बाबा नीम करौली
उत्तर भारत के एक अद्भुत सन्त
Baba Neem Karoli
A Wonder Mystic of Northern India
का हिन्दी अनुवाद
स्वामी चिदामन्द
MEDITATE SERVE LOVE REALIZE
THE DIVINE LIFE SOCIETY
अनुवादिका
ब्रह्मचारिणी नीलमणि
प्रकाशक
द डिवाइन लाइफ सोसायटी
पत्रालय : शिवानन्दनगर-२४९१९२
जिला : टिहरी गढ़वाल, उत्तराखण्ड (हिमालय), भारत
www.sivanandaonline.org, www.dlshq.org
प्रथम हिन्दी संस्करण : २०१७
(३,००० प्रतियाँ)
© द डिवाइन लाइफ ट्रस्ट सोसायटी
निःशुल्क वितरणार्थ
'द डिवाइन लाइफ सोसायटी, शिवानन्दनगर' के लिए
स्वामी पद्मनाभानन्द द्वारा प्रकाशित तथा उन्हीं के द्वारा 'योग-वेदान्त
फारेस्ट एकाडेमी प्रेस, पो. शिवानन्दनगर-२४९१९२,
जिला टिहरी गढ़वाल, उत्तराखण्ड' में मुद्रित ।
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उत्तर भारत के एक अद्भुत सन्त
ॐ श्री हनुमते नमः
परमपिता परमात्मा को श्रद्धापूर्वक नमन ! उन सर्वशक्तिमान् प्रभु को प्रणाम, जो आश्चर्यों के आश्चर्य, सौन्दर्यों के सौन्दर्य, ज्योतियों की ज्योति, शक्तियों की शक्ति तथा समस्त सत्यों के शाश्वत सत्य हैं। उनकी दिव्य कृपा की वर्षा समस्त प्राणियों पर हो और सभी को आनन्द, शान्ति एवं प्रकाश की ओर ले जाये। उनका प्रेम, करुणा एवं आशीर्वाद उनके आध्यात्मिक प्रतिनिधियों अर्थात् सन्तों तथा पावन पुरुषों के माध्यम से हमें प्राप्त हो।
उत्तर भारत के अद्भुत सन्त, परम पूज्य एवं परम प्रिय श्री बाबा नीम करौली जी की पावन स्मृति को श्रद्धापूर्वक नमन ! श्री बाबा नीम करौली जी उत्तर भारत के साधु-सन्तों एवं महापुरुषों के धार्मिक संघ में सर्वाधिक विलक्षण एवं अद्वितीय हैं। आज जब मैं राजस्थान के जयपुर जिले में ग्रीष्मकाल की दोपहर में श्री बाबाजी पर यह जो लेख लिखवा रहा हूँ; मुझे इस बात पर बिल्कुल आश्चर्य नहीं होगा कि इस क्षण बाबाजी इस तथ्य से पूर्णतया परिचित हैं और वे भली-भाँति जानते हैं कि मैं कहाँ बैठा हूँ, किन शब्दों का लेखन करवा रहा हूँ, किस समय तथा किससे लेखन करवा रहा हूँ यद्यपि श्रद्धेय बाबाजी शारीरिक रूप से हमारे मध्य नहीं हैं, उन्होंने कुछ वर्ष पूर्व ही देह त्याग किया है। यह कथन अनेक पाठकों को कुछ असामान्य ही प्रतीत होगा तथा उन्हें आश्चर्यचकित भी करेगा, तथापि यह सत्य है। बाबाजी के कई अन्तरंग शिष्यों एवं भक्तों ने इस बात का व्यक्तिगत रूप से अनुभव किया है कि पूज्य बाबाजी जानते थे कि दूरस्थ स्थानों पर रह रहे उनके भक्त एवं शिष्य क्या कर रहे थे और क्या कह रहे थे यद्यपि बाबाजी स्वयं उस समय किसी अन्य स्थान में होते थे। इसलिए उनके अधिकांशतः अनुयायी इस बात को पूर्णरूपेण स्वीकार करते हैं कि श्री बाबा नीम करौली जी एक 'सिद्ध पुरुष' एवं त्रिकालज्ञ थे अर्थात् वे भूत, भविष्य, वर्तमान तीनों कालों के ज्ञाता थे।
