भगवान शिव
और
उनकी आराधना
LORD SIVA AND HIS WORSHIP का हिन्दी भाषान्तर
लेखक
श्री स्वामी शिवानन्द सरस्वती
अनुवादिका
स्वामी शिवाश्रितानन्द माता जी
प्रकाशक
द डिवाइन लाइफ सोसायटी
पत्रालय : शिवानन्दनगर – २४९१९२
जिला : टिहरी गढ़वाल, उत्तराखण्ड (हिमालय), भारत
www.sivanandaonline.org, wwwldishq.org
प्रथम हिन्दी संस्करण : २००७
द्वितीय हिन्दी संस्करण : २०१९
(५०० प्रतियाँ)
© डिवाइन लाइफ ट्रस्ट सोसायटी
HS 1
PRICE: ₹150/-
'द डिवाइन लाइफ सोसायटी, शिवानन्दनगर' के लिए स्वामी पद्मनाभानन्द द्वारा प्रकाशित तथा उन्हीं के द्वारा 'योग-वेदान्त फारेस्ट एकाडेमी प्रेस, पो. शिवानन्दनगर, जि. टिहरी गढ़वाल, उत्तराखण्ड, पिन २४९१९२' में मुद्रित ।
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उमा, गौरी या पार्वती
के परम पति तथा
शाश्वत परमानन्द, ज्ञान एवं अमरत्व
के प्रदाता
भगवान् शिव को समर्पित
ॐ
दिव्य आत्मन्,
भगवान् शिव प्रेम स्वरूप हैं। उनकी कृपा निःसीम है। वे मुक्तिदाता हैं, गुरु हैं। वे उमाकान्त हैं। वे सत्यम्, शिवम्, शुभम्, सुन्दरम् कान्तम् हैं। वे आप सबके हृदयों में दीप्त होने वाली परम ज्योति हैं।
उनके स्वरूप का ध्यान करें। उनकी लीलाओं का श्रवण करें। उनके मन्त्र 'ॐ नमः शिवाय' का जप करें। शिवपुराण का स्वाध्याय करें। उनकी प्रतिदिन आराधना करें। समस्त नाम रूपों में उनके दर्शन करें। वे अपने दर्शन दे कर आपको कृतार्थ कर देंगे।
स्वामी शिवानन्द
समस्त जिज्ञासुओं, साधकों तथा विशेष रूप से भगवान् शिव के भक्तों के लिए यह पुस्तक अत्यधिक बहुमूल्य और शिक्षाप्रद है। इसमें पन्द्रह अध्याय हैं। शिव-तत्त्व अथवा ईश्वर - साक्षात्कार की प्राप्ति के लिए इसमें व्यावहारिक साधना के लिए पर्याप्त निर्देशन उपलब्ध है। यह इसके अध्याय स्वयं सिद्ध करते हैं। शिव ताण्डव, शक्ति योग तथा शिव-तत्त्व के रहस्यों का निरूपण अत्यन्त सौन्दर्यपूर्ण है। शैव उपनिषदों की प्रस्तुति और भी भव्य रूप से की गयी है। शिवाचार्यों, भक्तों तथा नायनारों की जीवनगाथाएँ अत्यन्त मर्मस्पर्शी हैं। उनके जीवन के अध्ययन से व्यक्ति का जीवन पावन और उदात्त हो सकता है।
इसका दार्शनिक भाग पाठकों के लिए अत्यधिक प्रबोधक तथा सहायक है। पुस्तक में समस्त शैवपुराणों यथा पेरिय पुराण, लिंग पुराण, शिव पराक्रम और तिरुविलयडाल पुराण इत्यादि का सार निहित है। कतिपय शिव-स्तोत्रों को हिन्दी अनुवाद सहित सम्मिलित कर लेने ने इसके मूल्य में और वृद्धि कर दी है।
पुस्तक अत्यन्त सरल, बोधगम्य और स्पष्ट ढंग से लिखी गयी है। आध्यात्मिक दृष्टिकोण से पर्याप्त महत्त्वपूर्ण होने के कारण समस्त धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्तियों को इसका निश्चित रूप से अध्ययन करना चाहिए।
- द डिवाइन लाइफ सोसायटी
विषय-सूची
शिव मन्दिर में अभिषेक और रुद्र जप का महत्त्व
भगवान् शिव द्वारा नाकिरार को दण्ड और क्षमा
भगवान् शिव का वृषभ को वाहन बनाना
भगवान् शिव द्वारा शीश पर गंगा को धारण करना
भगवान शिव की भिक्षा माँगने की लीला
भगवान शिव का त्रिशूल और मृग इत्यादि धारण करना
भगवान् शिव का गज- - चर्म धारण करना
भगवान् शिव लकड़हारे के रूप में
भगवान् शिव को प्राप्त करने के उपाय
भगवान शिव
और
उनकी आराधना
१. ॐ नमः शिवाय
ॐ सत्-चित्-आनन्द परब्रह्म है। 'नमः शिवाय' का अर्थ है-भगवान शिव को नमस्कार ! यह भगवान् शिव का पाँच अक्षरों वाला पंचाक्षर मन्त्र है। यह अत्यन्त शक्तिशाली मन्त्र है और यह मन्त्र, जपने वाले को परमात्मा का परम आनन्द प्रदान करने वाला है।
२. ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि।
तन्नो रुद्रः प्रचोदयात् ॥
हम उन यशस्वी परम पुरुष की अनुभूति करते हैं, और उन महान देव महादेव का ध्यान करते हैं; वे रुद्र हमें इसकी प्रेरणा दें। यह रुद्र गायत्री मन्त्र है।
३. ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् ।
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् ॥
मैं उन त्रिनेत्रधारी भगवान् शिव को नतमस्तक प्रणाम करता हूँ जो मधुर सुगन्ध से पूर्ण हैं, जो समस्त प्राणियों को पुष्टि प्रदान करने वाले हैं। वे मुझे मृत्यु से उसी प्रकार मुक्त करें जैसे ककड़ी का फल अपनी लता के बन्धन से सहजता से छूट जाता है। वे मुझे अमृतत्व प्रदान करें। यह महामृत्युंजय मन्त्र है।
नागेन्द्रहाराय त्रिलोचनाय भस्मांगरागाय महेश्वराय ।
नित्याय शुद्धाय दिगम्बराय तस्मै नकाराय नमः शिवाय ॥ १ ॥
कण्ठ में सर्पों के हार वाले, तीन नेत्रों वाले, भस्म से अनुलेपित, दिशाओं के वस्त्र वाले (अर्थात् नग्न), उन शुद्ध अविनाशी महेश्वर 'न' कार स्वरूप शिव को नमस्कार है।
मन्दाकिनीसलिलचन्दनचर्चिताय नन्दीश्वरप्रमथनाथमहेश्वराय ।
मन्दारपुष्पबहुपुष्पसुपूजिताय तस्मै मकाराय नमः शिवाय ॥२॥
मैं उन 'म' कार स्वरूप शिव को प्रणाम करता हूँ जो मन्दार तथा अन्यान्य ऐसे ही दिव्य पुष्पों से पूजित हैं, गंगाजल और चन्दन से जिनकी अर्चा हुई है, जो नन्दी के अधिपति और प्रमथ गणों के स्वामी हैं।
शिवाय गौरीवदनारविन्दसूर्याय दक्षाऽध्वरनाशकाय ।
श्री नीलकण्ठाय वृषध्वजाय तस्मै शिकाराय नमः शिवाय ॥३॥
“शि' कार स्वरूप नीलकण्ठ भगवान् शिव को, दक्ष के यज्ञ को नष्ट करने वाले तथा गौरी के मुख-कमल को विकसित करने वाले सूर्य स्वरूप को, ध्वजा में बैल का चिह्न धारण करने वाले शोभाशाली भगवान् को हमारा नमस्कार है।
