद्भुत तथा वीरतापूर्ण लीलाओं और यशस्वी कार्यों का परिगणन सम्भव नहीं है।
बाल्यावस्था में उन्होंने अनेक अद्भुत लीलाएँ कीं। उन्होंने जँभाई लेते समय माता यशोदा को विश्वरूप-दर्शन कराया, यमलार्जुन वृक्ष को उखाड़ फेंका, कालिय नाग के मस्तक पर नृत्य किया, इन्द्र द्वारा प्रेरित घनघोर वर्षा से गोकुल की रक्षा के हेतु गोवर्धन को अपनी कनिष्ठा उँगली पर धारण किया, नेत्रहीन विल्वमंगल को दृष्टि प्रदान की, द्रौपदी का चीर बढ़ाया तथा अर्जुन को विश्वरूप-दर्शन कराया।
एक बार दुर्वासा ऋषि अपने बहुत से शिष्यों के साथ महाराजा युधिष्ठिर का आतिथ्य ग्रहण करने के लिए पधारे। उस समय द्रौपदी भी भोजन समाप्त कर चुकी थीं और अतिथियों को परोसने के लिए कुछ भी भोजन शेष न था । श्रीकृष्ण ने द्रौपदी के पात्र में अवशिष्ट शाक का एक टुकड़ा खाया। जब वे ऋषि स्नान कर रहेथे, उन्हें ऐसा अनुभव भगवान् के कराया मानो कि उन्होंने बहुत अधिक राजसिक भोजन कर लिया है। वे लज्जित मन से शिर नीचा किये वहाँ से चल दिये। दुर्योधन की सभा में द्रौपदी के चीर हरण के अवसर पर उन्होंने उसे अनन्त वस्त्र प्रदान किये। रासलीला के समय वे अनेक रूप धारण कर प्रकट होते थे। जब ब्रह्मा जी ने गोपों और बछड़ों को श्रीकृष्ण जी से छिपा लिया तो उन्होंने अनेक रूप धारण कर लिये थे। क्या कोई मानव प्राणी ऐसा कर सकता है। केवल योगेश्वर ही इस प्रकार के अद्भुत कार्य कर सकते हैं।
भगवान् श्रीकृष्ण साक्षात् योगेश्वर, त्रिलोक-नाथ तथा चराचर जगत् की आत्मा हैं। भला उनके वैभव का कौन वर्णन कर सकता है। श्रीकृष्ण द्वारा अवशिष्ट शाक का एक टुकड़ा मात्र खा लेने से ही दुर्वासा तथा उनके शिष्य तृप्त हो गये। इससे यह स्पष्ट प्रमाणित होता है कि भगवान् श्रीकृष्ण सभी प्राणियों में निवास करते हैं।
नारद मुनि ने एक बार यह जानने की इच्छा से कि भगवान् श्रीकृष्ण किस प्रकार सोलह सहस्र स्त्रियों के साथ दाम्पत्य जीवन निर्वहन करते हैं, उनके अन्तःपुर में प्रवेश किया और सर्वत्र श्रीकृष्ण को विभिन्न कार्यों में व्यस्त पाया। कैसी अद्भुत बात है! नारद तो स्तब्ध रह गये। क्या यह सिद्ध नहीं करता कि श्रीकृष्ण योगेश्वर और स्वयं भगवान् ही हैं ?