पिछली बार मुझे अक्टूबर १९७३ में परम पूज्य नीम करौली बाबाजी के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ। एक यात्रा के दौरान अल्मोड़ा से नैनीताल आते समय मैं कुमाऊँ पहाड़ियों में नैनीताल के समीप कैंची में स्थित उनके आश्रम गया था। हमने सायंकाल में यात्रा प्रारम्भ की थी और जब हम कैंची पहुँचे, अँधेरा हो चुका था। शरद ऋतु होने से रात्रि होते-होते ठंड बढ़ने लगी थी। हमारे समूह का एक सदस्य यह जानने के लिए पहले आश्रम गया कि बाबाजी आश्रम में थे अथवा नहीं। बाबाजी आश्रम में ही थे और उन्होंने हमें आश्रम आने का सन्देश भिजवाया।
मैं और मेरे साथी टार्च की रोशनी में सड़क से नीचे उतरे तथा पर्वतीय झरने पर बने एक छोटे पुल को पार करके हमने आश्रम में प्रवेश किया। आश्रम पूर्णतया नीरव एवं शान्त था। मन्दिर के पुजारी हमें आँगन में मिले और एक छोटे कमरे की ओर ले गये। परम पूज्य बाबाजी एक चारपाई पर बैठे थे; उन्होंने अपने शरीर पर एक कम्बल ओढ़ा हुआ था। उन्होंने अत्यन्त कृपापूर्ण दृष्टि से हमें देखा और चारपाई के पास बिछी एक दरी पर बैठने का संकेत किया। पूज्य बाबाजी पालथी लगाये बैठे थे, अत: उनके चरणों पर प्रणाम करने हेतु मैं उनकी चारपाई के समीप झुका और उनकी गोद में अपने मस्तक को रखा। बाबाजी ने अत्यन्त मृदुल स्वर में कहा, "ठीक, ठीक, बहुत अच्छा" और मुझे बैठने का संकेत किया। हमारे समूह में एक आदर्श युवक एवं आध्यात्मिक जिज्ञासु श्री योगेश बहुगुणा जी भी थे। वे एक तौलिए में ७ अथवा ८ सन्तरे लाये थे। श्री योगेश जी ने बाबाजी के समीप रखी एक खाली टोकरी में सन्तरे रख दिये। इसके पश्चात् हमने संकीर्तन किया तथा कुछ क्षण मौन हो कर बैठे। वहाँ से जाने की अनुमति लेने से पूर्व मैंने बाबाजी से उनके स्वास्थ्य के विषय में पूछा तथा उनके द्वारा पूछे गये कुछ प्रश्नों के उत्तर दिये। इसके बाद बाबाजी ने प्रसादस्वरूप सन्तरे वितरित करना प्रारम्भ किया। इस समय तक आश्रम के कुछ कार्यकर्ता एवं भक्त भी दरवाजे के समीप एकत्रित हो गये थे। श्री योगेश जी अत्यन्त आश्चर्यचकित हो गये जब उन्होंने देखा कि बाबाजी आठ सन्तरे देने के बाद भी उस टोकरी से पूर्ववत् सन्तरे निकालते रहे और हमारे समूह के सभी सदस्यों तथा वहाँ एकत्रित आश्रम सदस्यों को देते रहे। बाबाजी ने कुल १८ सन्तरे प्रसादस्वरूप बाँटे। उस टोकरी में १० अतिरिक्त सन्तरे कहाँ से आये, हम समझ नहीं पाये। केवल पूज्य बाबाजी ही जानते हैं।