वसिष्ठकुम्भोद्भवगौतमार्यमुनीन्द्रदेवाऽर्चितशेखराय ।
चन्द्रार्कवैश्वानरलोचनाय तस्मै वकाराय नमः शिवाय ॥४ ॥
जिनकी पूजा वसिष्ठ, अगस्त्य तथा गौतम आदि श्रेष्ठ मुनियों ने तथा इन्द्र आदि देवताओं ने सदैव की है, चन्द्रमा, सूर्य व अग्नि जिनके तीन नेत्र हैं, उन 'व' कार स्वरूप, देवों के देव, महादेव को नमस्कार है।
यक्षस्वरूपाय जटाधराय पिनाकहस्ताय सनातनाय ।
दिव्याय देवाय दिगम्बराय तस्मै यकाराय नमः शिवाय ॥५ ॥
उन दिव्य सनातन पुरुष, उन दिगम्बर देव 'य' कार स्वरूप शिव को नमस्कार है जिन्होंने यक्ष रूप धारण किया है, जो जटाधारी हैं और जिनके हाथ में पिनाक है।
पंचाक्षरमिदं पुण्यं यः पठेच्छिवसन्निधौ ।
शिवलोकमवाप्नोति शिवेन सह मोदते ॥ ६ ॥
जो शिव के सम्मुख इस पवित्र पंचाक्षर का पठन करता है, वह परम शिवधाम को प्राप्त करता है और वहाँ शिव के साथ परमानन्द को भोगता है।
ॐकार बिन्दुसंयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः ।
कामदं मोक्षदं चैव ॐकाराय नमो नमः ॥ १ ॥
हम सदैव उस बिन्दु युक्त 'ॐ' कार को प्रणाम करते हैं, जिसका योगी निरन्तर ध्यान करते हैं और जो समस्त कामनाओं तथा परम मोक्ष को देने वाला है।
नमन्ति ऋषयो देवा नमन्त्यप्सरसां गणाः ।
नरा नमन्ति देवेशं नकाराय नमो नमः ॥ २ ॥
मनुष्य और सन्त, देवता और अप्सराओं के समूह, उस 'न' कार स्वरूप परमात्मा को नमस्कार करते हैं। हमारा उन्हें बारम्बार नमस्कार है।
महादेवं महात्मानं महाध्यानं परायणम् ।
महापापहरं देवं मकाराय नमो नमः ॥ ३ ॥
'म' कार स्वरूप देदीप्यमान परमात्मा जो लोकातीत है, समस्त पापों का नाशक है, उपासना और ध्यान का श्रेष्ठतम लक्ष्य है—को हमारा बारम्बार प्रणाम है।
शिवं शान्तं जगन्नाथं लोकानुग्रहकारकम् ।
शिवमेकपदं नित्यं शिकाराय नमो नमः ॥४ ॥
वह सर्वकल्याणकारी और सर्वशक्तिमान् विश्वनाथ 'शि' कार स्वरूप, जो जगत् को सुख-शान्ति प्रदान करने वाला है, जो एक शाश्वत शिव है, को हमारा बारम्बार प्रणाम है।
वाहनं वृषभो यस्य वासुकिः कण्ठभूषणम् ।
वामे शक्तिधरं देवं वकाराय नमो नमः ॥५॥
जो बायें हाथ में शक्ति धारण किये हुए है, बैल जिसका वाहन है, सर्पराज वासुकी जिसके कण्ठ का आभूषण है, उन 'व' कार स्वरूप शिव को हम बारम्बार नमस्कार करते हैं।
यत्र यत्र स्थितो देवः सर्वव्यापी महेश्वरः ।
यो गुरुः सर्वदेवानां यकाराय नमो नमः ॥६॥
'य' कार स्वरूप उन सर्वव्यापक महेश्वर को, जो साकार भी हैं और निराकार भी, जो समस्त देवताओं के गुरु हैं और हमारे भी गुरु हैं, वे जहाँ-कहीं भी हों उन्हें हमारा बारम्बार प्रणाम है।
षडक्षरमिदं स्तोत्रं यः पठेच्छिवसन्निभौ ।
शिवलोकमवाप्नोति शिवेन सह मोदते ॥७ ॥
जो इस षडक्षर स्तोत्र 'ॐ नमः शिवाय' का भगवान शिव के सम्मुख पाठ करता है, वह परम शिवधाम में परम आनन्द को प्राप्त करता है।
ब्रह्ममुरारिसुरार्चित लिंगं निर्मलभाषितशोभित लिंगम्।
जन्मजदुःखविनाशकलिंगं तत्प्रणमामि सदाशिवलिंगम् ॥ १ ।।
मैं उन सदाशिव लिंग को प्रणाम करता हूँ जो ब्रह्मा, विष्णु तथा अन्य देवों द्वारा पूजित है, जो निर्मल और पवित्र वाणियों द्वारा प्रशंसित है तथा जो जन्म-मरण के बन्धन को काटने वाला है।
देवमुनि प्रवरार्चित लिंगं कामदहं करुणाकरलिंगम् ।
रावणदर्पविनाशनलिंगं तत्प्रणमामि सदाशिवलिंगम् ॥ २ ॥
वह लिंग देवताओं और मुनियों द्वारा पूजित है। वह कामदेव को नष्ट करने वाला तथा असीम दया का सागर है। उसी ने रावण के अभिमान का विनाश किया। मैं उस सदाशिव लिंग को प्रणाम करता हूँ।
सर्वसुगन्धिसुलेपितलिंगं बुद्धिविवर्धनकारणलिंगम् ।
सिद्धसुरासुरवन्दितलिंगं तत्प्रणमामि सदाशिवलिंगम् ॥३॥
मैं उस सदाशिव लिंग को प्रणाम करता हूँ, जो सब प्रकार की सुगन्धियों से विलेपित है और जो बुद्धि की वृद्धि का कारण है तथा जो सिद्धों, देवों और असुरों द्वारा पूजित है।
कनकमहामणिभूषितलिंगं फणिपतिवेष्टितशोभितलिंगम् ।
दक्षसुयज्ञविनाशनलिंगं तत्प्रणमामि सदाशिवलिंगम् ॥ ४ ॥
मैं उस सदाशिवलिंग को प्रणाम करता हूँ जिसने दक्ष के यज्ञ को विध्वंस किया, जो स्वर्ण तथा महामणि से विभूषित है और जो शेषनाग से वेष्टित हो कर शोभायमान हो रहा है।
कुंकुमचन्दनलेपितलिंगं पंकजहारसुशोभितलिंगम् ।
संचितपापविनाशनलिंगं तत्प्रणमामि सदाशिवलिंगम् ॥ ॥ ५ ॥
मैं उस सदाशिवलिंग को प्रणाम करता हूँ जो कुकुम तथा चन्दन से लेपित है, जो कमल-पुष्पहार से सुशोभित है और वह समस्त संचित पापों को नष्ट करने वाला है।
देवगणार्चितसेवितलिंगं भावैर्भक्तिभिरेवचलिंगम् ।
दिनकरकोटिप्रभाकरलिंगं तत्प्रणमामि सदाशिवलिंगम् ॥ ६ ॥
मैं उस सदाशिवलिंग को नमस्कार करता हूँ जिसकी देवता और भूत गण पूजा व सेवा करते हैं, जो भावपूर्ण भक्ति द्वारा प्रसन्न होता है और जिसका करोड़ों सूर्यो के समान प्रकाश है।
अष्टदलोपरिवेष्टितलिंगं सर्वसमुद्भवकारणलिंगम् ।
अष्टदरिद्रविनाशितलिंगं तत्प्रणमामि सदाशिवलिंगम् ॥७॥
मैं उस सदाशिवलिंग को प्रणाम करता हूँ जो आठ प्रकार की दरिद्रता को नष्ट करता है, जो सबकी उत्पत्ति का कारण है और अष्टदल कमल पर आसीन है
सुरगुरुसुरवरपूजितलिंगं सुरवनपुष्पसदार्चितलिंगम् ।
परात्परं परमात्मक लिंगं तत्प्रणमामि सदाशिवलिंगम् ॥ ८ ॥