श्रीकृष्ण भूतभर्तृ हैं। वास्तव में वे ही संसार की सभी स्त्रियों के पति हैं। वास्तविक पति तो केवल प्रभु ही हैं। इसी बात को बतलाने के लिए ही तो उन्होंने वसुदेव-देवकी के यहाँ पुत्र रूप में अवतार लिया ।
महान् राजनीतिज्ञ
श्रीकृष्ण एक महान् राजपुरुष थे। श्रीकृष्ण से श्रेष्ठ राजपुरुष का विश्व ने आज तक दर्शन नहीं किया। वे शान्ति से संस्थापक तथा स्वतन्त्रता के समर्थक थे। उनमें अपूर्व दूरदर्शिता थी तथा वे उदार विचारों के पोषक थे। जब वे बालक थे, तभी उन्होंने वर्षा के हितार्थ इन्द्र की प्रचलित पूजा-प्रथा के विरुद्ध आवाज उठायी और लोगों को धर्म के आधारभूत सारतत्त्वों के वास्तविक महत्त्व की शिक्षा दी ।
श्रीकृष्ण सर्वश्रेष्ठ राजनीतिज्ञ थे। वे सभी युगों के सबसे महान् राजनीतिज्ञ )हुए। वे नरेश-निर्माता थे। वे द्वारका नगर के जन्मदाता तथा एक महान् ऐतिहासिक पुरुष थे। वे एक आध्यात्मिक नेता तथा मानव-जाति के रक्षक थे। वे आध्यात्मिक गुरुओं में सबसे महान् थे।
कौरव-पाण्डवों के आसन्न गृह-युद्ध में वे शान्ति-संस्थापक नियुक्त किये गये। युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण को कौरवों के यहाँ सन्धि-प्रस्ताव ले कर भेजा। वहाँ उन्होंने दुर्योधन को विस्तारपूर्वक ज्ञानोपदेश दिया। धृतराष्ट्र की सभा में उनका रोमांचकारी-प्रेरणात्मक भाषण उनके सर्वश्रेष्ठ राजनीतिज्ञ होने का प्रमाण है। उन्होंने दुर्योधन से कहा: “हे भरतवंश के राजकुमार ! बुद्धिमान्, वीर तथा धर्मपरायण पाण्डवों से मित्रता कर लीजिए। शान्ति ही मित्रों, सम्बन्धियों तथा समस्त विश्व में सुख-समृद्धि लाती है। जो अपने मित्र के ज्ञानोपदेश पर ध्यान नहीं देते, वे नाश तथा शोक को प्राप्त होते हैं।'
उनके समकालीन योग्य राजा गण भी उनकी कूटनीति में सूक्ष्मदर्शिता तथा कुशल राजनीतिज्ञता की प्रशंसा करते थे। राजा एवं शासक गण उनका सत्परामर्श लिया करते थे।
उनकी शिक्षाएँ
उद्धव के प्रति दिये गये श्रीकृष्ण के सर्वोत्कृष्ट उपदेश को तनिक सुनिए । श्रीकृष्ण कहते हैं: "यदि लोग उपहास करते हैं तो उस पर तनिक भी ध्यान न दें, उसकी परवाह न करें, देहाभिमान तथा लोक-लज्जा को छोड़ दें और कुत्ते, चाण्डाल, गौ एवं गधे को भी भूमि पर लेट कर साष्टांग प्रणाम करें। मुझ परमात्मा को सबमें देखें और सबको मुझमें आत्म-समर्पण करें। मेरे ही हेतु सभी कर्मों का सम्पादन करें। सभी प्रकार के राग का परित्याग करें। मुझमें पूर्ण तथा अविचल श्रद्धा रखें। मेरी महिमा का गायन करें।'
