ब्रह्मचर्य - साधना
'PRACTICE OF BRAHMACHARYA'
का अविकल अनुवाद
लेखक
श्री स्वामी शिवानन्द सरस्वती
MEDITATE
THE DIVINE LIFE SOCIETY
प्रकाशक
द डिवाइन लाइफ सोसायटी
पत्रालय: शिवानन्दनगर- २४९१९२
जिला टिहरी गढ़वाल, उत्तराखण्ड (हिमालय), भारत
www.sivanandaonline.org. www.dishq.org.
प्रथम हिन्दी संस्करण : १९९०
द्वितीय हिन्दी संस्करण: १९९९
तृतीय हिन्दी संस्करण: २००७
चतुर्थ हिन्दी संस्करण: २०११
पंचम हिन्दी संस्करण: २०१४
षष्ठ हिन्दी संस्करण: २०१८
सप्तम हिन्दी संस्करण : २०२२
(१००० प्रतियां)
© द डिवाइन लाइफ ट्रस्ट सोसायटी
ISBN 81-7052-076-2
HS 24
PRICE: ₹110/-
'द डिवाइन लाइफ सोसायटी, शिवानन्दनगर के लिए
स्वामी पनामानन्द द्वारा प्रकाशित तथा उन्हीं के द्वारा
'योग-वेदान्त फॉरेस्ट एकाडेमी प्रेस, पो. शिवानन्दनगर, जि. टिहरी गढ़वाल,
उत्तराखण्ड, पिन २४९१९२ में मुद्रित।
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विश्व के नवयुवकों को समर्पित !
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श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज के अनुभवपूर्ण उपहार को हिन्दी जनता के समक्ष रखते हुए हमें बड़ा ही हर्ष हो रहा है। जन साधारण के लिए विशेषकर छात्र-छात्राओं के लिए इस पुस्तक की बड़ी आवश्यकता थी। ब्रह्मचर्य-साधना के सम्बन्ध में अनुभव दृष्टि के आधार पर जितनी बातें यहाँ दी गयी हैं, उतनी अन्यत्र मिलनी शायद ही सम्भव हैं।
श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज की यह विशेषता है कि उनके सभी ग्रन्थ अपने-अपने विषयों में अद्वितीय सिद्ध होते हैं। यह पुस्तक 'ब्रह्मचर्य साधना' भी विद्यार्थियों, गृहस्थों, साधकों, पुरुषों, स्त्रियों-सभी के लिए समान रूप से हितकर है। विद्यार्थियों के लिए तो यह वरदान स्वरूप ही है।
आज अधिकांश व्यक्ति भौतिकवादी सभ्यता के गुलाम बन कर आन्तरिक बल, शान्ति, शक्ति, विवेक, वैराग्य तथा ज्ञान को खो रहे हैं और काम, क्रोध, दुःख, निराशा, दुर्बलता, रोग आदि के भीषण ताप से विदग्ध हो रहे हैं। उनके लिए यह पुस्तक साहस, पुरुषार्थ, आशा, नित्य शुद्ध जीवन एवं आत्म-साक्षात्कार का पावन सन्देश देती है।
यह पुस्तक मूल ग्रन्थ “Practice of Brahmacharya" का हिन्दी अनुवाद है।
हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि हिन्दी जनता इस पुस्तक से प्रेरणा ले कर ब्रह्मचर्य जीवन के द्वारा आत्म-साक्षात्कार के मार्ग का अनुगमन करे। सभी अज्ञान एवं मृत्यु के बन्धनों से मुक्त हो कर ज्ञान एवं अमृतत्व की ज्योति से विभासित हो !
हरि ॐ तत्सत् ।
-द डिवाइन लाइफ सोसायटी
हे करुणारूप प्रेममय स्वामी! हे प्रभु! मेरी आत्मा के आत्मा, मेरे जीवन के जीवन, मेरे मन के मन, श्रोत्रों के श्रोत्र, प्रकाशों के प्रकाश, सूर्यो के सूर्य! मुझे प्रकाश तथा शुद्धता प्रदान कीजिए। मैं शारीरिक तथा मानसिक ब्रह्मचर्य में प्रतिष्ठित हो जाऊँ। मैं विचार, वाणी तथा कर्म में पवित्र रहूँ। मुझे अपनी इन्द्रियों को नियन्त्रित तथा ब्रह्मचर्य व्रत के पालन करने के लिए बल प्रदान कीजिए। इन सभी प्रकार के सांसारिक प्रलोभनों से मेरी रक्षा कीजिए। मेरी समग्र इन्द्रियाँ सदा आपकी प्रिय सेवा में तत्पर रहें।
मेरे यौन-संस्कारों तथा काम-वासनाओं को मिटा दीजिए। मेरे मन से कामुकता को नष्ट कर डालिए। मुझे एक सच्चा ब्रह्मचारी, सदाचारी तथा ऊर्ध्वरेता योगी बनाइए। मेरी दृष्टि विशुद्ध हो। मैं सदा धर्म-मार्ग पर चलूँ। मुझे स्वामी विवेकानन्द, स्वामी दयानन्द, भीष्मपितामह, हनुमान् अथवा लक्ष्मण के समान शुद्ध बनाइए। मेरे सभी अपराधों को क्षमा कीजिए, क्षमा कीजिए। मैं आपका हूँ। मैं आपका हूँ। त्राहि त्राहि । रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए। प्रचोदयात्, प्रचोदयात् । प्रबुद्ध कीजिए, प्रबुद्ध कीजिए। मेरा पथ-प्रदर्शन कीजिए। ॐ ॐ ॐ ।
३.विभिन्न व्यक्तियों में लालसा की उत्कटता
मैथुन के अति-भोग के अनर्थकारी परिणाम
३. आध्यात्मिक जीवन में ब्रह्मचर्य का महत्त्व
६.ब्रह्मचर्य तथा शिक्षा पाठ्यक्रम
५.काम-वासना के नियन्त्रण में आहार की भूमिका
७.ब्रह्मचर्य-साधना के कुछ प्रभावशाली साधन
काम-वासना तथा ब्रह्मचर्य पर उत्कृष्ट सूक्तियाँ
पुरुष के समक्ष एक महान् भ्रान्ति है। वह नारी के रूप में उसको उद्विग्न करती है। इसी प्रकार स्त्री-जाति के समक्ष भी एक महान भ्रान्ति है जो पुरुष के रूप में उसको उद्विग्न करती है।
आप ऐम्सटर्डम, लन्दन अथवा न्यूयार्क कहीं भी जायें, इस प्रातिभासिक विश्व का विश्लेषण करने पर आपको केवल दो ही पदार्थ उपलब्ध होंगे कामुकता तथा अहंकार।
नैसर्गिक काम प्रवृत्ति मानव-जीवन में सर्वाधिक महान् आग्रही माँग है। काम ऊर्जा अथवा काम वासना मानव में सर्वाधिक बद्धमूल नैसर्गिक प्रवृत्ति है। काम-ऊर्जा मन, बुद्धि, प्राण, इन्द्रियों तथा समस्त शरीर को सम्पूर्णतः आपूरित करती है। यह मानव प्राणी के संघटक तत्त्वों में प्राचीनतम तत्त्व है।
व्यक्ति में सहस्राधिक कामनाएं होती हैं; किन्तु उनमें प्रमुख तथा सबल कामना है सम्भोग की कामना। मूलभूत कामना है पति अथवा पत्नी के रूप में एक साथी के लिए आग्रही माँग। सभी इतर कामनाएँ इस एक प्रमुख मूलभूत कामना पर आश्रित होती हैं। धन की कामना, पुत्र की कामना, सम्पत्ति की कामना, घर की कामना, पशु की कामना तथा अन्य कामनाएँ इसकी ही अनुवर्ती हैं।
क्योंकि इस ब्रह्माण्ड की सम्पूर्ण रचना को बनाये रखना है, अतः विधाता ने सम्भोग की कामना को अत्यधिक बलवती बनाया है अन्यथा, विश्वविद्यालयों के स्नातकों की भाँति ही अनेक जीवन्मुक्त अनायास ही प्रकट हो गये होते। विश्वविद्यालय की उपाधियाँ प्राप्त करना सरल है। इसके लिए किंचित् धन, स्मरण शक्ति, बुद्धि तथा अल्प आयास अपेक्षित हैं। किन्तु काम-आवेग को नष्ट करना एक अति श्रमसाध्य कार्य है। जिस व्यक्ति ने कामुकता का पूर्णतया उन्मूलन कर डाला है तथा जो मानसिक ब्रह्मचर्य में प्रतिष्ठित हो चुका है, वह व्यक्ति साक्षात् ब्रह्म अथवा भगवान् है।