मैं उस सदाशिवलिंग को नमस्कार करता हूँ जो परात्पर तथा परमात्मा है, जो देवताओं के गुरु बृहस्पति तथा श्रेष्ठ देवताओं द्वारा देववनों से लाये गये पुष्पों द्वारा पूजित व अर्चित है।
लिंगाष्टकमिदं पुण्यं यः पठेच्छिव सन्निधौ ।
शिवलोकमवाप्नोति शिवेन सहमोदते ॥ ९ ॥
जो भी शिवलिंग के सम्मुख भक्तिभाव से इस लिंगाष्टकम् का पाठ करता है, वह परमशिवधाम में कभी न समाप्त होने वाले परमानन्द व स्वर्ग सुख को प्राप्त होता है।
चांपेयगौरार्धशरीरकायै कर्पूरगौरार्धशरीरकाय ।
धम्मिल्लकायै च जटाधराय नमः शिवायै च नमः शिवाय ॥ १ ॥
जिनका आधा शरीर चमकते हुए स्वर्ण-सा चम्पई वर्ण का देदीप्यमान है तथा आधा शरीर कर्पूर गौरवर्ण का उद्भासित है, उस अलंकृत केशों वाली गौरी को तथा उन जटाधारी भगवान् शिव को हम प्रणाम करते हैं।
कस्तूरिकाकुंकुमचर्चितायै चितारजपुंजविचर्चिताय ।
कृतस्मरायै विकृतस्मराय नमः शिवायै च नमः शिवाय ॥२॥
कस्तूरि कुकुम व चन्दन से जिसका शरीर विलेपित है उसके, तथा चितानि भस्म से जिनका शरीर भस्मित है उनक, जो अपने सौन्दर्य से प्रेम प्रसारित करती है उसके, तथा जो काम के देवता को नष्ट करने वाले है—उस गौरी और उन भगवान् शिव को हम नमस्कार करते हैं।
चलत्क्वणत्कंकणनूपुरायै मिलत्फणाभास्वरनूपुराय ।
हेमांगदायै भुजगांगदाय नमः शिवायै च नमः शिवाय ॥३॥
जो क्वण-कण की सुन्दर मधुर ध्वनि ।युक्त नूपुरों से सुशोभित है उसे तथा जिनके चरणकमल सर्पों के नूपुरों से सुशोभित हैं उनको। उसको जिसने स्वर्ण कंगन धारण किये हैं तथा उनको जिन्होंने सर्प के कंगन धारण किये हुए हैं—उस गौरी तथा उन भगवान् शिव को हम प्रणाम करते हैं।
विलोलनीलोत्पललोचनायै विकासिपंकेरुहलोचनाय ।
समेक्षणायै विषमेक्षणाय नमः शिवायै च नमः शिवाय ॥४ ॥
नीलकमल के समान जिसके विशाल नेत्र हैं, पूर्ण विकसित कमल के सदृश जिनके विस्तृत नेत्र हैं, समनेत्रों (दो नयन) वाली तथा विषम (तीन नयन) नेत्रों वाले गौरी और भगवान् शिव को हम नमस्कार करते हैं।
मन्दारमालाकुलितालकायै कपालमालांकितकन्धराय ।
दिव्याम्बरायै च दिगम्बराय नमः शिवायै च नमः शिवाय ॥५ ॥
जिसके केश मधुर सुगन्धि युक्त दिव्य पुष्पों से शोभित हैं तथा जिनका कण्ठ मुण्डमाल से शोभायमान है, जो अत्युत्तम दिव्य वस्त्राभूषणों से अलंकृत हैं तथा जिनकी अष्ट दिशाएँ ही वस्त्र हैं, उस गौरी तथा उन भगवान् शिव को हम नमस्कार करते हैं।
अम्भोधरश्यामलकुन्तलायै तडित्प्रभाताम्रजटाधराय ।
गिरीश्वरायै निखिलेश्वराय नमः शिवायै च नमः शिवाय ॥ ६ ॥
जिसके केश जलपूर्ण श्यामघन के सदृश है तथा जिनकी विद्युत् के समान जटाएँ है, जो हिमालय की परम भगवती देवी पार्वती हैं तथा जो समस्त विश्व के ईश्वर हैं, उन गौरी तथा भगवान् शिव को हमारा नमस्कार है।
प्रपंचसृष्ट्युन्मुखलास्यकायै समस्तसंहारकताण्डवाय ॥
जगज्जनन्यै जगदेकपित्रे नमः शिवायै च नमः शिवाय ॥७ ॥
जिसके नृत्य से संसार की रचना होती है तथा जिनके नृत्य से सम्पूर्ण विश्व का पूर्णतया संहार हो जाता है, उसे जो जगन्माता है तथा उन्हें जो विश्वपिता है, उन गौरी तथा शिव को हम नमस्कार करते हैं।
प्रदीप्तरत्नोज्ज्वलकुण्डलायै स्फुरन्महापन्नगभूषणाय ।
शिवान्वितायै च शिवान्विताय नमः शिवायै च नमः शिवाय ॥ ८ ॥
जिसके रत्नजटित कर्णकुण्डल हैं तथा जो सर्प आभूषण धारण किये हुए हैं, उसे जो सदा भगवान् शिव से संयुक्त हैं तथा उन्हें जो साम्ब सदाशिव हैं, उस गौरी और उन भगवान् शिव को हम बारम्बार प्रणाम करते हैं।
ऋषभ ऋषि ने युवराज से कहा :
ॐ! उमापति भगवान् नीलकण्ठ, त्रिनेत्रधारी, सहस्र भुजाधारी शम्भू, जो अपने शक्तिशाली पराक्रम से शत्रुओं का विनाश कर देते हैं, उनको मेरा नमस्कार है।
अब मैं तुम्हारे हित के लिए सम्पूर्ण तप के उस भेद को प्रकट करता हूँ, जिसे पा कर तुम समस्त पाप-तापों से छूट कर सदा सफलता को प्राप्त करोगे ।
सर्वव्यापक प्रभु शिव की उपासना के पश्चात् अब मैं मानव मात्र के मंगल व कल्याण हेतु शिवकवच के गहन सत्य को प्रकट करता हूँ।
मनुष्य को एकान्त पवित्र स्थान पर शान्तावस्था में बैठ कर समस्त इन्द्रियों का निग्रह करके प्राणों को नियन्त्रित करके उन अविनाशी शिव पर ध्यान लगाना चाहिए। तब उन सर्वव्यापक इन्द्रियातीत को हृदय कमल पर विराजमान करने के पश्चात् उन सूक्ष्म व अनन्त पर ध्यान लगाना चाहिए।
उसके निरन्तर ध्यान के द्वारा स्वयं को कर्म बन्धन से मुक्त करके और हृदय को षडाक्षर 'ॐ नमः शिवाय' में निरन्तर लीन करते हुए परमानन्द में पूर्णतया विलीन हो कर स्वयं को शिवकवच द्वारा सुरक्षित कर लेना चाहिए।
वह परम दिव्य शक्ति मुझे संसार के अगाध अन्ध-कूप से उबार ले और उसका दिव्य नाम मेरे समस्त पापों को पूर्णतया नष्ट कर दे।
वह घट-घट वासी, परमानन्द स्वरूप ब्रह्म, जो सूक्ष्मातिसूक्ष्म और सर्वशक्तिमान् हैं, मुझे सर्वत्र, समस्त भयों से मुक्ति प्रदान करें।
विश्व को धरती के रूप में धारण करने वाले शिव का अष्टगुणी रूप मेरी पार्थिव रोगों से रक्षा करे तथा जल रूप में जीवन दान देने वाले भगवान् शिव मेरे जल से भय को दूर करें।
कल्प के अन्त में संसार का संहार करके ताण्डव करने वाले कालरुद्र वडवाग्नि और वायु से मेरी रक्षा करें। वह चतुर्मुखीत्रिनेत्रधारी जो विद्युत् और स्वर्ण सदृश देदीप्यमान हैं, मेरी पूर्व में रक्षा करें तथा जो वेद, कुठार, अंकुश, पाश, त्रिशूल तथा माला धारण किये हुए हैं तथा जल युक्त मेघ सदृश चमकीले श्याम वर्ण वाले हैं, वे दक्षिण दिशा में मेरी रक्षा करें।