गीता की शिक्षा कर्म-प्रधान है। इसमें भगवान् श्रीकृष्ण ने निष्काम कर्म के महत्त्व पर विशेष बल दिया है; किन्तु उद्धव के प्रति दिये हुए उपदेश भक्ति-प्रधान हैं। उन्होंने उद्धव को भक्ति के महत्त्व पर अधिक बल दिया है। गीता में भी भगवान् ने आत्म-समर्पण पर अधिक बल दिया है। अन्तिम अध्याय में वे घोषित करते हैं. "सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज" (गीता : १८-६६) ।
बाँसुरी की पुकार
बाँसुरी प्रणव का प्रतीक है। यह वह बाँसुरी है जो प्रेमी गोपिकाओं अथवा ब्रजांगनाओं का पुण्यतोया यमुना के पुलिन पर प्राणप्रिय श्रीकृष्ण से मिलने के लिए आह्वान करती थी । वंशी का दिव्य संगीत बहुत ही मनोहारी था। उसमें जादू की-सी शक्ति थी। जब वह श्रोत्र- रन्ध्रों से हृदय गुहा में प्रवेश करता तो सुनने वाला अपने प्रियजनों की, जगत् की तथा अपनी भी सुध-बुध खो बैठता। श्रोता आनन्दातिरेक से नृत्य करने लग जाते और उनका हृदय प्रेम से परिपूरित हो जाता।। उसकी स्वर्गिक ध्वनि हृदय में आनन्द का स्फुरण कर नव-जीवन और हर्ष का संचार करती थी। वह सभी प्राणियों में ईश्वरीय प्रेमोन्माद उत्पन्न करती तथा जड़ जगत् में भी जीवनी शक्ति का संचार करती थी। उस संगीत में अनुपम माधुर्य था । जिसने श्रीकृष्ण की वंशी का संगीत एक बार भी सुन लिया, उसे स्वर्ग के अमृत अथवा मोक्ष के आनन्द की भी अभिलाषा न रही।
वंशी तथा उसके संगीत ने गोपियों की हृत्तन्त्री के तार को झंकृत कर दिया। उन्हें अपने पर अधिकार न रहा। जगत् की भी चेतना उन्हें न रही। वे श्रीकृष्ण की ओर बलात् खिंची-सी अनुभव करत । अपने गृह के परित्याग से न तो उन्हें भय लगता और न लज्जा ही। उनका मन इस स्थूल जगत् में न था। उनके पति तथा भ्राताओं ने उन्हें रोका; किन्तु वे न रुकीं, वे रोक न सके। प्रभु प्रेम की प्रबल धारा को भला कौन अवरुद्ध कर सकता है!
श्रीकृष्ण के प्रति गोपियों का प्रेम दिव्य प्रेम था। वह आत्मा का आत्मा के साथ मिलन था, स्त्री-पुरुष का लौकिक मिलन नहीं था। वह जीवात्मा की परमात्मा में विलीन होने की तीव्र आकांक्षा थी।
गोपियाँ पूर्व जन्म में दण्डक वन में मुनि थे। वे भगवान् राम का आलिंगन करना चाहते थे। इस कामना की पूर्ति आगामी किसी अवतार में करने का भगवान् ने उन्हें वचन दिया था। कृष्णावतार में वे परमात्मा के साथ सायुज्यता प्राप्त कर सके।
हे भगवान् कृष्ण ! हे त्रिलोकी के अमर गायक ! इस घोर संकटकाल में, जबकि सर्वत्र अशान्ति एवं विषाद छाया हुआ है, क्या एक बार वही बाँसुरी की तान छेड़ कर दिव्य प्रेम एवं आनन्द का नव-जीवन नहीं प्रदान करेंगे !