यह संसार कामुकता तथा अहंकार ही है, अन्य कुछ नहीं। इनमें अहंकार ही मुख्य वस्तु है। यही आधार है। कामुकता तो अहंकार पर आश्रित है। यदि 'मैं कौन हूँ के अनुसन्धान अथवा विचार द्वारा अहंकार को नष्ट कर दिया जाये, तो काम भाव स्वतः ही पलायन कर जाता है। मनुष्य अपने भाग्य का स्वयं स्वामी है। उसने अपने दिव्य गौरव को खो दिया है तथा अविद्या के कारण कामुकता और अहंकार के हाथों का यन्त्र तथा उनका दास बन गया है। कामुकता तथा अहंकार अविद्याजात हैं। आत्मज्ञानोदय आत्मा के इन दोनों शत्रुओं को, असहाय, अज्ञानी, क्षुद्र मिथ्या जीव अथवा भ्रामक अहं को लूट रहे इन दो दस्युओं को विनष्ट कर डालता है।
काम-वासना की कठपुतली बन कर मनुष्य ने अपने को बहुत बड़ी मात्रा में अघः पतित कर डाला है। हन्त। वह एक अनुकरणशील यन्त्र बन चुका है। उसने अपनी विवेक शक्ति खो दी है। वह निकृष्टतम रूप की दासता के गर्त में जा गिरा है। क्या ही - दुःखद अवस्था है! नि सन्देह, क्या ही शोचनीय दुर्गति है। यदि वह अपनी खोयी हुई दिव्यावस्था तथा ब्राह्म महिमा को पुनः प्राप्त करना चाहता है, तो उसकी समग्र सत्ता का रूपान्तरण करना चाहिए, उसकी काम वासना को उदात्त दिव्य विचारों तथा नियमित ध्यान द्वारा पूर्णतया रूपान्तरित करना चाहिए। काम-वासना का रूपान्तरण नित्य-सुख की प्राप्ति की एक बहुत ही प्रबल, प्रभावशाली तथा सन्तोषप्रद विधि है।
यह संसार ही कामुक है
काम-वासना का संसार के सभी भागों पर एकाधिपत्य है। लोगों के मन कामपूर्ण विचारों से ओत-प्रोत हैं। यह संसार ही कामुक है। समस्त विश्व भीषण कामोन्माद के वशीभूत है। सभी दिभ्रान्त है तथा विकृत बुद्धि से संसार में चल-फिर रहे हैं। कोई भगवद्-विचार नहीं है। कोई भगवद्-चर्चा नहीं है। भूषाचार (फैशन), उपाहार गृहों (रेस्तरी), विश्रान्ति गृहों (होटलों), प्रीतिभोजों, नृत्यों, घुड़दौड़ों तथा चलचित्रों की ही चर्चा है। लोगों का जीवन खान-पान तथा प्रजनन में ही समाप्त हो जाता है। इसमें ही उनके कर्तव्य की इतिश्री है।
काम-वासना ने लन्दन, पेरिस तथा लाहोर में ही नहीं, वरन् मद्रास के परम्परानिष्ठ परिवार की ब्राह्मण बालिकाओं तक में भी नवीन भूषाचार (फैशन) चालू कर दिया है। वे अब अपने मुख में हरिद्रा चूर्ण के स्थान में 'चैरी ब्लाज़म पाउडर' तथा 'वेजिलिन स्वो लगाती है तथा फ्रांसीसी लड़कियों की भाँति अपने बाल कटवाती है। इस प्रकार के अनुकरण की हेय प्रवृत्ति भारत में हमारे बालकों तथा बालिकाओं के मन में अनधिकृत रूप से प्रवेश कर गयी है। हमारे प्राचीन ऋषियों तथा मनीषियों के पवित्र आदर्शों तथा उपदेशों की सर्वथा उपेक्षा की जा रही है। यह क्या ही शोचनीय अवस्था है। यदि जान्सन अथवा रसेल जैसा कोई पाश्चात्य विद्वान् विकास, गति, परमाणु, सापेक्षता अथवा अनुभवातीत सिद्धान्त के रूप में कोई बात प्रस्तुत करता है, तभी लोग उसे सच मानेंगे। निःसन्देह, यह लज्जास्पद बात है। उनके मस्तिष्क विदेशी कणिकाओं से अवरुद्ध हैं। उनमें दूसरों में वर्तमान किसी गुण को आत्मसात् करने के लिए मस्तिष्क ही नहीं है। भारत में आज के नवयुवकों तथा नवयुवतियों का दुःखद अधःपतन हुआ है। यह ऐसा युग है जब वे रिक्शा, कार, ट्राम, साइकिल अथवा वाहन के बिना थोड़ी दूर भी नहीं चल सकते। क्या ही अत्यधिक कृत्रिम जीवन है। भारत की महिलाओं में कन्धों तक बाल कटाने की प्रवृत्ति ने घोर संक्रामक रोग का रूप ले लिया है। इसने समस्त भारत को आक्रान्त कर रखा है। यह सब काम तथा लोभ की शरारत के कारण है।
आजकल के नवयुवक पाश्चात्य लोगों का अन्धाधुन्ध अनुकरण करते हैं। इसके परिणामस्वरूप उनका अपना विनाश होता है। लोग कामुकता से दोलायमान हैं। वे अपने सदाचार तथा दिक्काल-बोध खो बैठे हैं। वे कभी भी सत् और असत् में विवेक नहीं करते। वे अपना लज्जा-भाव भी सर्वथा खो बैठते हैं।
यदि आप सत्र न्यायालयों के समक्ष न्यायिक विचारार्थ आने वाले लूटपाट, बलात्कार, अपहरण, आक्रमण, हत्या इत्यादि अपराधों का पुरावृत्त पढ़ें, तो आप पायेंगे कि इन सबके मूल में लिप्सा ही है—चाहे वह धन की लिप्सा हो अथवा विषय सुख की लिप्सा कामुकता जीवन, कान्ति, बल, जीवन शक्ति, स्मृति, सम्पत्ति, कीर्ति, पवित्रता, शान्ति, ज्ञान तथा भक्ति को नष्ट कर डालती है।
अपनी बुद्धि पर गर्व करने वाले मनुष्य को पशु-पक्षियों से शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए। पशुओं में भी मनुष्य से अधिक आत्म संयम होता है। एकमात्र इस तथाकथित - मनुष्य ने ही अति-भोग से अपनी अधोगति कर ली है। वह कामोत्तेजना के आवेश में आ कर ही हेय कृत्य को बारम्बार दोहराता है। उसमें रंचमात्र भी आत्म-संयम नहीं होता है। वह काम-वासना का पूर्ण दास और उसके हाथों की कठपुतली होता है। वह खरगोशों की भाँति प्रजनन करता तथा संसार में भिक्षुओं की संख्या में वृद्धि करने के लिए अगणित बच्चों को जन्म देता है। सिंह, हाथी, बैल तथा अन्य शक्तिशाली पशुओं में मनुष्यों से अधिक आत्म-संयम होता है। सिंह वर्ष में केवल एक बार सहवास करते हैं। स्त्री जातीय पशु गर्भ धारण करने के पश्चात् जब तक उनके बच्चों का दूध पीना नहीं छूट जाता और जब तक वे स्वयं स्वस्थ तथा हृष्ट-पुष्ट नहीं हो जाते, तब तक पुंजातीय पशु को अपने पास फटकने नहीं देते। मनुष्य ही प्रकृति के नियमों का उल्लंघन करता है। फलतः अगणित रोगों से पीड़ित होता है। उसने इस विषय में अपने को पशुओं के स्तर से भी नीचे अप पतित कर डाला है।