मैं उनकी उपासना करता हूँ जो कुन्द, चन्द्र, शंख और स्फटिक के समान पवित्र और निर्मल हैं, जो पश्चिम में मेरी सुरक्षा के लिए अपने हाथों में वरदान और अभय के प्रतीक पुस्तक और माला धारण किये हुए हैं तथा जो उत्तर में विकसित कमल की भाँति प्रकाशमान हैं।
स्फटिक सदृश श्वेत वर्ण वाले पंचवक्त्र ईश्वर जो हाथों में अंकुश, पाश, कुठार, मुण्ड, डमरू और त्रिशूल तथा सुरक्षा के प्रतीक पुस्तक और माला धारण किये हुए हैं—ऊपर से मेरी रक्षा करें।
भगवान चन्द्रमौलि से प्रार्थना है कि वे मेरे सिर की रक्षा करें, भालनेत्र मेरे भाल की रक्षा करें और कामारि मेरे नेत्रों की रक्षा करें।
मैं श्रुतिगीतकीर्ति भगवान् विश्वनाथ, हाथों में कपाल धारण किये हुए कापालि से प्रार्थना करता हूँ कि वे मेरे नाक, कर्णों और कपाल को सुरक्षित करें।
वह पंचवक्त्र भगवान् जिनकी वाणी ही वेद हैं, मेरे मुख और जिह्वा की रक्षा करें।
धर्मबाहू मेरे कन्धों की और 'दक्ष यज्ञ-विध्वंसी' मेरे वक्ष, भुजाओं की समस्त भय और दोषों से रक्षा करें।
धूर्जट, कामदेव के नाशक और गिरीन्द्रधन्वा मेरे कटिप्रदेश, मध्यप्रदेश और पेट की रक्षा करें।
कुबेरमित्र, जगदीश्वर, पुंगवकेतु और परम दयालु मेरी दोनों जाँघों, दोनों घुटनों, दोनों पिण्डलियों और दोनों पैरों की रक्षा करें।
दिन के प्रथम प्रहर में महेश्वर, मध्य प्रहर में वामदेव, तीसरे प्रहर में त्र्यम्बक और अन्तिम चौथे प्रहर में वृषकेतु मेरी रक्षा करें।
शशिशेखर रात्रि के आरम्भ में, गंगाधर अर्धरात्रि में और गौरीपति रात्रि के अन्तिम प्रहर में तथा मृत्युंजय सर्वकाल में मेरी रक्षा करें।
शंकर घर के भीतर मेरी रक्षा करें, स्थाणु बाहर रहने पर, पशुपति बीच में और सदाशिव सब स्थानों पर मेरी रक्षा करें।
'वेदान्तवेद्य' बैठे रहने पर मेरी रक्षा करें। 'प्रमथनाथ' चलते समय और 'भुवनैकनाथ' खड़े रहने पर मेरी रक्षा करें।
'नीलकण्ठ' त्रिपुरारी मार्ग के संकट व भय से और दुर्गम पर्वत शिखरों व घाटियों में मेरी रक्षा करें।
'उदार शक्ति' गहन वन-प्रवास में भयानक वन्य पशुओं से मेरी रक्षा करें।
जिनका प्रबल क्रोध कल्पान्त में यम सदृश भयानक है तथा जिनके प्रचण्ड अट्टहास से जगत् काँपता है, उन भगवान् वीरभद्र से मैं प्रार्थना करता हूँ कि समुद्र के समान भयानक शत्रुसेना के महान् भय से मेरी रक्षा करें!
भगवान् 'मृड' से प्रार्थना है कि वे मुझ पर आततायी रूप से आक्रमण करने वाली चतुरंगिनी सेना के भीषण अस्त्रों से मेरी रक्षा करें।
भगवान् 'त्रिपुरान्तक' अपने प्रलयाग्नि के समान ज्वालायुक्त त्रिशूल व पिनाक धनुष से सिंह, रीछ, भेड़िया आदि हिंस्र वन्य जन्तुओं को सन्त्रस्त करके मेरी रक्षा करें।
वे जगदीश्वर दुःस्वप्नों, अपशगुनों, मानसिक दुर्भावनाओं व दुर्व्यसनों, दुःसह अपयश, उत्पातों, सन्तापों तथा अन्य विविध प्रकार के कष्टों से मेरी रक्षा करें!
मैं उन भगवान् सदाशिव को नमस्कार करता हूँ जो परम सत्य हैं, शास्त्रों का सत्य और सार हैं, ज्ञानातीत हैं। साक्षात् ब्रह्म और रुद्र हैं, सूर्य, चन्द्रमा और अग्नि जिनके नेत्र हैं, पवित्र भस्म से जिनका शरीर सुशोभित है, जो रत्न मणि-जटित मुकुट धारण किये। हुए विध्वंसक हैं, हैं, जो अखिल विश्व के एकमात्र कर्ता, भर्ता और संहारक हैं, जो दक्षसुयज्ञ जो कालहारी, मूलाधारनिवासी और ज्ञानातीत हैं, जिनके शीश पर पावन गंगा का नित्य निवास है, जो सबके अन्तर्वासी, षड्गुण सम्पन्न, दर्शन का सत्व और विश्वनाथ हैं, जो कण्ठ में अष्ट नागेन्द्र हार धारण किये हुए हैं तथा ॐ जिनका वाचक है।
मैं उनकी उपासना करता हूँ जो चैतन्य स्वरूप हैं, आकाश और दिशाएँ जिनका स्वरूप हैं, नक्षत्र और सितारे जिनके कण्ठाभूषण हैं, जो नित्य-शुद्ध और निर्मल हैं, जो समस्त संसार के एक ही साक्षी हैं, वेदों के गूढ़ तत्त्व हैं, समस्त शास्त्रों से परे हैं, सबको वर देने वाले हैं तथा जो दीन-दुःखियों व अज्ञानियों पर दयावृष्टि करने वाले हैं।
मैं उन दयालु, नित्य-शुद्ध, आनन्दघन, निरामय, निर्गुण, निष्काम, सर्वव्यापक, अनादि, अनन्त, परिपूर्ण तथा अद्वितीय प्रभु की प्रार्थना करता है जो कार्य-कारण से अतीत हैं तथा जिनमें सुख, दुःख, अभिमान, बल और दर्प, भय और पीड़ा, पाप और ताप सभी लीन हो कर नष्ट हो जाते हैं।
मैं उन प्रभु की आराधना करता हूँ जो साक्षात् शुद्ध चैतन्य स्वरूप हैं, जिनमें आ कर समस्त कार्य समाप्त हो जाते हैं और सन्देह मिट जाते हैं, जो अविकारी, कालातीत, परिपूर्ण, नित्य-शुद्ध-बुद्ध, निस्संग, सच्चिदानन्दघन है। जो आधारशून्य, अपने सनातन प्रकाश से स्व-प्रकाशित एकमात्र कल्याणकारी नित्य-रूप, नित्य-वैभव-सम्पत्र तथा अनुपम ऐश्वर्य से सुशोभित हैं।
हे मेरे प्रभु, आपकी जय हो, जय हो! आप रुद्र, महारौद्र और महाभद्र रूप हैं! आप महाभैरव, कालभैरव, कपालमालाधारी और कल्पान्तभैरव हैं! आप खट्वांग, खड्ग, चर्म, अंकुश, शूल, डमरू, त्रिशूल, धनुष, बाण, गदा, शक्ति इत्यादि भयंकर अस्त्र धारण किये हुए हैं। हे सहस्र मुखों वाले ! आप द्रष्टा से कराल मुख वाले हैं। विकराल हास्य से आप विश्व को भयातुर करने वाले हैं! नागेन्द्र वासुकि आपके कुण्डल, हार तथा कंकण हैं! हे त्रिनेत्रधारी भगवान्! आप कालविजयी तथा त्रिपुरारि हैं!