हे प्रभो। एक बार वंशी के उस मोहक संगीत को पुनः सुनने दीजिए जो क्षुब्ध प्राणियों एवं वातावरण को शान्त तथा स्थिर बनाता था, जो दिव्य राग जड़ पदार्थों को भी चलायमान कर देता था, जो स्वर्गिक संगीत नभ-चर पक्षियों को, भटकती हुई गौओ को तथा वन में विचरते हुए मृगों को यमुना तट पर हटात् खींच लाता और उन्हें आत्म-विस्मृत हो निर्निमेष दृष्टि से आपकी ओर देखते रहने को बाध्य करता था।
श्रीमद्भागवत की रचना
श्री व्यासदेव सरस्वती नदी के तट पर विचार मन थे। आज उनका हृदय क्षुब्ध था। उनमें सन्तोष एवं शान्ति न थी। उन्होंने मन में सोचा, “मैंने ब्रह्मचर्य-व्रत का पूर्ण पालन किया है। मैंने उचित भाव से वेदों का स्वाध्याय, गुरुजनों की सेवा तथा अग्निहोत्र किये तथा उनकी आज्ञा का पालन भी किया। मैंने महाभारत के रूप में वेदों का वास्तविक अर्थ प्रकट कर दिया जिससे शूद्र, स्त्री तथा दूसरे अनधिकारी लोग धर्म तथा नीति आदि स्पष्ट रूप से समझ सकें। फिर भी मुझे ऐसा जान पड़ता है कि मैंने अपना कर्तव्य अभी तक पूरा नहीं किया।"
इसी अवसर पर नारद जी वहाँ आ पहुँचे। देवर्षि नारद ने कहा, "सभी ज्ञातव्य विषय आप भली-भाँति जान गये हैं। आपने श्रेष्ठ महाभारत की रचना की, जिसमें सभी विषयों का समावेश है। फिर यह असन्तोष एवं अशान्ति क्यों?"
श्री व्यासदेव ने कहा, “मैं आपसे पूर्णतः सहमत हूँ; फिर भी मुझे सन्तोष नहीं। मैं आपसे इसका कारण जानना चाहता हूँ। आप ब्रह्मा के पुत्र हैं। आपमें असीम ज्ञान है।"
देवर्षि नारद ने कहा, "हे महर्षे! आपने धर्म आदि का निरूपण तो किया है; किन्तु आपने भगवद्-गुणानुवादों का गायन नहीं किया। मेरे विचार से इसी कारण भगवान् सन्तुष्ट नहीं हैं। अतः हे सौभाग्यशाली! भगवान् श्रीकृष्ण की विभिन्न लीलाओं का चित्रण करें, जिसे सुन और जान कर लोग मोक्ष प्राप्त कर सकें। जिनसे जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय होती है, वे भगवान् ही विश्व के रूप में भी हैं। आप इस बात को स्वयं भली-भाँति जानते हैं; किन्तु आपने इस सत्य के आंशिक रूप का ही लोगों को दिग्दर्शन कराया है। अतः हे व्यासदेव ! उस सर्वव्यापी भगवान् हरि की कीर्ति का, उनकी महिमा का वर्णन कीजिए। उसी से बड़े-बड़े ज्ञानियों की भी जिज्ञासा पूर्ण होती है। ज्ञानी जन जानते हैं कि संसार सागर की तरंगों से बारम्बार थपेड़े खाने वाले प्राणियों के क्लेश-शमन की यही एकमेव औषधि है।"
तदुपरान्त श्री व्यासदेव ने श्रीमद्भागवत की रचना की और परम शान्ति प्राप्त की। उन्होंने उसे अपने आत्मज श्री शुकदेव जी को अध्यापन कराया।
श्रीमद्भागवत- -महापुराण
हिन्दुओं के धर्म-ग्रन्थों में पुराणों को अद्वितीय स्थान प्राप्त है। वे दर्शन एवं धर्म के सभी विषयों के ज्ञान और सूचना के अक्षुण्ण कोष हैं। सामान्य जन श्रुतियों अथवा वेदों को सुगमतया समझ नहीं सकते हैं। अतः परम दयालु भगवान् वेदव्यास जी ने मानव जाति के कल्याणार्थ अठारह पुराणों का प्रणयन किया और श्रुतियों के रहस्यात्मक सत्य तथा गूढ़ तत्त्वों की सरल शैली में व्याख्या की। वे वास्तव में हिन्दू-धर्म एवं नीति के विश्वकोष हैं।