लगभग २३ वर्ष पूर्व १९५० के दशक में, मैंने पहली बार परम पूज्य नीम करौली बाबाजी के विषय में सुना था। यह कुछ इस प्रकार हुआ। परम श्रद्धेय गुरुदेव श्री स्वामी शिवानन्द जी का आश्रम टिहरी गढ़वाल जिले में स्थित है। उस समय एक अत्यन्त योग्य एवं श्रेष्ठ अधिकारी श्री आर. के. त्रिवेदी जिला मजिस्ट्रेट थे। बाद में, वे मसूरी में 'नेशनल एकेडमी ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन' के प्रथम डायरेक्टरस में से एक बने। श्री आर. के. त्रिवेदी के वृद्ध पिता उनके साथ नरेन्द्रनगर में रहते थे जो कि टिहरी गढ़वाल का जिला मुख्यालय है। उनके पिता अत्यन्त पवित्र एवं श्रेष्ठ साधक थे; उन्होंने अपने आन्तरिक आध्यात्मिक जीवन का अच्छा विकास किया था। एक बार उन्होंने श्री गुरुदेव के दर्शनार्थ शिवानन्द आश्रम जाने की इच्छा अभिव्यक्त की। जिला मजिस्ट्रेट श्री त्रिवेदी जी श्री गुरुदेव के प्रति अत्यन्त श्रद्धा रखते थे; वे प्रसन्नतापूर्वक अपने वृद्ध पिता को नरेन्द्रनगर से आश्रम लाये और उन्होंने गंगाजी के तट पर स्थित श्री गुरुदेव के कुटीर में उनसे भेंट की। संस्था का महासचिव होने के कारण, मैं ही उन दोनों अतिथियों को गुरुदेव के समीप ले कर गया था। गुरुदेव ने मुझे वहीं रुकने के लिए कहा। उस समय श्री त्रिवेदी जी के पिता ने हमें बताया कि उनके गुरु नैनीताल के श्री बाबा नीम करौली हैं। जब उनसे उनके गुरु के विषय में कुछ बताने की प्रार्थना की गयी, तो उन्होंने बाबाजी के विषय में हमें बहुत सी बातें बतायीं तथा उनके शिष्य के रूप में अपने अनुभव भी बताये। उन्होंने कहा, “स्वामी जी, इस क्षण बाबाजी यह जानते हैं कि मैं कहाँ हूँ, क्या कर रहा हूँ तथा आपसे क्या कह रहा हूँ। जब मैं अगली बार उनसे मिलूँगा, तो वे मेरे इन शब्दों को दोहरायेंगे तथा मुझे यह भी बतायेंगे कि इस समय मैं यहाँ आपके साथ था। वे सब जानते हैं। अब भी वे मुझे सुन रहे हैं।"
यह सब उन वृद्ध सज्जन ने बताया और इस प्रकार मैं बाबाजी के असाधारण व्यक्तित्व एवं शक्तियों के विषय में जान पाया। बाद में, मुझे बाबाजी के कुछ अन्य भक्तों से मिलने का अवसर प्राप्त हुआ; उन सबने भी इन तथ्यों की पुष्टि की है। बाबानीम करौली जी के कई भक्तों ने उन्हें अनेकों बार एक ही समय में दो भिन्न स्थानों पर देखा है। इन दोनों ही स्थानों पर बाबाजी को केवल देखा नहीं गया, अपितु बाबाजी उन भक्तों के साथ रहे, उनसे बातचीत की और यहाँ तक कि भक्तों द्वारा अर्पित अल्पाहार भी ग्रहण किया।