आप सर्वव्यापक, सबके अन्तर्वासी, शान्ति का सारतत्त्व और परम आनन्द स्वरूप हो! हे शम्भो! आप वास्तव में वेद और वेदान्त के ब्रह्म ही हो। आप सर्वत्र स्थित, अनादि और अनन्त हो ! हे मेरे प्रभु, आप मेरी रक्षा कीजिए! मेरे महामृत्यु तथा अल्पमृत्यु के भय का नाश कीजिए! अपने त्रिशूल और खड्ग द्वारा मेरे शत्रुओं का नाश कीजिए! अपने धनुष और बाणों द्वारा कुष्माण्ड और बेताल भूतों को भय दिखा कर सन्त्रस्त कीजिए! नरक कुण्ड में गिरने से मुझे बचा लीजिए और मेरा उद्धार कीजिए! मुझे अभय दीजिए! अपने अस्त्रों द्वारा मेरी रक्षा कीजिए! मैं दुःखातुर दीन और निराधार हूँ! आपके चरणों में मैं सर्वस्व समर्पित करता हूँ, आपकी शरण में हूँ! केवल आप ही मेरे रक्षक है और आलम्बन है! हे सदाशिव! हे मृत्युंजय! हे त्र्यम्बक! आपको बारम्बार नमस्कार है!
ऋषभ जी ने कहा: इस प्रकार यह वरदायक शिवकवच मैंने कहा है, यह सम्पूर्ण बाधाओं को शान्त करने वाला, समस्त इच्छाओं को पूर्ण करने वाला तथा समस्त जीवधारियों के लिए, परम गोपनीय रहस्य है। जो मनुष्य इस उत्तम शिवकवच को धारण करता है, उसे भगवान् शिव के अनुग्रह से कभी और कहीं भी भय नहीं। जिसकी आयु क्षीण हो चली हो, जो मरणासन्न हो, वह इसके प्रभाव से तत्काल सुखी हो कर दीर्घायु व परमानन्द प्राप्त करता है। यह (शिवकवच) मनुष्य के दोषों का उन्मूलन करके, उसे शान्ति और सम्पन्नता के शिखर तक पहुँचा देता है। वह मनुष्य इसके प्रभाव से समस्त पातकों व उपपातकों से छूट कर अन्त में शिव को पा लेता है। अतः वत्स, तुम भी मेरे द्वारा दिये हुए इस उत्तम शिवकवच को पूर्ण श्रद्धा और विश्वास सहित धारण करो। इससे तुम शीघ्र ही अत्यन्त सुख प्राप्त करोगे।
सूत जी कहते हैं—इस प्रकार कहते हुए ऋषभ ऋषि ने राजकुमार को एक विशाल शंख व एक शक्तिशाली खड्ग दी जिसके द्वारा कि वह शीघ्र ही शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर सके।
तब उन्होंने राजकुमार की देह पर विभूति छिड़कते हुए अपने दिव्य स्पर्श द्वारा द्वादश सहस्र हस्तिबल से सम्पन्न कर दिया। इतना बल, शक्ति व साहस प्राप्त करके राजकुमार शरद्कालीन सूर्य के प्रकाश सदृश्य देदीप्यमान हो गया।
ऋषि ने फिर कहा— मेरे द्वारा दी हुई यह तलवार पवित्र मन्त्रों द्वारा अभिमन्त्रित की हुई है; इसके दर्शन मात्र से ही शत्रु निर्जीव हो जायेगा। काल तक इससे भयभीत हो जायेगा। इस शंख का गर्जन सुन कर शत्रु शस्त्र छोड़ कर बेसुध हो कर गिर पड़ेंगे। यह दोनों ऐसे अस्त्र हैं जो शत्रुओं का नाश करने वाले और तुममें शक्तिवर्धन करने वाले हैं।
शिवकवच को धारण करके इन दिव्य अस्त्रों द्वारा तुम शत्रु नाश कर सकोगे। तुम पैत्रिक राज्य प्राप्त करोगे और इस पृथ्वी के शासक होओगे। इस प्रकार अपने आशीर्वचनों द्वारा उसे धीरज दे कर ऋषि चले गये।
हे ओंकारेश्वर, उमामहेश्वर,
रामेश्वर, त्र्यम्बकेश्वर,
महाबलेश्वर, महाकालेश्वर, मुक्तेश्वर,
ॐ नमः शिवाय।
हे जम्बुकेश्वर, कालाहस्तिश्वर,
तारकेश्वर, परमेश्वर,
नर्मदेश्वर, नागेश्वर, नान्जुनदेश्वर,
ॐ नमः शिवाय।
हे अर्धनारीश्वर, कापालीश्वर,
बृहदीश्वर, भुवनेश्वर, कुम्भेश्वर,
वृद्धचलेश्वर, एकम्बेश्वर,
ॐ नमः शिवाय।
हे कैलासपते, पशुपते,
गौरीपते, पार्वतीपते,
उमापते, शिवाकामिपते,
ॐ नमः शिवाय ।
हे विश्वेश, त्यागेश, सर्वेश,
सुन्दरेश, महेश, जगदीश,
घुश्रुनेश, मातृभूतेश,
ॐ नमः शिवाय।
हे कैलासनाथ, काशीनाथ,
केदारनाथ, मुक्तिनाथ,
अमरनाथ, पशुपतिनाथ,
ॐ नमः शिवाय ।
हे काशीविश्वनाथ, कांचीनाथ,
सोमनाथ, बैजनाथ, वैद्यनाथ,
तुंगनाथ, त्रिलोकीनाथ,
ॐ नमः शिवाय।
हे कालभैरव, त्रिपुरान्तक,
नीललोहित हरो हर,
शिव, शम्भो, शंकर, सदाशिव,
• नमः शिवाय।
हे महादेव, महाकाल,
नीलकण्ठ, नटराज, चन्द्रशेखर,
चिदम्बरेश, पापविमोचक,
ॐ नमः शिवाय।
हे हालस्य सुन्दरा, मिनाक्षीसुन्दर,
कल्याण सुन्दर, कदम्बवन सुन्दर
श्री शैलवास, वीरभद्र,
ॐ नमः शिवाय।
हे गौरी शंकर, गंगाधर,
दक्षिणामूर्ते, मृत्युंजय,
ॐ नमो भगवते रुद्राय,
ॐ नमः शिवाय ।
हे वैकात्तपा, तिरुवोनिअप्पा,
चिदम्बला, पोनम्बला,
चित्समेष, चिदम्बरेश
ॐ नमः शिवाय।
हे कामदहन, ब्रह्मशिरच्छेदा,
कूर्म - मत्स्य वाराह स्वरूप,
वीरभैरव, वृषभारूड,
ॐ नमः शिवाय।
हे कालान्तक, मल्लिकार्जुन,
अरुणाचल, नन्दीवाहन,
भिक्षादान, भक्तरक्षक,
ॐ नमः शिवाय।
हे भीमाशंकर, भस्माधर,
पन्नगभूषण, पिनाकधारी,
त्रिलोचन, त्रिशूलपाणि,
ॐ नमः शिवाय।
हे हर आपकी महिमा का वर्णन कौन कर सकता है?