पुराणों में गल्प, परियों की कहानियों, दर्शन, धर्म, कथानक एवं आख्यायिकाओं का समावेश है, अतः पाश्चात्य देश का विद्वान् यदि वह भारतीय ऋषियों के धर्म तथा दर्शन की प्रतिपादन शैली से परिचित नहीं है तो इनका उचित मूल्यांकन न कर सकेगा। वैदिक सत्य को समाख्यानों, कथानकों तथा रूपकों द्वारा लोकप्रिय बनाना ही पुराणों का मुख्य उदेश्य है।
श्रीमद्भागवत सबके लिए एक व्यावहारिक पथ-प्रदर्शक है। यह बतलाता है। कि ईश्वर - साक्षात्कार ही मनुष्य को मोक्ष देता है। यह ईश्वरीय चेतना की प्राप्ति का पथ भी प्रदर्शित करता है। इसका उपदेश है कि एकमेव ईश्वर की ही सत्ता है तथा ईश्वर साक्षात्कार ही मानव जीवन का परम तथा चरम लक्ष्य है। सर्वत्र, सर्वदा तथा सर्व स्थिति में ईश्वर की अनुभूति की यह हमें शिक्षा देता है। निश्चय ही यह एक अलौकिक ग्रन्थ तथा मनुष्य की महानिधि है।
श्रीमद्भागवत जीवन में सान्त्वना प्रदान करता है। यह अपने सौन्दर्य एवं माधुर्य में, अपनी प्रतिपादन शैली एवं दर्शन में अद्वितीय है। यह दिव्य ज्ञान का बहुमूल्य भण्डार है। इसका स्वाध्याय मात्र हृदय में भक्ति की प्रेरणा भरता तथा ज्ञान विस्तृत एवं वैराग्य का स्फुरण करता है। इसमें भगवान् वासुदेव की महिमा का 1 वर्णन है।
भगवान् व्यासदेव स्वयं इसके प्रणेता है। उन्होंने इसका अपने पुत्र श्री शुकदेव । जी को अध्यापन कराया। इसकी अनेक टीकाएँ हैं; किन्तु श्रीधर स्वामी की टीका ही अधिक लोकप्रिय तथा प्रामाणिक मानी जाती है।
श्रीमद्भागवत ही सभी पुराणों में सर्वाधिक लोकप्रिय तथा सम्मानित है। भारत के सभी वैष्णव इसे सबसे अधिक आदर की दृष्टि से देखते है । संस्कृत-साहित्य को अपने भक्तिपरक ग्रन्थों पर गर्व एवं अभिमान है। यह उन ग्रन्थों में कीर्ति स्तम्भ के तुल्य है। स्वयं व्यासदेव अपने श्रीमुख से कहते हैं कि यह श्रीमद्भागवत विशालकाय महाभारत का सारतत्त्व है तथा समस्त वैदिक साहित्य के परिपक्क फल के समान है।
उपदेशकों तथा धर्माचार्यों का यह अति-प्रिय ग्रन्थ है। सभी हिन्दू-घरों में इसकी पूजा होती है। सारे भारत में विद्वान्, पण्डित, साधु और संन्यासी इसका पाठ करते हैं।
इस ग्रन्थ में ज्ञान, भक्ति तथा कर्म को समुचित स्थान दिया गया है। जो शरीर तथा संसार से अधिक आसक्त हैं उनके लिए कर्म का, जो वैराग्यवान् तथा विरक्त हैं उनके लिए ज्ञान का और जो न अधिक आसक्त हैं और न अधिक वैराग्यवान् ही हैं, जो उदासीन हैं उनके लिए भक्ति का उपदेश किया गया है। यह भागवत-धर्म या प्रेम-धर्म की पूर्ण शिक्षा देता है।
हिन्दू-धर्म, दर्शन तथा संस्कृति में जो कुछ भी उत्कृष्ट है, वह सब भागवत में उपलब्ध है। इस अनूठे एवं अनुपम ग्रन्थ में धर्म एवं दर्शन के चरम सत्य का तथा नीति-शास्त्र के सर्वोच्च सिद्धान्तों का बहुत ही सुन्दर ढंग से निरूपण किया गया है।
भारतीय ऋषि-मुनियों ने