जैसे राजकोष, प्रजा तथा सेना के अभाव में राजा राजा नहीं है, सुगन्ध के अभाव में पुष्प पुष्प नहीं है, जल के अभाव में सरिता सरिता नहीं है, उसी प्रकार ब्रह्मचर्य के अभाव में मनुष्य मनुष्य नहीं है। आहार, निद्रा, भय तथा मैथुन — ये पशु तथा मनुष्य, दोनों में उभयनिष्ठ हैं। धर्म-विवेक तथा विचार-शक्ति ही मनुष्य की पशु से विशिष्टता दर्शाते हैं। ज्ञान तथा विचार की प्राप्ति एकमात्र वीर्य के परिरक्षण से ही सम्भव है। यदि किसी व्यक्ति में ये विशिष्ट गुण उपलब्ध नहीं हैं, तो उसकी गणना वस्तुतः साक्षात् पशु में ही की जानी चाहिए।
जब काम, जो इस संसार में सभी सुखों का स्रोत है, समाप्त हो जाता है, तब समस्त सांसारिक बन्धन, जिनका आश्रय स्थान मन है, समाप्त हो जाते हैं। सर्वाधिक सांघातिक विष भी काम की तुलना में कोई विष नहीं है। पूर्वोक्त तो एक शरीर को दूषित करता है, जब कि उत्तरोक्त अनुक्रमिक जन्मों में प्राप्त होने वाले अनेक शरीरों को कलुषित करता है। आप वासनाओं, कामनाओं, संवेगों और आकर्षणों के दास बन गये हैं। आप इस दयनीय अवस्था से कब ऊपर उठने जा रहे हैं? जो व्यक्ति यह बोध रखते हुए भी कि संसार के विनाशकारी पदार्थों में अतीत तथा वर्तमान में सुख का आत्यन्तिक अभाव है, अपने विचारों के द्वारा उनसे चिपके रह कर उनमें उलझे रहते हैं, वे यदि और बुरे नाम के नहीं तो गधा कहलाने के अधिकारी तो हैं ही। यदि आप विवेक सम्पन्न नहीं हैं, यदि आप मोक्ष के लिए यथाशक्य प्रयास नहीं करते और यदि आप अपना जीवन खाने, पीने तथा सोने में ही व्यतीत करते हैं, तो आप चौपाया ही है। आपको उन चौपायों से कुछ पाठ सीखना है, जिनमें आपकी अपेक्षा कहीं अधिक आत्म-निग्रह है।
आज मानव जाति जो मैथुन अपकर्ष से अभिभूत है, उसका सीधा सा कारण - यह तथ्य है कि लोग यह मान बैठते हैं कि मानव प्राणी में एक नैसर्गिक काम प्रवृत्ति है, किन्तु बात ऐसी नहीं है। नैसर्गिक काम प्रवृत्ति प्रजनक होती है। यदि पुरुष स्त्रियां प्रजनन तक ही सम्भोग को सीमित रखें, तो वह स्वयं में ब्रह्मचर्य पालन ही है। क्योंकि - बहुसंख्यक लोगों के लिए ऐसा कर पाना असम्भव ही होता है; अतः जो लोग जीवन के उच्चतर मूल्य चाहते हैं, उनके लिए पूर्ण संयम का विधान किया गया है। जहाँ तक ज्वलन्त मुमुक्षुत्य वाले साधक का सम्बन्ध है, उसके लिए ब्रह्मचर्य एक अनिवार्य है, क्योंकि वह अपना वीर्य किचित् भी नष्ट नहीं कर सकता।
प्रत्येक सांसारिक कामना को तुष्ट करना पाप है। शरीर को तो दिव्य विषयों में दत्त-चित्त आत्मा का दीन-हीन दास होना चाहिए। मानव की रचना ही भगवान् के साथ मासिक सम्पर्कमय जीवन यापन करने के लिए हुई थी किन्तु वह दुष्ट दानवों के प्रलोभन के वशीभूत हो गया। उन्होंने उसे भगवद्-ध्यान से विरत करने तथा सांसारिक जीवन की ओर ले जाने के लिए उसकी प्रकृति के विषयी पक्ष का लाभ उठाया। अतः समस्त विषय सुखों को त्यागना, विवेक तथा वैराग्य के द्वारा अपने को संसार से पृथक् करना, मात्र आत्मा के अनुरूप जीवन यापन करना और भगवान् की पूर्णता तथा पवित्रता का अनुकरण करना ही नैतिक गुणवत्ता है। विषय परायणता ज्ञान तथा पवित्रता - की विरोधी है। अपवित्रता से बच कर रहना ही जीवन का परम कर्तव्य है।
आध्यात्मिक साधना यौनाकर्षण का समाधान है।
पूर्ण शारीरिक तथा मानसिक ब्रह्मचर्य की संस्थापना ही वास्तविक संस्कृति है । अपरोक्षानुभूति द्वारा जीवात्मा तथा परमात्मा की ऐक्यानुभूति ही वास्तविक संस्कृति है। कामुक सांसारिक व्यक्ति को 'आत्म-साक्षात्कार', 'ईश्वर', 'आत्मा', 'वैराग्य', 'संन्यास', 'मृत्यु' तथा 'शव-भूमि' (कब्रिस्तान) शब्द बहुत ही बीभत्स तथा भयावह लगते हैं; क्योंकि वह विषयों से आसक्त है। नृत्य, संगीत, महिला-सम्बन्धी चर्चा इत्यादि के शब्द उसे अत्यधिक रोचक लगते हैं।
यदि व्यक्ति संसार के मिथ्या स्वरूप का गम्भीरतापूर्वक चिन्तन करना आरम्भ कर दे, तो विषयों के प्रति उसका आकर्षण धीरे-धीरे तुम हो जायेगा। लोग कामानि से विदग्ध हो रहे हैं। इस भीषण व्याधि के उन्मूलन के लिए सभी उपयुक्त साधनों को प्रारम्भ कर उनको उपयोग में लाना चाहिए तथा इस भयानक काम रूपी शत्रु का उन्मूलन करने में विविध प्रकार की पद्धतियों में से जो भी उनकी सहायक हो, उनसे सभी लोगों को पूर्ण रूप से परिचित कराना चाहिए। यदि वे एक विधि से असफल हो जाते हैं, तो अन्य विधि का आश्रय ले सकते हैं काम तो असंस्कृत लोगों में पायी जाने वाली एक पाशविक प्रवृत्ति है। इस बात से पूर्ण अवगत होते हुए भी कि पवित्रता की प्राप्ति तथा सतत ध्यानाभ्यास के द्वारा आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करना ही जीवन का लक्ष्य है, व्यक्ति को बारम्बार ऐन्द्रिक क्रियाओं को दोहराते रहने से लज्जित होना चाहिए। आपत्तिकर्ता कह सकता है कि इन विषयों की चर्चा खुले आम न करके गुप्त रूप से करनी चाहिए। यह गलत है। तथ्यों को छिपाने से क्या लाभ है? तथ्यों को छिपाना तो पाप है।
आधुनिक संस्कृति तथा नवीन सभ्यता के इन दिनों में, वैज्ञानिक प्रगति के इस युग में सम्भवतः कुछ लोगों को ये पंक्तियों रुचिकर न लगे। वे टिप्पणी कर सकते हैं कि इनमें कुछ शब्द कर्णकटु, क्रोधजनक तथा अश्लील हैं तथा सुसंस्कृत रुचि वाले व्यक्तियों के लिए उपयुक्त न होगे। यह उनकी नितान्त भूल है। ये पंक्तियाँ मोक्षकामी पिपासु साधको के मन पर बहुत गहरी छाप छोड़ेंगी। उनके मन पूर्णत परिवर्तित हो जायेंगे। आधुनिक समाज के उच्च वर्ग के लोगों में कोई आध्यात्मिक संस्कृति नहीं है। शिष्टाचार केवल दिखावा है। आप सर्वत्र ही अत्यधिक दिखावा, पाखण्ड, शिष्टता, निरर्धक औपचारिकताएँ तथा रूढ़ियाँ देख सकते हैं। हृदय-तल से कुछ भी नहीं निकलता। लोगों में निष्कपटता तथा सत्यनिष्ठा का अभाव है। ऋषियों के महावाक्यों के उद्गार तथा धर्मग्रन्थों के अमूल्य उपदेश कामुक तथा सांसारिक व्यक्तियों के मन पर कुछ भी छाप नहीं छोड़ते। ये कठोर भूमि पर बोये हुए बीज के समान अथवा अपात्र व्यक्ति को प्रदान किये हुए अच्छे पदार्थ के समान हैं।