श्रुतियाँ भी नेति नेति कहती हैं,
आप परम ब्रह्म हैं,
आप सद्गुणों से परिपूर्ण हैं,
ॐ नमः शिवाय।
हे त्रिपुरान्तकारी,
आपको बारम्बार प्रणाम,
आप विनाशकारी रुद्र हो,
आप अमरत्व प्रदाता हो,
ॐ नमः शिवाय ।
बैल आपकी सवारी है,
व्याघ्रचर्म है वस्त्र आपका,
त्रिशूल, डमरू और कुठार है शस्त्र आपके,
ॐ नमः शिवाय।
सर्प है आभूषण,
भस्मविलेपित हैं आप,
गंगा होती है प्रवाहित आपके शीश से
चन्द्रमा है आपका चूडामणि,
ॐ नमः शिवाय ।
सनक सनन्दन को,
चिन्मुद्रा और मीन द्वारा,
ब्रह्मज्ञान रहस्य में दीक्षित करने को,
दक्षिणामूर्ति है आप
ॐ नमः शिवाय।
आपका स्वरूप है वैराग्यमय,
ज्ञान का साक्षात् स्वरूप हैं,
नृत्य-विशारद हैं आप,
अगड़बम है गान आपका,
ॐ नमः शिवाय।
आपने अग्निरूप धारण किया,
ब्रह्मा-विष्णु आपको,
मापने में पराजित हुए,
आप अनन्त व असीम हैं,
ॐ नमः शिवाय।
मार्कण्डेय और माणिक्कवाचकर के रक्षक,
कण्णप्प, तिरुनावकेरसु के,
तिरुज्ञानसम्बधर, सुन्दरेश,
अप्पर और पट्टिनातडियार के वरदाता हैं,
ॐ नमः शिवाय।
आप हैं दया के सागर,
वरदाता हैं,
अर्जुन और बाण को वर दिया,
विषपान कर विश्व की रक्षा की,
ॐ नमः शिवाय ।
कामदेव का नाश किया,
गंगा और सुब्रह्मण्यम् के पिता हैं आप,
दक्ष का शिरच्छेदन कर गर्व नष्ट करने वाले हैं,
ॐ नमः शिवाय।
त्रिपुर सुन्दरी, राजराजेश्वरी,
गौरी, चण्डी, चामुण्डी,
दुर्गा, अन्नपूर्णा हैं शक्ति आपकी,
ॐ नमः शिवाय।
मुण्डमालाधारी हैं आप,
है गंगा जटाधारी,
श्मशानवासी हैं आप,
करालरूपधारी हैं—महाकाल-काल के भी काल,
ॐ नमः शिवाय।
विष्णु के परम आराधक हैं आप,
विष्णु चरणों से निकसित गंगा को,
अपने शीश पर धारण करने वाले,
काशी में राम तारक मन्त्र से मुक्तिप्रदाता हैं आप,
ॐ नमः शिवाय।
रामेश्वरम् में आपकी आराधना की राम ने,
सदाशिव शिव के रूप में,
आत्मलिंग से हृदयवासी हो,
वेदों के हो आप प्रणव,
ॐ नमः शिवाय ।
हे हर ! हे प्रभु! हे शिव!
आपको बारम्बार प्रणाम!
सदा करूँ आपका स्मरण,
सदा मुझ में करें आप निवास,
ॐ नमः शिवाय।
मुझे काम, भय और अहं से मुक्त करें,
सदा करूँ आपके पंचाक्षर का जप,
सर्वत्र करूँ दर्शन आपके,
सदा आपमें करूँ निवास,
ॐ नमः शिवाय ।
जो करेगा इस सर्वलिंग स्तव का जप, गान या श्रवण,
प्रातः सायं श्रद्धा-भक्ति भाव सहित,
हो मुक्त पाप-ताप से समस्त,
प्राप्त करेगा धन, सन्तान,
भक्ति, भुक्ति व मुक्ति!
अद्वैत, अखण्ड, अकर्ता, अभोक्ता,
असंग, असक्त, निर्गुण, निर्लेप,
चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहं । १
अव्यक्त, अनन्त, अमृत, आनन्द,
अचल, अमल, अक्षर, अव्यय,
चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहं । २
अशब्द, अस्पर्श, अरूप, अगन्ध,
अप्राण, अमान, अतिन्द्रीय, अदृश्य,
चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहं । ३
सत्यम्, शिवम्, शुभम्, सुन्दरम् कान्तम्,
सत्-चित्-आनन्द, सम्पूर्ण, सुख शान्तम् ।
चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहं । ४
चेतन, चैतन्य, चिद्घन, चिन्मय,
चिदाकाश, चिन्मात्र, सन्मात्र, तन्मय,
चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहं । ५
अमल, विमल, निर्मल, अचल,
अवागमनोगोचर, अक्षर, निश्चल,
चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहं । ६
नित्य, निरुपाधिक, निरतिशय आनन्द,
निराकार, हीकार, ओंकार, कुत्सथ,
चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहं । ७
पूर्ण, परब्रह्म, प्रज्ञान, आनन्द,
साक्षी, द्रष्टा, तुरीय, विज्ञान आनन्द,
चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहं । ८
सत्यं, ज्ञानं, अनन्तं आनन्दम्,
सच्चिदानन्द, स्वयंज्योति प्रकाशम्,
चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहं । ९
कैवल्य, केवल, कुत्स्थ, ब्रह्म,
शुद्ध, सिद्ध, बुद्ध, सत्-चित्-आनन्द,
चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहं । १०
निर्दोष, निर्मल, विमल, निरंजन,
नित्य, निराकार, निर्गुण, निर्विकल्प,
चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहं । ११
आत्मन्, ब्रह्मस्वरूप, चैतन्य-पुरुष,
तेजोमय, आनन्द, 'तत्-त्वम् असि' लक्ष्य,
चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहं । १२
'सोहं', 'शिवोऽहं', 'अहं ब्रह्मास्मि' महावाक्य,
शुद्ध, सत्-चित्-आनन्द, पूर्ण परब्रह्म,
चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहं । १३
(१)
स्नेह, करुणा और परमानन्द के आराध्यदेव के,
हृदय में प्रकाशित परम ज्योति के,
सम्बन्धर और अप्पर के, जीवन दाता प्रभु के,
मैंने दर्शन किये ऋषियों के आवास पर!
उन महान्, चिरन्तन, योगियों के लक्ष्य के
पुरी में बसने वाले परम पुरुष के,
वेदों में वर्णित आदि देव के,
मैंने दर्शन किये ऋषियों के आवास पर!
ब्रह्मा, विष्णु को भ्रमित करने वाले प्रकाश स्तम्भ के,
मार्कण्डेय के रक्षक, दया के सागर के,
पण्डे द्वारा पीड़ित मदुरै के प्रभु के,
मैंने दर्शन किये ऋषियों के आवास पर!
चारों के ज्ञान दाता, आदि गुरु के,
परम, व्यूह, विभाव, अर्चा और अन्तयामी-
पाँचों को धारण करने वाले आदि देव के,
मैंने दर्शन किये ऋषियों के आवास पर!
प्रभु, जो समस्त विश्व में,
सूत्रात्मा के रूप में व्याप्त हैं,
जो श्रुतियों के सार, परमात्मा हैं,
के मैंने दर्शन किये ऋषियों के आवास पर!
तीनों से ऊपर जो दीप्ति है,
प्रलय के बाद भी जो स्थित है,
उस कण्णप्प और सुन्दरर के रक्षक के,
मैंने दर्शन किये ऋषियों के आवास पर !
विषपान करके विश्व की रक्षा करने वाले,
चिदम्बरम् के नर्तक,
ज्योतिर्लिंग रूप से प्रकाशित होने वाले के,
मैंने दर्शन किये ऋषियों के आवास पर !
पाण्डया को घोड़े देने वाले के,
सम्बन्धर को मोतियों के पालकी देने वाले के,
पंचाक्षर के सारतत्त्व के,
मैंने दर्शन किये ऋषियों के आवास पर !
जिनका निवास है वेदों में,
बनारस, रामेश्वर, अरुणाचलम् व कांची में,
समस्त जीवधारियों में बसने वाले के,
मैंने दर्शन किये ऋषियों के आवास पर!
दारुमि के लिए अभिवक्ता बनने वाले के,
उमा सहित कैलास निवासी के,
सुन्दरर को नेत्रज्योति प्रदाता के,
मैंने दर्शन किये ऋषियों के आवास पर!
(२)
नेत्रहीन अप्पर को छड़ी देने वाले प्रभु को,
सुन्दरर के लिए भिक्षा माँगने वाले कृपालु को,
अप्पय दीक्षितार को मार्ग दर्शाने वाले मार्ग-बन्धु को,
मैंने देखा ऋषियों के आवास पर!
परबै को सन्देश देने वाले दयालु को,
दारुमि के लिए कविता लिखने वाले प्रियतम को,
नकिरार को जलाने वाले अनि रूप को,
मैंने देखा ऋषियों के आवास पर!
मदुरै में कुली बनने वाले प्रभु को,
थोड़ी-सी मिठाई के लिए
बाढ़ रोकने के लिए मिट्टी ढोने वाले को,
मैंने देखा ऋषियों के आवास पर!
अपने भक्तों के लिए तालाब और
बगीचे बनाने वाले प्रभु को,
भक्तों के दास को,
सम्बन्धर के लिए मोतियों की पालकी भेजने वाले को,
मैंने देखा ऋषियों के आवास पर!