बाबाजी के विषय में एक अन्य विलक्षण बात उनका कहीं आने एवं जाने का तरीका था। वे बिना किसी पूर्व सूचना के सहसा आपके समक्ष आ जाते थे। जाते समय वे लोगों को उनके पीछे आने से मना करते थे, वे कुछ ही कदम सड़क पर चलते थे और फिर दृष्टि से ओझल हो जाते थे। इसके बाद उन्हें खोजना असम्भव था चाहे कोई उनके पीछे दौड़ कर जाये अथवा किसी वाहन से जाये। यह केवल कुछ सौ गज की ही दूरी होती थी जब वे सड़क के एक मोड़ पर मुड़ते थे। इतना ही पर्याप्त था और अगले क्षण उन्हें एक मील के क्षेत्र में कहीं ढूँढ़ पाना अशक्य था। ऐसा माना जाता है कि उन्होंने श्री हनुमानजी की उपासना की थी और उपासना से प्राप्त सिद्धि से ही वे अनेक चमत्कारिक कार्य करते थे।
यह बात पूर्णतया सत्य हो सकती है क्योंकि सभी जानते हैं कि अनेक सुन्दर एवं भव्य हनुमान मन्दिरों का निर्माण पूज्य बाबाजी की प्रेरणा एवं उनके व्यक्तिगत निरीक्षण में हुआ है। श्री हनुमान जी के ये मन्दिर असंख्य भक्तों के लिए अत्यधिक आकर्षण के केन्द्र हैं। इस प्रकार का एक सर्वाधिक सुन्दर एवं भव्य मन्दिर लखनऊ में भी है। कैंची में बाबा नीम करौली आश्रम में स्थापित श्री हनुमान जी का विग्रह भी आराधना का केन्द्र है। वृन्दावन में भी एक आकर्षक हनुमान मन्दिर है।
कुछ भक्त यह भी कहते हैं कि पूज्य बाबाजी ने आकाश- गमन की सिद्धि प्राप्त कर ली थी तथा वे एक क्षण में अपने इच्छित स्थान पर पहुँच जाते थे। वे पूर्णतया अनासक्त थे। मुक्त स्वच्छन्द बहती वायु के समान वे वस्तु-परिस्थितियों से सर्वथा अप्रभावित एवं अनासक्त रहते थे। अनासक्ति एवं असंगता के बावजूद भी, बाबाजी दुःखी एवं पीड़ित मनुष्यों के प्रति अत्यन्त करुणाशील थे। वे किसी की सच्ची प्रार्थना को अस्वीकृत नहीं करते थे। कष्ट से सन्तप्त मनुष्यों के लिए वे स्नेहपूर्ण करुणा से परिपूर्ण थे तथा समाज के गणमान्य व्यक्तियों से अपने सम्पर्क के प्रभाव से उनके कष्टों का निवारण करते थे।
अपने व्यक्तिगत जीवन में बाबाजी अतिसंयमी थे तथा शरीर पर मात्र एक कम्बल धारण करते थे। उनके हृदय में सभी आध्यात्मिक संस्थाओं के प्रति महती सद्भावना थी। मुझे यह भी अनुभव होता है कि अपने समकालीन अनेक सन्त-महापुरुषों से उनका आन्तरिक सम्पर्क था। बाबाजी का कार्य पूर्णतया व्यक्तिगत तथा पृथक् नहीं था। यह उस विशाल कार्य का ही एक भाग था जिसमें अनेक अन्य सन्त आध्यात्मिक सहभागिता एवं सक्रियतापूर्वक लगे हुए थे। अन्तर्मुखी तथा अल्पभाषी स्वभाव के होते हुए भी बाबाजी अपनी दृष्टि अथवा संकेत मात्र से अत्यधिक स्नेह अभिव्यक्त करने में सक्षम थे। उन्होंने अनेकों निराश हृदयों को साहस प्रदान किया; वे असंख्य मनुष्यों के जीवन में शान्ति लाये। अपने सच्चे शिष्यों एवं भक्तों के घरों में वे परिवार के एक सदस्य के समान ही अत्यधिक प्रियपात्र थे। इसलिए उनके हजारों अनुयायियों के लिए उनका देहत्याग एक व्यक्तिगत क्षतिस्वरूप था।