यदि मनुष्य अपवित्र जीवन यापन से होने वाली गम्भीर क्षति को स्पष्टतया जान जाता है तथा पवित्र जीवन यापन द्वारा जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करने का निश्चय कर लेता है, तो उसे चाहिए कि वह अपने मन को दिव्य विचारों, धारणा, ध्यान, स्वाध्याय तथा मानवता के सेवा कार्य में व्यस्त रखे।
सभी यौनाकर्षणों का मुख्य कारण आध्यात्मिक साधना का अभाव ही है। कामुकता पर केवल काल्पनिक संयम से आपको कोई सुपरिणाम प्राप्त नहीं होगा। आपको सामाजिक जीवन की समस्त औपचारिकताओं का निर्ममतापूर्वक उच्छेदन तथा शारीरिक व्यवहार से मुक्त पवित्र जीवन यापन करना चाहिए। आन्तरिक निम्न प्रवृत्तियों के प्रति आपकी उदारता आपको यातना लोक में पहुँचा देगी। इस विषय में बहाना बनाने से कोई लाभ न होगा। आपको उदान आध्यात्मिक जीवन के अपने अभियान में सत्यशील होना चाहिए। उत्साहहीनता आपको पूर्व-दु:खावस्था में ला छोड़ेगी।
मित्रो! अब इस मायिक संसार रूपी पंक से जाग जाइए। काम-वासना ने आपकी तबाही कर डाली है; क्योंकि आप अविद्या में निमग्न है पूर्ववर्ती जन्मों में आपके कितने ही करोड़ माता, पिता, स्त्री तथा पुत्र हो चुके हैं। यह शरीर मल से पूर्ण है। इस मल-दूषित शरीर का आलिंगन करना क्या ही लज्जा की बात है। यह केवल मूर्खता ही है। इस शरीर का मोह त्याग दीजिए। शुद्ध आत्मा की महिमा पर ध्यान के द्वारा इस शरीर के साथ तादात्म्य भी त्याग दीजिए। शरीर की उपासना त्याग दीजिए। शरीर के उपासक तो असुर तथा राक्षस हैं।
ब्रह्मचर्य आज की तात्कालिक आवश्यकता
मेरे प्रिय भाइयो । स्मरण रखें कि आप यह अस्थिमासमय नश्वर शरीर नहीं है। आप अमर, सर्वव्यापक सत्-चित्-आनन्द आत्मा हैं। आप आत्मा है। आप सजीव सत्य हैं। आप ब्रह्म हैं। आप परम चैतन्य हैं। आप इस परमावस्था को सच्चा ब्रह्मचर्यमय जीवन यापन करके ही प्राप्त कर सकते हैं। ब्रह्मचर्य की भावना आपके समग्र जीवन तथा प्रत्येक व्यवहार में व्याप्त हो जानी चाहिए।
लोग ब्रह्मचर्य के विषय में बातें तो करते हैं; किन्तु व्यावहारिक व्यक्ति विरले ही होते हैं। ब्रह्मचर्य का जीवन सचमुच संकटाकुल है; किन्तु लौह-संकल्प, धैर्य तथा अध्यवसाय वाले व्यक्ति के लिए मार्ग निर्वाध बन जाता है। हम इस क्षेत्र में सच्चे, व्यावहारिक व्यक्ति चाहते हैं। ऐसे व्यक्ति चाहते हैं जो व्यावहारिक ब्रह्मचारी हों तथा जो अपने सुपुष्ट शरीर-गठन, आदर्श जीवन, उदात्त चरित्र तथा आध्यात्मिक शक्ति से लोगों को प्रभावित कर सकें। केवल वृधालाप से कुछ भी लाभ नहीं है। हमारे पास इस क्षेत्र में तथा सभा मंच पर वृथालाप करने वाले पर्याप्त व्यक्ति हैं। अब कुछ व्यावहारिक व्यक्ति आगे आयें तथा अपने अनुकरणीय जीवन तथा आध्यात्मिक प्रभा मण्डल से बालकों का पथ-प्रदर्शन करें। मैं एक बार आपको पुनः स्मरण करा देना चाहता हूँ कि 'शासनात् करणं श्रेयः'– उपदेश करने से स्वयं करना भला है।
मनुष्य की साधारण आयु स्वाभाविक सौ वर्ष की तुलना में अब घट कर चालीस वर्ष रह गयी है। इस देश के सभी शुभ-चिन्तकों को इस अतीव लज्जाजनक तथा अनर्थकारी परिस्थिति पर बहुत ही ध्यानपूर्वक विचार तथा समय रहते इसका समुचित उपचार करना चाहिए। देश का भावी कल्याण युवकों पर ही पूर्णतः निर्भर करता है। संन्यासियों, सन्तों, अध्यापकों तथा माता-पिताओं का कर्तव्य है कि वे नवयुवकों में ब्रह्मचर्य-जीवन पुनः स्थापित करें। मेरा अनुरोध है कि शिक्षा अधिकारी तथा वयोवृद्ध जन भावी पीढ़ी के उत्थानार्थ इस महत्त्वपूर्ण विषय 'ब्रह्मचर्य' की ओर अपना विशेष ध्यान दें। युवकों के प्रशिक्षण का अर्थ है राष्ट्र-निर्माण ।
भारत का भावी कल्याण एकमात्र ब्रह्मचर्य पर ही पूर्णतः निर्भर करता है। संन्यासियों तथा योगियों का यह कर्तव्य है कि वे छात्रों को ब्रह्मचर्य में प्रशिक्षित करें, उन्हें आसन तथा प्राणायाम की शिक्षा दें तथा आत्मज्ञान का सर्वत्र प्रचार करें। वे स्थिति को सुधारने में बहुत कुछ कर सकते हैं; क्योंकि वे पूर्णकालिक कार्यकर्ता है। उन्हें लोक-संग्रहार्थं अपनी गुहाओं तथा कुटीरों से बाहर आ जाना चाहिए।
यदि हमारी मातृभूमि राष्ट्रों की श्रेणी में उन्नत स्थान प्राप्त करना चाहती है, तो उसकी सन्तानों-पुरुष तथा स्त्री, दोनों को चाहिए कि वे इस महत्त्वपूर्ण विषय 'ब्रह्मचर्य का इसके सभी रूपों में अध्ययन करें, इसके परम महत्त्व को समझे तथा इस महाव्रत का नियमनिष्ठता से पालन करें।
अन्त में में अंजलिबद्ध हो कर हार्दिक प्रार्थना करता हूं कि आप सभी शान्ति तथा समृद्धि की शत्रु कामवासना पर नियन्त्रण रखने के लिए साधना द्वारा सच्चाईपूर्वक कठोर संघर्ष करें। अकृत्रिम ब्रह्मचारी इस संसार का वास्तविक महान् सम्राट है। समस्त ब्रह्मचारियों को मेरा मूक नमस्कार! उनकी जय हो !
आप अपवित्र तथा काम-विचारों से रहित हो अपने सच्चिदानन्दरूप में महामेरु की भाँति अविचल आसीन हो भगवान् साधकों को ब्रह्मचर्य पालन के लिए मनोबल तथा शक्ति प्रदान करें! आप अपने पवित्र निर्मल चित्त से अपनी आत्म-सत्ता के बोध में अनवरत स्थित रहे ! आप सांसारिक कामनाओं तथा महत्त्वाकांक्षाओं से मुक्त हो उस परम तत्त्व में विश्राम करें, जो भोक्ता तथा भोग के मध्य सतत वर्तमान रहता है!
आपके मुख मण्डल पर दिव्य प्रभा विभासित हो! आप सबमें दिव्य शिखा अधिकाधिक देदीप्यमान हो ! आपमें दिव्य शक्ति तथा शान्ति सदा निवास करें!