अर्जुन से युद्ध करने वाले शिकारी को,
शंकर से विवाद करने वाले शूद्र को,
पाण्डया के पास घोड़े ले जाने वाले दूल्हा को,
मैंने देखा ऋषियों के आवास पर!
जिनके वामांग में उमा हैं,
जो क्षीर सागर के नारायण हैं,
वट पत्र पर शयन करने वाले बाल रूप को,
मैंने देखा ऋषियों के आवास पर!
परम पावन आदि देव प्रभु को,
ज्योतियों के भीतर की ज्योति को,
देवों और ऋषियों द्वारा पूजित प्रभु को,
मैंने देखा ऋषियों के आवास पर!
जो चिदम्बरम् में अम्बलम हैं,
जो अरुणाचलम् में प्रकाश हैं,
विभिन्न आकारों में छिपे हुए चोर को,
मैंने देखा ऋषियों के आवास पर!
चिदाकाश में प्रकट सद्गुरु को,
बन्धन-त्रय का भेदन करने वाले को,
साधकों को मोक्षधरा तक ले जाने वाले को,
मैंने देखा ऋषियों के आवास पर!
सहस्रार में निवास करने वाले प्रभु को,
जो पथ भी हैं, लक्ष्य भी और केन्द्र भी,
महावाक्य के उस परम सत्य को,
मैंने देखा ऋषियों के आवास पर!
शिवाय नमः ॐ शिवाय नमः,
शिवाय नमः ॐ नमः शिवाय
हे नटराज हे चिदम्बरम्,
हे नृत्यराज थिलै अम्बलम्,
प्रियतम शिवकामी सुन्दरी के,
भुवनेश्वरी राजराजेश्वरी के,
पापविनाशक वरदाता,
दुःखविनाशक अमरत्वप्रदाता,
शिवाय नमः ॐ शिवाय नमः,
शिवाय नमः ॐ नमः शिवाय ।
हे त्रिशूलधारी, विषपानक!
हे योगीश्वर, सुरेश्वर!
हे कैलासवासी, नन्दीश्वर,
हे कन्दर्पारि, सिद्धेश्वर,
हे त्रिनेत्रधारी-पंचवक्त्रम्,
हे नीलकण्ठ, देवदेवेश्वर,
शिवाय नमः ॐ, शिवाय नमः,
शिवाय नमः ॐ नमः शिवाय।
मात्र आप मेरे गुरु, मेरे आश्रय हो,
दया के सागर प्रभु प्रणाम है आपको,
मुझे अपनी कृपा का प्रसाद दो,
मैं आपके दयालु रूप का दर्शन करूँ,
शिव मन्त्र तथा स्तोत्र
सदा आपमें ही निवास करूँ।
है यही मेरी हार्दिक प्रार्थना,
शिवाय नमः ॐ, शिवाय नमः,
शिवाय नमः ॐ नमः शिवाय।
ॐ । मैं उन भगवान शिव को करबद्ध नतमस्तक प्रणाम करता हूँ जो जगत्-पति हैं, जगद् गुरु हैं, त्रिपुरारि (काम, क्रोध और अहं रूपी तीन पुरियों का नाश करने वाले) हैं; (उमा, गौरी, गंगापति) उमा शंकर, गौरी शंकर, गंगा शंकर हैं, जो ज्योतिर्मय (प्रकाश से परिपूर्ण) हैं, चिदानन्दमय (ज्ञान और आनन्द से पूर्ण) हैं, जो योगीश्वर (योगियों के स्वामी) हैं, जो ज्ञान के भण्डार हैं और जो महादेव, शंकर, हर, शम्भू, सदाशिव, रुद्र, शूलपाणि, भैरव, उमामहेश्वर, नीलकण्ठ, त्रिलोचन, त्र्यम्बक, विश्वनाथ, चन्द्रशेखर, अर्धनारीश्वर, महेश्वर, नीललोहित, परमशिव, दिगम्बर तथा दक्षिणामूर्ति इत्यादि विभिन्न नामों से जाने जाते हैं।
वे कितने कृपालु हैं! कितने दयालु और करुणामय हैं! अपने भक्तों की तो मुण्डमाला को वे अपने कण्ठ में धारण किये रहते हैं। वे वैराग्य, करुणा स्नेह और ज्ञान की साकार मूर्ति हैं। उनको विनाशकारी कहना भूल है। भगवान् शिव तो वास्तव में पुनर्जनक है। जब भी किसी का भौतिक शरीर किसी रोग, वृद्धावस्था अथवा किसी अन्य कारणवश इस जन्म में और विकास के अयोग्य हो जाता है, वे तत्काल इस जीर्ण-शीर्ण भौतिक आवरण को हटा कर पुनः विकास के लिए नयी स्वस्थ, शक्तिशाली देह प्रदान कर देते हैं। वे अपने बच्चों को शीघ्र अपने चरणकमलों में बुलाना चाहते हैं। वे उन्हें अपना परम शिव-पद प्रदान करना चाहते हैं। हरि की अपेक्षा शिव को प्रसन्न करना सरल है। थोड़ा-सा प्रेम और भक्ति, थोड़ा-सा उनके पंचाक्षर का जप ही शिव को प्रसन्नता से भर देने के लिए बहुत है। वे अपने भक्तों को बहुत शीघ्र वरदान दे देते हैं। उनका हृदय कितना विशाल है! अर्जुन को थोड़ी-सी तपस्या करने पर ही उन्होंने सरलता से पाशुपतास्त्र प्रदान कर दिया। भस्मासुर को उन्होंने अनमोल वरदान दिया। तिरुपति के निकट कालहस्ति में भक्त कण्णप्प नयनार जो कि शिकारी था और जिसने मूर्ति के अश्रुपूर्ण नेत्रों के स्थान पर लगाने के लिए अपने नेत्र निकाल दिये थे, को उन्होंने दर्शन दिये। चिदम्बर में तो अछूत पारिआह सन्त नन्दन को भी भगवान् शिव के दर्शन प्राप्त हुए। मार्कण्डेय को यमराज के पंजे से छुड़ा कर अमरत्व प्रदान करने के लिए वे अत्यन्त तीव्र गति से भागे। लकापति रावण ने उन्हें सामगायन से प्रसन्न कर लिया। चारों ब्रह्मचारी बालकों-सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार को उन्होंने दक्षिणामूर्ति के रूप में ज्ञान के रहस्योद्घाटन करते हुए दीक्षित किया। दक्षिण भारत में मदुरै में सुन्दरेश्वर (भगवान् शिव) ने अपनी एक भक्त स्त्री के लिए एक बालक बन कर एक पुढ (एक प्रकार की मिठाई) मजदूरी पाने के लिए वैगयै नहर निर्माण-स्थल पर मिट्टी की टोकरी सिर पर उठायी। अपने भक्तों के लिए उनकी असीम दया दर्शनीय है। जब ब्रह्मा और विष्णु भगवान् शिव के आदि व अन्त को खोजने निकले तो उन्होंने अनन्त विशाल ज्योतिर्मय स्वरूप धारण कर लिया। ये दोनों अपने प्रयत्न में असफल हो गये। वे कितने विशाल हृदय और स्वयंप्रकाश हैं! दक्षिण भारत में पत्तिनातु स्वामी के घर वर्षों तक उनके दत्तक पुत्र के रूप में रहे और अन्त में यह संक्षिप्त सूचना छोड़ कर चले गये कि “एक टूटी सुई भी मृत्यु के पश्चात् तुम्हारे साथ नहीं जायेगी।” यही सूचनापत्र पत्तिनातु स्वामी के ज्ञान-प्राप्ति का प्रथम बिन्दु बना। आप भी इसी क्षण से प्रभु (भगवान् शिव की ) प्राप्ति के लिए सच्चाई से प्रयत्नशील क्यों नहीं हो जाते?