कई दशक पहले भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान पूज्य बाबाजी एक 'सिद्ध पुरुष' के रूप में पहचाने गये। इस सम्बन्ध में एक कहानी है जो दक्षिण भारत के महान् सिद्ध पुरुष श्री स्वामी नित्यानन्द अवधूत से जुड़ी कहानी के समान है। श्री स्वामी नित्यानन्द जी केरल प्रान्त के हैं; बाद में वे मुम्बई के निकट वज्रेश्वरी में रहने लगे। इन दोनों सन्तों से जुड़ी ये घटनाएँ लगभग समान हैं।
एक बार बाबाजी पूर्वी उत्तर प्रदेश में कहीं भ्रमण कर रहे थे। चलते-चलते वे रेलवे स्टेशन पहुँचे। एक ट्रेन वहाँ रुकी हुई थी। बाबाजी ने थोड़ी दूर ट्रेन से यात्रा करने का विचार किया। वे ट्रेन में चढ़े और फर्स्ट क्लास कम्पार्टमेन्ट में बैठ गये। कुछ ही क्षणों में ट्रेन ने चलना प्रारम्भ कर दिया। थोड़ी देर बाद एक टिकट चेकर (टी.टी.) आया और उसने उच्च श्रेणी कम्पार्टमेन्ट में एक सीधे-सादे ग्रामीण व्यक्ति (बाबाजी) को बैठे देखा। वह बाबाजी के पास गया और उनसे टिकट दिखाने को कहा। बाबाजी ने एक बार उसकी ओर देखा और उसके बाद उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया। वे गहन चिन्तन में मौन बैठे रहे। टिकट चेकर थोड़ा क्रोधित हुआ। उन दिनों अधिकांशतः रेलवे कर्मचारी ब्रिटिश अथवा एंग्लो-इण्डियन होते थे। टिकट चेकर ने फिर से टिकट दिखाने को कहा। बाबाजी ने नकारात्मक मुद्रा में सिर हिलाते हुए उसे अपने खाली हाथ दिखा दिये। वह परिस्थिति को समझ गया और उसने कार्यवाही करने का निर्णय लिया। शीघ्र ही, एक गाँव के छोटे से स्टेशन पर ट्रेन रुक गयी। बाबाजी को ट्रेन से उतरने का आदेश दिया गया। बाबाजी इसकी अनुपालना करते हुए तुरन्त ट्रेन से उतर गये और कुछ कदम धूल भरे प्लेटफार्म पर चल कर एक पेड़ की छाया में बैठ गये। जो कुछ घटित हुआ, वे उससे पूर्णतया अप्रभावित लग रहे थे। उनके चारों ओर होने वाले घटनाक्रम पर उन्होंने ध्यान नहीं दिया। कुछ क्षणों में घंटी बजी, रेलवे गार्ड ने हरी झण्डी दिखायी। इन्जिन ने सीटी दी और चालक ने इन्जिन स्टार्ट किया, परन्तु इन्जिन स्टार्ट नहीं हुआ। अतः ट्रेन जहाँ की तहाँ खड़ी रही। कुछ मिनट के बाद, गार्ड ट्रेन से उतरा और इन्जिन चालक के पास इन्जिन के विषय में पूछने गया। इन्जिन में कहीं कोई समस्या नहीं थी, सब ठीक था। चालक ने पुनः सब जाँच की और इन्जिन स्टार्ट करने की कोशिश की। कोई परिणाम नहीं निकला। कुछ समय व्यतीत हो गया। स्टेशन मास्टर चिन्तित हो गया। इस स्टेशन पर आने वाली एक अन्य ट्रेन को किसी दूसरे स्टेशन पर रोका गया था। तार द्वारा सन्देश आने लगे। १५ मिनट, २० मिनट और आधा घंटा इस प्रकार बीत गया। चिन्ता