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः।
मनुष्य अपनी प्रजाति अथवा वंश-क्रम को बनाये रखने के लिए सन्तान उत्पन्न करना चाहता है। यह एक नैसर्गिक प्रजनन प्रवृत्ति है। मैथुन की कामना इस नैसर्गिक काम प्रवृत्ति से उत्पन्न होती है। काम-वासना की प्रबलता कामावेग की तीव्रता पर निर्भर करती है।
गीता के अनुसार आवेग वेग या शक्ति है। भगवान् कृष्ण गीता (५-३२) में कहते हैं—“जो मनुष्य देह-त्याग करने से पूर्व ही काम तथा क्रोध से उत्पन्न हुए वेग को इस लोक में सहन करने में समर्थ है, वही योगी है, वही सुखी पुरुष है।'
आवेग एक महान् शक्ति है। यह मन पर प्रभाव डालता है। यह मन तक तत्काल संचारित होता है।
कामावेग की कार्यप्रणाली जैसे भूतेल (पेट्रोल) अथवा वाष्प यन्त्र (इंजन) को संचालित करता है, वैसे ही नैसर्गिक प्रवृत्तियाँ तथा आवेग इस शरीर को गतिशील बनाते हैं। नैसर्गिक प्रवृत्तियाँ ही मानव के सभी कार्य-कलापों की मुख्य चालक हैं। वे शरीर को धक्का देत तथा इन्द्रियों को कर्मयोग में प्रवृत्त करती हैं। नैसर्गिक प्रवृत्तियाँ स्वभाव को जन्म देती हैं। नैसर्गिक आवेग प्रेरक बल उपलब्ध कराता है, जिससे समस्त मानसिक क्रिया-कलाप जारी रखा जाता है। ये आवेग मानसिक शक्तियाँ हैं तथा मन और बुद्धि के माध्यम से कार्य करते हैं। ये मनुष्य के जीवन को आकार प्रदान करते हैं। इनमें ही जीवन का रहस्य है।
पुरुषों में महिलाओं के प्रति आकर्षण रजोगुण से उत्पन्न होता है। उनकी संगति के प्रति अज्ञात आकर्षण तथा तज्जन्य सुख कामावेग का बीज है। यह आकर्षण, जो प्रारम्भ में एक बुदबुद के समान होता है, बाद में प्रबल मनोवेग अथवा काम-वासना की भयंकर अनियन्त्रणीय तरंग का आकार धारण कर लेता है। सावधान! जप, सत्संग, ध्यान तथा विचार के द्वारा भक्ति की आध्यात्मिक तरंग उत्पन्न करें तथा इस आकर्षण को कलिकावस्था में ही नष्ट कर डालें।
आपको कामावेग की मनोवैज्ञानिक कार्य प्रणाली को समझना चाहिए। यदि शरीर में खाज हो जाती है, तो उसको खुजलाने मात्र से सुखानुभूति होती है। कामावेग एक स्नायविक खुजलाहट ही है। इस आवेग के तुष्टिकरण से एक भ्रामक सुख प्राप्त होता है; किन्तु इसका उस व्यक्ति के आध्यात्मिक हित पर अनर्थकारी प्रभाव पड़ता है।
काम का पुष्प- धनुष
काम शक्तिशाली होता है। उसके पास पाँच बाणों—यथा मोहन, स्तम्भन, उन्मादन, शोषण तथा तापन से सज्जित एक पुष्प-धनुष होता है। एक बाण, जब नवयुवक कोई रमणीय रूप देखते हैं, तब उन्हें मोहित करता है। द्वितीय उनका ध्यान खींचता है। तृतीय उन्हें उन्मत्त बनाता है। चतुर्थ बाण रूप के प्रति प्रखर प्रलोभन उत्पन्न करता है। पंचम बाण उनके हृदय में प्रदाह उत्पन्न करता तथा उन्हें जलाता है। यह उनके हृदय - प्रकोष्ठ को गहराई तक भेदता है। इस भूलोक में ही नहीं, तीनों लोकों में किसी भी व्यक्ति में इन बाणों में अन्तर्निहित प्रभाव का प्रतिरोध करने की शक्ति नहीं है। इन बाणों ने भगवान् शिव तथा प्राचीन काल के अनेक ऋषियों के हृदयों को भी विद्ध किया था इन बाणों ने इन्द्र तक को भी अहल्या के साथ छेड़-छाड़ करने को प्रवृत्त किया। सुकुमार कटि, पाटल वर्ण कपोल तथा रक्तिम ओठों वाली युवती की सम्मोहक भृकुटियों तथा वेधनशील चितवन के द्वारा काम सीधे बाण चलाता है। चाँदनी रात्रि, इत्र तथा सुगन्धित द्रव्य पुष्प तथा पुष्पहार, चन्दन-लेप, मांस-मदिरा, रंगशाला तथा उपन्यास कामुक नवयुवकों को भ्रमित करने के लिए उसके शक्तिशाली शस्त्रास्त्र है। जिस क्षण उनके हृदय तीव्र काम-वासना से आपूरित हो जाते है, उसी समय तर्क तथा विवेक पलायन कर जाते हैं। वे पूर्णतया अन्धे बन जाते हैं। काम प्रतिभाशाली व्यक्तियों, महान् सुवक्ताओं, मन्त्रियों, शोध छात्रों, डाक्टरों तथा विधिवक्ताओं (बैरिस्टरों) को क्रीड़ामृग अथवा युवतियों की गोद के पालतू कुत्ते बना देता है। तर्क ने अस्थायी रूप से विद्वान पण्डितों अथवा अध्यापकों की शुष्क बुद्धि में अपना स्थान ग्रहण कर लिया है। उसमें कोई वास्तविक जीवट नहीं होता। काम को उसकी शक्ति की जानकारी होती है। काम का सर्वत्र एकाधिपत्य होता है। वह सबके हृदयों में प्रवेश कर जाता है। उसे उनके स्नायुओं को गुदगुदाने की विधि ज्ञात है। वह नवयुवकों की काम-वासना को उत्तेजित करने मात्र से उनके तर्क, विवेक तथा बुद्धि को पल-भर में नष्ट कर डालता है। हृदय
स्वप्न-काल में जब सभी इन्द्रियाँ निष्क्रिय रहती हैं, उस समय भी कामदेव का पूर्ण अधिकार रहता है। महिलाएँ उसकी अचूक प्रतिनिधि होती हैं। वे सदा इसके इशारे पर नाचती हैं। कामदेव उनके मन्द स्मित, सम्मोहक चितवन तथा मधुर वाणी के माध्यम से, उनके श्रुति-मधुर गीतों तथा स्त्री-पुरुष के सम्मिलित नृत्यों के माध्यम से कर्म करता है। युवतियाँ पुरुषों का विनाश कार्य शीघ्र सम्पन्न करती है तथा ऋषियों तक की मानसिक शान्ति भंग कर सकती है। कामदेव ब्रह्मचारियों के सुन्दरी युवती महिलाओं के चित्रों के विषय में सोचते ही, उनके कंकणों तथा नूपुरों की मन्द ध्वनि सुनते ही, उनके प्रफुल्लित मुख के विषय में चिन्तन करते ही काल्पनिक आमोद के उन्माद में उनके स्नायु तन्त्र को कम्पायमान कर सकता है। तब स्पर्श के सम्बन्ध में कहना ही क्या है।
चित्त के संस्कार
मैथुन से चित्त में संस्कार उत्पन्न होता है। यह संस्कार मन में वृत्ति (विचार ऊर्मि) उत्पन्न करता है और यह वृत्ति पुनः संस्कार को जन्म देती है। भोग से वासनाएँ प्रगाढ़ होती हैं। स्मृति तथा कल्पना के द्वारा काम वासना पुनर्जीवित हो उठती है।
स्त्री की मूर्ति की स्मृति मन को अशान्त करती है। यदि व्याघ्र ने एक बार मानव रक्त का स्वाद ले लिया है, तो वह सदा मानव प्राणी को मारने के लिए दौड़ता है। वह नरभक्षी बन जाता है। इसी भाँति यदि मन को एक बार यौन-सुख का स्वाद मिल गया, तो वह सदा स्त्रियां के पीछे भागता रहता है।