हठयोगी मूलाधार चक्र में प्रसुप्त कुण्डलिनी शक्ति को आसन, प्राणायाम कुम्भक, मुद्रा और बन्ध द्वारा जागृत करते हैं। उसे विभिन्न चक्रों (आध्यात्मिक शक्ति स्रोतों) स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्ध और आज्ञा में से होते हुए शीर्षस्थान में सहस्र दलों वाले कमल सहस्रार में ले जा कर भगवान से मिला देते हैं। वहाँ वे अमृत (शिवज्ञान अमृत) पान करते हैं। इसे अमृतास्रव कहते हैं। जब शक्ति का शिव से मिलन होता है तो योगी को पूर्ण प्रकाश प्राप्त हो जाता है।
भगवान शिव ब्रह्म के विनाशकारी स्वरूप का परिचायक हैं। ब्रह्म का वह अंश जो तमोगुण प्रधान माया द्वारा आच्छादित है, वही सर्वव्यापक कैलासवासी भगवान् शिव है। वे ज्ञान का भण्डार हैं। पार्वती, काली या दुर्गा से रहित शिव शुद्ध निर्गुण ब्रह्म हैं। माया (पार्वती) के सहित वे अपने भक्तों की पावन भक्ति के लिए सगुण ब्रह्म हो जाते हैं। राम-भक्तों को भगवान शिव की भक्ति अवश्य करनी चाहिए। स्वयं राम ने भी प्रसिद्ध रामेश्वरम् स्थल पर भगवान शिव की आराधना की थी। भगवान शिव तपस्वियों और योगियों के दिगम्बर वेश में इष्ट हैं।
उनका दक्षिण हस्तधारी त्रिशूल सत्त्व रजस् और तमस् तीनों गुणों का प्रतीक है। यह उनकी प्रभुसत्ता का प्रतीक है। वे इन तीन गुण द्वारा संसार पर शासन करते हैं। वाम हस्त में धारण किया हुआ डमरू 'शब्द ब्रह्म' का परिचायक है। यह ॐ जिसमें से समस्त भाषाओं का उद्भव हुआ है—का प्रतीक है। उन्होंने ही डमरू की ध्वनि से संस्कृत भाषा की रचना की है।
मस्तक पर अर्धचन्द्र धारण कर वे स्पष्ट करते हैं कि उन्होंने मन को पूर्णतया जीत लिया है। बहती हुई गंगा अमृतत्व की प्रतीक है। गजराज अहंकार वृत्ति का प्रतीक माना गया है। गजचर्म धारण करने का आशय है कि उन्होंने अहं पर विजय पा ली है। शेर काम का प्रतीक है। व्याघ्रचर्म पर बैठने का अर्थ है कि उन्होंने काम को जीता हुआ है। एक हाथ में मृग को पकड़ने का अर्थ है कि उन्होंने मन की चंचलता को दूर कर दिया है। मृग शीघ्रता से एक स्थान से दूसरे स्थान पर उछल-कूद करता रहता है, इसी प्रकार मन भी एक विषय से दूसरे विषय पर नाचता रहता है। कण्ठ में धारण किये हुए सर्प बुद्धि और अमरत्व के परिचायक हैं। साँप बहुत दीर्घजीवी होते हैं। वे त्रिनेत्रधारी त्रिलोचन हैं, बीच का तीसरा नेत्र प्रज्ञा का नेत्र है। नन्दी, शिवलिंग के सम्मुख स्थित बैल प्रणव का प्रतीक है। लिंग अद्वैत का प्रतीक है। यह 'एकमेव अद्वितीयम्' को प्रकट करता है ठीक उसी प्रकार जैसे मनुष्य अपना दाहिना हाथ, सिर से ऊपर उठा कर उसकी तर्जनी द्वारा संकेत कर रहा हो।
कैलास पर्वत तिब्बत में विशाल पर्वत श्रेणी है जहाँ सुन्दर प्राकृतिक रूप से ढक कर सजायी हुई चाँदी-सी चमकीली हिमाच्छादित चोटी है जो सागर तल से २२, २८० फुट की ऊँचाई पर है, कोई-कोई २२,०२८ फुट भी कहते हैं। यह विशेष चोटी प्राकृतिक रूप में ही विशाल शिवलिंग के आकार की है। इसकी दूर से ही शिवलिंग के रूप में पूजा की जाती है। यहाँ न कोई मन्दिर है, न पुजारी—न ही प्रतिदिन की कोई पूजा होती है। भगवान् शिव की कृपा से मुझे २२ जुलाई १९३१ को कैलास के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ। मैं फूले हुए श्वास से कैलास के मूल - जहाँ से सिन्धु निकलती है—तक चढ़ गया था। यह अत्यन्त नयनाभिराम और मर्मस्पर्शी दृश्य है कैलास की परिक्रमा के प्रथम विश्राम स्थल दिदिफा गुहा से चढ़ाई करनी पड़ती है। कैलास की चोटी के पिछले भाग से हिम के ढेरों में से सिन्धु छोटी-सी नदी के रूप में बहुत वेगपूर्वक फूट कर निकलती है। यद्यपि चित्रों में भगवान् शिव की जटाओं से गंगा निकलती दिखायी जाती है; किन्तु वास्तव में वह सिन्धु है जो भगवान् शिव के शीश (कैलास) में से निकल कर आती है। कैलास की परिक्रमा ३० मील की है। इसे पूर्ण करने में ३ दिन लगते हैं। मार्ग में गौरीकुण्ड आता है जहाँ सदा हिम रहती है, यदि आपको स्नान करना हो तो हिम को तोड़ना पड़ता है।
भगवान शिव का नाम किसी भी तरह जपा जाये, शुद्ध अथवा अशुद्ध, जान-बूझ कर अथवा अनजाने में, ध्यान से अथवा असावधानी से, वह अवश्य ही इच्छित फल प्रदान करता है। भगवान् शिव के नाम की महिमा को बुद्धि और विवेक द्वारा प्रमाणित नहीं किया जा सकता; किन्तु श्रद्धा, विश्वास और भाव सहित नाम स्मरण और संकीर्तन से अवश्य ही अनुभव किया जा सकता है। प्रत्येक नाम असंख्य शक्तियों से सम्पन्न है। नाम की शक्ति अनिर्वचनीय है। इसकी महिमा अवर्णनीय है। भगवान शिव के नाम की सामर्थ्य और उसमें अन्तर्निहित शक्ति अथाह है।
भगवान् शिव के स्तोत्र के पाठ और उनके नाम के निरन्तर स्मरण से मन पवित्र होता है। स्तोत्र शुभ और शुद्ध भावों से ओत-प्रोत हैं। शिव स्तोत्र के पाठ द्वारा अच्छे संस्कार सुदृढ़ होते हैं। "मनुष्य जैसा सोचता है वैसा ही बनता है।" यह मनोवैज्ञानिक नियम है। जो मनुष्य स्वयं को शुभ पवित्र विचार करना सिखाता है, वह अच्छे विचार विकसित करता है। निरन्तर अच्छे विचारों द्वारा गठित होने से उसके चरित्र का स्वरूप बदल जाता है। प्रभु के स्तोत्र-गान करते हुए जब मन उनकी छवि का ध्यान करता है, तब मन वास्तव में प्रभु की छवि का ही रूप धारण कर लेता है। विचार की छाप मन पर रह जाती है। यह संस्कार कहलाती है। यह क्रिया जब बार-बार दोहरायी जाती है, तो इस आवृत्ति से संस्कार और भी दृढ़ हो जाते हैं जो मन का स्वभाव बन जाते हैं। जो दैवी विचार रखता है, वह निरन्तर विचार द्वारा वास्तव में स्वयं ईश्वरत्व में रूपान्तरित हो जाता है। उसके भाव शुद्ध और ईश्वरीय हो जाते हैं। जब कोई भगवान् शिव के स्तोत्र और भजन गाता है, तो वह प्रभु के तदनुरूप जाता है। व्यक्तिगत-मन, ब्रह्म-मन में लीन हो जाता है। जो स्तोत्र-गान करता है, वह भगवान् शिव के साथ एक हो जाता है।
जिस प्रकार अग्नि में ज्वलनशील पदार्थों को जलाने का स्वाभाविक गुण है, उसी प्रकार भगवान् शिव के नाम में उन लोगों—जो उनका नाम जपते हैं—के पाप-संस्कारों व वासनाओं को जला