बढ़ने लगी। तब रेलवे विभाग का एक अधीनस्थ कर्मचारी स्टेशन मास्टर के पास गया तथा उसने पेड़ के नीचे बैठे बाबाजी की ओर संकेत करते हुए बताया कि उन सन्त के प्रति अपमानपूर्ण व्यवहार के कारण यह स्थिति उत्पन्न हुई है। उसने सुझाव दिया कि इस कठिन समस्या के निवारण का एकमात्र उपाय बाबाजी से क्षमा माँगना और उनसे पुनः ट्रेन में यात्रा करने की प्रार्थना करना है। गार्ड एवं इन्जिन चालक को यह सन्देश पहुँचाया गया। पहले तो उन्होंने क्षमा माँगने से उग्रतापूर्वक मना कर दिया। परन्तु कुछ समय बाद, उन्हें सद्बुद्धि आयी। वे बाबाजी के पास गये, उन्हें सम्मानपूर्वक प्रणाम किया और अपने अभद्र व्यवहार की क्षमा याचना की। उन्होंने बाबाजी से ट्रेन को आशीर्वाद देने की प्रार्थना की तथा पुनः ट्रेन में बैठने के लिए आमन्त्रित भी किया। बाबाजी ने एक क्षण के लिए उन्हें देखा और कहा, “ठीक है, चलो। हम चलेंगे, हम चलेंगे।" जैसे ही बाबाजी ने ट्रेन में पुनः प्रवेश किया, इन्जिन एक झटके के साथ स्टार्ट हो गया और ट्रेन इस प्रकार चलने लगी जैसे कि कुछ हुआ ही न हो। इसी बीच वहाँ कुछ लोग एकत्रित हो गये थे, उन्होंने अत्यन्त उच्च स्वर में बाबाजी की जयकार की। इस घटना के बाद से कभी किसी रेलवे अधिकारी ने बाबाजी की स्वच्छन्द ट्रेन यात्रा में बाधा नहीं डाली।
गुरुदेव श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज की महासमाधि के बाद बाबाजी किस प्रकार दो बार शिवानन्द आश्रम आये, इस विषय में बताकर मैं इस लेख को समाप्त करूँगा। एक दिन अचानक अप्रत्याशित रूप से बाबाजी आश्रम आ पहुँचे। मेरे एक गुरुभाई श्री स्वामी निर्मलानन्द जी दौड़ते हुए मेरे पास आये और बाबाजी के आगमन की सूचना दी। श्री स्वामी निर्मलानन्द जी को बाबाजी के साथ कुछ असाधारण अनुभव पूर्व में हो चुके थे। मैं कमरे से बाहर आऊँ, इससे पहले ही बाबाजी ऊपर मेरे बरामदे में पहुँच चुके थे। मैंने उनके चरणों में प्रणाम किया, उन्हें अन्दर ले गया तथा एक आसन पर बैठाया। बाबाजी ने अत्यन्त अनुग्रहपूर्वक आश्रम के अन्तेवासियों तथा आश्रम की गतिविधियों के विषय में पूछा। मैंने उनके सभी प्रश्नों के उत्तर दिये और वे इससे अत्यन्त सन्तुष्ट दिखायी दिये। उन्होंने कहा, "बहुत अच्छा, बहुत अच्छा।" मैंने अपनी इच्छा अभिव्यक्त की कि वे यहाँ कुछ अल्पाहार ग्रहण करें। वे दूध लेने के लिए सहमत हुए। गाय का दूध एवं चीनी लाये गये। उन्होंने कृपापूर्वक दूध ग्रहण किया। इसी मध्य आश्रम के अन्य अन्तेवासी वहाँ आ गये थे। सबने बाबाजी को प्रणाम किया। मैंने बाबाजी से उन सबका परिचय कराया। प्रसन्नता से प्रदीप्त उनका मुख सबके लिए आशीर्वादस्वरूप