स्मृति के द्वारा मन में संस्काओं तथा वासनाओं की तह से कल्पना प्रकट होती है। तत्पश्चात् आसक्ति आती है। कल्पना के साथ ही मनोभाव तथा आवेग प्रकट होते हैं। मनोभाव तथा आवेग पास-पास रहते हैं। तदनन्तर कामोत्तेजना-मन तथा सारे शरीर में लिप्सा तथा जलन- आती है। जिस प्रकार पात्र के अन्दर रखा जल रिस कर पात्र के बाहरी भाग पर आ जाता है, उसी प्रकार मन में स्थित कामोत्तेजना तथा जलन मन से स्थूल शरीर में फैल जाती है। यदि आप अत्यधिक सावधान रहें, तो असद कल्पनाओं को प्रारम्भ में ही भगा सकते हैं तथा आसन्न संकट का परिहार कर सकते हैं। यदि आप कल्पना रूपी चोर को प्रथम द्वार में प्रवेश करने भी दें, तो द्वितीय द्वार पर जब कामोत्तेजना प्रकट हो, सावधानीपूर्वक निगरानी रखें। अब आप जलन को बन्द कर सकते हैं। आप प्रबल कामावेग को इन्द्रिय तक पहुँचाये जाने को भी सुगमता से रोक सकते हैं। उड्डियान बन्ध तथा कुम्भक प्राणायाम द्वारा काम शक्ति को मस्तिष्क की ओर ऊपर ले - जाइए। मन को दूसरी दिशा में ले जाइए। ॐ अथवा किसी अन्य मन्त्र का एकाग्र मन से जप कीजिए प्रार्थना कीजिए ध्यान कीजिए। इस पर भी यदि मन का नियन्त्रण करना दुष्कर प्रतीत हो, तो तत्काल सत्संग में जाइए तथा अकेले न रहिए। जब प्रबल कामावेग अकस्मात् प्रकट होता है और इन्द्रिय तक पहुँचा दिया जाता है, तब आपको सब कुछ विस्मृत हो जाता है और आप विवेकशून्य हो जाते हैं। आप काम के शिकार बन जाते हैं। बाद में आप पश्चात्ताप करते हैं।
एक अन्धे व्यक्ति में भी, जो ब्रह्मचारी है और जिसने स्त्री का मुख भी नहीं देखा है, कामावेग अतीव प्रबल होता है। ऐसा क्यों है? यह पूर्व जन्म के संस्कारों की प्रबलता के कारण है, जो अवचेतन मन में अन्तःस्थापित होते हैं जो कुछ भी आप करते हैं, जो कुछ भी आप सोचते हैं, वह सब चित्त अथवा अवचेतन मन की परतों में रखे रहते अथवा मुद्रित होते रहते अथवा अंकित होते रहते हैं। इन संस्कारों को आत्मा अथवा परमात्मा के ज्ञानोदय के द्वारा ही विदग्ध किया जा सकता अथवा मिटाया जा सकता है। जब काम-वासना समस्त मन तथा शरीर को आपूरित कर लेती है, तब संस्कार एक बड़ी वृत्ति का आकार धारण कर बेचारे नेत्रहीन व्यक्ति को उत्पीड़ित करते हैं।
चेतन मन को नियन्त्रित करना सरल है; किन्तु अवचेतन मन को नियन्त्रित करना बहुत ही दुष्कर है। आप एक संन्यासी हो सकते हैं। आप एक सदाचारी व्यक्ति हो सकते हैं। ध्यान दें कि आपका मन स्वप्न में कैसा व्यवहार अथवा आचरण करता है। आप स्वप्न में चोरी करना आरम्भ करते हैं। आप स्वप्न में व्यभिचार करते हैं। कामावेग, महत्त्वाकांक्षाएँ तथा अधम कामनाएँ—ये सभी आपमें जटित तथा अवचेतन मन में बद्धमूल हैं। अवचेतन मन तथा इसके संस्कार को विचार, ब्रह्म-भावना तथा 'ॐ' और उसके अर्थ पर ध्यान के द्वारा विनष्ट कीजिए। जो व्यक्ति मानसिक ब्रह्मचर्य में प्रतिष्ठित है, उसके स्वप्न में कभी भी एक भी दुर्विचार नहीं आ सकता है। वह कभी भी दुस्स्वप्न नहीं देख सकता है। स्वप्न में विवेक तथा विचार का अभाव होता है। यही कारण है कि विवेक तथा विचार की शक्ति द्वारा जाग्रतावस्था में निष्पाप होने पर भी आपको दुस्स्वप्न दिखायी देते हैं।
एक साधक अपनी व्यथा निवेदन करता है: "जब मैं ध्यान करता रहता हूँ, तब मेरे अवचेतन मन से मल की परतों के बाद परतें उठती रहती है। कभी-कभी तो इतनी प्रबल तथा विकट होती है कि मैं किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता हूँ कि उन्हें कैसे नियन्त्रि किया जाये। मैं सत्य तथा ब्रह्मचर्य में पूर्णतः प्रतिष्ठित नहीं हूँ। कामवासना तथा असत्य बोलने की पुरानी आदते अब भी मुझमें छिपी पड़ी है। कामवासना मुझे तीव्र दे रही है। स्त्री का विचार मात्र मेरे मन को क्षुब्ध करता है। मेरा मन इतना संवेदनशील है कि मैं उनके विषय में सुन अथवा सोच नहीं सकता। मन में ज्यों-ही विचार आता है, त्यों-ही मेरी साधना भंग हो जाती है और सारे दिन की शान्ति भी खराब हो जाती है। मैं अपने मन को समझाता हूँ, फुसलाता हूँ, डराता हूँ; फिर भी सब निरर्थक। मेरा मन विद्रोह कर बैठता है। मैं नहीं जानता कि इस काम-वासना को कैसे नियन्त्रित किया जाये। उत्तेजनशीलता, अहंकार, क्रोध, लोभ, घृणा तथा आसक्ति अभी तक मुझमें गुप्त रूप से विद्यमान हैं। कामुकता मेरा मुख्य शत्रु है और यह अत्यधिक बलवान् भी है। मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि कृपया मुझे यह परामर्श दें कि इसे कैसे विनष्ट किया जाये।"
जब अवचेतन मन से मल निकल कर प्रबल शक्ति से चेतन मन के धरातल पर जायें, तो उनका प्रतिरोध करने का प्रयास न कीजिए। अपने इष्ट मन्त्र का जप कीजिए। अपने दोषों अथवा दुर्गुणों के विषय में अधिक चिन्तन न कीजिए। यदि आप अन्तर्निरीक्षण करें तथा अपने दोषों का पता लगा लें, तो यही पर्याप्त होगा। दुर्गुणों पर आक्रमण न करें। तब वे अपने उदास मुख दिखलायेंगे। धनात्मक गुणों का विकास करें। आप अपने को प्रायः चिन्ताग्रस्त न बनाते रहें कि मुझमें कितने ही दोष तथा दुर्बलताएँ हैं। सात्विक गुणों का विकास कीजिए ध्यान के द्वारा धनात्मक गुणों के विकास से तथा प्रतिपक्ष भावना प्रणाली से सभी ऋणात्मक गुण स्वतः ही नष्ट हो जायेंगे। यही उपयुक्त - विधि है।
आप वृद्ध हो सकते हैं, आपके केश श्वेत हो सकते हैं; किन्तु आपका मन सद युवा ही रहता है। जिस समय आप जराजीर्णता की परिपक्वता को पहुँच गये हों, उस समय आपका सामर्थ्य भले ही तिरोभूत हो गया हो, किन्तु तृष्णा बनी रहती है। तृष्णाएँ ही जन्म की वास्तविक बीज हैं। ये बीज-रूपी तृष्णाएँ संकल्प तथा कर्म उत्पन्न करती है और ये तृष्णाएँ ही संसार-चक्र को घुमाती रहती हैं। इन्हें कलिकावस्था में ही नष्ट कर डालिए। तभी आप सुरक्षित रह पायेंगे। आपको मोक्ष प्राप्त होगा। ब्रह्म-भावना, ब्रह्म-चिन्तन, ॐ का ध्यान तथा भक्ति गहराई में रोपित इन तृष्णारूपी बीजों का उन्मूलन करेंगे। आपको इन्हें विविध कोनों से भली-भाँति खोज निकालना तथा विदन्य करना होगा, जिससे ये पुनजीवित न हो सकें। तभी आपके प्रयास निर्विकल्प समाधि का फल देंगे।
एक विद्यार्थी मुझे लिखता है "अशुद्ध मांस तथा त्वचा मुझे अत्यन्त शुद्ध तथा अच्छे प्रतीत होते हैं। मैं बहुत ही कामुक हूँ। मैं सभी स्त्रियों के प्रति मानसिक मातृ-भाव विकसित करने का प्रयास करता हूँ। मैं महिला को कालीदेवी का रूप मान कर उसके समक्ष मानसिक साष्टांग प्रणाम करता हूँ। तथापि मेरा मन अत्यन्त कामुक है। ऐसी स्थिति में मैं क्या करूँ? मैं सुन्दरी स्त्री की बार-बार झलक पाना चाहता हूँ।" स्पष्ट है कि उसके मन में विवेक तथा वैराग्य का रंचमात्र उदय नहीं हुआ है। पूर्व के पापमय संस्कार तथा वासनाएँ अत्यन्त प्रबल हैं।
निष्पाप ब्रह्मचारी भी प्रारम्भ में कुतूहल द्वारा कष्ट उठाता है। उसमें यह जानने तथा अनुभव करने का कुतूहल होता है कि सम्भोग किस प्रकार का सुख प्रदान करेगा। वह कभी-कभी सोचता है "एक बार मैं स्त्री सम्भोग कर लूँ, तो मैं इस कामावेग तथा काम-वासना का पूर्णतः उन्मूलन कर सकूँगा। यह यौन सम्बन्धी कुतूहल मुझे बहुत कष्ट दे रहा है।" मन इस ब्रह्मचारी को धोखा देना चाहता है माया कुतूहल के द्वारा विनाश करती है। कुतूहल प्रबल इच्छा में रूपान्तरित हो जाता है। विषयोपभोग कामनाओं को तुष्ट नहीं कर सकता। अतः कुतूहल की प्रबल तरंग को विचार अथवा शुद्ध लिंग-हीन आत्मा-सम्बन्धी जिज्ञासा, सतत ध्यान से काम-वासना के पूर्ण उन्मूलन तथा ब्रह्मचर्य की महिमा और अपवित्र जीवन के दोषों के चिन्तन द्वारा नष्ट करना ही विवेकपूर्ण उपाय है।
अपने मानसिक ब्रह्मचर्य को कैसे मापें
एक सुन्दरी युवती का वीक्षण एक कामुक व्यक्ति के मन में आकर्षण तथा संक्षोभ, हृदय भेदन तथा गम्भीर उन्माद उत्पन्न करता है। यदि किसी व्यक्ति में ये लक्षण विद्यमान नहीं हैं, तो यह उसके ब्रह्मचर्य में प्रतिष्ठित होने के चिह्न का द्योतक है। पशु-पक्षियों के जोड़ा खाने अथवा युग्मन अथवा एक महिला के अनावृत शरीर के दृश्य से रंचमात्र भी संक्षोभ उत्पन्न नहीं होना चाहिए।
यदि रुग्णावस्था काल में ब्रह्मचारी के मन में स्त्री के संग की भावना उठती है, यदि उसकी संगति में रहने की प्रबल कामना है, यदि उसके साथ वार्तालाप करने, खेलने तथा हास-परिहास करने की इच्छा है, यदि एक सुन्दरी युवती को देखने की चाह है, यदि उसकी दृष्टि अपवित्र तथा व्यभिचारी है और यदि शरीर में पीड़ा के समय स्त्री के हाथों के स्पर्श की कामना है, तो स्मरण रहे कि उसके मन में कामुकता अभी भी छिपी हुई है। उसमें तीव्र यौन लालसा है। इसे नष्ट करना चाहिए। पुराना चोर अब भी छिपा हुआ है। ऐसे ब्रह्मचारी को बहुत ही सावधान रहना चाहिए। वह अब भी खतरे के क्षेत्र के भीतर ही है। उसने ब्रह्मचर्य की अवस्था को प्राप्त नहीं किया है। स्वप्न में भी मन में नारी के स्पर्श अथवा सग की लालसा नहीं उठनी चाहिए। व्यक्ति के ब्रह्मचर्य की माप स्वप्न में हुई | उसकी अनुभूतियों के द्वारा की जा सकती है। यदि व्यक्ति स्वप्न में कामुक विचारों से पूर्णतः मुक्त रहता है, तो वह ब्रह्मचर्य की पराकाष्ठा को पहुँच गया है। आत्म-विश्लेषण तथा आत्म-निरीक्षण व्यक्ति के मन की दशा के निर्धारण के लिए अपरिहार्य आवश्यकताएँ हैं।
ज्ञानी को स्वप्नदोष नहीं होते। जो ब्रह्मचर्य में प्रतिष्ठित है, वह एक भी दुस्स्वान नहीं देखता। स्वप्न हमारी मानसिक दशा अथवा मानसिक शुद्धता की मात्रा आँकने की कसौटी का काम करता है। यदि आपको अशुद्ध स्वप्न नहीं दिखता, तो आप ब्रह्मचर्य में प्रगति कर रहे हैं।
काम भाव ही मन से लुप्त हो जाना चाहिए। शुकदेव को ऐसी अनुभूति थी। शुकदेव ने विवाह नहीं किया। वह अपना गृह त्याग कर विशाल विश्व में नंग-धडग विचरण करने लगे। उनके पिता व्यास के लिए यह पुत्र-वियोग बहुत ही दुःखदायी था। व्यास अपने पुत्र की खोज में बाहर निकल पड़े। जब वे एक सरोवर के पास से जा रहे थे, अप्सराएँ जो स्वच्छन्द जलक्रीड़ामग्न थीं, लज्जित हो गयीं और उन्होंने शीघ्र ही अपने वस्त्र धारण कर लिये । व्यास ने कहा: “निस्सन्देह यह एक आश्चर्य की बात है। मैं वृद्ध हूँ और वस्त्र धारण किये ह; किन्तु जब मेरा पुत्र इस मार्ग से विवस्त्र अवस्था में गया, तब आप सब शान्त तथा अप्रभावित रहीं।" अप्सराओं ने उत्तर दिया "पूज्य ऋषिवर! आपके पुत्र को स्त्री-पुरुष का भेद ज्ञात नहीं है; किन्तु आपको ज्ञात है।"
कामुकता का उन्मूलन सरल कार्य नहीं है।
आपको अपने हृदय के विभिन्न कोनों में छिपे हुए इस भयानक काम शत्रु को सावधानीपूर्वक खोज निकालना होगा। जिस प्रकार लोमड़ी झाड़ी में छिपी रहती है, उसी प्रकार यह कामुकता मन के अधः स्तर तथा कोनों में छिपी रहती है। यदि आप जागरुक रहेंगे, तभी आप इसकी उपस्थिति का पता पा सकते हैं। गहन आत्म-परीक्षण परम आवश्यक है। जिस प्रकार शक्तिशाली शत्रुओं को आप तभी पराजित कर सकते हैं, जब आप उन पर सभी दिशाओं से आक्रमण करें: उसी प्रकार आप अपनी शक्तिशाली इन्द्रियों को तभी नियन्त्रण में रख सकते हैं, जब आप उन पर ऊपर-नीचे, अन्दर-बाहर - चारों ओर से आक्रमण करें।
इन्द्रियाँ बहुत ही उपद्रवी हैं। उपदंश उत्पन्न करने वाले शक्तिशाली संक्रमित विषाणु (वाइरस) पर चिकित्सक विलेपन, अन्तःक्षेपण (सुई), मिश्रण, चूर्ण आदि विविध युक्तियों से सभी दिशाओं से आक्रमण करता है। इसी प्रकार इन्द्रियों का निग्रह भी उपवास, आहार-संयम, प्राणायाम, जप, कीर्तन, ध्यान, विचार अथवा 'मैं कौन हूँ' की जिज्ञासा, प्रत्याहार, दम, आसन, बन्ध, मुद्रा, चित्तवृत्तिनिरोध, वासना क्षय आदि विविध उपायों से करना चाहिए।
मात्र इस तथ्य के कारण कि आप कई वर्षों तक अविवाहित जीवन यापन कर चुके हैं अथवा आप किंचित् शान्ति अथवा शुद्धता का अनुभव कर रहे हैं, मूर्खतापूर्वक यह समझने की भूल न करें कि आप कामुकता से अपना पीछा छुड़ाने में सफल हो गये हैं। आप इस भ्रम के शिकार न बनें कि आपने आहार में किंचित् समायोजन, प्राणायाम के अभ्यास तथा स्वल्प जप के द्वारा काम वासना का पूर्णतया उन्मूलन कर डाला है और अब करने को कुछ शेष नहीं रहा। प्रलोभन अथवा मार आपको किसी क्षण भी पराभूत कर सकता है। निरन्तर जागरूकता तथा कठोर साधना की परम आवश्यकता है। परिमित प्रयास से आप पूर्ण ब्रह्मचर्य को प्राप्त नहीं कर सकते हैं। जिस प्रकार एक शक्तिशाली शत्रु को मारने के लिए मशीनगन की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार इस शक्तिशाली शत्रु काम का विनाश करने के लिए सतत प्रबल तथा प्रभावशाली साधना आवश्यक है। ब्रह्मचर्य में अपनी थोड़ी-सी उपलब्धि से आप अभिमान से न फूलिए। यदि आपकी परीक्षा ली गयी, तो आप निराशाजनक रूप से असफल होंगे। अपनी त्रुटियों से सदा अभिज्ञ रहें तथा उनसे पीछा छुड़ाने के लिए सदा प्रयत्नशील रहे। सर्वोच्च प्रवास आवश्यक है। तभी आपको इस दिशा में प्रत्याशित सफलता प्राप्त होगी।