था। उन्होंने आश्रम अस्पताल के कार्य की सराहना की। वे कुछ समय तक हमारे साथ रहे। फिर उन्होंने कहा कि वे अब जायेंगे और वे जाने के लिए खड़े हुए । हम सब उनके पीछे चलने लगे। जब सीढ़ियाँ उतर कर वे सड़क पर पहुँचे, उन्होंने आशीर्वाद हेतु अपना हाथ उठाया और साथ ही हमें रुकने तथा उनके पीछे नहीं आने का संकेत दिया। इसके बाद उन्होंने सड़क पर चलना प्रारम्भ किया और शीघ्र ही वे दृष्टि से ओझल हो गये।
कुछ वर्षों के पश्चात्, इसी तरह एक दिन अचानक बाबाजी पुनः आश्रम आये। इस बार वे ऊपर नहीं आये। नीचे के एक कमरे में ही बैठे तथा आश्रम के साधकों एवं भक्तों को दर्शन दिये। उन्होंने कुछ जिज्ञासुओं से व्यक्तिगत भेंट की। कुछ घण्टों के बाद उन्होंने आश्रम से प्रस्थान किया। आश्रम में उनका यह अन्तिम आगमन था।
देह-त्याग से पूर्व बाबाजी ने एक अमरीकी जिज्ञासु रिचर्ड एल्पर्ट के जीवन में परिवर्तन लाकर कृपा एवं आशीर्वादपूर्ण एक अत्यन्त विशिष्ट कार्य सम्पन्न किया। अमरीकी ड्रग कल्ट के सुविख्यात नेता तथा हावर्ड यूनिवर्सिटी के भूतपूर्व प्रोफेसर रिचर्ड नैतिक एवं आध्यात्मिक संकट की अवस्था से गुजर रहे थे जब बाबाजी ने अत्यन्त रहस्यपूर्ण रूप से उन्हें अपनी ओर आकर्षित किया तथा अपने कृपा-कटाक्ष से आशीर्वादित किया। उस प्रथम दर्शन एवं आशीर्वाद से अशान्त रिचर्ड के जीवन में एक चमत्कार घटित हुआ और शीघ्र ही वे एक आध्यात्मिक उपदेशक के रूप में परिवर्तित हुए; आज वे अपने हजारों अनुयायियों द्वारा बाबा रामदास के नाम से जाने जाते हैं। इस कहानी का वर्णन रामदास की पुस्तक 'बी हिअर नाउ (Be Here Now)' में किया गया है। यह अत्यन्त रोचक पुस्तक पूज्य बाबा नीम करौली जी एवं उनके अद्भुत और आश्चर्यपूर्ण व्यक्तित्व के विषय में रुचिकर अन्तः दृष्टि प्रदान करती है।
हे स्नेह और करुणा के आराध्य देव!
तुम्हें नमस्कार है, नमस्कार है।
तुम सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान् और सर्वज्ञ हो ।
तुम सच्चिदानन्दघन हो । तुम सबके अन्तर्वासी हो।
हमें उदारता, समदर्शिता और मन का
समत्व प्रदान करो।
श्रद्धा, भक्ति और प्रज्ञा से कृतार्थ करो।
हमें आध्यात्मिक अन्तःशक्ति का वर दो,
जिससे हम वासनाओं का दमन कर
मनोजय को प्राप्त हों।
हम अहंकार, काम, लोभ, घृणा, क्रोध और
द्वेष से रहित हों।
हमारा हृदय दिव्य गुणों से परिपूरित करो।
हम सब नाम-रूपों में तुम्हारा दर्शन करें।
तुम्हारी अर्चना के ही रूप में इन नाम-रूपों की सेवा करें।
सदा तुम्हारा ही स्मरण करें।
सदा तुम्हारी ही महिमा का गान करें।
तुम्हारा ही कलिकल्मषहारी नाम हमारे अधर-पुट पर हो।
सदा हम तुममें ही निवास करें।
-स्वामी शिवानन्द