सिंह, व्याघ्र अथवा हाथी को पालतू बनाना सरल है, नाग के साथ क्रीडा करना भी सरल है, अग्नि के ऊपर चलना भी सरल है, हिमालय को उखाड़ लेना भी सरल है। युद्ध क्षेत्र में विजय प्राप्त करना भी सरल है; किन्तु काम का उन्मूलन करना दुस्साध्य है। इस काम-शक्ति ने ही विकास की प्रारम्भिक अवस्थाओं से ले कर युग-युगान्तरों तक सन्तान-प्रजनन तथा बहुलीकरण की नैसर्गिक प्रवृत्ति को बनाये रखा है। अतः इस शक्ति के नियन्त्रण तथा दमन के समस्त प्रयासों के होते हुए भी, यह बलात् प्रकट होने साधक को पराजित करने का प्रयास करती है। तथा
तथापि इससे आपको किंचित् निराश नहीं होना चाहिए। ईश्वर, उनके नाम तथा । उनकी कृपा । में विश्वास रखे। प्रभु की कृपा के बिना मन से काम-वासना का पूर्णतया उन्मूलन करना सम्भव नहीं है। यदि आपकी ईश्वर में श्रद्धा है, तो आपको अवश्यमेव सफलता प्राप्त होगी। आप पल मात्र में ही काम को नष्ट कर सकते हैं। ईश्वर मूक व्यक्ति को बाचाल तथा पशु को दुरारोह पर्वत पर आरोहण योग्य बना देते हैं। मानव-प्रयास मात्र ही पर्याम नहीं है। भगवद्-कृपा की आवश्यकता है। ईश्वर उसकी सहायता करते हैं, जो अपनी सहायता स्वयं करते हैं। यदि आप निःशेष आत्मसमर्पण कर दें, तो स्वयं प्रकृति माता आपकी साधना करेंगी।
पुराने संस्कार तथा वासनाएँ चाहे कितने ही बलशाली क्यों न हों, नियमित ध्यान तथा मन्त्र जप सात्त्विक आहार, सत्संग, प्राणायाम, शीर्षासन तथा सर्वांगासन का अभ्यास, स्वाध्याय, विचार तथा किसी पवित्र सरिता तट पर तीन महीनों तक एकान्तवास से पूर्णतः नष्ट हो जायेंगे। धनात्मक ऋणात्मक पर सदा विजयी होता है। जो भी हो, आपको हतोत्साहित नहीं होना चाहिए। ध्यान में गम्भीरतापूर्वक निमन हो जाइए, इस मार (काम) को मार डालिए तथा संग्राम में विजयी बनिए। वैभवशाली योगी के रूप में ख्याति प्राप्त कीजिए। आप नित्य-शुद्ध आत्मा हैं। हे विश्वराजन्! इसका अनुभव कीजिए।
कामावेगों को कठिनाई से नियन्त्रित किया जा सकता है। जब आप कामावेगों को नियन्त्रित करने का प्रयत्न करते हैं, तो वे विद्रोह कर बैठते हैं। काम शक्ति को आध्यात्मिक पथ पर निर्दिष्ट करने के लिए दीर्घ काल तक निरन्तर जप तथा ध्यान की आवश्यकता है। काम-शक्ति का ओज-शक्ति में पूर्ण उदात्तीकरण आवश्यक है। तभी आप पूर्णतः सुरक्षित रह पायेंगे। तभी आप समाधि में प्रतिष्ठित होंगे, क्योंकि तब रसास्वाद पूर्णतः लुप्त हो जायेगा। कामावेगों के उन्मूलन तथा विचार, वाणी तथा कर्म में पूर्ण शुद्धता की प्राप्ति के लिए परम धैर्य, निरन्तर जागरूकता, अध्यवसाय तथा कठोर साधना की आवश्यकता है।
ब्रह्मचर्य केवल निरन्तर प्रयास द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। यह एक दिन या एक सप्ताह में उपलब्ध नहीं किया जा सकता है। काम वासना निश्चय ही बहुत शक्तिशाली है। यह आपकी प्राणान्तक शत्रु है। किन्तु आपका परम शक्तिशाली मित्रभगवन्नाम है। यह काम वासना को आमूल नष्ट कर डालता है। अतः सदा जप तथा कीर्तन करें "राम, राम, राम ।"
योगाभ्यास, ध्यान इत्यादि काम वासना को अत्यधिक मात्रा में क्षीण कर देंगे; किन्तु एकमात्र आत्म-साक्षात्कार ही कामवासना तथा संस्कारों को पूर्णतया नष्ट तथा बिध कर सकता है। भगवद्गीता ने ठीक ही कहा है, "संयमी (इन्द्रियों द्वारा विषयों कोन ग्रहण करने वाले व्यक्ति के इन्द्रिय-विषय तो निवृत्त हो जाते हैं; पर राग निवृत्त नहीं होता। किन्तु यह राग भी व्यक्ति के आत्म-साक्षात्कार करने के पश्चात् निवृत्त हो जाता है।"
काम की सहज प्रवृत्ति एक सर्जनात्मक शक्ति है। यदि आप आध्यात्मिक आदर्शों से प्रेरित नहीं हैं, तो नैसर्गिक काम प्रवृत्ति का निरोध कठिन है। काम-शक्ति को उच्चतर आध्यात्मिक पथ में निर्दिष्ट कीजिए। इसका उदात्तीकरण होगा। यह दिव्य शक्ति में रूपान्तरित हो जायेगी। तथापि काम का पूर्ण उन्मूलन व्यक्तिगत प्रयास से नहीं हो सकता है। यह केवल भगवद्-कृपा से ही निष्पन्न हो सकता है।
काम एक अत्यन्त प्रबल इच्छा है। बारम्बार की पुनरावृत्ति अथवा बारम्बार के उपभोग से मृदु इच्छा प्रबल काम का रूप ले लेती है।
व्यापक अर्थ में, काम एक उत्कटेच्छा है। देश-भक्तों में देश सेवा की उत्कटेच्छा होती है। प्रथम कोटि के साधकों में भगवद्-साक्षात्कार की उत्कटेच्छा होती है। कुछ व्यक्तियों में उपन्यास-वाचन की प्रबल उत्कटेच्छा होती है। उत्कटेच्छा धर्मग्रन्थों के स्वाध्याय के लिए भी होती है। परन्तु बोल-चाल में काम का अर्थ है -कामुकता अथवा प्रबल यौनोपराग। यह यौन अथवा विषय-सुख के लिए कायिक लालसा है। जब मैथुन कार्य की बहुधा पुनरावृत्ति की जाती है, तो कामना बहुत ही प्रखर तथा प्रबल हो जाती है। व्यक्ति की काम प्रवृत्ति अथवा जननप्रवृत्ति अपनी जाति की सुरक्षा हेतु उसके अनजाने में ही उसे मैथुन कार्य में प्रवृत्त होने के लिए प्रेरित करती है।
काम आत्म-परिरक्षण तथा आत्म-बहुलीकरण के द्वारा बाह्मीभूत होने की एक नैसर्गिक प्रवृत्ति है। यह विविधता उत्पन्न करने वाली शक्ति है, जो सत्ता के एकीभवन की दिशा में अग्रसारित करने वाली शक्ति की प्रत्यक्ष रूप से विरोधी है।
काम अविद्या का कार्य अथवा उसकी उपज है। यह मन में होने वाला एक ऋणात्मक विकार है। आत्मा नित्य-शुद्ध है। आत्मा विमल, निर्मल अथवा निर्विकार है। प्रभु की लीला को बनाये रखने के लिए अविद्या शक्ति ने ही काम का रूप धारण कर लिया है। 'चण्डीपाठ' अथवा 'दुर्गासप्तशती' में आप पायेंगे।
या देवी सर्वभूतेषु कामरूपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥
इसका अर्थ है "मैं उस देवी को बारम्बार नमस्कार करता हूँ, जो सभी प्राणियों में कामरूप में स्थित है।
सृष्टिकर्ता ब्रह्मा को भी यह ज्ञात नहीं है कि काम का यथार्थ अधिष्ठान कहाँ है। भगवदगीता में उल्लेख है कि इन्द्रियाँ, मन तथा बुद्धि काम के अधिष्ठान हैं। प्राणमय कोश उसका अन्य अधिष्ठान है। वासना शरीर में सर्वत्र व्याप्त रहती है। प्रत्येक कोशाणु, प्रत्येक परमाणु, प्रत्येक अणु, प्रत्येक विद्युदणु काम से अधिप्रभारित